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Sunday, February 28, 2016

कैक्टस के मोह में बंधा एक मन-भाग १८- महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला

एक जानवर शायद इंसान के भीतर बहुत गहराई में छुपा रहता है. कभी वो किसी रूप में बाहर आता है कभी किसी रूप में लेकिन हिंसा के बिना वो जानवर संतुष्ट नहीं हो पाता. शायद इसी लिए विश्व में हर थोड़े थोड़े समय बाद कहीं न कहीं युद्ध के बादल मंडराने लगते हैं और युद्ध को रोकने की लाख कोशिशों के बावजूद कहीं न कही युद्ध शुरू हो ही जाता है और न जाने कितने लोग उस युद्ध की आग में स्वाहा हो जाते हैं. मेरे शहर बीकानेर की आज की अधिकाँश पीढ़ी इस बात से अनजान ही होगी कि यद्यपि बीकानेर के शासकों ने हमेशा केंद्र के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाए रखे हैं चाहे केंद्र में मुग़ल शासक रहे या अंग्रेज़, समय समय पर बीकानेर के योद्धाओं ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जाकर विभिन्न युद्धों में भाग लिया और अपनी वीरता के जौहर दिखाए.


आज जिस इराक में आग लगी हुई है बीकानेर का कौन युवक सोचेगा कि  विश्वयुद्धों के दौरान बीकानेर के गंगा रिसाले, सादुल इन्फेंट्री और विजय बेट्री के योद्धाओं ने अंग्रेजों की और से वहाँ युद्ध किया है और बीकानेर के ऊँट वहाँ के ऊंटों पर भारी पड़े और बीकानेर के योद्धा वहाँ के योद्धाओं पर. सन १९८० में बीकानेर के लालगढ़ पैलेस में बैठे हुए तत्कालीन महाराजा करणी सिंह जी ने अपने जीवन की एक घटना मुझे सुनाई थी. इससे पहले कि मैं वो घटना सुनाऊँ, मैं अपने जीवन की १९७८ की एक घटना सुनाना चाहूँगा. मैं आकाशवाणी बीकानेर पर ट्रांसमीशन एक्जिक्यूटिव के पद पर कार्यरत था. गंगाशहर के एक संस्थान में एक समारोह था जिसमे मुख्य अतिथि थे बीकानेर के महाराजा, भूतपूर्व सांसद और ओलंपियन डॉक्टर करणी सिंह जी. मुझे कवरेज की ड्यूटी मिली थी. मैं अपने साथ इंजीनियर और टेक्नीशियन को लेकर वहाँ पहुंचा तो देखा कि कोई नहीं आया था. हॉल खाली पड़ा हुआ था. मैं स्टेज पर खडा हो गया और माइक वगैरह लगवाने लगा. तभी देखा कि महाराजा साहब की गाड़ी आकर हॉल के बाहर खडी हुई. मैंने इधर उधर देखा, हॉल में आयोजनकर्ता भी मौजूद नहीं थे. मैंने एक पल को सोचा और स्टेज से उतर कर महाराजा साहब की अगवानी करने दरवाज़े पर पहुँच गया. महाराजा साहब अपनी कैडलक कार से उतरे. मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया और उन्हें लेकर स्टेज की तरफ चला मानो मैं ही कार्यक्रम का आयोजक हूँ. महाराजा साहब मेरे साथ आकर स्टेज पर बैठ गए. मेरी आँखें इधर उधर आयोजकों को ढूंढ रही थी कि महाराजा साहब ने कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा “बैठिये........ “मैं उनके पास बैठ गया. बात उन्होंने शुरू की.
“आप का परिचय? आप आयोजक हैं शायद.......”
“जी नहीं हुकुम, मेरा नाम महेंद्र मोदी है और मैं आकाशवाणी में काम करता हूँ, आपकी रिकॉर्डिंग के लिए हाज़िर हुआ हूँ.”
“तो फिर.......? ये लोग कहाँ हैं? आयोजन करने वाले ?”
“जी ये तो पता नहीं मुझे, आप पधारे तो मुझे लगा मुझे आपके स्वागत की ड्यूटी भी करनी चाहिये.”
ये सुनकर वो ठहाका मार कर हंस पड़े. मुझे भी उनकी हंसी में उनका साथ देना पड़ा, मगर मैंने खुद अपनी हंसी को सुना, मुझे वो थोड़ी खिसियानी सी लगी.
फिर वो पूछने लगे “ आप रहने वाले कहाँ के हैं?”
“ बीकानेर का ही हूँ हुकुम”
“अच्छा अच्छा.........पढाई लिखाई?”
मैंने कहा “डूंगर कॉलेज से अर्थशास्त्र में एम् ए और पत्रकारिता में पी जी किया है.”
इतना सुनते ही वो राजस्थानी में बात करने लगे. मेरे पिताजी के बारे में पूछा, फिर मेरे ताऊजी यानि “बा” के बारे में बात होने लगी. ताऊ जी को वो अच्छी तरह जानते थे क्योंकि जब उन्होंने पी एच डी की तब ताऊ जी और उनके एक वरिष्ठ सहयोगी नरोत्तम दास जी स्वामी ने उन्हें काफी सहयोग दिया था. मैंने उन्हें अपने बड़े मौसा जी श्री गंगाधर जी के बारे में बताया जो बीकानेर राज्य में एस डी एम थे. पूरा परिचय जानकर वो बहुत खुश हुए और बोले “अरे आप तो घर रा ही टाबर(बच्चे) हो. दीना नाथ जी (मेरे ताऊजी ) रे परिवार सूं राजघराने रा अच्छा सम्बन्ध रया है अर गंगाधर जी म्हारै राज्य रा बहुत योग्य अफसर हा. ”
कुछ क्षण चुप रहकर बोले “आप री शादी हुगी”
मैंने कहा “जी हुकुम”
“बच्चा?”
“जी एक लडको है अर एक लड़की”
“अच्छा, ससुराल किसी जगह है”
मुझे पता था कि मेरे जवाब पर वो चौंकेंगे इसलिए मैं मुस्कुराया और बोला  “आपरै ससुराल रै पड़ोस में.”
वो एकदम से चौंके “मतलब.........? डूंगरपुर रै आसपास है?”
“जी नहीं........ डूंगरपुर में ही है.”
“अच्छा?”
“जी..... म्हारै ससुर जी रो नाम कुरी चंद जी जैन है. आपरा ससुर जी महारावल साहब अर म्हारा ससुर जी धरम भाई है.”
इतना सुनते ही वो कुर्सी से उठ खड़े हुए और गले मिलते हुए बोले “ओहो तो आप भाई साहब रा जंवाई हो? ” मेरे ससुर जी स्वतन्त्रता सेनानी और कॉंग्रेसी नेता थे एवं पूरे इलाके में भाई साहब के नाम से विख्यात थे.
कुछ सेकंड रूककर फिर वो बोले
“ महेंदर जी आपां तो साढू भाई हां. अबै वादो करो, मिलता रैसो.”
मैंने मिलते रहने का वादा किया. हमने आस पास देखा. आयोजक आकर हमारे भरत मिलाप के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. कार्यक्रम शुरू हुआ और मैं रिकॉर्डिंग की अपनी ड्यूटी में लग गया.


इसके बाद अक्सर मैं उनसे मिलने लालगढ़ पैलेस जाने लगा. अगर कई दिन तक नहीं जा पाता तो पैलेस से फोन आ जाता कि महाराजा साहब याद फरमा रहे हैं, तब तो जाना ही पड़ता. जब भी जाता देर तक गपशप होती. वो कभी ओलम्पिक के अपने अनुभव सुनाते कभी अपने देश विदेश के दौरों के बारे में बताते. एक दिन अपने दादा जी महाराजा गंगा सिंह जी के बारे में बात करते हुए बताया था  “सन १९४० में गंगा रिसाला अंग्रेजों की तरफ से युद्ध में भाग लेने मध्य पूर्व गया था और १९४२ में वापस लौटा. इसी दौरान महाराजा गंगा सिंह जी उसका निरीक्षण करने गए तो मैं भी उनके साथ गया था. हमारी रिसाले के जवानों से अदन में मुलाक़ात हुई. हर तरफ रिसाले की तारीफ़ हो रही थी.”

एक मुलाक़ात के दौरान महाराजा करणी सिंह जी ने अपनी लिखी पुस्तक “बीकानेर के राजघराने का केन्द्रीय सत्ता से सम्बन्ध” मुझे भेंट की, जो आज तक मेरे पास सुरक्षित है. कुछ ही समय बाद मेरा बीकानेर से तबादला हो गया. लेकिन समय समय पर मेरी उनसे मुलाकातें होती रहीं जो बहुत ही खुशगवार थीं. उनका व्यक्तित्त्व बहुत प्रभावशाली था और वो इतने नम्र स्वभाव के थे कि हमेशा मुस्कुराते रहते थे और अपने से बहुत छोटों को भी “जी” और “आप” के साथ ही संबोधित करते थे.
१९४७ से पहले बीकानेर के लोगों का जब भी युद्ध से वास्ता पड़ा वो गैरों के लिए ही पड़ा परन्तु भाग्य का खेल देखिये कि प्रकृति सदैव इस क्षेत्र के लिए अत्यंत निष्ठुर बनी रही. विधाता ने बीकानेर क्षेत्र को कोई नदी नहीं दी, इतना खराब मौसम. साल में छ महीने सर्दी और छ महीने गर्मी. पूरे साल भर में बरसात का औसत मात्र १२ इंच. सर्दी ऐसी कि जैसे बीकानेर डिवीज़न के एक कस्बे चूरू के तार सीधे श्रीनगर से जुड़े हुए हों और गर्मी ऐसी कि तौबा तौबा पारा ५० डिग्री के पार पहुँच जाए. हर सात साल में छह साल अकाल. हमारी इतनी परीक्षाएं ही काफी नहीं थी शायद ऊपर वाले की नज़र में कि १९४७ में जब विभाजन होने लगा तब भी गाज इसी इलाके पर पडी. हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को विभाजित करने वाली रेखा को भी इधर से ही निकालना था. अब बीकानेर डिवीज़न एक सीमावर्ती क्षेत्र बन गया. इसका अर्थ तो यही हुआ कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच कोई युद्ध की कार्यवाही होगी इस क्षेत्र का इंसान ही सबसे ज़्यादा उसे भुगतेगा.  

बीकानेर सम्भाग का श्री गंगानगर जिला भी घनघोर रेगिस्तान था मगर महाराजा गंगा सिंह जी की दूरदर्शिता के फलस्वरूप सतलज नदी से निकली गंग नहर ने पूरे जिले को सरसब्ज़ कर दिया. हालांकि इस नहर के निर्माण के बीच कई बाधाएं आईं लेकिन महाराजा गंगा सिंह जी के सम्बन्ध अंग्रेजों से हमेशा से अच्छे बने हुए थे इसलिए ये बाधाएं गंग नहर के निर्माण का रास्ता नहीं रोक पाईं. सबसे बड़ी बाधा थी एक अंतर्राष्ट्रीय नियम कि अगर कोई नदी किसी राज्य के किसी भी हिस्से को छूकर भी न निकले तो उस राज्य को उस नदी का पानी नहीं मिल सकता. सतलज तत्कालीन बीकानेर राज्य के किसी भी भू भाग को छूकर नहीं निकलती थी, इस बात को लेकर इस नहर के निर्माण का काफी विरोध हुआ लेकिन महाराजा गंगा सिंह जी अड़े रहे और आखिर अंग्रेज़ सरकार को उनकी बात माननी पडी और सन १९२७ में गंग नहर का पानी गंगानगर पहुँच गया. कहते हैं प्राचीन समय में कभी राजस्थान के पूरे रेगिस्तानी इलाके में समंदर था जो भौगोलिक परिवर्तनों के कारण कुछ हज़ार वर्ष पहले वहाँ से हट गया और वहाँ थार का रेगिस्तान बन गया.१९२७ से १९४७ के बीच के बीस सालों में, हज़ारों सालों से प्यासी पडी धरती की प्यास भी नहीं बुझी थी कि विभाजन के रूप में एक और मुसीबत आ खडी हुई. पंजाब का भी विभाजन होना था और इस बात की संभावना बन रही थी कि फिरोजपुर पश्चिमी पंजाब में चला जाएगा. फिरोजपुर हैडवर्क्स से ही गंग नहर निकलती थी. अगर फिरोजपुर हैडवर्क्स पर पाकिस्तान का कब्ज़ा हो जाता है तो वो गंग नहर को पानी क्यों देगा. महाराजा डॉक्टर करणी सिंह जी  अपनी पुस्तक “बीकानेर के राज घराने का केन्द्रीय सत्ता से सम्बन्ध” में एक स्थान पर लिखते हैं “इस प्रकार जब निजी सूत्रों से यह बात मालूम हो गयी कि मुस्लिम लीग फिरोजपुर हैडवर्क्स से पानी दिए जाने पर नियंत्रण का दावा कर सकती है, तो बीकानेर के प्रधानमंत्री ने सरदार पटेल को एक पत्र लिखकर इस स्थिति से अवगत करवाया और उन्हें बताया कि राष्ट्र के विभाजन के बाद फिरोजपुर निश्चित रूप से भारतीय क्षेत्र में ही रहना चाहिए. सतलज घाटी नहरों से बीकानेर इलाके की एक हज़ार वर्ग मील से अधिक भूमि सींची जाती है. यदि मुस्लिम लीग के दावे को स्वीकार किया गया तो रियासत के हितों को बहुत हानि पहुंचेगी.”
ब्रिटिश सरकार मुस्लिम लीग के दावे को खारिज कर दिया. इस तरह गंग नहर बंद होने से बच गयी, गंगानगर बच गया और बीकानेर भी एक मायने में बच गया क्योंकि गंगानगर में जितना कृषि उत्पादन होता था, पूरा बीकानेर संभाग उसी पर आधारित था. गंगानगर से मेरा काफी गहरा सम्बन्ध रहा क्योंकि जैसा कि मैं शुरू के भागों में लिख चुका हूँ, इसी जिले के एक छोटे से गाँव चूनावढ़ में मेरे बचपन के कई साल गुज़रे, पदमपुर में मेरे ताऊजी कई बरस तक स्कूल के  हैडमास्टर रहे और इसी जिले के एक तहसील हैडक्वार्टर रायसिंहनगर में मैं कई बार थोड़े थोड़े समय के लिए रहा. सबसे पहले तो जब उसवक्त मेरे मौसा जी वहाँ तहसीलदार थे, फिर कॉलेज टाइम में जब वहाँ का एक लड़का अशोक बंसल मेरा बहुत अच्छा दोस्त बन गया था और फिर मेरे पिताजी के एक बहुत गहरे दोस्त बहादुर राम चाचा जी की बेटी किरण की शादी वहाँ के कॉलेज के प्रोफेसर और प्रख्यात साहित्यकार डॉक्टर मंगत बादल जी से हो गयी जिनके साथ आगे चलकर मेरे सम्बन्ध इस क़दर प्रगाढ़ हो गए कि हर अच्छे और बुरे वक्त में वो हमेशा  मुझे सगे भाई की तरह मेरे साथ खड़े दिखाई देने लगे.

स्वतन्त्रता प्राप्ति के कई बरस बाद तक हर विभाग के अधिकाँश बड़े बड़े और महत्त्वपूर्ण पदों पर अँगरेज़ अफसर ही काबिज थे. तहसीलदार, एस डी एम, कलक्टर...... इन पदों पर कोई भारतीय बिरले ही पहुंचता था. मेरे बड़े मौसा जी गंगाधर जी चाहे तहसीलदार रहे, चाहे एस डी एम, उनका शुमार बहुत अच्छे और् योग्य अफसरों में होता था. रात दिन उनका उठाना बैठना अंग्रेजों के साथ ही रहता था इसलिए उनके जीने का अंदाज़ भी उसी तरह का था. मेरी बड़ी मौसी जी लिखने के नाम पर तो बड़ी मुश्किल से दस्तखत की जगह अपना नाम आशा देवी लिख सकती थीं लेकिन उनसे बात करके कोई समझ नहीं सकता था कि वो अनपढ़ हैं क्योंकि जब बोलने लगती थीं तो फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलती थीं. अँगरेज़ मेमों के साथ गेम्स खेलना, शराब पीना, सिगरेट पीना और आये दिन पार्टियों में जाना मौसा जी के साथ साथ, मेरी मौसी जी की दिनचर्या के भी आवश्यक अंग थे. बहुत बड़ा सा घर था उनका, बहुत शानदार. अव्वल तो मौसा जी-मौसी जी की शाम किसी क्लब में गुज़रती थी लेकिन जब कभी घर में होते तो एक ऊंचे बरामदे में बैठकर दोनों सिगरेट के कश लिया करते थे और साथ में शराब के घूँट. उनके घर में एक बड़ी सी तिजोरी थी जिसमें बेशुमार दौलत सोने के रूप में जमा थी. इतना सोना मैंने अपने जीवन में और कहीं नहीं देखा. बेचारी चांदी को उस तिजोरी में कोई जगह नहीं मिलती थी. चांदी के सिक्के तो बोरियों में भरे हुए कोनों में पड़े बिसूरते रहते थे.
आये दिन सेठों के यहाँ से डालियाँ(सोने और चांदी से भरे हुए थाल, भेंटस्वरूप) आया करती थीं और नौकर चाकरों की एक फ़ौज उन डालियों को मौसी जी के सामने रखती थी. मौसी जी सोना उठाकर तिजोरी में रख देती थीं और चांदी के सिक्के नौकर लोग बोरियों में डालकर रख देते थे. ये वो समय था जब एक रुपये का सिक्का चांदी का ही होता था. यानि एक तोला चांदी का असली मोल एक रुपये से भी कम होता था.
लेकिन इतने धनवान मौसा जी-मौसी जी के कोई संतान नहीं थी. मौसा के एक छोटे भाई थे कानजी. बड़े भाई इतने पढ़े लिखे, राज्य के बड़े अफसर और छोटे भाई साफ़ अंगूठा छाप. अपने एक और भाई से घड़ीसाज़ का थोड़ा बहुत काम सीख लिया और मौसाजी ने एक दुकान खुलवा कर दे दी. जब मन होता, तभी दुकान पर बैठते और कोई घड़ी ठीक करवाने आ जाता तो वो एक ही सलाह देते. “भाई जी.... इस घड़ी को सामने जा रहे ट्रक के पहिये के नीचे रख दो. बेकार हो गयी है ये घड़ी”

बस एक काम वो बहुत मन लगा कर करते थे. बीकानेर के किले में बहुत सी घड़ियाँ लगी हुई थीं. उस ज़माने में आज की तरह इलेक्ट्रौनिक घड़ियाँ तो थीं नहीं, जो भी घड़ियाँ या घड़ियाल लगे हुए थे सबमे चाबी भरनी पड़ती थी. इस काम के लिए उन्हें सप्ताह में दो बार किले में जाना होता था. उस दिन वो खूब अच्छी तरह नहा धोकर सफ़ेद झक कपडे पहनकर कान में इत्र का फाहा लगाकर बैठ जाते थे. किले से एक बग्घी आती थी, वो बग्घी पर सवार होकर बड़ी शान से किले में जाते थे और वहाँ की घड़ियों में चाबी भरकर वापस बग्घी से घर लौटते थे.

मेरी छोटी मौसी की एक ही औलाद थी, लिछम बाई. मौसा जी और मौसी जी ने सोचा कि अगर लिछम बाई की शादी कान जी से करवा दी जाय तो उनके जो औलादें पैदा होंगी उनमे दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व हो जाएगा.
बस यही सोचकर कानजी और लिछमबाई की शादी करवा दी गयी. मैं जब थोड़ा बड़ा हुआ तो अपने ननिहाल के परिवार को देखकर थोड़ा ताज्जुब होता था कि पहले शादी ब्याह किस प्रकार तय होते थे? मेरे नाना जी ने क्या सोचा होगा जब अपनी तीन बेटियों की शादियाँ तय की होंगी? मेरे बड़े मौसा बिलकुल अंग्रेजों की लाइफ स्टाइल जीने वाले और बेशुमार ज़मीन जायदाद के मालिक राज्य के नामी अफसर. दूसरे नंबर पर मेरे छोटे मौसा जी चुन्नी लाल जी बिलकुल अंगूठा छाप और अपने कंधे पर एक छोटी सी पेटी रखकर बनियों की बस्ती में घूम घूमकर चूरन बेचने वाले और तीसरे नंबर पर मेरे पिताजी, पुलिस में नौकरी करने वाले लोअर मिडिल क्लास के इंसान. क्या कभी मेरे नाना जी के ज़मीर ने उन्हें नहीं कचोटा होगा कि तीनो लड़कियों के आर्थिक स्तर में कितना अंतर रहेगा? और क्या कभी उनकी बेटियों ने उनसे सवाल नहीं किया होगा कि क्या सोचकर आपने हमें अलग अलग आर्थिक स्तर के घर में ब्याह दिया? मैंने एक बार बचपन में अपनी माँ से ये सवाल किया था. उनका जवाब था, शादी ब्याह तो ऊपर से तय होकर ही आते हैं. जिसका जैसा भाग्य वैसा ही घर तो मिलेगा, इसमें किसी को भी क्या दोष देना?

लिछम बाई की शादी अपने भाई की दौलत पर शहंशाह की ज़िंदगी जीने वाले कानजी से करवा दी गयी. उनके तीन औलादें हुईं, मोहिनी, मोहन और शंकर. मोहिनी मुझसे दो साल बड़ी थी मोहन मुझसे एक साल छोटा और शंकर मुझसे चार साल छोटा. लिछम बाई ने अपनी ड्यूटी निभा दी थी, इस घर को तीन औलादें देकर. कान जी की इज्ज़त भी घर में बढ़ गयी थी. नौकर चाकर बच्चों का पालन पोषण किया करते थे. चूनावढ के बाद दूसरा ग्रामोफोन मैंने मोहन-शंकर के पास ही देखा. तीन पहियों की साइकिल, बच्चों की पैडल वाली कार और ऐसे ही न जाने कितनी तरह के खिलौने जो हम जैसों को नसीब नहीं थे, हमने मौसी जी के घर में ही देखे.
एक दिन जब मौसा जी की रायसिंहनगर में पोस्टिंग थी और हम लोग गर्मी की छुट्टियों में उनके यहाँ गए हुए थे. बहुत बड़ा सा बँगला था जिसकी चारदीवारी के बाहर एक बड़ा सा नाला था. मैंने देखा, मोहन घर के अंदर से एक थाली में एक एक रुपये के चांदी के सिक्के लाता और फिर एक एक करके उस नाले में डालने लगता. जब सारे सिक्के खतम होते तो वो फिर अंदर से थाली भरकर ले आता. मैंने मोहन को कहा, “मोहन तुम रुपये क्यों फ़ेंक रहे हो नाले में?”
उसका जवाब था “मेरी मर्जी. मेरे हैं रुपये.”
मुझे लगा इस तरह रुपये फेंकना कोई अच्छी बात नहीं है, मुझे मौसी जी को बताना चाहिए. मैं भागा हुआ अंदर गया और मौसी जी को बताया कि मोहन रुपये नाले में फ़ेंक रहा है. मौसी जी      मेरे साथ बाहर आईं और बाहर का नज़ारा देखा. मोहन बड़े इत्मीनान से एक एक सिक्का नाले में डाल रहा था और साथ में गिनता जा रहा था चालीस...... इकतालीस. मौसी जी ने झट से उसका हाथ पकड़ा और डांटा........ “कईं करै है ?”
बस इतना सुनना था और मोहन ने रुपयों से भरी पूरी थाली को नाले में फेंका और जोर से चिल्लाते हुए अंदर की ओर भागा “ओ बाबो सा....... माँ सा मारै ओ......... ओ बाबो सा ओ.” मोहन की चिल्लाहट सुनकर मौसा जी कमरे से बाहर आये......और बोले “क्या हो गया मेरे बच्चे को ?”
मौसी जी ने कहा “झूठ बोल रियो है मैं नईं मारयो ईने...... पण देखो नी .......कलदार नाळै में फ़ेंक रियो है.”
मौसा जी ने मोहन को गोद में उठा लिया और पुचकारते हुए बोले “ क्यों बेटा रुपये नाले में क्यों फ़ेंक रहे थे?”
पुचकारने से मोहन का रोना और भी बढ़ गया था. वो रोते रोते बोला “ मैं तो गिनती सीख रियो हो.”
मौसाजी ठहाका लगाकर हंस पड़े और हँसते हँसते मौसी जी से बोले “आप भी कमाल करती हैं........ अरे गिनती सीख रहा था हमारा बच्चा.......और खेल में लगा बच्चा अगर सौ पचास रुपये वैसे भी फ़ेंक दे तो क्या फरक पड़ता है?चुप हो जा बेटा चुप हो जा........... लाओ भाई थाली भरकर रुपये लाकर दो हमारे बेटे को कोई.......”
और पास ही खड़े नौकर ने भागकर हुकुम का पालन किया. रुपयों की पहले से बड़ी एक थाली लाकर मोहन बाबू को दी गयी और वो फिर वहीं बैठकर विजयी मुस्कान के साथ मेरी तरफ और मौसी जी की तरफ देखते हुए, नाले में रुपये डालने लगा .....एक.......दो........तीन........
मैं सन्न सा एक कोने में खडा हुआ ये सारा नाटक देख रहा था. एक कलदार का क्या मोल होता है, ये उस वक्त तो मैं नहीं जानता था लेकिन मुझे बड़ा होने के बाद अक्सर ये घटना याद आती थी और मैं सोचता था, क्यों नहीं मौसा जी ने उस वक्त मोहन को ऐसा करने से रोका. अगर वो लाड प्यार को थोड़ी देर के लिए भुलाकर मोहन को ऐसा करने से रोक देते तो शायद होनी को भी मोहन पर थोड़ी दया आ जाती और वो इस तरह उससे गिन गिनकर बदले न लेती.

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Tuesday, February 23, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन – भाग १७

भंवरी दूसरे ससुराल जा चुकी थी और अमरू की जेब फिर से भारी हो गयी थी. उसने गाडा चलाना फिर से छोड़ दिया था. फिर वही दिन भर जुआ खेलना शाम को दारू पीना और रात में मार पीट, हंगामा करना.......क्योंकि दस हज़ार रुपये उसकी जेब में आ चुके थे और उस ज़माने में दस हज़ार रुपये का क्या अर्थ था, आज की पीढ़ी के लिए ये समझना थोड़ा मुश्किल काम है. मेरी दादी जी जिन्हें पूरा मोहल्ला दादा के नाम से पुकारता था, अम्मल (अफीम) खाती थीं. हम लोग छोटे छोटे थे तो मुझे याद है, पिताजी दादी जी को चार तोला अम्मल (अफीम) दिलवाने के अलावा जो हाथ खर्च यानि पॉकेट मनी देते थे वो होती थी महज़ दो रुपया महीना. उन दो रुपयों में वो अपनी पसंद की खाने पीने की और दूसरी ज़रूरत की चीज़ें भी खरीद लेती थीं और कुछ पैसा हम दोनों भाइयों पर भी खर्च कर देती थीं.


ये वो वक्त था जब विज्ञान के मामले में भारत अभी अपने क़दम आगे नहीं बढ़ा पाया था क्योंकि अभी तो देश आज़ाद ही हुआ था और पंचवर्षीय योजनाओं का खाका बना कर प्रगति की सीढियों का निर्माण हो रहा था. नेहरु ने पंचशील का सिद्धांत दुनिया के सामने रखा. शान्ति और सह अस्तित्व के पांच मूलभूत सिद्धांत जिनपर चलकर पूरा विश्व बिना आपस में लड़े रह सकता है. पूरा एशिया दूसरे विश्वयुद्ध में तबाह हो चुका था और नेहरू की नेतागिरी को प्रकट रूप से स्वीकार करने को तैयार हो गया था हालांकि १९६२ में इस पूरे पंचशील की हवा निकल गयी जब चीन ने १९५४ की शान्ति संधि के बावजूद भारत पर आक्रमण कर दिया. नेहरू ने इससे भी आगे बढ़कर मिस्र के राष्ट्रपति नासिर और युगोस्लाविया के मार्शल टीटो के साथ मिलकर नॉनअलाइन्ड देशो का एक खेमा बनाया और पूरे विश्व की नेतागिरी करने की ठान ली. भारत को विश्व में शान्ति का दूत सिद्ध करने में लगे नेहरू युद्ध सामग्री बनाने वाले कारखानों में बहुत शान से मिक्सर ग्राइंडर बनवाने लगे और उनके निर्यात से भारत की खुशहाली का सपना देखने लगे. उनका मानना था कि भारत तो शांतिदूत का कार्य कर रहा है, पूरे विश्व को शान्ति का रास्ता दिखा रहा है, उस पर भला आक्रमण कौन करेगा? इधर चीन में माओत्से तुंग और चाऊ एन लाई की जोड़ी तेज़ी से हथियारों के ज़खीरे इकट्ठे कर रही थी ताकि भारत पर आक्रमण कर सके. पाकिस्तान भी १९४७ में पूरे कश्मीर पर अधिकार ना कर पाने पर तिलमिलाया हुआ बैठा था और मौक़ा ढूंढ रहा था। भारत पर हमला करने का. नेहरू पूरे विश्व की नेतागिरी के सपने देख रहे थे और इधर कई कांग्रेसी नेता देश पर उसी तरह परीक्षण कर रहे थे जैसे कि प्रयोगशाला में गिनीपिग पर किये जाते है.

दवाओं के नाम पर बहुत मूलभूत दवाएं भी उपलब्ध नहीं थीं. बाज़ार में या तो आर एम् पी डॉक्टर थे, या नीम हकीम या चूरन की पुडिया वाले वैद्य, या फिर मेटिरिया मेडिका बगल में दबाये मीठी गोलियाँ देने वाले होमियोपैथिक डॉक्टर. नतीजा ये कि हर चार में से एक इंसान अफीम खाता था. उस ज़माने में हर मर्ज़ की एक ही दवा थी अफीम. हालांकि जब तक मैं समझने लगा, अफीम पर सरकारी कंट्रोल हो गया था लेकिन तब भी हर मोहल्ले में अफीम और पोस्त की कम से कम एक दुकान होती थी. हर एक को अफीम की एक निश्चित मात्रा ही मिलती थी. जब अफीम की वो मात्रा पूरी नहीं पड़ती थी तो लोग पोस्त के डोडे उबालकर उसे छानकर पीते थे. अफीम के हर अभ्यस्त के होठों पर एक ही शिकायत रहती थी कि क्या करें आजकल अफीम अच्छा नहीं आता इसलिए डोडा पोस्त उबालकर पीना पड रहा है. पता नहीं वास्तव में अफीम की क्वालिटी खराब हो गयी थी या फिर जैसा कि हर नशे के साथ होता है, उनके शरीर को एक निश्चित स्तर तक नशा आने के लिये अफीम की मात्रा बढ़ती जा रही थी. मेरे खुद के परिवार में मेरी दादी जी, मेरे बड़े मामा, बड़ी मामी और छोटी मौसी बाकायदा नियम से अफीम लेते थे . इनमे से किसी को भी जम्हाइयां आने लगती तो हम बच्चों तक को पता चल जाता था कि इनका नशा उतर गया है, अब ये अफीम लेंगे. मुझे अफीम की वो कड़वी कड़वी गंध आज भी याद है. हालांकि मेरे पिताजी बच्चों को अफीम देने के कड़े विरोधी थे मगर मेरी दादी जी कई बार कोई दर्द होने पर या और भी न जाने क्या क्या होने पर उनकी नज़र बचाकर हमें अफीम दे दिया करती थीं इसलिए मुझे अफीम का वो कड़वा कड़वा स्वाद भी आज तक याद है. मुझे ये भी बहुत अच्छी तरह याद है कि अफीम स्वाद और गंध दोनों में कड़वा होता है लेकिन फिर भी उसमे एक अजीब सा आकर्षण होता है. जो भी एक बार उसे चख लेता है उसका मन उसे बार बार खाने को करता है. ये कहा जाता था कि एक बार जिस शरीर मे अफीम पहुँच जाता है, वो शरीर कभी न कभी उसकी मांग ज़रूर करता है. इसीलिये एक बार अफीम खाना शुरू करने के बाद इंसान उसे कभी नहीं छोड़ सकता. उन दिनों एक तरफ जहां कुछ लोग किसी तकलीफ की वजह से अफीम खाते थे वहीं कुछ लोग मज़े के लिये और अपने आपको अभिजात्य वर्ग का सिद्ध करने के लिए इसकी आदत पाल लेते थे क्योंकि अफीम गरीबों का शौक नहीं था. गरीबों के लिये भांग, देसी शराब जैसे नशे मौजूद थे जबकि अफीम राजा महाराजाओं और बड़े बड़े ठाकुरों के घरों और दरबारों मे चलती थी. इन दरबारों मे बाकायदा मेहमानों की कसुम्बे यानि अफीम के घोल से मनुहार की जाती थी. इसी अफीम के नशे के बल बूते पर बड़े बड़े शूरवीरों ने न जाने कितने युद्धों में अपने शरीर पर अनगिनत घाव झेलकर भी घुटने नहीं टेके. राजस्थान के इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जब अफीम के नशे में सैनिकों की गर्दन कट जाने के बावजूद बहुत देर तक उनके धड लड़ते रहते थे.
मेरे मामा और मामी सिर्फ मज़े के लिए या यों कहें कि नशे का आनंद लेने के लिए अफीम खाते थे लेकिन मेरी दादी जी ने अफीम खाना मजबूरी में शुरू किया था या ये कहें कि हमारे कुछ रिश्तेदारों ने अपने स्वार्थ के लिए उन्हें अफीम की आदत डाल दी थी.


मैंने ५ वें भाग में इस विषय में लिखा था कि बीसवीं सदी की शुरुआत में जब मेरे पिताजी पौने दो साल के थे, प्लेग की महामारी फैली थी. मेरे दादा जी क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे. मेरे पिताजी के अलावा उनके १० और औलादें थीं. प्लेग की बीमारी ने जो मेरे घर में पाँव पसारे तो मेरे दादा जी और उनकी दस औलादों को अपने दामन मे समेटकर ही उस घर से विदा हुई . मेरी दादी जी बताती थीं कि चार दिन में हमारे घर से ११ अर्थियां निकली और घर में महज़ दो लोग बच गए,  अपना सुहाग और १० औलादे खोने वाली मेरी दादी जी और पौने दो साल की उम्र के दुधमुंहे मेरे पिताजी. इतना सब खोने के बाद ऐसा कौन सा पत्थरदिल इंसान हो सकता है जो अपने दिमाग का संतुलन न खो दे. दादी जी ने भी अपना संतुलन खो दिया और ऐसे में मेरे दादा जी के रिश्तेदारों ने उन्हें सुबह शाम दोपहर खूब अफीम खिलाया. इसी अफीम के नशे में उनके सारे गहनों और रुपयों पर आसानी से कब्ज़ा कर लिया और ज़मीन जायदाद के कागज़ात पर अंगूठे लगवा लिये...... दादी जी के भाई जवाहर मल जी जो गंगानगर मे  पोस्टेड थे, उनके पास आये तब तक सब कुछ लुट चुका था. दादा जी के रिश्तेदारों ने उस घर के कागज़ात पर भी दादी जी का अंगूठा लगवा लिया था जिस घर मे वो दुल्हन बनकर न जाने कितने अरमानों के साथ आई थीं. दादी जी के भाई ने कहा“छोड़ जमना छोड़ सबकुछ, अब तेरा यहाँ कुछ नहीं है.ये एक बच्चा बचा है तेरे पास, इसका जीवन बचाना है तो निकल चल मेरे साथ गंगानगर इस घर मे तो प्लेग के कीटाणु फैले हुए हैं, यहाँ रहेगी तो इस बच्चे से भी हाथ धो बैठेगी.”
और मेरी दादी जी अपनी गोद की मे पौने दो साल का एक बच्चा और अपनी अफीम की डिबिया उठा कर उस घर से चल पड़ीं. इस तरह मेरे पिताजी इतनी छोटी सी उम्र मे अपने मामा के घर आ गए जिनके एक बेटा और एक बेटी थी. मामी जी की मृत्यु कुछ ही समय पहले हो चुकी थी. अब दादी जी को तीन बच्चों को पालना था. एक अपनी औलाद थी और दो भाई की औलादें.


मेरे पिताजी, ताऊ जी यानि “बा” और मोहिनी बुआ के साथ साथ पलने लगे. दादी जी भरसक तीनों बच्चों को अपने ही बच्चों की तरह पाल रही थीं. हालांकि उन्हें कई बार लगता कि वो अपने भाई पर बोझ बनी हुई हैं मगर उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि वो क्या करें? पढ़ी लिखी बिलकुल थीं नहीं, उस ज़माने मे औरतों मे पढाई का चलन था ही कहाँ? इसके अलावा तीन तीन छोटे बच्चों को संभालने के बाद इतना समय भी नहीं बचता था कि बड़ी पापड कुछ बना कर पैसा कमा सकें. खाना पीना तो खैर अपनी जगह था लेकिन सबसे ज़्यादा उन्हें चुभती थी अफीम की अपनी आदत. वो बताया करती थीं कि उन्होंने बहुत कोशिश की कि किसी तरह अफीम की आदत छूट जाए लेकिन वो हर बार अफीम छोड़ने मे असफल रहीं. उनके भाई हर बार कहते थे “जमना तू चिंता मत कर, अरे जहां से रोटी के लिये पैसा आयेगा, वहीं से तेरे अफीम के लिये भी आ जाएगा.” कुछ साल इसी तरह बीते कि एक दिन उन्होंने सुना कि पब्लिक पार्क में एक सिनेमा हाल बना है  “गंगा थियेटर”. गंगा थियेटर में पांच क्लास हैं, फर्स्ट, सेकंड, थर्ड, बालकनी, बॉक्स और लेडीज़.

उन्हें लगा कि वो पढ़ी लिखी नहीं हैं तो क्या हुआ गिनती तो अच्छी तरह आती है क्योंकि अपने अच्छे दिनों में पति के घर में रोज रात को घर लौटकर कलदारों(चांदी के एक एक रुपये के सिक्कों) और नोटों का थैला तो वो उन्हें ही सुपुर्द करते थे और वो उन्हें गिनकर अपने पति को बताती थीं कि आज इतने रुपये थे थैले में. वो टिकट भी गिन सकती हैं, लोगों को भी गिन सकती है तो क्यों न सिनेमा हॉल में जाकर नौकरी का कुछ जुगाड किया जाए. उन्होंने सुना कि सिनेमा हॉल में लेडीज़ क्लास के लिये लेडी गेटकीपर की ज़रूरत है. शाम को जब भाई घर आये तो उन्होंने भाई को मन की बात कही. हालांकि उन्हें समझाने में बहुत मुश्किल हुई दादी जी को लेकिन उन्होंने भाई को ये कहकर समझा लिया कि बच्चे भी बड़े हो गए हैं, स्कूल चले जाते हैं अगर वो सिनेमा हॉल में काम करें तो कोई नुक्सान नहीं होगा.

अगले दिन वो गंगा थियेटर जाकर वहाँ के मालिक से मिलीं और कहा कि वो लेडीज़ क्लास में गेटकीपर का काम करना चाहती हैं. हॉल के मालिक की एक बहुत बड़ी समस्या हल हुई क्योंकि उसने लेडीज़ क्लास तो बना ली थी लेकिन जब तक वहाँ कोई लेडी ही गेटकीपर न हो, औरतें वहाँ बैठने को तैयार नहीं थी और उस युग में कोई औरत सिनेमा हॉल में नौकरी करने का सोच भी नहीं सकती थी. लेकिन उस युग में मेरी दादी जी ने कमर कसी और सिनेमा हॉल में गेटकीपर की नौकरी की. तीन शो होते थे. दिन में जाने में कोई दिक्कत नहीं थी मगर रात में लौटने में बहुत देर हो जाती थी. इस समस्या का हल ढूँढ रही थीं कि ऐसे में काम आया वो कुत्ता जो कुछ साल पहले में अपने बचपन में न जाने कहाँ से डरा सहमा सा आकर घर की पिरोल में दुबक गया था. दादी जी ने देखा तो बच्चों के दूध में से कुछ बूँदें दूध की निकालकर उसमे पानी मिलाया और उसमे रोटी भिगोकर उसके आगे डाल दी. बच्चों ने उसे नाम दिया “लेटिया”. मुझे कभी समझ नहीं आया कि ये किस भाषा का शब्द था और इसका क्या अर्थ था? मैंने कई बार दादी जी से भी पूछा और पिताजी से भी लेकिन उन्हें भी याद नहीं था कि उसका नाम लेटिया कैसे पड़ा. दादी जी की नौकरी लगी तब तक लेटिया घर की बची खुची रोटियां खाकर हृष्ट पुष्ट हो चुका था. दादी जी की नौकरी के पहले ही दिन से लेटिया ने अपनी ड्यूटी संभाल ली. जब दादी जी कामपर जाने के लिये निकलीं तो उनके साथ रवाना हो गया और सिनेमा हॉल के बाहर तब तक बैठा रहा जब तक कि दादी जी अपना काम खत्म करके हॉल से बाहर न आ गईं. हालांकि नौकरी का  पहला दिन था इसलिए पिताजी और ताऊजी दोनों मिलकर रात में दादी जी को लेने गंगा थियेटर पहुँच गए थे लेकिन वो ये देखकर हैरान रह गए कि लेटिया वहाँ पहले से मौजूद था. उस दिन तो चारों लोग मिलकर घर लौटे मगर उसके बाद लेटिया ने अपनी ड्यूटी इतनी जिम्मेदारी से सम्हाल ली कि किसी और को दादी जी को लेने या छोड़ने नहीं जाना पड़ा. गंगा थियेटर की ये नौकरी दादी जी ने बहुत बरसों तक की, यहाँ तक कि जब मेरे पिताजी बड़े हो गए, पुलिस की नौकरी में आ गए और दादी जी से कहा कि अब उन्हें नौकरी करने की ज़रूरत नहीं है तब भी उन्होंने वो नौकरी नहीं छोड़ी. दादी जी बताया करती थीं कि बहुत बरसों बाद उन्होंने वो नौकरी छोड़ी. १९६५ में उनका स्वर्गवास हुआ और अंतिम समय तक दिन में तीन टाइम अफीम का एक टुकड़ा वो खाया करती थीं. उनकी मृत्यु के साथ ही मुझे लगा अफीम से मेरा सम्बन्ध खत्म हो गया लेकिन बड़ी अजीब है ये दुनिया भी. यहाँ ऐसे ऐसे इत्तेफाक होते हैं जिनकी हम कभी उम्मीद नहीं करते.


जिस साल दादी जी का स्वर्गवास हुआ उसी साल मेरे भाई साहब का मेडिकल कॉलेज में दाखिला हो गया और १९६९ में उन्होंने एम् बी बी एस किया और सत्तर में इंटर्नशिप के बाद उनकी पहली पोस्टिंग हुई जोधपुर जिले के गाँव पीलवा के हस्पताल में. बड़ी मुश्किल से नक़्शे में ढूंढकर भाई साहब पीलवा पहुंचे. वहाँ हस्पताल तो काफी समय से बनी हुई थी लेकिन शायद बरसों से कोई डॉक्टर वहाँ आकर नहीं रहा था. छोटा सा गाँव, जहां बिजली या तो ठाकुर साहब के रावळे (किले) में थी या फिर हस्पताल में. कोई भी नौजवान डॉक्टर जो किसी बड़े शहर के मेडिकल कॉलेज में पांच साल पढाई करता था, तो सपने तो किसी बड़ी सी हस्पताल और बड़े से शहर के ही देखता था. पहली ही पोस्टिंग अगर ऐसी छोटी सी जगह हो जाय तो बेचारा वहाँ से भागेगा नहीं तो क्या करेगा? ऐसे में जब कि कोई डॉक्टर वहाँ टिक नहीं रहा था मेरे सीधे सादे भाई साहब वहाँ पहुंचे तो उनका बहुत स्वागत हुआ. ठाकुर साहब ने अपने रावळे का एक हिस्सा उन्हें रहने के लिये दे दिया. एक लड़का सरूपिया खाना बनाने और दूसरे छोटे मोटे कामों के लिये रख लिया गया और भाई साहब बीमारों की सेवा में जुट गए.


दीवाली की छुट्टियाँ हुईं तो मैं एक हफ्ते उनके पास रहने के लिये चल पड़ा. बीकानेर से बस से फलौदी, फलौदी से ट्रेन से लोहावट और फिर लोहावट से बस से पीलवा. इस तरह तीन टुकड़ों में मेरा पीलवा तक का सफर पूरा हुआ. वहाँ पहुंचकर देखा तो पीलवा गाँव की जो कल्पना की थी वैसा कुछ भी नहीं था वहाँ. बचपन का कुछ समय गाँव चूनावढ़ में गुज़ारा था लेकिन चूनावढ़ था गंगानगर जिले का हरा भरा गाँव और पीलवा जोधपुर जिले का बिलकुल सूखा और वीरान गाँव. मुझे लगा भाई साहब यहाँ कैसे वक्त बिताते होंगे? मैंने उनसे पूछा तो वो मुस्कुरा कर् बोले “पिताजी इसी साल रिटायर हो रहे हैं, मुझे नौकरी तो करनी ही पड़ेगी ना ? हालांकि मैं भी एम् एस करना चाहता था और एम् एस करने पर निश्चित तौर पर किसी बड़ी जगह ही पोस्टिंग मिलती लेकिन अभी तो इस बारे में सोचना भी संभव नहीं है. मेरी पढाई के लायक तो स्कॉलरशिप शायद मुझे मिल जाती लेकिन पिताजी की पेंशन से घर का खर्च और तेरी पढाई का खर्च तो नहीं चल सकता ना ? इसलिए मैंने मन बना लिया है यहाँ रहने का और अब मुझे अच्छा भी लगने लगा है यहाँ, फिर ठाकुर साहब बहुत अच्छे और इस क्षेत्र के जाने माने आदमी हैं.” मुझे लगा उन्हें इस उजाड गाँव में आकर रहना पड रहा है इसके लिये कहीं न कहीं मैं भी ज़िम्मेदार हूँ. उन्होंने देखा कि मैं थोड़ा गंभीर हो गया हूँ तो मुस्कुरा कर बोले “तू चिंता मतकर, अभी एम् एस नहीं करूँगा तो क्या फर्क पड़ता है? तू पढाई पूरी करके नौकरी में लग जाएगा उसके बाद मैं एम् एस कर लूंगा.”


मैंने पूछा “ऐसा हो सकता है?”
वो बोले “ हाँ हाँ क्यों नहीं ?”
और यही हुआ भी मेरे आकाशवाणी में आने के तीन साल बाद उन्होंने अजमेर से एम् एस किया.
शाम को हम दोनों को रावळे में खाने का न्यौता था. मैं भाई साहब के साथ अंदर पहुंचा. एक सजे धजे कमरे में ठाकुर साहब सोफे पर बैठे थे. हमें देखते खड़े हो गए. सफ़ेद लिबास में दरमियाने कद के ठाकुर साहब बहुत सौम्य लग रहे थे. उन्होंने भाई साहब से हाथ मिलाया. मैंने पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया तो बहुत खुश हुए और कई आशीर्वाद दे डाले.


उस दिन तो खाना खाकर हम लोग लौट आये. दो दिन बाद ही दीवाली थी. भाई साहब ने बताया कि दीवाली के दिन ठाकुर साहब के रावळे में दरबार लगता है जिसमे आस पास के बहुत से छोटे बड़े ठाकुर और रिश्तेदार संबंधी आते हैं. उस दिन हमें भी दरबार में हाजिरी देनी होगी.


दो दिन गुजर गए. दीवाली वाले दिन हम दोनों तैयार होकर ठाकुर साहब के दरबार में पहुंचे. सामने सबसे ऊंचे सजे धजे सिंहासन पर ठाकुर साहब बिराजमान थे और दोनों तरफ ओहदों के हिसाब से आस पास के ठिकानेदार बैठे हुए थे. हमने जाते ही झुककर मुजरा किया और तभी मेरे नाक में वही जानी पहचानी कड़वी सी गंध आई. मैंने मन ही मन कहा “अरे..... ये तो अफीम की गंध है.” देखा दो लोग खड़े हुए हैं एक के हाथ में सोने का करवा है जिसमे कसूम्बा(अफीम का घोल) है दूसरे आदमी के हाथ में पानी का करवा और तौलिया है. किसी भी मेहमान के आकर अभिवादन करते ही ठाकुर साहब हाथ उठाकर कसूम्बे वाले को इशारा करते और वो बहुत नम्रता से आगे बढ़कर अपनी हथेली में एक गड्ढा सा बना कर् उसमे कसुम्बा भरता और मेहमान को पिलाता और फिर अपना हाथ धोकर तौलिए से पोंछता. हम लोग की तरफ मुस्कुराते हुए ठाकुर साहब ने देखा और कहा “डॉक्टर साहब कसुम्बो अरोगो(पियो).”
भाई साहब ने हाथ जोड़ते हुए कहा “ माफी हुकुम... हम लोगों को माफी बख्शो.”
ठाकुर साहब ठहाका लगाकर हंस पड़े. हम लोगों को बख्श दिया गया. हम थोड़ी देर तक वहाँ बैठे रहे और अफीम की उस कड़वी गंध का आनंद लेते रहे जो हमारी रग रग में बसी हुई थी. दादी जी, मामा जी, मामी जी, मौसी जी हर एक में से हमें वही गंध तो आती थी, फिर भला वो हमारी रग रग में बसी हुई क्यों न होती ?
वक्त गुज़रता गया.......... वक्त क्या पूरी ज़िंदगी ही गुजर गयी.


१६ अगस्त २०१२ को भाई साहब को मुम्बई लाया गया और टाटा कैंसर हस्पताल में डॉक्टर मंजू सेंगर को दिखाया गया. जैसा कि मैं १२ वें एपिसोड में लिख चुका हूँ कि देखते ही डॉक्टर सेंगर ने कह दिया “मल्टिपल मायलोमा” यानि कैंसर. भाई साहब ने कहा कि उनके पूरे शरीर में असहनीय दर्द होता है. डॉक्टर सेंगर ने दवा की पर्ची लिखकर दी. हम लोग दवा लेकर घर आये. घर पहुँचते ही भाई साहब मुझसे बोले “ ज़रा दिखाना कौन कौन सी दवाएं लिखी हैं?” मैंने लाई हुई दवाएं उनके हाथ में पकड़ा दी. एक दवा पर उन्होंने नाम पढ़ा “ट्रेमेडौल” और उनके चेहरे पर एक दर्दभरी मुस्कराहट आ गयी. मैं कुछ समझा नहीं. मैंने कहा “क्या हुआ डाक साहब ?”
वो बोले “जानते हो महेंदर ये क्या दवा है?”
मैंने कहा “ नहीं, कोई खास बात ?”


वो बोले “ ये वही दवा है जो हमारी दादी जी लेती थीं, मामा जी, मामी जी, मौसी जी सब लेते थे- अफीम, जब हमारे इतने पूर्वज लेते थे तो भला मैं इस से कैसे बचता? तुझे याद है ना, बचपन में सुना करते थे कि जिस शरीर में एक बार अफीम पहुँच जाता है वो शरीर कभी न कभी अफीम की मांग ज़रूर करता है. बचपन में इस शरीर में अफीम पहुँच चुका है तो ये शरीर अफीम की मांग तो करेगा ही. मुझे पता है, अब ये अफीम ही थोड़ा बहुत सहारा देगी इस दर्द में ”
और उनकी बात बिलकुल सच साबित हुई. जिस दिन बीमारी का डायग्नोसिस हुआ उस दिन से लेकर आखिर तक उन्हें दर्द से अगर किसी चीज़ ने थोड़ी बहुत राहत दी तो बस उसी अफीम ने......... अफीम की जिस गंध को मैं १९७० में ठाकुर साहब के रावळे में पीछे छोड़ आया था भाई साहब के इलाज के दौरान वो गंध फिर मेरे जीवन का हिस्सा बन गयी थी. भाई साहब के चले जाने के बाद अब भी रात में कई बार मेरी नींद टूट जाती है और न जाने कहाँ से अफीम की वो कड़वी मगर आकर्षक गंध आकर मेरे नथुनों में भर जाती है और मैं मानो फिर से एक बार दादी जी, मामा जी, मामी जी, मौसी जी के बीच पहुँच जाता हूँ. 

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Sunday, February 14, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- भाग १६




अमरू ने गाडा चलाना एक तरह से छोड़ ही दिया था.पांच हज़ार नकद बहुत बड़ी रकम थी उसके और उसके परिवार के लिए. अब दोनों वक्त घर में चूल्हा जलता था. हालांकि जैना रोज अमरू से काम पर जाने के लिए झगड़ा करती लेकिन अमरू पर कोई असर नहीं होता था. वो तो दिन भर जुआ खेलता और शाम को देसी दारू का एक पव्वा चढ़ाकर खूब हंगामा मचाता. कभी जैना की पिटाई होती तो कभी कालकी की, कभी मुनकी की बारी आ जाती तो कभी नूरकी की...... जिसकी भी बारी आती, मार तो उसे पड़ती ही थी लेकिन मुंनकी को जब मार पड़ने लगती तो बहुत ज़्यादा ही शोर शराबा मच जाता था क्योंकि वो चुपचाप मार नहीं खाती थी. वो तो जो चिल्ला चिल्लाकर अपने बाप को गंदी गंदी गालियाँ निकालती थी कि पूरा मोहल्ला इकठ्ठा हो जाता था. एक तरफ से हाथों के वार होते थे और दूसरी तरफ से गालियों के तीर चलते थे. बीच बीच में जैना के अपने पति को गालियाँ बकने की आवाज़ भी हवा में तैर जाती थी...... कुल मिलाकर लगभग रोज ये ड्रामा घंटे डेढ़ घंटे चलता था. उसके बाद जब अमरू वहाँ इकट्ठे हुए मोहल्ले के लोगों को गालियाँ देने लगता तो लोग समझ जाते कि बस खेल खत्म हो गया है, फूट लो यहाँ से. और लोग अपने अपने घर के लिए रवाना हो जाते. अमरू के पीछे वाला घर कालूजी का था जिनकी बीवी बरसों पहले उन्हें अकेला छोड़ कर अल्लाह मियाँ के घर चली गयी थी. कालू जी भी रोज एक पव्वा चढाते थे, बारी बारी से तीन बहुएँ थाली में दो रोटियां डालकर रोज पकड़ा देती थीं. वो पव्वा चढाने के बाद रोटी खाते और खूंटी पर टंगी ढोलक उतारकर उसे बजाकर लंबे लंबे आलाप लेकर संगीत सभा शुरू कर देते थे. हालांकि उनकी और मेरी मातृभाषा एक ही थी लेकिन मुझे कभी समझ नहीं आया कि वो क्या गाते थे. न जाने उनके गाने में कोई माधुर्य था या उनकी ढोलक की आवाज़ में, कि बस अमरू का मूड ठीक हो जाता था और वो ढोलक की थाप पर थिरक उठता था. लोगों को तो तमाशा देखने से मतलब था, इसीलिए मोहल्ले के लोग उस नाच और गाने को देखने सुनने फिर इकट्ठे हो जाया करते थे.


उस ज़माने में उन लोगों की पहुँच में न सिनेमा था और न रेडियो, तब ये नाच गाना ही उनके मनोरंजन के साधन थे. सारे मोहल्ले की नज़र में इन दिनों अमरू खूब पैसे वाली आसामी बन गया था लेकिन जैना का दिमाग अपनी जगह पर सही सलामत था. वो अब भी दोनों वक्त हमारे घर के बर्तन साफ़ करने आती थी और जब आती थी तो मेरी माँ के सामने अपने दिल का गुबार भी निकालती थी. “ देखो ना काकीजी, ऐ रिपिया कित्ता दिन चालसी ? पण ओ बालनजोगो काम पर जावै ई नईं.” साथ ही कभी कभी जैना खर्च के लिए मिले रुपयों में से कुछ रुपये बचा कर मेरी माँ के पास जमा करा देती थी. “ऐ थोड़ा सा रिपिया राखो काकी जी, अडी बगत में काम आसी ई सगळा रे” अमरू के पास रुपये तेज़ी से खतम हो रहे थे......इतने जीवों का पेट भरना, ऊपर से दारू और जुए की लत. जैना अमरू को खूब समझाती कि देख रुपये खतम हो रहे हैं, फिर तो गाडा रोज चलाना ही पडेगा. इससे अच्छा है अभी ही चलाना शुरू कर दे ताकि कुछ तो आमद रहे रुपये पैसे की. घर बैठे कोइ भाडा आ जाता था तो अमरू जाने भी लगा था गाडा लेकर लेकिन बहुत बुरा लगता था उसे मेहनत करना. पिछले कई महीनों से बड़े आराम से घर में पड़े पड़े रोटी भी मिल रही थी और दारू भी....... बहुत गुस्सा आता था उसे गाडा लेकर जाने में. गाडे को खींचने में जो पसीना बहाना पड़ता था, वो उसे झुंझलाहट से भर देता था. वो ये झुंझलाहट निकालता था जैना और बच्चों पर........फिर वही मार पीट और गालियाँ. जैना मेरी माँ से कहतीं “ काकी जी गाळियां सूं तो किसा गूमड़ा हुए पण ओ मरज्याणो जवान होती छोरियां पर हाथ उठावे जद म्हारो काळजो घणो बळै.”


मेरे पड़ोस में ज़िंदगी इसी तरह चल रही थी. लगभग ६ महीने गुजर गए थे भंवरी की शादी हुए कि एक दिन शोर मचा, भंवरी आई है भंवरी आई है.जैना भागी हुई आई और माँ से कुछ रुपये मांग कर ले गयी. उस बेचारी को क्या पता था कि अमरू ने क्या ठानी है, वो तो माँ से बोली “ काकी जी जंवाई आयो है सागै, बींरी खातर तो करनी पड़सी.” दामाद की खातिरदारी हुई.....दारू, गोश्त से लेकर पान बीडी तक सब कुछ पेश किये गए . अमरू भी दो दिन दामाद के साथ बहुत मीठा मीठा बोलता रहा और उसे खूब खिलाता पिलाता रहा. उसे ज़रा भी अंदाजा नहीं हुआ कि अमरू के दिमाग में क्या चल रहा है. चार दिन बाद दामाद बोला “ अब हम लोग चलते हैं. मैं अपना रेवड़ अपने काके के बेटे के सुपुर्द करके आया था. ज़्यादा दिन रुकेंगे तो वो परेशान हो जाएगा.” अमरू हाथ जोड़कर बोला “ कुछ दिन और रुकता तो आछो लागतो पण खैर, पधारो आप काम तो काम है पण एक अरज है, अगर बुरो नईं मानो तो.” दामाद बोला “ हुकुम करो आप, क्या कहना है ?” अमरू ने हाथ जोड़े हुए ही कहा “ आप तो पधारो पण म्हारी बेटी नै थोड़ा दिन अठै रैण दो.” उस बेचारे गाँव के सीधे सच्चे शफी को कहाँ पता था कि अमरू के दिल में क्या है? उसने कहा “हाँ हाँ जरूर रखो आप, जब भेजना हो समाचार करवा देना, मैं आकर ले जाऊंगा.” अमरू बोला “बहुत किरपा आप री जंवाई सा” और जंवाई सा लौट गए...... अमरू ने उस दिन जी भर कर पी और कालू जी की ढोलक की थाप पर जी भरकर नाचा.....चार पांच दिन गुजर गए तो भंवरी ने जैना से कहा “माँ अब कह्लावो भेज दो थारै जंवाई नै कि आ’र ले जावै म्हने.”


दरअसल चार पांच महीनों में रोज भरपेट खाने की आदत पड गयी थी भंवरी को. यहाँ तो वही कभी दो रोटी मिल जाती थी और कभी सिर्फ पानी पीकर ही सोना पड़ता था. ऊपर से वहाँ पति चाहे पचास बरस का था लेकिन बहुत प्यार करता था उसे और यहाँ हालांकि उसे ज़्यादा कोई कुछ बोलता नहीं था फिर भी कभी कभार अमरू के हाथ की एक आध पड ही जाती थी. जैना ने अमरू को कहा “जंवाई नै कहवा दो.” अमरू ने कहा “ हाँ कहवा दूंगा.” लेकिन उसने कुछ ठान ली थी....... हर बार जब जैना उससे कहती तो उसका यही जवाब होता.उसने न तो दामाद को कुछ कहलवाया और न ही दामाद के आये संदेशों का कोइ जवाब भिजवाया........ इसी तरह एक महीना गुजर गया. अमरू के घर रोज महाभारत छिड़ता.....पूरा मोहल्ला तमाशा देखने इकठ्ठा हो जाता. दरअसल ये शेख गरीब ज़रूर थे लेकिन ऐसा कभी किसी घर में नहीं हुआ था कि कोइ अपनी बेटी की शादी करे और फिर उसे घर बुलाकर अपने घर में ही बिठा ले. एक महीना गुजर गया तो दामाद शफी अपने कुछ सगे सम्बन्धियों के साथ अमरू के घर आया. खूब झगडा फसाद हुआ लेकिन अमरू ने साफ़ कह दिया कि वो भंवरी को शफी के साथ नहीं भेजेगा. बहुत बरस नहीं हुए थे बटवारे को.ये बहावलपुरी अनपढ़ थे, गाँवों में रहते थे और पशु पालन करते थे. एक एक बहावलपुरी के पास पांच पांच, दस दस हज़ार भेड़, दो दो चार चार हज़ार गाय भैंसे होती थीं जो उस वक्त भी उन्हें हज़ारो की आमदनी करवा देती थी लेकिन ये वो मुसलमान थे जो न जाने किन हालात में हिन्दुस्तान में रह गए थे और उनके दिमाग में कहीं एक ग्रंथि बैठ गयी थी कि उन्होंने गलती की है हिन्दुस्तान में रहकर.......हर बहावलपुरी के पास १२ बोर की दुनाली थी लेकिन वो उनसे सिर्फ तीतर या बटेरों का शिकार करता था, उस दुनाली का कहीं और उपयोग करने की सोच भी नहीं सकता था....... शफी भी उन्हीं बहावलपुरियों में से एक था. सीधा सादा इंसान. कई दिन कोशिश करता रहा कि भंवरी उसके साथ चली जाए लेकिन अमरू अड गया...... उसने भंवरी को नहीं भेजा तो नहीं ही भेजा. भंवरी भी सर फोड फोडकर रह गयी. उसे ककराला जाना नसीब नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ. उस बेचारी को भी कहाँ पता था कि उसके भाग्य में विधाता ने क्या लिख दिया है? कुछ और महीने इसी तरह गुजर गए..... कभी कानों में पड़ता कि भाग कर भंवरी अपने ससुराल चली गयी है, कभी ये सुनाई देता कि भंवरी किसी और के साथ भाग गयी है, कभी ये सुनने में आता कि भंवरी पाकिस्तान चली गयी है. लेकिन हर रोज सुबह उठते तो भंवरी अमरू के उस झोंपड़ीनुमा घर में नज़र आती कभी रोती तो कभी हंसती, कभी झगड़ा करते तो कभी अमरू के हाथ की मार खाते.


गर्मियों का मौसम था. छत पर सोया करते थे हम लोग कि एक दिन सुबह सुबह कुछ शोर सुनकर आँख खुली. आवाज़ आ रही थी “हेलो हेलो हेलो..........” मैं एक दम से चौंक कर उठा. ये तो पास ही किसी लाउडस्पीकर से आने वाली आवाज़ थी. उठकर देखा कि अमरू के घर पर लाउडस्पीकर लग रहे थे....... मेरे मन में उत्सुकता जागी कि ये रेडियो (लाउडस्पीकर) क्यों लग रहा है ? शायद कालकी की शादी है, लेकिन वो तो बहुत छोटी है, फिर मुझे लगा या तो जैना को बेटा हुआ है या फिर...... अरे हाँ ...... भंवरी की शादी को ७-८ महीने हो गए, लगता है उसके बेटा हुआ है. तभी सुना माँ पिताजी से कह रही थीं कि भंवरी की शादी हो रही है. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वास्तव में आखिर क्या हो रहा है..... भंवरी की शादी तो हो चुकी, अब फिर से उसकी शादी कैसे हो रही है? उसका तो पति भी ज़िंदा है तो फिर किसी और से शादी करने की उसे क्या ज़रूरत पड गयी? सवाल मेरे बालमन में उठते रहे लेकिन मैं भी किस से पूछता उनके जवाब? लाउडस्पीकर लग गया, बहुत बच्चों ने उस पर अपनी पसंद के गाने बजाये, बहुत बच्चों ने माइक खोलकर हेलो हेलो किया, मगर मैं अपने मालिये में बैठा अपने हैडफोन रेडियो पर न जाने क्या क्या सुनता रहा. दो तीन दिन बाद सफ़ेद कमीज़ तहमद पहने लोगों का जत्था अमरू के घर के सामने एक ट्रक में आकर रुका. मैंने देखा एक पूरी बरात आकर रुकी थी वहाँ. हाँ वास्तव में एक बारात ही आकर रुकी थी वहाँ. और एक बार फिर भंवरी का ब्याह एक और बहावलपुरी के साथ हो गया. सुना कि इस बहावलपुरी ने नकद १० हज़ार रुपये दिए हैं अमरू को.....इसका नाम है अल्ताफ.... उम्र वही ५० के आस पास ... खूब आव भगत हुई..... सारा खर्चा अल्ताफ ने उठाया..... पूरी बारात थी...... सैकड़ों की तादाद में लोग, ढेरों ट्रेक्टर, ढेरों ट्रक और न जाने कितने लोग ऊंटों और घोड़ों पर चढ़े हुए........भंवरी की विदाई हुई .... बहुत रोई भंवरी ...... न जाने वो इस घर से विदाई की रुलाई थी या अपने पहले पति शफी से जुदाई की रुलाई जिसने उसे बहुत प्यार दिया था......उस बेचारी को पता ही नहीं था शायद कि उसे आगे जाकर न जाने कितनी बार इसी तरह विदा होना पडेगा. मैंने अपने घर की छत से देखा, भंवरी रोये चले जा रही थी, अमरू बहुत खुश था और जैना एकदम खामोश. घर के बाकी सब लोग जी भर कर खाने में मस्त थे...... पिछले कुछ दिनों से घर में कभी कभार ही रूखी सूखी ही नसीब हो रही थी इन दो तीन दिनों में सबको पेट भर कर खाना मिल रहा था. अचानक अमरू के दिमाग में आया...... अरे .... क्यों वो गाडा चलाता है, क्यों मजदूरी करता है ? भंवरी अगर एक के साथ शादी करके उसे ५ हज़ार दे सकती है ,दूसरे के साथ शादी कर के १० हज़ार दे सकती है तो क्या ज़रूरत है कमाने की ? मोहल्ले की औरतें मिलकर गा रही थीं “ कोयलडी सिध चाली........ये गीत ही ऐसा है कि सुनते ही राजस्थान में हर एक की आँखे भर आती हैं, हम लोग भी रो पड़े और भंवरी एक बार फिर अपने बाप के घर से विदा हो गई..... और उधर अमरू के दिमाग में उस वक्त न जाने क्या क्या योजनाएं बनने लगीं थीं.



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Saturday, February 6, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन – भाग १५ (महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों पर आधारित श्रृंखला)

इन्सान का जीवन चलता तो क्रम से है लेकिन अगर कोई भी अपने जीवन की घटनाओं को कागज़ पर उतारने की कोशिश करे तो वो उसी क्रम से याद नहीं आतीं जिस क्रम से घटित होती हैं....... कोई घटना जो बाद में घटित होती है पहले याद आ जाती है फिर अचानक याद आता है कि इससे पहले तो कुछ और घटित हुआ था . ऐसे में या तो आप उस पहले वाली घटना को छोड़ दीजिए और या फिर जब जो याद आ जाए ईमानदारी से पाठकों को बताकर लिखते जाइए . मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. जब मैंने १३वां एपिसोड लिखा तो एक पाठक मित्र ने ये शिकायत लिख भेजी कि आप तो ११ वें एपिसोड में कॉलेज में पहुँच गए थे १३वें एपिसोड में वापस बचपन में कैसे पहुँच गए? मैं माफी चाहता हूँ, किसी घटना को छोड़ देने से अच्छा है आगे पीछे लिख देना. हाँ मैं वादा करता हूँ कि जब मैं इन सारे संस्मरणों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करूँगा तो मेरी कोशिश रहेगी कि जीवन जिस क्रम से आगे बढ़ा है........ संस्मरण भी उसी क्रम में आगे बढे.


मेरे घर के एक तरफ एक पतली सी गली थी. गली के दूसरी तरफ शेखों के घर थे. ज़्यादातर घर कच्ची ईंटों से बने हुए थे और लगभग सबके आगे घास के छप्पर थे. इस तरह के ३०-४० घरों का एक झुण्ड सा था वहाँ. हमारे ये शेख भाई या तो जहां कहीं भी मकान बनते थे वहाँ मजदूरी करते थे या फिर हाथ गाडे(ठेले) में सामान ढोते थे.लड़के नंग धडंग उस कच्चे घरों के झुण्ड के बीच नाचते कूदते रहते थे.पैसा दो पैसा हाथ लगने पर कांच की गोलियाँ खेलते थे और उन पर दांव लगाकर जुआ खेलते थे, ये उनके लिए आने वाले जीवन की तैयारी की तरह था इसलिए उनके माँ बाप भी उन्हें गोलियाँ खेलने से नहीं रोकते थे. घर की लडकियां गोबर चुगने निकल जातीं और बीच बीच में गड्डे(पत्थर के गोल गोल टुकड़ों) से तन्मय होकर खेलती थीं. स्कूल क्या होता है न लड़कों को पता होता था न लड़कियों को और कपड़ा छोटे बच्चों को ईद पर तभी नसीब होता था जब उनके माँ बाप कहीं किसी घर से कोई फटा पुराना कपड़ा मांग लाते थे. चाहे वो किसी भी साइज़ का हो, जिसके भी हाथ लग जाता था वही उसे गले में डाल लेता था और वो कभी उतारा नहीं जाता था. धोने का तो कोई सवाल ही नहीं था क्योंकि साबुन जैसी फालतू चीज़ अगर कोई औरत लाधू बाबा की दुकान पर खरीदने की सोचती भी तो उसे डर लगता कि अभी लाधू बाबा चिल्लाएगा “ अरे.... बहुत पैसे आ गए क्या तेरे पास? साबुन खरीदेगी? भूल गयी क्या मेरे दो रुपये बाकी है तुझपर . चल दो आने उसमे जमा कर लेता हूँ, रहने दे साबुन वाबुन खरीदना...... तुझे कौन सा करनी सिंह जी के घर जाना है ?” और वो बेचारी औरत मुंह लटका कर दो आने लाधू बाबा के खाते में जमा करवा कर आ जाती थी.


लाधू बाबा १९४७ में पाकिस्तान से आया था. पता नहीं हमारे गरीब मोहल्ले में उसे क्या पसंद आया कि जो कुछ सोना चांदी छुपा वुपाकर ला पाया था उसे बेचकर एक कमरा गजनेर रोड पर बनवा लिया था. यही गजनेर रोड हमारे मोहल्ले को दो हिस्सों में बांटती थी एक तरफ का हिस्सा शेखों का मोहल्ला कहलाता था और दूसरी तरफ का मोहल्ला कुचीलपुरा. उसी कमरे में पीछे की तरफ उसका परिवार रहता था और आगे उसने अपनी दुकान सजा रखी थी..... घर की ज़रूरत का छोटा मोटा सारा सामान लाधू बाबा की दुकान में मिल जाता था. खूब चलती थी लाधू बाबा की दुकान क्योंकि आस पास और कोई दुकान नहीं थी. दिन भर तो आस पास के मोहल्ले के लोगों की ग्राहकी रहती थी क्योंकि मेरे मोहल्ले के लोगों के पास दिन में कुछ खरीदने के लिए पैसे कहाँ से आते?

दिन भर मेरे मोहल्ले की औरतें या तो अपने बच्चों की पिटाई में व्यस्त रहतीं या फिर एक दूसरे के सर से जूँएं निकालती. शाम होते होते आदमी लोग लौटने लगते. तब लाधू बाबा की दुकान पर औरतों की, बच्चों की भीड़ लग जाती. हर औरत की शॉपिंग की लिस्ट लगभग एक जैसी ही होती थी. आठ आने का आटा, एक आने का तेल, एक आने के मसाले यानि नमक, मिर्च, धनिया, हल्दी वगैरह, एक पैसे का केरोसिन. ये सब लेने के बाद कोई औरत लाधू बाबा से “चुंगी” मांगना नहीं भूलती थी और अगर वो भूल भी गयी तो उसके साथ आया बच्चा चिल्ला पड़ता था “ऐ माँ चुंगी” और लाधू बाबा उसके हाथ में गुड चढ़े मोटे सेव का एक टुकड़ा या चीनी चढ़े दो चार चने दे देता था. अब उस बच्चे के चेहरे पर ऐसी मुस्कान खिलती थी कि मानो किला फतह कर लिया हो. चुंगी का अर्थ था, पैसा देकर खरीदे गए सामान के अलावा मुफ्त में दी गयी कोई खाने पीने की चीज़.आज की भाषा में बोनस. मैं बहुत छोटा था, एक बार लाधू बाबा की दुकान पर कुछ खरीदने गया. मुझसे पहले एक लड़के ने कुछ खरीदा और दूसरा हाथ आगे बढ़ाकर बोला “लाधू बाबा चुंगी” लाधू बाबा ने चुपचाप कुछ उसके हाथ पर रख दिया. वो लड़का खुशी से कूदता हुआ भाग गया. मैंने सोचा “क्या बिना पैसे मिली चीज़ इतनी खुशी देती है ?” मैं भी चुंगी मांगने की हिम्मत बटोरने लगा. तभी मेरी बारी आ गयी. मैंने जो भी सामान खरीदना था खरीदा और दूसरा हाथ आगे बढ़ा दिया. बोलने की बहुत कोशिश की “लाधू बाबा चुंगी” लेकिन जुबान जैसे मन भर की हो गयी, मुंह से कुछ नहीं निकला. लाधू बाबा ने एक बार घूर कर देखा और फिर बोले “अच्छा तुझे भी चुंगी चाहिए? और बिना मेरे उत्तर का इंतज़ार किये एक गुड चढ़ा मोटे सेव का टुकड़ा मेरे हाथ में पकड़ा दिया. मैं सामान के साथ साथ उसे भी लेकर घर आ गया क्योंकि हमें सिखाया गया था कि रास्ते में कुछ भी खाना अच्छी आदत नहीं होती. जो कुछ भी खाना हो, घर बैठकर खाना चाहिए.


पिताजी घर पर ही थे. उन्होंने जैसे ही मेरे हाथ में वो सेव का टुकड़ा देखा, शायद उनकी समझ आ गया कि मैं चुंगी मांगकर लाया हूँ. फिर भी उन्होंने पूछा “ ये क्या है?” मैं चुप. मुझे कोई जवाब नहीं सूझा. फिर पिताजी ही बोले “ चुंगी मांगकर लाये हो?” मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया. मेरी आँखों में आंसू आ गए. पिताजी बोले “ जानते हो ना कि बिना पैसा दिए कुछ भी लेना भीख मांगना कहलाता है.” टप टप करके दो आंसू मेरी आँख से गिर पड़े. मैंने सर हाँ में हिलाया. एक सेकण्ड रुककर पिताजी बोले “ ठीक है, जब मांगकर ले ही आये हो तो खा लो अब.” घर में ये भी सिखाया गया था कि जो भी खाने की चीज़ हो मिल बांटकर खानी चाहिए, अकेले कुछ भी खाना बुरी बात होती है. अब अगर ये भीख मांगकर लाई हुई चीज़ है तो कोई और नहीं खायेगा, ये बात मेरे बालमन को भी समझ आ गयी लेकिन अब इस सेव के टुकड़े का क्या करूँ, ये मेरी समझ नहीं आया. थोड़ी देर मैं उसी तरह खडा रहा फिर न जाने क्या सोचकर वापस घर से निकला और लाधू बाबा की दुकान जा पहुंचा. लाधू बाबा ने हुक्का गुडगुडाते हुए पूछा “ क्या हुआ?” मैंने वो सेव आगे बढाते हुए कहा “ये नहीं चाहिए” बाबा बोला “क्यों बेटा, क्या हुआ?” मैंने कहा “ कुछ नहीं, बस नहीं चाहिए.” बाबा मुस्कुरा कर बोला “ घर पर डाँट पडी लगती है. सही है बेटा, अच्छे बच्चे चुंगी नहीं मांगते. खैर अब तुम इसे यहीं खा लो, मैं तुम्हारे पिताजी को नहीं बताऊंगा.” लाधू बाबा बोले जा रहा था और मैंने मानो अपने हाथ में बिच्छू पकड़ रखा था जिस से मैं जल्दी से जल्दी पीछा छुडाना चाहता था. मैं कसमसाकर बोला “नहीं ये आप वापस ले लो.” तभी मोहल्ले का एक लड़का आ गया. लाधू बाबा ने कहा “इसे दे दे”. मैंने जल्दी से वो सेव का टुकड़ा उस लड़के के हाथ में रख दिया. वो लड़का चकित हो गया कि आज तो बिना मांगे चुंगी मिल  गयी और मेरी सांस में सांस आई कि एक बला से पीछा छूटा. मैं वहाँ से दौडता हुआ घर आया और पिताजी से कहा “ मैं वो..... वो चुंगी वापस कर आया. आइन्दा कभी नहीं मांगूंगा.” पिताजी ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा “शाबाश”.

मोहल्ले की औरतें लाधू बाबा की दुकान से लाये सामान से खाना बनाने की तैयारी में जुट जातीं और आदमी लोग देसी दारू के ठेके से पव्वा लाकर थकान उतारने लगते. जिस दिन भी मजदूरी मिल जाती यही सब होता था और जिस दिन मजदूरी नहीं मिलती तो न तो चूल्हा जलता था और न ही दारू का पव्वा आता था.
मेरे घर के पास की गली के पार अमरू का घर था. अमरू हाथ गाडा चलाता था. बाकी मोहल्ले वालों की तरह वो भी मजदूरी मिलने पर अपनी घरवाली जैना को कुछ पैसे देता था और खुद दारू का पव्वा लाकर गोबर से लीपी चौकी पर पीने बैठ जाता था. जैना आटा, तेल, मिर्च मसाले लाकर चूल्हा जलाती थी और मोटी मोटी रोटियां सेकने लगती थी...... जैना मेरी माँ के बहुत मुंह लगी थी. वो जब ज़रूरत पड़ती, मेरी माँ की घर के कामों में मदद कर देती थी. खास तौर से हमारे घर के बर्तन तो दोनों वक्त जैना ही साफ़ करती थी. बदले में बचा खुचा खाना माँ जैना को दे दिया करती थी...... अमरू और जैना के ५ बच्चे थे.चार लडकियां, भंवरी, कालकी, मुन्नी और नूरकी. सबसे छोटा लड़का मंगतिया. कभी कभार जब मजदूरी कम होती थी तो अमरू घर में पैसे नहीं देता था और जितने पैसे मिलते उसकी दारू खरीद लाता था. ऐसे में जैना और अमरू के बीच बहुत झगडा होता, अमरू उसे मारता और अगर कोइ लड़की बीच बचाव की कोशिश करती तो उसे भी खूब मार पड़ती. पूरे घर में हो हल्ला मच जाता . फिर जैना मेरी माँ के पास आकर रोती और माँ उसे आटा और मिर्च मसाले देती ताकि वो रोटियां बनाकर बच्चों  को खिला सके...... इसी तरह उनकी ज़िंदगी चल रही थी और हमारी भी आदत पड गयी थी जैना को मार खाते देखने की और अमरू को दारू पीकर उसकी पिटाई करते हुए सुनने की.

एक रोज मैंने देखा कि लंबे तगड़े चार –पांच बहावलपुरी सफ़ेद कमीज़ और सफ़ेद तहमद पहने जैना की चौकी पर बैठे हैं. कुछ देर में जैना भागी भागी मेरी माँ के पास आई और बोली “ काकी जी एक बीस रिपिया उधारा देदो, आपने पाछा दे देसूं.” माँ ने कहा “ कांई बात है जैना? इत्ता रुपियाँ री कांई जरूत पड़गी?” उस ज़माने में जब एक अच्छे भले घर का महीने भर का खर्च १०० रुपये में चल जाता था, इसलिए २० रुपये निश्चित रूप से एक बड़ी रकम थी.

जैना बोली “ भंवरकी ने देखन ने आया है, काकी जी, खातरदारी तो करनी पड़सी.” मेरी माँ ने २० रुपये निकालकर दे दिए और जैना की चौकी की तरफ झाँक कर पूछा “ जैना...... छोरो कठे ? म्हने तो कोई छोरो निजर नईं आ रियो है.”
“है काकी जी है” कहकर वो रुपये लेकर भाग गयी थी. मैं अपने घर की चौकी पर आकर बैठ गया था. मैंने देखा आज अमरू ने अडोस पड़ोस के सब लोगों को काम पर लगा दिया था. कोई भाग कर गोस(गोश्त) लाया तो कोई प्याज लहसुन. इस सबसे पहले एक पड़ोसी भागकर दारू की बोतलें लेकर आया. जश्न का सा माहौल बन गया था. हर तरफ लहसुन के भुनने की गंध फैली हुई थी. पड़ोस की मटोलकी और बोलकी एक बड़े से देग में गोस पका रही थी और जैना सेठानी की तरह उन्हें हुकुम दी रही थी. मैंने हमेशा जैना को अपने घर में बर्तन मांजते देखा था या फिर अमरू के हाथों पिटते देखा था. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि में माँ से २० रुपये उधार लेकर जाने के बाद जैना इस तरह सेठानी कैसे बन गयी थी. सारे मरद पी कर जोर जोर से बोल रहे थे, हंस रहे थे और गालियाँ निकाल रहे थे. अमरू और आये हुए लोगों में से एक के बीच कुछ रुपयों की बात चल रही थी. मुझे लगा शायद दहेज की बात चल रही है...... थोड़ी बातचीत के बाद दोनों पक्षों के लोगों ने हाथ मिलाए और एक दूसरे से गले मिले. शायद बात तय हो गयी थी.  मैं छत के एक कोने में खडा ये सब देख रहा था कि मेरी माँ ने कहा “ महेंदर, सो जा अब.” हालांकि मेरा मन कर रहा था ये सब देखने का मगर माँ की बात तो माननी ही थी. मैं अपने बिस्तर पर जाकर लेट गया. बहुत देर तक हँसने की, बोलने की आवाजें मेरे कानों में पड़ती रहीं, फिर मुझे न जाने कब नींद आ गयी.

अगले दिन सुना, जैना माँ को बता रही थी,भंवरी की शादी तय हो गयी. माँ ने पूछा “ अरे बावली लडको किसो हो ? कित्ती उमर रो है?”
जैना ने जवाब दिया “ काकी जी ५० बरसां रो है.”
“५० बरसां रो ? पण भंवरी तो १५ बरसा री है, दूज वर है कांई ?”
“हाँ काकी जी तीन बच्चा है”
“हे भगवान, हीयो फूटग्यो कांई थारो? इती सुन्दर १५ बरसां री छोरी ने ५० बरसां रे बूढ़े रे लारे करे?”


“कांई फरक पड़े काकी जी, हाथ पीला हू जावे ओ कांई कम है ?”
और इस तरह १५ बरस की भंवरी की शादी ५० बरस के शफी के साथ तय हो गयी. मैं दूसरे दिन स्कूल से लौटा तो सोचा भंवरी से पूछूँगा कि उसका बींद कैसा है लेकिन घर लौटा तो देखा कि अमरू छप्पर के नीचे पड़ा हुआ नशे में गालियाँ बक रहा है, जैना चूल्हे के पास बैठी गीली लकडियों को सुलगाने की कोशिश कर रही है और भंवरी लाल रंग का घाघरा ओढनी पहने सजी धजी खडी है. सोने चांदी की समझ तो मुझे उस वक्त नहीं थी लेकिन हाँ मुझे इतना याद है कि उसने कुछ गहने भी पहन रखे थे जो खन खन बज रहे थे. बाकी बच्चे भी बाप की गालियों की परवाह किये बगैर कुछ चबा रहे थे. मैंने सोचा, लगता है रात को लाये हुए सामान में से कुछ सामान बच गया है और सब लोग उसी पर ऐश कर रहे हैं. हमेशा जो बच्चे चिल्लाते रहते थे “ऐ माँ भूख लागी है........ भूख लागी है” वो बच्चे आज अलग ही नज़र आ रहे थे और जैना जो तंग आई सी चिल्लाती थी “ म्हने तोड़’र खा लो सारा मिल’र.........” वो जैना कुछ इस तरह चूल्हे चौके में मगन हो रही थी मानो इस चूल्हे पर तो दोनों वक्त खाना पकता हो और अंदर हर चीज़ के भण्डार भरे हों.


अगले दिन फिर देखा अमरू मजदूरी पर नहीं गया है, उसका गाडा यूं का यूं खडा है और वो खर्राटे ले रहा है. मैंने सोचा अब तो थोड़े दिनों में ही भंवरी की शादी करनी होगी. फिर ये लोग इतने आराम से पड़े कैसे हैं?मैंने तो सुना था कि लड़की की शादी में दहेज देना होता है, इसके अलावा भी बहुत सारे खर्चे होते हैं. माँ पिताजी को अक्सर बातें करते सुना था कि फलां राम जी का घर बेटियों की शादी में बिक गया और फलां चंद जी के सर बेटी की शादी के बाद इतना कर्जा हो गया है. लेकिन जिन्हें अपने मेहमानों की खातिरदारी के लिए २० रुपये उधार लेने पड़ें वो बिलकुल मस्त होकर जीवन बिता रहे हैं, यहाँ तक कि मजदूरी पर भी नहीं जा रहे हैं. भंवरी गोरी चिट्टी तो थी ही, अब सजी धजी रहने लगी थी और मैंने देखा जो अमरू आये दिन बच्चों की पिटाई किया करता था अब भंवरी पर हाथ नहीं उठाता था. हाँ गालियां तो उसके लिए दाल रोटी थीं, दिन भर पड़ा पड़ा गालियाँ बकता रहता था. वो पूरे मोहल्ले में बस मेरे पिताजी से डरता था. मेरे पिताजी पहले पुलिस में थे इसलिए वो उन्हें थानेदार जी के नाम से बुलाता था और जब कभी ज़्यादा चिल्लाने लगता तो जैना कहती “थानेदार जी ने बुलाऊँ कांई ?” और बस अमरू की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी.


कुछ ही दिनों बाद जैना के कच्चे घर की लिपाई पुताई हुई और फिर मैंने देखा एक दिन उसपर चढ़कर दो लड़के लाउडस्पीकर लगा रहे थे जिसे उस वक्त की भाषा में रेडियो कहते थे. मोहल्ले में चारो तरफ रेडियो रेडियो का एक शोर मच गया. मैं समझ गया कि दो चार दिन में ही भंवरी की शादी होने वाली है. उस ज़माने का यही चलन था. चाहे शादी हो, चाहे किसी के लड़का हो, चाहे पूजा या मीलाद हो, दो चार दिन के लिए रेडियो ज़रूर लगता था..... यों तो कोटगेट के पास बहुत से रेडियो वालों की दुकाने थीं मगर प्रभु लाउडस्पीकर्स सबसे बड़ी दूकान थी. वहाँ रेकॉर्ड्स का एक बड़ा भण्डार था. जब कोई अपने घर रेडियो लगाता था तो दो या चार भोम्पू, एक ग्रामोफोन जिसे चूडीबाजा कहा जाता था , एक रेकॉर्ड्स जिन्हें चूड़ियाँ कहा जाता था, उनका डिब्बा, चूडीबाजे में लगने वाली सुइयों की डिब्बियां और एक एम्पलीफायर लेकर दूकान का आदमी आता था. पूजा या मीलाद होने पर साथ में माइक्रोफोन भी आते थे. कई बार शादी ब्याह के मौके पर भी बच्चे जिद करके माइक साथ ले आया करते थे क्योंकि जिस चीज़ का अलग से पैसा न लगता हो उसे क्यों छोड़ा जाए. हालांकि उस माइक का कोई खास उपयोग नहीं होता था बस दो चार रेकॉर्ड्स के बाद माइक खोलकर कोई भी हेलो हेलो कर लेता था. अपनी खुद की आवाज़ को लाउडस्पीकर पर सुनना भी उस वक्त कम थ्रिलिंग नहीं होता था. अब होड मचती थी कि चूडीबाजा कौन बजायेगा? कुछ नौजवान इसके माहिर होते थे जिन्हें बाजे का भी ज्ञान होता था और गानों का भी. उन्हें असिस्ट करते थे कुछ बच्चे. एक सवाल हमेशा खडा होता था कि रात में ये ड्यूटी कौन करेगा क्योंकि जब रेडियो लगाया गया है तो अगर चौबीसों घंटे नहीं बजाया जायेगा तो एक तरह से फिजूलखर्ची हो जायेगी. उत्साह से भरे कई नौजवान ये चुनौती स्वीकार कर लेते थे लेकिन इतनी आसान भी नहीं होती थी ये रेडियो बजाने की ड्यूटी क्योंकि हर ३.२५ मिनट में रिकॉर्ड बदलना या उलटना पड़ता था, हर दो रिकॉर्ड के बाद सुई बदलनी पड़ती थी और हर पांच छह मिनट बाद चाबी भरनी पड़ती थी जिसे, कुछ लोग चूड़ी भरना कहते थे और कुछ लोग हवा भरना. अगर समय समय पर चाबी ना भरी जाती तो रिकॉर्ड स्पीड लूज़ करने लगता और दूर दूर छतों पर सोये लोग भी ठहाके लगा कर हंस पड़ते “ अरे झपकी आ गयी रे रेडियो वाले को झपकी आ गयी .............” और अगले दिन उस इंसान की सभी लोग खूब खिल्ली उड़ाते.


तो रेडियो लग चुका था, आस पास के बच्चों ने ग्रामोफोन को घेर रखा था. मैं हालांकि जैना के घर में कभी नहीं जाता था लेकिन ये रेडियो मेरे भी रूचि की चीज़ थी इसलिए मैं भी दूर खड़े होकर देखने लगा. अमरू ने मुझे देखा तो फ़ौरन मोहल्ले के बच्चों को डान्ट कर भगा दिया और मुझे कहा “आओ आओ कँवर साब........” उनके और मोहल्ले के सभी शेख परिवारों के लिए हमारा यही नाम था. मैंने देखा जो लड़का ग्रामोफोन बजा रहा था उसने माइक खोल कर हेलो हेलो बोला और दूसरे को दे दिया दूसरे ने भी उसमे हेलो हेलो बोलकर अपनी आवाज़ सुनी तभी मेरे दिमाग में आया कि क्यों ना हेलो हेलो की बजाय रिकॉर्ड पर लिखा हुआ फिल्म का नाम और गायक का नाम बोला जाय.वहाँ मेरे अलावा कोई पढ़ा लिखा नहीं था जो ये काम कर सके.  मैंने कहा “ अरे क्या हेलो हेलो कर रहे हो?” पास में खडी भंवरी ने माइक उस लड़के के हाथ से छीनकर मेरे हाथ में देते हुए कहा “ लो कँवर साब आपई कुछ आछो आछो बोलो......” मैंने माइक हाथ में लिया और रिकॉर्ड पर लिखी हुई जानकारी पढ़ दी. ये मेरे जीवन का पहला अनाउंसमैंट था जो मैंने उस वक्त के तथाकथित रेडियो पर किया था. मुझे क्या पता था कि ये अनाउंसमैंट मेरी हथेली की लकीर बनकर माइक और रेडियो को मेरे जीवन से इस क़दर जोड़ देगा..........


दो दिन बाद भंवरी की शादी हो गयी और वो शफी के साथ उसके गाँव ककराला चली गयी. माँ पिताजी को बता रही थीं कि शफी ने भंवरी से शादी करने के लिए अमरू को नकद पांच हज़ार रुपये दिए हैं और शादी का सारा खर्च भी उसी ने उठाया है. मुझे ये बिलकुल समझ नहीं आया कि बाकी लोग तो लड़की की शादी में दहेज देते हैं, यहाँ लड़के ने रुपया दिया, आखिर क्यों?

मैंने सोचा जैना के घर का भंवरी नाम का एक अध्याय तो खत्म हुआ...... लेकिन मुझे क्या पता था कि ये अध्याय अभी तो शुरू हुआ है और आगे जाकर यही अध्याय मेरे एक नाटक का आधार बनेगा .


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