Tuesday, September 11, 2007

रेडियो - आशिक भगवान काका

भगवान काका लालकृष्ण आडवाणी के उलट थे । उनकी पैदाइश भी सिन्ध प्रान्त की थी । बँटवारे की फ़िरकावाराना हिन्सा और दर्द को उन्होंने साम्प्रदायिकता विरोध को अपना आजीवन मिशन बनाकर जज़्ब किया था।

१९९२ - ९३ में जब जब देश भर में साम्प्रदायिक हिन्सा में हजारों निर्दोष लोग मारे गए तब महाराष्ट्र का भिवण्डी इस आग से बचा रहा। भिवण्डी साम्प्रदायिकता के लिहाज से अतिसंवेदनशील माना जाता है । साम्प्रदायिक हिन्सा का भिवण्डी का इतिहास भी था फिर भी भिवण्डी में आग नहीं भड़की यह अचरज की बात थी । भिवण्डी में सत्तर के दशक में हुए भयंकर दंगों के बाद जो मोहल्ला समितियाँ गठित हुईं उन्हें इस अचरज का पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए । यह समितियाँ पुलिस की पहल पर बनीं शान्ति समितियाँ नहीं हैं , भगवान काका जैसे शान्ति सैनिकों और जनता की पहल पर बनीं थीं । इनकी बैठक अमन के दिनों में भी नियमित होती हैं ।बनारस के सद्भाव अभियान के तालिमी शिबिरों में भगवान काका के सवाल होते थे - 'दूसरों' के मोहल्ले की चाय की दुकानों पर बैठते हो या नहीं ? उनके परचे और इश्तेहार पढ़ पाते हो ? ' चिट्ठेकार नीरज दीवान की तरह उर्दू लिपि पढ़ना जानने वाले तरुण कम ही मिलते थे।

अपने गाँव की मिट्टी को एक 'पर्यटक' की नाते सही एक बार चूमने की भगवान काका की हसरत पूरी न हो सकी । सिर्फ़ धार्मिक स्थलों के दर्शन हेतु वीज़ा जारी करने की नीति उनकी हसरत के आड़े आती रही। यह नीति काका के गले तो बिलकुल नहीं उतरती थी।

बहरहाल, रेडियोवाणी के पाठकों से काका की रेडियो - आशिकी साझा करनी है । उनका ट्रांजिस्टर जितनी देर वे जागृत हों, बजता रहता। उन दिनों 'आकाशवाणी' नामक सभी स्टेशनों के कार्यक्रमों की सूचना देने वाली एक पत्रिका छपती थी। काका को इसकी जरूरत कत्तई नहीं पड़ती थी। उन्हें आकाशवाणी और ऑल इण्डिया रेडियो की उर्दू सर्विस ही नहीं रेडियो सिलोन, बीबीसी, मॉस्कवा,पेकिंग,वॉयस ऑफ़ अमेरिका और रेडियो पाकिस्तान की समय सारिणी भी आत्मसात थी। उनकी खुद की समयबद्ध दिनचर्या , देश भर के कार्यकर्ताओं के पते याद रखना , पत्र - पत्रिकाओं में छपे लेखों की कतरनों की विषयवार फाइल बनाकर रखना आदि काका के गुण रेडियो प्रभावित रहे होंगे। किस समय कौन सा स्टेशन फिल्मी गीत देता है, काका से पूछिए। चाहे मध्य रात्रि के बाद हो अथवा भोर पाँच बजे के पहले।

हमारे घर 'द गोल्डेन वॉयस ऑफ़ कुन्दनलाल सहगल ' नामक एलपी रेकॉर्ड आया तब मेरी बा ने काका को उसे सुनने के लिए बुलाया। 'सुरतिया जाकी मतवारी, पतली कमरिया, उमरिया बाली'-सहगल की यह लाइन सुनकर भावविभोर काका के मुँह से निकला 'क्या वर्णन है! 'दादा धर्माधिकारी ने जिसे 'दु:शासन पर्व' कहा, सेन्सरशिप के उस दौर में पूरा देश रत्नाकार भारतीय और ओंकारनाथ श्रीवास्तव को बीबीसी पर सुनता था । तब भगवान काका के पास सर्वाधिक सूचनाएँ रहती थीं । खबरों के बीच खबरें जान लेने की पकड़ भी काका में थी।

एक दौर था जब रेडियो और ट्रान्जिस्टर का लाइसेन्स रखना पड़ता था। उसकी किताब डाकखाने से जारी होती थी जिसमें 'आकाशवाणी' के तानपूरे या शुभंकर वाले टिकट हर साल लगवाने पड़ते थे। काका हमेशा समय से नवीकरण करवा लेते थे । फिर सिर्फ मीडियम वेव वाले सेटों से लाइसेंस की पाबन्दी हटी तब काका ने कुछ समय एक बैन्ड वाला सेट रखा । बीबीसी भी मीडियम वेव पर ही सुनते। उनके एक कोठरी के आवास में 'एरियल' की विशेष व्यवस्था रहती थी । मौजूदा दौर के बच्चों ने जालीदार पट्टीनुमा एरियल तो देखा ही नहीं होगा । टॉर्च का मसाला जब रोशनी देना बन्द कर देता तब उनका इस्तेमाल ट्रान्जिस्टर बजाने में करते । बैटरियाँ इस्तेमाल न करते वक्त निकाल कर रखते और उन्हें धूप में स्टील के बरतन पर रखकर उनका जीवन बढ़ाने की तकनीक भी अपनाते। लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित जमात तरुण शान्ति सेना की पत्रिका ' तरुण मन ' और बुनियादी यक़ीन ' नामक पत्रिकाओं में काका 'यतीम' नाम से फिल्म समीक्षा लिखते थे। 'रेडियोवाणी' के लिए उनसे अनमोल खजाना मिलता।

13 comments:

  1. यादे ताजा करदी जी आपने वोह दिन भी क्या थे..?
    बीबी सी सुनना और बिनाका गीत माला..चुनाव के वक्त जो मजा तब आता था अब कहा है..बहुत अच्छा कार्य किया आपने काका से मिलवा कर जारी रक्खे ..:)

    अरुण

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  2. वाह बढिया जानकारी दी.. शुक्रिया :)

    गरिमा

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  3. वाह अफलातून जी
    आपने रेडियोनामा की इस पहली औपचारिक पोस्‍ट में बड़ी आत्‍मीय याद हमारे साथ बांटी है ।
    बड़ा अच्‍छा लगा भगवान काका के बारे में । भगवान काका जैसे लोग हमारे गली मुहल्‍लों मे बहुत
    सारे मिल जायेंगे । आजकल प्राइवेट एफ एम की वजह से भी रेडियो के कई प्रेमी पैदा हुए हैं, जिनका ताल्‍लुक
    नई पीढ़ी से है । लेकिन उनमें भगवान काका वाली बात नहीं है ।

    yunus

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  4. भगवान काका और उनकी रेडियोआशिकी के बारे में जनना बहुत रोचक रहा . रेडियो से उनके भावनात्मक जुड़ाव को आपने बहुत आत्मीयता से उकेरा है .

    पिता जब पहली बार हमारे पास कलकत्ता आये थे तो उन्होंने घर में सिर्फ़ एक चीज़ की कमी की ओर इशारा किया था और वह था रेडियो . उसके बाद तो छोटे और मंझोले दो रेडियो आ गये . अब बेटी एफ़एम सुनती है
    priyankar

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  5. बहुत बढ़िया जानकारी.

    रेडियोवाणी की बेहतरीन शुरुवात के लिये बधाई एवं शुभकामनायें. यह क्रम निरंतर जारी रखिये.

    युनूस भाई को भी व्यक्तिगत रुप से बधाई.

    Udan Tashtari

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  6. भगवान काका के रेडियो प्रेम के बारे में जानकर बहुत खुशी हुई।
    रेडियोनामा पर आपकी पोस्ट के लिये आपको हार्दिक बधाई। आपसे अनुरोध करते है कि आप नियमित रेडियोनामा पर लिखा करें।
    धन्यवाद

    गीतों की महफिल

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  7. बहुत अच्छी तरह लिखा है काका के बारे में। बधाई!
    अनूप शुक्ला

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  8. बधाई जी रेडियोनामा के आगाज की। पहली ही पोस्ट बढ़ी शानदार रही। शुभकामानाएँ!
    Shrish

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  9. वाह !! बचपन की यादें ताजा कर दीं , तब रात आज कल की तरह देर तक नही होती थी , बस रात को स्कूल की पढाई खत्म की , हवा महल सुना और पसर गये नींद के आगोश में , बाद मे S KUMAR का फ़िल्मी मुकदमा और न जाने कई प्रोग्राम शुरु हुये लेकिन क्रम वही रहा ।
    काका से मुलाकात आच्छी लगी , आगे क्रम जारी रखें !
    Dr Prabhat Tandon

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  10. काका से मिलवाने का शुक्रिया।

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  11. मैँ भी एक रेडियोँप्रेमी श्रोता हूँ देशी विदेशी सभी स्टेशन सुनना और पत्र लिखने का शौक रखता हूँ (प्रभाकर विश्वकर्मा 08562924500और09455285351

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  12. कैसे हैं भगवान काका?कितने अच्छे हैं ये लोग। आपने यह लिखकर उनके जैसे विरल होते लोगों को सदा के लिये सँजो लिया है। जाली वाली पट्टी को भी।शुक्रिया।

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    1. भगवान काका नहीं रहे।

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