Monday, March 24, 2008

मेरी पसंद

आज मैं अपने जीवन के पहले कार्यक्रम के बारे में लिख रही हूँ।

रेडियो तो मैं बचपन से सुनती रही पर बचपन में कभी रेडियो प्रोग्राम नहीं किया। मैंनें शुरूवात युववाणी से की।

आकाशवाणी हैदराबाद से मैनें जो पहला कार्यक्रम किया वो था - मेरी पसन्द। यह युववाणी का कार्यक्रम था जो आधे घण्टे का होता था। यह कार्यक्रम छाया गीत की तरह था।

इस कार्यक्रम के लिए पाँच-छ्ह फ़िल्मी गीत अपनी पसन्द के चुनने होते थे। इन गीतों की प्रस्तुति के लिए आलेख लिखना होता था। इसी आलेख को पढते हुए या यूँ कहिए कि श्रोताओं से कुछ कहते हुए एक के बाद एक अपनी पसन्द के गाने सुनवाने होते थे।

मेरी पसन्द के तो साठ-सत्तर के दशक के गीत है सो मैनें वही चुने। बहुत डूब कर अच्छा सा आलेख लिखा और कार्यक्रम की रिकार्डिंग भी हो गई फिर प्रसारण भी हो गया। इतना ही नहीं कार्यक्रम पसन्द भी किया गया लेकिन…

मेरी समझ में नहीं आया कि गीत बहुत लोकप्रिय थे, आलेख में भाव-विचार बहुत अच्छे थे, सबने कहा कि मैनें बोला भी अच्छा, आवाज़ भी अच्छी फिर कहाँ गड़बड़ हो गई ?

तभी कार्यक्रम अधिकारी अहमद जलीस साहब ने कहा - अए बीबी - हैदराबादी तहज़ीब में अए कह कर संबोधन किया जाता है और लड़की को बीबी कहते है। उन्होनें कहा -

अए बीबी ! अपनी पसन्द के गाने सुनवाए या अपनी अम्मी (माँ) की पसन्द के और अनुभाग में सभी खिलखिलाने लगे।

हुआ ये था कि पहला गीत मैनें लिया था फ़िल्म गाईड से -

काँटों से खींच के ये आँचल
तोड़ के बंधन बाँधी पायल

हद तो तब हो गई जब मैनें पचास के दशक की फ़िल्म गोदान का रफ़ी का गाया गीत भी शामिल कर लिया। अब मुझे क्या पता ? मैनें सोचा मेरी पसन्द कार्यक्रम है तो मेरी ही पसन्द के गीत सुनवाए जाने चाहिए।

बाद में समझ में आया कि अपनी पसन्द के साथ-साथ गीतों का चयन कार्यक्रम के अनुसार होना चाहिए। जबकि उसी समय रिकार्ड लाइब्रेरी में नई फ़िल्मों की गीतों के रिकार्ड ख़रीद कर रखे गए थे मुझे उन्हीं में से मेरी पसन्द के गाने चुनने चाहिए थे।

नए गानों को बजाने की शुरूवात आमतौर पर युववाणी से ही होती है बाद में सामान्य प्रसारण में फ़रमाइशी और ग़ैर फ़रमाइशी कार्यक्रमों में ये गीत बजने लगते है।

तो देखिए… कितना बड़ा फ़र्क है इस पार और उस पार में। बचपन से श्रोता की तरह रेडियो सुना पर ये समझ में नहीं आया था कि कार्यक्रम तैयार करने में किन-किन बातों का ध्यान रखना पड़ता है। सुनना आसान है लेकिन प्रस्तुत करना बहुत कठिन।

7 comments:

  1. सुनवा भी देतीं ।

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  2. अफ़लातून जी मैनें अपने किसी भी कार्यक्रम को रिकार्ड करके नहीं रखा।

    धन्यवाद ममता जी !

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  3. ;) चलिये उसे दिन युवाओ को भी कुछ हटके सुनने मिला होगा।

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  4. मज़ेदार टिप्पणी की आपने पंकज जी, धन्यवाद !

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  5. यहाँ के रेडियो पर हिन्दी कार्यक्र्म सुनकर जितना मज़ा आता है, उतना ही यहाँ पढकर..

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  6. धन्यवाद मीनाक्षी जी ! कभी वहाँ के रेडियो कार्यक्रमों के बारे में बताइए।

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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।