बदलते पर्यावरण में वास्तव में हम प्रकृति का आनन्द नहीं ले पा रहे है। पक्षियों का कलरव तो शायद ही अब सुनाई पड़ता है। तो क्यों न गीतों में ही इनका आनन्द ले लिया जाए।
आज जिस फ़िल्म के गीत की हम चर्चा कर रहे है वो फ़िल्म वर्ष १९७२ के आसपास रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म ने दो कलाकारों से परिचय कराया - जया भादुड़ी (बच्चन) और वाणी जयराम। जी हाँ, फ़िल्म है - गुड्डी
पहली बार नायिका बन कर जया जी दर्शकों के सामने आई और अपने नायिका रूप में जो पहला गीत पर्दे पर गाया उसे आवाज़ दी वाणी जयराम ने जिनकी आवाज़ पहली बार सुनी हिन्दी सिनेमा के दर्शकों ने।
दक्षिण से आई यह गायिका दक्षिण में भी नई ही थी। वहाँ भी लोकप्रिय होने ही लगी थी कि तभी इस गीत को गाने का मौका मिला। इसीलिए यह गीत दक्षिण में बहुत-बहुत लोकप्रिय हुआ। उस समय स्कूल कालेज की लड़कियाँ ख़ासकर दक्षिण भारतीय लड़कियाँ इस गीत को बहुत गाती थी। यहाँ तक कि सांस्कृतिक समारोहों में प्रतियोगिताओं में यह गीत बहुत गाया जाता।
वैसे यह फ़िल्म और यह गीत देश भर में लोकप्रिय रहा। गुलज़ार के लिखे बोलों को हल्के से शास्त्रीय पुट के साथ वसन्त देसाई ने सुरों में ढाला। रेडियो से जब भी सुनते लगता था पपीहे की गूँज आषाढ के मेघ और सावन की झड़ी सब वातावरण में फैल गए हो। सभी केन्द्रों से बहुत सुनवाया जाता था यह गीत पर अब तो लम्बे समय से सुना नहीं।
जितना मुझे याद आ रहा है यह गीत वो इस तरह है -
बोले रे पपीहरा
पपीहरा
बोले रे पपी ईईईई… हरा
पलकों पर एक बूँद सजाए
मैं चीखूँ सावन ले जाए
जाए मिले --------------
एक मन प्यासा एक घन बरसे
ए ए ए ए ए ए ए ए
बोले रे पपी ईईईई… हरा आ आ आ आ
बोले रे पपीहरा
पपीहरा
बोले रे पपी ईईईई… हरा
सावन तो संदेशा लाए
मेरी आँख से मोती पाए
जाए मिले --------------
एक मन प्यासा एक घन बरसे
ए ए ए ए ए ए ए ए
बोले रे पपी ईईईई… हरा आ आ आ आ
बोले रे पपीहरा
पपीहरा
बोले रे पपी ईईईई… हरा
पता नहीं विविध भारती की पोटली से कब बाहर आएगा यह गीत…
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