Sunday, July 10, 2016

कवन गुन निमिया में -पत्‍ता पत्‍ता बूटा बूटा तेरहवीं कड़ी


पिछली कड़ी में हम राधा प्यारी और कृष्ण मुरारी को झूला झूलते छोड़ आये थे न? इस बार झूला कदम्ब की डाल पर नहीं, नीम की डाल पर पड़ा है और झूल रही हैं माँ जगदम्बा। 

निमिया के डाली मैया डालेली असनवा के झूमि झूमि ना 

मैया झुलेली झुलनवा के झूमि झूमि ना। 


कुछ तो कारण होगा कि माँ ने दुनिया भर के मीठे फल देने वाले वृक्षों को छोड़कर कड़वी नीम को चुना। इस आशय का एक गीत भी है कि आपने आम, महुआ, जामुन जैसे सारे पेड़ों को तो बिसरा दिया फिर नीम में ऐसा कौन सा गुण पाया कि उस पर झूला डलवा लिया? गेंदा, गुलाब, बेला, चमेली जैसे सुन्दर सुगन्धित फूलों को बिसरा दिया और अड़हुल की माला पसंद की? हाथी, घोडा, रथ, बिसरा दिये और शेर की सवारी पसंद की? 

अमवा महुइया के जमुनिया तू सब बिसराय देहलु 

कवन गुन, ए मैया कवन गुन निमिया में पइलु के झुलवा लगाय लेहलु। 



गीत केवल प्रश्न उठाता है, जवाब नहीं देता लेकिन सवाल माकूल है और उसका जवाब मिलना चाहिए। मुझे लगता है कि इसका जवाब इस भावना में निहित है कि वे जगन्माता हैं, जगद्धात्री हैं। वे, और सिर्फ़ वे ही जानती हैं कि संतान के लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है। क्या उसके हित में है और क्या अहित में। हमें बचपन में सिखाया गया था कि किसी मनचाही वस्तु को पाने की ज़िद मत करो। भगवान पर छोड़ दो। वही बेहतर जानते हैं कि हमारे लिये क्या उचित होगा। जगदम्बा बेहतर जानती थीं कि कड़वेपन को छोड़कर नीम हर तरह से हितकारी है, इसीलिए उन्होंने झूला झूलने के लिए नीम को चुना। उनके संपर्क के कारण नीम सबके लिए पवित्र हो उठा।


ज़्यादा दिन नहीं हुए जब रेलयात्रा करते हुए गांवों के घर-आँगन में नीम का पेड़ ज़रूर दिख जाता था। अवध क्षेत्र के मेरे एक मित्र बता रहे थे कि उनके गाँव में एक नीम के पेड़ को काली माई के थान के रूप में मान्यता मिली हुई थी। गाँव के लोगों ने नदी किनारे से मिटटी लाकर वहाँ चबूतरा बना दिया था। न तो वहाँ कोई मूर्ति थी और न कोई पुजारी। फिर भी गाँव की औरतें बड़ी श्रद्धा से काली माई को जल चढातीं और परिवार के कुशल-क्षेम की मनौती माँगतीं। हारी-बीमारी दुःख-तकलीफ़ काली माई को सुनातीं और निश्चिन्त हो जातीं।  ​

हर किसी की फ़रियाद सुनने और कष्ट दूर करने वाले एक देवता जगन्नाथ पुरी में विराजते हैं। और उनका भी नीम से सीधा सम्बन्ध है। भगवान जगन्नाथ, दाऊ बलभद्र और देवी सुभद्रा के विग्रह नीम की लकड़ी से ही बनाये जाते हैं। पूरे विधि-विधान के साथ उन पेड़ों की पहचान की जाती है, जिनसे नए कलेवर तैयार किये जाते हैं। 


सदियों से इसके लिए बड़े स्पष्ट निर्देश हैं, बहुत सी शर्तें हैं। जब उन सभी शर्तों को पूरा करने वाले पेड़ मिल जाते हैं तब उन्हें धूम-धाम से मंदिर के परिसर में लाया जाता है और प्रतिमाओं के निर्माण का काम शुरू होता है।


मेरी जानकारी में मंदिर की मूर्तियों को बदले जाने की परंपरा और कहीं नहीं है। और हो भी कैसे? और सभी देवी-देवता मानवेतर हैं। मनुष्य के गुण-दोषों से परे। अपने-अपने मंदिरों में सादर प्रतिष्ठित। कभी सुना है आपने कि ऐसे भारी-भरकम देवता बरसात में भाई-बहन को साथ लेकर सैर-सपाटे पर जाते हों, पकवान खाकर बीमार पड़ते हों और फिर कई दिनों तक सिर्फ खिचड़ी खाकर गुज़ारा करते हों? नहीं न? जगन्नाथ यह सब लीला करते हैं। और तो और, जब वापस लौटकर आते हैं और पत्नी गुस्से में दरवाज़ा नहीं खोलती तो रात भर अपराधी की तरह बाहर खड़े रहते हैं। तभी तो ऐसे प्यारे भगवान को लोग सर-आँखों पर बिठाते हैं, उनके रथ खींचकर अपने को धन्य समझते हैं।

मेरे बचपन में वासन्ती नवरात्र के दिनों में नीम के कोमल लाल पत्ते, मिश्री के साथ प्रसाद रूप में दिए जाते थे। मैं बहुत झगड़ा करती कि सवेरे-सवेरे कड़वी चीज़ क्यों खिलाते हो। पर बड़े होने पर जाना कि बदलते मौसम के साथ आने वाली बीमारियों से बचाने के लिए यह रक्षा-कवच का काम करता है। फोड़े-फुंसी पर नीम का तेल लगाने से चामत्कारिक असर होता है। खसरा या चेचक होने पर मरीज़ के कमरे में नीम की पत्तियाँ लगा दी जाती हैं ताकि इन्फेक्शन न फैले। नीम की दतुवन करने वालों को कभी पायरिया नहीं होता। हमारे बनारस में सब्ज़ी वाले नीम के फूल बेचा करते थे जो दाल-चावल के साथ तलकर खाये जाते थे। पता नहीं डॉमिनो-मैकडोनल के युग में अब यह रिवाज बाकी रहा है या नहीं। 

 मेरी एक मित्र इन दिनों कच्छ में रहती है। पिछले दिनों उसने फेसबुक पर नीम के पेड़ के कुछ चित्र शेयर किये।



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 इस नीम पर बया के ढेरों घोंसले हैं, लेकिन उन डालियों पर हैं जो तालाब के ऊपर तक फैली हुई हैं और जंगली जानवरों की पहुँच से दूर हैं।  एक तो बया का घोंसला अपने आप में एक बड़ा अजूबा है कि बिना हाथ-पैर का एक छोटा सा पक्षी, सिर्फ अपनी चोंच के सहारे पत्तों से कैसे बारीक तार निकालकर कैसी अद्भुत रचना कर डालता है! उस पर उनकी आत्म-रक्षा की समझ - कि उन्होंने घोंसले ऐसी जगह बनाए हैं जहाँ कोई शत्रु आसानी से न पहुँच सके।
और एक हम हैं, इस पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान और शक्तिमान प्राणी - जो अपने हाथों अपनी भावी पीढ़ियों का विनाश करने पर तुले हुए हैं। ज़रा नहीं सोचते कि अगर हमारे यही रंग-ढंग रहे तो न नीम होगा, न उस पर रहने वाली बया। 

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5 comments:

  1. Akhilesh Rawat : Sach kah rahe ho didi aap.....really

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  2. Sarita Lakhotia : सदियों से नीम के औषधीय गुण किसी से छिपे नहीं हैं।
    बचपन में हम नीम की दातुन करते थे और अब नीम पेस्ट करते हैं।
    अम्मा बक्सों में नीम की सूखी पत्तियां डालती थीं और अब मेरा बेटा पुस्तकों की अलमारियों में नीम का तेल लगता है कि सिल्वरफिश न लगे।
    शुभ्रा, तुमने नीम पर इतना खूबसूरत लिखा है कि मुझे झूला डाल कर झूलने का मन हो रहा है।
    सावन ऋतु में मल्हार के साथ हलकी हलकी पेंगें लगाईं जाए और नीम की सुंदरता को निहारा जाये। .......

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  3. बहुत ही रोचक जानकारियां दी हैं आपने... हमारे यहाँ भी जब भी कोई शुभ कार्य आरम्भ होता है तो सबसे पहले पचरा (देवी गीत) गाया जाता है और पचरा का प्रथम गीत अमूमन आज भी "निमिया की मईया" ही होता है...
    अब अपने यू पी में तो नीम क्या पेड़ ही कम देखने को मिलते हैं... जब कभी भी मैं ददिहाल या ननिहाल के गाँव जाती थी तो वहाँ हर किसी के दुआर पर नीम का पेड़ ज़रूर होता था (आज भी है) लेकिन शहर में हमारे घर के आस पास नीम कम अशोक का पेड़ ज़्यादा है... जब मैं कच्छ आई तो देखा, यहाँ उम्मीद के विपरीत नीम के पेड़ बहुत ज़्यादा हैं... हर मकान के सामने कम से कम एक नीम का पेड़ तो है ही और यहाँ हमारी टाउनशिप में भी नीम बहुत भारी संख्या में है... जब निमौड़ी पाक कर गिरती है तो उसकी खुशबू मुझे बचपन के गाँव में ले जाती है... यहाँ उन निमौड़ियों को इकठ्ठा करके उसे बेचते हैं जिससे आयुर्वेदिक दवाइयाँ बनती हैं... और हाँ पश्चिम बंगाल में तो आज भी नीम-बैगन बहुत ही चाव से खायी जाने वाली सब्ज़ी है

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