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Saturday, December 1, 2007

बचपन की वो "बाल-मंजूषा"..

मेरे रेडियो प्रेमी सुधी पाठको,
नमस्कार.
आज मैं आप सबके सामने एक अरसे बाद दिख रहा हूँ. अनेक कारण हैं. इतने सारे पर्वों के बीच नेट के लिए समय निकाल पाना सम्भव ही नहीं था और वो भी जब नेट आपके पास नहीं हो और उसके लिए आपको दूर किसी कैफे की शरण लेनी पड़े. वैसे भी मेर्री टाइपिंग स्पीड कम है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि मेरी परीक्षाएं अब नजदीक आती जा रही हैं.
बहरहाल, मैंने आप सबसे वादा किया था कि मैं अपने रेडियो से जुड़े अनुभव आपसे जरूर शेयर करूंगा, तो आज वो दिन आ गया है.
................. शायद बात आज से २२-२३ साल पहले की बात है. ४-5 साल का एक लड़का जो बहुत शैतान हुआ करता था इतवार की सुबह यहाँ वहाँ कूद फांद कर अपने कर हमउम्र बच्चों के साथ खेल कर ९ बजे रेडियो के पास आकर कान लगा देता था. उसका पसंदीदा प्रोग्राम जो आने वाला था. जी हाँ, "बाल मंजूषा" कार्यक्रम सुनने के लिए कोई कोई execuse नहीं. यदि सही मायनों में कहूं तो रेडियो से मेरा परिचय इसी कार्यक्रम से हुआ था. ये कार्यक्रम प्रसारित होता था हमारे नजदीकी प्रसारण केन्द्र "आकाशवाणी भागलपुर" से. मेरे बचपन का पसंदीदा केन्द्र जो आज भी मैं मिस करता हूँ.
"आकाशवाणी भागलपुर" से मेरा जुडाव तो बाल-मंजूषा के कारण ही हुआ था पर इसकी जड़ें और गहरी होती गयीं. जिसके बारे में फ़िर कभी.
नौ बजे जब ये कार्यक्रम शुरू होता था तो सारे बच्चों की मिली-जुली आवाजें आतीं- जय हिंद भैया; तो प्रत्युत्तर में एक धीर गंभीर आवाज़ आती-जय हिंद बच्चो, उसी तरह बच्चे एक बार फ़िर बोलते -जय हिंद दीदी, तो दीदी की मीठी सी आवाज़ आती - जय हिंद बच्चो. वह भैया की आवाज़ थी जिसने मुझे आकर्षित किया था और मैंने जाना था कि रेडियो की आवाज़ क्या होती है और वो ख़ास क्यों होती है. उस समय मैं यह जानने की भरसक कोशिश में रहता था कि यह आवाज़ किनकी है पर बहुत दिनों बाद ये जान पाया था कि उस शानदार आवाज़ के मालिक हैं - श्री शुभतोष बागची जी. शायद वो आवाज़ आज भी उसी ख़ास अंदाज में अबतक बच्चों को जय हिंद करती आ रही है. दीदी की आवाज़ को मैं पहचानता तो था पर आज तक उनका नाम नहीं जान पाया. हालांकि महिला उद्घोषक कभी कभी बदल भी जाती थीं.
उस जय हिंद के बाद भैया अपने सद्विचार रखते. फिर होता एक देशभक्ति गीत. यह गीत हरेक महीने में बदलता रहता और हरेक महीनें हमें अलग-अलग भाषाओं में हमें सुनने को मिलता. यही गीत अंत में सिखाया भी जाता था. इस दौरान एक अध्यापक गीत की पंक्तियों को एक-एक कर बोलते और गाते. उनके पीछे बच्चों का एक समूह भी गाता. शायद ये परम्परा अभी भी है.
उस देशभक्ति गीत के बाद बच्चे भैया या दीदी से कहानियो की फरमाइश करते और हमेशा पूरी की जाती थी. कहानिया नैतिक शिक्षा से या देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत रहतीं. उसके बाद भैया बोलते अब क्या? तो बच्चे एक स्वर में कहते गीत. जी हाँ, बच्चों के लिए बच्चों का एक फिल्मी गीत सुनवाया जाता था. बहुत सारे गीतों के बीच जो मुझे बहुत पसंद था, बल्कि है, - मेरे पास आओ ,मेरे दोस्तो एक किस्सा सुनो. मैं बार बार उसे सुनना चाहता था पर ....
इन सबके बाद बारी आती बच्चों की. वे अपनी-अपनी आवाज़ में चुटकुले कविताएँ सुनाते. यद्यपि मैं भी एक बच्चा ही था फ़िर भी किसी बच्चे की तोतली आवाज़ सुनाने पर हँसी भी आती थी.
इसी के साथ कार्यक्रम समाप्त हो जाता और शुरू होता देशभक्ति गान सिखाना.
कभी-कभी कार्यक्रम में कोई बच्चा नहीं होता और उस दिन पूरे आधे घंटे किसी नाटक को सुनवाया जाता था, जो मुझे कभी अच्छा भी लगता और कभी नहीं भी.
बच्चों केलिए एक कार्यक्रम और प्रसारित होता था हरेक गुरुवार सवा छः बजे " ग्राम जगत" के अंतर्गत "बाल-जगत". इसमें भी उसी तरह सभी बच्चे अपनी रचनाएं सुनाते, गीत भी होता. पर देशभक्ति गीत सिखाया नहीं जाता था. प्रश्नोत्तरी का भी एक कार्यक्रम होता जिसमें श्रोताओं के लिए प्रश्न पूछे जाते और जवाब देने वाले बच्चों के नाम पढे जाते थे.
हालांकि आकाशवाणी पटना से भी "बाल मंडली" और "शिशु-जगत" के नाम से दो कार्यक्रम प्रसारित होते थे पर वे मुझे आकर्षित नहीं कर पाये।

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