चूंकि उन दिनों रेडियो ही मनोरंजन का एकमात्र सहारा होता था तो हर कोई वो चाहे छोटा हो या बड़ा रेडियो अपने घर मे जरुर रखता था।वो चाहे रिक्शावाला या फिर नौकरी करने वाला। और अक्सर लोगों को कान मे रेडियो लगाए देखा जा सकता था।घरों मे एक नही कई रेडियो हुआ करते थे बिल्कुल उसी तरह जैसे आजकल घरों मे दो टी.वी.होना आम बात है। एक तो बड़ा सा रेडियो जो ड्राइंग रूम मे रखा जाता था। तब तो बड़ा रेडियो होना ही शान की बात मानी जाती थी। उस समय तो मर्फी रेडियो बड़ा मशहूर हुआ करता था। और घर मे एक-दो छोटे ट्रांजिस्टर होना भी निहायत जरुरी होता था क्यूंकि रेडियो को तो हर जगह उठा कर घूमा जो नही जा सकता था।और शादी ब्याह मे भी रेडियो और ट्रांजिस्टर देना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी।
हम लोगों के घर मे तो एक हलब्बी अरे मतलब बड़ा रेडियो था और हमारे बाबा अपना एक अलग ट्रांजिस्टर रखते थे और एक ट्रांजिस्टर हम सब बच्चे रखते थे क्यूंकि तब भी कई बार बाबा और हम लोगों की कार्यक्रम सुनने की पसंद अलग होती थी। अब अगर हम लोग गाने सुनना चाहते तो बाबा को समाचार सुनने होते।और शायद यही कारण था की लोग घरों मे छोटे ट्रांजिस्टर रखते थे। पर तब भी कई बार ऐसी स्थिति आ जाती थी कि घर मे एक कोलाहाल सा माहौल हो जाता था।सिर्फ हवा महल ही एक ऐसा कार्यक्रम था जिसे हम सब एक साथ सुनते थे। बाबा का क्या हम सब हवा महल के समय पर सब कुछ छोड़-छाड़ कर बैठ जाते थे।और उस बीच मे कोई बोल भी नही सकता था।
छायागीत सुननाहम बहनों को बहुत अच्छा लगता था और गर्मियों की वो रातें जब छत पर हम लोग सोया करते थे और हम चारों बहने इस कोशिश मे रहती कि कौन अपने पास ट्रांजिस्टर रखेगा क्यूंकि छायागीत तो रात दस बजे आता था वैसे तो आज भी इस कार्यक्रम का समय नही बदला है। और रात मे चूंकि सारा परिवार छत पर ही सोता था और पापा-मम्मी की नींद भी ना खराब हो इसका भी ध्यान रखना होता था।पर फिर भी हम लोग छायागीत सुने बिना बाज नही आते थे। ऐसे मे हमारी दुसरे नंबर की बहन ही हमेशा ट्रांजिस्टर अपने पास रखती थी और हम सब अपनी-अपनी खाट पर लेटे हुए कान लगाए ये कार्यक्रम सुना करते थे। क्यूंकि दीदी का कहना था की तुम लोग गाना सुनते-सुनते सो जाती हो और ट्रांजिस्टर उन्हें बाद मे हम लोगों की खाट पर आकर बंद करना पड़ता था। और अगर किसी का पसंदीदा गाना आता था तो ट्रांजिस्टर की खींचा खांची शुरू हो जाती थी।क्यूंकि आवाज तो ज्यादा तेज जो नही कर सकते थे।
ऊपर तारों से भरा आसमान और रेडियो पर उद्घोषक की शांत और मधुर आवाज और उस पर सुरीले गाने सुनने का जो मजा था वो तो अब दुर्लभ सा हो गया है।
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Saturday, September 22, 2007
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