बचपन में हम अक्सर एक खेल खेलते थे ...
गोलाकार में , सारे बच्चे बैठा जाते थे ओर एक बच्चा, दुसरे के कान में , आहिस्ता से, फूसफूसा कर कोइ, भी चीज़ का , वस्तु का , शहर का, फूल का , या किसी जानवर का नाम, या फिर किसी इंसान का नाम बोलता .... फिर , वही नाम गोलाकार से बैठे , दुसरे बच्चे को , फिर , आहिस्ता से, फुसफुसाकर , बतलाया जाता , जितने भी बच्चे उस गोला में शामिल होते, अंत में
, जों बच्चा नाम सुनता जों बच्चा नाम सुनता
उसे , वो नाम , जोर से बोला कर , सब को बतलाना पङता !
अजीब सा नाम , तब सुनाई देता ...
जो मूल , नाम से कई बार अलग बना जाता था ...
ये हम बच्चों का गेम का नाम हमीं खेलते थे या और बच्चे भी खेलते होंगे ये बताना मुश्किल हैं ....
पर अक्सर , जो सबसे मुश्किल नाम हम चुनते थे वो --
" भृंग तुपकरी " ही हुआ करता था ... हाँ हां हां ... चौंकिए मत !!
ये नाम के एक सज्जन नागपुर से , बंबई , पापा जी का बुलावे पर ,
विविध भारती बंबई केन्द्र में कार्य भार संभालने आ गए थे ..
तो आज उनकी यादों से ये सुना लिया जाये ....
'फिल्म जगत में प्रवेष करने के बाद पण्डित नरेन्द्र शर्मा जी ने जहाँ एक ओर
" ऐ बाद्दे सबा इठलाती न आ " मेरा गुंचा ए दिला तो सूखा गया , मेरे प्यासे लबों को छुए बिना पैमाना ख़ुशी का टूटा गया " -- और ,
" वह दिल में घर किये थे और दिल ने ही न जाना,
कोइ दिलरुबा से सीखे यूँ दिला में समा जाना "
जैसी उर्दू की लोकप्रिय गज़लें ही नहीं वरन`
" ज्योति कलशा छलके, " और " नाच रे मयूरा " जैसे हिन्दी के गीत भी लिखे।
वे जो भी करते थे पूरी निष्ठा से करते थे और जों नही करना चाहते थे , उससे साफ इनकार कर देते थे। यही कारण था की जब उन्होने सं` १९५७ में " विविध भारती " कार्यक्रम , आकाशवाणी पर शुरू करने के लिए अपने सहयोगी के रूप में मुझे आकाशवाणी नागपुर केन्द्र से बंबई बुलवाया था, तब बड़ी नम्रता से कहा था की,
" यह विविध भारती कार्यक्रम आकाशवाणी का पहला कार्यक्रम होगा , जो पूरी तरह कलाकारों पर ही आधारित या आश्रित होगा। इसके लिए इसमें के हर कलाकार को इस बात का पूरा अवसर मिल सकता है की वह जो कुछ कर सकता है, कर दिखाए ! किन्तु इसका अर्थ यह नहीं की तुम जो न कर सको , उसे भी करने का प्रयास करो , क्योंकि ऐसे प्रयास यदि निष्फल नहीं तो निष्प्राण अवश्य होते हैं किन्तु जो कर सकते हो उसे पूरी लगन से, पूरे मन से करो, ताकि उसे अच्छा रूप मिल सके " ।
वे जितने नम्र ओर मधुर भाषी थे , अपने उतरदायित्व ओर कार्यों के संपादन में उतने ही कठोर भी रहते थे। ढुलमुल नीति न उन्हें पसंद थी न अपने किसी सहयोगी से वे ऐसी अपेक्षा रखते थे। भाषा के संबध में उनकी स्पष्ट राय होती थी की, " जिस भाषा पर तुम्हारा अधिकार नहीँ है , उसे तोडने मरोडने का भी तुम्हेँ अधिकार नहीँ है.यदि सँवार सको तो भाषा को सँवारो "
कहना नहीँ होगा कि उनकी हिन्दी, हिन्दी ही होती थी ,उनकी उर्दू, उर्दू ही होती थी और उनकी अँग्रेज़ी, अँग्रेज़ी ही होती थी. इन तीनोँ भाषाओँ पर उनका पूरा अधिकार था
और साथ ही सँस्कृत पर भी उनका पूरा अधिकार था किन्तु सँस्कृत मेँ उन्होँने लेखन बहुत कम किया है.
भारतीयता और भारतीय आयुर्वेद मेँ उनकी विशेष रुचि व गति थी. भारत - भारती से सम्बध विषयोँ के वे चलते - फिरते " विश्वकोष " " एन्साय्क्लोपीडीया" माने जाते थे. हमारी कोई भी, कैसी भी जिज्ञासा होती वे तुरन्त उसका समाधान बता देते.अधिक से अधिक यदि तुरन्त न बता पाते तो कुछ समय बाद, जरुरी छानबीन करके बता देते. हम पूछकर निस्चित हो जाते,वे बताकर भी निस्चिँत न होते बल्कि अधिक से अधिक जानकारी देने की चिँता मेँ जुटे रहते.
भारतीयता और भारतीय आयुर्वेद मेँ उनकी विशेष रुचि व गति थी. भारत - भारती से सम्बध विषयोँ के वे चलते - फिरते " विश्वकोष " " एन्साय्क्लोपीडीया" माने जाते थे. हमारी कोई भी, कैसी भी जिज्ञासा होती वे तुरन्त उसका समाधान बता देते.अधिक से अधिक यदि तुरन्त न बता पाते तो कुछ समय बाद, जरुरी छानबीन करके बता देते. हम पूछकर निस्चित हो जाते,वे बताकर भी निस्चिँत न होते बल्कि अधिक से अधिक जानकारी देने की चिँता मेँ जुटे रहते.
वे ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे कि अब ऐसा लगता है कि जैसे हमने अपने प्रकाश का ऐसा आधारस्तँभ खो दिया है, जो हमारे अज्ञान को छूते ही दूर कर देता था.
लेख : श्री भृँग तुपकरी -- सँकलन : लावण्या