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Friday, December 7, 2007

रेडियो प्रोग्राम का मंथन

विविध भारती के लोकप्रिय कार्यक्रम मंथन में फ़िल्मों के प्रचार की बात चली। रेडियोनामा की सौवीं पोस्ट के रूप में पीयूष जी ने इसे प्रस्तुत किया। बात यहां पूरी तरह से व्यावसायिकता की है।

पहले केवल रेडियो सिलोन ही व्यावसायिक था। वैसे रेडियो का नाम मीडिया में समाचार पत्रों के बाद ही रहा। बात अगर फ़िल्मों की करें तो कहना न होगा की फ़िल्में तो पूरी तरह से व्यावसायिक है। अपना व्यवसाय बढाने के लिए दूसरे व्यावसायिक माध्यमों का प्रयोग तो किया ही जाता है। फ़िल्मों के लिए अगर प्रचार माध्यम की बात आए तो रेडियो का महत्व समाचार पत्रों से अधिक ही रहेगा।

पहले रेडियो सिलोन के रेडियो प्रोग्राम फ़िल्मों के प्रचार का बहुत ज़ोरदार माध्यम थे। वैसे रेडियो प्रोग्राम का मतलब होता है रेडियो के कार्यक्रम लेकिन यहां फ़िल्मों के प्रचार के लिए रेडियो प्रोग्राम ही नाम दिया गया। कहा जाता फ़लां फ़िल्म का रेडियो प्रोग्राम।

सिलोन पर लगभग रोज़ ही रेडियो प्रोग्राम आया करते पर रविवार को तो इन कार्यक्रमों की भरमार होती। एक कार्यक्रम कुल 15 मिनट का हुआ करता और रविवार को एक ही घण्टे में 2-3 कार्यक्रम प्रसारित होते थे।

फ़िल्म रिलीज़ होने के कुछ महीनें पहले से ये कार्यक्रम शुरू होते। सप्ताह में कम से कम एक बार होते। अक्सर इन कार्यक्रमों की प्रस्तुति अमीन सयानी करते।

इसमें फ़िल्म से जुड़े सभी नाम बताए जाते। कुछ संवाद सुनवाए जाते। सभी गीतों के मुखड़े बजते। कुल मिलाकर फ़िल्म किस तरह की है ये जानकारी मिल जाती जिससे दर्शकों को ये तय करने में आसानी हो जाती थी कि फ़िल्म देखें या नहीं। जैसे फ़िल्म आज की ताज़ा खबर का रेडियो प्रोग्राम -

इस फ़िल्म के नाम से फ़िल्म का अंदाज़ा नहीं होता था क्योंकि ताज़ा खबर तो कुछ भी हो सकती है। कलाकार भी किरण कुमार और राधा सलूजा थे जिनकी कोई छवि उस समय तक नहीं बन पाई थी। रेडियो प्रोग्राम सुन कर जानकारी मिली कि यह एक मनोरंजक फ़िल्म है। जिन्हें इस तरह की फ़िल्में पसन्द नहीं वे देखने नहीं गए।

जहां तक मेरी जानकारी है यादों की बारात पहली फ़िल्म थी जिसके रेडियो प्रोग्राम में धर्मेन्द्र आए थे। शायद तभी से कलाकारों की इस तरह से प्रचार कार्यक्रम में भाग लेने की शुरूवात हुई।

जब से विविध भारती व्यावसायिक हुई तो यहां भी रेडियो प्रोग्रामों का दौर शुरू हुआ और शायद पहली फ़िल्म थी रातों का राजा जिसके नायक थे धीरज कुमार जिनकी बतौर नायक शायद यह पहली फ़िल्म थी।

रेडियो प्रोग्राम का कोई लाभ फ़िल्म को नहीं मिला और फ़िल्म फ़्लाप रही। पर इसका रफ़ी का गाया एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। सभी तरह के कार्यक्रमों में यह गीत गूंजने लगा था और फ़ौजी भाई तो इसकी कुछ ज्यादा ही फ़रमाइश करते थे -

मेरे लिए आती है शाम चंदा भी है मेरा ग़ुलाम
धरती से सितारों तक है मेरा इंतज़ार
रातों का राजा हूं मैं

Wednesday, October 10, 2007

हवालदार नायक की वो अदभुत हंसी

आज दूरदर्शन हो या कोई निजि चैनल कोई न कोई धारावाहिक प्रायोजित कार्यक्रम चलता ही रहता है। कुछ कहानियां वर्षों तक खींची जाती है तो कुछ धारावाहिकों में हर अंक में एक नई कहानी होती है। विषय भी अलग-अलग है या कहें सभी विषय है - सामाजिक समस्याओं से लेकर, गाने बजाने से लेकर भूत चुड़ैल और जासूसी कारनामों तक।

मुद्दा ये कि एक ही समय पर एक ही विषय पर कुछ मसालेदार परोसा जाता है और परोसने वाले होते है उन उत्पादों की कंपनी वाले जिन्हें बिक्री बढानी है। अब ये सोचने वाली बात है कि इसकी जड़े पीछे कहां तक है। जहां तक मेरी जानकारी है ऐसा सबसे पहला कार्यक्रम है - इंस्पेक्टर ईगल।

वैसे तो प्रायोजित कार्यक्रमों से श्रोताओं का परिचय रेडियो सिलोन ने कराया लेकिन वहां गाने जैसे बिनाका गीत माला, चुटकुले शायरी जैसे मराठा दरबार की महकती बातें, रोचक सवाल जवाब जैसे जौहर के जवाब या एस कुमार्स का फ़िल्मी मुकदमा जैसे कार्यक्रम थे। लेकिन नाटक के रूप में प्रायोजित धारावाहिक जो आज निजि चैनेलों के कारण हमारे जीवन का अंग बन चुके है, पहली बार शायद विविध भारती का इंस्पेक्टर ईगल ही था।

इंस्पेक्टर ईगल रात में हवामहल के बाद साढे नौ बजे प्रसारित होता। रहस्य और रोमांच से भरपूर किसी अपराध का पर्दाफ़ाश करती हर सप्ताह एक अलग कहानी होती इस साप्ताहिक कार्यक्रम में।

इसमें मुख्य पात्र दो थे - एक इंस्पेक्टर ईगल और दूसरा हवालदार नायक। ईगल फ्लास्क बनाने वाली कंपनी ने इसे प्रायोजित किया था इसीलिए इंस्पेक्टर का नाम ईगल रहा। कहानी की मांग के अनुसार अन्य पात्र भी होते।

हर सप्ताह एक रोचक किस्से को नाटक में ढाल कर पेश किया गया। आज तो एक भी किस्सा याद नहीं लेकिन याद है तो हवालदार नायक की वो अदभुत हंसी जो खीं खीं खीं से शुरू होती और लंबी खिंचती जिसके बीच में हिच्चचच भी होता। फिर इंस्पेक्टर ईगल की ज़ोरदार आवाज़ आती - हवालदार नायक और हवालदार नायक का खिसियाना जवाब सॉरी सर

हवालदार नायक बने थे युनूस परवेज़ जो फ़िल्मों में चरित्र भूमिकाएं करते थे। इंस्पेक्टर ईगल की भूमिका शायद धीरज कुमार ने की थी जो टेलिविजन धारावाहिक बनाते है।




Saturday, October 6, 2007

विज्ञापन जो भुलाए नहीं भूलते

विज्ञापनों से श्रोताओं को परिचित करवाया रेडियो सिलोन ने। सबसे अधिक विज्ञापन सवेरे ८ से ९ तक प्रसारित होने वाले आप ही के गीत कार्यक्रम में प्रसारित होते। इस कार्यक्रम में नए फ़िल्मी गीत बजते और वो भी फ़रमाइश पर।

साठ और सत्तर के दशक का तो फ़िल्मी संगीत बहुत ही बढिया रहा। ऐसे में साथ प्रसारित होने वाले विज्ञापनों को भूलना कठिन ही है। हर गीत के बाद विज्ञापन प्रसारित होते। विज्ञापनों की संख्या तो आज की तुलना में कम ही थी पर बार-बार प्रसारित होते थे।

कुछ विज्ञापन तो हर दूसरे तीसरे गीत के बाद आते। कभी-कभी तो लगातार हर गीत के बाद आते। मुझे अच्छी तरह से याद है तीन विज्ञापन जिसमें से दो तो अक्षरक्षर याद है। अक्सर ये तीनों विज्ञापन गीत समाप्त होते ही एक के बाद एक आते -

पहला सरकारी विज्ञापन परिवार नियोजन का जो इस तरह है -

फ़िल्मी गीत समाप्त होते ही लगभग उसी से जुड़ कर आवाज़ आती बस में कंडक्टर द्वारा बजाई जाने वाली घण्टी की जिसके बाद बस रूकने की आवाज़ फिर बस अड्डे का शोर। तभी कंडक्टर कहता -

जगह नहीं है, जगह नहीं है, इतने ज्यादा बच्चों के साथ किसी ख़ाली बस का इंतज़ार करें।

फिर घण्टी की आवाज़ और बस चली जाती। फिर महिला स्वर उभरता -

बेटियां हो या बेटे, बच्चे दो ही अच्छे

तब ये सब साथ-साथ हम भी बोला करते और मज़ा लेते। इसकी गंभीरता तब तो समझ में नहीं आती थी पर आज विस्फ़ोटक जनसंख्या में समझ में आता है।

इसी के पीछे दूसरा विज्ञापन आता साड़ियों का -

एक महिला स्वर - शीला ज़रा पहचानो तो मैनें कौन सी साड़ी पहन रखी है।

दूसरा स्वर - उं उं उं हार गए भई

पहला स्वर - ये है नाइलैक्स 644 और वो जो हैंगर पर लगी है न, वो है टेट्रैक्स 866

दूसरा स्वर - नाइलैक्स 644 और टेट्रैक्स 866

और विज्ञापन समाप्त। टेट्रैक्स की साड़िया तो इस देश में शायद ही कभी रही हो पर नाइलैक्स उस समय ख़ूब चली। मेरी मां ने भी पहनी और पसन्द की पर आज कहीं नज़र नहीं आती।

इसके बाद तीसरा विज्ञापन सोनी कैसेट का होता जो एक जिंजल (गीत) होता। बहुत अच्छा था पर मुझे याद ही नहीं आ रहा।

आज मार्किट में उत्पाद बढने से विज्ञापन भी बहुत बढ गए है। सुनते-देखते इतने ऊब गए है कि बड़े स्टार इन विज्ञापनों में होने के बावजूद भी विज्ञापन याद नहीं रहते। जब तक बजते तब तक एकाध मुख्य पंक्ति याद रह जाती लेकिन बजना बंद होते ही सब भूल जाते।

Monday, October 1, 2007

अंताक्षरी सबसे पहले विविध भारती से ?

आज अंताक्षरी टेलीविजन चैनलों का एक लोकप्रिय कार्यक्रम बन गया है। जहां तक मेरी जानकारी है अंताक्षरी कार्यक्रम सबसे पहले विविध भारती से प्रसारित हुआ था।

यह सत्तर के दशक का समय था। वर्ष शायद 1975 या 76 या 77 हवामहल के बाद रात साढे नौ बजे प्रायोजित कार्यक्रम में अंताक्षरी होती थी जिसे प्रस्तुत करते थे शील कुमार।

पता नहीं कितनों को याद है प्रसारण जगत का यह नाम - शील कुमार जो रेडियो और दूरदर्शन पर कार्यक्रमों का संचालन करते थे।

अंताक्षरी कार्यक्रम कुल 15 मिनट का होता था। इसमें एक ही राउंड होता था अंताक्षरी राऊंड यानी एक अक्षर से गीत शुरू करना और उसके अंतिम अक्षर से अगला गीत।

यहां टीम नहीं थी। केवल दो कलाकार ही अंताक्षरी खेलते थे। इन दो कलाकारों में लड़का और एक लड़की होते थे। किसी अक्षर से गीत नहीं गा सकने पर हार जाते लेकिन दूसरा कलाकार भी नहीं गा पाता तो संचालन करने वाले शील कुमार एक नया अक्षर दे देतें। समय की समाप्ति पर दोनों बराबर होते तो दोनों को बराबर मान कर खेल समाप्त कर दिया जाता।

यह कार्यक्रम साप्ताहिक था। हर सप्ताह एक शहर के कलाकर आते। कार्यक्रम की रिकार्डिंग भी विभिन्न शहरों में हुई थी। हैदराबाद में भी हुई।

शील कुमार किसी एक शहर में जाते। विज्ञापन कैसे दिया जाता ये तो पता नहीं पर उस शहर के कलाकार जिनमें कालेज और विश्व विद्यालय के लड़के - लड़कियां भी शामिल होते, शील कुमार से संपर्क करते। फिर उनका आडिशन होता और केवल एक लड़का और लड़की चुने जाते। यही दोनों अंताक्षरी खेलते।

उन दिनों पता नहीं किस शहर से एक लड़के ने भाग लिया था जिसका नाम किशोर कुमार था। नाम असली था नकली ये तो पता नहीं चला लेकिन उसकी आवाज़ भी बहुत अच्छी थी और सुर भी सधा हुआ था। उसे जूनियर किशोर कुमार कहा जाने लगा था। उस दौर के अख़बारों में भी उस पर कुछ लेख लिखे गए। जैसा कि अक्सर होता है कुछ लोगों द्वारा कलाकारों को सब्ज़ बाग़ दिखाए गए।

कार्यक्रम लंबे समय तक नहीं चला। याद नहीं इस कार्यक्रम को कौन सा उत्पाद बनाने वाली कंपनी ने प्रायोजित किया था। कार्यक्रम का नाम भी मुझे ठीक से याद नहीं शायद अंताक्षरी या शील कुमार की अंताक्षरी या उस उत्पाद की अंताक्षरी था।

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