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Thursday, April 10, 2008

म्हारी सखियां- सहेलियां भी लड्डू लागे रे

कल का सखि-सहेली कार्यक्रम आकाशवाणी के जोधपुर केन्द्र से था जिसे शायद विविध भारती की टीम ने जैसलमेर यात्रा के दौरान तैयार किया था क्योंकि कार्यक्रम में नवरात्र आएगी कहा जा रहा था जबकि यह नवरात्र ही है।

इसे प्रस्तुत कर रही थी ममता जी और साथ में थीं जोधपुर केन्द्र की कविता शर्मा। आमंत्रित सखियां थीं - ऊषा दवे जी, दमयन्ती जी और कृष्णा जी।

शुरू में महिलाओं के सोलह श्रृंगार गिनाए गए फिर चर्चा चली आभूषणों की। यह सच है कि आभूषणों की जितनी अधिकता और विविधता राजस्थान में है उतनी और कहीं नहीं। किसी भी राज्य की महिला जब सबसे अधिक आभूषण पहनती है तो वो राजस्थानी महिला के सबसे कम आभूषण होते है।

सभी पारम्परिक आभूषणों की जानकारी दमयन्ती जी ने दी। ऐसे-ऐसे आभूषण जिन-जिन स्थानों पर पहने जाते है जिनकी जानकारी बहुतों को नहीं है।

एक बार माध्यम की कमज़ोरी खटकी। जहाँ ये बताया जा रहा था कि झेला और शक्कर पारे कहाँ और कैसे पहने जाते है। वैसे समझाया तो अच्छा ही जा रहा था कि बिंदिया के पास से पहना जाता है और किस तरह बालों से होते हुए कानों पर होता है फिर भी आजकल टेलीविजन में देख कर जानने की आदत हो गई है इसी से थोड़ी कठिनाई हुई।

फिर बज उठा इससे मैच करता अभिमान का गीत - तेरी बिंदिया रे ! वैसे कल गाने सुनने को नहीं सूँघने को मिले पर अभिमान के गाने के बाद जो लोक गीतों की झड़ी लगी - मज़ा आ गया।

चारों सखियों ने गाए और शायद ममता जी की आवाज़ भी शामिल रही। विभिन्न लोक गीतों की कुछ-कुछ पंक्तिया गाई गई। इन गीतों के बारे में जानकारी भी दी गई जैसे नई बहू आयी है तो वो कैसी है इसका वर्णन गीत में किया जाता है -

देवी आँख की तो रतन जड़ी गाल तो लड्डू लाती रे
पसलियाँ तो बिजलियाँ भार हाथ…

मैं ठीक से नोट नहीं कर पाई। एक गीत जो बहू गाती है -

सासरिया में आय के मैं तो दुःखा में पड़ गई रे

राजस्थान के चटक रंगों के पारम्परिक परिधानों की जानकारी दी गई और इनका वैज्ञानिक समाधान भी बताया गया जैसे गर्भवती महिला का प्रसव के समय लाल और पीले रंग का पहारावा होता है। यह दोनों ही रंग अधिक ऊर्जा देने वाले होते है।

जब शोक की घड़ी आती है तब धूसर (ऐश) रंग पहना जाता है जो कालेपन को मद्धम करता है यानि शोक दूर करता है।

पहरावे, आभूषण यहाँ तक कि मेंहदी के डिज़ाइन और पहरावे के रंग भी ॠतु परिवर्तन के साथ बदले जाते है। पारम्परिक पहरावा लहँगा ओढनी है जिस पर गोटा ज़रूरी है। लहँगा 36 कलियों का भी होता है जिस पर गीत भी है -

म्हारे लहँगे रा नौ सौ रूपया रोकड़ा

पारम्परिक व्यंजन लापसी बनाना भी बताया गया। पूरा कार्यक्रम राजस्थानी में रंग में रंगा था। एकदम मीठा बिल्कुल लड्डू की तरह। मुझे तो बहुत पसन्द आया।

मैं अनुरोध कर रही हूँ ब्लागर मित्रों से कि अगर हो सके तो यहाँ रेडियोनामा पर इसे चढाए ताकि सभी इसका आनन्द ले सकें।

3 comments:

arbuda said...

आकाशवाणी जोधपुर से मेरा भी संबंध रहा है, यह पोस्ट पढ़ कर मुझे मेरे पुराने दिन और प्यारा जोधपुर याद आ गया।

Anonymous said...

'म्हारे लहँगे में नौ सौ रूपया रोकड़ा'

कृपया लोकगीत के बोल ठीक कर दें . कीमत लहंगे की होती है, लहंगे में नही . सही बोल हैं :
" म्हारे लहरिये रा नौ सौ रिपिया रोकड़ा सा,म्हाने लाइ दे लाइ दे लाइदे ....."

-- चौपटस्वामी

annapurna said...

अन्जाने में मुझसे भयंकर ग़लती हो गई थी, सुधारने का शुक्रिया।

अर्बुदा जी आप पुरानी यादों में खो गई, हमें अच्छा लगा।

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