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बहला फुसलाकर जैना ने मुनकी को नहलाया धुलाया और ठीकठाक से कपड़े पहना दिए थे. वो जानती थी कि चाहे मेहमानों ने मुनकी की खूबसूरती के बारे में कितना भी सुन लिया हो, वो एक बार उसे देखे बिना नहीं मानेंगे क्योंकि ऐसी अफवाहें घूम फिरकर जब जैना के कानों तक पहुँच चुकी थी कि जैना और अमरू बात मुनकी की करेंगे और अच्छा खासा पैसा लेकर फिर निकाह मुनकी से छोटी नूरकी का करवा देंगे,
जैना ने बस इतना ही
कहा, “चाल तूं बा’र चाल, जिद मती ना कर.” (चल तू, बाहर चल.....जिद मत कर ) उसके सर
पर ओढ़नी डालदी, और बाहर की ओर खींचने लगी. झोंपड़े से बाहर जब वो घिसटती हुई सी
निकली तो सारे मेहमानों की आँखें उस तरफ उठ गईं. ओढ़नी का घूंघट निकला हुआ था,
इसलिए उसका चेहरा तो दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन
कान्चळी कुड़ती से झांकती उसकी सोने जैसी काया सारे मेहमानों को चकित कर रही
थी. घुटनों को छूती काले स्याह बालों की चोटी और भरा हुआ बदन. सभी मानो कुछ पल के
लिए सम्मोहित से हो गए. सबको मुंह बाए मुनकी को ताकते हुए देखकर अमरू ने ठहाका
लगाया और बोला, “मैं नईं बोला था..... पूगळ की पद्मणी है मेरी छोरी...... साळों
..... आँखें फाड़ फाड़कर क्या देख रहे हो....? रुपये गिणो एक लाख अर सौदा पक्का करो.
“
तभी गुस्से में भरी
हुई मुनकी ने अपने चेहरे पर पड़ी ओढ़नी को नीचे फेंक दिया. सबकी नज़रें उसके चेहरे पर
पड़ी. अचानक जैसे सबको बिजली का झटका सा
लगा. मुनकी की आँखों से चिंगारियां निकल रही थीं, ऐसी चिंगारियां कि उन बेचारे
बहावलपुरियों की घिग्घी बंध गयी. मुनकी शापित यक्षिणी की तरह उनके सामने खड़ी थी.
अमरू भी उसका ये रूप देखकर एकदम जड़ हो गया था. बेचारा वो ५०-५५ बरस का रमजान जो
रुपयों की ताक़त से मुनकी को अपनी बीवी बनाना चाहता था, मुनकी की आँखों को देखकर
कांपने लगा. उसने अपने साथियों की तरफ देखा और अचानक सारे बहावलपुरी उठ खड़े हुए.
अमरू बोला, “अरे क्या हो गया? आप खड़े क्यों हो गए? आप फिकर ना करो.......आपको पसंद
है तो मैं अपणी छोरी देणे को त्यार हूँ.”
अमरू के इतना कहते ही मुनकी चिल्लायी, “हाँ........ जा कठै रिया हौ? अरे हाल
तो थे देख्यो ई कांईं है? हरामजादों....... म्हारे सरीर पर कित्तो गोस है देखणो है?
कांचळी उतारूं? अर कुण तूं म्हनै थारी बीवी बणासी ? थारै सरीर में इत्ती तागत है?”(हाँ
हाँ जा कहाँ रहे हो ? अभी तो आप लोगों ने देखा ही क्या है? हरामजादो....मेरे शरीर
पर कितना गोश्त है देखना चाहते हो? कांचळी उतारूं? और कौन... तू मुझे अपनी बीवी
बनाना चाहता है? तेरे शरीर में ताकत है इतनी ?)
वो पचास-पचपन साल का खिजाब लगा कर अपने को जवान दिखाने की कोशिश करने वाला
इंसान दारू के नशे से डगमगाते क़दमों से मुनकी की तरफ बढ़ने लगा. तभी उसने देखा,
मुनकी अपने बाप के सामने खडी थी. उसने अपने बाप के गाल पर खींचकर एक तमाचा जमाया
और बोली, “ अरे भडवा.......तने सरम कोनी आवै? इये डोकरे सागै म्हारो ब्यांव करावै
? ईये नान्सू तो सडक पर बैठा दे म्हने. म्हारो सरीर बेच’र इत्ता पइसड़ा तो मिल ई
जासी.” (अरे भडुए तुझे शर्म नहीं आती ? इस बूढे के साथ मेरी शादी करवा रहा है? अरे
इससे अच्छा तो मुझे सड़क के किनारे बिठा दे. इतने पैसे तो मेरे शरीर को बेचकर मिल
ही जायेंगे.)
तमाचा पड़ते ही गुस्से में तमतमाया हुआ, वो टूट पडा मुनकी पर. बाप बेटी गुत्थमगुत्था
होकर एक दूसरे पर हाथ पैर चला रहे थे. दोनों एक दूसरे को गालियाँ भी निकाल रहे थे.
नशे में चूर बूढा अमरू जवान मुनकी का कितनी देर मुकाबला करता. नीचे गिर पडा और पडा
पडा मुनकी को गालियाँ देने लगा और मार खाने लगा. जैना रोती हुई, गालियाँ देने लगी
और मुनकी का हाथ पकड़कर खींचने लगी, “अरे
रांड कठियाँ आयगी तूं म्हारी कोख में ? कांईं भी हूय जाओ आखर औ थारो बाबलियो है.
तूं कठै ई जा’र कूओ खाड क्याँ नईं करै बाळनजोगी ?”(अरे रांड तू कहाँ से आ गयी मेरी
कोख में?कुछ भी हो, है तो ये तेरा बाप. तू जाकर किसी कुए में क्यों नहीं कूद जाती
?)
मुनकी चिल्लाई, “ हाँ म्हारो बाबलियो है.......... इसो हुवै कांईं बाबलियो ?
दो बगत रै टुकड़ां खातर आपरी औलाद नै नीलाम कर दै..........? नईं औ म्हारो बाप कोनी
? अर है तो भी थू है इसै बाप माथै......” (हाँ
मेरा बाप है ये.... ऐसा होता है बाप जो दो वक़्त की रोटी के लिए अपनी औलादों को
नीलाम करदे? नहीं ये मेरा बाप नहीं है..... और अगर है भी तो थू है ऐसे बाप पर )
वो चिल्लाए जा रही थी. जैना उसे खींच कर झोंपड़े में ले गयी. अमरू उठ खड़ा हुआ.
अमरू के घर की चौकी पर ये सारा हंगामा हो रहा था. आने जाने वाले, मोहल्लेवाले
सब इकट्ठे होकर तमाशा देखने लगे. ये सारा हंगामा देखकर मेहमानों के होश उड़ गए. जो
लड़की अपने बाप के साथ इस तरह मार पीट कर सकती है वो उनके घर आकर तो पूरे परिवार का
जीना हराम कर देगी. ऐसी लड़की को ब्याह कर ले जाना तो आफत को दावत देना है. रमजान
बोला, “ मुझे नहीं चाहिए ऐसी जोरू. मेरे रुपये वापस करो. अरे जो छोरी अपने बाप के साथ
थप्पड़ मुक्के कर सकती हो वो हमें क्या गिणेगी ? लाओ हमारे दस हजार रुपिये वापस.”
इतनी देर मुनकी के हाथों मार खाने वाला अमरू रुपये की बात आते ही शेर बनकर
दहाड़ने लगा, “रुपिये ? कौण से रुपिये ? साळों सुबै से दारू पी रए हो, गोस गटक रए हो,
वो फोकट में आते हैं क्या? जाओ अपणा रस्ता नापो मेरी छोरी से ब्याँव नईं करना है
तो. “
आपने हमने, अपने आस पास देखा ही है कि दारू का नशा कभी इंसान को इस क़दर बेहद
भावुक बना देता है कि वो बिना बात के आंसू बहाने लगता है और कभी मच्छर जैसे इंसान
को भी इतना बहादुर बना देता है कि वो अच्छे से अच्छे पहलवान से भिड़ पड़ता है. रमजान
के साथ आये बहावलपुरियों में से एक ने कंधे पर लटकाई हुई दुनाली उतारी और बोला, “ए
रुपिये निकाळ नईं तो गोळी मार दूंगा.”
अमरू सीना ठोक कर बोला, “अरे जा जा, बडा आया गोळी मारने वाळा........ तुम
बहावलपुरियों को क्या मैं जानता नहीं ? खांधे पर दुनाळी लटकाने से ई कोई भादर नईं
बण जाता. तुम्हारे बाप ने भी चलाई है कभी किसी मिनख पर गोळी ? लै काळजा है तो चला
गोळी........चला...... चला.”
और वास्तव में उस बहावलपुरी के हाथ पैर फूल गए गोली चलाने के नाम पर. अब तो
अमरू का हौसला और बढ़ गया कोने में पड़ी लाठी उठाकर गरजा, “साळे डरपोकों.......
तुमसे तो गोळी क्या चलेगी ? भला चा’ते हो तो अल्ला अल्ला करके निकळ लो, नईं तो मैं
सोट(लाठी) चलाणे लगा ना तो एक एक को पाधरा(सीधा) कर दूंगा. “
अब बहावलपुरियों ने भागने में ही खैरियत समझी. सब अपनी अपनी बंदूके लेकर भाग
खड़े हुए. मगर जाते जाते अमरू को धमकी भी दे गए, “हरामी चोर, अपणे आप को बहोत
तीसमार खां समझता है? ऐसे नहीं छोड़ेंगे दस हज़ार रुपये. याद रखना....... हम फिर
आयेंगे और ये दस हज़ार रुपये वसूल करके जायेंगे तुझसे.”
“अरे जाओ जाओ गादड़े(गीदड़) की औलादों........ आ जाणा, जब भी इतनी हिम्मत बापर
जाए तुम्हारे अन्दर....... तुम्हारे जैसे डरपोकों के लिए मैं एकला ई बोहत हूँ.”
वो आखिरकार वहाँ से चले गए. जैना ने अमरू को कहा, “अरे क्यों दुस्मणी मोल ले
रिया हौ ? दे देंवता बाकी बच्योड़ा रुपिया. काल नै रात बिरात आ’र हमलो कर दियो तो
तीन तीन टाबर है, इंयांनै ले’र कठै बड़ांला ?”(अरे क्यों दुश्मनी मोल ले रहे हो ?दे
देते बाकी बचे रुपये. कभी रात बेरात हमला कर दिया तो तीन तीन बच्चों को लेकर कहाँ
जायेंगे ?)
“अमरू री जेब में आयोड़ा रुपिया ईंयां सोरै सांस कोइ कोनी निकळवा सकै अर तूं
फिकर ना कर, अै गादड़ां इसी माँ रौ ई दूध कोनी पियो कै पाछा आवण री हिम्मत कर सकै. ला
ला म्हनै रोटी खुला बाळ तूं तो.”(अमरू की जेब में आये रुपये कोइ आसानी से नहीं
निकलवा सकता. तू फिक्र मत कर, इन गीदड़ों ने ऐसी माँ का दूध ही नहीं पिया कि वापस
आने की हिम्मत कर सकें...... ला ला मुझे रोटी खिला तू तो.)
जैना बड़बड़ाती हुई रोटी बनाने लगी. उधर मुनकी झोंपड़े में पस्त हुई पड़ी थी और नशे
में चूर अमरू का दिमाग किसी और ही सिम्त चल रहा था. इस बहावलपुरी पार्टी ने दस
हज़ार रुपये एडवांस दिए थे. उसमे से दारू मांस पर मुश्किल से सौ डेढ़ सौ रुपये खर्च
हुए थे. वो मन ही मन मुस्कुराया, मुनकी के पास आया और बोला, “शाबाश मुनकी शाबाश......तूं
तो कमाल कर दियो. दस हज़ार रुपिया दे’र गया साळा.........बै रुपिया तो हज़म.........
तूं तो इसो ड्रामो हर मइने में एक बार कर लै तो पौ बारा पच्चीस है आपणा तो.”
(शाबाश मुनकी शाबाश.... तूने तो कमाल कर दिया..... दस हज़ार रुपये दिए थे इन लोगों
ने वो तो अब हज़म.......तू तो महीने में एक बार ऐसा ड्रामा करले तो हमारी तो पौ
बारह पच्चीस है)
अब जैना से भी चुप नहीं रहा गया. वो रोटी बनाती बनाती बोली, “अरे तूं बाप है
या कसाई ? आ थारी औलाद है, तूं जाणै है नी ? तूं हर मइने ईंनै इसो ई ड्रामो करण
वास्ते कैवे है? अरे थारे तो कीड़ा पड़सी बुढापे में देख लिए. “( अरे तू बाप है या
कसाई ? ये तेरी ही औलाद है और तू इसे हर नहीने एक बार ऐसा ड्रामा करने को कह रहा
है? बुढापे में देख लेना तेरे शरीर में कीड़े पड़ेंगे .)
“चाल चाल चुप हूजा.........तूं चुपचुपाती रोटियां उतार...... गया साला हरामी.
गोस सगलो तो कोनी खाय्ग्या? म्हने भूख लागी है, जोर सूं .” (चल चल तू चुपचाप
रोटियाँ बना.... गए साले हरामी. गोश्त सारा तो नहीं डकार गए? मुझे बहोत जोर से भूख
लगी है.)
सबने खाना खाया. बस मुनकी थी जिसने खाना खाने से मना कर दिया तो न जाने कहाँ
से अमरु के अन्दर एक बाप उतर आया . उसने मुनकी के सर पर हाथ फेरा और बोला, “अरे
रांड आ दुनिया इसी ई है. तूं नईं लूटसी इने तो आ तने लूटसी. म्हारो कै’णो मान. अरे
इसे हरामजादां नै इयाँ ही लूटती रै . म्हारी ज़िंदगी भी चाल जासी अर म्हांरे पाछे
थारी ज़िंदगी भी कट जासी. आपां कोई पईसे आला तो हाँ कोनी, गरीब लोग हाँ. आपाणी
इज्ज़त खाली दो बगत री रोटी है.” (ये दुनिया ऐसी ही है, अगर तू नहीं लूटेगी इसे तो
ये तुम्हें लूटेगी. मेरा कहना माँ, इन हरामजादों को इसी तरह लूटती रह. इससे हमारी
ज़िंदगी भी आराम से कट जायेगी और हमारे बाद तुम्हारी भी. हम लोग पैसे वाले तो हैं
नहीं, गरीब लोग हैं, दो वक़्त की रोटी ही हमारी इज्ज़त है.)
मगर मुनकी ने अपने बाप का हाथ बुरी तरह झटक दिया. वो मन ही मन सोच रही थी, “
यही हाथ था जो थोड़ी देर पहले इतने लोगों के सामने उसे मारने को उठा था, अब लाड जता
रहा था........... हुंह झूठा लाड. ये उन दस हज़ार रुपयों का लाड है जो इसने हज़म कर
लिए थे.”
मैंने तो यही समझा कि मुनकी का सौदा हो गया होगा और थोड़े ही दिनों में उसका
ब्याह किसी पचास बरस के बुढ़ाते हुए बहावलपुरी के साथ हो जाएगा लेकिन अगले ही दिन
मुनकी मेरे घर आई. उस दिन घर में काम करने वाली भाणी बाई नहीं आई थी इसलिए मुनकी
को ही बर्तन साफ़ करने थे, सफाई करनी थी. पिताजी कहीं आस पास गए हुए थे. दरवाज़ा
खटखटाने की आवाज़ सुनाई दी तो मैंने दरवाज़ा खोला और देखा, मुनकी मेरे सामने खड़ी हुई
थी. मैं एक तरफ हट गया. वो अन्दर आई और चुपचाप आँगन के कोने में रखे गंदे बर्तन
मांजने लगी. मैं आँगन में रखी आरामकुर्सी पर बैठ गया. मैंने पूछा, “थारो ब्यांव तय हुग्यो काल ?”कल
तुम्हारी शादी तय हो गयी?)
मुंह नीचा किये हुए वो बोली, “नईं कँवर साब, भाजग्या बै लोग तो ?”(नहीं कँवर
साब, भाग गए वो लोग तो. )
“क्यों ?”
उसने कोई जवाब नहीं दिया. बस उसकी आँखों से टप टप आंसू गिरने लगे.
मैंने कहा, “अरे मुनकी, तूं रोवण क्यों लागगी ?”( अरे मुनकी तू रोने क्यों लगी
?)
“म्हारै जिसै लोकां रै भाग में जिनगी भर रोवणो ई लिख्योड़ो हुवै ओ कँवर साब...........”(मेरे
जैसे लोगों के भाग्य में ज़िंदगी भर रोना ही लिखा होता है कँवर साब.)
“इयाँ क्यों सोचै तूं ?”(ऐसा क्यों सोचती है तू?)
“तो और कांईं सोचूँ .......? भाग खराब है जद ई इसे घर में जलम लियो है. ना कोई
पढाई ना लिखाई. बाप इसो, बेटियाँ नै बेच बेच’र सोचै बीं री पूरी जिनगी निकळ जासी.”(और
क्या सोचूँ फिर ? भाग्य खराब है तभी तो ऐसे घर में जन्म लिया. न कोइ पढाई ना लिखाई.
बाप ऐसा कि सोचता है बेटियों को बेच बेच कर ही उसकी ज़िंदगी निकल जायेगी.)
“ खाली भाग नै दोख दियां कांईं होसी ? जे खुद रै पगां पर खड़्यो हुवण रौ हौसलो
है तो हाथ रौ कोई हुनर सीख अर आपरी रोटी कमा’र खावण री कोशिश कर.”(सिर्फ भाग्य
को दोष देने से क्या होगा ? अगर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला है तो हाथ का कोइ
हुनर सीखकर अपनी रोटी कमा खाने की कोशिश कर.)
“ नईं ओ कँवर साब, म्हांरै भाग में धक्का खावणा ई लिख्योड़ा है, धक्का ई खासां.
एक बात पूछूं कँवर साब, बता देसों कांईं ?”(नहीं कँवर साब, हम लोगों के भाग्य में
धक्के खाना ही लिखा है और धक्के ही खायेंगे. एक बात पूछूं कँवर साब बता देंगे
क्या?)
“ हाँ पूछ , म्हनै ठा हुसी तो ज़रूर बतासूं.” (हाँ पूछ, पता होगा तो ज़रूर
बताऊंगा.)
“ दो मिंट थम जाओ, म्हैं बर्तन मांय धर’र आऊँ.”(दो मिनट रुकिए, मैं ज़रा बर्तन
अन्दर रखकर आती हूँ.)
“ अच्छ्या.”(अच्छा)
उसने बर्तन साफ़ कर लिए थे. उन्हें रसोईघर में रखकर आयी, तभी दरवाज़े पर कुंडी
खटकी. उसने जाकर दरवाजा खोला तो देखा सामने पिताजी खड़े थे. पिताजी अन्दर आये तो
मैं भी आरामकुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया. पिताजी अन्दर साळ (अन्दर के कमरे ) में कपड़े
बदलने चले गए तो मुनकी झाड़ू उठाकर ले आई और झाड़ू लगाने लगी. मुझे याद आया कि वो
मुझसे कुछ पूछना चाहती थी. मैंने उससे कहा, “तूं कुंईं पूछ री ही नी मुनकी, बोल
कांईं पूछणो है?”(तू कुछ पूछ रही थी न मुनकी, बोल क्या पूछना है?)
उसने अपने होठों पर अंगुली रखते हुए धीमी आवाज़ में कहा, “शी........... अबार
नईं. थाणेदार जी आयग्या अबार तो. फेर कदी पूछसूं.” (शी.... अभी नहीं. थानेदार जी आ
गए अभी तो. फिर कभी पूछूंगी.)
मेरी समझ नहीं आया कि ऐसी क्या बात हो सकती है जो वो मेरे से अकेले में पूछना
चाहती है, पिताजी के सामने नहीं पूछना चाहती.
दो चार दिन निकल गए. एक दिन फिर इसी तरह उसे मेरे घर काम करने आना पड़ा तो मेरी
कुर्सी के पास आकर बैठ गयी और बोली, “ थे रेल गाडी में चढ्योड़ा हौ कांईं ?”(आप
ट्रेन में चढ़े हैं कभी?)
मैंने हँसते हुए जवाब दिया, “हाँ, बस औ ई पूछणो हौ कांईं ?”(हाँ, बस यही पूछना
है?)
“ नईं कँवर साब म्हनै औ पूछणो है कै रेलगाडी में जावणो हुवै तो कांईं करनो पड़ै
? म्हैं कदी रेलगाडी में चढ्योड़ी कोनी.(नहीं कँवर साब, मुझे ये पूछना है कि ट्रेन
से कहीं जाना हो तो क्या क्या करना पड़ता है ? मैं तो कभी ट्रेन में चढी नहीं ना.)
“देख सबसूं पैली तो जिकी जगह जाणो हुवै बठै जाण आळी गाडी रौ जावण रौ टैम पतों
कर’र बीं टैम स्टेशन जावणो पड़ै. स्टेशन जा’र टिगट खिड़की सूं बीं जगह रौ टिगट
खरीदणो पड़ै. टिगट खरीद’र औ पतो कारणों पड़ै कै कित्ता नंबर प्लेटफार्म पर गाडी आ री
है. बीं प्लेटफार्म पर जा’र खड़ा हू जाओ. गाडी आवै जद बीं में चढ़ जाओ..... बस.
इत्तो ई करनो पड़ै. पण तूं कियां पूछ री है ? तनै सिध जावणो ?”(देख सबसे पहले तो जहां
जाना है वहाँ जाने वाली गाडी का वक़्त पता कर उस वक़्त स्टेशन जाना पड़ता है. स्टेशन
पर टिकट खिडकी से उस जगह का टिकट खरीदना होता है. टिकट खरीदकर ये पता करना पड़ता है
कि ट्रेन किस प्लेटफार्म पर आ रहे है? उसके बाद उस प्लेटफार्म पर जाकर खड़े हो जाओ
और जब गाडी आ जाए तो उसमें बैठ जाओ. बस इतना ही करना होता है. लेकिन तू क्यों पूछ
रही है ? तुझे कहाँ जानाहै ?)
उसने एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा, “नईं ओ कँवर साब, म्हनै बापड़ी नै कठै जावणो
है, म्हैं तो ईंयां ई जाणकारी सारू पूछूं.”( अरे नहीं कँवर साब मुझ बेचारी को कहाँ
जाना है? मैं तो बस ऐसे ही जानकारी के लिए पूछ रही थी.)
मुझे लगा, वैसे ही बिना कारण तो नहीं पूछ रही. कहीं न कहीं इसके दिमाग़ में कुछ
पक रहा है लेकिन ये उसका ज़ाती मामला था. इससे आगे पूछने का मुझे कोई हक भी नहीं
था. वो अपना काम निबटा कर चली गयी.
कुछ ही दिनों बाद मुझे आकाशवाणी जोधपुर में एनाउंसर की नौकरी मिल गयी थी और
मैं बीकानेर से जोधपुर चला गया था. नौकरी ज्वाइन करने के तीन चार महीने बाद
बीकानेर आया तो सुना कि मुनकी घर से भाग गयी है. ये सुनते ही मुझे उसके साथ हुई वो
बातचीत याद आ गयी जब उसने मुझसे पूछा था कि ट्रेन में जाने के लिए क्या करना पड़ता
है. पिताजी ने बताया कि एक बार अमरू के घर कई बहावलपुरी इकट्ठे हुए थे. काफी झगड़ा
झंझट हुआ था. उसके बाद १०-१२ दिन के बाद ही मुनकी घर से गायब हो गयी. अमरू और जैना
तब से पगलाए हुए से हैं. जैना तो माँ है आखिर. उसे तो झटका लगना ही था, अमरू इसलिए
ज़्यादा परेशान था कि उसने जो मंसूबे बना रखे थे मुनकी को लेकर, वो सब फेल हो गए थे
और अब उसे अपना बुढापा तकलीफों से भरा हुआ साफ़ दिखाई दे रहा था.
मैं दो चार दिन बीकानेर रहकर जोधपुर लौट आया था. बरस गुज़रते गए....... जोधपुर
से उदयपुर, उदयपुर से बीकानेर पोस्टिंग पर आया तब तक अमरू ने वो झोंपड़ानुमा घर हुसैन
खां नाम के एक ड्राइवर को बेच दिया था और उसका परिवार जाने कहाँ चला गया था. मैं
तीन साल बीकानेर में रहा. उस दौरान कभी कभी थका मांदा अमरू गाड़े पर सामान ढोते हुए
नज़र आता था. बहोत कमज़ोर हो गया था वो. दो
चार बार बात हुई उससे. मैंने उसका हाल
पूछा तो बोलने लगा, “कँवर साब लारलै जनम में पाप कर्या हुसी जिकै रा फळ भोग रिया
हाँ.”(कँवर साब, पिछले जन्म में कोइ पाप किये होंगे, उनका फल भुगत रहे हैं.)
मैंने पूछा, “मुनकी मिली कांईं ?”(मुनकी
मिली क्या?)
वो एक दार्शनिक की तरह शून्य में ताकते हुए बोला, “ जावण आळा कोई पाछा आया करै
है कांईं ? बा तो गयी जिकी बस चली ई गयी. अल्ला करै जठै भी रैवै खुश रैवै.......म्हांरो
कांईं है, किताक दिन जीवणो है, जियां कियां ई मजूरी कर’र पेट भर लेसां. अच्छ्या
कँवर साब एक पव्वे रा पेइसिया तो दे दो, नाड़का टूट रिया है, केई दिन हूयग्या एक
टोपो ई दारू कोनी मिली.” (जाने वाले भी भला कभी वापस आते हैं ? वो तो गयी तो बस
चली ही गयी. अल्लाह करे जहाँ भी रहे खुश रहे वो. हमारा क्या है ? कितने दिन जीना
है हमें ?जैसे तैसे मजदूरी करके पेट भर लेंगे. अच्छा कँवर साब..... एक पव्वे के
पैसे तो दे दो, शरीर टूट रहा है. कई दिन हो गए, दारू की एक बूँद भी नसीब नहीं हुई
है.)
“ क्यों अमरू तूं तो रोज़ पिया करतो...........”(क्यों अमरू... तू तो रोज़ पीते
थे.)
“ बै दिन गया कँवर साब...... अबै तो म्हैं अर मंगतियो दोनूं ई मजूरी करां पण
बळग्या आधा ऊं घणा पेइसा तो दवायाँ में खर्च हुजावै. मंगतिये री माँ घणी बेमार रैवै
है अजकालै.”(वो दिन गए कँवर साब, अब तो मैं और मंगतिया दोनों मजदूरी कर रहे हैं पर
आधे से ज़्यादा पैसा तो दवाइयों में ही खर्च हो जाता है. मंगतिये की माँ आजकल बहोत
बीमार रहने लगी है.)
मैंने जेब से निकाल कर उसे एक पव्वे के पैसे दिए तो आशीषें देता हुआ अमरू चला
गया. मैं सोचने लगा, इंसान क्यों नहीं अपने आप पर भरोसा रख कर ज़िंदगी को संतोष के
साथ जीता? क्यों दूसरों के भरोसे बड़े बड़े सपने देखता है? औलाद हो या बीवी हो या
पति, किसी के भरोसे सपने नहीं पालने चाहिए. बस जो अपनी चादर है , उसी के अनुसार
अपने पाँव पसारने चाहिए.
बीकानेर से सूरतगढ़ , मुम्बई होते हुए १९८४ में मैं इलाहाबाद चला गया था. उन
दिनों मेरे खिलाफ कुछ मुकद्दमे बीकानेर की अदालतों में चल रहे थे, जिनके बारे में
मैं आगे लिखूंगा. मुझे इन मुकद्दमों की तारीखों पर इलाहाबाद से हर पंद्रह बीस दिन
में बीकानेर आना पड़ता था. इलाहाबाद से बीकानेर की सीधी ट्रेन होने का तो कोई सवाल
ही नहीं था, क्योंकि बीकानेर में ब्रॉडगेज नहीं आई थी. इलाहाबाद से दिल्ली के लिए
भी कोई सीधी ट्रेन नहीं थी. तिनसुकिया से चलने वाली तिनसुकिया मेल में चार डिब्बे
इलाहाबाद से दिल्ली के लगते थे. ये ट्रेन रात में सवा नौ बजे चलती थी और सुबह
दिल्ली पहुँचती थी. दिन भर दिल्ली में रुकना होता था. शाम को बीकानेर मेल पकड़ कर
तीसरे दिन मैं बीकानेर पहुँच पाता था. हर पंद्रह बीस दिन में ये यात्रा करनी होती
थी इसलिए इस भाग दौड़ में हर वक़्त मैं थका थका सा रहता था. दिल्ली में मेरा दोस्त
वागीश कुमार सिंह कर्ज़न रोड़ पर ओल्ड नर्सिंग हॉस्टेल में रहता था. उसने एन एस डी
से डिग्री ली थी और एन एस डी के रंग मंडल में काम कर रहा था. तब तक उसकी शादी नहीं हुई थी. उसके बारे में भी
विस्तार से मैं तभी लिखूंगा जब इलाहाबाद की बारी आयेगी. अभी तो आप बस ये समझ
लीजिये कि सुबह आठ बजे के आस पास दिल्ली उतरता था और सीधे वागीश के कमरे पर पहुँच
जाता था. उसके कमरे की एक चाबी मेरी अटैची में हर वक़्त रहती थी. अक्सर मैं उसके
कमरे पर पहुंचता तब तक वो रंग मंडल यानी रैपैटरी के लिए निकल चुका होता था. मैं
उसके कमरे में आराम करता, खाना बना कर उसके लिए रैपैटरी में छोड़ता और या तो वापस
कमरे में आकर सो जाता या फिर अगर डायरेक्टरेट जाना होता तो उधर निकल जाता.
एक बार इसी तरह इलाहाबाद से दिल्ली पहुंचा. रिज़र्वेशन मिला नहीं था, इसलिए रात
भर बैठे रह कर सफ़र किया था. ऊपर से ट्रेन लेट हो गयी थी. ११ घंटे की बजाय १३ घंटे सैकंड
क्लास के साधारण डिब्बे में बैठे बैठे पीठ अकड़ चुकी थी. किसी तरह वागीश के कमरे पर
पहुंचा. देखा वागीश अपनी नौकरी पर जा चुका था. चाबी मेरे पास थी. मैंने ताला खोला
और अटैची रखी. नहा धोकर खाना बनाया. थकान बहुत लग रही थी लेकिन जैसा कि हमेशा का
नियम बना रखा था, वागीश का टिफिन लेकर रैपैटरी की तरफ निकला. नज़दीक ही थी रैपैटरी,
लेकिन थकान और नींद के मारे मेरी आँखें बंद हुई जा रही थीं. चक्कर भी आ रहे थे और
दिमाग़ सुन्न सा हो रहा था. किसी तरह मैं रैपैटरी तक पहुंचा. टिफिन वहाँ काम करने
वाले सरदार जी को सौंपा और हालांकि डायरेक्टरेट जाने का मन था लेकिन थकान से हारकर
वापस रूम की तरफ ही मुड़ गया.
दिमाग़ इतना थका हुआ और सुन्न था कि मैं पता नहीं कैसे घूम घूम कर एक ही जगह
पहुँच रहा था. जिस कमरे की चाबी हर वक़्त मेरी अटैची में रहती थी और जहां हर पंद्रह
दिन में एक बार मैं आया जाया करता था वो कमरा गुम हो गया था मेरे लिए. मुझे कुछ
समझ नहीं आ रहा था कि मुझे क्या हो गया है ? मैं अपना ठिकाना नहीं ढूंढ पा रहा था.
मैं थक कर एक घर के सामने लगे पेड़ का सहारा लेकर खड़ा हो गया और सोचने लगा कि अब
मैं क्या करूं ? मैंने आँखें बंद कर ली. तभी मुझे एक आवाज़ सुनाई दी, “बाउजी, आपको
हमारी मेमसाब बुला रही हैं सामने वाले घर में. “
मेरा सर वैसे ही चकरा रहा था. मुझे लगा मुझे कुछ भ्रम हो रहा है. थकान की वजह
से दिमाग़ बिना सोये ही सपना देख रहा है...... या फिर वास्तव में मुझे नींद आ गयी
है और मैं सपना देख रहा हूँ. फिर थोड़ी देर में वो आवाज़ आई, “बाउजी......
बाउजी........” किसीने शायद मुझे पकड़कर हिलाया. मैंने आँखें खोली. सामने एक नौकर नुमा
आदमी खड़ा हुआ था, हाथ जोड़कर. मैं थोड़ा होश में आया. मैंने कहा, “ हाँ भाई क्या बात
है ?”
“ जी आपको हमारी मेमसाब बुला रही हैं, उस सामने वाले घर में.”
“ कौन मेमसाब भाई, ज़रूर तुम्हें या तुम्हारी मेमसाब को कोई गलतफहमी हुई है. मैं यहाँ किसी मेमसाब को नहीं
जानता.”
“ बाउजी आप एक बार चलिए तो सही, मेमसाब आपको अच्छी तरह से जानती हैं.”
मैं हैरान सा उसके पीछे
पीछे चल पड़ा. घर सामने ही था. मैं थोड़े संकोच के साथ उसके पीछे पीछे घर में घुसा.
देखा सामने के बरामदे में टंगे हुए झूले पर हाथ में सिगरेट लिए एक औरत बैठी है.
मुझे लगा शायद इसे कोई गलतफहमी हो गयी है, क्योंकि मैं ऐसी किसी औरत को नहीं
पहचानता. तभी उसने हाथ की सिगरेट एक तरफ फेंकी और झूले पर से उठ खड़ी हुई. मैं
असमंजस में ही था कि उसने मुस्कुराते हुए कहा,“आओ कँवर साब आओ, भूल ग्या कांईं मनै
?”(आओ कँवर साब आओ, भूल गए क्या मुझे ?)
मैं एक दम से चौंका.......... अरे ये
तो मुनकी है.......!!!!!!
मैंने आँखें मसलीं. क्या मैं सपना देख रहा हूँ? तभी वो खिलखिलाकर हंस पड़ी.
हँसते हँसते ही बोली, “गजानन ड्राइंग रूम खोलकर ए सी चलादो.”
फिर मेरी तरफ मुड़कर बोली, “आओ कँवर साब मांय आ’र आराम सूं बैठो.” (आओ कँवर साब
अन्दर चलकर आराम से बैठो.)
मुझे अभी भी अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था. मैं खड़ा खड़ा उसे तके जा रहा
था. वो मेरे पास आई, मेरा हाथ पकड़कर मुझे सोफे पर बिठाया तब मुझे ज़रा होश आया.
मैंने कहा, “तूं साँची मुनकी है?” (क्या तू सचमुच मुनकी है?)
“हाँ कँवर साब, बिसास करो, मैं मुनकी ही हूँ.”(हाँ कँवर साब, विश्वास करो, मैं
मुनकी ही हूँ.)
“अरे थे लोकां म्हनै झटका देवण रौ ठेको ले राख्यो है कांईं ? पैली तो भंवरी अर
अबै तूं...........” (अरे तुम लोगों ने मुझे शॉक देने का ठेका ले रखा है क्या ?
पहले तो भंवरी और अब तू.......)
“अै बातां तो पछै कर लेसां, म्हैं इत्ती देर सूं देख री हूँ थे घड़ी घड़ी ईं सडक
रा चक्कर काट रिया हौ ? आखिर बात कांईं है अर इत्ता थक्योड़ा सा क्यूं हौ ?”(ये
बातें बाद में कर लेंगे. मैं इतनी देर से देख रही हूँ कि आप बार बार इस सड़क पर
चक्कर लगा रहे हैं . आखिर बात क्या है? और आप इतने थके हुए से क्यों लग रहे हैं?)
“ म्हैं साँची बहोत थक्योड़ो हूँ.......इत्तो कै म्हारै दोस्त रौ घर ई भूलग्यो
जिकै रै घरै ठहर्योड़ो हूँ.”(मैं सच में बहुत थका हुआ हूँ.... इतना कि अपने उस
दोस्त का घर ही भूल गया जिसके घर रुका हुआ हूँ.)
तभी गजानन ट्रे में ठंडा और कुछ खाने पीने की चीज़ें ले आया. ठंडा पीकर लगा
जैसे सदियों से मैं प्यासा चलता चला जा रहा था. मैंने जैसे ही ठन्डे का ग्लास नीचे
रखा मुनकी बोली, “कँवर साब, थांरी आंख्यां तो नींद सूं भारिज्योड़ी है. थे ईं तखत
पर दो घंटा आराम कर लो पछै बात करसां.”(कँवर साब आपकी आँखें तो नींद से भरी हुई
हैं. आप इस तख़्त पर दो घंटे आराम कर लो, फिर बात करेंगे.)
मेरी आँखों में नींद तो भरी हुई थी लेकिन मुझे उसी शाम को बीकानेर की ट्रेन
पकड़नी थी. मैंने कहा, “नईं मुनकी जे नींद ले ली तो शाम तक खुलेली कोनी अर म्हनै शाम
री गाडी पकडनी है.(नहीं मुनकी, अगर सो गया तो शाम तक मेरी नींद ही नहीं खुलेगी और
मुझे शाम को गाडी पकड़नी है.)
“अच्छा आप तख़्त पर लेट जाइए, लेट कर बात करते रहिये.”
ये एक और झटका था मेरे लिए. बिलकुल साफ़ अनपढ़ मुनकी इतनी साफ़ हिन्दी में मुझसे
बात कर रही थी, जैसे किसी पढ़े लिखे खानदान की बहू या बेटी हो. मैंने कहा, “
अरे...... तुम तो बड़ी अच्छी हिन्दी बोलने लगी हो ?”
“ वक़्त बहोत कुछ सिखा देता है कँवर साब. आप कहते थे मुनकी कोई हाथ का हुनर सीख
लो तो अपने पैरों पर खडी हो सकती हो. वक़्त ने न जाने क्या क्या हुनर सिखा दिए मुझे
भी. खैर आप लेट जाइए.’
मैं तख़्त पर लेट गया और मुनकी की तरफ देखने लगा . मैं उसे लगभग दस साल बाद देख
रहा था. दस साल पहले जो अल्हड़पन था वो अब सलीक़े में बदल गया था. उसे देखकर बिलकुल
नहीं लग रहा था कि ये वही अमरू की बेटी मुनकी है जो उस दिन अपने बाप से गुत्थमगुत्था
हो गयी थी जब रमजान उसे देखने आया था. उसके चेहरे से एक तरह का रुआब और संजीदगी
टपक रहे थे. मैंने कहा, “ मुनकी तुम यहाँ कैसे आ पहुँची ? तुम तो घर से भाग गयी थी
ना?”
“ हाँ घर से भाग गयी थी, ये बात तो सब ने बताई होगी आपको, लेकिन क्यों भागी,
किसी ने भी इसका ज़िक्र किया आपसे ? नहीं किया होगा. किसी ने नहीं किया होगा. आपको
याद है रमजान मुझे देखने आया था चार पांच लोगों के साथ ?
“ हाँ. वो तो याद है मुझे .“
“ मेरे बाप के मुंह तो खून लगा हुआ था. उसने सोचा कि अगर रमजान लाख रुपये देकर
मुझे ब्याह ले जाता है तो छः महीने मुझे उसके घर रहने देगा, फिर मेरा दूसरा और फिर
तीसरा खसम करता चला जायेगा और खुद आराम से चैन की बंसी बजाता रहेगा, इसी तरह
ज़िंदगी काट देगा. जैसे मैं इंसान नहीं कोई बेचने की चीज़ हूँ जिसे चाहे जितनी बार
बेच दो.”
उसने पानी का ग्लास उठा कर दो घूँट भरे और आगे बोलने लगी, “मैंने जब अपने बाप
के साथ मारपीट की तो रमजान ने मुझसे ब्याह करने से इनकार कर दिया और अपने दस हज़ार
रूपये जो उसने पेशगी दिए थे वापस मांगने लगा. मेरे बाप ने भी कच्ची गोलियां नहीं
खेली थीं. उसने उन्हें ये समझकर डरा धमका कर भगा दिया कि ये बहावलपुरी डरपोक होते
हैं, मैं रुपये नहीं दूंगा तो क्या कर लेंगे ? उसे ये तरीका और कारगर लगा कि थोड़े
थोड़े दिनों में यही देखने दिखाने का ड्रामा किया जाए और हर बार पेशगी लिया हुआ
रुपया हज़म कर लिया जाए. मैंने सोचा, वो मेरा जिस्म बेच ही तो रहा है. फिर मैं उसे
मेरा जिस्म क्यों बेचने दूं ? क्यों न मैं ही अपना जिस्म बेचूं, कम से कम मेरे
बुढापे में मेरी जेब में इतना पैसा तो होगा कि दो वक़्त की रोटी आराम से खा सकूं.
ये सोचकर घर से भागने की योजना बनाने लगी. इसीलिये मैंने आपसे पूछा था कि रेलगाडी
में जाने के लिए क्या करना पड़ता है.”
“ ओह हाँ, तुमने पूछा था, मुझे उसी वक़्त लग गया था कि तुम कहीं बाहर निकलना
चाह रही हो.”
“ हाँ कँवर साब, पर मैं ये सब सोच ही रही थी कि एक दुर्घटना हो गयी. दुनिया
बदल रही है तो क्या बहावलपुरी भी उसके साथ नहीं बदल सकते? रमजान उस दिन तो वहाँ से
चला गया लेकिन अपने गाँव जाकर उसने अपनी बिरादरी के कुछ लड़कों को सारी बात बताई और
कहा कि कैसे भी करके वो दस हज़ार रुपये वसूलने हैं. पांच छः मुश्टंडे एक रात आये.
मेरे माँ बाप, भाए बहन को मारकूट कर एक कोने में डाल दिया और रुपये तो वहाँ कहाँ
पड़े थे जो वो वसूल करते. हाँ मैं ज़रूर वहाँ थी और औरत के जिस्म से बेहतर रूपये की
वसूली और भला कहाँ हो सकती है? उन्होंने जी भरकर मुझसे वो दस हज़ार वसूल किये और
वापस लौट गए. मेरा जिस्म भी बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया था और मेरी रूह भी. अगले ही दिन
मैं घर से भाग गयी. मैंने दिल्ली का टिकट लिया और गाडी में बैठ गयी.”
“ उसके बाद........?”
“ बहोत धक्के खाए कँवर साब बहुत धक्के खाए.....वो सारे ज़ख्म मैं आपके सामने
नहीं उघाड़ सकती क्योंकि वो सारे ज़ख्म अभी भी कच्चे हैं और आप जानते हैं ना कच्चे
ज़ख्म को छेड़ा जाए तो उसके ऊपर की पपड़ी उतर जाती है और ज़ख्म फिर से हरे हो जाते हैं.....खैर....
बस इतना ही समझ लीजिये कि अब अच्छे अच्छे लोगों के बीच उठती बैठती हूँ. काम वही
करती हूँ जो मेरा बाप मुझसे करवाना चाहता था लेकिन पूरी इज्ज़त के साथ और अपनी
मर्जी से. एक बात और कहूं मैं? हो सकता है आपको अच्छी न लगे लेकिन ये एक सच्चाई है.”
“ हाँ बोल दो.”
“ इस दुनिया की हर औरत वही काम करती है जो मैं कर रही हूँ. उसे एक घर मिलता है,
परिवार मिलता है लेकिन उसकी कीमत उसे भी वही चुकानी पड़ती है जो मैं चुका रही हूँ.”
मुझे शाम की गाडी पकड़नी थी. मैं वहाँ से उठ खड़ा हुआ. मुनकी की आँखें भर आयी
थीं. रूंधे हुए गले से वो बोली, “कँवर साब, जज्बाती होकर कुछ ज़्यादा बोल गयी हूँ
तो माफ़ कर देना. मेरे माँ बाप मिल जाए तब भी उन्हें मत बताना कि आपकी मुझसे
मुलाक़ात हुई थी. और हाँ.......जानती हूँ आप आयेंगे नहीं लेकिन फिर भी हाथ जोड़कर
विनती कर रही हूँ, आप तो दिल्ली आते ही रहते हैं........ जब भी सहूलत हो घर ज़रूर
पधारें, ताकि मुझे भी लगे कि आपके ज़रिये मैं अपनी धरती से जुडी हुई हूँ.” और उसने
नीचे झुककर मेरे पाँव छू लिए. मुझे लगा उसकी आँख का एक आंसू मेरे पाँव पर गिरकर मुझे
अन्दर तक भिगो गया था.