ज़िंदगी सीधी रेखा में चलने वाली कोई चीज़ तो है नहीं. अगर सीधी रेखा में चलने वाली चीज़ ही होती तो शायद इसमें कोई कहानियां ही जन्म न लेतीं और हर इन्सान की ज़िंदगी एक ही तरह से गुज़रती. लेकिन इंसान न जाने एक साथ कितने स्तरों पर एक साथ जीता है, न जाने कितने मोर्चों पर एक साथ जीवन की ये लड़ाई अलग अलग रूप में लड़ता है. कहीं बुरी तरह
आपको अमरू, जैना और उनका परिवार याद होगा. उनकी बेटियाँ
भंवरी, काळकी, मुनकी और नूरकी याद होंगी, उनका बेटा मंगतिया याद होगा. अमरू और
मेरे घर के बीच एक पतली सी गली थी. इसलिए उस झोंपड़ेनुमा घर और उसके आगे गोबर और
मिट्टी से लिपी चौकी पर होने वाली हर घटना हमारी आँखों के सामने ही घटती थी. अमरू
भंवरी की दो बार शादी कर चुका था और हर बार उसने भंवरी के बदले अच्छी खासी रक़म
अपने दामादों से वसूल की थी और अपना गाड़ा चलाने का काम छोड़कर घर में पड़ा रहता था.
वो सोचने लगा था कि जब एक भंवरी के दो ब्याह करके वो आसानी से गोश्त रोटी खा सकता
है तो फिर उसे काम करने की ज़रूरत क्या है? उसके तो चार बेटियाँ हैं. मान लिया कि
काळकी काली-कलूटी है मगर है तो लड़की ही. उसके भी कुछ तो दाम मिलेंगे ही. फिर उसकी
मुनकी तो हद दर्जे की खूबसूरत है. वो देसी दारू का पव्वा चढ़ाकर खुले आम कहा करता
था, मुनकी की शादी तो वो उसी से करेगा जो उसे पूरे एक लाख रोकड़े देगा. उन दिनों
मेरी माँ ज़िंदा थीं. अक्सर जैना उनके पास आकर रोया करती थी, “काकी जी कांईं करूं?
औ बाळनजोगो तो इसो हराम हाड हुयो है कै कीं काम करनो ई नी चावै ? औ कोई ब्यांव करनौ
हुवै? औ तो साफ़ बेचणो है छोरियां नै”.(काकी जी क्या करूं ? ये हरामी तो ऐसा हुआ है
कि कुछ काम करना ही नहीं चाहता. ये कोई शादी होती है? ये तो साफ़ बेचना है लड़कियों
को .)
मेरी माँ बेचारी क्या करतीं सिवाय जैना के दुःख से दुखी
होने और उसे दिलासा देने के. वो कहतीं, “तूं समझा बीनै. अरे मिनख ई तो है, डांगर
तो है कोनी, तूं समझासी सावळ तो समझ जासी.” (अरे समझा उसे मनुष्य ही तो है, कोई
जानवर तो है नहीं, तू ढंग से समझाएगी तो मान जायेगा.)
“अरे नईं ओ काकीजी, डांगरां सूं भी गयो बीत्यो हुग्यो औ
मूफत रौ माल खा खा’र.” (अरे नहीं काकी जी मुफ्त का माल खा खाकर ये पशुओं से भी
बदतर हो गया है.)
और रोती रोती जैना चली जाती अपने झोंपड़े में उस डांगर के
हाथ से पिटने के लिए. अमरू के लिए जीवन का सिर्फ एक ही अर्थ था, एक पव्वा दारू और गोश्त
रोटी. जब उसे ये नहीं मिलते थे तो वो घर में सबके साथ मार-पीट करता रहता था. काळकी
की शादी में अमरू को बहोत खींच तान करके भी दो हज़ार ही मिल पाए थे. भंवरी की तीसरी
शादी भी उसने अनूपगढ़ के एक बहावलपुरी के साथ करीब करीब तय ही कर दी थी. उसे लगा कि
इस तरह पंद्रह बीस हज़ार उसकी जेब में आ जायेंगे तो वो आराम से साल-दो साल निकाल
देगा, तब तक मुनकी शादी लायक हो ही जायेगी. अगर उसकी भी इसी तरह दो तीन बार शादी
हो गयी तो उसकी ज़िंदगी तो बहोत आराम से बिना किसी तकलीफ के, बिना कोई काम किये
गुज़र जायेगी. लेकिन जब अमरू ने भंवरी को काळकी के ब्याह के बाद दामाद के साथ नहीं
भेजा तो भंवरी समझ गयी कि उसके बाप ने उसे एक बार फिर से बेचने का इरादा किया है.
वो सोचने लगी कि आखिर कब तक वो इस तरह बार बार बिकती रहेगी ?
उसे अपना पहला शौहर शफी बहोत याद आया, लेकिन उसके पास लौटना
तो अब मुमकिन नहीं था, उसने तय कर लिया कि बस बहोत हो गया, अल्ताफ जैसा भी है, वो
उसके साथ ही रहेगी. उसने अमरू से छुपाकर अल्ताफ को खबर करवाई कि वो आकर उसे ले
जाए. अल्ताफ दस बीस बंदूकों वाले आदमी लेकर दुबारा उसे हर हालत में लेनेआ पहुंचा.अमरू
बिलकुल डरा नहीं क्योंकि वो जानता था कि ये बहावलपुरी इन बंदूकों से तीतर बटेर ही
मार सकते हैं, किसी इंसान को मारने का कलेजा इनके पास नहीं है, लेकिन भंवरी अड़ कर खड़ी
हो गयी कि वो अल्ताफ के साथ जायेगी और वो सचमुच उसके साथ चल दी. अमरू उसका मुंह
देखता रह गया, लेकिन भंवरी भी जाने अपने भाग्य में क्या लिखवा कर लाई थी. उसके
गाँव में डाका पडा और डाकुओं से मुठभेड़ में उसका शौहर अल्ताफ मारा गया. अब उसे
ससुराल में रहकर सिवाय सास की मार के क्या हासिल होना था, इसलिए वो डाकू छोटे
ठाकुर के ऊँट के सामने जा खड़ी हुई और कहा, मेरे शौहर को तो मार दिया है, अब मुझे
यहाँ क्यों छोड़कर जा रहे हो, मुझे भी साथ ले चलो. ठाकुर ने उसे अपने ऊँट पर बिठा
लिया और रेगिस्तान का रुख किया, जहां वो ठकुरानी बनकर रह रही थी और जहां एक काली
पीली आंधी में भटककर बस के एक मुसाफिर के रूप में मैं पहुँच गया था. ये सारा वाकया
मैं ३१ वें एपिसोड में विस्तार से लिख चुका हूँ .
काळकी के ब्याह में मिले पैसे तेज़ी से ख़तम हो रहे थे. जैना
की गालियों के तीर अमरू पर तेज़ हो चले थे लेकिन अमरू कहाँ जैना से कम रहने वाला
था? जब उसके हाथ पैर चलने लगते तो वो कुछ न सोचता. थप्पड़, मुक्का, लात हर हथियार आजमा लेता था,
यहाँ तक कि अगर हाथ में कोई लकड़ी का टुकडा आ गया तो उसका इस्तेमाल करने से भी नहीं
चूकता था. ऐसे में जवानी की तरफ तेज़ी से क़दम बढाती मुनकी आगे बढ़कर अमरू का हाथ पकड़कर
चिल्ला पड़ती, “बाळण जोगो, हत्तो तत्तो, पीटणै पड़ियो........आ बापड़ी तो बियान ई मरी
पड़ी है, क्यों मारै ईने ? जा गाडो ले’र बळै क्याँ नी ? च्यार पेइसिया कमा’र ला जिकै
सूं सगळां रौ घोघो भरीजै........अर जे कमा नईं सकै तो इत्ता इत्ता टाबर क्याँ पैदा
कर्या बाळ्या हा ? जद तो हरामी रै जवानी फूटी पड़ती ही..... म्हारी माँ नै ज़रा ई जक
कोनी लेण देतो, दिन देखतो ना रात देखतो अर ना म्हां टाबरां रै सोवण नै अडीकतो.....!!!!”(राजस्थानी
गालियाँ, ये बेचारी तो पहले ही मरी पड़ी है, क्यों मार रहा है इसको ?...... गाड़ा
लेकर मजदूरी पर क्यों नहीं जाता ?चार पैसे कमाकर लाएगा तो सबका पेट भरेगा....और
अगर कमा नहीं सकता तो इतने बच्चे क्यों पैदा किये ? तब तो जवानी फूट रही थी. मेरी
माँ को न दिन में चैन लेने दिया ना रात में....और तो और हम बच्चों के सो जाने का
भी इंतज़ार नहीं कर सकता था.)
जवान होती बेटी के हाथ से बुढापे की तरफ तेज़ी से बढ़ता अमरू
अपना हाथ नहीं छुड़ा पाता तो चिल्लाने लगता, “घणी जबान चालण लागगी है थारी मादर..........
रंडी....... छोड......छोड म्हारो हाथ.....”(बहोत जुबान चलने लगी है तेरी मादर.......
रंडी..... छोड़....छोड़ मेरा हाथ......)
और मुनकी उसका हाथ तो छोड़ देती लेकिन जोर से धक्का भी देती
और आँखें निकाल कर चिल्लाती, “चाल गाडो उठा अर रवाना हुजा काम माथै, नईं तो साळा
हरामी आज दुनिया देखसी कै एक बाप नै बीं री ई औलाद कियां कूटै है?”(चल, गाड़ा उठा
और रवाना हो जा काम के लिए साले हरामी, वरना आज दुनिया देखेगी कि एक बाप की उसकी
औलाद कैसे पिटाई करती है.)
उसकी लाल लाल बड़ी बड़ी आँखें देखकर अमरू आजकल वास्तव में
डरने लगा था. गालियाँ निकालते निकालते भी उसे अपना गाड़ा लेकर निकलना ही पड़ता. अब
मुनकी एक कोने में गठरी की तरह पड़ी माँ को उठाती, लेकिन उसका चिल्लाना अब भी नहीं
रुकता था. “देख कित्ती लागी है. दो दिनां सूं भूखी पड़ी है अर ऊपर सूं इसी मार......
अरे मावड़ी तूं आखर जींवती क्याँ है? बस ईं जिनावर रै हाथां आ मार खाण खातर? “(देख
कितनी चोट लगी है तेरे, अरे माँ तू क्या सिर्फ इस जानवर के हाथों ये मार खाने के
लिए जी रही है?)
कराहती कराहती जैना उठती. उसके घावों को साफ़ करती करती
मुनकी फिर चिल्लाने लगती, “थे लुगायां भी किसी माटी री बण्योड़ी हुओ हौ अल्ला जाणै,
भूखां मर लेसो पण टाबर जण्याँ बिना कोनी रैवो. अरे मरद खनै आवै जणै बीं भड़वै रै
ढूंगां माथै दो लात कोनी मारीजे थांरे सूं ?” (तुम औरतें भी अल्लाह जाने किस
मिट्टी की बनी हुई होती हो, भूख मर लोगी लेकिन बच्चे पैदा किये बिना नहीं मानोगी. अरे
मर्द जब तुम्हारे पास आता है तो उसके पिछवाड़े में दो लात नहीं जमा सकतीं तुम लोग
?)
कराहती कराहती जैना बोलती, “अरे घणी जिबान ना चला बाळनजोगी......
है तो तूं भी लुगाई री जात.....बा भी गरीब घर में पैदा हुयोड़ी......तनै किसो
राजकंवर परणीज’र ले जाण आळो है ? तनै भी औई सो क्यूंई झेलणो है बावळी, घणा मोटा
बोल मती ना बोल.”(अरे ज़्यादा जुबान मत चला करमजली... है तो तू भी औरतजात.... वो भी
गरीब घर में पैदा होई हुई..... तुझे कौन सा राजकुमार ब्याहकर ले जानेवाला है ?
तुझे भी यही सब कुछ झेलना है बावली, ज़्यादा बड़े बोल मत बोल.)
“रैवण दे अै बातां मा.........म्हारो नांव मुनकी है. म्हारी
मरजी रै बिगर जे म्हारै कोई हाथ लगा लै नी तो म्हैं बीं रौ जड़ सूं ई काट नाखूं.”(रहने
दे ये बातें माँ..... मेरा नाम मुनकी है. मेरी मर्जी के बिना मेरे कोई हाथ लगा ले
ना, तो मैं उसका जड़ से काट फेंकूं.)
अमरू गाड़ा लेकर जाता था तो शाम तक चार पैसे कमा कर ही लौटता
था. वो पैसे जैना के सामने फेंक कर चिल्लाता था, “लै मर.... तूं ई थारो घोघो भर अर
थारी औलादां रौ घोघो भी भर. साळी म्हारो हाथ इसो मरोड़्यो कै हाल दूखै बळै. ज़रा ई
दया माया कोनी ईं रांड नै...... च्यार पेइसिया कम मिलै तो परवा कोनी पण ईं छिनाळ
खातर आदमी इसो जोसूं जिको रोज ईं रा हाड भांगै.”(ले मर, तू भी अपना पेट भर और अपनी
औलादों का भी पेट भर. साली ने मेरा हाथ ऐसा मरोड़ा है आज कि अभी तक दर्द कर रहा है.
इस रांड को ज़रा भी दया माया नहीं है. चार पैसे कम मिलें तो कोई परवाह नहीं लेकिन
इस छिनाल के लिए ऐसा मर्द ढूंढूंगा जो रोज़ मार मार कर इसकी हड्डियां तोड़े.)
इतनी मार खाने के बाद भी अपने शौहर का हाथ दुखने की बात
सुनकर जैना जैसे किसी आत्मग्लानि से भर उठती थी. उसका खुद का शरीर सुबह की मार से
घायल होता था मगर वो मुनकी को गालियाँ देने लगती, “आ रांड है ई इसी..... क्याँ मूँडै
लाग्या करो बीं रै ? लै मंगतिया लाधू बाबै अठियां समान ले’र आ भाज’र जितै म्हैं
थारै बाप रै हाथ रै मालिश कर दूं.” (ये रांड है ही ऐसी. क्यों मुंह लगते हो इसके?
ले मंगतिया, लाधू बाबा के यहाँ से भागकर
सामान लेकर आजा, तब तक मैं तुम्हारे बाप के हाथ के मालिश कर देती हूँ. )
मंगतिया पैसे लेकर लाधू बाबा की दूकान की ओर भागता था.
सामान क्या क्या लाना था वो उसे भी पता था और लाधू बाबा को भी . वही फिक्स शॉपिंग
लिस्ट आठ आने का आटा, एक आने का तेल वगैरह वगैरह. मंगतिया जानता था कि रोटी तो बाद
में मिलेगी लेकिन चुंगी में लाधू बाबा से दो चार गुड़ चढ़े भुजिया मांगने का अधिकार
तो उसे मिल ही जाएगा.
जैना झोंपड़े के किसी कोने से डिब्बी में रखा जला हुआ तेल
उठा लाती और अमरु के पास मालिश करने की नीयत से आकर बैठती. उधर मुनकी ठहाका लगाती,
“ओ हो हेत फूट्यो पड़ रियो है चिड़ै चिड़कली में...........?”( ओहो तो प्यार फूटा पड़
रहा है पति पत्नी में........?)
जैसे ही जैना मालिश करने लगती, देसी दारू का भभका उसके नथुनों
से टकराता और वो उसका हाथ दूर फेंकती हुई चिल्ला पड़ती, “अरे गेइवाळ दारू पी’र मर्यो
है तूं ? जणै तो काळी माई रै अठियां रोटी भी खा’र मर्यो हुसी......” (अरे गए गुज़रे
आदमी, दारू पीकर आया मरा है क्या ? तब तो काली माई के यहाँ खाना भी खाकर आया मरा
होगा.......)
“हाँ दारू भी पी’र आयो हूँ अर गोस रोटी भी खा’र आयो हूँ,
किसी के बाप का नहीं खाता हूँ अपणी कमाई का खाता हूँ .”( हाँ दारू पीकर आया हूँ और
गोश्त रोटी भी खाकर आया हूँ.) फिर अपने सीने पर हाथ मारता हुआ बोलता, “म्हैं है नी
चासूं जिको खासूं चासूं जिको पीसूं..... हरामजादी, गिन्दी रांड परै मर तूं..........”
(मैं जो चाहूंगा वो खाऊंगा और चाहूंगा वो पियूंगा, हरामजादी गंदी रांड, परे मर )
और मुनकी फिर ठहाका लगाती, “बस..........हूयगी प्यार मोब्बत?
थे हौ दोनूं एक ई माजनै रा. अबार लाड उमड़ रियो हौ अर अब गाळ्यां काढ रिया हौ एक
दूसरै नै अर थोड़ी’क ताळ नै भेळा सूसो मरसो.” (बस हो गयी प्यार मुहब्बत? तुम दोनों
हो एक ही जैसे मुआज़ने के. अभी दोनों में प्यार उमड़ रहा था, अब एक दूसरे को गालियाँ
दे रहे हो और अभी थोड़ी ही देर में फिर साथ सोओगे.)
ये रोज़ का नाटक बन
गया था. जबसे अमरु को लगने लगा कि काळकी के ब्याह से मिली पूंजी बस ख़तम होने वाली है तो जब भी गाड़ा लेकर कमाने
जाता तो शाम को कुछ रुपये अपनी जमा पूंजी में से निकाल लेता और कुछ उस रोज़ की हुई
कमाई में से निकाल लेता क्योंकि वो जानता था कि अगर उस दिन की कमाई में से वो पूरा
खर्चा करेगा तो माँ बेटी उसे गालियाँ निकाल निकालकर गंदा कर देंगी. अब वो उन
रुपयों से घर आने से पहले एक पव्वा दारू
ठेके पर ही चढ़ा लेता और अपना गाड़ा वहीं खड़ा करके काळी माई के यहाँ दो रुपये का गोश्त
और तीन चार रोटियाँ खाकर घर लौटता था. अगर किसी दिन झगड़ा झंझट नहीं होता तो चुपचाप
घर में एक दो रोटी और ठूंस कर सो जाता और किसी को पता भी नहीं चलता कि वो अपना पेट
भरकर आया है. कभी कभी जैना को या मुनकी को पता लग ही जाता कि वो खा पीकर आया है तो
उसका रटा रटाया जुमला था, “किसी के बाप का नहीं खाता हूँ अपणी कमाई का खाता हूँ.”
मुनकी फिर एक ठहाका लगाती, “ अपणी कमाई का खाता हूँ.......हुंह.......
शर्म ई कोनी आवै बोलतै नै.... अरे बेटियाँ नै बेच बेच’र खावै तूं हरामी.” (अपनी
कमाई का खाता हूँ......हुंह... शर्म ही नहीं आती ऐसा कहते हुए..... अरे बेटियों को
बेच बेच कर तू खाता है हरामी. )
मुनकी तेज़ी से बड़ी हो रही थी और जैसे जैसे बड़ी हो रही थी
उसका गोरा रंग और भी गोरा होता जा रहा था. बड़ी बड़ी आँखें, तीखे नैन नक्श और भरा
हुआ बदन. उसे देखकर लगता था कि अजन्ता एलोरा की कोई मूर्ति सजीव होकर जैना और अमरू
के उस गोबर लिपे आँगन में आकर बैठ गयी है. वो अपनी खूबसूरती से अनजान नहीं थी
बल्कि उसे अपनी खूबसूरती पर बहोत घमंड था, इसीलिये जैसे जैसे वो बड़ी हो रही थी,
उसकी ज़ुबान भी लम्बी होती जा रही थी.
जिस दिन काळकी को देखने लड़के वाले आ रहे थे, जैना ने मेरी
माँ से इजाज़त लेकर उसे हमारे घर भेज दिया था, ताकि लड़के वालों की नज़र उस पर ना
पड़े. इस तरह वो पहला दिन था, जबकि मुनकी ने हमारी दहलीज़ लांघकर हमारे आँगन में क़दम
रखा था. इसके बाद तो वो अक्सर माँ के पास आने लगी थी. माँ भी उसका बहुत लाड रखती
थी. घर में कोई अच्छी चीज़ बनती तो वो थोड़ी बहुत उसमें से बचाकर मुनकी के लिए रखती
थीं. अपनी खूबसूरती के घमंड से भरी मुनकी जो अपने घर में हर वक़्त चण्डी बनी सबको
गालिय्याँ निकालती रहती थी या अपने बाप को कोसती रहती थी, वही मुनकी मेरे घर के
आँगन में एक दम दूसरी ही इंसान बन जाती थी. बहोत नरम लहजे में बोलना, हंसते
मुस्कुराते रहना और तमीज तहजीब का पूरा ख़याल रखना. हमारे घर उसे बैठे देखकर कोई कह
ही नहीं सकता था कि ये जैना और अमरू की बदतमीज़ लड़की है. कई बार बाहर से आये लोग तो
पूछ भी लेते थे, “ ये लड़की कौन है? कोई रिश्तेदार है क्या आपकी ?
माँ हंसकर कहतीं, “ हाँ, समझ लो कि मेरी बेटी ही है.”
एक दिन ऐसे ही दुपहरी में मेरी माँ के पास बैठे बैठे मुनकी
उनके पाँव दबा रही थी. न जाने क्या सोचते सोचते बोली,”एक बात कैऊं काकी जी, बुरो
नईं मानो तो ?” (काकी जी बुरा ना मानो तो एक बात कहूं?)
माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, “कांईं बात है बोल मुनकी.........”
(क्या बात है मुनकी बोल? )
“ काकी जी म्हनै खोळै ले लो नी थे . थांरी बेटी बिण जासूं
तो थांरी सेवा भी करसूं अर म्हारो जमारो भी सुधर जासी......... नईं तो औ म्हारो
बाबलियो कांईं ठा कित्ती जगह बेचैलो म्हारै ई सरीर नै ?” (काकी
जी आप मुझे गोद लेलो ना. आपकी बेटी बन जाऊंगी तो आपकी खूब सेवा भी करूंगी और मेरा
जीवन भी सुधर जाएगा. वरना ये मेरा बाप है ना... ना जाने कितनी जगह और कितनी बार मेरे
इस शरीर को बेचेगा...? )
ऐसा कहते कहते उसकी आँखें भर आई थीं.
सिसकती हुई वो बोली, “ औ बाळनजोगो सरीर खपसूरत है, ई में म्हारो कांईं कसूर है, थे
ई बताओ ? बौ म्हारो बाप है पण म्हारै सरीर खानी घड़ी घड़ी इयाँ देखै जाणै कसाई बकरै
रै सरीर नै देख’र बीं में कित्तो गोस निकळसी ईं रो अनाजो लगावै........ साँची कैवूं
हूँ काकी जी, केई वार तो मन करै ई सरीर पर तेज़ाब छिड़क लूं, पछै कैवूं म्हारै बाप
नै कै लै हम्मै बेच ई गोस नै.......देखां कुण खरीददार मिलै ईंनै.......” (ये साला
शरीर खूबसूरत है तो आप ही बताओ इसमें मेरा क्या कुसूर है?वो मेरा बाप है लेकिन मेरे
शरीर की तरफ बार बार इस तरह देखता है जैसे कोई कसाई बकरे के शरीर को देखकर अंदाजा
लगाता है कि इसमें से कितना गोश्त निकलेगा ?...... सच कहती हूँ काकी जी, कभी कभी
मेरा दिल करता है कि इस शरीर पर तेज़ाब छिड़क लूं और फिर कहूं अपने बाप से कि ले अब
बेच इस गोश्त को... देखें कौन खरीददार मिलता है इसे? ) और ये कहते कहते वो फूट फूट
कर रो पड़ी थी.
मेरी माँ बोलीं , “म्हनै भी सो क्यूं ई दीखै बेटा.....म्हारो
बस चालै तो काल लेंवती आज खोळै ले लूं तनै, पण जिका माँ बाप तनै जलम दियो है,
बियाँ री मरजी बिगर म्हैं तनै खोळै किंयां ले सकूं, तूं ई बता.” (मुझे भी सब कुछ
दिखता है बेटा, अगर मेरा बस चले तो कल लेती आज तुझे गोद ले लूं लेकिन तू ही बता ,
जिन माँ बाप ने तुझे जन्म दिया है, उनकी मर्जी के बिना मैं तुझे गोद कैसे ले सकती
हूँ? )
“म्हारै बाप नै खाली म्हारो सरीर दीसै पण बौ आ कोनी समझै कै
ईं सरीर में एक जी है, जिकै रा भी कीं सुपना होसी....कीं अरमान हुसी..... अरे ना सई
मै’ल माळिया, दो टैम रोटी ना मिलसी तो एक बखत खा’र ई गुजारो कर लेसूं पण धणी तो कम
सूं कम म्हारै जोड़ रौ हुवै. लाख लाख री रट लगा राखी है म्हारै बाप. लाख रुपिया ले’र
म्हनै कोई बूढै रै लार कर देसी तो बीं बूढिये कनै कित्ती ई धन दौलत हुवो, बा
म्हारै काँईं काम री ?” (मेरे बाप को सिर्फ मेरा शरीर दिखता है. वो ये नहीं सोचता
है कि इस शरीर में भी एक जीव है जिसके कुछ सपने हो सकते हैं, जिसके कुछ अरमान हो
सकते हैं. अरे ना सही महल, दो वक़्त रोटी ना मिले तो एक वक़्त रोटी खाकर भी ज़िंदा रह
सकती हूँ मैं लेकिन कम से कम पति मेरे जोड़े का तो हो. लाख लाख की रट लगा रखी है
मेरे बाप ने..... लाख रुपये लेकर मुझे किसी बूढ़े के पीछे कर दिया तो उसके पास
कितनी भी धन दौलत हो वो मेरे किस काम की? )
“हाँ मुनकी सगळी बात समझूं थारी, पण कांईं करूं, तूं ई बता.”
(हाँ मुनकी, तुम्हारी सारी बात समझती हूँ लेकिन तू ही बता कि मैं क्या करूं आखिर?
)
“ काकी जी म्हनै बंचा लो थे ईं कसाई रै हाथां सूं. नईं तो
म्हैं या तो खुद मर जासूं, या ईं नै मार काढसूं.” (काकी जी मुझे इस कसाई के हाथों
से किसी तरह बचा लो वरना या तो मैं अपनी जान दे दूंगी या फिर इसकी जान ले लूंगी. )
“ चुप हो जा बेटा.........अभी तो कीं कोनी हू रियो........बिसास
राख, म्हैं थारी जित्ती मदद हूँ सकैला, करसूं जे जींवती रैई तो.”(चुप हो जा बेटा...
अभी तो कुछ नहीं हो रहा है... विश्वास रख, मैं जितनी हो सकेगी , वक़्त आने पर तेरी मदद
ज़रूर करूंगी, अगर तब तक ज़िंदा रही तो. )
लेकिन नहीं ज़िंदा रह सकीं वो तब तक. ब्रेन हैमरेज हुआ और
पंद्रह दिन हास्पिटल में रहकर मेरी माँ हम सबको छोड़ गईं. हम सबके साथ मिलकर मुनकी
भी खूब रोई मेरी माँ की मौत पर जिनकी गोद जाकर वो सुरक्षित होना चाहती थी.
वक़्त गुज़रता गया. अब मुनकी के पास कोई आँचल नहीं बचा था
जिसमे मुंह छुपा कर वो अपने मन का गुबार निकाल सके. घर में मैं और पिताजी बच गए
थे. हमारे पास आकर वो क्या करती. पिताजी से वो बहुत डरती भी थी, फिर भी कभी कभी मेरे
पास आकर बैठ जाया करती थी, मेरी माँ को याद करके खुद भी रोती थी और मुझे भी रुलाती
थी.
उसके लिए रिश्ते आने लगे थे. छोटी मोटी आसामी को तो अमरू
मुंह ही नहीं लगाता था. अपने समाज में यानी हलालखोरों में मुनकी की शादी वो नहीं
करेगा ये तो मोहल्ले के सभी लोग जानते थे. भंवरी की दो दो शादियाँ करके उसके मुंह
खून लग चुका था. उसका बस चलता तो वो उसकी एक दो शादियाँ और करता लेकिन पहले भंवरी
अड़ कर खड़ी हो गयी अल्ताफ के साथ जाने के
लिए और फिर वो ठाकुरों के घर चली गयी जिनके नाम से उसकी जान सूखती थी. अब उसने तय
कर रखा था कि अपनी बाकी लड़कियों को वो बहावलपुरियों में ही देगा क्योंकि उनमें
लड़कियों की कमी है इसलिए वो अपना घर बसाने के लिए अच्छी रक़म दे सकते हैं. सैकड़ों
गायें भैंसे और हजारों भेड़ बकरियों के मालिक इन बहावलपुरियों के पास पैसे की कोई
कमी नहीं होती और वो झगडे झंझट से बहोत डरते हैं इसलिए शादी तोड़कर फिर से दूसरी
जगह शादी करना आसान होता है.
एक सुबह मैंने छत पर से देखा पांच छः लम्बे लम्बे बहावलपुरी
सफ़ेद तहमद और कुर्ता पहने दुनाली बंदूके लटकाए अमरू की चौकी पर बैठे हैं. जैना और
अमरू उन्हें चाय पिला रहे हैं. मुझे लगा कि ये ज़रूर मुनकी की शादी के सिलसिले में
आये हैं. पिताजी भी घर में ही थे. मैं उनके लिए चाय बना रहा था कि मुझे लगा हमारे
घर के पीछे वाले दरवाज़े को कोई खटखटा रहा है. गायें थीं तब तक तो कई लोगों का आना
जाना उस दरवाज़े से होता था लेकिन गायें बेचने के बाद आम तौर पर उस दरवाज़े से कोई
आता जाता नहीं था. मुझे लगा कि शायद मुझे वहम हुआ है लेकिन एक मिनट बाद ही फिर से
दरवाज़े पर खटखट सुनाई दी. मैंने जाकर दरवाज़ा खोला तो देखा कि मुनकी खड़ी काँप रही
है. मैं कुछ बोलूँ उससे पहले ही उसने मुझे हाथ से एक तरफ हटाया, दरवाज़े के अन्दर
घुसी और दरवाज़ा बंद कर लिया. मैंने कहा, “अरे रे ये क्या कर रही हो मुनकी ?”
“कँवर साब म्हनै लको लो कठै ई...... बौ
म्हारो बाप म्हारो सौदो कर रियो है. म्हनै लको लो..........” (कुंवर साब, मुझे
कहीं छुपा लो, मेरा बाप मेरा सौदा कर रहा है, मुझे कहीं छुपा लो .)
मेरी समझ में नहीं
आ रहा था कि क्या करूं? हालांकि अमरू मेरे पिताजी से बहोत डरता था लेकिन ये तो उसके
लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल था. मुझे पता था वो अभी मुनकी को ढूंढता हुआ आ पहुंचेगा.
मैं ये सब सोच ही रहा था कि पिताजी आ पहुंचे और बोले, “कांईं बात है छोरी ? तूं कांईं
करै है अठै ?” (क्या बात है लड़की, यहाँ क्या कर रही है तू? )
“म्हनै थोड़ी देर खातर लको लो थाणेदार जी.... म्हैं थोड़ी देर
में चली जासूं कठै ई .” (थानेदार जी मुझे कुछ देर के लिए छुपा लो घर में. फिर कहीं
चली जाऊंगी मैं. )
जब पिताजी आ गए तो मैं तो क्या बोल सकता था? पिताजी ने कहा,
“ नईं भई म्हे थांरे घर री बातां रै बिचाळै कोनी बोल सकां. तूं जा अठियां. बौ
अमरियो आयग्यो तो म्हारो माथो लाग जासी.” (नहीं भई, हम लोग तुम्हारे घर के अन्दर
की बातों में बीच में नहीं बोल सकते. तू जा यहाँ से, अगर अभी अमरू आ गया तो मेरा
झगड़ा हो जाएगा उस से. )
मैं बोलने लगा, “ये बालिग़ हो चुकी है, ज़बरदस्ती इसे इस तरह
कैसे बेचा जा सकता है? हम लोग पुलिस को भी तो.............”
पिताजी ने मेरी बात को बीच में ही काटते हुए कहा, “तुम चुप
रहो......इन लोगों के घर के मामले में हमें नहीं पड़ना.”
इतनी सख्ती से पिताजी मुझसे कभी पेश नहीं आये थे. उनका वो
सख्त रवैया देखकर मैं भी आगे कुछ नहीं बोल सका. बस मजबूर होकर मुनकी की तरफ देखता
रहा.
आँखों में पानी भरे मुनकी ने वही दरवाज़ा खोला जिससे बड़ी
उम्मीद लेकर वो अन्दर आई थी और धीमे धीमे क़दमों से बाहर निकल पड़ी. जाते जाते आंसुओं
से लबरेज़ नज़रों से जिस तरह उसने मेरी ओर देखा था वो नज़रें मैं कभी नहीं भूल सकता. वो नज़रें मानो
मुझसे कह रही थीं, “आपने मुझे नहीं बचाया कँवर साब, अब मेरी जो भी बरबादी होगी उसके
ज़िम्मेदार आप होंगे.” मुनकी चली गयी थी. मैं बस मन ही मन उससे माफी मांग रहा था,
“मुझे माफ़ करना मुनकी...... मैं तेरे लिए कुछ नहीं कर सका.”
दिन भर अमरू के घर में गहमागहमी रही. बोळकी और मटोलकी जैना की खाना बनाने में मदद कर
रही थी. लहसुन छीला जा रहा था बड़े से देग में गोश्त उबाला जा रहा था. दारू की
बोतलें आ चुकी थी. अमरू बहोत खुश था और दारू की बोतल आज उसने दिन में ही खोल ली
थी. मेहमानों को भी पिला रहा था और खुद भी पी रहा था. थोड़ा नशा जब हावी होने लगा
तो जैना को गालियाँ बकने लगा, “जल्दी कर नी, हाल थारो गोस कोनी बण्यो कांईं मरज्याणी........”(
जल्दी कर ना मरज्यानी, तेरा गोश्त अभी तक नहीं पका क्या?)
जैना थोड़ी देर तो सुनती रही, फिर चिल्लाई, “ हाथ पग घाल दूं
कांईं चूलै में ? औ तो बणतो सौ ई बणसी. अर थारै जिसे कोई बूढै अर फीटै बकरै रौ हुयो
तो दिनगै ताईं भी कोनी सीजेला. “ (चूल्हे में हाथ पैर डाल दूं क्या अपने ? ये तो
जब पकेगा तब ही पकेगा और तेरे जैसा बूढा और ढीठ बकरा हुआ तो सुबह तक भी नहीं
पकेगा. )
“ला थोड़ो ऊबळ्योड़ो ई काढ’र लूण मिर्च नाख’र दे.......दारू
सागै कीं तो खावण नै चाइजै. “ (ला थोड़ा सा उबला हुआ ही दे नमक मिर्च डालकर. दारू
के साथ कुछ तो चाहिए ना खाने के लिए.)
“ लै तूं तो काचो ई खा मर, ला ए मटोलकी दे ईंनै देग मांय सू
काढ’र.” (ले तू कच्चा ही खा मर. मटोलकी, दे इसको देग में से निकालकर. )
थोड़ी देर में अमरू काळू जी की ढोलकी ले आया और दारू तो सबके
सर पर सवार हो ही चुकी थी, सब मिलकर नाचने लगे. अमरू पर दारू कुछ ज़्यादा ही सवार
थी. वो नाचता भी जा रहा था और भद्दी भद्दी गालियाँ भी निकाल रहा था और सीने पर हाथ
मार मारकर जाने किससे कह रहा था, “मैंने नईं बोला था, मुनकी के एक लाख लूंगा एक
लाख.......ह ह ह ह .........तुम्हारी माँ की...........तुम्हारी भैण की........लाख
रुपये में ही तय की है बात........तुम लोग भी सुण रये हो ना साळो...... एक पैसा कमती नईं लूंगा.....
मुझे एक लाख चाइये पूरे एक लाख.”
मेहमानों में से एक बोला, “हाँ हाँ अभी तो दस हज़ार दे दिए
हैं, बाकी नुब्बे हजार भी दे देंगे. पण एक बार छोरी तो देखा दो.”
“ अरे म्हारी मुनकी को देखकर आँखें फाट जायेंगी तुमारी भड़वों.....
पूगळ की पद्मण है वो.” (अरे मेरी मुनकी को देख कर तुम्हारी आँखें फट जायेंगी भड़वों...
मेरी मुनकी पूगल की पद्मिनी है. )
“ फेर भी एक बार बुलाओ उसको.” (फिर भी बुलाओ उसे एक बार
बाहर )
अमरू चिल्लाया, “ला रे उस मुनकी को ला बा’र......”
जैना बड़ बड़ करती हुई झोंपड़े में गयी और मुनकी का हाथ पकड़ कर
उसे घसीटती हुई सी बाहर लेकर आई. मेरी आँखों के आगे फिर से एक बार सरदारशहर का वो कसाइयों
का मोहल्ला आ गया जहां रोज़ सुबह हर घर की एक ही कहानी होती थी. बकरों को जिस बाड़े
में बंद किया हुआ होता था, उसमें से किसी
एक को छांटकर उस जगह घसीटते हुए लाया जाता था जहां उसे जिबह करना होता था. वो बकरा
सामने आई मौत को देखकर खूब चिल्लाता था लेकिन उस पर किसी को दया नहीं आती थी और
आगे बढ़कर कई हाथ थाम लेते थे और उसे लिटा दिया जाता था, जहां उसकी गर्दन पर छुरी
फेरी जानी होती थी.
मुनकी को भी घसीटते हुए जैना वैसे ही बाहर लाई थी , लेकिन
वो चिल्ला नहीं रही थी. उसकी आँखों से चिंगारियां निकल रही थीं, मानो वहाँ बैठे उन
तमाम कसाइयों को वो भस्म कर देगी.
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