शान्ति जी के सुन्दर
कारनामे आपने पिछले एपिसोड में पढ़े, उम्मीद है आप खूब हँसे होंगे.......बिंदास
शान्ति जी की ही तरह. उनका एक कारनामा बाद में याद आया, वो आपको सुनाकर फिर हम
चलेंगे मुख्य कथा की ओर. हुआ ये कि उनदिनों मैं कोटा में कैप्टन अवस्थी के मकान
में किराए पर रहता था. शान्ति जी की तरह मुझे कॉलोनी में फ़्लैट नहीं मिला था. मेरी
पत्नी और बेटा सूरतगढ़ से आये हुए थे. शान्ति जी को थोड़ा जोश आया और उस जोश में उन्होंने
हम सबको खाने का निमंत्रण दे डाला. हमें भला क्या एतराज़ हो सकता था. तय हुआ कि
अगले दिन शाम को हम उनके घर खाना खाने के लिए जायेंगे. अगले दिन जब मैं ऑफिस
पहुंचा तो उन्होंने कहा, “ मोदी जी, पता है कल तो मुझे रात में सोने में बारह बज
गए......”
मैंने पूछा, “क्यों शान्ति
जी इतनी देर कैसे हो गयी आपको ?”
वो हँसते हँसते बोलीं, “आज
आप लोग खाने पर आ रहे हैं, तो मैंने सोचा आपके लिए कुछ तो ख़ास चीज़ बनानी चाहिए.”
“ जी अच्छा. फिर क्या ख़ास
चीज़ बनाने का फैसला लिया आपने ?”
“नहीं सिर्फ फैसला नहीं
लिया, मैंने बैठकर बना भी लिया.”
“लेकिन क्या ?”
“ऐसा शानदार बना है कि आज
शाम को आप आयेंगे और उसे खायेंगे तो उंगलियाँ चाटते रह जायेंगे.”
“बहोत अच्छा, लेकिन अब बता
भी दीजिये कि क्या बनाया आपने.”
“मैंने शानदार गाजर का
हलुआ बनाया है आप लोगों के लिए. बारह तो बज गए उसे बनाने में लेकिन बना इतना ग़ज़ब
का है कि आप खायेंगे तो आनंद आ जाएगा.”
मैंने कहा, “भई वाह वैसे
तो मैं गाजर का हलुआ नहीं खाता हूँ, लेकिन आपने इतनी तारीफ़ कर दी है तो अब तो खाना ही पड़ेगा.”
“अरे मोदीजी गाजर का हलुआ
नहीं खाते आप? कमाल है? मेरे हाथ का गाजर का हलुआ आप एक बार खा लेंगे तो फिर गाजर
के हलुए के लिए कभी मना नहीं कर पायेंगे.”
“चलिए शाम को देखते हैं
कैसा बना है आपका गाजर का हलुआ..........”
“जी हाँ, शाम को टाइम से आ
जाइयेगा आप लोग.”
“जी हाँ शान्ति जी. हम लोग
वक़्त पर आ जायेंगे.”
इतनी उत्सुकता जगा दी थी
शान्ति जी ने मन में कि मैं गाजर का हलुआ कभी नहीं खाता था इसके बावजूद मुझे लगा
कि ज़रूर कोई विलक्षण चीज़ बनाई होगी, आज तो खाना ही होगा गाजर का हलुआ. ऑफिस से लौटा
और थोड़ी देर बाद तैयार होकर हम लोग पहुँच गए आकाशवाणी कॉलोनी. शान्ति जी घर पर ही
थीं. बोलीं, “सब्जी दाल चावल सब बन चुके हैं. गाजर का हलुआ तो कल रात को ही बना
लिया था. बस पूरियां छाननी हैं.” हम सबने मिलकर पूरियां छान ली. प्लेट्स लगाने लगे
तो मैंने कहा, “वो आपका स्पेशल गाजर का हलुआ कहाँ है, वो तो नज़र ही नहीं आया कहीं.”
वो हँसते हुए बोलीं, “वो
अन्दर कमरे में रखा है, अभी लाती हूँ.”
वो जल्दी जल्दी डग भरते हुए
अन्दर के कमरे की तरफ गईं और फिर उसी रफ़्तार से वापस लौटीं और इधर उधर कुछ तलाश
करने लगीं. मैंने कहा, “क्या हुआ शान्ति जी, कुछ तलाश कर रही हैं ?”
“हाँ मोदी जी अन्दर जिस
कमरे में मैंने हलुआ रखा था, उसमे तो ताला लगा हुआ है.”
“ताला लगा हुआ है?”
“जी हाँ”
“लेकिन ताला किसने लगाया ?”
“जी लगाया तो मैंने ही
होगा..........लेकिन मुझे ज़रा भी याद नहीं है कि कब लगाया ?और उस कमरे में मैं कभी
ताला नहीं लगाती.”
“कोई बात नहीं, चाबियों के
गुच्छे में उस ताले की चाबी तो होगी ही, खोल लीजिये.”
“नहीं उस ताले की चाबी
गुच्छे में नहीं है. अकेली ही है. मैं ढूंढती हूँ चाबी.......यहीं कहीं रखी होगी
चाबी.”
और हम सब मिलकर चाबी
ढूँढने में जुट गए. किचन में डिब्बों के नीचे, ड्राइंग रूम में मेजपोश के नीचे,
रेडियो के नीचे, किताबों के बीच में, दूसरे बैड रूम में पलंग पर, तकिये के नीचे,
कपड़ों की अलमारी के अन्दर उसके ऊपर, यहाँ तक कि चप्पल जूतों की रैक के अन्दर भी
चाबी तलाशने की कोशिश की मगर चाबी कहीं नहीं मिली. मैंने शान्ति जी से कहा, “आप
शान्ति से दो मिनट बैठकर सोचिये कि आपने चाबी कहाँ राखी थी?”
वो हँसते हुए बोलीं, “अरे
भई ये तो तब सोचूँ न जबकि मुझे याद हो कि मैंने ताला लगाया था. मुझे तो बिलकुल याद
नहीं कि मैंने इस कमरे में ताला लगाया था. आप खुद सोचिये ना, इस कमरे में ऐसा कोई
कीमती सामान ही नहीं रखा हुआ कि इसमें ताला लगाया जाए, भला मैंने इसमें ताला क्यों
लगाया होगा ?”
“शायद इसलिए कि आपने इसमें
हलुआ बनाकर रखा था. आपको डर लगा होगा कि कोई हलुआ ना चुरा ले. खैर अब जाने दीजिये,
दो घंटे हो गए हमें चाबी ढूंढते ढूंढते. पूरियां भी ठंडी हो गयी सब्जी दाल भी.
इन्हें थोड़ा गरम कर लेते हैं. आपके हाथ का हलुआ फिर कभी खायेंगे.”
वो ठहाका लगाते हुए बोलीं,
“अरे नहीं नहीं...... हलुआ तो आज ही खायेंगे चाहे ताला तोड़ना पड़े. मैं और शीला जी
दाल सब्जी गरम करते हैं तब तक आप ताला तोड़ने की जुगत कीजिये.”
बस फिर क्या था ? हँसते
हँसते ताला तोड़ा गया, उस कमरे में से हलुए का भगोना निकाला गया और डिनर का आनंद लिया गया.
ऐसी हैं हमारी शान्ति जी. उन्हें प्रणाम. अब
चलते हैं मुख्य कथा की ओर.
तो तीन एपिसोड पहले मैं
आपको अपने बीकानेर तबादला होने के बाद की बातें बता रहा था. एम एस रुग्मिनी
असिस्टेंट डायरेक्टर की पोस्ट पर ज्वाइन कर चुकी थीं और आकाशवाणी, बीकानेर में काम
करने वाले ज़्यादातर लोग गुट बनाकर जुट गए थे उन लोगों के खिलाफ कुछ न कुछ करने में,
जो बाहर से आये हुए थे. यों तो इस गुट के सभी लोग एक से बढ़कर एक थे लेकिन एक एडमिनिस्ट्रेटिव
ऑफिसर और एक दो अनाउंसर इनके सरबराह थे. चूंकि मैंने साफ़ इनकार कर दिया इन लोगों
का साथ देने से, इन सभी लोगों ने मेरे और मेरी पत्नी के खिलाफ भी साजिशों के जाल बुनने
शुरू कर दिए थे. कभी मेरा स्कूटर पंक्चर मिलता तो कभी मेरे टेप्स इरेज़ किये हुए
पाए जाते. अब तक मैं स्टूडियो में संगीत की रिकॉर्डिंग के अलावा, करीब करीब बाहर
की सारी रिकॉर्डिंग करना, उनकी रेडियो रिपोर्ट बनाना, बीकानेर दर्पण बनाना, ये सभी
काम करने लगा था.
यों तो जब मैं उदयपुर में
था, वहाँ आकाशवाणी द्वारा आयोजित संगीत संध्या का संचालन भी कर चुका था लेकिन जब बीकानेर
में संगीत संध्या के आयोजन की बात चली तो इस बीकानेर गुट ने दबाव बनाना शुरू किया
कि इसका संचालन कोई अनाउंसर ही करे. किसी भी हालत में ये ज़िम्मेदारी मेरे हिस्से न
आये. मैं काम तो हर तरह का करना चाहता था, लेकिन मेरी ऐसी कोई जिद भी नहीं थी कि
किसी एक प्रोग्राम को अपनी इज्ज़त का सवाल बनाकर बैठ जाऊं. लिहाज़ा उस सुगम संगीत
संध्या के आयोजन में अपना पूरा सहयोग मैंने दिया. एक दिन हमारी असिस्टेंट
डायरेक्टर श्रीमती रुग्मिनी ने मुझे बताया, “मुझ पर इस बात का काफी दबाव है कि
संचालन का काम सीनियर मोस्ट अनाउंसर को ही
दिया जाए. अगर उन्हें नहीं भी दिया जाए तो किसी और अनाउंसर से ये काम करवा लिया
जाए मगर किसी भी हालत में तुम्हें ये काम नहीं सौंपा जाए.”
ये सीनियर मोस्ट साहब वही
थे, उस बीकानेरी गुट के सरगना. मैंने मैम को कह दिया “आप उनसे करवा लीजिये, मैं इस
तरह का एक प्रोग्राम कर चुका हूँ ,ऐसा एक तजुर्बा मेरे लिए काफी है और अभी मैं
रिटायर तो हो नहीं रहा हूँ, भाग्य में हुआ तो फिर कई प्रोग्राम करूंगा.”
“वो तो ठीक है महेंद्र
लेकिन इस प्रोग्राम में ज़्यादातर ग़ज़लें और नज़्में गाई जायेंगी. इसलिए मैं चाहती थी
कि तुम्हारी उर्दू का स्टेशन को फ़ायदा मिल जाता. उन साहब को तो उर्दू आती नहीं है.”
“मैम ये भी वो कतई
बर्दाश्त नहीं करेंगे कि मैं उर्दू के मामले में उनकी सहायता करूं. मेरे ख़याल से आप
उन अनाउंसर साहब को सख्त हिदायत दे दीजिये कि वो अपने सारे अनाउंसमेंट क़मर साहब से
चैक करवाएं ताकि कोई गलती न हो.”
“हाँ सो तो ठीक है मगर
उर्दू का मामला है एक शब्द भी ग़लत बोल दिया गया तो एक ख़ास तबके को बहोत चोट पहुँच
सकती है क्योंकि सीधे सीधे उर्दू से उनकी भावनाएं जुडी हुई हैं पर खैर ठीक है ये
एक प्रोग्राम तो उनसे करवा लेती हूँ. अगर इसमें वो कोई गलती करते हैं तो आइन्दा ये
लोग मुझ पर दबाव डालने की हालत में नहीं रहेंगे.”
तय हो गया कि अनाउंसमेंट
वही साहब करेंगे. सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज का हॉल किराए पर लिया गया. सारे
इंतजामों में मैं शरीक रहा. जो जो ज़िम्मेदारी मेरे सुपुर्द की गयी, मैंने ईमानदारी
से उसे निभाया. शो का दिन आया तो पूरे शो की रिकॉर्डिंग करने की ज़िम्मेदारी मुझे
सौंपी गयी थी, इसलिए मैं स्टेज के बिलकुल नीचे इंजीनियर्स के साथ रिकॉर्डर्स लेकर
बैठ गया. कई अच्छे अच्छे कलाकार आये हुए थे. ज़्यादातर कलाकार ग़ज़लें गा रहे थे. एक
कलाकार ने उस वक़्त के मशहूर शायर और आगे चलकर मेरे अज़ीज़ दोस्त बने जनाब राज़
इलाहाबादी साहब की एक नज़्म गई. ये नज़्म उन दिनों हिदुस्तान ही नहीं पाकिस्तान में
भी बहोत मकबूल थी. यों तो पाकिस्तान के कई सिंगर्स ने इस नज़्म को अपने अपने अंदाज़
में गाया था लेकिन हबीब वाली मुहम्मद ने इस नज़्म को इतने दर्दभरे अंदाज़ में गाया
था कि ये नज़्म हर पाकिस्तानी की ज़ुबान पर चढ़ गयी थी. इसके बोल थे – आशियाँ जल गया गुलसितां लुट गया
अब
क़फ़स से निकल कर कहां जायेंगे
इतने मानूस सैयाद
से हो
गए
अब रिहाई मिलेगी तो
मर जायेंगे
अनाउंसर साहब ने सारे अनाउंसमेंट
तो क़मर भाई से चैक करवाए मगर अपनी विद्वता झाड़ने के लिए जब अनाउंसमेंट करने लगे तो
ऐन वक़्त पर ये शेर भी अपने अनाउंसमेंट में जोड़ लिया और कुछ इस तरह बोला- आशियाँ जल गया
गुलसितां लुट गया
अब कफ़न से निकल कर कहाँ जायेंगे
इतने
मानूस सैयाद से हो गए
अब
रिहाई मिलेगी
तो
मर जायेंगे
यानी उन्होंने गलती से क़फ़स
की जगह कफ़न बोल दिया. दोनों के मायने में बहुत फर्क है. क़फ़स का अर्थ है पिंजरा और कफ़न
उस कपड़े को कहते हैं जिसमें मुर्दे को लपेटा जाता है. हॉल में खुसुर पुसुर शुरू हो
गयी क्योंकि ऑडियंस में ज़्यादातर उर्दू के जानकार बैठे हुए थे. जब कुछ लोग चिल्लाए
तो हमारी असिस्टेंट डायरेक्टर को तो उर्दू आती नहीं थी, इसलिए उन्हें समझ नहीं आया
कि क्या हुआ है क़मर भाई ने उन्हें समझाया तो बात उनकी समझ में आयी. वो बहोत गुस्सा
हुईं लेकिन कमान से निकला हुआ तीर और जुबान से निकला हुआ लफ्ज़ भला कहीं वापस हुआ
है ? उस एक लफ्ज़ की वजह से बहोत भद्द हुई रेडियो की. रुग्मिनी मैम ने खुले आम कहा,
“अगर महेंद्र से अनाउंसमेंट करवाते तो इस तरह की गलती हरगिज़ नहीं होती.”
बस इस पर स्टाफ के मेरे उन
गहरे दोस्तों के सीने पर सांप लोटने लगे, जो हर वक़्त मुझे किसी जाल में उलझाने की
कोशिश करते रहते थे. वो मेरे खिलाफ और मोर्चे खोलने की तैयारियां करने लगे.
इसी दौरान मेरे भाई साहब
ने एक छोटी सी पुरानी फिएट कार खरीदी. इस कार के आगे की दरवाज़े आगे की ओर से खुलते
थे. मुझे आज भी उस कार का नंबर याद है, आर जे ऍफ़ 2041. ये कार किसी ज़माने में
बीकानेर के महाराजा डॉक्टर करणी सिंह जी के कार बेड़े में हुआ करती थी. दो तीन
हाथों में होते होते ये हमारे परिवार में शामिल हुई. पिताजी ने खुद खड़े होकर इस पर
रंग रोग़न करवाया. नई सीटें लगवाई गयीं. उसे सजाने की और भी कई कार्यवाहियां हुईं.
इस रंग रोग़न और सजावट में करीब एक महीना लग गया. कार ऊपर से तो चमचमाने लगी थी मगर
थी तो बेचारी बरसों पुरानी, फिर भी पूरे परिवार में इस कार ने एक नया जोश भर दिया.
मैं एक रोज़ कार लेकर क़मर भाई के घर गया तो वो बहोत खुश हुए और कहने लगे, “महेंद्र,
तुम्हें कार चलाते हुए देखकर दिल खुश हो गया.”
अगले ही दिन मैं कार लेकर
ऑफिस भी गया. ज़ाहिर है मेरे बहोत गहरे दोस्तों को इससे खुशी तो नहीं ही हुई होगी.
हालांकि सबने ऊपरी मन से कार की बधाइयां भी दीं मगर अन्दर उनपर क्या गुज़र रही थी,
मैं अच्छी तरह समझ रहा था. ऑफिस में चल रही इस सारी पॉलिटिक्स से दिल बहोत आजिज़ आ
चुका था. मैंने भाई साहब से सलाह की कि क्यों न हम सब कुछ वक़्त के लिए कहीं घूमने
निकल जाएँ ताकि थोड़ा सा चेंज आये ज़िंदगी में. उन्होंने कहा, ठीक है बनाओ प्रोग्राम,
अब तो हमारे पास कार भी है, हम लोग कार से ही घूमने निकल सकते हैं. मुझे भी ये बात
सही लगी. उन दिनों सेंट्रल गवर्नमेंट के कर्मचारियों को चार साल में एक बार पूरे
भारत में कहीं भी घूमने के लिए एक अलाउंस मिलता था जो एल टी सी कहलाता था. हमने
सोचा क्यों ना ये अलाउंस ले लिया जाए. मैं एड्मिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर के पास जा
पहुंचा. वो बोले, “ हाँ साब हुकुम करो.”
“ ए ओ साब हम लोग एल टी सी
पर जाना चाहते हैं.”
“ तो पधारो. एडवांस के लिए
एक दरख्वास्त लगा दो. बस दो चार दिन में पास हो जाएगा बिल तो रक़म मिल जायेगी आपको
और हाँ पंद्रह दिन की छुट्टी लेनी पड़ेगी आपको कम से कम इसके लिए.”
“ जी अच्छा, एक बात
बताइये, क्या हम अपनी कार से एल टी सी पर जा सकते हैं?”
“ हाँ हाँ क्यों नहीं, आप
जैसे मर्जी हो पधारो. आप जहां जाना चाहते हों उस जगह का नाम लिखकर देदो. हम वहाँ
का फर्स्ट क्लास का जो किराया बनता है, कैलकुलेट करके चैक बना देंगे. “
“ और कोई फोर्मेलिटी ?”
“नईं साब और कोई फ़ोर्मेलिटी
नहीं है. आप तो यूं करो, कन्या कुमारी का लिखकर दे दो. वही सबसे दूर पड़ता है. सबसे
ज़्यादा किराया वहीं का बनेगा.”
“लेकिन पंद्रह दिन में कार
से कन्याकुमारी जाकर आना मुमकिन है क्या?”
“क्यों छुट्टी बढाते हुए
कौन हाथ पकड़ता है आपका?”
“और अगर वहाँ तक नहीं जा
पाए तो क्या होगा?”
“ होना क्या है, जहां तक
जाएँ वहां तक के टिकट का पैसा रखकर बाकी वापस जमा करवा देना.”
हमने 15 दिन की छुट्टी और
कन्याकुमारी की एल टी सी के लिए दरख्वास्त लगा दी. घर आकर भाई साब और पिताजी को भी
बताया . तैयारी शुरू हो गयी लम्बी यात्रा की. उन दिनों भाई साहब की पोस्टिंग छापर
के सरकारी अस्पताल में थी. वो बोले, हम लोग यहाँ से छापर निकलेंगे ताकि वो भी
छुट्टी की अर्जी लगा सकें. एक स्टोव, कुछ खाने पीने का सामान, कुछ बर्तन . ये सारा
सामान कार की डिक्की में रखा गया और कुछ सूटकेस और बिस्तर वगैरह कार के ऊपर कैरियर
में बांधे गए. छापर पहुंचकर भाई साहब ने कहा, “यार एक ड्राइवर भी साथ ले लें क्या?”
मैं जोर से हंसा. मैंने
कहा, “ डाक्टर साहब, छुटकी सी तो अपनी कार है. इसमें पिताजी, आप, भाभी जी, शीला और
मैं पांच तो पूरी सवारियां हैं, फिर छठी सवारी है वैभव जो हालांकि डेढ़ साल का
बच्चा है, मगर फिर भी कुछ जगह तो घेरेगा ही. ऊपर से आप ड्राइवर लेने की सोच रहे
हैं. वो क्या बोनट पर बैठकर चलाएगा कार को ?”
भाई साब बोले, “ यार
एडजस्ट कर लेंगे लेकिन इसे लेने के कई फायदे हैं. एक तो सामान इधर से उधर करने के
काम आयेगा. दूसरे जहां हम लोग थके हुए होंगे, वहाँ कार चला लेगा. तीसरे किसी शहर
में अगर हम किसी होटल वगैरह में रुकते हैं तो पूरा सामान घसीटने की ज़रुरत नहीं
रहेगी. चौथे कार की पार्किंग ढूँढने का सरदर्द नहीं रहेगा. ये कहीं भी कार खड़ी
करके उसमे सो जाएगा.
आखिरकार छः पूरी सवारियां
और एक बच्चे और सबके सामान को लेकर हमारी डुगडुगी छापर से जयपुर की ओर निकली.
जयपुर पहुंचकर हमने कार के सारे टायर बदल लिए ताकि पंक्चर का झंझट आने के चांसेज
कम हो जाएँ . इस कार में गियर का लीवर स्टीयरिंग के साइड में हुआ करता था. बोनट
खोलने पर स्टीयरिंग के साइड में एक रॉड नज़र आती थी जिसके एक सिरे पर एक लोहे का
छोटा सा टुकड़ा लगा रहता था, इसी से गियर बदलता था. इस लोहे के टुकड़े को कार
मिस्त्रियों की भाषा में मक्खी कहा जाता था. जयपुर से जैसे ही हम उदयपुर की तरफ
निकले. गियर बदलने में तकलीफ होने लगी. किसी तरह उदयपुर पहुंचे. वहाँ कार को खोलकर
हमने वो रॉड निकाली और उस पर भराई करके गियर बदलने वाली मक्खी को घिसकर शेप दी.
चूंकि हम लोग उदयपुर में पोस्टेड रह चुके थे, पुराने साथियों से मिलने के लिए दो
तीन दिन हम वहाँ रुके. वहाँ से डूंगरपुर होते हुए अहमदाबाद पहुंचे. अहमदाबाद के ज़ू
में साढ़े चार सौ साल उम्र का कछुआ देखा, झूलती मीनारें देखीं. ये एक मस्जिद की दो
मीनारें थीं जिसमें से एक पर चढ़ते थे और दूसरी को कोई जोर लगा कर हिलाता था तो
जिसपर हम लोग चढ़े हुए थे, वो भी हिलती थी. शाम में हम लोग ड्राइव इन सिनेमा देखने
गए. कार में ही बैठकर वहाँ रखे स्पीकर्स कार में रखे गए और विशाल परदे पर चल रही
फिल्म का कार में बैठे बैठे आनंद लिया. उस ज़माने के अपनी तरह के अलग कलाकार
जोगिन्दर की फिल्म थी जो हमने उस रात उस ड्राइव इन सिनेमा में देखी थी. जोगिन्दर के ज़ोरदार ठहाके बहोत मशहूर थे. 1999
में विविध भारती, मुम्बई में आने के बाद जोगिन्दर जी से कई बार मुलाक़ात हुई. एक
बार जब वो मेरे कमरे में बैठे हुए थे तो मैंने उन्हें बताया कि मैंने उनके सबसे
शानदार ठहाके अहमदाबाद के उस द्रैवे इन सिनेमा में देखे थे. वो थियेटर बनाया ही इस
तरह गया था कि सब लोग अपनी अपनी कार में बैठकर फिल्म देख सके. इसलिए आम सिनेमा हॉल
के परदे से कई गुणा बडा पर्दा उसमे लगा हुआ था. जब जोगिन्दर ठहाका लगाने के लिए
मुंह खोलते थे तो लगता था कि मानो अली बाबा ने खुल जा सिम सिम कहा हो और किसी
विशालकाय गुफा का दरवाज़ा खुल गया हो.
अहमदाबाद से निकलते निकलते
एक हफ्ते से ज़्यादा गुज़र चुका था. हमने तय किया अहमदाबाद से मुम्बई की तरफ निकलने
का. रास्ते में बार बार हमारी गाडी कुछ कुछ तकलीफ दे रही थी. लेकिन इस मामले में
मैं और भाई साहब दोनों ही घबराने वाले नहीं थे. आजकल की गाड़ियों की तरह उस ज़माने
की गाड़ियां बहुत जटिल भी नहीं होती थीं. सीधे सीधे प्लग से करंट आता था, इधर
कारबोरेटर से पेट्रोल जाता था, सिलेंडर में जो ब्लास्ट होता था उससे पिस्टन को
धक्का लगता था और उसी बारी बारी से लगने वाले धक्के से पिस्टन आगे पीछे चलकर कार
को आगे बढाते थे. जहां कहीं कुछ गड़बड़ होती, हम लोग बोनट खोलकर गाडी ठीक करने लगते
थे और ठीक कर भी लेते थे. अगर कोई बड़ी गड़बड़ी हो जाती तो भी उसे इस लायक तो कर ही लेते थे कि पास के किसी
शहर तक पहुँच जाएँ, जहां उसे ठीक करवाया जा सके.
हमने मनोरंजन के लिए एक
टेप रिकॉर्डर कम रेडियो भी साथ रख लिया था और ढेर सारी कैसेट्स और दो तीन डिब्बे सैल
भी साथ ले लिए थे क्योंकि उस टू इन वन को चलाने का उस कार में कोई और इंतजाम नहीं
था. एक बार कार की बैटरी बैठ गयी. दरअसल डायनमो खराब हो गया था और बैटरी चार्ज नहीं
हो रही थी. एक जगह जंगल में गाड़ी बंद हो गयी और सेल्फ लगायें तो गाडी में कोई हरकत
नहीं. हम लोग समझ गए कि बैटरी बैठ गयी है क्योंकि चार्ज नहीं हो रही है. उस ज़माने की
कारों में स्टार्ट करने की एक व्यवस्था और होती थी. हर गाडी के आगे एक छेद होता था
और हर गाडी के साथ एक हैंडल रहता था. उस हैंडल को छेद में से अन्दर डालकर घुमाने
से इंजन को थोड़ी सी स्पीड मिलती थी और गाडी स्टार्ट हो जाती थी. हम हैंडल मार
मारकर भी थक गए लेकिन गाडी स्टार्ट नहीं हुई. इधर शाम होने वाली थी. हमारा नियम
यही था कि जहां शाम हो जाए बस उस शहर या गाँव में ही रुक जाया करते थे. रात को सफ़र
नहीं करना है ये नियम ही बना कर चले थे हम लोग क्योंकि पहली बात परिवार साथ था.
दूसरी बात, कार पुरानी थी और उसकी हैड लाइट्स बहोत कमज़ोर थीं. कार थी कि स्टार्ट
होने का नाम नहीं ले रही थी. आखिर मेरे दिमाग में आया कि कार की बैटरी बारह वोल्ट
की ही तो होती है. अगर आठ नए सैल लेकर उन्हें
बैटरी की जगह इस्तेमाल करें तो
गाडी क्यों स्टार्ट नहीं होगी? दो तार के टुकड़े लिए गए और कार के दोनों टर्मिनल्स
से बाँध दिए गए. दूसरी तरफ एक अखबार में आठ सैल सीरीज में जोड़कर वो तार उसके दो
सिरों से छुआए गए और सेल्फ मारा गया. कार झट से स्टार्ट हो गयी. बस फटाफट उसमे
सवार हुए और अगले ही पड़ाव पर पहुँच गए, जहां मैकेनिक मिल गया और कार को ठीक करवा
लिया गया.
हमारी यात्रा बस इसी तरह
खरामा खरामा चली जारही थी. मुम्बई पहुँचते पहुँचते हमारी छुट्टी बस ख़तम हो रही थी.
उस रोज़ मुम्बई पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी थी. मालाड पहुंचकर एक होटल में डेरा
डाला. इस शहर के बारे में बस सुन ही रखा था कि बहोत खतरनाक जगह है. खड़े खड़े लोग
लूट लेते हैं. किसी तरह अपनी तरफ से चौकस रहकर वो रात बिताई. अगले दिन भाई साहब के
एक परिचित के घर दो दिन के लिए डेरा डाला. सबसे पहले आकाशवाणी, बीकानेर को एक टेलीग्राम
किया कि हमारी छुट्टी पंद्रह दिन और बढ़ाई जाए.
गेटवे ऑफ इंडिया, मरीन
ड्राइव, गिरगांव चौपाटी, जुहू सबके नाम तो सुन रखे थे लेकिन न तो रास्ते मालूम थे
और न ही मुम्बई में ड्राइविंग करने की हिम्मत हो रही थी. हम जिस ड्राइवर को साथ
लाये थे, वो तो ड्राइविंग के अलावा बाकी के कामों के लिए ही ठीक था. मतलब सामान
उठाना, गाडी धो पोंछ लेना, गाडी में सो जाना. ड्राइविंग तो कभी कभार तभी करता था
जब दो शहरों के बीच उसे कहीं सड़क खाली मिल जाती थी. जैसे ही थोड़ा ट्राफिक नज़र आने
लगता, उसे लगता कि कोई शहर नज़दीक आ रहा है तो वो ड्राइविंग सीट छोड़कर उतर जाता था
और कहता था, डाक्टर साहब अब आप लोग चलाओ. मुम्बई में हमारे मेज़बान ने एक ड्राइवर
का इंतजाम किया, जिसने हमें दो दिन में मुम्बई घुमाया.
अब हमें आगे बढना था. सोचा
पूना चला जाए. मेरे मन में इच्छा थी कि इतनी दूर आये हैं तो ओशो के आश्रम की
यात्रा भी कर ली जाए क्या पता ओशो के भी दर्शन हो जाएँ. हालांकि उस वक़्त तक ओशो को
दुनिया ओशो के नाम से नहीं जानती थी. उन्हें भगवान् रजनीश कहा जाता था. मुम्बई से
जैसे ही रवाना हुए, हमारी सड़क तो सीधी चल रही थी मगर एक तरफ पहाड़ नज़र आ रहे थे और
उसपर कुछ गाड़ियां रेंगती हुई नज़र आ रही थीं. हम सब उन्हें देखकर हंसने लगे कि देखो
ये गाड़ियां किस तरह रेंग रेंग कर ऊपर चढ़ रही है. साथ ही शुक्र भी मना रहे थे कि वो
साइड में कोई दूसरी सड़क थी. हमारी सड़क पर सामने तो ऐसा कुछ नज़र आ नहीं रहा था. वो
तो सीधी सपाट सड़क थी. हम ये नहीं जानते थे कि ये सड़क आगे जाकर उन्हीं पहाड़ों की
तरफ जाने वाली है जिन पर चींटियों की तरह कुछ कारें ट्रक और बसें चली जा रही थीं.
एक जगह पहुंचकर देखा हमारे
सामने भी पहाड़ है, हमने अपने आप को दिलासा दिया कि एक दो किलोमीटर का होगा ये
रास्ता, पार कर लेंगे. दो तीन किलोमीटर चलने के बाद देखा एक तरफ ऊंचे ऊंचे पहाड़ थे
और दूसरी ओर हजारों फुट गहरी खाई. आज कश्मीर और सिक्किम जैसी जगहों पर घूम लेने के
बाद तो खंडाला की वो घाटियाँ इतनी दुर्गम नहीं लगतीं मगर वो हम सबका इस तरह की
घाटियों से पहला साबक़ा था. महिलाओं ने कहा, आगे नहीं जाना, वापस चलते हैं. गाडी
रोकी गयी. दो पत्थर उठाकर कार के पहियों के पीछे टग लगाए गए और हमारी मीटिंग शुरू
हुई कि क्या किया जाना चाहिए. भाई साहब ने कहा, मैं अकेला कार लेकर चलता हूँ, आप
लोग पैदल पैदल आइये. सबने सोचा दो चार किलोमीटर होंगे ऐसे पहाड़. इतना तो पैदल भी
चला जा सकता है. एक बार को सबकी सहमति बनने लगी इस बात पर कि भाई साहब अकेले कार
चला कर जाएँ लेकिन बात दरअसल किसी के भी गले नहीं उतर रही थी. भाभी जी ने कहा,
अकेले भाई साहब को तो नहीं जाने दूंगी, मैं भी साथ ही जाऊंगी. कुछ हो तो दोनों को
ही हो. आखिरकार सब वापस कार में बैठ गए कि जो होना हो वो सबको हो. चींटी की चाल से
कार आगे बढ़ती जा रही थी और हम सब हंस रहे थे. सोच रहे थे, अरे.......... ये तो
पूरा रास्ता ही पहाड़ों वाला है, पैदल चलते भी तो कितना चलते ? किसी तरह पूना
पहुंचे. हमारी छुट्टी के पंद्रह दिन पूरे हो चुके थे. हमने सोचा अट्ठारह-बीस दिन
में हम पूना पहुंचे हैं तो इस रफ़्तार से चलेंगे तो कन्याकुमारी जाकर लौटने में कम
से कम छः महीने तो ज़रूर लग ही जायेंगे. इतनी छुट्टी कौन मंज़ूर करेगा हम दोनों की ?
भाई साहब की भी छुट्टियां ख़त्म हो रही थीं. फैसला लिया गया कि दो दिन पूना में
रहकर वापस बीकानेर लौटा जाए.
एक होटल में डेरा डाला और
हम लोग रवाना हुए भगवान् रजनीश के आश्रम की तरफ. वहाँ पहुँचने पर पता चला कि
बाहरवालों को आश्रम में जाने की इजाज़त नहीं है. कई लोगों से होते होते हम आश्रम के
एक बड़े महात्मा तक पहुंचे और उन्होंने हमें आश्रम में घुसने की परमीशन दिलवाई.
अन्दर जाकर देखा. भगवान् रजनीश के बहोत से अनुयायी आश्रम में मौजूद थे. उन्हें
वहाँ रहने की इजाज़त तो थी मगर अपनी रोटी खुद कमानी होती थी. उसके लिए कोई कुछ काम
करता था कोई कुछ. तरह तरह के वर्कशॉप बने हुए थे जहां लोग काम कर रहे थे. बाकी समय
में वो साधना करते थे. यानी कर्म और साधना साथ साथ. थोड़ी देर बाद हमने देखा कि
भगवान रजनीश खुद साधना स्थल पर आये. पहले उन्होंने प्रवचन दिया और फिर अपने
शिष्यों से साधना की कई क्रियाएं करवाईं. उस वक़्त हमें अपनी इस यात्रा की अहमियत बिलकुल समझ नहीं आयी लेकिन आज जब
पीछे मुड़कर देखता हूँ तो इस बात पर गर्व होता है कि मैंने साक्षात ओशो के दर्शन
किये हैं. वो पूरा दिन हम आश्रम में रहे और वहाँ की प्रार्थना सभा में भाग लिया.
जब हम खंडाला होते हुए
पूना जा रहे थे तो तय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वापसी में हम इस रास्ते से नहीं
आयेंगे. आपस में बातें कर रहे थे कि कोई तो सीधा, कम खतरनाक रास्ता ज़रूर होगा. अब
जब लौटने की तैयारी करनी थी तो हम पूना में लोगों से पूछ रहे थे कि मुम्बई जाने के
लिए कौन सा रास्ता ठीक है ? सबका एक ही जवाब, खंडाला होकर. हम कहते, कोई और रास्ता
नहीं है क्या? कुछ लोगों ने बताया नासिक होकर भी मुम्बई जाया जा सकता है. हमने
सोचा कि तब तो नासिक होकर ही जाना ठीक रहेगा. तभी एक सज्जन ने पूछा, “लेकिन आप लोग
खंडाला होकर क्यों नहीं जाना चाहते ?”
“ भाई साहब, वो तो बहोत
खतरनाक रास्ता है और हमारी कार पुरानी है.”
इस पर उन सज्जन ने ठहाका
लगाया और बोले, “आप लोग खंडाला की बजाय नासिक होकर इसलिए जाना चाहते हैं कि खंडाला
वाला रास्ता खतरनाक है? अरे बाबा नासिक वाला रास्ता तो और भी खतरनाक है.”
अब हमारे पास सिवा इसके कोई
चारा नहीं था कि जिस रास्ते से गए थे, उसी रास्ते से लौटें. वैसे यहाँ ये बता दूं
कि आज जो मुम्बई पुणे हाई वे बना हुआ है, ये उस वक़्त नहीं था. पुराना रास्ता आज भी
मौजूद है लेकिन उस रास्ते का उपयोग अब पुणे जाने के लिए शायद ही कोई करता हो.
राम राम करते करते हम लोग
खंडाला के पहाड़ों से नीचे उतरकर मुम्बई आये. अब फिर रास्तों की समस्या थी. हमें विले
पार्ले में किसी के घर जाना था. हमने देखा मुम्बई में घुसने से पहले एक पुल पर एक
साहब खड़े हुए थे. शायद उनके हाथ में ग्लास था जिससे वो धीरे धीरे ड्रिंक्स का आनंद
ले रहे थे. मैं उनके पास जाकर पूछा कि क्या वो बता सकते हैं कि विले पार्ले कैसे
पहुंचा जा सकता है?
उन्होंने जवाब दिया, “
काफी दूर है विले पार्ले तो यहाँ से. अब ऐसे कैसे समझाऊँ आपको रास्ता? आप एक काम
कीजिये. जाना मुझे भी उसी तरफ है. आप मेरे पीछे पीछे आ जाइए. जहां से मेरा रास्ता
अलग होगा, मैं आपको आगे का रास्ता समझा दूंगा.”
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया
और हम लोग उनकी कार के पीछे हो लिए लेकिन कहाँ तो उनके मुम्बई में ड्राइविंग के
अभ्यस्त हाथ और कहाँ हम उस डुगडुगी में सवार सात सवारियां जिनमे से सिर्फ मैंने और
भाई साहब ने बीकानेर जैसी छोटी जगह में ही तब तक कार चलाई थी. बार बार वो आगे निकल
जाते और हम पीछे रह जाते. फिर वो रुककर हमारा इंतज़ार करते और हम करीब पहुंचते तो
फिर वो अपनी कार आगे बढाते. यही सिलसिला काफी देर तक चलता रहा. उन्हें लग गया कि
हम लोग मुम्बई में नए भी हैं और किसी छोटी सी जगह से आये हुए अनाड़ी भी हैं. इसलिए वो
चुपचाप हमें विले पार्ले तक ले आये. वहाँ पहुंचकर वो रुके और बोले, “ यही है आपका
विले पार्ले. अब ज़रा एड्रेस दिखाइये जहां आपको जाना है.”
हमने
एड्रेस वाली पर्ची उनके सामने की. वो बोले, “आइये मेरे पीछे.”
हम लोग फिर उनके पीछे हो लिए. ठीक उस बिल्डिंग के नीचे तक
उन्होंने हमें छोड़ा. हमें बडा ताज्जुब हो रहा था कि क्या मुम्बई में ऐसा भी होता
है?”
मैं और भाई साहब नीचे उतरे और उनके पास पहुंचे. मैंने कहा,
“ लेकिन सर आपका तो रास्ता विले पार्ले से पहले ही अलग होने वाला था.”
वो हंसकर बोले, “ जी हाँ,
मेरा रास्ता तो काफी पहले ही आपसे अलग हो जाने वाला था लेकिन मुझे लगा कि आप लोग
शायद पहली बार यहाँ आये हैं, अगर मैं आपको छोड़ कर चल दिया तो न जाने कहाँ कहाँ
भटकेंगे आप लोग. इसलिए यहाँ तक आपके साथ आ गया.”
“अरे...... आपने तो बहोत
तकलीफ उठाई हमारे लिए ?”
“कोई बात नहीं पौन घंटा
एक्स्ट्रा लगेगा मुझे घर पहुँचने में लेकिन अगर मैं यहाँ तक नहीं आता तो आप लोग न
जाने कितने घंटे भटकते रहते.”
हमने उन्हें बार बार हाथ
जोड़कर धन्यवाद कहा और वो मुस्कुराते हुए वहाँ से चल दिए.
मुम्बई का ये मिज़ाज मैंने
तब सन 1978 में देखा, यही मिज़ाज जब मैंने 1983 में मेरी पोस्टिंग हुई तब भी देखा
और बहोत खुशी हुई , जब 1999 में मैं दुबारा पोस्टिंग लेकर यहाँ आया तो पाया कि
मुम्बई ने अपने उस मिज़ाज को अब भी सहेजकर रखा हुआ है. आप यहाँ किसी से भी रास्ता
पूछ लीजिये, वो अपना वक़्त खराब करके भी जहां तक मुमकिन होगा आपको, आपकी जगह तक
छोड़कर जाएगा.
वापसी में बस एक दिन हम
लोग मुम्बई में रुके और फिर जिस रास्ते आये थे उसी रास्ते वापस बीकानेर लौट गए.
कुल मिलाकर एक महीना लग गया था हमें इस यात्रा में. अगले दिन जैसे ही दफ्तर पहुंचे,
लोगों ने बधाई दी कि हम दोनों के खिलाफ कई फाइलें शुरू हो चुकी हैं जिनमें हमपर कई
गंभीर चार्जेज़ लगाए गए हैं. मैं समझ गया, ए ओ एंड कंपनी ने हमारे खिलाफ कुछ नए
मोर्चे खोल दिए हैं.
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