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Thursday, November 25, 2010

ये ख़ामोशी श्रोताओं का सरासर अपमान है.





दो दिन सूने सूने निकल गये. ऐसा संगीत मैं सुनता नहीं जो सिवा धक-धक के कुछ और न बजाता हो.
आकाशवाणी के कर्मचारियों ने अपनी मांगों को मनवाने के लिये स्टुडियोज़ और उनमें चलने वाली मशीन को ख़ामोश कर दिया. उनकी ज़रूरतों और मांगों को लेकर मेरे मन में कोई विरोध नहीं लेकिन जो प्रसारणकर्मी हरदम अपने ट्रांसमिशन्स में श्रोताओं को अपनी ताक़त बताते हों वह दावा इन दो दिनों में निहायत असत्य और छद्म भरा महसूस हुआ. मेरे दफ़्तर और घर में कुछ जमा चार रेडियो सेट्स हैं और सुबह काम शुरू होने से लेकर शाम तक विविध भारती या क्षेत्रीय प्रसारण जारी रहता है. रेडियो के चलते कभी घड़ी पर नज़र डालने की ज़रूरत नहीं पड़ती और काम कभी बोझिल प्रतीत नहीं होता.आकाशवाणी दुनिया जहान की हलचलों से हमें बाख़बर भी करता जाता है...समाचार सुना देता है...स्कोर बता देता है. दु:ख तो इस बात का है कि इसी हड़ताल के दौरान बिहार चुनाव के परिणाम भी आने वाले थे और इसी दौरान आकाशवाणी ने गूँगा बनकर अपने सबसे बड़े श्रोता नेटवर्क को निराश ही नहीं किया गँवाया भी. काम निपटाते हुए रेडियो एक अच्छा साथी बन जुगलबंदी करता रहता है. टीवी पर भी परिणाम देखे जा सकते थे लेकिन इसके लिये बस उसी पर नज़र गड़ाए रखना ज़रूरी होता.


बहरहाल जिनको हड़ताल करना थी उन्होंने की. उनके अपने तक़ाज़े हैं और अपना सोच.लेकिन यह बात बार बार मन में ख़लिश पैदा करती रही कि देश की सर्वोच्च और विश्वसनीय प्रसारण सेवा ने एकदम काम ठप्प कर दिया.अपनी बात को मनवाने का कोई न कोई गाँधीवादी तरीक़ा भी हो सकता था. जैसे विविध भारती के उदघोषक तय सकते थे कि हम फ़रमाइशें नहीं पढ़ेंगे या विज्ञापनों का प्रसारण शेड्यूल क्रमानुसार नहीं चलने देंगे.. दर-असल बीते बीस सालों में आकाशवाणी जैसी शीर्षस्थ संस्था निहायत रस्मी तौर पर सक्रिय है. वहाँ काम करने वाले लोगों में अब जज़्बे की निहायत कमी आ गई है. प्रायवेट रेडियो चैनल्स पर मौजूद ग्लैमर भी आकाशवाणी में काम करने वाले कर्मियों की आँख की किरकिरी बनता जा रहा है. केन्द्रीय सरकार के मातहत काम करने वाले आकाशवाणी केन्द्रों के पास बड़े बड़े भूखण्ड और भवन हैं; जहाँ मानव संसाधन की कमी का सवाल ही नहीं उठता.इसके मुक़ाबिल एफ़.एम चैनल्स हज़ार – दो हज़ार वर्गफ़ीट के दफ़्तर में दस-बारह लोगों की टीम लेकर शानदार कार्यक्रम रच देते हैं और लाखों के विज्ञापन कबाड़ कर मोटा मुनाफ़ा भी अपनी कम्पनी को देते हैं.प्रसारण,भाषा लेखन,तकनीक और मार्केटिंग को लेकर एफ़.एम.चैनल्स के पास अपनी छोटी सी लेकिन जुझारू टीम होती है जबकि आकाशवाणी का ये आलम है कि यदि कोई रचनाशीलकर्मी एक अच्छा कार्यक्रम बनाना चाहता है तो उसे कहा जाता है जाइये आप ही शहर में घूम कर प्रायोजक ढूंढ़ लाइये.अब बताइये ऐसी कार्य-संस्कृति में कोई कैसे काम कर सकता है या गुणवत्तापरक कार्यक्रम रच सकता है. ये सारी बातें अपनी जगह एकदम ठीक हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि प्रसारण के शिखर संस्थान के कर्मचारियों का ये अड़ियल रूख़ जायज़ नहीं.

इस बार की हड़ताल प्रसार भारती और सरकार के हुक़्मरानों के लिये भी ख़तरे की घंटी है. उन्हें समझना होगा कि इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिये उनके पास क्या वैकल्पित इंतज़ाम हैं. आकाशवाणी की हड़ताल ने श्रोताओं के स्नेह को ज़मीन पर ला पटका है.स्व-हित और सुख के इस अभियान में बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय का नारा थोड़ा बेसुरा लग रहा है.

Tuesday, November 23, 2010

प्रसार भारती की आकाशवाणी और दूर दर्शन सेवा करीब करीब सम्पूर्ण ठप !

आज प्रसार भारती की रेडियो सेवा आकाशवाणी के सभी चेनल्स सुबह शुरू तो हुई पर बादमें पूरानी फिल्मो के गीतो और संगीत सरीता जैसे क्लासीक कार्यक्रम सुनने वाले काफ़ी श्रोताओनें चित्रलोक के समाप्ती के नियत समय पश्चाद्द किसी समय रेडियो ओन करने गये तो रेडियो सिग्नल्स गायब थे । रेडियो यानि सिर्फ एफ एम, इस प्रकार का अर्थ निकालने वाली नयी पिठी के मोबाईल धारक श्रोता लोगोने इधर उधर फ्रिक्वंसीझ ट्यून करके जन लिया की सिर्फ़ आकाशवाणी ही ठप हुई है और निजी चेनल्स अपना प्रसारण जारि रख़े हुए है । पर जो श्रोता निजी चेनल्स के करीब एक ही प्रकार के प्रसारण से उब गये है और विविध भारती के करीब हर घंटे पर बदले स्वरूप के कार्यक्रम को पसंद करते है वे निराश हो गये और इनमें से कुछ श्रोताओनें मूझे भी फोन करके पूछा की विविध भारती क्यों रूक गई । पूराने रेडियो श्रोता लोगों में से जिन के पास उपग्रहीय रिसीवर्स है जो डीटीएच (बिना शुल्क सेवा) या अन्य निज़ी उपग्रह प्रसारण नेटवर्क के पेय चेनल्स के साथ प्राप्त करते है वे रेडियो के बारेमें निराश हुए । पर विविध भारती की लधू तरंग कम्प संख्या, 9.87 मेगा हट्झ जो मुम्बई से विविघ भारती के उपग्रह प्रसारण को बेन्गलोर में प्राप्त करके भूमीगत प्रसारित कर रही है, वहाँ से बेन्गलोर के किसी स्थानिय स्टूडियो से बजने वाला दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत सुबह तो सुननेमें आया था, फिर कौन कोशिश करें ! दूर दर्शन किसी तरह पूराने कार्यक्रमो को दिख़ा रहा था । और वह भी नेशनल हिन्दी, गुजराती, डी डी भारती, डी डी इन्डीया, सभी सिर्फ़ सेटेलाईट द्वारा पर स्थानिय रिले-केन्द्रो तो बिलकूल ही बंध रहे । आज हमें भी एक बात समझनी चाहीए कि सरकार का यही उपक्रम है कि सभी कोर्पोरेसन्स को डिस-इनवेस्मेन्ट्स द्वारा निज़ी हाथोमें थमा देना । प्रसार भारती अटका है तो अभी तक एक ही कारण है सरकार चलाने वाली पार्टी का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रचार । पर बड़े उद्योग-गृहो कि इतनी पहोंच बढती दिख़ रही है कि प्रसार भारती का भी निज़ी-करण करवा सके तो आश्चर्य की बात नहीं होगी । और आज के निज़ी रेडियो-चेनल्स के प्रसारन को दुनते हुए अगर ऐसा हुआ तो सुनने वालों के क्या हालात होगे वह कल्पना भी डरावनी लगती है । और शायद आज कार्यरत कर्मचारी, अधिकारी भी शायद अपने आपको पेन्सन या अतिरीक्तता जैसी बातों को ले कर अपने आप को असुरक्षित महेसूस करेंगे । सरकारों का एक और उपक्रम आजकल चल रहा है, कि जब हडताल जोर पर होती है, तब बातचीत के लिये बूलावा कर्मचारी संगठनो को भेज़ कर आम जनता की सहानूभूती अपनी और करने की कोशिश करती है पर वह सिर्फ कर्मचारी आन्दोलनो की लडाई के टेम्पो को ठंडा कर देने की कोशीश ही होती है । सरकारओ को अपनी ही बढाई हुई महेंगाई सिर्फ कुछ भी नहीं करके तगडे वेतन पाने वाले सांसदो के सम्बंधमें ही नज़रमें आती है । जब की उसी के हिसाबसे थोडे कम बढे कर्मचारीयों वेतनो ज़्यादा लगते है तो, भरती, बढती पर अंकुश लगा कर रोजाना कर्मचारीयों द्वारा या कोंट्राक्ट द्वारा काम निकलवाने की निती बनायी जाती है । नीचे आकाशवाणी सुरत के सभी वर्ग के कर्मचारीयों द्वारा सामुहीक रूपसे चलाये जाने वाल्रे काम रोको आंदोलन अंतर्गत किये गये दिख़ावो की दो तसवीरें देख़ीये ।



पियुष महेता ।
सुरत-395001.

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