
दो दिन सूने सूने निकल गये. ऐसा संगीत मैं सुनता नहीं जो सिवा धक-धक के कुछ और न बजाता हो.
आकाशवाणी के कर्मचारियों ने अपनी मांगों को मनवाने के लिये स्टुडियोज़ और उनमें चलने वाली मशीन को ख़ामोश कर दिया. उनकी ज़रूरतों और मांगों को लेकर मेरे मन में कोई विरोध नहीं लेकिन जो प्रसारणकर्मी हरदम अपने ट्रांसमिशन्स में श्रोताओं को अपनी ताक़त बताते हों वह दावा इन दो दिनों में निहायत असत्य और छद्म भरा महसूस हुआ. मेरे दफ़्तर और घर में कुछ जमा चार रेडियो सेट्स हैं और सुबह काम शुरू होने से लेकर शाम तक विविध भारती या क्षेत्रीय प्रसारण जारी रहता है. रेडियो के चलते कभी घड़ी पर नज़र डालने की ज़रूरत नहीं पड़ती और काम कभी बोझिल प्रतीत नहीं होता.आकाशवाणी दुनिया जहान की हलचलों से हमें बाख़बर भी करता जाता है...समाचार सुना देता है...स्कोर बता देता है. दु:ख तो इस बात का है कि इसी हड़ताल के दौरान बिहार चुनाव के परिणाम भी आने वाले थे और इसी दौरान आकाशवाणी ने गूँगा बनकर अपने सबसे बड़े श्रोता नेटवर्क को निराश ही नहीं किया गँवाया भी. काम निपटाते हुए रेडियो एक अच्छा साथी बन जुगलबंदी करता रहता है. टीवी पर भी परिणाम देखे जा सकते थे लेकिन इसके लिये बस उसी पर नज़र गड़ाए रखना ज़रूरी होता.
बहरहाल जिनको हड़ताल करना थी उन्होंने की. उनके अपने तक़ाज़े हैं और अपना सोच.लेकिन यह बात बार बार मन में ख़लिश पैदा करती रही कि देश की सर्वोच्च और विश्वसनीय प्रसारण सेवा ने एकदम काम ठप्प कर दिया.अपनी बात को मनवाने का कोई न कोई गाँधीवादी तरीक़ा भी हो सकता था. जैसे विविध भारती के उदघोषक तय सकते थे कि हम फ़रमाइशें नहीं पढ़ेंगे या विज्ञापनों का प्रसारण शेड्यूल क्रमानुसार नहीं चलने देंगे.. दर-असल बीते बीस सालों में आकाशवाणी जैसी शीर्षस्थ संस्था निहायत रस्मी तौर पर सक्रिय है. वहाँ काम करने वाले लोगों में अब जज़्बे की निहायत कमी आ गई है. प्रायवेट रेडियो चैनल्स पर मौजूद ग्लैमर भी आकाशवाणी में काम करने वाले कर्मियों की आँख की किरकिरी बनता जा रहा है. केन्द्रीय सरकार के मातहत काम करने वाले आकाशवाणी केन्द्रों के पास बड़े बड़े भूखण्ड और भवन हैं; जहाँ मानव संसाधन की कमी का सवाल ही नहीं उठता.इसके मुक़ाबिल एफ़.एम चैनल्स हज़ार – दो हज़ार वर्गफ़ीट के दफ़्तर में दस-बारह लोगों की टीम लेकर शानदार कार्यक्रम रच देते हैं और लाखों के विज्ञापन कबाड़ कर मोटा मुनाफ़ा भी अपनी कम्पनी को देते हैं.प्रसारण,भाषा लेखन,तकनीक और मार्केटिंग को लेकर एफ़.एम.चैनल्स के पास अपनी छोटी सी लेकिन जुझारू टीम होती है जबकि आकाशवाणी का ये आलम है कि यदि कोई रचनाशीलकर्मी एक अच्छा कार्यक्रम बनाना चाहता है तो उसे कहा जाता है जाइये आप ही शहर में घूम कर प्रायोजक ढूंढ़ लाइये.अब बताइये ऐसी कार्य-संस्कृति में कोई कैसे काम कर सकता है या गुणवत्तापरक कार्यक्रम रच सकता है. ये सारी बातें अपनी जगह एकदम ठीक हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि प्रसारण के शिखर संस्थान के कर्मचारियों का ये अड़ियल रूख़ जायज़ नहीं.
इस बार की हड़ताल प्रसार भारती और सरकार के हुक़्मरानों के लिये भी ख़तरे की घंटी है. उन्हें समझना होगा कि इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिये उनके पास क्या वैकल्पित इंतज़ाम हैं. आकाशवाणी की हड़ताल ने श्रोताओं के स्नेह को ज़मीन पर ला पटका है.स्व-हित और सुख के इस अभियान में बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय का नारा थोड़ा बेसुरा लग रहा है.