जी हां ,यही पन्च लाइन है, इस नये एफ़ एम चैनल की (१०४.८), इसे भारत के पहले महिला एफ़ एम चैनल के नाम से भी प्रचारित किया जा रहा है, अब इसका क्या मतलब है, कुछ समझ नही आया, हो सकता है कि इसके सारे अर. जे. महिलाये हो, पर अगर ऐसा होगा तो इसे सुनने वाले श्रोताओं मे पुरूष ही अधिक होंगे. सही कह रहा हूँ ना ?
जो भी हो पर इन दिनो रोज सुबह ६ से ८ तक मै इसे सुन रहा हु, अगर आप भी सुबह कुछ सदाबहार नग्मे सुन कर तरो ताज़ा होना चाहते है, तो इसे सुनिये. सुबह सुबह लता, किशोर, रफ़ी और मुकेश के सुरीले गीतो को सुन कर उठना सचमुच सुखद है, और सबसे बडा फायदा ये कि किसी रेडीयो जोकी की बक बक सुनने की भी जरुरत नही, बस एक के बाद एक बेह्तरीन नग्मे, और कुछ नही.
बेसर पैर के एफ़ एम चैनलो की बाढ़ मे अच्छा संगीत कही खो सा गया है, अच्छे आर जे भी अब कम ही सुनने को मिलते है, ऐसे मे सुबह के स्लोट के लिये यह एक अच्छा विकल्प तो है ही.....
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Saturday, October 6, 2007
Sunday, September 30, 2007
जाने कहॉ गए वो रात दिन ( २)
पिछली कडी
टी.वी के आने के बाद धीरे धीरे रेडियो का समय सिकुड्ने लगा, फ़िर भी छाया गीत रोज सुना जाता रहा, अमीन सायानी को बिनाका गीत माला मे बोलते सुन सुन कर रेडियो उद्गोषक बनने की इच्छा दिल मे घर करने लगी, एक दो बार युवावाणी से महफ़िल प्रस्तुत करने का मौका भी मिला, फ़िर केबल आया तो रेडियो बिल्कुल छुट गया.
आज नये एफ़.एम. चैनलो और रेडियो मोबएल ने आकर एक बार फ़िर से रेडियो को पुनर्जीवित तो कर दिया है पर फ़िर भी वो विविध भरती के दिन -रात कुछ और ही होते थे..... लता जी, किशोर, रफ़ी, मुकेश, मन्न डे, हेमन्त दा, कितने कितने उम्र भर के मीत दिये हमे इसने.
आज भी रोज सुबह उटकर और रविवार पूरा दिन रेडियो सुना करता हू, अभी बीते सप्ताह युनुस भाई को हिन्द युग्म पर बोलते हुए सुनने के लिये, बहुत मशक्कत की विविध भारती tune करने की, पर कमबख्त फ्रिकुवेंसी पकड ही नही पाया, जिस तरह चैनलो की भीड मे भी याद आते है, दूरदर्शन के पुराने धरावाहिक, उसी तरह एफ़ एम चैनलो की इस बाड़ मे भी कमी मह्सूस होती है विविध भारती की, वो धुन (signature tune ) जो विविध भारती पर कार्यक्रम शुरू होने से पहले बजती थी क्या आज भी बजती है? छाया गीत क्या आज भी प्रसारित होता है ? पता नही ....
अपने इस सबसे पुराने दोस्त को आज देने के लिये कुछ भी नही है मेरे पास - बधाइयो के सिवा.
टी.वी के आने के बाद धीरे धीरे रेडियो का समय सिकुड्ने लगा, फ़िर भी छाया गीत रोज सुना जाता रहा, अमीन सायानी को बिनाका गीत माला मे बोलते सुन सुन कर रेडियो उद्गोषक बनने की इच्छा दिल मे घर करने लगी, एक दो बार युवावाणी से महफ़िल प्रस्तुत करने का मौका भी मिला, फ़िर केबल आया तो रेडियो बिल्कुल छुट गया.
आज नये एफ़.एम. चैनलो और रेडियो मोबएल ने आकर एक बार फ़िर से रेडियो को पुनर्जीवित तो कर दिया है पर फ़िर भी वो विविध भरती के दिन -रात कुछ और ही होते थे..... लता जी, किशोर, रफ़ी, मुकेश, मन्न डे, हेमन्त दा, कितने कितने उम्र भर के मीत दिये हमे इसने.
आज भी रोज सुबह उटकर और रविवार पूरा दिन रेडियो सुना करता हू, अभी बीते सप्ताह युनुस भाई को हिन्द युग्म पर बोलते हुए सुनने के लिये, बहुत मशक्कत की विविध भारती tune करने की, पर कमबख्त फ्रिकुवेंसी पकड ही नही पाया, जिस तरह चैनलो की भीड मे भी याद आते है, दूरदर्शन के पुराने धरावाहिक, उसी तरह एफ़ एम चैनलो की इस बाड़ मे भी कमी मह्सूस होती है विविध भारती की, वो धुन (signature tune ) जो विविध भारती पर कार्यक्रम शुरू होने से पहले बजती थी क्या आज भी बजती है? छाया गीत क्या आज भी प्रसारित होता है ? पता नही ....
अपने इस सबसे पुराने दोस्त को आज देने के लिये कुछ भी नही है मेरे पास - बधाइयो के सिवा.
Saturday, September 29, 2007
जाने कहॉ गए वो रात दिन
चार साल का था जब दिल्ली आया, माँ के साथ, पिताजी दिल्ली posted थे और अब उन्हें सरकारी मकान भी मिल गया था। पहली चीज़ जो पिताजी ने मुझे तोहफे के रुप में दिया वो था एक जर्मन मेड रेडियो, जो बना मेरे जीवन का पहला पहला दोस्त, मैं बात कर रहा हूँ १९७८ की, अगले लगभग ८ सालों तक उसी रेडियो के आस पास घूमती थी मेरी दुनिया।
सुबह सात बजे से १० बजे तक , सभी कार्यक्रम जो विविद भारती से उन दिनों प्रसारित होते थे बिना नागा सुनता था। " संगीत सरिता " से सुबह की शुरवात होती थी, संगीत के विषय पर इतना ज्ञानवर्धक कार्यक्रम मैंने आज तक दूसरा नही सुना, चित्रगीत पर नयी फिल्मों के गाने आते थे, जो सुबह ८.३० से १० बजे तक प्रसारित होता था, करीब सवा नौ बजे मैं स्कूल के लिए निकल जाता था अपने रेडियो से विदा कह कर और उसे बहुत संभाल कर अपनी छोटी सी अलमारी मे छिपा कर। हमारी स्कूल बस होती थी जो करीब १ घंटे में स्कूल पहुंचती थी, रास्ते में हम अन्ताक्षरी खेलते थे और जितने गाने मुझे याद होते थे, शायाद ही किसी को होते थे, कारण मेरा रेडियो ही तो था, स्वाभाविक है कि जिस टीम में मैं होता था वही जीतती थी।
उन दिनों हम जिस घर में रहते थे वहाँ खुला आंगन होता था और गर्मियों के दिनों में शाम होते ही फर्श को पानी से धोकर हम सब बाहर आंगन में सोते थे, सिराने रखे रेडियो पर छायागीत सुनते सुनते अक्सर नींद लग जाती थी और रेडियो खुला रह जाता था.... अभी भी याद आती है पापा की वो ड़ान्टें...
(शेष अगली पोस्ट में )
सुबह सात बजे से १० बजे तक , सभी कार्यक्रम जो विविद भारती से उन दिनों प्रसारित होते थे बिना नागा सुनता था। " संगीत सरिता " से सुबह की शुरवात होती थी, संगीत के विषय पर इतना ज्ञानवर्धक कार्यक्रम मैंने आज तक दूसरा नही सुना, चित्रगीत पर नयी फिल्मों के गाने आते थे, जो सुबह ८.३० से १० बजे तक प्रसारित होता था, करीब सवा नौ बजे मैं स्कूल के लिए निकल जाता था अपने रेडियो से विदा कह कर और उसे बहुत संभाल कर अपनी छोटी सी अलमारी मे छिपा कर। हमारी स्कूल बस होती थी जो करीब १ घंटे में स्कूल पहुंचती थी, रास्ते में हम अन्ताक्षरी खेलते थे और जितने गाने मुझे याद होते थे, शायाद ही किसी को होते थे, कारण मेरा रेडियो ही तो था, स्वाभाविक है कि जिस टीम में मैं होता था वही जीतती थी।
उन दिनों हम जिस घर में रहते थे वहाँ खुला आंगन होता था और गर्मियों के दिनों में शाम होते ही फर्श को पानी से धोकर हम सब बाहर आंगन में सोते थे, सिराने रखे रेडियो पर छायागीत सुनते सुनते अक्सर नींद लग जाती थी और रेडियो खुला रह जाता था.... अभी भी याद आती है पापा की वो ड़ान्टें...
(शेष अगली पोस्ट में )
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