सबसे नए तीन पन्ने :

Monday, March 17, 2008

मधुर धुनें

आजकल विविध भारती पर जब भी हम कोई कार्यक्रम सुनते है विशेषकर फ़िल्मी गीतों का कार्यक्रम जैसे जयमाला, मन चाहे गीत, भूले बिसरे गीत इन कार्यक्रमों के शुरू होने से पहले ही किसी फ़िल्मी गीत की मधुर धुन बजती है।

कार्यक्रम आधा समाप्त होने पर और व्यावसायिक अंतराल में भी धुन बजती है। कभी-कभी एक ही धुन बजती है पर कभी अलग-अलग गीतों की धुनें भी बजती है। लेकिन सभी धुनें लोकप्रिय फ़िल्मी गीतों की ही होती है। जैसे एक दो सप्ताह पहले जयमाला में दि ट्रेन फ़िल्म के रफ़ी के गाए इस गीत की धुन बज रही थी -

गुलाबी आँखे जो तेरी देखी
शराबी ये दिल हो गया

जितना अच्छा रफ़ी ने इस गीत को गाया है उतनी ही मधुर रही ये धुन। कभी-कभी धुनें बहुत ही थोड़ी सी बजा करती है जिसमें शुरूवाती संगीत बजता है और गीत का मुखड़ा पर कभी एक अंतरा पूरा और दूसरा अंतरा शुरू होने तक धुन बजती है।

कुछ समय पहले बीच के अंतराल में ही धुनें बजती थी और अंत में कुछ समय बचने पर लेकिन शुरूवात में नहीं बजती थी। अब तो शुरूवात में ही धुन बज उठती है।

कुछ और पीछे हम चले, अरे ! कुछ क्या बहुत पीछे चलते है तब फ़िल्मी धुनें नहीं बजती थी। धुनें भी तभी बजती थी जब एक कार्यक्रम समाप्त हो जाता था पर अगला कार्यक्रम शुरू होने के लिए कुछ समय रहता था।

ये धुनें फ़िल्मी तो नहीं होती थी पर मधुर होती थी। कभी बाँसुरी की तान छिड़ती कभी सितार के तार बज उठते तो कभी सरोद के। अक्सर जलतरंग बजता। इन सारी धुनों में जलतरंग बहुत अच्छा लगता था। अब तो बहुत समय हो गया जलतरंग नहीं सुना।

इस तरह धुनों का पहले केवल फ़िलर की तरह प्रयोग किया जाता था। आजकल तो धुनें कार्यक्रम का एक हिस्सा बन गई है। विभिन्न साज़ों की धुनों की जगह फ़िल्मी धुनों की शुरूवात क्यों हुई इसकी कोई जानकारी विविध भारती से कभी मिल नहीं पाई। लगता है धुन बजाने के इस मुद्दे को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं गया।

पिछले मेरे सिलोन से संबंधित चिट्ठे में मीनाक्षी जी ने टिप्पणी की थी कि कैसे मुझे इतना याद रहता है… तो बता दूं कि रेडियो सुनना न सिर्फ़ शौक़ है न सिर्फ़ आदत है बल्कि जीवन की दैनिक दिनचर्या का एक हिस्सा है।

पर रेडियो हमेशा अपनी पसन्द से सुना इसीलिए तीन केन्द्र सुने - विविध भारती, सिलोन और आकाशवाणी हैदराबाद। इसीलिए पीयूष जी सिलोन के सभी कार्यक्रमों के नाम बता नहीं सकती। तकनीकी दिक्कतों से चार दिन के बाद आज कंप्यूटर पर काम कर रही हूँ इसीलिए पिछले चिट्ठे की टिप्पणियाँ भी आज ही देखी।

4 comments:

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

उद्दघोषक जब प्रसारण फर्ज़ पर होते है, तभी सही अंद्दाज़ में सुनने को मिलती है, पर अनजाने उद्दघोषक जो अस्थायी तौर पर आते है, वे ऐसा नियम से बाहर की बात ध्यान पर ले नहीं पाते । इस लिये प्रसारण अधिकारी को यह बात ऐसे उद्दघोषको के ध्यान पर लानी जरूरी होती है । यह एल पी आज पूरानी लगती है, पर इस गाने के रिलीझ के यानि १९७० के सालो< बाद यह धून आयी । हाँ, १९७० में पोलिडोर (आज की म्यूझिक ) इन्डिया ने इस गीत की धून दीपक कापडिया की बाजाई हुई स्पेनिश गिटार पर जारी कि थी । और हाल ही में शायद टाईम्स म्यूझिक ने एक सी डी पर यह गाने की धून सेक्सो फोन पर शौकत खान की बजाई जारि की है । इस शनिवार रात्री ८.३० –पर रेडियो सिलोन से साझ और आवाझ में कल्याणजी वीरजी शाह (संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी वाले) की क्ले वायोलिन पर बजाई इल्म नागीन की धून मेरा दिल ये पूकारे आजा आयी थी ।
पियुष महेता ।

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

श्री अन्नपूर्णाजी,
आपने जो धूनका जिक्र किया है, वह वायोलिन पर मशहूर वादक और वाद्यवृन्द संयोजक श्री अनिल मोहिले ने बजाई है और यह रेकोर्ड एल. पी. होते हुए भी आम तोर पर होने वाली ३३ आरपीएम की बजाय ४५ आरपीएम होने के कारण अनुभवी उद्दधोषक तो सही गति से बजाते है, पर जब अस्थायी और बिन-अनुभवी

उद्दघोषक जब प्रसारण फर्ज़ पर होते है, तभी सही अंद्दाज़ में सुनने को मिलती है, पर अनजाने उद्दघोषक जो अस्थायी तौर पर आते है, वे ऐसा नियम से बाहर की बात ध्यान पर ले नहीं पाते । इस लिये प्रसारण अधिकारी को यह बात ऐसे उद्दघोषको के ध्यान पर लानी जरूरी होती है । यह एल पी आज पूरानी लगती है, पर इस गाने के रिलीझ के यानि १९७० के सालो< बाद यह धून आयी । हाँ, १९७० में पोलिडोर (आज की म्यूझिक ) इन्डिया ने इस गीत की धून दीपक कापडिया की बाजाई हुई स्पेनिश गिटार पर जारी कि थी । और हाल ही में शायद टाईम्स म्यूझिक ने एक सी डी पर यह गाने की धून सेक्सो फोन पर शौकत खान की बजाई जारि की है । इस शनिवार रात्री ८.३० –पर रेडियो सिलोन से साझ और आवाझ में कल्याणजी वीरजी शाह (संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी वाले) की क्ले वायोलिन पर बजाई इल्म नागीन की धून मेरा दिल ये पूकारे आजा आयी थी ।
पियुष महेता ।

Yunus Khan said...

अन्‍नपूर्णा जी अच्‍छा मुद्दा उठाया । दरअसल मैं आपको बता दूं कि स्‍थानीय केंद्रों को विज्ञापन बजाने के लिए जगह देने के इरादे से विविध भारती पर लंबे फिलर बजाने की परंपरा शुरू हुई । जो अमूमन नब्‍बे सेकेन्‍ड के होते हैं और तयशुदा नियम के तहत तयशुदा जगह पर बजते हैं । ये बात सही है कि ज्‍यादातर अनाउंसर फिलर्स को गंभीरता से नहीं लेते । लेकिन आपका ये नाचीज़ साथी जीवन भर से फिलर्स से प्रेम करता रहा है और स्‍वयं चीज़ों को जोड़कर फिलर तैयार करता रहा है । मजाल है कि कभी समझौते के तहत कोई फिलर हमारे अपने प्रसारण में बज जाए । चलते चलते ये बात कि रेडियोवाणी पर इंस्‍ट्रूमेन्‍टल्‍स पर काम जारी है । आपने देखा सुना होगा

Anonymous said...

धन्यवाद पीयूष जी !

धन्यवाद यूनुस जी जानकारी के लिए।

आज सुबह भूले-बिसरे गीत में ब्रेक में बजी धुन शायद फ़िल्मी नहीं थी और कोई वादन था जो अच्छा लगा।

एक बात और कहनी है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इन धुनों को बजाने वालों के नाम भी बताए जाए।

अन्नपूर्णा

Post a Comment

आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

अपनी राय दें