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Sunday, January 22, 2012

'कविताएं अगर होती परियां'.....जाने-माने न्‍यूज़-रीडर राजेंद्र चुघ की कविताएं

पिछले कुछ दिनों से रेडियोनामा पर ना तो शुभ्रा जी आ रही थीं और ना ही 'न्‍यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा' वाले स्‍तंभ की अगली कडियां। नया साल शुरू होते ही शुभ्रा जी ने दो अनमोल प्रस्‍तुतियां रेडियोनामा के लिए तैयार की हैं। इनमें से एक आज। अगली अनमोल प्रस्‍तुति असल में ऑडियो के साथ है। और इसकी प्रतीक्षा कीजिए। क्‍योंकि प्रतीक्षा का फल  'मीठा' होता है। तो लीजिए रेडियोनामा पर रविवार की विशेष पेशकश।  जाने-माने न्‍यूज़-रीडर राजेंद्र चुघ की कविताएं। रेडियोनामा पर चुघ साहब की ये कविताएं पेश करना हमारे लिए सौभाग्‍य ये कम नहीं है। हम शुभ्रा जी और राजेंद्र चुघ दोनों के शुक्रगुज़ार हैं।


 
दोस्तो, आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि मैं इतने दिनों से कहाँ लापता हूँ. तो अर्ज़ कर दूं कि वैसे तो दोस्तों की महफ़िल में बैठना, उनके साथ इधर-उधर की बातें करना, और खुलकर ठहाके लगाना किसे पसंद नहीं आता? लेकिन कभी-कभी इससे भी ज़्यादा "दिलफ़रेब हो जाते हैं ग़म रोज़गार के "....और फिर महिलाओं के ऊपर तो प्रकृति ने दोहरी उदारता दिखाई है.... कि घर भी संभालें और रोज़गार भी. आशा है इस दोहरी मजबूरी को समझते हुए मुझे माफ़ कर देंगे.

जहाँ तक "न्यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा" का सवाल है.... यादों का सिलसिला ऐसे मोड़ पर आ पहुंचा था, जहाँ से कुछ तीखी और तल्ख़ यादें झाँकने लगी थीं इसलिए मैंने रास्ता ही बदल दिया.

आज मैं आपकी चिर-परिचित आवाज़ के एक नये पहलू से आपका परिचय कराने जा रही हूँ. राजेंद्र चुघ की आवाज़ में आप बरसों   से समाचार सुनते आ रहे हैं. वे न सिर्फ हिंदी समाचार कक्ष के हमारे वरिष्ठ सहयोगी हैं बल्कि इस समय मुख्य समाचार वाचक भी हैं. सम-सामयिक विषयों की बहुत अच्छी जानकारी रखते हैं. पंजाबी और हिंदी साहित्य का विशद अध्ययन किया है. ख़ुद भी लिखते रहे हैं. विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में उनकी कहानियां और कवितायेँ बराबर प्रकाशित होती रही हैं. हमारी गप-गोष्ठियों में बहुत इसरार करने पर कभी- कभी अपनी रचनाएँ सुना दिया करते हैं.


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पंजाब के जालंधर जिले के शाहकोट गाँव से ताल्लुक रखते हैं. गाँव की बातें करते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं. शाहकोट मिर्च की बहुत बड़ी मंडी है. मिर्च की तल्ख़ी तो नहीं, हाँ उसका रंग और ख़ूबसूरती चुघ साहब की कविताओं में झलकती है. पहले गाँव, फिर नकोदर और फिर जालंधर से पढ़ाई पूरी की और वहीँ से आकाशवाणी से साथ जुड़ा. पत्नी सीमा सच्चे अर्थों में उनकी सह-धर्मिणी हैं. चुघ साहब बातचीत में अक्सर उन्हें 'मालकिन' कहकर बुलाते हैं. इसी वजह से मैं कभी-कभी उन्हें 'सीमाबद्ध' कहकर चिढ़ाती भी हूँ .

दो बच्चे हैं - संकेत और निष्ठा. संकेत होटल मैनेजमेंट व्यवसाय से जुड़े हैं और निष्ठा ने पत्रकारिता का पेशा अपनाया है. पुत्रवधू जसरिता और दामाद विलास समेत पूरा परिवार आत्मीयता की ऐसी प्यारी डोर से बंधा हुआ है कि देखकर हमेशा यही दुआ करने को जी चाहता है कि यह डोर और मज़बूत हो. यहां ये जिक्र करते चलें कि चुघ साहब के दामाद विलास चित्राकरण दक्षिण भारत के हैं।

चुघ साहब ने अभी पिछले दिनों एक कविता सुनाई. उसे सुनते हुए मुझे अपने पापा  कुछ इस तरह याद आये कि मेरी आँख भीग गयी. यह कविता उन्होंने अपनी बेटी के जन्मदिन पर उसके लिए उपहार के रूप में लिखी थी. मैंने उनसे वह कविता माँग ली और अपने संकलन में संजो कर रख ली. कुछ मित्रों की नज़र पड़ी....कुछ टिप्पणियां भी आयीं. आखिरकार आम सहमति से तय पाया गया कि इन कविताओं को रेडियोनामा के माध्यम से सभी श्रोताओं-पाठकों तक पहुँचाया जाये. अनुमति के लिए चुघ साहब से संपर्क किया तो बोले - चाहे जितनी कवितायेँ ले लो और जहाँ चाहो, चिपका दो.  तो लीजिये, राजेंद्र चुघ की ये कवितायेँ आपके हवाले कर रही हूँ. पढ़ कर देखिये और बताइये कैसी लगीं.



निष्ठा के लिए

कवितायेँ अगर होतीं परियां

बच्चों की कहानियों जैसी

और उतर आतीं लेकर जादू की छड़ी

हर सपना सच करने को ....

कवितायेँ अगर होतीं तितलियाँ

स्वर्ग की क्यारियों जैसी

और उतर आतीं लेकर सारे चमकीले रंग

हर ख्वाब में भरने को .....

कवितायेँ अगर होतीं दुआएं

काबे के आँगन जैसी

और उतर आतीं लेकर मन्नतों का असर

हर ख्वाहिश में भरने को....

तो भेज देता मैं सारी परियों और तितलियों को तुम्हारे घर के पते पर

और बैठा रहता काबे के आँगन में दुआ के लिए हाथ उठाये

तुम्हारे लिए.......उम्र भर.......

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यादें

जाने किस चीज़ से बुनी होती हैं ये यादें,

समय के सूत से या रिश्तों के रेशम से

प्रवासी पंछियों की तरह उड़ आती हैं

बीते की बर्फ से ....

कभी गोद में बैठकर दाढ़ी के बाल टटोलती हैं

कभी दीवार घड़ी से कोयल की तरह निकलकर हर घंटे बोलती हैं

ज़रा सा वक़्त खोलकर शरारत से झाँकती हैं

पुराने पलों पर जमी ज़ंग की परत पोंछ डालती हैं

ये यादें उतार देती हैं पस्त लम्हों की थकान

वे खोल देते हैं आँखें फिर नवजात शिशु के समान

मेरी उँगली पकड़कर इन्द्रधनुष पर झुलाने ले जाती हैं

तेरी यादें ....

इन यादों की उम्र दराज़ हो

और तुम्हारी भी.

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संकेत और जसरिता के नाम

सदियों से घूम रही है धरती अपने सूरज के गिर्द

सदियों से झूल रहा है चाँद अपनी रात के बालों में

सदियों से धो रहा है समंदर अपनी धरती के पैर

सदियों से चूम रही है बर्फ़ अपने पर्वत के होंठ

सदियों से दे रही है बहार अपने मौसम के हाथों फूल

लिखी जा रही है मुहब्बत की

एक मुक़द्दस और मुसलसल दास्ताँ

क़ुदरत के काग़ज़ पर सदियों से...

आओ हम तुम भी आज दस्तख़त करें,

इस दस्तावेज़ के नीचे,

कि हमारी मुहब्बत के निशान

संभालकर रख लें

ये सदियाँ....

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बातों ही बातों में चुघ साहब ने यह भी बताया कि बरसों पहले जब उन्होंने कविता की ज़मीन पर पैर रखा तो सबसे पहले यह ग़ज़ल बन गयी थी, जो आज भी उनके दिल के बहुत क़रीब है.....


बेसब्र है बादल उसे तड़पाइयेगा मत

गर टूट के बरसे तो पछताइयेगा मत.

बिजली के नंगे तारों से छींके हैं खतरनाक

इन पर किसी उम्मीद को लटकाइयेगा मत.

वो बांटने तो आये हैं खैरात में सपने

ख़ाली जनाब आप भी घर जाइयेगा मत.

जो ज़िन्दगी को समझते हैं महज़ चुटकुला

कह दो उन्हें कि तालियाँ बजाइयेगा मत.

उनके भी दिल में दर्द है, मैं बहुत सुन चुका

अब इस ख़याल से मुझे बहलाइयेगा मत.

सतलुज की धारा शाहकोट से कुछ ही दूर बहती है. हिंदुस्तान के गावों में बसने वाले लोगों की ज़िन्दगी में नदियों का जो दर्जा है, जो अहमियत है, वह कहने-सुनने की नहीं, समझने और महसूस करने की बात है. चुघ साहब बताते हैं कि वेग से बहते सतलुज में उन्हें अपने दादाजी की झलक मिलती थी. और सतलुज से दूर होने पर तो यह एहसास और भी गहरा होता गया....

ख़ुद रोये और मुझे रुलाये सतलुज

अथरू अथरू रोता जाये सतलुज.

तर दाढ़ी,पगड़ी पर काले धब्बे

रोज़ रात सपनों में आये सतलुज.

हर क्यारी में सूखे खून के छींटे

किस-किस खेत से बचकर जाये सतलुज.

इंतज़ार में जैसे हो महबूबा

ऐसे भागा भागा जाये सतलुज.

जी करता है तुतला तुतला बोलूँ

मुझको अपनी गोद खिलाये सतलुज.

मेरे पंज-आबों की पीड़ हरे जो

उसपे वारी-वारी जाये सतलुज.

3 comments:

Amit Sharma said...

My dear yunus bhai,
aap bahut hi punya ka kam kar rahe ho. Sagaron mein se moti nikal rahe ho. Lage raho, meri duaen aap ke sath hain.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...


भाई श्री राजेन्द्र चुघ व सौ. सीमाजी के परिवार के पवित्र रिश्तों के ताने बानोँ को
उनकी सुंदर मुखर कविताओं के शब्दों द्वारा , पंजाब व सतलुज की पावन धारा के द्वारा
प्रवाहित होता हुआ इस आलेख में पढकर, मेरा मन, मानवीय आनंद से सभर हुआ !
उसका श्रेय आपको है, युनूस भाई तथा सभी को ...
सच , अब ' रेडियोनामा ' एक ब्लॉग न रहकर ....
रेडियो सम्बंधित वाक्यों का अनमोल दस्तावेज बनता जा रहा है -
भविष्य के लिए सुरक्षित - अपने आप में अनूठा ...
उसकी भी बधाई तथा ' चुघ परिवार ' के लिए शुभकामनाएं ..
सस्नेह ,
- लावण्या दीपक शाह
फीनीक्स , एरीजोना प्रांत यु. एस. ए से

annapurna said...

बहुत सुन्दर रचनाएं !

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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

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