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Sunday, March 20, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन –भाग २० महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृखला

१९६५ के युद्ध को जीत कर भी हम हार गए क्योंकि अब्दुलहमीद जैसे वीरों की बलि चढ़ाकर जो इलाके हमने जीते थे, वो सारे इलाके हमें छोड़ने पड़े और युद्ध की विभीषिका के परिणाम पूरे देश को भुगतने पड़े. अपने पहले के एक एपिसोड में मैंने ज़िक्र किया था कि गेहूं ढाई रुपये सेर हो गया था और हम लोग मजबूर थे पी एल ४८० संधि के तहत मिले अमेरिका के वो गेहूं खाने को जो लाल रंग के थे और जिनमे बदबू आती थी. हमारा कुत्ता भी उस गेहूं की बनी रोटी खाने को तैयार नहीं था.
अमेरिका जिस गेहूं को समंदर में डालने वाले था, दामन पसार कर उस गेहूं को हमने स्वीकार कर लिया और न जाने कैसे हमने उस गेहूं की बनी चमड़े जैसी रोटियों को खाया. कई बार जब भूख के मारे एक रोटी ज्यादा खा लेते थे तो रात को उल्टियां होने लगती थीं. ऐसे वक्त में उल्टी होते ही पेट फिर खाली हो जाता था और हम बच्चों को फिर से ज़बरदस्त भूख लग जाया करती थी. अक्सर ऐसे मौकों पर मैं और रतन, सोहन लाल बिस्सा जी की दुकान पर जा पहुँचते थे और  कड़के मोटे भुजिया खरीदकर लाते थे और खाते थे. मौठ के बने उन भुजियों की खासियत यही थी कि उन्हें खाते ही खूब ज़ोरदार प्यास लगती थी और जब पानी पीते थे तो पेट बहुत ज़बरदस्त भर जाता था.


वो लाल रंग के बदबूदार गेहू खाकर ज़िंदगी बस चलती जा रही थी. शिकायत करते भी तो किस से? सभी लोगों का वही हाल था. इसी दौरान मैं स्कूल में बेंजो बजाता था और साथ ही जब भी जहां भी मौक़ा मिलता था, नाटक भी किया करता था. नाटक करते करते मुझे महसूस हुआ कि मेरी भाषा ठीक नहीं है. खास तौर पर मुझे पता नहीं चलता था कि किस शब्द में किस जगह नुक्ता लगता है और किस जगह नहीं. वैसे भी ये एक अजीब सी विडम्बना है कि हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी है मगर पूरे देश में एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहां के लोग दावे के साथ कह सकते हों कि वो सही हिदी बोलते हैं. यू पी, बिहार में जो हिदी बोली जाती है उसमें स्त्रीलिंग-पुल्लिंग, एकवचन-बहुवचन की बहुत गलतियाँ होती हैं. इलाहाबाद के लोग बोलेंगे “मुझे बहुत गुस्सा आती है.” मैं जब इलाहाबाद में पोस्टेड था एक लड़की ने किसी बात पर यही वाक्य बोला तो मैंने उसे टोका, “तुम्हें गुस्सा आती है? मुझे तो गुस्सा आता है.” वो हडबडा कर बोली “ जी सर मैं लड़की हूँ तो मुझे गुस्सा आती है और आप पुरुष हैं तो आपको गुस्सा आता है” मैंने हँसते हुए कहा “ अच्छा तो तुम्हें रात को सपना भी आती होगी?” उसके पास इसका कोई जवाब नहीं था और वो लड़की ही नहीं, सभी लोग इसी तरह बोलते हैं. वचन के मामले में भी वो लोग अक्सर गलती करते हैं. मेरे विविध भारती की एक साथी जो उस क्षेत्र की हैं, आज भी यही बोलती हैं  “आज घर में बहुत सारा आम आया था.” या फिर “कल शाम बाल धोया था.” “स” और “श” की त्रुटि भी यू पी बिहार दोनों प्रदेशो के आम लोग करते ही हैं. इलाहाबाद बनारस का एक बहुत ही आम वाक्य है “ क्या करें भैया, परेसान हो गए.”


अब आइये मेरे प्रदेश की ओर. वहाँ पानी नहीं होता पाणी होता है, खाना नहीं होता खाणा होता है, जाना नहीं होता जाणा होता है. इसी तरह वहाँ कोई नहीं बोलेगा “कितने बजे है?” अक्सर लोग बोलेंगे “कितनी बजी है?” “ह” का इस्तेमाल या तो होगा ही नहीं या फिर बहुत ज्यादा होगा. “मैं जा रहा हूँ.” को बोला जाएगा “मैं जा रआ हूँ” और राजस्थान के कुछ इलाकों में “शान्ति बाई की सासू जी आई हैं” को बोला जाएगा “हान्ति बाई की हाहू जी आई हैं.” राजस्थान में कुल दस बोलियां हैं. हर बोली बोलने वाला हिन्दी को अपने हिसाब से बोलता है. कई जगह “स” को “श” उच्चारित करते हैं लेकिन अधिकाँश इलाकों में “श” का नामोनिशान ही नहीं है. वहाँ “श” को बड़े इत्मीनान और आत्मविश्वास के साथ “स” बोला जाता है और चूंकि सभी लोग इस तरह बोलते हैं तो उन्हें इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता. आज भी मेरे घर के लोग, मेरे रिश्तेदार संबंधी सभी इसी तरह की हिन्दी बोलते हैं. कुछ जातियों को छोड़कर राजस्थान के लोग इस कहावत पर विश्वास करते हैं “बाहर की पूरी से घर की आधी भली”. इसलिए अपने शहर को छोड़कर बाहर नहीं निकलते, बाहर के लोगों के संपर्क में नहीं आते. जब बाहर के संपर्क में नहीं आते तो उन्हें अपनी गलतियों का अहसास होने का सवाल ही नहीं उठता.


ये बात सिर्फ हमारे देश में ही नहीं है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी होते हुए भी पूरे देश में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहां के सब या अधिकाँश लोग सही हिन्दी बोलते हों. हमारे पड़ोसी देश की राष्ट्रभाषा उर्दू है लेकिन वहाँ भी न पंजाब में सही उर्दू बोली जाती है न सिंध में और बलोचिस्तान की तो बात ही छोड़ दीजिए. हकीकत ये है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है मगर पाकिस्तान की किसी भी जगह से अच्छी उर्दू लखनऊ में बोली जाती है. पाकिस्तान के दो दार्शनिक और विचारक जनाब तारिक फतह और जनाब हसन निसार तो खुले आम स्वीकार करते हैं कि उनके देश में उर्दू जनता पर थोपी गयी है, उर्दू वहाँ की आम जनता की भाषा ही नहीं है. वहाँ उर्दू इस क़दर थोपी गयी है कि पूरे पश्चिमी पंजाब में एक भी स्कूल ऐसा नहीं है जहां पंजाबी पढाई जाती है या जहां पढाई का माध्यम पंजाबी भाषा हो.


तो मैं जब स्टेज पर आने लगा तो मुझे लगा कि मुझे अपनी भाषा पर थोड़ा ध्यान देना चाहिए. अब सवाल ये उठा कि इसके लिए क्या किया जाए क्योंकि जो आस पास के लोग थे वो तो वही खाणा-पीणा, आणा-जाणा वाली ही हिन्दी बोलते थे. मुझे लगा कि अगर मैं थोड़ी बहुत उर्दू सीख लूं तो शायद मेरी भाषा थोड़ी सुधर जायेगी. मैंने पिताजी के सामने ये बात रखी तो उन्हें थोड़ा ताज्जुब हुआ. वो बोले “उर्दू सीखकर क्या हासिल होगा तुम्हें? वो तो गए ज़माने की भाषा है.” दरअसल देश नया नया आज़ाद हुआ था. आज़ादी से पहले मुग़लकाल से बीकानेर में दफ्तरों और अदालतों की भाषा उर्दू थी. आज़ादी मिलते ही हर ओर उर्दू को हटाकर उसके स्थान पर हिन्दी को अपनाने का आंदोलन ज़ोरों पर था. मैंने पिताजी को कहा “उर्दू सीखने से मुझे लगता है कि मेरी भाषा थोड़ी सुधरेगी, नाटक करने में भी मदद मिलेगी,ऐसा मुझे लगता है और फिर एक भाषा अतिरिक्त सीखने में हर्ज ही क्या है?” पिताजी जानते थे कि भाषाओं में मेरी थोड़ी रूचि है. बहुत बचपन में ही जब हम लोग गंगानगर जिले में रहे तो मैंने पंजाबी भी लिखना पढ़ना बोलना सीख लिया था. पिताजी ने कहा “ठीक है अगर तुम सीखना ही चाहते हो तो मैं इंतजाम कर देता हूँ.” उसी दिन शाम को वो एक बहुत ही बुज़ुर्ग से दाढी वाले सज्जन को घर लेकर आये और बोले “ ये तुम्हारे उर्दू के उस्ताद जी हैं.......और सही बात ये है कि तुम्हारे ही नहीं मेरे भी उस्ताद जी हैं. मुझे भी उर्दू इन्होने ही पढाई थी.”मैंने झुककर उनके पैर छुए, उन्होंने खूब दुआएं दीं. अगले ही दिन से उन्होंने मुझे उर्दू की तालीम देना शुरू कर दिया. मैंने उर्दू सीखने का निर्णय बस योंही ले लिया था, मुझे कहाँ पता था कि ये उर्दू मेरे जीवन में इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगी. इसी उर्दू की जानकारी के बल पर इलाहाबाद में हिदुस्तान और पाकिस्तान दोनों में बराबर मशहूर शायर राज़ इलाहाबादी साहब, नजीर बनारसी साहब और कितने ही उर्दू के विद्वानों की कुर्बत का सौभाग्य मिला, अपने रेडियो के पूरे कार्यकाल में हर जगह उर्दू प्रोग्राम के प्रेजेंटेशन का काम मुझे ही सौंपा गया, मैं चाहे किसी भी पोस्ट पर रहा, पूरे रेडियो जीवन में जहां भी रहा ग़ज़लों की स्टेज कंसर्ट्स को मैंने ही कंडक्ट किया और मुम्बई आने के बाद इसी उर्दू की वजह से “नूरजहा”, “जोहरामहल”, “अपनी खुशियाँ अपने गम”, “ये रिश्ता न टूटे”, “अजब मिर्ज़ा गज़ब मिर्ज़ा”, “ज़िदगीनामा” जैसे करीब २५ टी वी सीरियल्स में बहुत अच्छी और अहम भूमिकाएं निभाईं.


उर्दू की तालीम शुरू किये मुश्किल से डेढ़ महीना गुजरा था, मैं जोड़ जोड़कर छोटे छोटे शब्द पढ़ने लगा था कि मेरे बुज़ुर्ग उस्ताद जी को ऊपर से बुलावा आ गया. मुझे लगा शायद ठीक से उर्दू सीखना मेरे भाग्य में नहीं है लेकिन मैंने हार नहीं मानी. मैं जब तब एक आध घंटा उर्दू का कायदा लेकर बैठता रहा और जो कुछ उस्ताद जी सिखाकर गए थे, उसके बल पर धीरे धीरे घिसट घिसटकर थोड़ा थोड़ा आगे बढ़ता रहा और मेरी खुशनसीबी कि रेडियो में आने के बाद मुझे कमर भाई, जाहिद साहब जैसे साथियों का साथ मिला जिन्होंने मेरी उर्दू को और भी तराश दिया. इस तरह अपनी पढाई के साथ साथ मैं अपनी भाषा को सुधारने की कोशिश करता रहा. अभी कल ही मेरे स्कूल के सहपाठी और आकाशवाणी के साथी शशिकांत पांडे  ने मुझे व्हाट्सअप्प पर मैसेज किया “मैं तुम्हारी आत्मकथा पढ़ रहा हूँ. कहानी में दिलचस्पी बनी हुई है. बहुत अच्छा लग रहा है. एक बात और, साइंस का स्टूडेंट इतनी बढ़िया हिन्दी में कहानीकार बनेगा ये देखकर और भी अच्छा लगा. मेरी हार्दिक शुभकामनाएं.”


उन दिनों में न तो पी एम् टी हुआ करता था न ही पी ई टी. हायर सैकेंडरी(कक्षा ग्यारह) के अंको के आधार पर इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला होता था और प्रथम वर्ष टी डी सी (कक्षा बारह) के आधार पर मेडिकल कॉलेज में. मैं दसवीं कक्षा में आ चुका था गणित के साथ साइंस ली थी मैंने. यानि मुझे हायर सैकेंडरी के बाद इंजीनियरिंग में जाना था. काम ज़रा मुश्किल था क्योंकि संगीत में भी रूचि थी, नाटक में भी. इन सबसे ऊपर मेरी माँ बहुत बीमार रहने लगी थीं. मैं अक्सर उन्हें आँगन में खाट बिछाकर सुला दिया करता था और उनसे पूछ पूछ कर खाना बनाया करता था. घर में दो गायें थीं. आज की शहरी पीढ़ी शायद इसका अर्थ नहीं समझेगी कि घर में दो गाय होने का क्या अर्थ होता है. बहुत काम होता है गायों का. उनके लिए चारे का इंतजाम करना, उन्हें चारा खिलाना, ग्वार तैयार करके उन्हें देना. ग्वाला दूध निकालने आता था, उस वक्त उसे असिस्ट करना. फिर उस दूध को सम्भालना, दही ज़माना, बिलौना करके मक्खन निकालना और जिस दिन ग्वाला न आये खुद दूध निकालना. इस तरह कुल मिलाकर पूरा दिन कहाँ निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था. पढाई करने का बहुत ज़्यादा टाइम ही नहीं मिलता था बस थोड़ा बहुत पढकर ठीकठाक नंबरों से पास हो रहा था, सादुल स्कूल में आने के बाद से. दसवीं की परीक्षा बोर्ड की परीक्षा थी. मार्च में इम्तहान समाप्त हो गए थे. उन दिनों मेरे ताऊ जी की पोस्टिंग गंगानगर जिले के एक गाँव पदमपुर के हायर सैकेंडरी स्कूल में थी. उन्होंने पिताजी को पत्र लिखा, महेंद्र की छुट्टियाँ हो गयी हैं, कुछ दिन उसे यहाँ भेज दो. पिताजी ने मुझे बताया, ताऊ जी का पत्र आया है, तुम्हें बुलाया है जाओगे? घूमना कौन नहीं चाहेगा? और फिर वहाँ जाकर रतन, निर्मला, मग्घा, विमला सबके साथ खेलने कूदने का स्वर्णिम अवसर......... मैंने झट हामी भर दी.

पिताजी बोले “देखता हूँ, कोई साथ मिलता है तो...........”
मैंने झट से कहा “जी साथ की क्या ज़रूरत है? मैं अकेला चला जाऊंगा, मैं अब बड़ा हो गया हूँ.”
कुछ सैकंड तक पिताजी कुछ सोचते रहे फिर बोले “ठीक है...... मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है, अगर तुम सोचते हो कि तुम अकेले जा सकते हो तो चले जाओ. आते हुए तो उन लोगों के साथ ही आ जाना.”
मैंने कहा “जी”

ये मेरे जीवन की पहली ऐसी यात्रा होने वाली थी जो मैं अकेले करने वाला था. मैं खुशी से फूला नहीं समा रहा था. ये दुनिया का नियम ही है कि बचपन में हर इंसान को बड़ा होने की जल्दी लगी रहती है. मुझे अकेले जाने की इजाज़त मिल गई थी, यानि मुझे पहली बार बड़ा स्वीकार कर लिया गया था.
बहुत दिन से जब लोगों को धूप का चश्मा लगाए देखता था तो मेरा भी ऐसा चश्मा लगाकर घूमने का बहुत मन करता था लेकिन जब जब पिताजी को कहता, उनका जवाब होता “अभी बच्चे हो, अभी से काला चश्मा लगाने से आँखे खराब हो सकती हैं और तुम्हें मालूम है कि मुझे ये फैशन वैशन बिलकुल पसंद नहीं.” जी हाँ, उनका सिद्धांत था, अच्छा खाओ पियो कपडे साफ़ सुथरे पहनो लेकिन फैशन बिगड़े हुए बच्चे करते हैं. नतीजा ये कि उन दिनों संकरी मोरी की पैंट का फैशन बस चालू ही हुआ था. बच्चे बड़े सब छोटी मोरी की पैंट्स पहनते थे. भाई साहब मेडिकल कॉलेज में पहुँच गए थे और उनके कॉलेज में छोटी मोरी की पैंट पहनने की वैसे ही इजाज़त नहीं थी. ऐसे में पिताजी के सिद्धांतों के विरुद्ध भला मैं छोटी मोरी की पैंट पहनने की कैसे सोच सकता था? अब तक मुझे काला चश्मा खरीदने की भी इजाज़त नहीं मिली थी.
अब चूंकि मुझे पदमपुर के लिए रवाना होना था, पिताजी ने मुझे २५ रुपये दिए और कहा “६ रूपए ट्रेन का एक तरफ का  किराया है, एक रुपया बस का किराया. आने जाने के १४ रुपये लगेंगे. बाकी तुम अपने पास रखना वक्त ज़रूरत काम आयेंगे”
मैंने कहा “ठीक है जी”

अब बहुत दिन से दिल में दबी हुई धूप का चश्मा खरीदने की इच्छा सर उठाने लगी. मुझे लगा अगर पिताजी को पूछूँगा तो हो सकता है वो मना कर दें और मुझे टिकट ही तो चाहिए आने जाने के लिए. और क्या खर्च चाहिए? फिर जब पिताजी ने स्वयं मुझे ये रुपये दिए हैं तो मेरा पूरा अधिकार है इन्हें जैसे चाहूँ खर्च करूँ. लेकिन अगर उन्हें पता चल गया तो? और जब पदमपुर से लौटकर आऊँगा तो वो पूछेंगे, ये चश्मा कहाँ से आया तो क्या जवाब दूंगा? फिर मन का दूसरा हिस्सा जवाब देता एक महीना वहाँ रहना है, अभी क्या सोचना? जो होगा सो देखा जाएगा. इसी उधेड़ बुन में मै पंजाब ऑपटिक्स की तरफ कभी चार कदम आगे बढ़ा रहा था कभी पीछे लौट रहा था. आखिरकार मैं दुकान में घुस ही गया.  दुकानदार ने ५-७ तरह के चश्मे दिखाए. मैंने उनमें से एक चश्मा पसंद किया और   आठ रुपये देकर उसे खरीद लिया. मेरे जीवन में कई बातें एक साथ घटित हो रही थीं. मैं जीवन में पहली बार अकेले यात्रा करने जा रहा था, मेरे घरवालों ने मुझे पहली बार बड़ा मान लिया था और सबसे बड़ी और खतरनाक बात ये कि मैंने अपने माँ पिताजी से छुपाकर पहली बार कोई चीज़ खरीदी थी. दिल धक् धक् कर रहा था. मैं लौटकर घर आया और चश्मे को किताबों के पीछे छुपा दिया. दिल बार बार कह रहा था कि माँ पिताजी को चश्मे के बारे में बता दूं लेकिन दिमाग बार बार मुझे ऐसा करने से रोक रहा था. दो दिन बाद मुझे पदमपुर के लिए रवाना होना था. ये दो दिन इसी तरह सोच विचार में ही निकल गए. मुझे सोच में गुम देखकर एक दो बार माँ ने कहा भी “क्या बात है महेंदर...... इतना चुप चुप क्यों है? अगर पदमपुर जाने का  मन नहीं है तो मत जा.” मैं बात को टाल जाता. और आखिर वो दिन आ गया जब मुझे रवाना होना था. मैंने बैग में तीन चार जोड़े कपडे डाले, उनके बीच चश्मे को छुपाया और स्टेशन के लिए निकलने लगा तो पिताजी ने कहा “ रुको मैं छोड़ आता हूँ स्टेशन.” 

उन दिनों की यात्राएं आज की यात्राओं से बहुत भिन्न हुआ करती थीं. पूरी ट्रेन साधारण डिब्बों की ही होती थी. रेलवे में वैसे तीन श्रेणियाँ होती थीं प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय ए सी का तो खैर नामोनिशान भी नहीं था मगर रिज़र्वेशन नाम की भी की चीज़ नहीं होती थी और पहली, दूसरी श्रेणी के डिब्बे बहुत महत्त्वपूर्ण गाड़ियों में ही लगते थे. यानि पूरी ट्रेन तृतीय श्रेणी के साधारण डिब्बों की होती थीं. बस ऐन वक्त पर जाइए और जहां टिकने की जगह मिल जाए टिक जाइए. अगर ऊपर की बर्थ हथियानी है तो दो तीन घंटे पहले ट्रेन जब यार्ड में खडी हो तब वहाँ जाकर चादर बिछाकर उस पर लेट जाइए और वो बर्थ हो गई रिज़र्व लेकिन अगर कोई आप से तगड़ा आदमी आ गया तो हो सकता है आपकी दो तीन घंटे की मेहनत बेकार जाए और वो आपको कान पकड़ कर उस बर्थ से बेदखल कर दे. मुझे अपनी पहली यात्रा में ऐसे किसी झमेले में नहीं पडना था इसलिए मैं सीधा स्टेशन ही आ गया. पिताजी ने टिकट दिला कर मुझे एक डिब्बे में थोड़ी जगह देखकर बिठा दिया. डिब्बे में काफी भीड़ थी. सब फँस फंसाकर बैठे हुए थे किसी तरह. थोड़ी देर में गाड़ी रवाना हो गयी. पिताजी को प्रणाम कर उनसे विदा हुआ. थोड़ी देर में ट्रेन ने गति पकड़ ली. इस ट्रेन से मुझे रायसिंहनगर तक जाना था. ट्रेन रात नौ बजे रवाना हुई और सुबह चार बजे रायसिंहनगर पहुँचने वाली थी. चार बजे से सात बजे तक मुझे स्टेशन पर ही बैठना था और उसके बाद बाहर आकर पदमपुर के लिए बस पकडनी थी.


जैसे ही ट्रेन रवाना हुई मेरी आँखों के सामने वो नया चश्मा आ गया जो मैं बीकानेर से खरीदकर लाया था. मेरा मन हुआ कि एक बार लगाकर देखूं तो सही कि मैं कैसा दिखता हूँ? मैंने बैग में से बड़े जतन से चश्मा निकाला और बाथरूम की तरफ बढ़ गया. थर्ड क्लास के डिब्बे में वही एक जगह होती थी जहां आईना लगा रहता था. भीड़ को चीरता मैं किसी तरह बाथरूम तक पहुंचा. दरवाज़ा खोलकर उसमे दाखिल हुआ और जेब से चश्मा लगाकर् आईने में झांका. लगा बहुत अच्छा लग रहा हूँ काले रंग के चश्मे में. थोड़ी देर तक खुद को निहारकर खुद पर मुग्ध होता रहा कि किसी ने बाथरूम का दरवाजा खटखटाया. चश्मे को जेब में रखा और बाहर आ गया. अपनी जगह पर आकर देखा कि मेरे दोनों तरफ बैठे लोगों ने मेरी जगह को दोनों ओर से कुछ कुछ इंच हथिया लिया है. किसी तरह बची हुई जगह में मैं अडजस्ट हुआ लेकिन इस बीच कोई स्टेशन आया था और भीड़ इस क़दर बढ़ गयी थी कि बहुत कोशिश करने पर भी सीट के नीचे रखे अपने बैग को निकालकर उसमे अपना चश्मा नहीं रख सका. पैंट की जेब में रखने से उसके टूटने का डर था इसलिए उसे शर्ट की ऊपरवाली जेब में रखने के अलावा और कोई चारा नहीं था. यही किया. जेब में चश्मा रखकर मैं सिकुडकर बैठ गया और सोचा सोऊँगा नहीं ज़ागता रहूँगा. लेकिन वो उम्र ही ऐसी होती है कि नींद बहुत अच्छी आती है, ऊपर से ट्रेन हिल हिलकर झूले का काम करती है. थोड़ी देर में मेरी आँखे नींद से भारी हो गईं. मैंने एक हाथ अपने शर्ट के ऊपर की जेब पर रखा जिसमे मेरा चश्मा रखा हुआ था और पता नहीं कब बैठे बैठे ही मुझे गहरी नींद आ गयी. मैं सोता रहा....... सोता रहा...... सोता रहा. अचानक कानों में आवाज़ आई “रायसिंहनगर आ गया..........रायसिंहनगर” मैं हडबडाकर उठा. देखा वास्तव में गाड़ी रायसिंहनगर स्टेशन पर खडी है. मैंने जल्दी जल्दी अपना बैग निकाला और दरवाज़े की तरफ भागा. भीड़ को चीरते चीरते जैसे ही मैं स्टेशन पर उतरा गाड़ी रवाना हो गयी....... तभी एकदम से मुझे अपना चश्मा याद आया और मेरा दिल धक् से रह गया जब मैंने अपने शर्ट के ऊपर की जेब पर हाथ रखा. चश्मा वहाँ नहीं था. जल्दी जल्दी पैंट की जेबें भी चैक की कि शायद नींद में किसी और जेब में डाल लिया हो. लेकिन चश्मा नहीं था तो नहीं ही था. ट्रेन मेरे सामने चलती जा रही थी वही ट्रेन जिसमें या तो मेरा चश्मा गिर गया था या  आस पास बैठे किसी सज्जन ने मेरी जेब से निकाल लिया था और मैं स्टेशन पर खडा उस ट्रेन को सूनी नज़रों से देखता जा रहा था. मैंने वो चश्मा महज़ एक बार पहनकर अपने आप को आईने में देखा था. इस बात को ४८ साल हो गए. इस बीच में जाने कितने चश्मे खरीदे होंगे और पहने होंगे लेकिन जब भी कोई नया चश्मा लेकर पहली बार उसे लगाकर आईने के सामने खडा हुआ हूँ मुझे वो चश्मा ज़रूर याद आया है जिसे मैंने ट्रेन के बाथरूम में लगा कर देखा था. आखिरकार बरसों बाद ये घटना मेरे एक नाटक की विषयवस्तु बनी.


मुझे सात बजे बस मिली और मैं उदास मन से बस में आकर बैठ गया. दो घंटे बाद मैं पदमपुर में सबके बीच बैठा था, ताऊ जी, ताईजी रतन, विमला, निर्मला, मग्घा सब लोग बहुत खुश हुए लेकिन मैं अभी तक बहुत उदास था. सबने पूछा कि उदास क्यों हूँ? क्या जवाब देता? एक बार मन हुआ कि अपनी व्यथा सबको बता दूं लेकिन फिर सोचा, जो चीज़ मैंने सबसे छुपाकर खरीदी और वो मेरे पास रही भी नहीं तो उसके बारे में सबको बताने से क्या फायदा. और मैंने किसी को नहीं बताया अपनी उदासी का राज़.


एक महीने पदमपुर में रहा, रतन के साथ रोज नहर में नहाने जाता था. वहीं मैंने तैरना सीखा. नहर से नहा कर लौटते हुए हम दोनों ताज़ा बन रही रेवडियाँ लेकर आते थे और सब लोग मिलकर खाते थे. एक सिनेमाहाल था पदमपुर में. खूब फ़िल्में देखीं वहाँ....... कुल मिलाकर खूब मौज की हमने एक महीने तक लेकिन मैं उस एक महीने में एक मिनट के लिए भी अपने खोये हुए चश्मे को नहीं भूला. एक महीने बाद हम लोग बीकानेर आ गए. मैंने किसी के सामने अपने चश्मे का ज़िक्र नहीं किया लेकिन रह रह कर मुझे आत्मग्लानि होती थी कि मैंने ये बात अपने पिताजी से क्यों छुपाई? इस घटना के लगभग १५ साल बाद जब मैंने इसे आधार बनाकर नाटक लिखा तो सबसे पहले अपने पिताजी को सुनाया और उन्हें बताया कि मैंने इस तरह उनसे छुपाकर एक चश्मा खरीदा था और इस तरह वो गुम हो गया था. वो हँसते हुए बोले “ इतनी सी बात की तुम इतने बरसों से गाँठ बांधे बैठे हो?शायद इसीलिये कहते हैं कि कलाकारों की दुनिया ही अलग होती है.”

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1 comment:

Unknown said...

bahut khub sir

Shayad sabhi pita ji ek saman hote he
Mere pita ji b yahi kahte he acha khao acha pahno par fashion nahi.....

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