कॉलेज में
आर्ट्स की पढाई चल रही थी खरामा खरामा, लेकिन कार चौथे गीयर में चल रही हो और बिना
स्पीड टूटे उसे दूसरे गीयर में डाल दिया जाए तो जैसा झटका लगता है, कुछ उसी तरह का
झटका मैं महसूस कर रहा था. सारे दोस्त बदल गए थे, पूरी कंपनी बदल गयी थी. सिवाय
सतीश खत्री, प्रमोद खन्ना जैसे गिने चुने लोगों को छोड़कर, बाकी सब लोग नए नए दोस्त
बने थे. कुछ दिन तो कॉलेज पहुँचते ही कदम खुद बखुद, कॉलेज के पीछे की और बढ़ जाते
थे जहां साइंस सैक्शन हुआ करता था. फिर सामने से भंडारी जी या लवानिया साहब जैसे
कोइ सर मिल जाते थे, तो ऐसा कोई जुमला फेंककर चुटकी लेने से बाज़ नहीं आते थे “क्या
हुआ महेंदर...... वापस साइंस में आ गए क्या?”
क्या जवाब
देता मैं कि कदम खुद ब खुद उधर आ गए? बस खिसिया कर मुस्कुराना पड़ता. हाँ कभी कभी
दलीप सिंह जी या सोनी जी जैसे कुछ ऐसे गुरु लोग भी मिल जाते थे, जो बिना तंज़ के
सीधे सीधे हाल चाल पूछ लिया करते थे. साथ ही ये भी पूछ लेते थे, कैसा चल रहा है?
ये चेंज कैसा लग रहा है? ये वो गुरु लोग थे, जो ये नहीं मानते थे कि जो आर्ट्स में
चले जाते हैं, वो डफर ही होते हैं. अब चाहे आप इसे अन्धों में काणा राजा कह लीजिए,
आर्ट्स की उस क्लास में हमारे हरि ओम ग्रुप के सारे साथी सबसे आगे थे.
स्टेटिस्टिक्स में तो हम पालीवाल साहब की सारी दादागिरी खत्म कर ही चुके थे, हर
साल उनके घर में ट्यूशन पढ़ने वालों की जो हरियाली रहती थी, वो वीराने में बदल चुकी
थी. हम लोग जानते थे कि अगर एक साल इनके ट्यूशन को झटका लगा गया, तो वापस दुकानदारी
जमते जमते एक दो साल तो लग ही जायेंगे. इम्तहान तो बाद में हुए लेकिन उस साल के
दौरान ही पालीवाल साहब की जमी जमाई दुकानदारी उखाड़ने की वजह से हमारा ग्रुप कॉलेज
में मशहूर हो गया. उस ज़माने में आम तौर पर आर्ट्स में जो भी गुरु लोग होते थे, वो
अक्सर अपनी तनख्वाह से ही मुतमईन रहने वाले लोग होते थे, क्योंकि आर्ट्स में
ट्यूशन कौन पढता था? यही फर्क होता था, साइंस और आर्ट्स के टीचर्स में. साइंस में
ज्यादातर टीचर्स अपनी तनख्वाह से ज़्यादा ट्यूशन से कमाते थे. उस माहौल में पालीवाल
साहब जैसे कोई सौ में एक धुरंधर ही हुआ करते थे, जिनके पास पूरी क्लास ही ट्यूशन
पढ़ने जाया करती थी. आर्ट्स के कई टीचर्स उन्हें बड़ी हसरत से तका से करते थे. उन
सबको इस सारे वाकये से मज़ा आ गया.
लेकिन आर्ट्स
में शिवजी जोशी, डा. घनश्याम देवडा, अमीनुद्दीन जी और डा. एल एन गुप्ता जैसे लोग
भी थे, जो हर स्टूडेंट की बिना किसी फीस, बिना किसी तरह के लालच के हर वक्त मदद
करने को तैयार रहते थे, वहीं गेवर चंद जी आचार्य जैसे गुरु भी थे, जो ना काहू से
दोस्ती ना काहू से बैर का भाव लिए, अपनी मस्ती में मस्त रहते थे और सरीन साहब जैसे
गुरु भी थे जिन्होंने अपने कॉलेज के वक्त में शायद अपने किसी पढाई में तेज साथी की
कुछ कॉपियां हथिया ली थीं. बस उनका काम होता था, रोज क्लास में आते ही एक कॉपी
खोलकर लिखवाना शुरू कर देना. पूरे पीरियड में वो बस लिखवाते ही रहते थे. बीच में
अगर कोई स्टूडेंट कुछ पूछने की कोशिश करता, तो कहते पहले जो लिखवा रहा हूँ, लिख
लो, बाद में जो पूछना हो पूछ लेना. लेकिन जब पूरा पीरियड लिखने में ही चला जाता था,
तो भला बाद में कब कोई उनसे पूछता? लोग बताते थे कि उनकी नौकरी शुरू से ही इसी
तारह चल रही थी. हम लोगों ने भी थोड़े दिन बाद उनकी क्लास में उस वक्त से लिखना बंद
कर दिया, जब जो उन्होंने पहले रोज लिखवाया था वो ज्यों का त्यों एक किताब में मिल
गया. उन्होंने हम लोगों से पूछा, आप लोग लिखते क्यों नहीं हो? तो हिम्मत ने अपने
खास अंदाज़ में, उन्होंने जिस जिस दिन जिस जिस किताब से टीप कर लिखवाया था, उसका
पूरा कच्चा चिट्ठा उनके सामने रख दिया. उन्होंने हरि ओम ग्रुप के सारे लोगों को
क्लास से बाहर कर दिया. हम लोगों को भी वैसे इस बात से कोई फ़िक्र नहीं हुई क्योंकि
आर्ट्स में साइंस की तारह प्रेक्टिकल्स तो होते नहीं, जिसमे इंटरनल के हाथ में कुछ
मार्क्स होते हो. मगर हमें थोड़ी ज़लालत महसूस हुई. हम फ़ौरन हैड ऑफ द डिपार्टमैंट
पुरोहित सर के पास जा पहुंचे. उन्होंने जब हमसे कहा कि हमारी शिकायत सरीन साहब कई
दिन से उनसे कर रहे थे. सरीन साहब को ये बुरा लग रहा था कि हम उनकी डिक्टेशन नहीं
लेते हैं, तो हिम्मत ने एक एक लाइन उनके सामने रख दी कि ये इस किताब के इस पेज के
इस पैरा से ली गयी है और ये पोर्शन इस किताब के इस पेज के इस पैरा से इस पैरा तक
से लिया गया है. हिम्मत ने पिछले साल के एक स्टूडेंट की कॉपी लेकर उसे भी पुरोहित
जी के सामने रख दिया था जिसमे उन मारे हुए नोट्स में से हू ब हू वही सब लिखवाया हुआ
था, जो उन्होंने हमें लिखवाया था. अब पुरोहित साहब थोड़ा संजीदा हो गए. उन्होंने वो
सारे सबूत हमसे ले लिए जो ये साबित करते थे कि हमारे सर सिर्फ एकाध किताब या न
जाने किसके मारे हुए नोट्स से टीप कर, बस लिखवाते रहते हैं. न तो वो घर से कुछ
पढकर आते हैं, न तैयारी करके आते हैं कि क्या पढ़ाना है?
पूरे कॉलेज
में ये बात फैल गयी कि हरि ओम ग्रुप के लड़कों को सरीन साहब ने क्लास से बाहर कर
दिया और अब साबित हो गया है कि सरीन साहब ने कुछ साल पहले के किसी स्टूडेंट के
नोट्स मार लिए थे और बस हर साल उन्हीं नोट्स के बल पर अपनी ज़िंदगी चला रहे हैं.
हमें ये लड़ाई
लड़ने में मज़ा आ रहा था क्योंकि हम सच्चाई के साथ थे कि सुना एक नए सर ने ज्वाइन
किया है और सरीन साहब की जगह अब वो हमारी क्लास लेंगे. ये हमारी जीत थी क्योंकि
हमारी शिकायत पर उनसे हमारी क्लास छीन ली गयी थी. जो नए सर हमारी क्लास लेने वाले
थे, सुना कि उनका नाम था, एस पी खडगावत. जैसे ही हमने ये सुना हम क्लास में पहुँच
गए क्योंकि सरीन साहब ने अपनी क्लास से हमें निकाला था, पूरे इक्नोमिक्स
डिपार्टमैंट से नहीं. हम क्लास में पहुंचे. देखा बोर्ड की तरफ मुंह किये हुए, एक
दुबले पतले से साहब चाक से कुछ लिख रहे हैं. हम सब ने एक साथ कहा...... मे वी कम
इन सर ? उन्होंने सहजता से सर घुमाया. जो चेहरा पहले सहज नज़र आया, अब वो धीरे धीरे
नहीं, बल्कि बहुत तेज़ी से सख्त होता चला गया. उन्होंने कहा “कम इन...... अगर मैं
गलत नहीं हूँ, तो आप लोग ही हैं वो बदनाम हरि ओम ग्रुप के लोग........!!!!!!!!”
हम सब लोग
अंदर आते आते रुक गए. मैंने कहा “सर आपकी ये बात तो सच है कि हम लोग हरि ओम ग्रुप
के लोग हैं, लेकिन आपकी ये बात ज़रा भी सच नहीं है कि हमारा ग्रुप बदनाम ग्रुप है.”
उन्होंने अपने
आप पर कंट्रोल करते हुए कहा “ इस तरह
रास्ते में खड़े होकर बात मत कीजिये आप लोग. ठीक से क्लास में बैठिये और उसके बाद
बात कीजिये, जो भी बात करनी है.”
हम लोग आकार
सबसे पीछे की सीट्स पर बैठ गए. मैंने कहा “सर क्या ये कहना कि फलां सर हमें ठीक से
पढ़ाते नहीं हैं, गलत है? क्या एक टीचर शुरुआत में एक पेपर को बहुत आसान साबित करे
और जब पेपर बदलने का वक्त निकल जाए, तो उस पेपर की खूंखार शक्ल स्टूडेंट्स के
सामने रखकर, उनमे से अपनी ट्यूशन के शिकार ढूंढें, तो उनके खिलाफ बोलना बगावत
है?आप ज़रा पूछिए इन स्टूडेंट्स से कि कितना वक्त देकर हम इन सबको स्टेटिस्टिक्स
करवाते हैं और इससे उनका कितना पैसा बचता है?”
पूरी क्लास ने
तालियाँ बजाईं. आकाशवाणी के ऑडीशन के बाद, पहली बार मुझे महसूस हुआ कि कुछ तो अलग
है मेरी आवाज़..... कुछ तो है मेरी आवाज़ में जो इसे दूसरी आवाजों से अलग बनाता है.
खडगावत सर कुछ
देर तक खामोश खड़े रहे. इसके बाद उन्होंने कहा “आप लोगों के साथ क्या हुआ है और
आपने लोगों के साथ कैसा बर्ताव किया है, मुझे उससे कोइ मतलब नहीं. मुझे बस अपनी
क्लास में संजीदगी चाहिए...... मुझे मेरी क्लास में शोहदे नहीं चाहिए, मुझे मेरी
क्लास में शान्ति चाहिए.”
हिम्मत ने कहा
“सर हम लोग सब शांत रहने वाले लोग ही हैं. कॉलेज में पढाई करने आये हैं. आपने ये
तो ज़रूर सुना होगा कि हमने सरीन सर की शिकायत इसलिए की कि वो ठीक से पढ़ाते नहीं
हैं, लेकिन आपने ये नहीं सुना होगा कि हमने कॉलेज की किसी लड़की को छेड़ा है. आप उन
लोगों को शोहदा कहिये जो लड़कियों को छेड़ते हैं. हम उन में से नहीं हैं.”
इस पर खडगावत
सर ने आवाज़ थोड़ी ऊंची करते हुए कहा “ ठीक है, आप लोग पढ़ने वाले लोग हैं, तो जो मैं
पढाऊँ, आप भी पढकर आइये और मुझसे बहस कीजिये. मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगा. अगर
आप ज़्यादा पढकर आये हैं और जो मैं बताता हूँ, उसके अलावा कुछ बताते हैं तो मैं
सीखूंगा भी और आपको थैंक्स भी कहूँगा, लेकिन बेकार की बहस नहीं चाहिये मुझे.”
और उस दिन के
बाद एक होड सी लग गयी. खडगावत सर जो भी पढ़ाते थे, उसकी खूब तैयारी करके आते थे और उनसे
भी ज्यादा हम सब तैयारी करके आते थे. बाकी पूरी क्लास हमारी शक्ल देखती थी. एक दो
लोगों को छोड़कर कोई और हमारी बहस में हिस्सा नहीं लेता था. बस एक तरफ हरि ओम ग्रुप
और दूसरी तरफ खडगावत सर. एक दिन हमने उन्हें थोड़ा तंग करने के लिए एक एक दो दो उलटे सीधे सवाल उनके सामने रख दिए. न जाने
उस दिन उनका मूड कुछ और था या वो ठीक से पढकर नहीं आये थे, हमारे सवाल अपनी जगह
ज्यों के त्यों रह गए. उन्होंने उन सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. बस मुस्कुराकर
कुर्सी पर बैठ गए. मैंने कहा “सर क्या हुआ ?”
वो थोड़ा सर
ऊपर उठाते हुए मुस्कुरा कर बोले “तुम लोग अपने आप को बहुत होशियार समझते हो न? कोई
बात नहीं.... लेकिन आज मैं एक न्यूज़ आप लोगों के साथ शेयर करना चाह्ता हूँ.”
हम सब लोग
हैरान परेशान कि आखिर आज हुआ क्या है? तभी उन्होंने बोलना शुरू किया “आज मेरा
रिज़ल्ट आया है और मैं आर पी एस में सलेक्ट हो गया हूँ. यानी आज से कुछ दिन बाद मैं
ये नौकरी छोड़कर डीवाई एस पी बन जाऊंगा. एक बात और कहना चाहूँगा. ये दुनिया बहुत
बड़ी नहीं है. हो सकता है किसी दिन आप लोग किसी अच्छी पोस्ट पर पहुँच जाएँ, लेकिन
याद रखिये कि उस वक्त मेरी आपसे मुलाक़ात होगी तो मैं किसी जिले के एस पी की कुर्सी
पर बैठा मिलूँगा. आप लोग खुश हुए कि परेशान?”
हम सब लोग
बहुत खुश थे क्योंकि बहुत थोड़े से दिनों में ही खडगावत सर हमारे फेवरेट सर बन चुके
थे. पूरी क्लास में बधाई बधाई का शोर मच गया. सतीश ने कहा “सर आप ने हमें बहुत
थोड़े वक्त पढ़ाया है. काश आप हमें कुछ दिन और पढ़ाते. आप बहुत अच्छे इंसान हैं, आपको
आर पी एस में सलैक्ट होने के लिए बहुत बहुत मुबारकबाद. हम चाहते हैं कि आप आगे से
आगे बढ़ें लेकिन सर आपने ये क्या किया ? आपने पुलिस की नौकरी क्यों चुनी ? आपका जो
मिज़ाज है वो पुलिस वालों जैसा हरगिज़ नहीं है...... आप जैसा सेंसिटिव इंसान को पुलिस
में बहुत परेशानियां होती हैं. खैर आपने जो राह चुनी है ऊपरवाला आपको उसमे कामयाबी
दे, यही दुआ है.”
माहौल बहुत
भारी हो गया था. हम सब उदास हो गए थे तभी खडगावत सर ने हमें बताया कि दरअसल दस दिन
बाद ही वो लेक्चरर की उस नौकरी से इस्तीफा देने वाले हैं. हमने तय किया....
बीकानेर के सबसे महंगे रेस्तरां क्षीर सागर में उन्हें फेयरवेल दिया जाएगा.
एक हफ्ते बाद
ही खडगावत सर को क्षीर सागर में एक शानदार फेयरवेल हरि ओम ग्रुप के हम आठों
दोस्तों ने दी, जिसे न हम लोग कभी भूल पाए और न ही खडगावत सर. आप कहेंगे कि हम लोग
नहीं भूल पाए, यहाँ तक तो ठीक है लेकिन खडगावत सर नहीं भूल पाए, ये मैं कैसे कह
सकता हूँ? तो मैं आपको बता दूं कि खडगावत सर से जो हमारे ताल्लुकात कुछ दिन की उस
नौकरी में बने, वो उस क्षीर सागर के फेयरवेल में खत्म नहीं हो गए. मैं जब सूरतगढ़
में पोस्टेड था तो वो श्रीगंगानगर में पोस्टेड थे. मैं जब कोटा में था, तब वो भी
कुछ दिन कोटा में रहे और अभी कुछ रोज पहले एफ बी पर उनसे राब्ता बना तो पता चला कि
वो आई जी पुलिस के ओहदे से कुछ साल पहले रिटायर हुए और अब कोटा में रह रहे हैं.
यानी जो ताल्लुक एक बार बने वो बस चलते रहे, निभते रहे और मेरी तो हमेशा एक ही दुआ रही है कि जिस से भी एक बार
ताल्लुक बन जाए, बस उससे आख़िरी वक्त तक ये ताल्लुक यूं ही बने रहे.
हमारे सर पर
फिर किसी सर को बिठा दिया गया था और हम लोग मिस कर रहे थे खडगावत सर को, इस उम्मीद
के साथ कि वो भी कहीं न कहीं हमें मिस कर रहे होंगे. हमने उनसे कहा था कि हम शोहदे
नहीं हैं, हम लड़कियों को तंग नहीं करते. दरअसल उस ज़माने में को एज्यूकेशन एक बहुत
ही रेयर चीज़ हुआ करती थी. बहुत पैसे वालों की बात छोड़ दीजिए, जो शुरू से ही अपने
बच्चों को को एज्यूकेशन में पढ़ाते थे, बाकी लोगों के बच्चे, लड़कियों की शक्ल या तो
लड़कियों की स्कूल के सामने अड्डेबाजी करके देखने की कोशिश करते थे, या फिर जब एम्
ए में आते थे तो २५ लड़कों की क्लास में तीन चार लडकियां, उन्हें आटे में नमक की तरह
नसीब होती थीं. जैसा कि मैंने पिछले एक एपिसोड में बताया कि कुछ बन्ना लोग हमेशा,
हर साल यही तलाशते थे कि किस सब्जेक्ट में सुन्दर लडकियां हैं, उसी में वो दाखिला
ले लेते थे और इस तरह लड़कियों की कुर्बत हासिल करने की कोशिश किया करते थे, मगर हम
लोग बन्ना तो थे नहीं, हमें तो हर साल पास होना था और ऐसा कर अगली क्लास में जाना
था, सो हम इस तरह की हरकत में ना तो यकीन करते थे और ना ही हम लोगों के हालात हमें
ऐसा करने की इजाज़त देते थे.
उसी वक्त एक रोज
जब हम हरि ओम ग्रुप के लोग हमारे टीचर पुरोहित सर को ढूँढने लेक्चरर्स के कॉमन रूम
की तरफ गए, तो देखा कि कॉमन रूम में पुरोहित साहब नहीं है. लेक्चरर्स के कॉमन रूम
के बिलकुल पास ही, लड़कियों का कॉमन रूम था. न जाने कैसे लड़कियों के कॉमन रूम में
बैठी लड़कियों को ये वहम हो गया कि हम उनके रूम में झाँक रहे हैं. हम वहाँ से हटते,
इससे पहले ही दो तीन लडकियां गुस्से से तमतमाती हुई बाहर निकलीं और चिल्लाईं “शर्म
नहीं आती आप लोगों को लड़कियों के कॉमन रूम में तांक झाँक करते हुए?क्या कर रहे हैं
आप लोग? जानते हैं मेरा नाम प्रतिभा राठी है, मैं प्रोफ़ेसर राठी की बेटी हूँ, अभी
प्रिंसिपल साहब को शिकायत करती हूँ आपकी.”
महावीर हमारे
ग्रुप में सबसे बिंदास लड़का था. इससे पहले कि हम में से कोई कुछ और बोले महावीर
बोला “ अरे आप इतना नाराज़ क्यों हो रही हैं? अव्वल तो हमने आपके कॉमन रूम में
झांका नहीं, हम तो पुरोहित साहब को देखने आये थे और अगर आपको देख भी लिया तो क्या
हो गया, भगवान ने कोई सुन्दर चीज़ बनाई है तो उसे देखने में क्या हर्ज है?”
इतना सुनते ही
प्रतिभा राठी प्रिंसिपल के कमरे में घुस गयी और चिल्लाने लगी “देखिये सर ये लड़के
हमारे कॉमन रूम में तांक झाँक कर रहे हैं.”
उस वक्त हमारे
प्रिंसिपल थे श्री कन्हैया लाल गोस्वामी जी. बहुत ही मस्त इंसान थे. हँसने लगे और
बोले “अरे बेटा गलतफहमी हो गयी होगी कुछ आप लोगों को. मैंने तो इन लड़कों को पहले
कभी इधर आते नहीं देखा.”
लेकिन तभी मुछ
बन्ना लोग उधर आ गए और उन लड़कियों की हिमायत करने लगे. उस ज़माने में बन्ना लोगों
का दबदबा हर तरफ था और उनके साथ उनके ढेरों गोले और चमचे भी रहते थे सो हारकर
प्रिंसिपल साहब ने हम लोगों को वॉर्न किया “आइन्दा इस तरफ दिखाई मत देना वरना
कॉलेज से निकाल दिए जाओगे.’
हमने कुछ भी
नहीं किया था. लेकिन हमें अपमान का घूँट पीकर रह जाना पड़ा. एक प्रतिभा राठी की वजह
से हमें ज़िंदगी में पहली बार इस तरह की वार्निंग सुनने को मिली, वो भी इतने बन्ना
लोगों और उनके गोलों के सामने. हम सभी दुखी होकर उस रोज कॉलेज से घर लौटे.
जब हम लोग घर
लौट रहे थे तो मैं, मन ही मन प्रतिभा राठी एंड कंपनी से अपने अपमान का बदला लेने
की योजना बना रहा था, क्योंकि हमें बिना कोई गलती किये डांट पडी थी. मैंने किसी से
कुछ नहीं कहा. चुपचाप घर लौट आया.
वो वक्त
रेडियो का था. टी वी तो था ही नहीं, मनोरंजन का फिल्म और रेडियो के अलावा और कोई साधन नहीं था. हर संडे को साढे
बारह बजे से डेढ़ बजे तक, आकाशवाणी, बीकानेर से फरमाइशी गाने आया करते थे और उस
वक्त पूरे शहर के रेडियो चालू रहते थे. शहर का हर इंसान उस प्रोग्राम को सुनता था.
मैं चूंकि रेडियो से जुड़ा हुआ था, जानता था कि इस प्रोग्राम की तैयारी, अनाउंसर
शनिवार को करते हैं. आकाशवाणी बीकानेर पर उस वक्त चार अनाउंसर हुआ करते थे. चंचल
जी, गिरधर जी, यशपाल जी और अरविन्द जी. इनमे से अरविन्द जी से मेरी कभी नहीं पटी,
बाकी तीनों अनाउंसर मेरे अच्छे दोस्त बन गए थे. उस ज़माने में एक पोस्टकार्ड १०
पैसे का आया करता था. मैं घर लौटते हुए, उस रोज १० रुपये के १०० पोस्टकार्ड खरीद
लाया. मेरे छोटे मामा बाबू मामाजी के पास एक पोर्टेबल टाइप राइटर था. वो पास ही के
ई एम् रोड पर रहते थे. मैं उनके घर गया और कुछ पोस्टकार्ड्स पर टाइप किया, फिल्म
का नाम, गाने के बोल और फरमाइश करने वालों के नाम- डूंगर कॉलेज से प्रतिभा राठी,
लता गुप्ता, फलां फलां और फलां फलां. उस वक्त मुझे कतई पता नहीं था कि ये लता
गुप्ता आगे जाकर मेरे दोस्त प्रवीण गुप्ता की पत्नी बनेगी. मैंने तो अपना काम
किया. कुछ पोस्ट कार्ड्स ऐसे तैयार किये और पोस्ट कर दिए. शनिवार को दिन में, जब
कि अनाउंसर इस प्रोग्राम की तैयारी करते थे, मैं आकाशवाणी पहुँच गया और अनाउंसर
साहब की मदद करने लगा. जो पोस्टकार्ड मैंने भेजे थे वो भी पहुँच चुके थे. उन्हें
भी प्रोग्राम में शामिल कर लिया.
संडे को जब
प्रोग्राम प्रसारित हुआ तो प्रतिभा राठी एंड कंपनी के नाम बाकायदा प्रसारित हुए.
जैसा कि मैंने बताया कि उस ज़माने में संडे के दिन उस वक्त पूरे बीकानेर के रेडियो
चालू रहते थे, लिहाज़ा कॉलेज के बहुत लोगों ने ये गाने भी सुने और नाम भी. सोमवार
को कुछ नहीं हुआ, लेकिन मैंने अपनी ये एक्सरसाइज़ चुपचाप आगे भी चालू रखी. मैं
पोस्टकार्ड खरीदता था और मामाजी के टाइपराइटर पर पूरी ईमानदारी और राजदारी के साथ
कुछ फरमाइशी लैटर्स टाइप कर लिया करता था. मैंने हरि ओम ग्रुप के लोगों को भी इस
बारे में कुछ नहीं बताया. दो तीन प्रोग्राम होते ही कॉलेज में आवाजें उठने लगीं.
प्रतिभा राठी, लता गुप्ता और उनकी वो सखियाँ जिन्होंने हमें डांट पड़वाई थी, कॉलेज
में जिधर से भी निकलतीं, हर ओर लोग आवाजें कसते...... “आज कल तो.... फरमाइश”
......”रेडियो पर फरमाइश” या फिर लोग वो गाने उनके सामने गाने लगते, जिनकी फरमाइश
में उनके नाम आते थे. प्रतिभा जी, लता जी
और उनकी सखियाँ हैरान कि आखिर ये हो क्या रहा है? कुछ दिन ऐसा करके फिर मैंने एक
छोटा सा वक्फा दिया, तो उन लोगों ने सोचा, चलो अब बंद हो गया सब कुछ. तब तक मैं और
पोस्टकार्ड खरीद लाया और मैंने फिर से ये काम शुरू कर दिया. ये सिलसिला चलता रहा
और प्रतिभा जी, लता जी और उनकी सखियों पर कॉलेज में फब्तियां कसी जाती रहीं. वही
बन्ना लोग जो उनकी हिमायत में आये थे, उन्हें गाने गा गा कर छेड़ रहे थे और हम सब
हरि ओम ग्रुप के लोग तमाशा देख रहे थे. मेरे ग्रुप के लोग भी बातें करते कि यार ये
सब क्या हो रहा है? कौन कर रहा है ये सब, लेकिन मैं खामोश रहता. मैंने अपने ग्रुप
के लोगों के सामने भी ये राज़ नहीं खोला कि इस सबके पीछे मैं हूँ, क्योंकि मुझे डर था
कि अगर ये राज़ उनके सामने ज़ाहिर हो गया तो हो सकता है कि कोई बड़ाई बड़ाई में किसी
के सामने ज़िक्र कर दे. ऐसे में लेने के देने पड सकते थे. आखिरकार प्रतिभा राठी ने
अपने पिताजी से शिकायत की और प्रोफ़ेसर राठी जा पहुंचे, आकाशवाणी, बीकानेर के ऑफिस
जो रथखाने के एक किराए के मकान में हुआ करता था. उस ज़माने में आकाशवाणी, बीकानेर
के इंचार्ज हुआ करते थे, भूपेंद्र स्वरुप जिन्हें सब बाबा कहते थे. बहुत ही मस्त
मलंग इंसान. उन्होंने प्रोफ़ेसर राठी को पूछा, “आप कैसे कह सकते हैं कि आपकी बेटी
फरमाइश नहीं भेजती?” प्रोफ़ेसर राठी ने कहा “ जनाब मुझे मेरी बेटी ने बताया है.”
“अच्छा आपको
या आपकी बेटी को किसी पर शक है?”
“नहीं सर शक
तो नहीं है, आप मुझे वो पोस्टकार्ड दिखा
इए, हम लोग पता लगा लेंगे.”
सारे
पोस्टकार्ड खंगाले गए. ये वो वक्त था, जब मैंने इंटरवैल दिया हुआ था. कोई
पोस्टकार्ड नहीं मिला. बेचारे राठी साहब अपना सा मुंह लेकर लौट आये. कुछ दिन गुज़रे
और फिर एक दो गानों में वही नाम आये “डूंगर कॉलेज से प्रतिभा राठी, लता गुप्ता,
फलां फलां और फलां फलां.” राठी साहब फिर भागे हुए आकाशवाणी पहुंचे. पोस्टकार्ड
निकाले गए. सारे के सारे पोस्टकार्ड टाइप किये हुए. किसी की हैण्ड राइटिंग नहीं.
बेचारे राठी जी क्या पहचानते? बाबा ने कहा “ जाइए अपनी बच्चियों को संभालिए, हमें
परेशान मत कीजिये. हमारे पास अगर फरमाइश आयेगी तो हम तो उनके नाम शामिल करेंगे,
वरना वही लोग शिकायत करेंगी कि वो फरमाइश भेजती हैं और हम बिना किसी माकूल वजह के
उनके नाम शामिल नहीं करते. हमारे पास और भी बहुत काम हैं, ये जासूसी हम नहीं कर
सकते कि कौन फरमाइश भेज रहा है और कौन नहीं.”
राठी साहब लौट
आये. मुझे ये सारी ख़बरें मिलती रहीं क्योंकि मैं आकशवाणी जाता रहता था और सच्ची
बात ये है कि अक्सर मैं ही वो पोस्टकार्ड प्रोग्राम में शामिल करवाता था.
पूरे साल ये
सिलसिला चलता रहा और कॉलेज के लोग प्रतिभा राठी एंड कंपनी को इस क़दर छेड़ते रहे कि
उनका जीना हराम हो गया.
मैंने आज तक
किसी को, जैसा कि मैं कह चुका हूँ, यहाँ तक कि अपने हरि ओम ग्रुप को भी नहीं बताया
कि इस सारी शरारत के पीछे मैं था. आज पता नहीं वो प्रतिभा जी कहाँ हैं, वो लता जी,
जो मेरे दोस्त प्रवीण गुप्ता की शरीके हयात बनीं, कहाँ हैं और बाकी तीन चार जिनके
नाम भी मुझे याद नहीं, कहाँ हैं....... अगर कभी, मेरी ये तहरीर पढ़ें तो मेरी उनसे
गुजारिश है के बराएमेहरबानी, मेरी इस शरारत को शरारत ही समझें. मेरा कोई भी बुरा मकसद
इसके पीछे नहीं था. वो जो बेइज्ज़ती नाहक उन्होंने हम लोगों की करवाई थी, उसी का
चुपचाप मैंने बदला लिया था........ मेरी इस हरकत से उनका कोई ज़ाती नुक्सान तो हुआ
नहीं सो बचपन की बात को बचपना मानकर मुझे माफ कर दें.
पिछली सभी कडियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए।
1 comment:
शरारतें बेहद प्यारी थीं, बदमाश तो तुम शुरू से ही रहे हो, हमें भी अपनी हरकतें याद आ गयीं, इस बहाने तुम्हारे सारे पुराने स्टाफ से मुलाक़ात हो गयी, मज़ा आया ,लगे रहो.
Post a Comment
आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।