पेड़-पौधों,
फूल-पत्तों से हमारा नाता कितना पुराना है! मानवता के शैशव काल में
जब खेती-बाड़ी की कल्पना भी नहीं की गयी थी, तब
वृक्ष-वनस्पतियों से हमें भोजन, वस्त्र और सर छिपाने की जगह
मिलती थी। प्राचीन ग्रंथों में कितने ऋषि-मुनियों के घने जंगल में आश्रम बनाकर
रहने का उल्लेख मिलता है। रामायण-महाभारत की बहुत सी घटनायें अयोध्या और
हस्तिनापुर में नहीं वनों में घटती हैं।
राम को राज्याभिषेक के दिन चौदह
वर्ष का वनवास मिलता है। सीता और लक्ष्मण उनके साथ वन में जाते हैं। दंडकारण्य में
सीता सोने का हिरण लाने की ज़िद करती हैं, सूर्पणखा
के नाक-कान कटते हैं और रावण सीता को उठा ले जाता है। सीता को ढूँढते राम-लक्ष्मण
ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान और सुग्रीव से मिलते हैं।
उधर, महाभारत में कौरवों से जुए में हारकर पांडव ग्यारह वर्ष वन में बिताते
हैं। वहीँ भीम को हिडिम्बा मिलती है और द्रौपदी को अक्षय पात्र मिलता है।
युधिष्ठिर यक्ष-प्रश्न की परीक्षा में खरे उतारते हैं। कर्ण और अर्जुन दिव्य
अस्त्र पाने के लिये वन में तप करते हैं। वनवासी एकलव्य द्रोणाचार्य को गुरु मानकर
शस्त्र-अभ्यास करता है। मुख्य कथा के अलावा और भी बहुत सी कहानियाँ वन में घटित
होती हैं, जैसे दुष्यंत का कण्व ऋषि के आश्रम में शकुंतला से
मिलना, राजा नल का दमयन्ती को वन में छोड़कर चले जाना,
च्यवन ऋषि के साथ सुकन्या का विवाह या फिर वसिष्ठ और विश्वामित्र की
अनबन।
नौवीं क्लास पार कर दसवीं में पहुँची थी। घर में जितने कहानी संग्रह और उपन्यास थे, सब चाट चुकी थी। जितनी स्पीड से मैं पढ़ रही थी, उतनी स्पीड से पुस्तकें खरीदना संभव नहीं था।
ऐसे में मेरी नानी का फ़रमान जारी
हुआ - ये सब किस्से कहानियाँ पढ़ने में कोई
तंत नहीं है। बैठकर रामायण-भागवत पढ़ो, कुछ
ज्ञान बढ़ेगा।
मुझे लगा - ठीक तो कह रही हैं।
ज्ञान बढ़े न बढ़े,ये सारी कथायें तो
पता चल जायेंगी।
तो साहब मैं रामायण-भागवत के पारायण
में लग गयी। बहुत सारी कहानियाँ मालूम हुईं। बीच-बीच में नदियों,
पर्वतों और नगरों का वर्णन आता तो भारत के नक़्शे पर उन्हें ढूँढ़ने
की कोशिश करती। वनों और वृक्ष-लताओं का वर्णन भी मुझे ख़ासा लुभाता। कपित्थ,
जम्बू, बदरी, कदली,
सहकार, जैसे वृक्षों और माधवी, मालती, अतिमुक्तक, जैसी लताओं
की पहचान कराने के लिये माली दादा का सिर खाती। संस्कृत के नामों को तो वो भला
कैसे पहचानते - उन्हें हिंदी अनुवाद के नाम पढ़-पढ़ कर सुनाती। किस रंग के फूल होते
हैं, किस मौसम में खिलते हैं - यह भी बताती। ऐसे ही एक दिन
केवड़े का पेड़ देखने की ज़िद कर रही थी तो उन्होंने कहा - उसके पास नहीं जा सकते।
उसमें काले-काले नाग रहते हैं। नाग के नाम से चुप तो हो गयी पर कहीं कोई कीड़ा
कुलबुलाता रहा। तभी शांत हुआ जब बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में एम ए की पढ़ाई के
दौरान भारत कला भवन के पोर्च के बगल में लगा केवड़ा अपनी आँखों से देख लिया। इसी
तरह पहली बार महुआ और कदम्ब का पेड़ देखने पर जो मीठी झुरझुरी हुई थी, वह आज भी याद आती है।
सोचती हूँ इस बार पत्ता-पत्ता
बूटा-बूटा के बहाने आप सब को राम जी के अस्थायी निवास - चित्रकूट और पंचवटी की सैर
कराऊँ।
राम का प्रसंग उठने पर सबसे पहले
रामचरित मानस का ध्यान आता है लेकिन तुलसी बाबा पेड़-पौधों के वर्णन में कंजूसी कर
गये हैं। चित्रकूट की शोभा का तो खूब बखान करते हैं लेकिन किसी पेड़-पौधे का नाम
नहीं लेते। बस,इतना ही कहकर काम चला लेते हैं
कि वहाँ तरह-तरह के पेड़ फल-फूल रहे थे और उन पर बेलों का चँदोवा सा तना था।
जब तें आइ रहे रघुनायकु। तब तें भय बनु मंगलदायकु।।
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु
बलित बर बेलि बिताना।।
सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ
बिबुध बन परिहरि आए।।
गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध
बयारि बहइ सुख देनी।।
उनका ध्यान पेड़ पौधों के बजाय रास्ते की कठिनाइयों और सुकुमारी सीता की थकान पर अधिक केंद्रित रहता है। कवितावली में इस प्रसंग का बहुत ही सुन्दर वर्णन है -
पुर तें निकसीं रघुबीर बधू धरि धीर दिए मग में डग द्वै
झलकीं भरि भाल कनी जल की पुट सूखि
गये मधुराधर वै।
फिरि बूझति हैं चलनो अब केतिक
पर्णकुटी करिहौ कित ह्वै
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ
अति चारु चलीं जल च्वै।।
अयोध्या से निकलकर अभी दो ही कदम चली थीं सीता कि माथे पर पसीना छलक आया, होंठ सूख गये। पूछने लगीं - अभी कितनी दूर और चलना है? पर्णकुटी कहाँ बनायेंगे? पत्नी का ऐसा हाल देखकर राम की सुन्दर आँखों से आँसू चू पड़े।
इसके बाद वे सीता की थकान को ध्यान
में रखकर एक पेड़ की छाँह में बैठ गये और देर तक अपने पैरों से काँटे निकालते रहे।
सीता जान गयीं कि वे उन्हें कुछ आराम देने के लिये ही ऐसा कर रहे हैं। अपने प्रति
उनका ऐसा अनुराग देख सीता पुलकित हो उठती हैं और उनकी आँखों से भी आँसुओं की धरा
बह निकलती है।
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानि के
बैठि बिलम्ब लौं कंटक काढ़े
जानकि नाह को नेह लख्यो पुलको तन
बारि बिलोचन बाढ़े।
और जब पति-पत्नी के बीच यह अबोला
नेह-नाता जुड़ रहा था तब अयोध्या के राजवंश में घटी इस अनहोनी घटना की चर्चा आस-पास
के गाँवों में फैल चुकी थी। गाँव की स्त्रियाँ कैकेयी को कोस रही थीं -
रानी मैं जानी अजानी महा पवि पाहनहू
तें कठोर हियो है
राजहु काज अकाज न जान्यो कह्यो तिय
को जिन कान कियो है।
ऐसी मनोहर मूरति ये बिछुरे कैसे
प्रीतम लोग जियो है
आँखनि में सखि राखिबे जोग इन्हैं
किमि कै बनवास दियो है।
कैसी निर्मम स्त्री है?
उसका हृदय तो वज्र और पत्थर से भी अधिक कठोर है। और राजा दशरथ को
देखो! उन्हें भी समझ नहीं आई कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं? बस, जो पत्नी ने कह दिया वही कर बैठे। ऐसे मनोहर
बालकों से बिछुड़कर प्रियजन कैसे जी रहे होंगे। जिन्हे आँखों में रखना था उन्हें
कैसे वनवास दे दिया है?
लेकिन मानवीय संबंधों का आदर्श
स्थापित करने आये पुरुषोत्तम राम को तो पिता के वचन निभाने के लिये वन में रहना ही
था। केवट की मदद से गंगा पार की और गुह की मदद से चित्रकूट पहुँच गये। चित्रकूट के
पेड़-पौधों का हाल जानने के लिये इस बार मैंने आदिकवि वाल्मीकि की शरण ली। उनकी
रामायण में ऐसा विस्तृत विवरण मिला कि जी खुश हो गया। मानना पड़ा कि वाल्मीकि जी
प्रकृति-प्रेमी थे और उनके पास "पर्यावरण-मित्र" वाली आँखें थीं।
चित्रकूट का वर्णन करते हुए उन्होंने एक-दो नहीं, पूरे चौबीस वृक्षों के नाम गिनाये हैं। इनमें से कुछ तो हमारे चिर-परिचित
हैं, जैसे आम, जामुन, कटहल, बेल, महुआ, बेर, आँवला, कदम्ब और नीम्बू।
प्रियाल यानी चिरौंजी और अंकोल यानी पिस्ते के पेड़ भी वहाँ फल-फूल रहे थे। बाँस और बेंत के झुरमुट थे। अरिष्ट यानी नीम का
भी उल्लेख है। सेना सहित भरत के आने की ख़बर सुनकर लक्ष्मण ऊँचे साल के पेड़ पर चढ़कर
उनकी नीयत भाँपने की कोशिश करते हैं।
कुछ ऐसे वृक्षों के नाम हैं जो
संस्कृत साहित्य में अकसर मिलते हैं जैसे लोध्र, धव, तिनिश और तिलक। कुछ ऐसे भी मिले जिनकी पहचान को
लेकर दुविधा है जैसे असन, भव्य, काश्मरी,
धन्वन और वरण ।
लोध्र के फूलों का पराग चेहरे पर
प्रसाधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। आयुर्वेद में इसे अनेक स्त्री रोगों के
इलाज में बहुत गुणकारी बताया गया है। धव अथवा धौ के नाम से ही लगता है कि इसमें
धवल यानी सफ़ेद रंग के फूल आते थे। रघुवंश में कालिदास कहते हैं कि तिलक के फूलों
से वनभूमि ऐसी सुशोभित होती थी जैसे माथे की बिंदी से सुन्दर स्त्री। तिनिश के
बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकी। संस्कृत-हिंदी कोष में आप्टे जी उसे केवल एक
वृक्ष विशेष बताते हैं, जबकि असन की पहचान
पीतसाल से, वरण की वरुण के पेड़ से और काश्मरी की गांधारी से
करते हैं।
चित्रकूट से भरत सहित सभी
सम्बन्धियों, मंत्रियों और अयोध्यावासियों को
विदा करने के बाद राम कहीं और ठिकाना करने की सोचते हैं। पहले वे महर्षि वाल्मीकि
के आश्रम में जाते हैं और फिर उनकी आज्ञा से पंचवटी में डेरा डालते हैं।
पंचवटी को देखकर राम कहते हैं - लो
हम इस पुष्पित कानन वाले पंचवटी प्रदेश में आ गये हैं। अब कोई ऐसी जगह देखो जहाँ
जलाशय पास हो और समिधा, फूल, कुश और जल आसानी से मिल सकें। लक्ष्मण जगह का चुनाव उन्हीं पर छोड़ देते
हैं तब राम स्वयं आश्रम के लिये उपयुक्त स्थान चुनकर कहते हैं - यहाँ भूमि समतल है,
कमलों से सुगन्धित सरोवर पास है और गोदावरी नदी भी दूर नहीं है। उस
रमणीक स्थान का वर्णन करते हुए राम फूलों से लदे पेड़ों के नाम भी गिनाते हैं और
आश्चर्य की बात यह है कि इन पेड़ों की गिनती भी ठीक उसी संख्या यानी कि चौबीस पर
आकर ठहरती है।
राम के गिनाये इन चौबीस वृक्षों में
कुछ फल वाले वृक्ष हैं, जैसे आम, कटहल, खजूर, लुकाट और कदम्ब तो
कुछ फूलों वाले, जैसे अशोक, तिलक,
पुन्नाग, चम्पक, केतकी,
पलाश और पाटल । इनके अलावा साल, ताल, तमाल, नीवार, तिनिश, स्यंदन, चन्दन, पर्णास,
धव, अश्वकर्ण, खदिर और
शमी के भी नाम मिलते हैं।
लक्ष्मण वहाँ एक विशाल पर्णशाला
बनाते हैं। पहले मिट्टी लाकर दीवार खड़ी करते हैं, फिर उसमें सुन्दर और मज़बूत खंभे लगाते हैं। उन खम्भों के ऊपर बड़े-बड़े बाँस
तिरछे कर रखते जाते हैं और उन पर शमी वृक्ष की शाखायें फैला देते हैं। बाँस और शमी
की शाखाओं को मज़बूत रस्सियों से कसकर बाँध देते हैं और उनके ऊपर कुश, कास, सरकंडे और पत्ते बिछाकर अच्छी तरह छा देते हैं।
यही सुन्दर पर्णशाला आगे की घटनाओं की रंगभूमि बनती है। यहीं सीता स्वर्ण मृग
देखती हैं और राम से उसकी खाल लाकर देने का अनुरोध करती हैं। यहीं से शुरू होता है
एक-के-बाद-एक घटनाओं का क्रम जिसकी परिणति रावण के वध से होती है।
पुष्पक विमान में बैठकर लंका से
अयोध्या लौटते समय राम सीता को पंचवटी के सुरम्य वातावरण की याद दिलाते हैं -
एतत् तदाश्रमपदमस्माकं वरवर्णिनि।
पर्णशाला तथा चित्रा दृश्यते
शुभदर्शने।।
5 comments:
वाह!! हमारे प्रभु श्री राम की कहानियों में यह सब भी है... स्कूली पढ़ाई में जुते रहने के कारण इन तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया. जंगल कभी देखा नहीं.. बस अमरूद-आम के बाग बगीचे देखे.. जब देखने की उम्र थी.. अब तो वो भी नहीं दिखते.. आगे कभी किसी जंगल की तरफ रूख करेंगे तो इन बातों को हमेशा ध्यान में रखेंगे... एक तो इस कैमरे ने उलझा रखा होता है... ब्यूटीफुल सीन कैप्चर करने के चक्कर में सब भुला जाता है. परिचय हो तो कैसे...
मनीष बाबू, यही तो दुख है आज की पढ़ाई का, रट्टू तोते बना देते हैं और आँखों पर पट्टी बाँध देते हैं। ख़ुशक़िस्मती से मैं रवि ठाकुर और तुम्हारी पीढ़ी के बीच में थी इसलिये पाठ रटते-रटते भी आँखें खुली रख सकी। Songblast की तरह treeblast शुरु करने का मन है, आशा है तुम सब उसमें भी उत्साह से शामिल होगे और कैमरे से ढेर सारे ब्यूटीफुल पेड़ कैप्चर कर मुझे भेजोगे।
मनीष बाबू, यही तो दुख है आज की पढ़ाई का, रट्टू तोते बना देते हैं और आँखों पर पट्टी बाँध देते हैं। ख़ुशक़िस्मती से मैं रवि ठाकुर और तुम्हारी पीढ़ी के बीच में थी इसलिये पाठ रटते-रटते भी आँखें खुली रख सकी। Songblast की तरह treeblast शुरु करने का मन है, आशा है तुम सब उसमें भी उत्साह से शामिल होगे और कैमरे से ढेर सारे ब्यूटीफुल पेड़ कैप्चर कर मुझे भेजोगे।
बिल्कुल... ये बहुत ही अच्छा आइडिया है... कम से कम पेड़-पौधों और फूल-पत्तियों से परिचय तो हो जायेगा... जितना आपने देखा समझा है उसका एक अंश हम लोगों को भी प्राप्त होगा.
शुभ्रा जी, पेड़-पौधों के प्रति आपके लगाव को जान कर बहुत अच्छा लगा। मैं भी जब बचपन में रेल्वे क्वार्टर में रहता था, तब हमारा एक बड़ा बगीचा हुआ करता था जिसमें आम, कटहल, अमरूद, नीम के पेड़ होते थे। गुड़हल फूल के अलग अलग प्रजातियों के पौधे भी थे। शुभ्रा जी, आप जैसी प्रकृति प्रेमी की आज दिल्ली और NCR में ख़ास ज़रूरत है। आप इस ओर जागरूक्ता बढ़ाने में महत्वपूर्ण कार्य कर सकती हैं। और क्योंकि आप आम जनता में सुपरिचित हैं, लोग आपकी बात सुनने में रुचि भी लेंगे।
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