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Sunday, April 6, 2008

मेरे संग खेलोगे?

मेरे संग खेलोगे?

बचपन में याद है न हम सब ने न जाने कितनी दुपहरियां टीचर-टीचर, डाक्टर-डाक्टर, मम्मी-पापा और न जाने क्या क्या खेलते हुए बिताई थी। मम्मी सो रही होती थी और हम चुपके से तार पर सूखती उनकी साड़ी खींच कर ले आते थे , उलटी सीधी जैसी लपेटी जाती लपेट ली जाती( मैं आज तक नहीं समझ पाई ये साड़ी इतनी लंबी क्युं बनाई जाती है, लपेटते ही जाओ, लपेटते ही जाओ…अजीत जी को पूछना पड़ेगा ये हिन्दी का मुहावरा "लपेट लिया" और साड़ी लपेटने का कोई संबध है क्या?…:)) और फ़िर अलमारी खोलते ही भड़ भड़ करते हमारे छोटे छोटे किचन के खिलौने बर्तन जमीन पर फ़ैल जाते थे। आवाज सुन कर मम्मी समझ तो जाती थीं कि उनकी धुली साड़ी फ़िर से धोनी पड़ेगी पर नींद में वहीं से डांट लगा कर गुस्से की इतिश्री कर देती थीं। हम भी अपने साजो सामान लपेटे बाहर बरामदे निकल लेते थे और फ़िर शुरु होता था घर-घर का खेल्। कल्पना के पंख लगते ही मन पता नहीं क्या क्या खुराफ़ातें करने को मचल जाता था।

अरे लेकिन हम ये सब क्युं याद कर रहे हैं। इसके लिए यूनुस भाई जिम्मेदार हैं। न वो हमें रेडियोनामा का खिलौना हाथ में पकड़ाते, न वो इतने मजेदार प्रोग्राम बनाते, न हमारा खुराफ़ाती दिमाग शरारत करने को मचलता, पर अब पछ्ताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत्। अब तो हम खेलने को बैठ ही गये। (यूनुस भाई को लगे कि हम तो अपनी हद पार कर रहे हैं तो मेरी मम्मी की तरह वो भी एक बंदर घुड़की दे लें, जी हम उतना ही डर जाएगें जितना तब डरते थे। )

हाँ तो आज दोपहर को बैठे बैठे खुराफ़ात हमारे दिमाग में ये आई कि क्युं न यूनुस - यूनुस खेला जाए…हम्म्म्म्म्म तो बस दिमाग ने प्लान बनाना शुरु कर दिया। अचानक दिमाग के नीचे दिल में एक बत्ती जली कि क्युं न हम भी विविध भारती की पचासवीं जन्म तिथी अपने तरीके से मनाएं, बचपन में जैसे हमें घर- घर खेलने के लिए आटे की जरुरत होती थी तो दबे पावं फ़्रिज को रेड किया जाता था और आटा, टमाटर, पनीर जो हाथ आ जाता उठा लिया जाता था, इसी प्रकार हमने विविध भारती का टॉपिक चुराया, कुछ माल इनके रेडियो से ही चुराया और लगा दिया अपना तड़का। खा के देखिए और बताइए तो कैसा बना है?
पचास साल की उम्र में विविध भारती परोस रहा है "प्यार" वो भी फ़िल्मी गीतों की चाशनी लगा कर। सही है जी, प्यार से किसको है इंकार। प्यार है तो जहां है, तो हो जाएं कुछ बातें प्यार की ।

हमारे आज के खास कार्यक्रम का नाम है
"प्यार रे प्यार तेरा रंग कैसा"
प्यार से मुलाकात हो इस मंशा से हमने सबको पूछना शुरु किया क्या आप ने प्यार को देखा है, क्या आप प्यार को जानते है, कैसा है रूप उसका कैसी उसकी गंध,कैसा है स्पर्श उसका कैसा उसका रंग?
बड़े बड़े नामी प्यार के खिलाड़ियों से पूछा और नये नये अनाड़ियों से पूछा, बंदे अनेक पर जवाब एक प्यार तेरे कितने रंग, प्यार तेरे कितने ढंग ?
तो चलिए जी अपनी विविध भारती की 50वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम “प्यार रे प्यार तेरे कितने रंग” में आज हम पता लगाते हैं कि ये प्यार कितने रंग लिए है, इंद्रधनुषी है या और भी कई रंग लिए है।

अब प्यार के बारे में गीतकार से ज्यादा कौन जानकार होगा जी तो आज हमने यहां इस दौर के चोटी के दो गीतकारों को आमंत्रित किया है मिलिए जनाब जावेद अख्तर जी से, ये न सिर्फ़ गीतकार हैं प्यार के क्षेत्र के भी अनुभवी खिलाड़ी हैं। तालियाँ। जावेद जी विविध भारती की ओर से, हमारे श्रोताओं की ओर से आप का तहे दिल से स्वागत करता हूँ( जी हाँ, करता हूँ, मैं तो युनुस हूँ न इस समय) इस प्रोग्राम में जिसका नाम है "प्यार रे प्यार तेरे कितने रंग"।

बहनों और भाइयों हमारे आज के दूसरे मेहमान बहुत ही सोफ़्ट स्पोकन है यानि के बहुत ही धीमा बोलते हैं, लेकिन कलम इनकी उतनी ही बुलन्द है, बाहर से धीर गंभीर दिखने वाले , पर बहुत ही मधुर सुकोमल गीतों के रचियता, जी हां मैं बात कर रहा हूँ एक और हमारे जमाने के मशहूर फ़नकार गुलजार जी की। गुलजार जी आप का स्वागत है हमारे इस कार्यक्रम में।

गुलजार जी मैं सबसे पहले आप से ही शुरुआत करता हूँ। आप बताइए आप को क्या लगता है प्यार का एक ही रंग एक ही रूप होता है या अनेक?

गुलजार-मुझे तो लगता है प्यार एक ऐसी महान भावना है कि इसे एक रंग या रूप में बांधा ही नहीं जा सकता

यूनुस -जी जी, जावेद जी आप क्या कहेगें क्या प्यार के अनेक रंग रूप हैं

जावेद- तुम्हारा सवाल सरासर गलत है।

यूनुस- जी?

जावेद- जी, प्यार क्या दिखाई देता है, और जो दिखाई नहीं देता उसके रंग और रूप कहां से दिखाई पड़ेगें। मैने तो आज तक प्यार को देखा नहीं , हाँSS महसूस जरूर किया है तो प्यार एक ज़ज्बा हैं, प्यार खुदा है, जो सब जगह है जिसे हम महसूस कर सकते हैं पर देख नहीं सकते।

यूनुस - जी बिल्कुल सही यहां मुझे खामोशी फ़िल्म का एक गीत याद आ रहा है
"हमने देखी है इन आखों की महकती खुशबू …। प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो। आइए सुनते हैं


गुलजार – हां क्या गाना था वो

यूनुस - जी अब हम गुलजार जी की तरफ़ एक बार फ़िर लौटते हैं, गुलजार जी आप बताइए आप को प्यार का एहसास सबसे पहले कब और कहां हुआ था?

गुलजार - ह्म्म्म्म्म! भई प्यार का अहसास तो हमें जिन्दगी में बहुत जल्दी ही हो गया था, जब पहली बार नजरों ने मां को ढूंढा था, नथुनों में मां के आंचल की गंध भरी थी और मां की गोद सोने के लिए सबसे मह्फ़ूज जगह लगी थी।

यूनुस - जी मां के प्यार के रंग से तो कोई अभागा ही अछूता हो।

जावेद जी- इसमें तो कोई दो राय हो ही नहीं सकती, मां तो मां ही होती है, उसके प्यार का रंग तो ताउम्र फ़ीका नहीं पड़ता।

यूनुस - जी मां और बच्चे के प्यार का बंधन जितना सुकोमल होता है उतना ही अटूट। हमारे सभी श्रोता आप की बात से सहमत होगें। वैसे तो हमारी फ़िल्मों में मां का किरदार बहुत ही अहम किरदार होता है और नायक के जीवन में काफ़ी अहम भूमिका निभाता है, हमारे गीतकारों ने भी मां और बच्चे के रिश्तों पर कई गीत लिखे है जैसे ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी, हमने नहीं देखा उसे कभी इसकी भी जरुरत क्या होगी, माँ मुझे अपने सीने से लगा ले कि और मेरा कोई नहीं, रंग दे बसंती का वो गाना लुका छिपी बहुत हुई कोई भुला सकता है भला, पर इस समय जो गीत मैं आप को सुनाने जा रहा हूँ वो भी दिल को चीरता हुआ चला जाता है, इस गीत को लिखा है प्रसून जोशी जी ने, और फ़िल्म है तारे जमीं पर, आइए सुनते हैं

माँ


और अब प्यार के इस मीठे से रस में भीगे सुनहरी रंग के बाद हम आगे बढ़ते हैं, जावेद साहब इस बार मैं आप से पूछना चाहुंगा, आप को प्यार का एहसास पहली बार कब हुआ था?

जावेद- पहला एहसास तो जैसा गुलजार ही ने बताया तब ही हुआ था, पर दूसरा प्यार आप पूछें तो दूसरा प्यार मुझे तब हुआ था जब मैं पांच साल का था।

यूनुस- अच्छा? पांच साल में?

जावेद- हाँ भई उसके पहले तो घर से अकेले निकले ही नहीं न दूसरे लड़कों के साथ गली में खेलने। पांच साल की उमर में पहली बार माँ ने अकेले दोस्तों के साथ अमराई में जाने दिया था और उसी दुपहरी को हमें उस लदे फ़दे आम के पेड़ से प्यार हो गया था, आज भी है, आज भी उस पेड़ के आम हर गर्मियों में हमारे घर पहुंचते हैं मानों वो पेड़ हमें बुलाता हो, कि घर कब आओगे ।

न सिर्फ़ वो पेड़, वो खेतों के किनारे बनी बड़ी सी नहर, जिसमें हमने पहली बार तैरना सीखा, वो कच्ची पगडंडियाँ, जिनकी मिट्टी हमारे ताजा धुले पैरों से लिपट लिपट हमें चिढ़ाती थी, बम्बई में वो बात कहां?

गुलजार- जी जावेद भाई! फ़िर भी बड़े नसीबवाले हैं आप, जब चाहें उस अमराई में जा सकते हैं। बंधन अगर हैं तो आप के अपने ओढ़े हुए, पर हम जैसों का सोचिए, हम चाहें तो भी पलट के अपनी मिट्टी छू नहीं सकते।

जावेद- जी इसी बात को मैने अपने एक गीत में उकेरा था, युनुस कौन सा था वो गीत
यूनुस- रिफ़्युजी फ़िल्म का गाना,

सरहद इंसानों के लिए है…, जी जी बहुत ही दिल को छूता गीत है

गुलजार- दरअसल वही गीत दिल को छूते हैं जो हमारी जिन्दगी के किसी हिस्से से जुड़े हुए होते हैं।

युनुस- जी, तो आइए जावेद जी का लिखा वो प्यारा सा गाना हो जाए।



तो प्यार सुनहरा भी है और हरा भी। जावेद जी और प्यार के क्या रंग हो सकते हैं।
जावेद- भाई प्यार के तो अनेक रंग हैं, चलो इसके लाल रंग को ही देख लो। जहां नौजवां अपनी महबूबा के लिए सितारे तोड़ लाते हैं, जान दे देने की बात करते हैं वहीं इस धरती के लिए भी पसीने की जगह अपना लहू देने को तैयार रहते हैं, वो प्यार का रूप नहीं तो क्या है?

यूनुस- जी, देश प्रेम पर भी हमारी फ़िल्मों में अनेकों गाने बने पर कौन भूल सकता है, आज भी जब ये गाना बजता है तो लोगों की भुजाएं फ़ड़कने लगती हैं।

कर चले हम फ़िदा जाने तन साथियों अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों


गुलजार जी ये तो कैनवास पर बहुत ही सुंदर तस्वीर उभर कर आ रही है, अब आप कौन सा रंग भरना चाहेगें इस प्यार के कैनवास पर।
हां तो दोस्तों अब गुलजार जी अपना पेंट ब्रश उठा कर तैयार है इस तस्वीर में एक और रंग भरने के लिए।

गुलजार – भई, प्यार के इस रंग के बिना तो जिन्दगी अधूरी है, बल्कि मैं तो कहूंगा कि गुलाबी प्यार बिन जिया तो क्या जिया।

युनुस – जी

जावेद- हाँ ! इस गुलाबी रंग के बिना तो जिन्दगी बेरंग बेपता लिफ़ाफ़ा है जो इधर उधर भटकता है पर मंजिल नहीं मिलती। कायनात की सारी शायरी इस गुलाबी रंग पर ही तो टिकी है।

गुलजार – सही, ये गुलाबी रंग जब एक बार चढ़ता है तो फ़िर आप कुछ भी कर लिजिए तमाम उम्र नहीं उतरता ।
युनुस- जी इस गुलाबी रंग पर तो कई घंटे, नहीं दिनों तक बात हो सकती हैं। जब तक आप गुलाबी रंग घोलें हम एक छोटा सा ब्रेक ले लें। तो दोस्तों हम अभी हाजिर होते हैं गुलजार और जावेद जी के साथ इस शाम को अब गुलाबी रंग में रंगने के लिए।
ब्रेक

Friday, April 4, 2008

आ अब लौट चलें: रेडियोनामा पर रेडियोप्रेमी अनीता कुमार का रेडियोआई लेख

अनीता कुमार को आप सभी ब्‍लॉगर-मित्र जानते हैं । कुछ हम कहें पर उनकी लेखनी नित नये विषयों को छूती हुई चर्चित बन रही है । पिछले दिनों भाई अजीत वडनेरकर के ब्‍लॉग शब्‍दों का सफ़र पर अनीता जी का बक़लम खुद बेहद चर्चित रहा । कई महीने पहले मैंने चैट पर अनीता जी को रेडियोनामा पर लिखने को कहा था । अनीता जी ने इस निवेदन anita को याद रखा और लिखा, ये हमारे लिए बहुत महत्‍त्‍‍वपूर्ण है । इस आलेख के ज़रिए अनीता जी बाक़ायदा रेडियोनामा की मंडली में शामिल हो रही हैं । रेडियोनामा ने एक वर्ष से भी कम समय में जिस तरह, एक माध्‍यम के तौर पर, रेडियो की लोगों की जिंदगी में जगह को रेखां‍कित किया है, उसे देखकर हम सभी को संतुष्टि और प्रसन्‍नता होती है । आगे चलकर हम चाहेंगे कि रेडियोनामा पर विमर्श वाले मुद्दे पर भी ज़ोर दिया जाये । जल्‍दी ही रेडियोनामा पर मैं अपना एक कॉलम लेकर उपस्थित होने वाला हूं । यहां हम रेडियोनामा के नामावर ये भी कहना चाहेंगे कि अगर आप रेडियोनामा का हिस्‍सा बनना चाहते हैं तो आपका हार्दिक स्‍वागत है । रेडियोनामा के प्रबंधन की जिम्‍मेदारी हैदराबाद से सागर नाहर बेहद सजगता से निभाते हैं, इस संबंध में उनसे अथवा मुझसे पत्र व्‍यवहार किया जा सकता है । आईये फिलहाल स्‍वागत करें अनीता कुमार का । ( चित्र-साभार: बकलम खुद पहला भाग, शब्‍दों का सफ़र)----यूनुस

 

रेडियोनामा हमारे पसंदीदा चिठ्ठों में से एक है, रेडियोनामा पर लिखने वाले इतना बड़िया और विस्तृत रूप से लिखते हैं कि क्या टिपियाये ये कभी तय नहीं कर पाए, इस लिए हम अदृश्‍य-पाठक ही बने रहे। यूनुस जी के निमंत्रण के बावजूद लिखने की तो हिम्मत ही नहीं हुई कभी ।

पर आज सोचा कि तैरना आता है या नहीं पानी में छलांग लगा ही दी जाए, राम भरोसे । तो लीजिए जी यहां हम हाजिए हैं।

हमारी दिनचर्या की मजबूरी और हमारी टी वी की लत के चलते पिछ्ले कई बरसों से रेडियो से नाता ऐसा ही है जैसे बरसात का सूरज से।

एक जमाना था जब रेडियो हमारी लाइफ़-लाइन हुआ करता था, सुबह जगाने से ले कर रात को सुलाने तक का काम रेडियो करता था । ये वो जमाना था जब एफ़ एम का नामो निशान भी नहीं था। मिडियम वेव पर सिर्फ़ विविध भारती और बुधवार के बुधवार रेडियो सिलोन बिनाका गीत माला सुनने के लिए लगाया जाता था।

रेडियो का शौक हमें बहुत छुटपन से हो गया था। भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद रात को एक कार्यक्रम प्रसारित होता था मैं अफ़ीमची जो एक व्यंग हुआ करता था पाकिस्तान के हुकुमरानों पर्। मेरे पापा उसे बड़े चाव से सुनते थे और साथ में हम भी। व्यंग के रसिया शायद हम वहीं से बने। फ़िर इतवार के इतवार किसी फ़िल्म की कहानी का रेडियो रुपांतर, रात को ही रोज हवामहल जैसे कार्यक्रम हमें रेडियो से चिपकाए रखते थे।

बम्बई में टी वी तब आया जब हम ग्यारहवीं में थे, और वो भी सिर्फ़ दूरदर्शन। लेकिन जैसे जैसे वक्त गुजरा, टी वी में भी और चैनल जुड़ते गये और रेडियो में भी नये नये स्टेशन जुड़ते गये। समय के साथ हमारी भी दिनचर्या बदली। जब से कॉलेज की नौकरी शुरु की सुबह 6-30 बजे घर से निकल जाते है तो भजन सुनने का सिलसिला खत्‍म हो गया। रात होते होते जब फ़्री होते तो अब टी वी के सास बहू के सिरियलों का चस्का लग चुका था जो रात साढ़े ग्यारह बजे तक चलते थे। फ़िर भी रेडियो के कमी तो खलती ही थी।

कुछ साल पहले जब कार से कॉलेज जाना शुरु किया तो सुबह के भजन ढूंढने की कोशिश की लेकिन कार में विविध भारती आसानी से नहीं मिलता। तो सुबह हमारा साथी बनता है ए आई आर एफ़ एम गोल्ड, जब तक हम खबरें सुनते हैं तब तक हमारा सफ़र खत्म हो जाता है। वापसी में जब लौट रहे होते हैं तो एफ़एम गोल्ड पर मराठी कार्यक्र्म चल रहा होता है। कई सारे एफ़ एम स्टेशन आसानी से मिल जाते हैं। लेकिन हमें रेडियो मिर्ची, बजाते रहो, जैसे स्टेशन कभी नहीं अच्छे लगे, उन्हें सुन कर तो सर दर्द हो जाता है, तो हम दोपहर में सी डी सुनते हैं।

लेकिन मार्च के तीसरे हफ़्ते से हमारी दिनचर्या बदल जाती है और हमें सुबह आठ बजे ही जाना होता है, सफ़र भी लंबा हो जाता है। तो आज कल हम खूब मजे से आठ से दस एफ़ एम गोल्ड पर "हमसफ़र" सुनते है और अगर सफ़र फ़िर भी बाकि हो तो एफ़ एम रेनबो पर दस बजे से पुराने गाने बजने शुरु हो जाते हैं और हम एक बार फ़िर अपने पुराने दिनों में खो जाते हैं । और हम एक बार फ़िर अपने पुराने दिनों में खो जाते हैं । एफ़ एम गोल्ड और रेनबो पर न सिर्फ़ हमारे मनपंसद पुराने गीत बजते हैं, सोने पर सुहागा ये है कि उन स्टेशनों के उदघोषक भी बड़े संयत तरीके से, ठहरी हुई आवाज में नपी तुली बात कहते हैं। दूसरे एफ़ एम स्टेशनों पर ऐसा लगता है मानों उदघोषक नहीं कोई सेल्समैन बाजार में खड़े हो कर अपने अपने स्टेशन बेचने की कोशिश कर रहे हों, क्रिकेट के कमंटेटर की तरह आवाज ऊपर नीचे कर बेकार की एक्साइटमेंट बनाने की  कोशिश, एक ही बात को  कई  कई बार दोहराना, यहां तक की भाषा भी ऐसी कि आप को लगे आप सिनेमा हॉल में सबसे आगे की सीटों पर बैठ गये है जहां आस पास के लोग सीटियां बजा रहे हैं। ऐसे में सर दर्द  नहीं होगा तो क्या होगा, बेकार में रक्त चाप ऊपर करते रहते हैं । ये भी बर्दाशत कर लेते किसी तरह से पर लगता है इन एफ़ एम चैनलों के पास बहुत ही सीमित गानों का कलेक्शन होता है। आप जब भी रेडियो लगाइए वही घिसे पिटे नये गाने बार बार दोहराए जायेगें। उस हिसाब से मुझे लगता है कि आकाशवाणी और विविध भारती के पास गानों का बहुत ही बड़िया कलेक्शन है। आज कल रोज हमसफ़र सुन रही हूँ पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि अरे कल ही तो ये गाना सुना था। आज कल रोज हमसफ़र सुन रही हूँ पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि अरे कल ही तो ये गाना सुना था।  

आज कल विविध भारती अपने 50 वर्ष पूर्ण होने की खुशी में हर महीने की तीन तारीख को एक खास कार्यक्रम दे रहा है। आज भी तीन तारीख हैं । पिछ्ले कुछ दिनों से बार बार बताया जा रहा था कि आज के खास कार्यक्रम "प्यार की बातें, प्यार के गीत" में कुछ नामी गिरामी कवि भाग लेगें। प्रोग्राम दोपहर 2-30 बजे शुरु होना था। हमारे यहां रोज 3-30 बजे से 5-30 तक बिजली चली जाती है। पतिदेव खास बैटरी ले कर आए, हम भी अपना काम झटपट निपटा कर दोपहर 12 बजे ही लौट आये। और रेडियो-ऑन कर दिया। विविध भारती ने भी हमें दिल खोल कर जल्दी आने का इनाम दिया। सबसे पहले तो हमने एक बहुत ही मधुर गीत सुना जो विविध भारती की ही कर्मी (मेरे ख्याल से काचंन जी) का लिखा हुआ था,

" मैं हूं विविध भारती, हम हैं श्रोता तुम्हारे।

कितने अटूट हैं ये नाते रिश्ते हमारे

हम संग चलेगें , हम संग चले हैं"

गीत भावविभोर करने वाला था, और फ़िर आया अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत 'प्रेषित कार्यक्रमों को याद दिलाने का कार्यक्रम्। अमीन सायानी की आवाज के हम शुरु से दिवाने है। उन जैसा उदघोषक न हुआ है न हो सकेगा( युनुस जी माफ़ी चाहती हूँ), तो इतने सालों बाद उनकी आवाज सुन हम तो कार्यक्रम का नाम भी भूल गये, पूरे एक घंटे उनकी आवाज में सराबोर होते रहे। उसी प्रोग्राम में इतने दिनों बाद हरीश भिमाणी की आवाज भी हमें आनंदित कर गयी। और फ़िर आया वो कार्यक्रम जिसका हम इतने दिनों से इंतजार कर रहे थे, जैसे ही 2-30 बजे यूनुस जी की चिर परिचित मीठी आवाज  कानों में पढ़ने लगी। प्रोग्राम का फ़ॉरमेट बहुत ही बड़िया था, गानों का चयन मन लुभावना। कवियों की कविताएं, खास कर निदा फ़ाजली साहब का तो जवाब ही नहीं था पर यूनुस जी की भी तैयारी बहुत जोर शोर से हुई थी पता लग रहा था, कवियों ने तो जो शेर पढ़े सो पढ़े, युनुस जी ने भी बीच बीच में जो शेर पढ़े , गजब के थे। कहीं बहुत ज्यादा दाद नहीं, एक बहुत ही संयत पर मजेदार प्रोग्राम जिसके नशे में हम झूम रहे होगें तभी तो ये अगड़म बगड़म( आलोक जी माफ़ करें इस चोरी के लिए वो भी पूरी सीनाजोरी के साथ) लिखे जा रहे हैं। यूनुस भाई अगले कार्यक्रम का इंतजार है। आशा है किसी मेहरबां ने पॉडकास्ट बनाया होगा ताकि हम इसे बार बार सुन सकें। ( अनीता जी रवि भाई इतने तत्‍पर हैं कि उन्‍होंने पॉडकास्‍ट बनाया भी और उसी दिन रेडियोनामा पर अपलोड भी कर दिया । यहां क्लिक कीजिए --यूनुस) यूनुस भाई वो विविध भारती वाला गाना भी पॉडकास्ट कीजिए न, अगर कॉपी राइट का प्रॉब्लम न हो तो।

मैं शुक्रगुजार हूँ विविध भारती की जिसने न सिर्फ़ मेरी टी वी की लत छुड़वा दी बल्कि मेरे पुराने दिन भी मुझे लौटा दिए। मानों मेरे कानो में फ़ूंका हो---आ अब लौट चलें ........और मैं लौट आई हूं ।

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