व्यापार चाहे जैसा हो, चलता वो रूपए के पहियों पर ही है. बाउजी इन पहियों की गाडी को हांकना कभी नहीं सीख पाए. ज़ाहिर है एक दिन दूकान के माथे पर लगा ‘अजमेर सोप फेक्ट्री’ का बोर्ड उतार दिया गया और दूध की दूकान भी बंद हो गई.
फिर एक दिन, दूकान के माथे पर पहले भी बड़ा एक साइन-बोर्ड लगाया गया - ‘एच
बल्लभ एंड कम्पनी’. ‘एच बल्लभ’ यानि बाउजी और ‘एंड कम्पनी’ मतलब उनके पार्टनर.
हमने देखा घर के सामने, हमारे खेलने वाले वाले मैदान में, अभ्रक के ढेर लगे
हैं. भीलवाड़ा के आस-पास अभ्रक यानी मायका की कई खाने थीं. लेकिन यह अभ्रक यहाँ
क्यों लाया गया है, कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा, इस बारे में हमें कुछ पता नहीं
था. वैसे इस पता होने से हमें कुछ मतलब भी नहीं था. हमें तो बस अभ्रक की पट्टियाँ
बड़ी मजेदार लगीं. कांच जैसी चमकदार चीज़ के छोटे-छोटे टीले जैसे ढेर, हमारे लिए
खेलने का सामान हो गए. पड़ोस के सिन्धी बच्चे, मूला, भोजू, श्यामू, रज्जा और हम
यानि मैं और मुन्नी, उन ढेरों पर चढ़ते-उतरते, फिसलते-गिरते, पकड़म-पकड़ाई खेलते और
जितना हो सकता, हुड़दंग मचाते. लेकिन फिर हमने देखा कि एक दिन कुछ बैलगाड़ियाँ आईं और
एक-एक करके अभ्रक के ढेर लाद-लाद कर कहीं चली गईं. हमारे खेलने के मैदान की
मिटटीनुमा रेत में, अभ्रक के चंद बारीक चमचमाते अंश ही बच पाए.
फिर एक दिन, घर के बाहर मैदान में ढेर सारी गन्ने का रस निकालने वाली चर्खियाँ
रखी हुई देखीं. ये चर्खियाँ खेतों में इस्तेमाल होती थीं. एक बैल इनके चारों तरफ
घूम कर इन्हें चलाता और इनमें गन्ना पेरकर उसका रस निकाला जाता, जिसका बाद में गुड़
बनता. चर्खियों के बाद दूकान में सिंचाई के पंप, और खेती में काम आने वाला सामान
आया. साथ में ‘हिन्द’ साइकिलों के अस्थि-पंजर भी आये, ढेर सारे. लम्बी दूकान में
पीछे बैठ कर कारीगर लोग हेंडल, बॉडी, चेन, पहिये, कड़ियाँ, टायर-ट्यूब और घंटी
जोड़-जोड़ कर पूरी साईकिल तैयार करते. टायर-ट्यूब के लिए ‘डनलप’ की एजेंन्सी ली गई
थी. एक दिन एसबस्टोस की सैकड़ों नालीदार चद्दरें आईं. इन्हें भी दूकान के पिछले
हिस्से में रखवा दिया गया. एक दूसरे पर रक्खी इन चद्दरों का चबूतरा सा बन गया. बाउजी
जब दूकान में होते, तो हमें इस चबूतरे पर बैठा देते और हमें चुपचाप किताब कापी
लेकर पढ़ाई करनी पड़ती.
थोड़े दिनों तक कई तरह का नया-नया सामान आता रहा. व्यापार नए-नए रूप लेता रहा
और ‘एच बल्लभ एंड कंपनी’ नफे-नुकसान के हिचकोले खाती हुई चलती रही.
कुछ दिनों बाद दूकान में ढेर सारे गत्ते के भारी-भारी डिब्बे आये, जिन्हें
पहले से बना कर तैयार की गईं खांचेदार आलमारियों में बड़े एहतियात के साथ, सजा कर
रखा गया. एक आलमारीनुमा बड़ा सा लकड़ी का खोखा भी आया था. इसे खोलने पर भीतर से
निकला एक गहरी कत्थई पालिश से चमकता हुआ, लगभग दो फुट ऊँचा और इतना ही लम्बा-चौड़ा लकड़ी
का एक बक्सा. एक टेबल पर सजा कर बड़े प्यार से इस का ढक्कन खोला गया.
यह था ‘एचएमवी’ का ग्रामोफोन और आलमारी में रखे हुए गत्ते के डिब्बों में थे हिज़
मास्टर्स वॉइस, कोलंबिया और ट्विन कम्पनियों के ग्रामोफोन रिकॉर्ड.
तब मैं कहाँ जानता था कि यह वो सामान है, जो मेरे पूरे भविष्य की रूपरेखा को
प्रभावित करेगा.
कुछ दिनों बाद दीवाली आई. व्यापार के नए रूप का प्रचार आवश्यक था, इसलिए यह
दीवाली कुछ धूम-धाम के साथ मनाने का फ़ैसला हुआ. नीचे के चौक में जो पीछे वाला अँधेरा
कमरा था, वहां एक जेनरेटर रखा गया. जेनरेटर को चलाकर उस कमरे का दरवाजा भेड़ दिया
गया, ताकि जेनरेटर की ‘भटर्र भटर्र’ का
शोर बाहर न आने पाए. सारे घर को बिजली की लड़ियों से सजाया गया और दूकान के ऊपर छत
पर एक लाउडस्पीकर लगाकर, देर रात तक गाने बजाए गए. उन दिनों भीलवाड़ा में बिजली
नहीं थी और भोपालगंज के लोगों ने तो बिजली की रोशनी सिर्फ महाराणा टॉकिज के हंडों
में ही देखी थी. अब हमारी हवेली को रोशनी से जगमगाता देखने और गाने सुनने के लिए
जाने कितने लोग सामने के मैदान में डेरा जमा कर बैठ गए. उनकी ख़ातिर हरिशंकर भाई
साहब (घासीराम जी डोलिया के बेटे) को भी रात देर गए तक दूकान में बैठे-बैठे गाने
बजाने पड़े.
दीवाली की इस रात का चमत्कार ये हुआ कि ‘एच. बल्लभ एंड कंपनी’ के चर्चे
दूर-दूर तक पहुंच गए. आसपास के गांवों में, जिन संपन्न लोगों के पास ग्रामोफोन थे,
वे रिकॉर्ड खरीदने के लिए और जिनके पास नहीं थे, वे ग्रामोफोन और रिकॉर्ड दोनों
खरीदने के लिए दूकान में आने लगे.
बाउजी को कामकाज के सिलसिले में अक्सर दूसरे शहरों में जाना पड़ता था. ऐसे
मौकों पर हरिशंकर भाईसाहब और ताऊजी घासीरामजी डोलिया के साथ मैं भी दूकान पर डटा
रहता. शुरू में तो डर लगता था, लेकिन बाद में धीरे-धीरे मैंने ग्रामोफ़ोन पर हाथ
साफ करना शुरू कर दिया. सामने के हिस्से में एक जाली थी, जिसके पीछे ग्रामोफ़ोन का
स्पीकर छुपा हुआ था. यहीं से गाने की आवाज़ आती थी. ग्रामोफोन की बायीं साइड पर एक
छेद था, जिसमें हैंडल घुसा कर घुमाया जाता. इसे चाबी भरना कहते थे. हर एक-दो
रिकॉर्ड के बाद चाबी भरनी पड़ती थी. रिकॉर्ड बजाने से पहले साउण्डबॉक्स में हर बार
सुई बदली जाती थी. एक बार रिकॉर्ड बजाने के बाद, सुई बेकार हो जाती थी. मैंने ये
सब बातें सीख और समझ ली और धीरे-धीरे रिकॉर्ड बजाने की टेक्नीक सीख गया. इसके बाद अक्सर
ये होता कि दूकान में कोई बड़ा मौजूद होता, तो भी रिकॉर्ड बजाने की ड्यूटी मुझे ही
निभानी पड़ती.
तब मुझे कहां पता था कि ये जो मैं रिकॉर्ड बजाने की कला में जी-जान लगा रहा
हूं, ये मेरे भविष्य की रिहर्सल हो रही है. तब कौन कह सकता था कि लोकेन्द्र शर्मा
को ज़िंदगी भर विविध भारती में रिकॉर्ड ही बजाने हैं.
***
जो लोग केवल अपने लिए नहीं जीते, उन्हें ज़िंदगी में कई उतार-चढ़ावों से
गुज़रना पड़ता है. शायद यही बात व्यापार पर भी लागू होती है. व्यापार जनसेवा के
लिए नहीं किया जाता. व्यापार में रकम लगती है और लगी हुई रकम बढ़े, यही व्यापार का
नियम है. अजमेर सोप फैक्ट्री के बंद होने के बाद बाउजी को अपने व्यापार को पटरी पर
लाने में ख़ासा व़क्त भी लगा और काफ़ी मशक्कत भी. कैलेंडर के सन् 50-51 तक
पहुंचते-पहुंचते ‘एच.बल्लभ एंड कंपनी’ ने नाम और दाम दोनों कमाने शुरू कर दिए थे.
इस बीच अपने पैतृक गांव के लोगों की ख़ातिर बाउजी ने एक और काम किया. सावित्री
रोडवेज के नाम से एक नई कंपनी बनाई और भीलवाड़ा से बस्सी तक की बस सेवा शुरु की.
रोज़ सुबह यात्रियों को लेकर बस रवाना होती, दोपहर में हमारे पैत्रिक गाँव साड़ास
होती हुई, शाम ढले तक बस्सी पहुंचती. रात भर विश्राम करने के बाद अगली सुबह बस्सी
से वापसी की यात्रा शुरू करती और शाम तक भीलवाड़ा पहुंचती.
उन दिनों रास्ते कच्चे थे. पक्की सड़कें कहीं नहीं थी. बस को सारा सफ़र धूल भरे
उबड़-खाबड़ रास्तों पर हिचकोले खाते हुए पूरा करना पड़ता. ज़मीन से धूल के बादल से
उठते और दूर तक बस के पीछे-पीछे दौड़ते. रास्ते में पड़ने वाले गांवों के लिए बस एक
अजूबा थी और बस की यात्रा, जैसे कोई चमत्कार. बच्चे ही नहीं, कभी-कभी बड़े लोग भी
और कभी-कभार तो औरतें तक, चलती बस के पीछे लटककर इस आनंद को उठाने के लिए शर्म या
संकोच नहीं करते. रास्ते के पत्थर हटाने और उसे समतल बनाने के लिए अक्सर बाउजी बस
के साथ कुछ मजदूरों को भी भेजते. ये मजदूर बस को रोक-रोक कर, जगह-जगह रास्ते के
पत्थर हटाते, फावड़े से तगारी में मिटटी भर कर सड़क को समतल बनाते. राह में पड़ने
वाली बेड़च और बनास नदियों में तो काफ़ी समय और मेहनत के बाद एक पथरीली कच्ची सड़क
बनाई गई, ताकि बस आसानी से नदी पार कर सके.
सुबह और शाम दोनों वक़्त बस हमारे घर के बगल से गुज़रती. एक बार आती और एक बार
जाती. दोनों बार ड्राइवर एक ख़ास अंदाज़ में हॉर्न बजाता और हम दौड़ कर छत की
मुंडेर से लटककर दूर तक जाती बस को देख कर हाथ हिलाते. ख़ास अंदाज़ वाली हॉर्न की वो
आवाज़ अपनी कल्पना में मैं आज भी सुन सकता हूं. इस बस का सबसे बड़ा फ़ायदा ये था
कि साड़ास में अकेली रहने वाली भाबा (दादी) की ख़ैरियत की ख़बर बाउजी को हर रोज़ मिल जाती.
घर की संपन्नता बढ़ी, तो सुविधाएं बढ़ना भी लाज़िमी था. अब तक छोटू थोड़ा बड़ा
हो चुका था और उसका नाम छोटू से पहले हृदयनाथ फिर अशोक हो गया था. अब तो घर में एक
और बच्चे के आने की प्रतीक्षा भी हो रही थी. भाभी को घरेलू कामकाज के लिए मुश्किल
होती थी, सो खाना बनाने के लिए एक महाराज रख लिया गया. पानी भरने के लिए एक कांवड़
वाले का इंतज़ाम किया गया. कुएं से पानी ला लाकर पहले वो पीने के लिए रसोई घर के
बगल वाली परेंडी में मटके भरता, फिर नीचे चौक में रखे हुए पीतल के बड़े ड्रम को भर
देता, जिसका इस्तेमाल नहाने और कपड़े धोने के लिए किया जाता.
इसी बीच एक दिन हमने देखा कि एक ग्वाला एक गाय और उसकी बछिया को लेकर आया है.
बाउजी ने घर के लिए गाय का इंतज़ाम किया था. शायद जब से दूध की दूकान बंद हुई थी
उनके मन में ये बात बनी हुई थी कि बच्चों के लिए दूध प्रचुर होना चाहिए. अब तो
बच्चे भी तीन थे और चौथे के आने की तैयारी भी थी.
गाय का नाम गोमती रखा गया और उसकी बछिया का नाम सोहन. गोमती बहुत सुंदर थी.
उसके बदन पर जगह-जगह लाली लिए हुए कत्थई चकत्ते थे और शेष वो दूधिया सफेद थी.
गोमती के लिए नीचे के बरामदे में इंतज़ाम किया गया. साफ़-सफ़ाई और देख-भाल का काम
धन्ना को सौंपा गया और दूध निकालने की ज़िम्मेदारी बुआजी ने ले ली. गोमती और बुआजी
के बीच एक भावनात्मक रिश्ता भी बन गया था. गोमती जब भी ‘बांआआआ’ की पुकार लगाती,
तो बुआजी बाकायदा पूछती, “हांआआआ, कई कैवे?”
कुछ ही दिनों बाद घर में नया मेहमान आ गया. उसका नाम रखा गया चैतन्य. प्यार से
सब लोग उसे कहते चेतू. हम आठ बहन-भाइयों में केवल चेतू और अशोक ही भोपालगंज के उस
मकान में जन्मे हैं. नीचे वाले कमरे में, अशोक संसार में आया और ऊपर वाले में चेतू.
चेतू के जन्म से कुछ दिन पहले एक दिन खाना बनाने वाले महाराज को दूध में से मलाई
निकालकर खाते हुए पकड़ा गया. ज़ाहिर है इसके बाद महाराज को नौकरी पर नहीं रखा जा
सकता था. लेकिन जब तक दूसरे महाराज का इंतज़ाम न हो जाए या जब तक भाभी फिर से रसोई
संभालने लायक न हो जाए, हमारे खाने की व्यवस्था करना भी आवश्यक था. बुआजी अपने
छोटे देवर पंडित बद्रीशंकर जी के यहाँ गई हुई थीं, जो अपने बड़े भाई से अलग होकर उन
दिनों ओम्कारेश्वर में रहते थे. इसलिए हमारे खाने की ज़िम्मेदारी पारसोली वाले मामासा मोतीलाल जी के सुपुर्द की गई. मुझे
याद है, मैं और मुन्नी अशोक को गोद में लिए सीढ़ियों में बैठे रहते और दोपहर तक मामासा
का इंतज़ार करते रहते. वे एक बड़े से टिफ़िन-बॉक्स में हमारे लिए खाना लेकर आते और
हम वहीं सीढ़ियों में बैठे-बैठे ही खाते.
कुछ ही दिनों बाद चेतू का जन्म हुआ. उन दिनों भीलवाड़ा के अस्पताल में प्रसव की
व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं थी इसलिए, घर में ही दाई की मदद से चेतू संसार में आया. चेतू
बचपन से ही बीमार रहता था. उसकी हरकतों में बालसुलभ चपलता भी नहीं थी. बिना ज्यादा
हाथ-पैर हिलाए वो या तो चुपचाप लेटा रहता या ज़ोर-ज़ोर से रोया करता. डॉक्टर ने
बताया था कि उसकी तिल्ली, जिसे अंग्रेजी में स्प्लीन कहते हैं, बढ़ी हुई है. कहा
गया था कि चेतू को कैल्शियम प्रचुर मात्रा में मिलना चाहिए.
बच्चों के लिए कैल्शियम का सबसे अच्छा स्रोत है दूध, लेकिन जब चेतू दो बरस का
था, तब गोमती गर्भवती थी, इसलिए ग्वाले का दूध लिया जा रहा था. ग्वाला बहुत चालू था.
दूध में पानी मिलाने से कभी नहीं चूकता. चूंकि फ़िलहाल और कोई रास्ता नहीं था,
इसलिए ग्वाले का दूध बंद तो नहीं किया गया, पर दूध की मात्रा कम कर दी गई. चेतू को
समझाया गया था कि अगर वो खूब दूध पीएगा, तो जल्दी ही अच्छा हो जाएगा. फिर बाहर
जाकर भी खेल सकेगा. लेकिन ग्वाले की करतूत की वजह से घर में दूध कम आ रहा था. चेतू
को इतना पता था कि दूध के लिए पैसे लगते हैं. ये भी पता था कि गाय दूध देती है. सो
एक दिन उसने आले में से एक चवन्नी उठाई, रसोई में से एक लोटा लिया और जाकर दोनों
को गोमती के पास रख दिया.
बुआजी ने दूर से देखा, तो आकर पूछा, “कई कर्यो है अठै ?” और चेतू ने अपनी तोतली ज़बान में बताया कि वो
गाय को पैसे देकर दूध लेने आया है.
पहले तो बुआजी हंसी, लाड़ से उठाकर चेतू को गोद में लिया फिर जाने क्यों रोने
लगी. बच्चा दूध के लिए तरस रहा है, शायद उनसे यह बर्दाश्त नहीं हो पाया.
सर्दियों के दिन थे जब गोमती ने दूसरी बछिया को जन्म दिया. ये नन्ही बछिया
गोमती जैसी ही रंग-रूप वाली थी, बेहद सुन्दर. हम बच्चों को तो जैसे जीता-जागता
खिलौना मिल गया. बहुत प्यारी थी वो. जब वो पूंछ उठाए कुलाचें मारती हुई इधर-उधर
दौड़ती, हमें बिल्कुल हिरनी जैसी लगती. मैं और मुन्नी कोशिश करते कि उसे गोद में
उठा लें. जितनी देर हम उसके साथ खेलते, गोमती मोहित नज़रों से हमें निहारा करती.
एक बार तो किसी तरह हम बछिया को सीढ़ियों में चढ़ाकर छत पर ले आए और देर तक उसके
साथ हमने भी कुलाचें मारी. बाद में बुआजी की डांट भी खाई.
सर्दियों में शाम को ही रात जैसा अंधेरा हो जाता था. खाना भी जल्दी ही खिला
दिया जाता और जल्दी ही बिस्तर में दुबका भी दिया जाता. हमें नींद आए या न आए, रजाई
में घुसे रहना पड़ता था. ऐसे में मैं और मुन्नी बछिया की बातें करते और करते-करते
ही जाने कब नींद के हवाले हो जाते.
उस समय अंधेरी रात थी और हम गहरी नींद में थे. अचानक एक चीख ने हमें जगाया.
चीख कहां से आई है, किसने लगाई है, इन सवालों की जगह हमारे ज़हन में जो पहला खयाल
आया, वो यही था कि ज़रूर बछिया को कुछ हो गया है.
कुछ ही देर बाद लालटेन की पीली रोशनी में बाउजी और भाभी दिखाई दिए. बाउजी भाभी
को थामे हुए धीरे-धीरे कमरे में प्रवेश कर रहे थे. भाभी की रोने और कराहने की
आवाज़ लगातार सुनाई दे रही थी. ऐसा लग रहा था, जैसे उनसे चला भी नहीं जा रहा.
बाउजी ने भाभी को बिस्तर पर बैठाया और आलमारी खोलकर उसमें से कुछ निकाला. मरी-मरी सी
रोशनी की वजह से रजाई में दुबके हम, न कुछ ठीक से देख पाए, न समझ पाए. बाउजी की
ढाढ़स बंधाने जैसी बातें सुनाई दीं. साथ-साथ भाभी का चीखना, रोना और कराहना भी
हमारे कानों से टकराया. हमें एक बात की तसल्ली हो गई कि गाय की बछिया को कुछ नहीं
हुआ है. मगर हां, भाभी को शायद कोई चोट लगी है.
अभी भोर पूरी तरह फूटी भी नहीं थी कि बैग हाथ में लिए एक डॉक्टर साहब और उनके
साथ एक-दो और लोग कमरे में आए. बाउजी ने बेशक किसी नौकर को अस्पताल तक दौड़ा दिया होगा.
डॉक्टर ने भाभी को कोई इंजेक्शन लगाया फिर क्या हुआ, कैसे हुआ की पूरी कहानी पूछने
लगे. शायद डॉक्टर का इरादा ये था कि भाभी कुछ बात करे और उनका रोना थोड़ा थमे.
कानों में पड़ी डॉक्टर, भाभी और बाउजी की बातों से, रजाई में लिपटे-लिपटे ही हमने
थोड़ा कुछ जाना, लेकिन पूरी बात, पूरी तरह से उठ जाने के बाद ही समझ में आई.
बाउजी और भाभी सुबह चार बजे ही उठ जाया करते थे. बाउजी नीचे चौक में बुरादे की
अंगीठी जलाकर उसपर पानी की बड़ी पतीली रख देते, ताकि जब तक हम उठते, हमारे
हाथ-मुंह धोने के लिए गरम पानी तैयार हो जाता. ठीक इसी समय भाभी ऊपर रसोई घर में
लकड़ी के कोयलों की अंगीठी सुलगाती और अपने लिए चाय बनाती. भाभी को चाय की आदत सी
हो गई थी. जब तक वो सुबह चाय नहीं पी लेती, बदन में फुर्ती नहीं जागती. भाभी चाय की
ऐसी प्रेमी थी कि कई बरस बाद, एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था, “मुन्ना, अगर मैं मर
जाऊं, तो मेरे सिरहाने एक कप चाय रख देना, देखना मैं फिर से उठकर बैठ जाऊंगी.” भाभी
के इस चाय-प्रेम का बाउजी ने कभी विरोध क्या, आलोचना भी नहीं की. लेकिन उन्होंने
स्वयं कभी चाय नहीं पी. जीवन में कभी भी नहीं.
लकड़ी के कोयलों की अंगीठी सुलगाने का भाभी ने एक फॉर्मूला बना रखा था. कपड़े
का एक फाया मिट्टी के तेल में भिगोकर वे अंगीठी पर रखतीं और उसके चारों तरफ़ कोयले
सजा देतीं. फिर ज्यों ही माचिस की जलती तीली वे तेल-भीगे कपड़े को छुआती, तो कपड़ा
भक से जल उठता. फिर एक-दो कोयले भाभी लपट के ऊपर भी रख देतीं और देखते ही देखते
कोयले पूरी तरह सुलग उठते. उस दिन भी भाभी ने यही किया. बस उन्हें ये याद नहीं रहा
कि एक दिन पहले ही शौक में आकर उन्होंने हाथ भर प्लास्टिक की रंगीन चूड़ियां पहनीं
हैं. मिट्टी के तेल का फाया ज्यों ही भभका, उसकी लपट ने भाभी के दाहिने हाथ की
चूड़ियों को भी अपनी लपेट में ले लिया. पल भर को तो भाभी की बुद्धि मर सी गई. फिर वे
एकाएक ज़ोर से चीखीं. इसी चीख से मेरी और मुन्नी की आंख खुली थी और इसे सुनते ही
बाउजी धड़-धड़ सीढ़ियां चढ़कर ऊपर रसोई घर में पहुंचे. देखा कि भाभी का दाहिना हाथ
तेज लपटों से घिरा है. उन्होंने एकाएक अपने हाथ से भाभी की जलती हुई चूड़ियों को
खींचकर बाहर की तरफ़ झटका. लेकिन तब तक प्लास्टिक की चूड़ियां, भाभी के पंजे को
बुरी तरह झुलसा चुकी थीं. भाभी लगातार चीखे और रोए जा रही थीं. इसके बाद ही हमने
रजाई से सिर निकालकर बाउजी और भाभी को कमरे में आते हुए देखा था.
दिन चढ़ते-चढ़ते भाभी के हाथ जलने की ख़बर दूर-पास के सब घरों और रिश्तेदारों में
पहुंच गया. बारी-बारी से सब हाल जानने के लिए आने लगे. भाभी को शायद कोई नींद का
इंजेक्शन दिया गया था और वे आधी जागी, आधी सोई थीं. संवेदना प्रकट करने वालों को
सारी बात बताने का काम बुआजी को करना पड़ रहा था. हर नए आने वाले के सामने उन्हें
पूरी बात दोहरानी पड़ती.
मैं और मुन्नी अपने विद्यामंदिर स्कूल चले गए और वहां जाकर खेल-कूद में ऐसे
रमे कि सुबह घर में कितना बड़ा हादसा हुआ है, यह याद ही नहीं रहा. इस बारे में
हमने किसी से कोई बात तक नहीं की. शायद हमारे लिए भाभी के हाथ जलने की ख़बर से
ज्यादा बड़ी तसल्ली की बात ये थी कि गाय की बछिया को कुछ नहीं हुआ है. स्कूल में
गणित पढ़ाने वाले हमारे माट्साब थे दीपचंद जी. जाड़े खद्दर का मटमैला सा
धोती-कुर्ता और सिर पर गेरुआ रंग की पगड़ी, यही उनका पहरावा था. दीपचंद जी हमें
रोज़ शाम को घर पर ट्यूशन पढ़ाने आते थे. उस दिन भी आए और जब उन्हें भाभी के साथ
हुए हादसे का पता चला, तो उन्होंने हमें बुरी तरह डांटते हुए पूछा कि हमने उन्हें
स्कूल में इस बात की सूचना क्यों नहीं दी.
मैं और मुन्नी अपराधी से एक-दूसरे को देखते रहे, लेकिन समझ नहीं पाए कि क्या
जवाब दें. माट्साब ने हमें देर तक, ढेर सारी डांट पिलाई. हम चुपचाप पीते रहे.
भाभी का हाल चाल पूछने के लिए आने वालों में एक रामपाल फूफा जी भी थे. रामपाल
जी हमारे फूफा जी कैसे हुए, इसकी जानकारी तो नहीं है, लेकिन इतना पता है कि उन
दिनों सारी बिरादरी के लोग, एक दूसरे के साथ, एक ही कुटुंब जैसा व्यवहार करते थे
और ‘कुटुंब’ के दायरे में आने वाले सभी
परिवार, आपस में एक-दूसरे के साथ रिश्तेदारियां जोड़ लेते थे. रामपाल फूफा जी के
मुंह में हमेशा तम्बाखू वाला पान रहता था. चूने-कत्थे या शायद तम्बाखू की वजह से
उनके दांतों में ऐसा कुछ हो गया था कि ठंडा पानी उनके दांतों में लगता था. उनके
पीने के लिए पानी हमेशा गुनगुना करके दिया जाता. फूफा जी का भाभी के साथ
हंसी-ठिठोली का नाता था. वे आते तो बात-बात पर हंसते और भाभी को भी हंसाते.
आते ही उन्होंने भाभी से कहा, “ऐसे चूल्हा-चौका करोगी भाभी, तो कितने दिन
ज़िंदा रहोगी. एक फोटू खिंचवा लो. कल को कहीं मरमरा गई, तो याद तो रह जाएगी.”
इसके कुछ ही दिनों बाद, जब भाभी थोड़ा चलने-फिरने लायक हुईं, तो रामपाल फूफा
जी सचमुच उन्हें पड़ोस के एक फोटोग्राफर की दूकान पर ले गए. बाकायदा तस्वीर
खिंचवाई और फ्रेम में जड़वा कर हमारे कमरे में
टांग दी.
भाभी की उन दिनों वाली बस यही एक तस्वीर हमारे घर में है. फ्रेम में जड़ी हुई,
आज भी दीवार पर टंगी हुई है.
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