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Saturday, May 7, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा मन भाग-२५ (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)



साइंस छोड़कर सैकन्ड ईयर टी डी सी में मैं आर्ट्स में आ तो गया था, लेकिन कहाँ तो साइंस में भविष्य के उज्जवल सपने आँखों में संजोये चमचमाते चेहरे थे और कहाँ ये बुझे बुझे से, पिटे हुए, उदास, अपने आपको सपनों में क्लर्क की कुर्सी पर देखने वाले, मुरझाए हुए से चेहरे थे. ज़्यादातर लड़के बिना इस्तरी के या मैले कुचैले कपडे पहने हुए थे और पैरों में दो पट्टी की नायलोन की चप्पल. या तो सर के बाल इस क़दर बिखरे और उलझे हुए, कि मानो महीनों से न धुले हों और या फिर सर में एक पाव तेल उंडेले हुए, जैसे किसी तेली की घाणी में  डुबकी लगा कर आये हों. मुझे गुरुदेव दलीप सिंह जी की कही हुई वो बात याद आ गयी, जब उन्होंने मेरे आर्ट्स में जाने की बात पर दुखी होकर कहा था “ क्या करोगे आर्ट्स में जाकर? बैंक में क्लर्की करनी है?”. पहली क्लास, जो सैकन्ड ईयर आर्ट्स की मैंने अटैंड की, वो इतिहास की थी. शायद ये ऐसा विषय था जो सबसे ज़्यादा लड़कों ने लिया था. मैंने क्लास के दरवाज़े पर खड़े होकर, शुरु से आखिर तक बैठे हुए लड़कों के चेहरे पर एक नज़र डाली. मुझे लगा, ये मैंने क्या किया ? वैसे तो साइंस और आर्ट्स में जो डिग्रियां मिलती हैं, उनकी बराबर मान्यता होती है, लेकिन फिर भी कुछ फर्क होता है दोनों में, ये मुझे या तो उस वक्त, उस क्लास के बाहर खड़े होकर मह्सूस हुआ और या फिर इस के २०-२५ बरस बाद और भी शिद्दत से महसूस हुआ, जब कि हर मामले में मेरे मुकाबले कितने ही फिसड्डी लोग, मेरे जैसे यू पी एस सी का बाक़ायदा कम्पीटीशन लड़कर आये चुनिन्दा लोगों के सर पर बैठकर, सिर्फ इसलिए अफसरी करने लगे, क्योंकि उन्होंने मेरी तरह, बी ए करने की बजाय,बी एस सी किया था और उनमे से कई यू पी एस सी के प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव के इम्तेहान में तो फ़ेल हो गए, लेकिन चूंकि उनके सर पर रेडियो के किसी उच्चाधिकारी का हाथ था, इसलिए  वो किसी भी छोटे मोटे केन्द्र के लोकल इम्तेहान को पास कर, साइंस अफसर लग गए थे. बाद में इन्हीं स्टाफ कलाकार के रूप में अनुबंध पर आकाशवाणी में घुसपैठ करने वाले लोगों ने, ये कहते हुए अदालत से अपने लिए प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव से ऊपर की पोस्ट माँगी, कि ये प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव तो आर्ट्स पढ़े हुए लोग हैं और हम साइंस पढ़े हुए, इनसे बेहतर और ज़्यादा काबिल लोग हैं और वाह रे हमारी व्यवस्था......... आर्ट और कल्चर की बुनियाद पर खड़े आकाशवाणी जैसे इदारे में, आर्ट्स के लोगों को बौना बना दिया गया और जूलॉजी और बॉटनी में रट्टा मारकर आये, उन लोगों को बड़ा अफसर बना दिया गया, जिन्होंने साइंस अफसर की ये पोस्ट भी यू पी एस सी जैसा कोई इम्तहान पास करके हासिल नहीं की थी, मामूली लोकल किस्म का इम्तहान देकर, इस पोस्ट पर कब्जा किया था बल्कि उनमे से ज़्यादातर ने तो अपने स्टेशन डायरेक्टर को किसी तरह खुश(?) करके ये पोस्ट हासिल की थी. खैर इनकी कहानी मैं तफसील से बाद में सुनाऊंगा, अभी बात करते हैं उस क्लास की. बड़ी मुश्किल से, कुछेक ताजादम चेहरे दिखाई दिए, जिनके न तो चेहरों से निगेटिविटी झलक रही थी और न ही पहनावे से. मुझे एक तरफ कुछ छः सात लड़के इस तरह के दिखाई दिए. मुझे लगा, मुझे उनके पास कहीं बैठना चाहिए. मैं उधर चल दिया. पास पहुंचकर मैंने सबसे करीब बैठे हुए लड़के की तरफ हाथ बढ़ाया. अपना नाम बताया. उधर से जवाब आया, महावीर शर्मा. मैं आगे बढ़ा, जवाब आया गणेश भठेजा, फिर अशोक बंसल, हिम्मत सिंह निर्वाण, हरि कृष्ण मुंजाल. मैं वहीं उन लोगों के पास बैठ गया, तभी एक बहुत युवा गुरुदेव ने क्लास में क़दम रखा. हम लोगों से चार पांच साल बड़े होंगे. उन्होंने अपना नाम डॉक्टर घनश्याम देवड़ा बताया. उनका पढाने का तरीका बहुत रोचक था. हम लोगों को ये गुरुदेव बहुत पसंद आये. अगली क्लास थी अर्थशास्त्र की जिसमे चश्मा लगाए हुए एक शख्सियत नमूदार हुई. अपना नाम बताया, एम सी पालीवाल. उनका पहला ही भाषण बता रहा था कि बहुत चालू चीज़ हैं वो. उन्होंने बताया, कि वो स्टेटिस्टिक्स के प्रोफ़ेसर हैं. अर्थशास्त्र के सेकंड ईयर में दो पेपर्स होंगे. एक माइक्रो इक्नोमिक्स, जिसे पढ़ना सबके लिए ज़रूरी है और दूसरे पेपर के रूप में जो चाहें भारतीय अर्थव्यवस्था पढ़ सकते हैं और जो लोग अच्छे मार्क्स लाना चाहते हैं, वो स्टेटिस्टिक्स पढ़ सकते हैं. आने वाले १५ दिन में हम लोगों को फैसला लेना था, कि कौन भारतीय अर्थ व्यवस्था पढ़ेगा और कौन स्टेटिस्टिक्स. अब उन्होंने स्टेटिस्टिक्स की कुछ बहुत ही आसान सी चीज़ें हमारे सामने रखी. मैं और सतीश खत्री तो खैर हायर सैकेंडरी तक मैथेमैटिक्स के स्टूडेंट रह चुके थे, इसलिए हमने उसी दिन तय कर लिया, कि हम स्टेटिस्टिक्स ही पढेंगे, लेकिन जिस तरह से बहुत आसान आसान सवाल उन्होंने क्लास के सामने रखे थे, ज़्यादातर लोगों ने सोचा, अगर इतना आसान है ये सब्जेक्ट, तो क्यों न इसे ही लिया जाय और कुछ अच्छे मार्क्स स्कोर किये जाएँ. क्लास के बाद एक फेल हुए लड़के ने खड़े होकर कहा “भाइयो, आप इन प्रोफ़ेसर साहब के झांसे में मत आना. अगले १५ दिन तक ये ऐसे ही आसान आसान सवाल करवाएंगे. जब सब्जेक्ट बदलने की आख़िरी तारीख निकल जायेगी, तो ये स्टेटिस्टिक्स का और अपना, असली रूप दिखाएँगे. तब आप घबराएंगे और घबरा कर इनसे ट्यूशन पढेंगे. पिछले सालों का इनका रिकॉर्ड रहा है कि क्लास के, ९०% लोग इनसे ट्यूशन पढते हैं. कुछ लोग घबराए, लेकिन हम तीन लोगों, मैं, सतीश खत्री और हिम्मत सिंह, हम तीनों ने पहले ही दिन तय कर लिया, कि हम तो स्टेटिस्टिक्स ही पढेंगे.
कुछ दिन हो गए थे कॉलेज जाते हुए. धीरे धीरे एक ग्रुप बनता जा रहा था क्लास में, जिसमे हम आठ लड़के थे. मैं, मोहन शर्मा, महावीर शर्मा, हिम्मत सिंह, गणेश उर्फ राजू भठेजा, अशोक बंसल, सतीश खत्री और हरि कृष्ण मुंजाल. अपने आप को सबसे अलग दिखाने के लिए, या पता नहीं किस खब्त के कारण, जब क्लास में हाजिरी ली जाती थी, तो हम आठों लोग येस सर या यस मै’म की बजाय, हरि ओम सर, या हरि ओम मै’म बोला करते थे, इसलिए हमारे ग्रुप का नाम, हरि ओम ग्रुप पड गया. हमारी पढाई लिखाई ठीक चल रही थी. हमारे ग्रुप में हम तीन लोगों के पास दर्शन शास्त्र था. गुरुदेव श्री शिव जी जोशी, कॉलेज के साथ साथ मुझे फर्स्ट ईयर का कोर्स करवाने के लिए, घर पर भी नियमित रूप से पढ़ा रहे थे. एक दिन मैं उनके घर पहुंचा तो वो एक कैमरा लिए हुए बैठे थे. मेरा कैमरे के प्रति लगाव तो उस वक्त से था, जब हम लोग चूनावढ में रहते थे और पिताजी के दफ्तर में मुझे आकर्षित करने वाली तीन चीज़ें हुआ करती थीं. ग्रामोफोन और रेडियो तो मुझे छूने को मिल जाते थे, लेकिन कैमरा छूने की मुझे इजाज़त नहीं थी. यहाँ गुरुदेव के पास कैमरा देखते ही मेरी आँखों में चमक आ गयी, जिसे गुरुदेव ने महसूस कर लिया. फ़ौरन उन्होंने पूछा, “क्या बात है महेंदर...... तुम्हें भी शौक़ है क्या फोटोग्राफी का?”
मैंने कहा, “गुरुदेव मुझे भी शौक़ है, ये तो तब कहूँ, जब मैंने कभी कैमरा हाथ में लिया हो! हाँ ये कह सकता हूँ, कि मुझे भी बहुत अच्छा लगता है, ये सोचकर ही कि मैं फोटोग्राफी करूं.”

गुरुदेव हँसे और बोले, “बस इतनी सी बात? लो ये लो छुओ इसे आराम से छुओ और जो कुछ भी जानना चाहते हो इसके बारे में, पूछो मुझसे. मैं बताऊंगा तुम्हे.”
उस रोज मैंने कायदे से कैमरे को अपने हाथ में लेकर छुआ और कई सवाल गुरुदेव से पूछ डाले. गुरुदेव ने मेरे सारे सवालों के जवाब दिए और उस रोज हमने सिर्फ कैमरे का दर्शन ही पढ़ा. ये कैमरे का दर्शन, आगे जाकर मेरे कैसे काम आया और इसकी वजह से, किस हद तक मेरी एक फोटोग्राफर के तौर पर पहचान बनी, ये अलग बात है लेकिन मुझे महसूस हो गया, कि मुझे फोटोग्राफी के रोग ने जकड लिया है.
इधर हमारे पूजनीय गुरुदेव पालीवाल साहब ने, पन्द्रह दिन बाद ही अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया. जब सब्जेक्ट बदलने की आख़िरी तारीख निकल गयी, तो वो क्लास में शेर की तरह दहाड़ने लगे. न जाने कहाँ कहाँ से, मुश्किल से मुश्किल सवाल लाकर क्लास के सामने रख देते. अब पूरी क्लास बौखलाने लगी. मैं , सतीश और हिम्मत..... हम तीनों चुपचाप तमाशा देख रहे थे, क्योंकि जो सवाल पूरी क्लास के लिए बहुत मुश्किल थे, हम तीनों पास पास में बैठे चुटकियों में उन्हें हल कर रहे थे. पूरे क्लास में जब त्राहि मच गयी तो मैं , सतीश और हिम्मत हम तीनो ने तय किया, कि गुरुदेव के इस अहंकार को तोड़ा जाय. हम  बारी बारी से बोर्ड पर गए और बड़े आराम और इत्मीनान से, उन सवालों को हमने  हल कर दिया. अब बौखलाने की बारी गुरुदेव पालीवाल साहब की थी. उन्होंने कुछ और मुश्किल सवाल बोर्ड पर लिखे. मैथेमैटिक्स के स्टूडेंट्स होने की वजह से, वो सब भी हमारे लिए बाएं हाथ का खेल था. हमने उन्हें भी हल कर दिया. अब रोज का यही सिलसिला था. खिसियाकर गुरुदेव हम तीनों से कहते, “तुम तीनों बहुत होशियार बनते हो, देखना तुम तीनों स्टेटिस्टिक्स में इस बार फेल हो जाओगे.”

हम लोग यही जवाब देते, “कोई बात नहीं गुरुदेव, हमारे घरवालों को तो हमसे वैसे भी कोइ उम्मीदें नहीं हैं, फेल हो जायेंगे तो फेल ही सही.”
पालीवाल साहब की सारी उम्मीदों पर हम लोग पानी फेर रहे थे. हमने क्लास में खुले आम ये ऐलान कर दिया, कि जिसे भी स्टेटिस्टिक्स में कोई, दिक्कत है, हम उसे मुफ्त में पढायेंगे. वो आधी रात को भी हमारे पास आकर, हमारी मदद ले सकता है. नतीजा ये हुआ, कि उस साल पालीवाल साहब के घर ट्यूशन पढ़ने वालों का आंकड़ा दो तीन से आगे नहीं बढ़ा.  पालीवाल साहब ने तो हम तीनों के स्टेटिस्टिक्स में फेल होने की भविष्यवाणी कर रखी थी, लेकिन जब रिज़ल्ट आया, तो हम तीनों ट्रू कॉपी करवाने के बहाने, अपनी मार्क्स शीट पालीवाल साहब के पास लेकर गए. स्टेटिस्टिक्स में हम तीनों के बिलकुल बराबर, सौ में से ९१-९१ नंबर आये थे. नंबर देखकर पालीवाल साहब बोले, “शाबाश..... भई गुरु को थोड़ी डांट फटकार तो करनी ही पड़ती है, लेकिन मुझे पता था तुम लोग अच्छे नंबर लेकर आओगे.” आज गुरुदेव पालीवाल साहब इस दुनिया में नहीं हैं, हमने जोश जोश में उनका अहंकार ज़रूर तोड़ा, लेकिन अब भी जब कभी हम तीनों मिल बैठते हैं, उन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ याद करते हैं.
आकाशवाणी के उद्घोषक पद के ऑफर को ठुकराने के कुछ महीने बाद, नाटक के स्वर परीक्षण का परिणाम आ गया था. कुछ लोग स्टाफ के पास हुए थे और स्टाफ के अलावा, सिर्फ तीन या चार लोग पास हुए थे. उन पास होने वालों में, मैं भी एक था. पास होने का पत्र मेरे पास आकाशवाणी, जयपुर से आया, तो मैं रथखाने में बने आकाशवाणी, बीकानेर के दफ्तर में गया और वहाँ के लोगों से पूछा, कि मुझे अब क्या करना है? मुझे बताया गया कि मुझे कुछ नहीं करना. जब भी आकाशवाणी, बीकानेर पर नाटक या कोई और कार्यक्रम रिकॉर्ड होगा, तो मुझे बुला लिया जायेगा. इधर १९७१ का भारत-पाक युद्ध शुरू हो चुका था, इसलिए सिवा युद्ध से जुड़े प्रोग्राम्स के, बाकी सारे प्रोग्राम मंसूख कर दिए गए थे. गणपत लाल डांगी जी का “लड़ै सूरमा आज जी” १९६५ की तरह ही, फिर शुरू हो गया था. शाम को जैसे ही इस प्रोग्राम के शुरू होने का वक्त होता, हर इंसान घर पहुँचने की कोशिश करता ताकि इसे सुनकर उस दिन जंग में क्या क्या हुआ, इसकी तफसील पता लग सके और अगर कोई घर नहीं पहुँच पाता, तो बाज़ार में किसी पान की दुकान पर या फिर चाय की दुकान पर खड़े होकर इस प्रोग्राम को सुनता.

ब्लैक आउट चल रहा था. शाम होते होते शहर में हर तरफ अन्धेरा पसर जाता था और पता नहीं इंसान की क्या फितरत होती है, कि उसका दिमाग कुछ बातों को अनजाने में एक दूसरे से जोड़ लेता है. उस अँधेरे में कोई किसी से बात शुरू करता तो, सामने वाला फुसफुसाकर जवाब देता और उनकी बातचीत बहुत ही धीमी आवाज़ में होने लगती. फिर दोनों को ही ध्यान आता, कि रोशनी करने की मनाही है क्योंकि आसमान में शहर के ऊपर से होकर गुजरने वाले जहाज़ों को रोशनी देखकर पता लग सकता है, कि यहाँ शहर है. जोर से चाहे कितना भी बोलो, उन हवाई जहाज़ों तक इंसान की आवाज़ हरगिज़ नहीं पहुँच सकती.
राजस्थान की पूरी सरहद पर लड़ाई ज़ोरों से चल रही थी. जैसलमेर, जोधपुर, श्रीगंगानगर और बीकानेर इस लड़ाई के सबसे करीब थे. मैं जोधपुर से बीकानेर लौट आया था, क्योंकि भाई साहब का कहना था, उनके साथ तो वहाँ स्टाफ के कई लोग हैं, लेकिन बीकानेर में माँ और पिताजी अकेले हैं और माँ की तबियत भी ठीक नहीं रहती. ऐसे में उन्हें मेरी कभी भी ज़रूरत पड सकती है. बीकानेर आकर देखा, कि पूरा शहर छावनी में बदल गया था. बीकानेर के नाल हवाई अड्डे से हवाई जहाज़ उड़ान भरते थे और पाकिस्तान पर बमबारी कर अमृतसर हवाई अड्डे पर उतर जाते थे. इसी तरह, जो हवाई जहाज़ अमृतसर से उड़ान भरते थे, वो पाकिस्तान पर बमबारी कर, नाल हवाई अड्डे पर लैंड करते थे.

बीकानेर शहर की कुछ खासियतें हैं, जो आपको इस रूप में शायद कहीं नहीं मिलेंगी. वहाँ का एक अत्यंत प्रचलित शब्द है, “ गोधा ” जिसका अर्थ होता है, सांड. ये नाम सुनते ही, वहाँ के हर इंसान की आँखें चमक उठेंगी.आप वहाँ के किसी भी व्यस्त से व्यस्त बाज़ार में लोगों को खड़े होकर, बड़ी तन्मयता के साथ दो गोधों की लड़ाई देखते हुए पायेंगे और अच्छे अच्छे पढ़े लिखे लोगों को, डुर्रे डुर्रे कहकर उन्हें लड़ाते हुए पायेंगे. बीकानेर और बनारस दोनों शहरों की राशि एक ही है. शायद इसीलिये दोनों के बीच १५०० किलोमीटर की दूरी होने के बावजूद, दोनों में कई गज़ब की समानताएं है. दोनों जगह के लोग खाने के बहुत शौक़ीन होते हैं, दोनों जगह के लोगों को भंग, पान, तम्बाकू और मिठाई बहुत प्रिय हैं, दोनों जगह छोटी छोटी गलियों के बीच बीच में चौक होते हैं, लोग रात रात भर चौक में रखे हुए बड़े बड़े तख़्त या पाटों पर बैठे ताश, शतरंज या चौसर खेलते रहते हैं और दोनों ही जगह के लोगों को सांड या गोधों के प्रति, अजीब सा मोह है.एक साहब को मैं जानता हूँ. वो पता नहीं कितने बरसों से, हर रोज रात में दस बजे घर से निकलते हैं. रास्ते भर गोधों को खाना खिलाते हुए, रात बारह बजे पब्लिक पार्क में खूब खाने का सामान लेकर पहुँचते हैं और उस वक्त तक शहर के बाकी बचे गोधे, वहाँ आकर उनका इंतज़ार करते हैं. वो आकर किसी को रामू के नाम से और किसी को श्यामू के नाम से पुकारते हैं और बड़े लाड के साथ, उन्हें खाना खिलाते है. साथ ही उनके थैले में मरहम के ट्यूब्स और पट्टियां होती हैं. ज़ख़्मी गोधे खुद चलकर उनके पास आ जाते हैं और वो उन गोधों को प्यार से गालियाँ निकालते हुए, दूसरे गोधों से लड़ने के लिए डांटते हुए, उनकी मरहम पट्टी करते हैं और उसके बाद रात डेढ़ दो बजे तक, वापस अपने घर पहुँचते हैं. इसी तरह कुछ लोगों का शगल आप पायेंगे, कुत्तों को रोटी देना और कुछ लोग ढूंढ ढूंढ कर भिखारियों, पागलों को खाना खिलाकर ही अपनी दिनचर्या शुरू करते है. उन दिनों भी बीकानेर के लोगों का मिज़ाज, कुछ इसी तरह का हुआ करता था. के ई एम् रोड वहाँ की सबसे बिजी सड़क हुआ करती थी. लोगों ने देखा, कि एक आदमी फटे पुराने कपड़ों में सड़क के किनारे पड़ा हुआ है. उसे देखने से लग रहा था, कि वो कई महीनों से नहाया नहीं है. उसमे से बहुत बदबू आ रही थी और उसके मुंह से लार टपक रही थी . कुछ लोगों ने उसे उठाकर हस्पताल पहुंचाया, जहां डॉक्टर ने बताया, कि इसका पेट बिलकुल खाली है. शायद इसने पिछले कई दिन से खाना नहीं खाया है. जो लोग उसे हस्पताल ले गए थे उन्होंने खाना मंगवाया. डॉक्टरों ने कहा, बस आप इसे बाहर लेजाकर खाना खिला दीजिए, ये ठीक हो जाएगा, इसके अलावा इसे और कुछ नहीं हुआ है. उसे बाहर लाया गया और खाना उसके सामने रख दिया गया. उसने सामने रखी रोटियों में से एक रोटी उठायी और पास बैठे एक कुत्ते की ओर बढ़ा दी. कुत्ते ने अपने दांतों से रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा और वो आदमी तालियाँ पीट पीट कर हँसने लगा और उसके बाद उसी रोटी से ठीक उसी तरह अपने दांतों से एक टुकड़ा तोड़कर खा लिया और फिर रोटी कुत्ते के आगे बढ़ा दी. अब आस पास कई कुत्ते इकट्ठे हो गए और उसने सबके साथ मिल बाँट कर रोटियां खाईं. अब लोगों ने समझ लिया कि ये पागल है. सब लोग उसे वहीं छोड़कर चल दिए. अब वो अक्सर के ई एम् रोड पर नज़र आने लगा. लोग उसे रोज रोटियां सब्जी लाकर देते थे. वो कभी कुत्तों को खिला देता कभी गाय को और कभी कुछ हिस्सा खुद भी खा लेता. खाने तक तो ठीक था लेकिन कई लोगों ने उसे पानी पिलाने की कोशिश की, कभी कप में कभी कांच के ग्लास में लेकिन वो किसी के हाथ से लेकर पानी नहीं पीता था. पानी सिर्फ और सिर्फ सड़क के दोनों ओर बनी गंदे पानी की नालियों में, कुत्ते की तरह सीधा मुंह लगाकर ही पिया करता. एक उसकी आदत थी, कि वो सड़क पर बैठा हुआ अपना दाहिना हाथ गोल गोल घुमाता रहता रहता था और बोलता रहता था, “ डायना...... डायना.....” लोग उसे डायना के नाम से ही जानने लगे थे. उसकी एक खासियत और थी. उसने कभी किसी पर हाथ नहीं उठाया. किसी को कभी नुकसान नहीं पहुंचाया. वो तो बस बैठा बैठा “डायना डायना’ कहता रहता था और जानवरों के उस झुण्ड को प्यार करता रहता था, जो हर रोज खाना मिलने की वजह से उसे घेरे रहते.

उसके बारे में तरह तरह की बातें फैलने लगी थीं. कोई कहता ये कोई शापित आत्मा है , कोई कहता ये साधु है, कोई कहता अवतार है. लोग उसे देखने आने लगे. कई लोग अपने बच्चों को उसके पास लाने लगे. वो कभी तो सबसे बेनियाज़, अपनी धुन में डायना डायना करता रहता, कभी हलके से मुस्कुरा देता, तो कभी हाथ जोड़ देता. लेकिन कभी कभी न जाने किस धुन में, वो पास आने वाले पर थूक देता था. न जाने कैसे ये मशहूर हो गया, कि वो जिस की तरफ भी थूक देता है, उसकी गंभीर से गंभीर बीमारी कट जाती है. लोग अपने बीमार बच्चों को उसके पास लाने लगे और कोशिश करने लगे, कि वो उन पर थूके...... कई बार जब वो नहीं थूकता था, तो लोग उस पर पत्थर फेंकते थे, ताकि वो उनके बच्चों पर थूके. मगर वो ठहरा पागल इंसान, नहीं थूकना होता तो नहीं ही थूकता, चाहे उसपर कितने भी पत्थर फ़ेंक दो. लेकिन उसने कभी भी कोई पत्थर उठा कर, वापस किसी की ओर नहीं फेंका. कई बार पत्थर लगने से ज़ख़्मी हो जाता था, तो जोर जोर से डायना डायना चिल्लाने लगता था, लेकिन किसी को चोट पहुँचाने की कोई हरकत कभी नहीं करता.

इधर बांग्ला देश में हजारों लोगों को क़त्ल करने के बाद, पाकिस्तान की फ़ौज की हालत दिनोदिन बिगड रही थी. हिन्दुस्तान की मदद से उठ खड़े हुए मुक्तिबाहिनी के जवान, अपने मुल्क को आज़ाद करने की जंग में, अपनी जान की कुर्बानियां दे रहे थे...... पूरा साऊथ एशिया इस आग में जल रहा था.
पाकिस्तान में याह्या खान कमज़ोर हो रहे थे और जुल्फिकार अली भुट्टो की ताकत बढ़ती जा रही थी. जुल्फिकार अली भुट्टो ने यूनाइटेड नेशंस की सेक्युरिटी काउन्सिल में चिल्ला चिल्ला कर कहा, ये उनके मुल्क के खिलाफ किसी एक मुल्क की जंग नहीं है, बल्कि ये एक साज़िश है, उनके मुल्क के दो टुकड़े करने की. भारत के विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह की मौजूदगी में, भुट्टो ने यूनाइटेड नेशन के कागजों के टुकड़े टुकड़े करते हुए कहा, “ इस अज़ीम कहे जाने वाले इदारे में हमारे रहने का कोई मतलब नहीं है. मेरे ११ साल के बेटे ने मुझे फोन करके कहा है, कि आप लोग नाकारा हैं, यूनाइटेड नेशन का ये फैसला लेकर आप लोग वापस मत आना. हम जा रहे हैं और अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगे. आप जो लोग यहाँ बैठे हुए हैं, अपनी अपनी सीटों को संभालकर बैठिये, पाकिस्तान अब अपनी लड़ाई खुद लड़ेगा.”

और जुल्फिकार अली भुट्टो वहाँ से अपने साथियों के साथ उठकर चले आये. वो बेचारे कहाँ जानते थे, कि अपने देश के लिए यूनाइटेड नेशंस के खिलाफ इतना कड़वा बोलने के बाद, जब वो वापस अपने मुल्क लौटकर आयेंगे तो वही मुल्क एक दिन उनको फांसी पर लटका देगा.

१६ दिसंबर को जनरल नियाजी को अपने ७५ हज़ार फौजियों के साथ, भारत के जनरल अरोड़ा के सामने हथियार डालने पड़े. उन सारे फौजियों को हिंदुस्तान लाया गया और इलाहाबाद में आर्मी एरिया में युद्धबंदियों के तौर पर रखा गया. मैं जब आकाशवाणी इलाहाबाद में पोस्टेड था, तो उस तीर्थ का दौरा किया, जहां इन सारे युद्धबंदियों को रखा गया था. मेरे साथियों पंडित नर्मदेश्वर उपाध्याय, श्री राजा जुत्शी और कई और साथियों ने बताया, कि किस तरह उन युद्धबंदियों को पूरी सहूलतें देकर वहाँ रखा गया था और हर रोज उनके लिए एक खास प्रोग्राम रिकॉर्ड किया जाता था, जिसमे वो बताते थे अपना नाम, अपना रैंक और फिर अपने घर वालों के लिए मैसेज देते थे, कि वो ठीक हैं खैरियत से हैं. ७५ हज़ार फौजियों, २० हज़ार दूसरे पाकिस्तानियों को पालना, कोई आसान काम नहीं था. उनके खाने पीने पर, उनकी दवा दारु पर इतना खर्च हो रहा था, कि भारत सरकार के लिए वो बहुत भारी पड़ने लगा. हालाँकि पाकिस्तान के तारेक फतह और हसन नासिर कहते हैं, कि इस सबके बावजूद हिन्दुस्तानी फ़ौजी अफसर दुबले पतले काले कलूटे बंगालियों के मुकाबले, अपने जैसे दिखने वाले, सिंधी, पंजाबी और पठान फ़ौजी अफसरों को ज्यादा तवज्जोह देते थे और बढ़िया शराब उन्हें पिलाई जाती थी जिसके दीदार भी उन्हें अपने मुल्क में नहीं हुए थे.
इसी बीच अमेरिका ने अपनी नौसेना के सातवें बेड़े को हिंद महासागर की तरफ कूच करने के हुकुम जारी कर दिए और हिन्दुस्तानी सरकार पर दबाव डाला, कि वो सीज़ फायर का ऐलान कर दे. इंदिरा सरकार जो चाहती थी, वो हो चुका था. बांग्लादेश एक आज़ाद मुल्क के तौर पर दुनिया के नक़्शे पर उभर चुका था. नतीजतन हिन्दुस्तान ने सीज़ फायर का ऐलान कर दिया, लेकिन इस शर्त पर, कि पाकिस्तान के हुक्मरान हिन्दुस्तान आयेंगे और हिन्दुस्तान की शर्तों पर, फिर से कोई लड़ाई न लड़ने के मुहायदे पर दस्तखत करेंगे.
सीज़ फायर हुआ और पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए. पश्चिमी पाकिस्तान बन गया पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान, बांग्ला देश.

इधर एक रोज बीकानेर की पूरी जनता बुरी तरह चौंक पडी, जब उन्हें खबर मिली कि डायना कोई मामूली पागल नहीं था, बल्कि एक बहुत ही ऊंचे दर्जे का पाकिस्तानी जासूस था. वो शख्स, जिसे पूरे बीकानेर ने एक अव्वल दर्जे का फकीर और दरवेश माना था, जिसके पास अपने बच्चों को वो सिर्फ इसलिए लेकर जाते थे, कि वो बस एक बार उन पर थूक दे, वो एक जासूस था. पूरा शहर उमड़ पड़ा. चाहे वो जासूस था, मगर अपने मुल्क का कितना बड़ा खैरख्वाह था, अपने मुल्क के लिए कितनी बड़ी कुर्बानियां करने वाला था. यहाँ तक कि उसने कभी किसी का दिया हुआ पानी नहीं पिया, वो सिर्फ और सिर्फ सड़क के किनारे बहने वाली गंदे पानी की नालियों का पानी पिया करता था....दुश्मन होते हुए भी, वो एक काबिले एहतराम इंसान था, जिसने अपने मुल्क के लिए, अपने मयार को इतना ऊंचा उठाया, कि अपनी खुद की ज़रूरतों, अपनी खुद की पसंद नापसंद को दरकिनार करते हुए, अपने आपको अपने मुल्क के लिए कुर्बान कर दिया. पूरा शहर के ई एम् रोड पर उमड़ आया था, जब पुलिस डायना को गिरफ्तार करके ले जाने को आयी. और वो शख्स भी इतना अज़ीम था, कि जब पुलिस उसे गिरफ्तार करने आयी, उसने सारे नाटक बंद कर दिए और एक आम इंसान की तरह, उनके साथ जीप पर सवार हुआ. सड़क के दोनों तरफ देशभक्त, मुल्कपरस्त लोग इकट्ठे होकर नारे लगा रहे थे “डायना जिंदाबाद....... डायना जिंदाबाद..........” और वो डायना मंद मंद मुस्कुराते हुए, सबकी ओर हाथ जोड़ता हुआ, पुलिस की जीप में सवार हो गया. न तो उस वक्त उसके चेहरे पर कोई हैवानियत थी, न ही वो पागल लग रहा था और न ही कोई खौफ उसके चेहरे पर था. उसने अपने मुल्क के लिए वो सब किया था जो उसे करना चाहिए था और वो इससे पूरी तरह मुतमईन था.
शायद पूरे बीकानेर में किसी ने भी उस शाम खाना नहीं खाया. हर इंसान का दिल डायना के लिए दुखी था और शायद बीकानेर के हर फर्द ने उस शाम डायना के लिए ऊपरवाले से दुआएं की थीं.

मगर उस दिन के बाद बीकानेर के लोगों ने न तो कहीं डायना का नाम सुना, न उन्हें उसकी शक्ल देखनी नसीब हुई........ आज भी उस वक्त के बड़े से बड़े देशभक्त का दिल उस प्यारे दुश्मन को याद करके भर आता है और वो अपने बेटे पोतों को डायना की कुर्बानियों की कहानियां, अपने अपने अंदाज़ में सुनाने लगता है....... मेरी भी सारी दुआएं, तहे दिल से, उस अज़ीम शहीद के लिए.......


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1 comment:

MUKESH RAGHAV said...

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