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वैसे तो मैं जब बी ए में पढ़ रहा था, भाई साहब डॉक्टर बनकर नौकरी लग चुके थे और हर नज़र से एक कामयाब इंसान थे, लिहाज़ा समाज में जिनके भी घरों में शादी के लायक बेटियाँ थीं, वो एक एक कर प्रपोज़ल लेकर आने लगे थे, लेकिन मेरे एम् ए में पहुँचते पहुँचते तो रिश्ते के लिए आनेवालों की लाइन लग गयी. इनमें कई प्रपोज़ल बीकानेर से ही थे और कई बीकानेर से बाहर के. हनुमानगढ़ से आये एक रिश्ते की बात बहुत दिन तक चलती रही. कई बार लगा कि यहाँ बात पक्की हो जायेगी, लेकिन वहाँ बात नहीं बनी. उन दिनों में मेरी दोनों मौसियाँ ज़िंदा थीं. मेरी बड़ी मौसी और उनकी देवरानी लिछम बाई,जो मेरी छोटी मौसी की बेटी थीं, की कोशिशों और सिफारिशों से उनके पड़ोस में रहने वाले श्री सांवर लाल जी की लड़की राजकुमारी मोदी से भाई साहब का रिश्ता तय हुआ और कुछ ही दिनों में बहुत धूमधाम से उनकी शादी हो गयी.
वैसे तो मैं जब बी ए में पढ़ रहा था, भाई साहब डॉक्टर बनकर नौकरी लग चुके थे और हर नज़र से एक कामयाब इंसान थे, लिहाज़ा समाज में जिनके भी घरों में शादी के लायक बेटियाँ थीं, वो एक एक कर प्रपोज़ल लेकर आने लगे थे, लेकिन मेरे एम् ए में पहुँचते पहुँचते तो रिश्ते के लिए आनेवालों की लाइन लग गयी. इनमें कई प्रपोज़ल बीकानेर से ही थे और कई बीकानेर से बाहर के. हनुमानगढ़ से आये एक रिश्ते की बात बहुत दिन तक चलती रही. कई बार लगा कि यहाँ बात पक्की हो जायेगी, लेकिन वहाँ बात नहीं बनी. उन दिनों में मेरी दोनों मौसियाँ ज़िंदा थीं. मेरी बड़ी मौसी और उनकी देवरानी लिछम बाई,जो मेरी छोटी मौसी की बेटी थीं, की कोशिशों और सिफारिशों से उनके पड़ोस में रहने वाले श्री सांवर लाल जी की लड़की राजकुमारी मोदी से भाई साहब का रिश्ता तय हुआ और कुछ ही दिनों में बहुत धूमधाम से उनकी शादी हो गयी.
अब घर में हम चार की जगह ५ लोग हो गए थे. भाई साहब बीकानेर
और नौरंगदेसर के बीच शटल बने हुए थे. मेरी भाभी जी मेरे ही कॉलेज में एम ए
पॉलिटिकल साइंस की स्टूडेंट थीं. नई नई शादी हुई थी, लेकिन जब तक भाभी जी का एम ए
पूरा ना हो जाए, भाई साहब उन्हें बहुत दिन के लिए नौरंगदेसर नहीं ले जा सकते थे.
राजस्थान में एक रिवाज है कि हर लड़की अच्छा दूल्हा मिलने के लिए शिव जी के मंदिर
जाकर १६ सोमवार के व्रत बोलती है. जब शादी हो जाती है, तो उसे वो १६ सोमवार के
व्रत करने होते हैं. मेरी भाभी जी की माँ सा ने भी उनसे ये व्रत बुलवा दिए थे. जब
भाभी जी की शादी भाई साहब से हो गयी तो माँ सा ने भाभी जी से कहा, इतना अच्छा
दूल्हा मिला है, अब १६ सोमवार के व्रत करो. मेरी भाभी जी ठहरीं भूख की बहुत कच्ची.
उन्होंने कभी कोई व्रत किये ही नहीं थे
लेकिन अब तो वो ससुराल में आ चुकी थीं और ये चर्चा भी हर तरफ हो चुकी थी कि
उन्होंने १६ सोमवार के व्रत बोले हुए हैं, तो वो व्रत तो उन्हें करने ही थे. पहले
ही व्रत में शाम होते होते उनकी हालत भूख के मारे खराब हो गयी क्योंकि जब भी वो
भूखी रहती थीं, उन्हें एसिडिटी होने लगती थी और उस एसिडिटी की वजह से उनका पेट
दर्द होने लगता था. मैं और भाई साहब शाम से उनके पास बैठकर उनका मन बहला रहे थे
ताकि वो अपनी भूख को भुलाकर सो सकें लेकिन भूखे पेट भला नींद भी आये तो कैसे आये?
हम तीनों को बैठे बैठे रात के बारह बज गए. अब भाई साहब ने और मैंने भाभी जी को
समझाना शुरू किया कि घड़ी देखिये, घड़ी में १२ बजते ही सोमवार की जगह मंगलवार आ गया
है. व्रत तो सोमवार का था. अब तो आप कुछ खा सकती हैं. वो ना-नुकुर करती रहीं लेकिन
भूख तेज लगी हुई थी और पेट दर्द कर रहा था इसलिए उन्हें हमारी बात माननी पडी. मैं
खामोशी से नीचे किचन में जाकर कुछ खाने का सामान निकाल कर लाया. नई नई दुल्हन थीं,
उन्हें बहुत शर्म आ रही थी, लेकिन फिर भी भाभी जी ने कुछ थोड़ा सा खाया, इस शर्त पर
कि हम इसे एक राज़ रखेंगे. तब जाकर उन्हें नींद आयी.
सोमवार को तो बस एक हफ्ते के बाद ही फिर चले आना था और वो
चला आया. मैंने शाम को दो चपाती ज़्यादा बनवाकर रख दी. सबको यही कहा कि मैं देर तक
पढता हूँ, तो कई बार भूख लग जाती है. आज देर तक पढ़ने का इरादा है, इसलिए दो चपाती
ज़्यादा बनवाई है. किसी ने कोई खास ध्यान नहीं दिया और उस रात हम दोनों भाइयों ने
भाभी जी को १२ बजे बाकायदा खाना खिलाया. एक एक करके १६ सोमवार इस तरह कट गए.
हालांकि हम लोगों को बाद में पता चला कि हमारा ये राज़ माँ पिताजी को पता चल चुका
था, मगर वो यही सोचकर खामोश रहे कि नई नई बहू को एक छोटी सी बात के लिए शर्मिंदगी
क्यों उठानी पड़े.
भाई साहब कभी बीकानेर में रह रहे थे कभी नौरंगदेसर और भाभी
जी अब अक्सर मेरे साथ कॉलेज जाया करती थीं. शादी में भाई साहब को एक राजदूत
मोटरसाइकिल मिला थी. घर में किसी को भी स्कूटर, मोटर साइकिल चलाना नहीं आता था. जब
शादी के दो चार दिन बाद भाई साहब के ससुराल से ये मैसेज आया कि श्रीगंगानगर से
मोटर साइकिल आ चुका है, आप लोग आ कर ले जाएँ तो पिताजी ने हम दोनों से पूछा “आप
लोगों को मोटर साइकिल चलाना आता है?”
भाई साहब ने तो सीधे से मना कर दिया लेकिन जब यही सवाल
मुझसे पूछा गया, तो मैंने पता नहीं किस सनक में कहा “जी हाँ”
पिताजी ने पूछा “कहाँ सीखा?”
मैंने फ़ौरन जवाब दिया “जी एक दोस्त के मोटर साइकिल से.”
दरअसल मैंने कभी किसी दोस्त का स्कूटर या मोटर साइकिल नहीं
चलाया था. हाँ पिताजी के एक दोस्त डॉक्टर इन्द्रजीत सिंह जी के पास एक लम्ब्रेटा
स्कूटर था और एक दो बार मैं उनके स्कूटर पर पीछे की सीट पर बैठा था. मेरी हमेशा से
आदत रही हर चीज़ को गहराई से देखने की. जब भी इन्द्रजीत अंकल के पीछे बैठा, मैंने
देखा कि वो स्कूटर कैसे चला रहे हैं? बस उसी ओब्जर्वेशन के बूते पर मैंने कह दिया
कि मैं मोटर साइकिल चला सकता हूँ, बिलकुल वैसे ही जैसे मैंने इसहाक के अब्बू से कह
दिया था कि मैं तांगा चला सकता हूँ.
पिताजी ने मुझे मोटर साइकिल की चाभी पकड़ा दी. मैं कंपनी गया
और मोटर साइकिल को किक लगाई. वो स्टार्ट हो गया. मैं उसपर सवार हुआ और जिसतरह इन्द्रजीत
अंकल को पहले गीअर में डालते देखा था, मोटर साइकिल को पहले गीअर में डाला, क्लच
धीरे धीरे छोड़ा और वहाँ से निकल आया और मजेदार बात ये है कि उसी शाम मैं बीन्छ्वाल
में भाई साहब और पिताजी को मोटर साइकिल चलाना सिखा रहा था.
भाई साहब की शादी के कुछ ही दिनों बाद मुझे एक इम्तहान देने
जयपुर जाना था. भाई साहब भाभी जी शादी के बाद कहीं घूमने नहीं जा पाए थे. हम लोगों
ने प्रोग्राम बनाया कि हम तीनों तीन चार दिन के लिए जयपुर जायेंगे. उन दिनों दिन
भर में एक ट्रेन जयपुर जाया करती थी और उसमे भी रिज़र्वेशन नाम की कोई चीज़ नहीं हुआ
करती थी. जनरल डिब्बे में रातभर का सफर करना बहुत टेढी खीर थी, खास तौर पर जब साथ
में कोई लेडी हों. राजस्थान रोडवेज़ तब तक वजूद में आ चुका था. हमने रोडवेज़ की बस
से जाने का फैसला किया और एक रोज सुबह सुबह रोडवेज़ के बस स्टैंड जा पहुंचे. बस
जैसे ही आकर लगी हम तीनों उसमे चढ़े. बस में बहुत सवारियां नहीं थीं. हम लोग आगे की
तरफ तीन वाली एक सीट पर बैठ गए. ऊपर बनी हुई जगह पर अपना सामान रख दिया. मैंने बस
पर नज़र दौडाई. हमारे पीछे की दो सीटें खाली थीं और उसके बाद वाली तीन की सीट पर एक
बड़ी उम्र के पगड़ी वाले साहब बैठे हुए थे. उनके बाद फिर एक दो सीटें खाली थीं. फिर
पीछे कुछ लोग बैठे हुए थे.
बस रवाना हुई. उन दिनों न तो आज की तरह चिकनी सड़कें हुआ
करती थीं और न ही आज जैसी २ बाई २ ए सी बसें. बहुत साधारण सी जगह जगह गड्ढों वाली
सड़कें होती थीं और ३ बाई २ खुली खिड़कियों वाली साधारण सी बसें, जो उन गड्ढे वाली
सड़कों पर कूदफांद करती, खड़-खड का शोर मचाती हुई चलती थीं. इस कूदफांद के दो बहुत
खतरनाक असर हुआ करते थे. पहला तो ये कि बस की डीज़ल की टंकी इतनी हिलती थी कि डीज़ल
बाहर छलकने लगता था और दूसरा ये कि अगर आपने कुछ खा रखा है, तो बस की इस कूदफांद
में वो बाहर निकलने को बेताब हो जाया करता था. डीज़ल की गंध से ये बेताबी और भी
शदीद हो जाती थी. इसी लिए उन दिनों लोगों को बस में अक्सर उल्टियां हुआ करती थी.
बस में खिड़की की तरफ भाभी जी बैठी हुई थीं और उनके पास भाई
साहब. चूंकि बस में भीड़ नहीं थी, मैं उनके पास से उठकर कंडक्टर साइड वाली दो की
सीट पर बैठ गया था. बस चलते चलते कोई दो घंटे गुज़रे होंगे. कुछ देर तो भाई साहब
भाभी जी से बातें करते रहे, उसके बाद अपनी आदत के अनुसार झपकी लेने लगे थे. मैं
अपनी सीट पर बैठा जम्हाइयां ले रहा था कि अचानक भाभी जी को एक ज़ोरदार उल्टी हुई,
जो उन्होंने खिड़की में से सर निकालकर भरसक सर को नीचा रखते हुए की, ताकि वो उछल कर
किसी पर ना पड़े, मगर फिर भी मैंने देखा, दो सीट पीछे बैठे पगड़ी धारी साहब खामोशी
से गमछे से अपना मुंह पोंछ रहे थे. मुझे इस बात का अहसास हो गया कि भाभी जी की
उल्टी के कुछ छींटे उनके मुंह पर पड़े हैं. हम तीनों को बहुत बुरा लगा. मैं अपनी
सीट से उठा. हाथ जोड़कर उन साहब के सामने जा खडा हुआ. वो मुस्कुराए और एक खास अंदाज़
में बोले “के बात है बेटा?”(क्या बात है
बेटा?)
मैंने हाथ जोड़े जोड़े हुए ही कहा “हम तीनों माफी चाहते हैं
आपसे...... आपके चेहरे पर उल्टी के छींटे पड़े उसके लिए.”
वो थोड़ा और मुस्कुराए और उसी अंदाज़ में बोले “बलाय जाणै
बेटा, समझ लेऊँ मतीरे गा छांटा पडग्या......”(कोई बात नहीं बेटा, समझ लूंगा कि
तरबूज के रस के छींटे गिरे हैं.)
मैं एकदम चौंका, अरे ये आवाज़ तो बहुत जानी पहचानी है....
मैं हालांकि अब तक रेडियो के लिए कुछ करने तो नहीं लगा था
लेकिन बरसों से रेडियो सुन तो बहुत शौक़ से रहा था और जयपुर रेडियो की करीब करीब
सारी आवाजों को पहचानने लगा था.
मैंने एकदम से उनकी आवाज़ पहचानते हुए कहा “अरे...... चाचा
जी आप.........?”
“हाँ बेटा थारी उमर गे जवानां खातर तो चाचो ही हूँ मैं.”(हाँ
बेटा, तुम्हारी उम्र के जवानों के लिए तो चाचा ही हूँ.)
“नहीं, आप सच सच बताइये, आप रेडियो पर बोलने वाले चाचाजी
हैं न?”
इस बार वो जोर से हँसे और बोले “ हाँ बेटा, सही पहचाना
तुमने, मैं ग्रामीणों के प्रोग्राम में चाचा जी के नाम से बोलता हूँ. वैसे मेरा
नाम सत्यनारायण प्रभाकर ‘अमन’ है. बेटा, तुमने मुझे कैसे पहचाना?”
मैंने नीचे झुककर उनके पाँव छुए और कहा “चाचाजी, वैसे तो
मैं ड्रामा का बहुत शौकीन हूँ, लेकिन बचपन से रेडियो के सारे ही प्रोग्राम सुनता
रहा हूँ. आपका शाम साढे सात बजे जो प्रोग्राम आता है, वो भी अक्सर मैं सुनता रहा
हूँ. आप लोगों की जो खिंचाई करते हैं, उसमे बहुत मज़ा आता है.”
उन्होंने जी भरकर आशीर्वाद दिए और पूछा “बेटा तुम्हारा नाम
क्या है?”
मैंने अपना नाम बताया तो बोले “बेटा एक बात कहूँ?”
“जी चाचाजी.”
“तुम्हारी आवाज़ भी सच पूछो तो रेडियो वाली आवाज़ है. तुम
चाहो तो रेडियो में आ सकते हो.”
“चाचा जी रेडियो ड्रामा का ऑडिशन मैं पास कर चुका हूँ.”
“अरे वाह बेटा, आज इस चाचे की बात सुन लो.... रेडियो में
तुम कोई भी ऑडिशन देकर देखलो, अगर सब कुछ ईमानदारी से होता है तो तुम किसी भी
ऑडिशन में फेल नहीं हो सकते.”
मुझे लगा चाचाजी की ये दुआएं हैं, जो आज मुझे नसीब हो रही
हैं. मैंने भाई साहब भाभी जी को सारी बातें बताईं. उन्होंने भी चाचाजी के पास आकर
उनके पाँव छुए और उनसे आशीर्वाद लिए.
पूरे रास्ते हम चारों बातें करते रहे. इस तरह बातों बातों
में रास्ता कट गया और हम लोग जयपुर पहुँच गए.
जयपुर ठहरा राजस्थान की राजधानी. हर चार छः महीनों में किसी
न किसी काम के लिए अक्सर मुझे जयपुर जाना ही पड़ता था. जब भी जयपुर जाता, मैं चाचा
जी से मिलने आकाशवाणी ज़रूर जाता था.
इस वाकये के करीब ८-९ बरस बाद, जब मैं आल इंडिया रेडियो में
आ चुका था, मेरा तबादला ट्रांसमिशन एक्ज़ेक्यूटिव के तौर पर बीकानेर से सूरतगढ़ हुआ,
तो ये सुनकर बहुत खुश हो गया कि चाचा जी भी जयपुर से अपना तबादला करवाकर सूरतगढ़ आ
चुके हैं. जिस दिन मैंने वहाँ ज्वाइन किया, उसके दूसरे ही दिन हमारे डायरेक्टर श्री उमेश दीक्षित ने, जो मुझसे
काफी खफा थे (क्यों खफा थे और उनकी नाराज़गी कैसे दूर हुई ये मैं आगे के एपिसोड्स
में तफसील से बताऊंगा) मुझे अपने कमरे में बुलाया. मैं उनके कमरे में पहुंचा तो
देखा, चाचाजी वहाँ बैठे हुए हैं. मैंने वहाँ पहुंचकर कहा “जी फरमाएं”
डायरेक्टर साहब बोले “ ये अमन जी हैं हमारे ग्रामीण
प्रोग्राम के कर्ता धर्ता.”
मैंने जवाब दिया “जी”
“ये चाहते हैं कि आप इनके साथ इनके प्रोग्राम में बैठें.
आपको राजस्थानी आती है?”
“जी हाँ..... मैं राजस्थान में ही पैदा हुआ हूँ. यहीं बड़ा
हुआ हूँ.”
“ठीक है, आप इनके साथ जाइए और अपने दूसरे कामों के साथ साथ
जब भी ये कहें इनके साथ प्रोग्राम में बैठिये.”
“जी सर”
ड्रामा, फीचर, म्यूज़िकल फीचर, न्यूज़ रील जैसे कई
प्रोग्राम्स मैं सीख रहा था, मुझे लगा चाचा जी के साथ रहकर गाँव वालों के लिए होने
वाले प्रोग्राम के कुछ गुर भी सीखने को मिल जायेंगे. राजस्थानी तो मुझे आती ही थी.
मैं कमरे से बाहर आ गया और मेरे पीछे पीछे ही चाचा जी भी
बाहर आ गए. इस तरह मैं ग्रामीण प्रोग्राम में चाचाजी के साथ बैठने लगा. उन्होंने
मेरा नामकरण किया “निराण”(नारायण). वो क्या क्या तरीके हैं, जिनसे सुनने वालों के
दिमाग में, आप अपनी एक गाँव वाले की इमेज बना सकते हैं, गांववालों के लिए इंटरव्यू
कैसे किये जाते हैं, किस तरह भारी से भारी बात को हल्के अंदाज़ में रेडियो पर पेश किया
जाता है, गांववालों को किस तरह की बातें पसंद हैं और किस तरह की बातें नापसंद, ये
सब मैंने अपने डेढ़ साल के सूरतगढ़ स्टे के दौरान सीखा. कई बार वो हम प्रोग्राम में
उनके साथ बैठनेवालों की बहुत ज़बरदस्त खिंचाई करते थे.... इस क़दर कि रुला देते थे,
लेकिन वापस हंसाते भी वही थे. और मज़े की बात ये कि वो जितनी हम लोगों की खिंचाई
करते थे, उतने ही ज़्यादा खत सुननेवालों के आते थे. उनकी इस नोकझोंक वाली स्टाइल पर
गाँवों के लोग जान देते थे. वो बख्शते किसी को नहीं थे. एक बार मेरे एक डॉक्टर
दोस्त महेश शर्मा लाइव प्रोग्राम में ‘बच्चों में डायरिया’ विषय पर बातचीत करने
आये. डॉक्टर साहब राजस्थानी में बोल रहे थे “बच्चां ने दूध पिलावण गी बोतल अच्छी
तरह साफ़ करनी चईजे और बाई द वे........”(बच्चों की दूध की बोतल को अच्छी तरह साफ़
करना चाहिए और बाई द वे........) बस डॉक्टर साहब के मुंह से गलती से ये अंग्रेज़ी
के शब्द ‘बाई द वे’ निकले ही थे और चाचा जी ने उन्हें पकड लिया. बोले “के के.......
थे के कैयो दागधर साब.... बाई के देवै?”(क्या क्या...?आपने क्या कहा डॉक्टर साहब
बाई क्या देती है?)
डॉक्टर साहब बेचारे झेंपकर हंस पड़े.
चाचा जी ने तय किया की महीने में एक बार हम अपनी चौपाल किसी
गाँव में जाकर रिकॉर्ड किया करेंगे. मैंने उनसे पूछा, “चाचाजी, मैं पहनूं क्या?
पैंट शर्ट चलेगी?”
चाचा जी मुस्कुरा कर बोले “बेटा तुम्हारा अपना नाम महेंदर
तो अच्छा भला है ना? फिर मैंने चौपाल में तुम्हारा नाम निराण क्यों रखा?”
फिर खुद ही आगे बोले “इसलिए बेटा कि गाँव के लोग तुम्हें
अपने में से ही एक समझे. महेंदर नाम से तुम शहर के कोई बाबू लगते उनको, गाँव के
किसान नहीं.”
मैंने कहा “जी चाचा जी”
“बेटा.....हम सब की बातें सुनकर गाँव वालों ने अपने जेहन में
अपनी अपनी समझ से हमारी तस्वीरें बनाई है लेकिन अपने तजुर्बे से मैं जानता हूँ कि
हर तस्वीर में हमारी पोशाक वही है, जो उनकी खुद की है..... यानि कुर्ता, धोती और
सर पर पगड़ी या साफा. अगर तुम ये शर्ट पैंट पहनकर चलोगे तो उनकी भावनाओं को बहुत
चोट लगेगी क्योंकि उनकी कल्पना में बनी तस्वीर चूर चूर हो जायेगी. इसलिए धोती
कुर्ता ही पहन कर चलना होगा सबको.”
मैंने कहा “जी चाचाजी.... जैसा आपका हुकुम.”
हम लोग कुछ दिन पहले से ही अपने प्रोग्राम में बताने लगते
थे कि अमुक तारीख को हम अमुक गाँव जायेंगे, सारे गाँववालों से मिलेंगे और सबके साथ
बैठकर चौपाल प्रोग्राम रिकॉर्ड करेंगे. जिस गाँव में हम लोग जाते थे, उस गाँव के
ही नहीं आस पास के गाँवों के लोग अपने अपने ट्रैक्टरों पर सवार होकर चाचा जी की एक
झलक देखने को, चौपाल के लिए तय जगह पर उमड़ आया करते थे. भीड़ की कई बार हालत ये हो
जाती थी कि उसे संभालना मुश्किल हो जाता था. चाचा जी से बड़ी उम्र के लोग भी उनके
पैर छूने के लिए बेताब रहते थे. कई बार चाचा जी कहा करते “ अरे काका के करौ हो थे
? थे तो म्हारै ऊं मोटा हो उमर में, क्यूं पाप चढाओ हो मेरे सिर माथे, म्हारे पगां
गै हाथ लगा गे?”(अरे चाचा क्या कर रहे हैं आप?आप तो उम्र में बड़े हैं मुझसे, मेरे
पाँव छूकर क्यों मेरे सर पाप चढ़ा रहे हैं?)
वो बुज़ुर्ग अक्सर जवाब देते “उमर स्यूं के हुवै ? थे चाचा
जी हो तो पगां गे हाथ तो लगाणो ई पड़ैगो.”(उम्र से क्या होता है आप चाचाजी हो तो
आपके पाँव तो छूने ही पड़ेंगे)
यानि महीने में एक बार उस इलाके के किसी एक गाँव में ऑल
इंडिया रेडियो की चौपाल का एक शानदार मेला लगता था जिसमे आस पास के दस पन्द्रह
गाँवों के लोग इकट्ठे होते थे. यहाँ जाकर हमें पता लगता था कि रेडियो में कितनी
ताकत है और हम लोग चौपाल में बैठकर जो बातें करते हैं उन्हें सुनने वाले कितनी
संजीदगी से लेते हैं?
वक्त इसी तरह गुज़रता रहा.
एक दिन चाचाजी मुझसे बोले “अरे निराण..... सुण तो.”
मैंने कहा “जी चाचा जी”
“बेटा अब मेरे रिटायरमैंट में चार पांच साल बचे हैं. इधर
तुम लोगों के तबादले का तो पता ही नहीं कि कब आर्डर आ जाएँ.”
“जी चाचाजी, आप कहिये ना क्या कहना चाहते हैं?”
“बेटा मेरे पास दो बहुत पुरानी चीज़ें हैं, जिन्हें मैं आगे
आने वाली पीढ़ियों को सौंपकर जाना चाहता हूँ. एक है, ‘सिंहासन बत्तीसी’ और दूसरी है
‘हुंकारै बात आछी लागै’
“जी चाचा जी”
“ये छोटा सा स्टेशन है, यहाँ कोई साज़िन्दा तो है नहीं. मैं
चाहता हूँ कि तुम मेरी ये दोनों सीरीज़ रिकॉर्ड कर दो और सिंहासन बत्तीसी में
हारमोनियम बजा दो.”
मैंने कहा “चाचा जी इसमें इतने संकोच की क्या बात है? आपकी
दोनों सीरीज़ रिकॉर्ड कर दूंगा मैं, लेकिन हारमोनियम तो मुझे जैसा टूटा फूटा बजाना
आता है वैसा ही आता है. आप जानते हैं कि मैं उसमें एक्सपर्ट तो हूँ नहीं.”
“मुझे जितना चाहिए, उतना तुम्हें आता है, बस मैं इतना जानता
हूँ.”
मैंने उनसे एक हफ्ते का वक्त माँगा, ताकि हारमोनियम पर थोड़ा
हाथ साफ़ कर सकूं और उसके बाद कुछ महीनों तक हम रोज़ाना ये सीरीज़ रिकॉर्ड करते रहे.
जब ये काम पूरा हुआ तो चाचा जी ने मुझे गले से लगा लिया और आँखों में आंसू भर कर
बोले “बेटा बहुत बड़ा काम किया है तुमने, तुम नहीं समझोगे इसे...... अगर आल इंडिया
रेडियो इसी तरह काम करता रहा तो एक दिन सब याद करेंगे तुम्हारे इस काम को.”
ये काम करके मेरे दिल को भी बहुत सुकून मिला. नहीं जानता कि
आज वो सारी रिकॉर्डिंग आकाशवाणी, सूरतगढ़ के पास है या कई स्टेशन्स की तरह, वहाँ
आये बड़े बड़े सो कॉल्ड क़ाबिल डायरेक्टर्स ने, इस तरह के नायाब और बेशकीमती
प्रोग्राम्स को युववाणी के किसी बच्चे की रिकॉर्डिंग करने के लिए, एक झटके में
बल्क इरेज़र पर रखवाकर इरेज़ करवा डाला है.
१९८६ में उस दिन, मैं आकाशवाणी, इलाहाबाद में दिनभर बहुत
उदास रहा जिसदिन चाचा जी को आकाशवाणी से रिटायर होना था. मैंने उनसे फोन पर बात
करने की बहुत कोशिश की, मेरी टेबल पर दो फोन थे और दोनों में एस टी डी की सहूलियत
थी लेकिन अफ़सोस उस वक्त तक सूरतगढ़ एस टी डी से नहीं जुड़ा था. सिर्फ एक ही रास्ता
था, ट्रंक कॉल, मगर सुबह से लगाया हुआ ट्रंक कॉल शाम तक नहीं मिला तो नहीं ही मिला.
वक्त गुजरते देर कहाँ लगती है? मैं १९९९ में विविध भारती
में आ गया. इस बीच जयपुर जाने का एक आध बार मौक़ा आया मगर चाचा जी का घर जयपुर के
एक किनारे झोटवाड़ा में था, जहां बहुत चाहकर भी मैं नहीं पहुँच पाया.
इस बीच मुम्बई पहुँचने के साथ ही मेरे पास मोबाइल फोन आ
चुका था. सन २००१ में उदयपुर गया हुआ था. मैंने चाचा जी के घर का नंबर ढूंढकर अपने
मोबाइल से मिलाया. उनके बेटे ने बात करवाई. उन दिनों मोबाइल पर बात करना आजकल की
तरह सस्ता नहीं हुआ करता था, और आज की तरह घर बैठे रिचार्ज भी नहीं करवाया जा सकता
था, लेकिन मैं उनसे बात करता रहा......करता रहा, यहाँ तक कि उस रोज चाचाजी से बात
करने में उस फोन में जितना भी बैलेंस था, वो पूरा का पूरा खर्च हो गया. जैसे ही
बैलेंस खत्म हुआ, फोन कट गया. जो बात हम कर रहे थे, वो बीच में ही रह गयी.........मैं
उन्हें फोन कटते वक्त प्रणाम भी नहीं कर पाया.
मैं मुम्बई आ गया. मैंने सोचा, जल्दी ही मैं उन्हें फोन
करके बात करूँगा और उस रोज छूटा हुआ प्रणाम भी करूँगा, लेकिन अफ़सोस........ ऊपरवाले ने मुझे इसका मौक़ा नहीं दिया
और.............कुछ ही दिन बाद जयपुर से मेरे दोस्त बोहरा जी ने, जो सूरतगढ़ में हमारे
साथ कई बार ग्रामीण प्रोग्राम में शामिल हुआ करते थे, मुझे फोन पर ये बुरी खबर
सुनाई “भाई साहब.....अपने चाचा जी नहीं रहे.”
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