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बी ए सेकण्ड ईयर का रिज़ल्ट आ गया था. मैं बी ए फाइनल में आ गया था. कॉलेज खुलने में कुछ रोज बाकी थे. कुछ ही वक्त बाद बारिशें भी आने वाली थीं. वैसे तो अगर नहर का पानी उपलब्ध हो तो फसलें थोड़ी आगे पीछे भी ली जा सकती हैं, लेकिन खरीफ की फसलों को बोने के वक्त मौसम थोड़ा नम और गरम होना चाहिए और काटने के वक्त सूखा. इन फसलों में धान, ज्वार, बाजरा, मौठ, मूंग, गन्ना आदि बोई जा सकती है. नहर में पानी तो भरपूर था लेकिन ज़मीन पर पसरी हुई रेत सदियों से प्यासी थी और धान जैसी फसल को खेत में खडा पानी चाहिए और गन्ने को भी काफी पानी चाहिए. नहर का मिज़ाज आगे जाकर कैसा रहेगा, इस बारे में हम लोग कुछ नहीं जानते थे इसलिए फैसला लिया गया कि रेगिस्तान में होने वाली फसलें यानि ज्वार, बाजरा, मौठ, मूंग ही बोई जाएँ. इनकी बुवाई का मौसम आ चुका था. मुझे एक बार फिर कमर कसनी पडी क्योंकि बुवाई के लिए ट्रैक्टर्स किराए पर लेने थे, ज़मीन को हमवार करने के लिए और पानी लगाने के लिए मजदूर लगाने थे. मैं और काशीराम मामा जी एक बार फिर चल पड़े रेगिस्तान के साँपों से और पीवणों से मुलाकात करने. जो झोंपड़े आरजी तौर पर बनाए गए थे, वो सब आँधियों की नज्र हो चुके थे. लिहाजा अनूपगढ़ से कुछ खाटें, बल्लियाँ और दीगर सामान खरीद कर लाया गया और दो झोंपड़े खड़े किये गए और खुले मैदान में तीन मचान मैंने मामा जी के मना करने के बावजूद बनवाए. उन्होंने कहा “बेटा इस तरह मचानों पर चढ़कर खेती नहीं हो सकती.” लेकिन मेरे दिमाग में पीवणे से बचने का यही रास्ता आया. बाकी साँपों से तो जागते में मुलाक़ात होगी, तो इंसान सावचेत रह सकता है, लेकिन जो दुश्मन रात को सोते में हमला करता है, उससे निपटने का रास्ता तो यही है कि वो हम तक पहुँच ही न सके. चार चार बल्लियों को खडा करके उनपर खाटें मजबूती से बाँध दी गईं. ज़मीन से करीब ८-९ फीट ऊंची बंधी हुई खाट पर चढ़ने के लिए रस्सी का सहारा लिया जाता था, जिसे ऊपर चढ़ने के बाद ऊपर खींच लिया जाता था. हमने अपनी तरफ से हिफाज़त का पूरा इंतजाम कर लिया था और अब हम जुट गए थे, रेत के टीलों को पाटकर ज़मीन को बराबर करने में. रेत के टीलों पर बीच बीच में फोग, सिणिया, आक, डोके और कहीं कहीं कैर जैसे ज़ीरोफाइट्स की रेगिस्तानी झाडियाँ उगी हुई थीं, जिनके बारे में मैं कॉलेज के एक साल के साइंस बायो के कोर्स में पढ़ चुका था. उस वक्त मुझे ये कहाँ पता था कि इन झाडियों से इतनी जल्दी सामना होने वाला है. फोग की झाडियों को तो हम काटकर सूखने के लिए डाल देते थे क्योंकि वो खाना बनाने के लिए ईंधन के तौर पर इस्तेमाल की जा सकती थी. डोके और सिनिये झोंपड़े बनाने के काम आते थे. आक किसी काम नहीं आता था लेकिन सबसे बड़ा मसला था, इन सबको उखाडकर ज़मीन को खाली करना . एक एक झाडी पर जब कस्सी चलाई जाती थी तो दर्ज़नों सांप फूं फूं करके अपनी गर्दनें ज़मीन से बाहर निकाल लेते थे. सदियों से बसे हुए उन बाशिंदों की जगह पर इंसान ने हमला बोला था. खेत में काम करने वाले ज़्यादातर मजदूर पंजाबी थे. पहले ही दिन जब कुछ बूजे(झाडियाँ) उखाडे गए और एक मजदूर कस्सी पर कुछ लादे मेरी तरफ आया तो मैंने उससे पूछा “की ल्याया प्राह?”(क्या लाया भाई?) उसने हँसते हुए जवाब दिया “कोज नईं जी बेली हैंगे”(कुछ नहीं जी दोस्त हैं अपने). हालांकि मैं हमेशा से सांप को मारने के खिलाफ रहा, लेकिन उस वक्त जब मेरे मजदूर थोड़ी थोड़ी देर में कस्सी पर दर्ज़नों मरे हुए सांप लटका कर लाते थे, तो सिवाय दुखी होने के मैं कुछ नहीं कर सकता था, क्योंकि दो दुश्मन जब आमने सामने हों तो फिर जिसे मौक़ा मिल गया, वही वार कर देगा. मजदूर अक्सर बताते थे, साब.... कस्सी चलाने में एक सेकंड की देर हो जाती तो आज मुझे काट जाता ये काला बेली. मैं जानता था कि जब फसलें खडी होंगी और चूहे उन फसलों को नुक्सान पहुंचाएंगे, तो यही सांप होंगे जो उन चूहों का खात्मा करके, वास्तव में हमारे बेली या दोस्त साबित होंगे मगर उस वक्त तो सवाल था वजूद का. अगर हम उन्हें नहीं मारते हैं, तो हमारा वजूद खत्म हो जाएगा क्योंकि वो हमें काट खायेंगे इसलिए मजबूरन उनके वजूद को खत्म करना पड रहा था.
बी ए सेकण्ड ईयर का रिज़ल्ट आ गया था. मैं बी ए फाइनल में आ गया था. कॉलेज खुलने में कुछ रोज बाकी थे. कुछ ही वक्त बाद बारिशें भी आने वाली थीं. वैसे तो अगर नहर का पानी उपलब्ध हो तो फसलें थोड़ी आगे पीछे भी ली जा सकती हैं, लेकिन खरीफ की फसलों को बोने के वक्त मौसम थोड़ा नम और गरम होना चाहिए और काटने के वक्त सूखा. इन फसलों में धान, ज्वार, बाजरा, मौठ, मूंग, गन्ना आदि बोई जा सकती है. नहर में पानी तो भरपूर था लेकिन ज़मीन पर पसरी हुई रेत सदियों से प्यासी थी और धान जैसी फसल को खेत में खडा पानी चाहिए और गन्ने को भी काफी पानी चाहिए. नहर का मिज़ाज आगे जाकर कैसा रहेगा, इस बारे में हम लोग कुछ नहीं जानते थे इसलिए फैसला लिया गया कि रेगिस्तान में होने वाली फसलें यानि ज्वार, बाजरा, मौठ, मूंग ही बोई जाएँ. इनकी बुवाई का मौसम आ चुका था. मुझे एक बार फिर कमर कसनी पडी क्योंकि बुवाई के लिए ट्रैक्टर्स किराए पर लेने थे, ज़मीन को हमवार करने के लिए और पानी लगाने के लिए मजदूर लगाने थे. मैं और काशीराम मामा जी एक बार फिर चल पड़े रेगिस्तान के साँपों से और पीवणों से मुलाकात करने. जो झोंपड़े आरजी तौर पर बनाए गए थे, वो सब आँधियों की नज्र हो चुके थे. लिहाजा अनूपगढ़ से कुछ खाटें, बल्लियाँ और दीगर सामान खरीद कर लाया गया और दो झोंपड़े खड़े किये गए और खुले मैदान में तीन मचान मैंने मामा जी के मना करने के बावजूद बनवाए. उन्होंने कहा “बेटा इस तरह मचानों पर चढ़कर खेती नहीं हो सकती.” लेकिन मेरे दिमाग में पीवणे से बचने का यही रास्ता आया. बाकी साँपों से तो जागते में मुलाक़ात होगी, तो इंसान सावचेत रह सकता है, लेकिन जो दुश्मन रात को सोते में हमला करता है, उससे निपटने का रास्ता तो यही है कि वो हम तक पहुँच ही न सके. चार चार बल्लियों को खडा करके उनपर खाटें मजबूती से बाँध दी गईं. ज़मीन से करीब ८-९ फीट ऊंची बंधी हुई खाट पर चढ़ने के लिए रस्सी का सहारा लिया जाता था, जिसे ऊपर चढ़ने के बाद ऊपर खींच लिया जाता था. हमने अपनी तरफ से हिफाज़त का पूरा इंतजाम कर लिया था और अब हम जुट गए थे, रेत के टीलों को पाटकर ज़मीन को बराबर करने में. रेत के टीलों पर बीच बीच में फोग, सिणिया, आक, डोके और कहीं कहीं कैर जैसे ज़ीरोफाइट्स की रेगिस्तानी झाडियाँ उगी हुई थीं, जिनके बारे में मैं कॉलेज के एक साल के साइंस बायो के कोर्स में पढ़ चुका था. उस वक्त मुझे ये कहाँ पता था कि इन झाडियों से इतनी जल्दी सामना होने वाला है. फोग की झाडियों को तो हम काटकर सूखने के लिए डाल देते थे क्योंकि वो खाना बनाने के लिए ईंधन के तौर पर इस्तेमाल की जा सकती थी. डोके और सिनिये झोंपड़े बनाने के काम आते थे. आक किसी काम नहीं आता था लेकिन सबसे बड़ा मसला था, इन सबको उखाडकर ज़मीन को खाली करना . एक एक झाडी पर जब कस्सी चलाई जाती थी तो दर्ज़नों सांप फूं फूं करके अपनी गर्दनें ज़मीन से बाहर निकाल लेते थे. सदियों से बसे हुए उन बाशिंदों की जगह पर इंसान ने हमला बोला था. खेत में काम करने वाले ज़्यादातर मजदूर पंजाबी थे. पहले ही दिन जब कुछ बूजे(झाडियाँ) उखाडे गए और एक मजदूर कस्सी पर कुछ लादे मेरी तरफ आया तो मैंने उससे पूछा “की ल्याया प्राह?”(क्या लाया भाई?) उसने हँसते हुए जवाब दिया “कोज नईं जी बेली हैंगे”(कुछ नहीं जी दोस्त हैं अपने). हालांकि मैं हमेशा से सांप को मारने के खिलाफ रहा, लेकिन उस वक्त जब मेरे मजदूर थोड़ी थोड़ी देर में कस्सी पर दर्ज़नों मरे हुए सांप लटका कर लाते थे, तो सिवाय दुखी होने के मैं कुछ नहीं कर सकता था, क्योंकि दो दुश्मन जब आमने सामने हों तो फिर जिसे मौक़ा मिल गया, वही वार कर देगा. मजदूर अक्सर बताते थे, साब.... कस्सी चलाने में एक सेकंड की देर हो जाती तो आज मुझे काट जाता ये काला बेली. मैं जानता था कि जब फसलें खडी होंगी और चूहे उन फसलों को नुक्सान पहुंचाएंगे, तो यही सांप होंगे जो उन चूहों का खात्मा करके, वास्तव में हमारे बेली या दोस्त साबित होंगे मगर उस वक्त तो सवाल था वजूद का. अगर हम उन्हें नहीं मारते हैं, तो हमारा वजूद खत्म हो जाएगा क्योंकि वो हमें काट खायेंगे इसलिए मजबूरन उनके वजूद को खत्म करना पड रहा था.
खाना वहीं झोंपड़े के एक किनारे एक मजदूर बना कर खिलाया करता
था. कभी कभी रेत में उगी हुई खुंभी (जंगली मशरूम) मिल जाती थी, कभी कोई मजदूर
फोफलिया(सुखाये हुए टिंडे) या कुम्मट(एक रेगिस्तानी झाडी की फलियों के सूखे हुए
बीज) आस पास की किसी जगह से ले आता, यही सब्जियां बनती थी और जब इनमे से कुछ भी
नहीं होता तो फिर वही मोटे भुजिया का साग, आलू या फिर दाल. घी आस पास के गाँवों से
मिल जाता था, तो चुपड़ी रोटी भी मयस्सर हो जाती थी, वरना मोटी मोटी रूखी रोटिया. ये
सच है कि खेत आने से बिलकुल पहले मैं पावभर घी रोजाना खा रहा था और अब ज़्यादातर
रूखी रोटियां नसीब हो रही थी, लेकिन ईमानदारी से कह सकता हूँ कि दिन भर खेत में
मेहनत करने के बाद मिली वो रूखी रोटियां और दाल बीकानेर में रूटीन में पाव भर घी
के साथ खाए जा रहे खाने से कम लज़ीज़ नहीं लगती थी.
हालांकि हमने सोने के लिए मचान का इंतजाम कर लिया था इसलिए
पीवणे का डर बहुत कम हो गया था, लेकिन उस जंगल में सिर्फ पीवणे ही नहीं थे. वो पता
नहीं कितनी तरह के जानवरों का आशियाना था, जिसपर कब्जा करने हम जा पहुंचे थे. एक
रात काशी राम मामा जी जोर से चिल्ला कर अपने मचान से कूद गए. जहां कूदे वहीं एक
काला, बड़ा सा बिच्छू बैठा हुआ था. मामाजी के वज़न से बिच्छू का तो कचूमर निकल गया,
लेकिन मरते मरते उसने मामाजी के पिछवाड़े में डंक मार दिया. वो और जोर जोर से
चिल्लाने लगे. मैं अपनी रस्सी नीचे लटकाकर उसके सहारे नीचे उतरा. तब तक दो तीन
मजदूर, जो वहाँ सोये हुए थे आ गए. टॉर्च की रोशनी में हमने देखा कि एक तरफ एक बड़ा
सा काले रंग का बिच्छू मरा पड़ा था और दूसरी तरफ मामा जी चिल्ला रहे थे. हमने उनके
बिच्छू बूटी (एक तरह की जगली झाडी में लगने वाला टिकियानुमा सूखा हुआ फल, जिसके
बारे माना जाता है कि वो बिच्छू का ज़हर सोख लेता है) लगाया. वो बराबर अपने मचान की
तरफ अंगुली से इशारा कर रहे थे. मैंने पूछा कि वो मचान से गिरे कैसे? तब भी
उन्होंने मचान की तरफ इशारा किया. मैंने एक मजदूर को ऊपर चढाया तो उसने मचान को
अच्छी तरह देखा और बताया कि वहाँ कुछ नहीं था. कुछ घंटे बाद जब मामा जी थोड़े ठीक
हुए तो उन्होंने बताया कि नींद में उन्हें लगा कि मचान पर उनके पास कोई सांप है.
वो घबराकर नीचे कूद पड़े. वैसे इतने ऊंचे मचान पर सांप के चढ़ने का कोई इमकान तो
नहीं बनता लेकिन हम ऊपरवाले की बनाई हर चीज़ को तो नहीं जानते, हो सकता है बांडी
(एकिस कैरेनेटिस) जैसा कोई छोटा सांप जिसके लिए कहा जाता है कि वो उछल कर ऊँट पर
बैठे आदमी को भी काट खाता है, उछलकर मचान पर चढ गया हो या फिर ये भी हो सकता है कि
मचान पर चढ़ने के लिए काम आने वाली रस्सी को उन्होंने सांप समझ लिया हो और डर के
मारे कूद पड़े हों. बहरहाल इस वाकये ने मुझे भी काफी डरा दिया था और जब ये खबर घूमते
घामते मेरे घर पहुँची तो माँ और पिताजी दोनों ही इस बात से घबरा गए कि हम दिन रात
किन परिस्थितियों में रह रहे हैं. उन्होंने कहलवाया कि मैं फ़ौरन वापस बीकानेर लौट
जाऊं. सुस्त ज़माना था. सो इस बुलावे को मुझ तक पहुँचते पहुँचते १५-२० दिन लग गए.
इस बीच हमने लगभग खेतों की बुवाई कर दी थी, लेकिन ये भी सच है कि इस दौरान मेरी न
जाने कितने साँपों से मुलाक़ात हुई, कितने बिच्छुओं को अपने पैरों तले रौंदा और
मचान पर सोने के बावजूद कितनी बार उठ उठ कर नमक की डळी मुंह में डालकर देखा कि
कहीं मुझे पीवणे ने तो नहीं पी लिया है.
बीकानेर पहुंचकर देखा कि माँ की फ़िक्र की मारे हालत खराब
थी. उन्होंने पिताजी को साफ़ साफ़ कह दिया कि ज़मीन चाहे रहे या जाए, मैं उन सांप
बिच्छुओं के बीच जाकर नहीं रहूँगा. इधर सभी लोग अपने अपने काम में मसरूफ थे, इसलिए
खेतों का पूरा काम काशीराम मामा जी पर ही छोड़ दिया गया. नतीजा वही हुआ जो इस तरह के हालात में होता है. हर कुछ दिन
में खेतों से रुपयों की मांग आने लगी, कभी किसी काम के लिए, कभी किसी काम के लिए.
सबने यही सोचा कि जब खेती हो रही है तो पैसा तो खर्च होगा ही. इकट्ठे करके रुपये
खेतों में भेजे जाते रहे. ख़बरें आती रही कि ज्वार, बाजरा, मूंग, मौठ सब शानदार
लहलहा रहे हैं. एक दो बार बीकानेर से जाकर कोई उनका मुआयना भी कर आया मगर कोई भी वहाँ रुका नहीं. राजस्थान में एक बहुत
पुरानी कहावत है, “खेती धणियाँ सेती”. यानि खेती तभी हो सकती है, जबकि मालिक खुद
खेतों में मौजूद रहे. यहाँ सब लोग बीकानेर में रहना चाहते थे और पूरी खेती को
काशीराम मामा जी के भरोसे छोड़ दिया गया था. थोड़े ही दिनों में खबर आई कि फसल पक
गयी है और कटाई चल रही है. यहाँ तक फिर भी सब कुछ ठीक चल रहा था, मगर इसके बाद जो
खबर आई वो बहुत भयानक थी. वो खबर एक दिन काशीराम मामा जी खुद लेकर आये कि चोर
रातोंरात पूरी फसल उठाकर ले गए और अब खेतों में सिवाय घास के कुछ नहीं बचा है.
मामा जी ने सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को ही काट लिया
है, सबको ऐसा लगा, लेकिन फिर भी सबने फिर हिम्मत की और उनसे खेतों में जाकर रहने
को कहा ताकि रबी की फसल की तैयारी की जा सके. पानी की कोई कमी थी नहीं. गेहूं चना,
सरसों और जौ की बुवाई की गयी. इसमें काफी पैसा खर्च हुआ लेकिन इस बार बकौल काशीराम
मामा जी फसल पर पाला पड गया और अच्छी भली खड़ी फसल चौपट हो गयी. कुल मिलाकर दो तीन
बार सबने एक रिश्तेदार पर भरोसा किया ताकि उन्हें भी कुछ फायदा हो सके और बीकानेर
में बैठे हुए हम लोगों की भी कुछ खेती की ज़मीनें अपनी हो जाएँ, लेकिन आखिरकार वही
सदियों पुरानी कहावत ही सही साबित हुई,“खेती धणियाँ सेती.”
कुछ साल तक ज़मीन के लिए सरकार के खजाने में सालाना रक़म भरी
गयी और ज़मीन को बटाई पर दिया गया. कुछ बरसों तक वो लोग कुछ मामूली रकम लाकर हाथों
पर रखते रहे और उसके बाद उन्होंने लिखकर दे दिया कि इस ज़मीन पर खेती वो करते हैं,
इसलिए इसका मालिकाना हक उन्हें मिल जाना चाहिए. हमें इस सबकी कानोकान कोई खबर ही
नहीं हुई. सरकारी अफसरों ने कई बार खेतों का दौरा किया और पाया कि हम लोग वहाँ
कहीं थे ही नहीं. हमें ज़मीन से बेदखल कर दिया गया और वो ज़मीन उन लोगों को मिल गयी
जिन्हें हम उसे बटाई पर दिया करते थे. इस तरह ज़िंदगी का ये एक चैप्टर बहुत नुकसान
के साथ खत्म हुआ. इसके बाद कई बार ऐसे मौके आये जब कुछ दोस्त सरकारी अफसरों ने
मेरे सामने ये पेशकश की कि कुछ खेती की ज़मीन वो मुझे अलॉट करवा सकते हैं लेकिन
मैंने उसे कभी मंज़ूर नहीं किया. इस वाकये के बरसों बाद कोटा के पास के गाँव
सोगरिया के सरपंच ने तो गाँव में रिहायशी और गाँव से लगी हुई खेती की ज़मीन को ले
लेने पर, बहुत प्यार के साथ इतना ज़बरदस्त दबाव डाला कि मेरे लिए इनकार करना
मुश्किल हो गया, लेकिन खैर वो वाकया मैं जब कोटा पोस्टिंग की बातें बताने की बारी
आयेगी तब सुनाऊंगा.
पता नहीं ये सब कुछ जो हो रहा था ये अच्छा हो रहा था या
बुरा हो रहा था. इन्सान कहाँ सोच पाता है कि उसके एक लम्हे के अमल का उसकी पूरी
ज़िंदगी पर क्या असर होगा? वो तो बस फ़ौरी असर को ही देख पाटा है. कई बार जब ज़िंदगी
के पिछले सफे उलट कर देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि अगर मैं उस वक्त उस ज़मीन को छोड़कर
भागता नहीं, तकलीफें उठाकर जमे रहता तो एक किसान होता और ऐसा किसान जिसके पास डेढ़
सौबीघा ज़मीन, न जाने कितने ट्रैक्टर और भी न जाने क्या क्या होता जिनकी कीमत
पचासों करोड में होती. मेरे भाई साहब के दोस्त डॉक्टर रविन्द्र गहलोत के पिताजी ने
तकलीफें देखकर भी ५० बीघा ज़मीन की देखभाल की और उसके मालिक बन गए तो उनकी औलादें
आज करोड़ों की जायदाद की मालिक हैं.
बीकानेर लौटने के बाद मैंने देखा कि मेरे नाम आयी डाक में
दो खत एच सी सक्सेना साहब के, एक उनके बेटे अजय का और दो खत उनकी बेटी रेखा के थे.
मैंने सबको खोला और पढ़ा. करीब करीब सबमें पिछले ड्रामा की बातें की गयी थीं और हम
लोगों की मेहमाननवाजी की चर्चा थी लेकिन सक्सेना साहब की तहरीर में जहां अपनापन और
दुआएं थीं, रेखा के खत में अपनापन और ख़ुलूस था, अजय के खत से कुछ कुछ तकल्लुफ़ झलक
रहा था. दोस्तों की तादाद तो कभी कम नहीं रही लेकिन इस परिवार से जो दोस्ती शुरू
हुई उसका अपना एक अलग ही मयार था. सक्सेना साहब के हर खत में इसरार रहता था, जयपुर
आओ, अगर हो सके तो वहाँ रहकर हमारे साथ नाटक करो, अगर किसी वजह से ये मुमकिन न हो
तो वैसे ही कुछ दिन आकर साथ रहो.
वक्त गुज़रता रहा, जयपुर जाना नहीं हो पा रहा था. सक्सेना
साहब, रेखा और अजय के हर खत में बाकी सारी बातों के साथ साथ, जयपुर का बुलावा
बदस्तूर अपनी जगह पर कायम रह रहा था. इसी बीच मैंने तय किया कि मैं बैंक पी ओ का
इम्तहान दूंगा. बी ए फाइनल में था इसलिए मैं उस इम्तहान की शर्तें पूरी कर रहा था.
मैं दो दिन के लिए जयपुर पहुँच गया. सक्सेना साहब के हुकुम की तामील करते हुए, मैं
उनके तेलीवाडे वाले घर पहुँच गया. छोटा सा किराए का घर था जिसमे सक्सेना साहब अपनी
पत्नी और तीन बच्चों विजय, अजय और रेखा के साथ रह रहे थे.
अगले ही दिन मेरा इम्तहान था. इम्तहान दिया तो सही, लेकिन
मैं उससे बहुत मुतमईन नहीं था. घर लौटा तो थोडा उदास था. सक्सेना साहब जैसे ही
दफ्तर से लौटकर आये, अपने उसी पारसी थियेटर के अंदाज़ में बोले.... “क्यों उदास हो?
पेपर ठीक नहीं हुआ? कोई बात नहीं...... अभी तो ज़िंदगी का पहला पेपर दिया है तुमने
और अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है?” फिर अपनी बीवी से बोले “चलो जी आज कुछ पकौड़े वकौडे
बनाओ.... बैठेंगे.... बोतल खोलेंगे..... महेंद्र का मूड ठीक करेंगे.”
आंटी जी और रेखा पकौड़ों की तैयारी में लग गए. सक्सेना साहब
ने व्हिस्की की बोतल निकाली और मुझसे बोले “आओ दो पैग लगा लो, मूड ठीक हो जाएगा.”
मैंने मुस्कुरा कर उनसे कहा “अंकल मेरे पिताजी रोज दो पैग खाना खाने से पहले लेते
हैं और हर रोज मुझे भी ऑफर करते हैं लेकिन मैं शराब नहीं पीता तो उन्हें हाथ जोड़
लेता हूँ...... आप भी मेरे लिए उतने ही मुहतरम हैं, सो जैसे उन्हें हाथ जोड़ता हूँ,
आपको भी जोड़ लेता हूँ.”
उन्होंने मुस्कुराकर कहा “ बेटा, नहीं पीते हो ये बहुत
अच्छी बात है, लेकिन बीकानेर में नाटक के रोज आप सब लोग अलग चले गए थे और मैंने ये
भी सुना कि सब लोग तुम्हारे घर गए हैं, तो मुझे लगा, शायद तुम लोग हम बूढ़े लोगों
के साथ बैठना पसंद नहीं करते..... इसलिए मुझे लगा कि तुम लोगों ने तुम्हारे घर
जाकर पी होगी.” मैंने कहा “जी अंकल, मैं
सब लोगों को अपने घर ही ले गया था लेकिन मैंने खाने में तो सबका साथ दिया, पीने
में नहीं. मेरे घर में ही मुझे इन सब बातों को छुपाने की ज़रूरत नहीं है तो भला
आपसे क्यों छुपाऊँगा?”
उस शाम खूब पकौड़े खाए गए. सक्सेना साहब ने पीने के दौरान और
पीने के बाद अपनी ज़िंदगी के कई राज़ खोलकर मेरे सामने रख दिए. किस तरह ड्रामा के
लिए अपने जूनून की वजह से अपनी ज़िंदगी में उन्होंने दुःख उठाये...... सारी कहानी
मेरे सामने बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने रख दी.
उन्होंने मुझसे कहा “तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारी आंटी
कुछ नाराज़ है मुझसे ?”
मैं भला इस बात का क्या जवाब देता? मैं जी .... जी करके रह
गया.
इस पर वो बोले “देखो महेंद्र... मेरे लिए ड्रामा महज़ एक
दिलजोई का ज़रिया नहीं है. मैंने इसे अपना मज़हब माना है और इसके लिए अब तक कई
कुर्बानियां दी हैं और हर कुर्बानी देने को तैयार हूँ.”
“जी अंकल”
कुछ वक्त पहले मेरा मन हुआ एक ड्रामा करने का जिसका नाम था
“बीवियों का मदरसा”
“जी”
“ये एक ऐसी बच्ची की कहानी है जिसे एक बूढा बचपन में अगवा
करके अपने बड़े से किलेनुमा महल में ले आता है, इस नीयत से कि जब ये बड़ी होगी तो
मैं इससे शादी करूँगा. वो लड़की बड़ी होती है तो उस बूढ़े की कोशिश रहती है कि उस
लड़की की नज़र किसी भी जवान मर्द पर ना पड़े. जब वो किसी जवान को देखेगी ही नहीं,
उसके लिए वो बूढा ही एक मात्र मर्द होगा इस दुनिया का. पूरे नाटक में बहुत से सीन
और डायलॉग थे जिसे लोग वल्गर मानते हैं.”
“जी”
मैंने तय किया कि बूढ़े का रोल मैं खुद करूँगा और..........”
“जी ........?”
“और लड़की का रोल करेगी मेरी बेटी रेखा”
मैं एकदम चौंक गया. मैंने धीरे से कहा “ये क्या सोचा अंकल
आपने?”
“क्यों......? ड्रामा तो आखिर ड्रामा है....... वो फनकार ही
क्या हुआ जो इस रास्ते में आने वाले चैलेंजेज को एक्सेप्ट ना करे ?”
मैं खामोश रहा क्योंकि उनकी बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं
था.
वो ग्लास से एक सिप लेते हुए बोले “देखो महेंद्र, मेरा उसूल
ये है कि या तो आप कोई काम करिये मत और अगर करते हैं तो पूरी ईमानदारी के साथ
करिये. मैंने भी बस अपना काम ईमानदारी के साथ किया.”
“फिर आपने वो ड्रामा किया?”
“बिलकुल किया. लेकिन तुम्हारी आंटी तब से ही मुझसे नाराज़
हैं. कहती हैं कि समाज में हर तरफ थू थू हो रही है...... लेकिन महेंद्र, मुझे
परवाह नहीं समाज की...... बस अफ़सोस है तो सिर्फ इस बात का कि मेरी बीवी ने भी मेरे
जज्बे को नहीं समझा.”
“अंकल बहुत छोटा हूँ मैं अपनी कोई भी राय देने के लिए. आपके
जज्बे को सलाम करता हूँ लेकिन एक......... एक माँ के सोचने के जाविए का भी पूरा
एहतराम करता हूँ.”
“ठीक है भई..... तुम दोनों को ही नाराज़ नहीं करना
चाहते...... खैर...... लेकिन मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि अपनी जगह पर मैं गलत
नहीं था.”
“जी अंकल”
उस रात वो बहुत देर तक मुझसे बातें करते रहे. वो चाहते थे
कि उनका बेटा अजय नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में एडमिशन ले और बहुत बड़ा डायरेक्टर बने.
बातें करते करते ही हम लोग उस रात पता नहीं कितने बजे सोये.
अगले दिन मैंने सक्सेना साहब से कहा, मैं आज रात में
बीकानेर निकलना चाहता हूँ. वो अपने उसी पारसी थियेटर के अंदाज़ में बोले “अरे.....
इतनी क्या जल्दी है? आये हो तो दो चार दिन रहो हमारे साथ.”
मैंने एक नज़र आंटी, विजय और रेखा के चेहरे की तरफ डाली.
मुझे लगा कि कहीं ऐसा न हो कि सक्सेना साहब तो मुझे रोक रहे हों मगर बाकी लोगों को
ये नागवार गुज़रे. लेकिन नहीं...... मैंने पाया कि बाकी लोगों के चेहरे पर जो
तास्सुरात थे वो भी सक्सेना साहब के इसरार की ताईद कर रहे थे. मैंने कहा “जी
अंकल... जैसा आपका हुकुम...... मैं दो दिन और रुक जाता हूँ.”
और मैं दो रोज और रुक गया. इन्हीं दो दिनों में मेरी
मुलाक़ात अजय और रेखा ने अजयराज, हरी शर्मा, नरेन्द्र गुप्ता, सिन्हा और अपने कई
साथी कलाकारों से करवाई और विजय ने अपने एक दोस्त भारत दुबे से. इसी दौरान रेखा की
सहेली सुमन से भी मुलाक़ात हुई. इन सब लोगों से जो एक बार मुलाक़ात हुई तो सबने कहा
“क्या बीकानेर में पड़े हो, ड्रामा करना है तो जयपुर आओ.”
मैंने मन ही मन सोचा कि अगर कभी मौक़ा मिलेगा तो कुछ बरस
जयपुर आकर ज़रूर रहूँगा, ताकि यहाँ के आर्टिस्ट्स के साथ ड्रामा कर सकूं.
दो रोज बाद मैं बीकानेर वापस चला गया. पी ओ के इम्तहान में
मेरा सलेक्शन नहीं हुआ था. बी ए की पढाई चलती रही. इस साल मुझे एक ही साल के
पेपर्स देने थे इसलिए थोड़ा रिलेक्स्ड था.
इसी दौरान भाई साहब का तबादला पीलवा से बीकानेर के नज़दीकी
गाँव नौरंगदेसर में हो गया था. ये गाँव बीकानेर से महज़ २५ किलोमीटर दूर जयपुर रोड़
पर था. उन्होंने तय किया कि वो रहेंगे बीकानेर में हमारे साथ ही और रोजाना कुछ
वक्त के लिए नौरंगदेसर जायेंगे. जब बाकी वक्त में वो बीकानेर रहने लगे, तो आस पास
के लोग डॉक्टर की ज़रूरत पड़ने पर उनके पास आने लगे. वो भी क्या करते? जब मरीज़ आयें
तो इलाज तो करना ही था. ऐसे में उन्हें थोड़ी मदद की ज़रूरत भी पड़ती थी. मैं घर में
होता तो उनकी मदद कर देता. धीरे धीरे ये एक रूटीन बन गया. वो बाकायदा एक क्लिनिक
चलाने लगे और मैं उनका असिस्टेंट बन गया. कई बार कुछ सीरियस मरीज़ आ जाते, तब भी हम
दोनों भाई उन्हें संभाल लेते थे. मैंने
इंट्रा मस्क्यूलर, इंट्रा वेनस सब तरह के इंजेक्शन लगाने सीख लिए और छोटे मोटे
ऑपरेशन भी हम लोग करने लगे. मैं ऑपेरशन के पहले की पूरी तैयारी करना भी सीख गया था
और ऑपरेशन के बाद घाव पर टाँके लगाना भी..... भाई साहब को तो नौरंगदेसर अपनी
ड्यूटी पर भी जाना होता था, लेकिन मरीजों का तो कोई वक्त नहीं होता. कई बार जब भाई
साहब घर पर नहीं होते थे, मरीज़ आ जाते थे, मैं क्या करता? उस ज़माने में फोन तो हुआ
नहीं करते थे कि भाई साहब से सलाह करता. कभी समझ में आता, तो कोई दवा दे देता था,अगर
समझ नहीं आता तो पूनम जोशी भाई साहब के पास भेज दिया करता था, जो भाई साहब के ही
साथी थे. धीरे धीरे मैं एक नीम हकीम बन गया और मेरी जेब में ठीक ठाक पैसा भी इस
पेशे से आने लगा. इधर ट्यूशंस तो मैं फर्स्ट ईयर से ही कर रहा था. इस तरह अपना
खर्च चलाने के लायक मैं हो गया था. बस कमी थी तो वक्त की कमी थी. कॉलेज जाना,
ट्यूशन पढ़ाना, खेलने जाना, डॉक्टरी करना, ये सब कुछ चौबीस घंटों में बड़ी मुश्किल
से होते थे. फिर भी ज़िंदगी चल रही थी.
इसी बीच सक्सेना साहब का खत आया कि वो “यहूदी की लड़की” नाटक
फिर से एक बार करें जा रहे हैं और चाहते हैं कि इस बार मैं उसे देखने जयपुर जाऊं.
उस ज़माने में रिज़र्वेशन वगैरह तो हुआ नहीं करते थे. बस एक चादर लेकर यार्ड में
जाकर ट्रेन में जगह रोकनी होती थी. मैं भी जा पहुंचा अपना सामान लेकर रेलवे स्टेशन
के यार्ड में, जहां ट्रेन खड़ी थी. एक ऊपर की बर्थ रोकी और सो गया उसपर . अगले दिन
सक्सेना साहब के घर पहुंचा. सक्सेना साहब, आंटी, रेखा, विजय बहुत खुश हुए. हाँ, अजय के चेहरे से मैं समझ
नहीं पाया कि वो खुश हुआ या नाखुश. मैं ड्रामा से तीन चार रोज पहले चला गया था और
पूरे वक्त सक्सेना साहब के साथ ही लगा रहा. नतीजतन स्टेज के कई मामलों में उनसे
काफी कुछ सीखने को मिला, जो आगे जाकर ज़िंदगी भर काम आया.
ड्रामा बहुत ही कामयाब रहा. यहूदी का रोल खुद सक्सेना साहब
ने किया और उनकी बेटी राहील का रोल अरुणा नाम के एक लड़की ने किया. दोनों ही बाकी सारे
कैरेक्टर्स पर भारी पड रहे थे. आगे जाकर, आगा हश्र कश्मीरी के इस ड्रामा को मैंने
सक्सेना साहब को खैराजेअकीदत के तौर पर आल इंडिया रेडियो, उदयपुर में किया जिसकी
हर तरफ बहुत तारीफ़ हुई.
अब जब बात चल रही है सक्सेना साहब की, तो पाठक मुझे माफ
करें, इस बार बीच के सारे वाकयों को अगले एपिसोड्स के लिए छोड़ते हुए उनकी ही बात
पूरी कर देता हूँ.
मैं एम् ए कर रहा था तो साथ के कुछ स्टूडेंट्स, कुछ फॉर्म्स
लेकर आये. मुझे नहीं पता था कि क्या फॉर्म हैं ये और किसलिए है? एक दोस्त ने मेरे
आगे रखा एक फॉर्म और मुझे कहा “दस्तखत कर दो”
मैंने दस्तखत कर दिए. कुछ दिन बाद बिजली डिपार्टमेंट से एक
खत आया कि फलां तारीख को आपका इम्तहान है. मैं इम्तहान भी दे आया. एक महीने बाद
पता चला कि उस इम्तहान में जिसमे कई सौ लोग शामिल हुए थे, तीन लोग पास हुए हैं और
उन तीन लोगों में से एक खुशकिस्मत मैं हूँ. अब मैंने देखा कि आखिर वो इम्तहान था
किस पोस्ट के लिए? पता लगा कि बिजली डिपार्टमेंट में यू डी सी की पोस्ट थी. यू डी
सी यानि अपर डिवीज़न क्लर्क. घर के लोगों को बताया तो सबने कहा, छोडो ये क्लर्की
नहीं करनी. आस पास के उन लोगों की नज़र में ये एक बहुत बड़ी पोस्ट थी, जो बड़ी
मुश्किल से एल डी सी लगे थे और उन्हें पता था कि १७-१८ साल की नौकरी के बाद वो इस
पोस्ट पर पहुंचेंगे. ऐसे ही लोगों में मेरा एक दोस्त रघु था, जो हायर सैकेंडरी के
बाद एल डी सी लग गया था और जानता था कि इस पोस्ट पर पहुँचने में उसे १५ साल और
लगेंगे.
मैं बहुत पशोपेश में था कि क्या करूं, तभी सक्सेना साहब का
एक खत आया, जिसमे उन्होंने एक बार फिर से कहा था कि मुझे जयपुर जाकर स्टेज करना
चाहिए और एक खत रेखा का आया था जिसमे उसने पूछा था कि मैं जयपुर कब जाने वाला हूँ.
इस बीच चूंकि मेरे ज्वाइनिंग के लिए तय तारीख निकल रही थी, मैंने एक खत मय १५ दिन
के मेडिकल सर्टिफिकेट के बिजली डिपार्टमेंट के एस ई ऑफिस को भिजवा दिया था, ताकि
मुझे सोचने का मौका मिल सके.
जब सक्सेना साहब और रेखा, दोनों के खत आये तो मेरे जेहन में
एक ख़याल आया कि अगर मैं ये नौकरी ज्वाइन कर लेता हूँ, तो जो भी तनख्वाह मिले, मेरे
गुज़ारे लायक तो मिलेगा ही, मगर मैं जयपुर में रहकर स्टेज अच्छी तरह सीख पाऊंगा और
शायद वो मुझे मेरी ज़िंदगी में आगे कुछ काम आये.
मैंने पिताजी और भाई साहब से बात की. वो इसके लिए मुझसे
बिलकुल मुत्तफिक नहीं थे, लेकिन जब मैंने उन्हें कहा कि आप इसे मेरी एक ट्रेनिंग
ही समझ लीजिए, वो मान गए और मैं जयपुर के लिए निकल पड़ा.
सक्सेना साहब का अपने खत में खास इसरार था, कि अगर मैं
जयपुर में रहूँगा तो आस पास कोई मकान देख लिया जाएगा, लेकिन एक बार मैं उनके साथ
ही रुकूं. उनके इस हुकुम को भला मैं कैसे टाल सकता था? मैं उनके घर पहुंचा.
सक्सेना साहब, आंटी, अजय, विजय, रेखा सभी लोग बहुत खुश हुए. अगले दिन मैं तैयार
होकर बताए हुए पते पर बिजली डिपार्टमेंट के एस ई के दफ्तर पहुंचा. एक खास
क्लर्कनुमा इन्सान ने बड़े ही ठंडेपन से मेरा खैरमकदम किया, मेरे पेपर्स लेकर एक
फ़ाइल बनाई और कहा “ चलिए, आपकी ज्वाइनिंग एस ई साहब के रूम में होगी.”
मैं उनके पीछे पीछे चल पड़ा. एस ई के कमरे में पहुंचकर मैंने
गुड मॉर्निंग कहा, जिसका उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मेरे ऊपर से नीचे तक आग लग
गयी लेकिन मैं खामोश रहा. मेरे साथ आये हैड क्लर्क ने मेरा नाम बता कर कहा “सर ये
ज्वाइन करने आये हैं.”
एस ई साहब का पारा एकदम से सातवें आसमान पर पहुँच गया.
वो चिल्लाये “आपको तो पन्द्रह दिन पहले आना चाहिये था.”
मैंने अपने पर ज़ब्त करते हुए कहा “मैं बीमार था, मेडिकल
भेजा था मैंने.”
“ऐसे मेडिकल तो पांच पांच रुपये में मिलते हैं.” ये कहते
हुए उन्होंने वो मेडिकल निकलकर मेरी तरफ फ़ेंक दिया.”
अब मैं अपने पर ज़ब्त नहीं रख पाया. “मैंने पूरी फ़ाइल एस ई
के मुंह पर फेंकते हुए कहा.... ऐसी दो टके की नौकरियां भी बहुत मिलती हैं......
रखिये इसे अपने पास.”
और मैं उनके कमरे से बाहर निकल पड़ा. पीछे से उनकी आवाजें
मेरी समाअत से टकराती रही, “मिस्टर मोदी........ मिस्टर मोदी......”
लेकिन मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. मैंने सोचा, घरवालों की
मर्जी के खिलाफ मैं यहाँ आया और ये इन्सान मुझसे अभी ऐसा सलूक कर रहा है, तो आगे
जब मैं इसका मातहत बन जाऊंगा तो क्या करेगा?
मैंने रिक्शा लिया और सक्सेना साहब के घर आकर अपने कपडे
समेटने लगा. आंटी ने कहा “बेटा क्या हुआ?..... तुम्हें तो आज ज्वाइन करना था न?
तुम इतनी जल्दी कैसे आ गए और कपडे क्यों समेट रहे हो?”
“सॉरी आंटी, मैंने ज्वाइन नहीं किया और मैं वापस बीकानेर
जाउंगा आज रात में.”
“अरे बेटा क्या हुआ ? सक्सेना साहब को तो आने दो”
“जी आंटी उनके आने के बाद ही जाऊंगा.”
शाम को सक्सेना साहब आ गए, विजय भी और रेखा भी. मैंने जब
पूरी कहानी सुनाई तो सक्सेना साहब बोले “ठीक किया बेटा तुमने. मैं जानता हूँ, तुम
बिजली महकमे के क्लर्क बनने के लिए पैदा नहीं हुए हो, लेकिन मेरी ख्वाहिश है कि जब
आये ही हो तो तुम १५-२० दिन हम लोगों के साथ रहकर वापस लौटो.
मेरे सामने अब कोई रास्ता नहीं था. मैं १५ दिन उनके साथ रहा
और उन १५ दिनों में मैं बिलकुल उनके घर का ही एक फर्द बन गया, यहाँ तक कि जब १५
दिन बाद मैं वहाँ से बीकानेर लौटने लगा तो आंटी रोने लगीं और रेखा की आखों में भी
मुझे नमी नज़र आयी.
खत किताबत बराबर चलती रही. मैंने रेडियो में अनाउंसर और
ट्रांसमिशन एक्सेक्यूटिव के इम्तेहान दिए. दोनों इम्तहान देने मैं जयपुर ही गया था
और दोनों बार मैं सक्सेना साहब के घर ही रुका था. एक शाम सक्सेना साहब अपनी
व्हिस्की की बोतल खोलकर बैठे थे. मैं उनके पास बैठा, मूंगफलियां चबा रहा था कि
उन्होंने एक सवाल किया “महेंद्र..... शादी के बारे में क्या इरादा है तुम्हारा?”
अचानक आये इस सवाल का मुझसे कोई जवाब देते नहीं बना. मैं बस
जी...... जी कर रहा था कि अजय, विजय और दो
तीन आर्टिस्ट्स आ गए. सक्सेना साहब बोले “खैर.... फिर कभी बात करेंगे इस बारे
में.”
मैंने जवाब दिया “जी”
मैं लौटकर बीकानेर आ गया था. सक्सेना साहब के खत बराबर आ
रहे थे, लेकिन रेखा के खत दिनोदिन कम और छोटे होते जा रहे थे.
इत्तेफाक से दोनों ही इम्तेहानों में मैं पास हो गया. पहले
मुझे ऑफर मिला जोधपुर में अनाउंसर की पोस्ट का. मैंने वहाँ ज्वाइन कर लिया. ६
महीने बाद मुझे ट्रांसमिशन एक्सेक्यूतिव का ऑफर उदयपुर के लिए मिल गया. मैंने १९७६
में वहाँ ज्वाइन कर लिया. इसी बीच मेरी शादी हो गयी. ये सब मैं विस्तार से आपको
आगे के एपिसोड्स में बताऊंगा. शादी के तुरंत बाद सक्सेना साहब का खत मिला कि वो यहूदी
की लड़की नाटक लेकर उदयपुर आ रहे हैं. नियत तारीख को वो टीम के साथ उदयपुर पहुंचे.
उनके साथ रेखा भी थी. मैंने उन्हें बहुत कहा कि वो मेरे घर रुकें मगर पूरी टीम को
छोड़कर, मेरे घर रुकने को वो तैयार नहीं हुए.
ड्रामा बहुत अच्छा रहा. वो जयपुर लौट गए. कुछ ही दिनों बाद
मुझे आकाशवाणी जयपुर से एक ड्रामा में हिस्सा लेने का आर्डर मिला. मैं जयपुर
पहुंचा और अपने एक दोस्त महेश श्रीमाली के घर रुका.
किसी काम से बापू बाज़ार गया था, हल्की हल्की बारिश हो रही
थी. वहाँ रास्ते पर चल रहा था कि वही पारसी थियेटर वाली आवाज़ सुनाई दी......
महेंद्र........महेंद्र........ मैंने चौंक कर पीछे देखा, सक्सेना साहब एक पान की
दुकान के सामने खड़े थे. साथ में रेखा भी थी. मैं मुड़कर गया और उनके पाँव छुए.
उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और रेखा जो अब तक चुपचाप खड़ी थी, उससे बोले “क्यों
रेखा पहचानती नहीं हो क्या इसे?”
रेखा एकदम हडबडा कर बोली “हेलो महेंद्र.......”
मैंने भी कहा “हेलो रेखा.......”
सक्सेना साहब पता नहीं क्यों मन ही मन बुदबुदाए “हुंह, हेलो
महेंद्र........”
मैंने चौंककर कहा “जी... आपने कुछ कहा ?”
“नहीं बेटा.... कुछ नहीं...... अच्छा कहाँ जा रहे हो?”
मेरे जवाब का इन्तेज़ार भी उन्होंने नहीं किया और बोले “चलो
घर चलते हैं..... बारिश हो रही है, पकौड़े बनवाकर खाए जायेंगे.”
मैंने इधर उधर देखा. उनके पास एक बजाज स्कूटर था और वो दो
लोग थे. मैंने कहा “जी आप दोनों चलिए, मैं रिक्शा लेकर आ जाऊंगा?”
“क्यों रिक्शा क्यों? क्या तुम समझते हो कि मैं तुम दोनों
को नहीं ढो सकता? अरे अभी इतना बूढा भी नहीं हुआ हूँ.”
मैं थोड़ा पशोपेश में था कि वो फिर बोले “ अरे कोई और नहीं
है ये, अंडर सेक्रेटरी ड्रामा की तुम्हारी महबूबा है ये. अरे ड्रामा को एक बार
अमली ज़िंदगी में जी लोगे तो क्या हर्ज है?” और एक ऐसा अजीब सा ठहाका लगा कर वो हंस
पड़े कि न जाने क्यों मैं बहुत डर गया.
मैं कुछ नहीं बोला. सक्सेना साहब ने स्कूटर स्टार्ट किया,
उनके पीछे रेखा बैठी और उसके बाद मैं. स्कूटर पर बैठने के बाद उन्होंने बताया कि
उन्होंने बजाजनगर में एक घर खरीद लिया है और हम वहीं जा रहे हैं.
घर पहुंचे तो आंटी बहुत खुश हुईं. अजय तब तक नेशनल स्कूल ऑफ
ड्रामा जा चुका था.
फिर वही पकौड़े बने. सक्सेना साहब ने अपनी बोतल खोली और पैग
पर पैग लेने लगे. मैं उनके साथ पकौडे चबाता रहा. आंटी पकौड़े बना रही थीं और रेखा
हमें सर्व कर रही थी. कई बार लगा कि सक्सेना साहब कुछ कहना चाह रहे थे, लेकिन
उन्हें मौका नहीं मिल रहा था क्योंकि हर ५-७ मिनट बाद रेखा कुछ पकौड़े लेकर आ जाती
थी. कुछ देर बाद सक्सेना साहब नशे में चूर हो चुके थे. आंटी ने मुझे कहा “बेटा तुम
यहीं सो जाओ.”
मेरा दोस्त महेश मेरा इंतज़ार कर रहा होगा, मैं जानता था
इसलिए मैंने आंटी से माफी माँगी और मैं बाहर निकल आया.
बड़ी मुश्किल से मुझे एक रिक्शा मिला जिसे लेकर मैं महेश के
घर पहुंचा. दो दिन बाद ही मैं उदयपुर लौट आया.
१५ दिन बाद एक खबर सीने में तीर की तरह आकर लगी “राजस्थान
के मशहूर स्टेज आर्टिस्ट और डायरेक्टर एच सी सक्सेना ने टिक २० पीकर खुदकुशी की.”
नफ्सियाती तौर पर बहुत परेशान हो गया मैं. जिस इन्सान से
इतनी मुहब्बत, इतना ख़ुलूस मिला था, वो इन्सान इस तरह इस दुनिया को छोड़कर चला
गया......
अक्सर मैं रात में नींद से जाग जाता था और इस सवाल का जवाब
ढूँढने लगता था कि वो मुझसे क्या कहना चाहते थे और वो इस तरह इस दुनिया से क्यों
चले गए, मगर मुझे वो जवाब कभी नहीं मिला.
कहानी को यहाँ खत्म हो जाना चाहिए, लेकिन ये ज़िंदगी
है........यहाँ कहानियां जब लगती है, खत्म हो जानी चाहिए, तब अक्सर खत्म नहीं
होतीं.
बरस गुजर गए. १९९८ की एक सुबह. मैं आकाशवाणी, उदयपुर में
प्रोग्राम एक्सिक्यूटिव था. एक खत आकशवाणी जयपुर से आया था कि मुझे गोलुल गोस्वामी के लिखे एक ड्रामा “अश्वपुरुष”
में लीड रोल करने के लिए आकाशवाणी जयपुर जाना था, जिसे मुकुल गोस्वामी डायरेक्ट
करने वाले थे.
मैं उसी दिन जयपुर के लिए रवाना हो गया. सुबह जयपुर पहुंचा
तो नहा धोकर सीधे आकाशवाणी भागा, लेकिन वहाँ पहुँचते ही पता लगा कि स्टूडियो में
रिहर्सल चालू हो चुकी है. मैं दबे कदमों से स्टूडियो में घुसा. मेरे गुरु नंदलाल
जी बैठे थे, उनके पैर छुए, उन्होंने सर पर हाथ रखा और मैं चुपचाप कलाकारों के उस
गोल घेरे में जाकर बैठ गया, जो रीडिंग कर रहे थे. मैंने इधर उधर नज़रें दौड़ाईं,
देखा एक जगह जो शक्ल बैठी हुई थी, वो बहुत जानी पहचानी लग रही थी. जी हाँ, वो रेखा
थी. उसने मेरी तरफ देखा या नहीं देखा, मुझे नहीं पता. थोड़ी ही देर में वो हिस्सा
आया जहां मेरा रोल था. जैसे ही मैंने अपना डायलॉग बोला......अचानक मेरी आवाज़
सुनकर एक दर्दभरी आवाज़ माहौल में गूँज उठी. रेखा का चेहरा मेरी तरफ उठा, एक अजीब
सा दर्द उभरा और बिना आवाज़ के उसके होठों ने प्रश्न किया, “म................हे................न्द्र?”
मैंने अपने डायलॉग के साथ ही हाँ में गर्दन हिला दी.
डायलॉग खत्म होते ही मैंने देखा........ उसकी आँखें डबडबा
आई थीं. क्यों?....... मुझे आज भी पता नहीं......
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