बचपन से जिन गीतों को सुन-सुन कर हम बड़े हुए वो गीत हमारी अंतरात्मा में कुछ ऐसे समा गए हैं जैसे दूध में शक्कर, जैसे फूल में ख़ुशबू या मौसम के मुताबिक़ बात करें तो जैसे बादल में बिजली। मैंने पहले भी किसी कड़ी में लिखा था कि मेरी नानी अपने बाल-गोपाल से सारी बातचीत गीतों में करती थीं। सुबह सवेरे "जागिये बृजराज कुँवर पंछी बन बोले" गाते हुए उन्हें जगाती थीं, "यमुना जल माँ केसर घोली स्नान कराऊँ श्यामडा" गाकर नहलाती थीं और "प्रातहि उठ मेरे लाड़ लडैतेहि माखन मिसरी भावे" कहकर भोग लगाती थीं। ठाकुर जी को नहलाने का पानी मौसम के अनुसार ठंडा-गर्म रखती थीं। सर्दियों में पानी कहीं ज़्यादा गर्म न हो, इसलिए अपनी कोहनी डालकर देखती थीं।
सर्दियाँ शुरू होते ही हमारे हाथों
में ऊन-सलाई पकड़ा देती थीं कि मेरे ठाकुर जी का कम्बल बड़ा झीना हो गया है,
नया बुनकर दो। हम उनकी और उनके ठाकुर जी की तानाशाही से बड़े त्रस्त
रहते।
उन दिनों आज कल की तरह पूरे साल
मटर-गोभी नहीं मिलती थी। अक्टूबर में कभी कोई सब्ज़ी वाला बड़े-बड़े पत्तों के बीच
झलकती नन्हीं सी गोभी दिखाकर हमें ललचाता, तो
हम नानी से गोभी खरीदने की ज़िद कर बैठते। लेकिन हमेशा इंकार ही सुनना पड़ता। मौसम
का कोई भी नया फल या सब्ज़ी अन्नकूट से पहले घर में नहीं आती थी। अन्नकूट के दिन
छप्पन भोग बनते और उसके बाद ही प्रसाद मिलता।
बदलते मौसम के साथ नानी के गीत भी
बदलते थे। ख़ास तौर पर वसंत और वर्षा के मौसम में तो एक से एक प्यारे गीतों का
पिटारा खुल जाता। सावन के आगमन का गीत था -
सखि आवत अँधेरी घटा कारी-कारी ना।
राधा झूलें कृष्ण झुलावें बारी-बारी
ना।
दादुर मोर पपीहा बोले डारी-डारी ना।
फिर कदम्ब की डारी पर झूला पड़ जाता
-
झूला पड़ा कदम की डारी झूलें कृष्ण
मुरारी ना।
यू ट्यूब पर आपको सुनवाने के लिए यह
गीत ढूँढ रही थी तो राधा रानी के झूलने का गीत मिल गया जिसमें राधा झूल रही हैं और
कृष्ण उन्हें झोटा दे रहे हैं -
कदम पे झूल रही राधे जू, साँवरिया दै रह्यो झोटा रे।
राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग में
कदम्ब का बड़ा महत्त्व है। यही कदम्ब साक्षी बना था उस पल का जब राधा ने घड़ी भर के
लिए मुड़कर कृष्ण को देखा था। विद्यापति कहते हैं -
तट तरंगिनि, कदम कानन, निकट जमुना घाट।
उलटि हिरइत उलटि परली,
चरन चीरल काँट।।
यमुना के घाट पर, कदम्ब के वन में उलट कर उसे क्या देखा कि जैसे मैं स्वयं ही उलट गयी। चरण में काँटा चुभ गया और मन घायल हो गया।
लेकिन कामदेव ने अकेले राधा को ही
निशाना बनाया हो, ऐसा नहीं है।
सखियाँ कहती हैं - तुम्हीं नहीं हो, कान्ह भी तुम्हारे लिए
पागल हैं। तुम्हारे गुणों पर लुब्ध हो गए हैं। कहीं और जा रहे हैं, पर आँखें इधर ही लगी हैं। ऐसे लुभाए नयनों को हटा भी कैसे सकते हैं। तुम
दोनों जैसे एक ही डाल पर खिले हुए दो फूल हो। कवि विद्यापति कहते हैं कि प्यार ने
एक ही तीर से दोनों को मार दिया है।
ये सखि ये सखि न बोलहु आन, तुअ गुन लुबुधलनि अब कान।
अनतहु जाइत इतिहि निहार,लुबुधल नयन हटाये के पार।
से अति नागर तों तसु तूल,
याक बल गाँथ दुई जनि फूल।
भन विद्यापति कवि कंठहार,
यक सर मन्मथ दुई जीव मार।
इन कवियों की बात मानें तो यमुना तट
ताल,
पियाल, तमाल और कदम्ब के घने वनों से भरा हुआ
था। पाण्डवों के इंद्रप्रस्थ से कृष्ण के वृंदावन तक इन्ही वनों की हरियाली छायी
हुई थी। सभी इन्हें जानते-पहचानते थे। तब स्कूली बच्चों को इनके फोटो और
डिस्क्रिप्शन ढूंढ़कर लाने का हॉलिडे होमवर्क नहीं देना पड़ता था। मेरी बात अलग थी
क्योंकि मेरे स्कूल में कदम्ब के कई पेड़ थे और मैंने बचपन से उन्हें फलते-फूलते
देखा था।
लगभग पच्चीस वर्ष पहले की बात है।
दूरदर्शन के दिल्ली केंद्र से सुबह संस्कृत का साप्ताहिक कार्यक्रम प्रसारित होता
था। मेरा भी उसमें थोड़ा-सा योगदान रहता था। हमने मेघदूत पर आधारित कुछ कड़ियाँ
प्रसारित करने की सोची। श्लोकों के सस्वर पाठ की रिकॉर्डिंग हो गयी। उन पर विज़ुअल
डालने के लिए बादल-बरसात, खेत-खलिहान,
फूल-पत्ते, सारस-बगुले के स्टॉक-शॉट्स मिल गये,
लेकिन कदम्ब नहीं मिला। और मुझे ज़िद्द चढ़ गयी कि बिना कदम्ब के
मेघदूत प्रसारित नहीं होगा। प्रोड्यूसर दुर्गावती सिंह समझाती रहीं कि सरकारी
तंत्र में ऐसे ही काम करना पड़ता है। नहीं मिलता कदम्ब तो जाने दो, किसी और पेड़ को डिफ्यूज़ करके काम चला लेंगे। मैंने उनसे एक दिन की छुट्टी माँगी और अपनी
मारुति लेकर कदम्ब की तलाश में निकल पड़ी। न जाने कितने नर्सरी, लाइब्रेरी और पार्क छान मारे। शाम हो चली थी जब कुछ खाने के लिए बंगाली
मार्किट के नाथू स्वीट्स में पहुँची। वहाँ मुझे अपना बचपन का साथी कबीर मिल गया।
लेडी श्री राम कॉलेज में मेरी माँ हिंदी और उसकी माँ उर्दू पढ़ाती थीं। कॉलेज
कम्पाउंड में हमारे घर भी पास-पास थे। अम्मा के रिटायर होने पर हम कालकाजी चले गए
थे मगर वे लोग अब भी वहीँ रहते थे। गप-शप के बीच जब मैंने उसे बताया कि मैं सुबह
से कदम्ब का पेड़ तलाश कर रही हूँ तो उसने कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। लेकिन मेरे सर
पर तो कदम्ब का भूत कुछ इस तरह सवार था कि मैं उसे मेघदूत के श्लोक पर श्लोक
सुनाने लगी।
नीपं दृष्ट्वा हरित-कपिशम्
केसरैरर्द्धरूढैः
नीप यानी कदम्ब के पेड़ के हरे-पीले
फूल,
जिनके केसर कुछ-कुछ उठे हुए थे। और
त्वत्सम्पर्कात्पुलकितमिव
प्रौढपुष्पैः कदम्बैः
मेघ के संपर्क से कदम्ब के पूरे
खिले हुए फूल ऐसे लग रहे थे जैसे पुलक उठे हों, जैसे
रोमांचित हो रहे हों।
बेचारा कबीर सब सुनने को मजबूर था।
लेकिन विवरण सुनकर उसने पूछा -
अच्छा दीदी, पीला लड्डू जैसा फूल होता है
क्या?
मैंने कहा - हाँ।
बोला - थोड़े बड़े और हलके हरे रंग के
पत्ते?
मैंने कहा - हाँ भाई हाँ।
कहने लगा - आप भूल गयीं?
कॉलेज ऑडिटोरियम के पीछे, जहाँ हम लोग खेला
करते थे, ऐसे दो पेड़ हैं।
मुझे सचमुच याद नहीं था इसलिए मैंने घर लौटने से पहले वहाँ जाकर उन पेड़ों को देखा। ठीक कदम्ब के ही पेड़ थे और उन पर हरित और कपिश दोनों रंगों के फूल भी थे। अगले दिन मैंने कैमरा टीम को ले जाकर कदम्ब के फूल की वीडियो रिकॉर्डिंग की। इस मेहनत के बदले मुझे कोई पुरस्कार नहीं मिला लेकिन मन कदम्ब के फूलों सा ही पुलकित हो उठा।
और अब चलते-चलते बादल घिरे दिन के
प्रथम कदम्ब का गीत सुनिये जिसे लिखा और स्वरबद्ध किया गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर
ने और गाया है हेमंत दा ने-
पत्ता-पत्ता बूटा बूटा की सभी कडियां यहां क्लिक करके पढिए।
5 comments:
आहा !! बहुत सुन्दर दीदी... कदम्ब के बारे में पढ़कर और गीतों को सुनकर आनंद तो आया ही साथ ही मैं भी 25-30 साल पीछे पहुँच गयी... जब मैं छोटी सी थी और कदम्ब मेरे लिए सिर्फ एक काल्पनिक वृक्ष था जो कन्हैया को बहुत प्रिय था... न मैं उस पेड़ को पहचानती थी न ही उसके फूलों के बारे में कुछ पता था... बस पता था तो कदम्ब के पेड़ से कृष्ण का रिश्ता जो उस गीत में था जिसपर मैं सारा दिन ठुमक-ठुमक कर नाचा करती थी और जो मुझे आज भी पूरा कंठस्थ है.... "यशोदा के नंदलाल बड़े रगुरी... बड़े रगुरी... कदम्ब की डार पे बैठ बजावें बसुरी... बजावें बासुरी...."
बहुत सालों बाद जब मैं बड़ी हो चुकी थी तब हमारे घर के सामने लगे एक पेड़ पर उगे अपरिचित फूलों को देखकर पूछने पर पता चला कि ये कदम्ब का पेड़ है और मैं रोमांचित हो उठी लगा बस अब तो कन्हैया भी कहीं आस-पास दिख ही जायेगा :) :)
जिज्जी ...! बहुत सुन्दर चित्रण ...बचपन याद आ गया ...द्वार पर नीम तले डाला गया झूला जिस पर हमने अपनी सहेलियों के साथ पींगे भरीं .....अरे हाँ ...पटोहा पर बैठ कर झूलने में आनंद आता था लेकिन झुलाने में बड़ा डर भी लगता था ..
आपकी इस पोस्ट से ये कजरी भी याद आ गई -झुलना पड़ा कदम की डारी
झूलैं कृष्ण मुरारी न ...
जिज्जी ...! बहुत सुन्दर चित्रण ...बचपन याद आ गया ...द्वार पर नीम तले डाला गया झूला जिस पर हमने अपनी सहेलियों के साथ पींगे भरीं .....अरे हाँ ...पटोहा पर बैठ कर झूलने में आनंद आता था लेकिन झुलाने में बड़ा डर भी लगता था ..
आपकी इस पोस्ट से ये कजरी भी याद आ गई -झुलना पड़ा कदम की डारी
झूलैं कृष्ण मुरारी न ...
An extraordinary write up, Shubhra. I have very fond memories of my childhood and schooldays in the T. S. Compound where, in the Gyan-- geha section there was a beautiful kadanb tree. And of course, all the Krishna legends,songs connected to the Leela Purushottam. Enjoyed reading .
Thanks, Sushama di.T S compound itself was so woodsy & beautiful. The waterlilies, kadamb, tesu and a veritable wall of kunda flowers near the Music room. Lucky to have had all this.
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।