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Tuesday, February 26, 2008

मेरे आस-पास बोलते रेडियो- डॉ पंकज अवधिया की अतिथी पोस्ट

जब पिछले वर्ष मई मे मैने मधुमेह पर पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान पर आधारित रपट लिखना शुरु किया तो मुझे 14-16 घंटे कम्प्यूटर पर बैठना पडा। तब से आज तक यह कार्य जारी है और लगता है कि 2010 तक चलता रहेगा। अकेले काम करना होता है इसलिये कभी-कभी बडी बोरियत होती है। इस समय मेरा वर्ल्ड स्पेस रेडियो सुनना बहुत काम आ रहा है। इतने सारे चैनल है पर मै अंग्रेजी गानो का शौकीन हूँ विशेषकर कंट्री गानो का। ये गाने मुझे और कही सुनने नही मिलते। आजकल पैसे देकर कौन रेडियो सुनता है? पिताजी के कमरे मे लगातार विविध भारती बजता रहता है और माताजी भी जब भी समय मिलता है यही सुनती है। शहर मे निजी एफ एम चैनलो की बाढ आ गयी है पर वे इतना जल्दी बोलते है कि सुनने के लिये सब काम छोडना पडता है। शाम को जब मै पास के हेल्थ क्लब मे जाता हूँ तो वहाँ जिम मे निजी चैनल विशेषकर रेडियो मिर्ची बजता है। युवा बडे मजे से गाते हुये व्यायाम करते रहते है।

तरह-तरह के चैनलो ने तो मानो क्रांति ही ला दी है। रायपुर मे पहचान के कई युवा इन निजी चैनलो मे काम करते है। उनपर काम का बडा दबाव रहता है पर फिर भी रेडियो पर उन्हे सुनने से ऐसा नही लगता। पिताजी मेरे वर्ल्ड स्पेस प्रेम पर अचरज करते है। एक साल रेडियो सुनने के लिये 1800 को वे फिजूलखर्ची मानते है। मै कहता हूँ कि इसमे विज्ञापन नही आते तो वे कहते है विविध भारती मे भी तो कम विज्ञापन आते है। जब मै हिंन्दी गाने सुनता हूँ तो वे अपने रेडियो की आवाज बढा देते है ताकि मै जान सकूँ कि मुफ्त मे भी ऐसे गाने सुने जा सकते है।

दोपहर को जब मै खाने की मेज पर पहुँचता हूँ तो माताजी का सखी सहेली कार्यक्रम चलता रहता है। लोग फोन करते रहते है और उन्हे गाने सुनाये जाते है। बीच मे खाने से पहले चाय के लिये किचन चला गया तो माँ कहती है देखो ये तुम्हारे व्लाग वाले युनुस खान बोल रहे है। युनुस जी को माताजी बडे दिनो से सुन रही है। एक बार तो उन्होने शनिवार के कार्यक्रम मे प्लास्टिक खाने वाले क़ीडे की खोज के बारे मे बताया बडे ही रोचक ढंग से। माताजी ने सब को रेडियो के पास बुला लिया। माता-पिता की खुशी का ठिकाना नही रहा। आखिर युनुस खान उनके अपने बच्चे की वैज्ञानिक उपलब्धियो के विषय मे बता रहे थे। मै तब युनुस जी के ब्लाग को नही जानता था। मुझे भी अचरज हुआ कि मेरी इस खोज को कैसे इन्होने इतने रोचक ढंग से प्रस्तुत किया।

बतौर बाल कलाकार मैने आकाशवाणी रायपुर मे काम किया। बच्चो के साप्ताहिक कार्यक्रम किसलय मे कम्पीयर रहा। मिर्जा मसूद और कमल शर्मा जी के साथ काम किया। कल्पना य़ादव और लाल राम कुमार सिंग जी के सानिध्य मे सीखा। पता नही अब कमल शर्मा जी को ये याद भी है या नही। ये सभी नाटक पिताजी ने टेप करके रखे है।

लीजिये अभी वर्ल्ड स्पेस के उर्दू चैनल मे मिर्जा गालिब के खत पढे जा रहे है। मै यह कार्यक्रम इसलिये सुनता हूँ क्योकि उस समय के हालात पता चल जाते है और गजले भी सुनने को मिल जाती है। पर उदघोषक कार्यक्रम को रोचक बनाने के लिये मिर्जा गालिब की आवाज मे ही खत पढते है। इस ढंग से हमारे परिवार को इतनी एलर्जी हो गयी है कि अब यह कार्यक्रम मुश्किल से सुन पाते है। मैने उन्हे लिखा है पर अभी तक तो उस बेरुखी आवाज का कहर जारी है।

पंकज अवधिया
http://www.pankajoudhia.com

3 comments:

annapurna said...

पंकज जी, एक शोध कर्ता वैज्ञानिक के रूप में आपको जानना अच्छा लगा।

रेडियो के मामले में आपके पिताजी सही है।

आपने रायपुर के युवाओं की बात की तो मुझे नैसकेफे काफ़ी का विज्ञापन याद आ गया जहां पिता अपने बेटे से पूछते है कि रात को तुम्हें कौन फोन करता है, तुम किसकी फ़रमाइश के गीत बजाते हो - चौकीदार, चोर…

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म्म, बढ़िया बात कही आपने!!
आकाशवाणी रायपुर से अपने बचपन में हम भी जुड़े रहे साल भर तक, बच्चों के कार्यक्रम में!!
जो उत्पात मचाए कि पूछिए मत!!

Yunus Khan said...

पंकज भाई शुक्रिया इस पोस्‍ट के लिए । रेडियो की यादों के कुछ नए आयाम सामने आए हैं । आगे चलकर रेडियोनामा पर आपसे और भी आलेखों की आशा हैं हमें । वर्ल्‍ड स्‍पेस के कार्यक्रमों के बारे में ज़रा तफ्सील से लिखिए । ये भी बताईये कि वर्ल्‍ड स्‍पेस ने रेडियो की दुनिया को कितना बदला है । आप नियमित वर्ल्‍ड स्‍पेस सुनते हैं इसलिए आपके अनुभव हम सब सुनना चाहेंगे ।

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