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Thursday, June 30, 2016

ताने-बाने लोकेंद्र शर्मा की जिंदगी के- दसवीं कड़ी।

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रेडियो के सामने बैठकर, रेडियो मैंने जीवन में पहली बार मामाजी के घर में सुना. रेडियोग्राम में रोज़ सुबह समाचार सुने जाते थे. मामाजी का आदेश था कि सब लोग अंग्रेजी के समाचार ज़रूर सुनें. 
इससे अंग्रेजी सुधरेगी, लेकिन सुधरती ख़ाक. मैं तो मेवाड़ी और हिंदी बोलते-बोलते दिल्ली आया था, अंग्रेजी बस उतनी ही आती थी, जितनी आठवी पास करने के लिए ज़रूरी थी. समाचार सुनता ज़रूर था, लेकिन समाचार बांचने वाले के नाम ‘मेल्विल डिमेलो’ के अलावा उसमें और कुछ पल्ले नहीं पड़ता. अंग्रेजी के बाद हिंदी समाचार आते थे. ये सुनना ज़रूर अच्छा लगता था, क्योकि थोड़ा बहुत समझ में भी आ जाता था. लेकिन जाने क्यों समाचार वाचक की आवाज़ सुन कर मुझे लगता कि समाचार बोलने वाला कोई आदमी नहीं है. ये तो रेडियो बोल रहा है. किसी आदमी की भी ऐसी आवाज़ होती है कहीं. लेकिन रोज़ सुनता था इसलिए, कुछ दिनों बाद मुझे समाचार पढ़ने वाले का नाम याद हो गया. नाम शुरू में ही बोला जाता था, ‘ये आकाशवाणी है, सुबह के सवा आठ बजे हैं, अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए.’


रविवार के दिन सुबह नौ बजे बच्चों का कार्यक्रम आता था. मैं, अरुण, बेबी, अशोक, मुन्नी और साथ में सरोज और मंजू बहन भी मिलकर इस प्रोग्राम को सुनते. प्रोग्राम में एक दीदी और एक भैया होते थे. कुछ बच्चे भी उनके साथ होते. भैया और दीदी ऐसे बातें करते, जैसे वे अपने सामने बैठे बच्चों से ही नहीं, रेडियो सुनने वाले बच्चों से भी मुख़ातिब हैं. थोड़े ही दिनों में मुझे दीदी और भैया से मिलने की चाह होने लगी. रविवार की ही दोपहर को एक और कार्यक्रम आता था – ‘आपकी चिट्ठी मिली’. इसमें भी कोई आशा बहन और मित्तल साहब सुनने वालों की चिट्ठियों के जवाब देते थे. मुझे ये प्रोग्राम भी बहुत पसंद था. जाने क्यों लगता कि रेडियो में बैठे हुए लोग, मुझे अपने पास बुला रहे हैं. मैं अक्सर चक्कर में पड़ा रहता कि रेडियो में सुनाई देने के कारण आवाज़ ऐसी लगती है या सचमुच में इन लोगों की आवाज़ इतनी ही अच्छी है.


रेडियोग्राम एक ठिगनी आलमारी जैसा था, जिस के आधे हिस्से में रेडियो था और बाकी आधे में ग्रामोफ़ोन. ये ग्रामोफ़ोन भी निराले किस्म का था. एक तो यह कि बिजली से चलता था, इसलिए इसमें हैंडल घुमाकर चाबी भरने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. दूसरे इसमें एक साथ छह रिकॉर्ड लगाए जा सकते थे, जो एक के बाद एक, अपने-आप बजते चले जाते. अब तक मैं रेडियो से इतना प्रभावित हो चुका था कि अक्सर इच्छा होती, मैं भी रेडियो से बोलूं, लेकिन बोलने के लिए क्या करना चाहिए, इसकी कोई जानकारी नहीं थी. अपनी भड़ास मिटाने के लिए कई बार मैं रेडियोग्राम के पीछे छुपकर बैठ जाता और बाकी बच्चों को सामने पलंग पर बैठा देता, फिर जितनी देर में रेडियोग्राम, एक रिकॉर्ड बजाकर दूसरे को बजाने की  तैयारी करता, तब तक बीच में आये विराम के समय, मैं गाने की एनॉउन्समेंट करता. डांट-डपट कर जबरदस्ती पलंग पर बैठाए गए श्रोताओं को मेरी एनाउन्समेंट सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, सो वो खुसुर-पुसुर करते रहते, लेकिन डर के मारे बैठे रहते. गाने भी कुल मिलाकर दस-बारह ही थे, जिन्हें हर रोज़ सुना जाना भी किसे भाता.


मामाजी के घर में रहते हुए मुझे दिलचस्पी का एक और सामान मिला. सरोज बहन को ड्रॉइंग और पेंटिंग का शौक था. अक्सर वे किसी कैलेंडर या किताब के छोटे चित्र को बड़ा या बड़ी तस्वीर को छोटा करके बनाया करतीं. तस्वीर को ज्यों का त्यों दूसरे काग़ज़ पर नए सिरे से बनाने का उनका एक विशेष फॉर्मूला था. जिस पेंटिंग को दूसरे काग़ज़ पर बनाना होता, उसपर पहले एक-एक इंच की दूरी पर पेंसिल से पड़ी-लाइनें खींचती, फिर एक-एक इंच की दूरी पर खड़ी-लाइनें खींची जातीं. इस तरह पूरी पेंटिंग एक-एक इंच के वर्ग वाले ताने-बाने में बंट जाती. अब जिस काग़ज़ पर तस्वीर बनानी होती, उसपर भी उसी तरह की खड़ी और पड़ी लाइनें खींची जातीं और मूल तस्वीर के एक-एक वर्गइंच में सिमटी पेंटिंग की लकीरों को, दूसरे काग़ज़ के वर्गइंच में कॉपी किया जाता. इस तरह धीरे-धीरे करके पूरी तस्वीर नए काग़ज़ पर उतर आती. फिर तस्वीर की लकीरों को स्याही से गहरा किया जाता और पेंसिल से बने हुए ताने-बाने रबर से मिटा दिए जाते. इस काम के लिए ढेर सारे धैर्य और घनी एकाग्रता की ज़रूरत होती है. सरोज बहन घंटों तक तस्वीर में सिर झुकाए काम किया करतीं और मैं देखा करता. मुझे पेंटिंग में दिलचस्पी लेता देखकर, सरोज बहन ने मेरा उत्साह बढ़ाया. पहले उन्होंने तस्वीर और काग़ज़ पर मुझे लकीरें खींचने का काम सौंपा. फिर वर्गइंच के खानों में तस्वीर को कॉपी करना सिखाया. एक तो मुझे यह काम करते हुए बहुत मज़ा आ रहा था, दूसरे सरोज बहन का प्यार भरा व्यवहार मुझे उत्साहित कर रहा था. दोस्ती मेरी मंजू बहन के साथ भी हो गई थी, लेकिन मंजू बहन दोस्त जैसी थी, जबकि सरोज बहन के व्यवहार में मुझे ममता नज़र आती.

                  
                                    ***


गर्मी की छुट्टियां खतम होने को थीं. बेबी, अरुण, मंजू बहन और सरोज बहन आदि सबको अपने-अपने स्कूल-कॉलेज जाने का समय आ रहा था. मुझे भी दिल्ली के किसी स्कूल में दाखिला लेना था, लेकिन उससे पहले ये ज़रूरी था कि बाउजी अपने परिवार के रहने का कहीं और बंदोबस्त करें. बाउजी ने कुछ मकान तलाश किए. एक-दो बार मैं भी उनके साथ मकान देखने गया. बल्लीमारान में एक घर देखा, पसंद नहीं आया. दूसरा लालकुआं में भी देखा, उसका किराया बहुत ज़्यादा था. किसी ने तेलीवाड़े में एक मकान की सूचना दी. मैं और बाउजी इसे भी देखने गए. चांदनी चौक से ट्राम में बैठकर फ़तेहपुरी, खारीबावली, लाहोरीगेट और कुतुबरोड होते हुए हम तेलीवाड़ा पहुंचे. कुछ अंदर जाकर एक पतली सी गली थी, जिसका नाम था, पनिहारी गली. गली साफ़-सुथरी लगी. गली वैसे तो सीधी चली गई थी, लेकिन एक जगह बायीं और भी मुड़ गई थी जौर एक चौक तक आकर बंद हो गई थी. इसी चौक में श्रीकृष्ण गुप्त का मकान था. मकान में प्रवेश करते ही पत्थर का एक चौरस दालान और दालान के तीन तरफ़ लंबे-लंबे कमरे थे. लगता था दालान के तीन तरफ कभी बरामदा था, जिसे तीन-तीन लकड़ी के दरवाजों से ढांप कर कमरों में बदला गया है. बीच का दरवाज़ा खोला और बंद किया जा सकता था, बाकी अगल-बगल के दो दरवाज़े दीवार का काम करते थे. चौक में सामने वाला बरामदेनुमा कमरा हमें दिखाया गया. अंदर का स्वरुप एक आयताकार जैसे कमरे का था और साथ में एक छोटा कमरा भी था, जिसकी ख़िड़की से मकान के पिछवाड़े वाली गली दिखाई देती थी. चौक के ऊपर लोहे का जाल था और इस जाल के ऊपर एक और जाल, जो असल में छत का हिस्सा था. मैं पहले भी बता चुका हूं कि दिल्ली में जाल वाले घरों का अधिक चलन है. मकान मालिक श्रीकृष्ण गुप्त ने बताया कि वे पत्रकार हैं और लिखने-पढ़ने वालों की कद्र करते हैं. किराया उन्होंने चालीस रुपए महीना बताया. बाउजी को रेस्टोरेंट से कुल एक सौ पच्चीस रुपए महीना वेतन मिलता था, इस हिसाब से चालीस रूपए बहुत भारी जान पड़े, लेकिन कोई और चारा नहीं था. दूसरे जो मकान देखे, वे पैंतालीस और पचास रुपये से कम किराए के नहीं थे. हालांकि तेलीवाड़ा, चांदनी चौक से दूर भी बहुत था, लेकिन बाउजी मकान ढूंढ़-ढूंढ़ कर थक चुके थे, सो उन्होंने इस मकान के लिए हामी भर दी.


अगले ही दिन भाभी और हम बच्चे, सामान के साथ एक तांगे में लदकर, अपने नए ठिकाने पर आ गए. सामान कुछ ज़्यादा तो था नहीं, चूल्हे-चौके के लिए बर्तनों तक का नए सिरे से इंतज़ाम करना था. एक तरह नए सिरे से गृहस्थी को जमाना था. यानी तेलीवाड़ा में बाउजी के लिए एक बार फिर, एक नए संघर्ष की शुरूआत हुई और शायद यहीं से उनके संघर्ष में मेरी भागीदारी भी जुड़ी.


आस-पास के स्कूलों में मेरे दाख़िले की कोशिशें की गई, पर नाकाम रही. मकान मालिक श्रीकृष्ण गुप्त ने मदद का हाथ बढ़ाया. उन्होंने बाउजी से कहा, घबराएं नहीं, दाख़िला हो जाएगा. हम बच्चों ने मकान मालिक को चाचाजी कहना शुरू कर दिया था. अगले ही दिन चाचाजी मुझे लेकर मोरीगेट के गवर्नमेंट हाईस्कूल में पहुंचे. वहां के असिस्टेंट हेडमास्टर सेठी साहब चाचाजी के मित्र थे. सेठी साहब ने आदर से बैठाया, चाचाजी के लिए चाय मंगवायी और मेरे दाख़िले का फॉर्म ख़ुद ही भर दिया, लेकिन एक बात पर उन्होंने अपनी राय दी. मैं भीलवाड़ा से आठवीं कक्षा पास करके आया था और सेठी साहब के अनुसार दिल्ली की पढ़ाई का स्तर ऊंचा था. अगर मैं नौंवी कक्षा में दाख़िला लेता, तो मेरा फ़ेल होना तय था. इसलिए उन्होंने सलाह दी कि मैं एकबार फिर आठवीं कक्षा में दाख़िल हो जाऊं, ताकि दिल्ली की पढ़ाई के क़ाबिल हो सकूं. सन् 1949 में भारत सरकार के आदेश ने मुझे पहली से सीधे तीसरी कक्षा में पहुंचाया था और अब आठवीं को मुझे दोबारा पढ़ना था. यानी नफ़ा-नुकसान बराबर हो गया.

मेरा दाखिला होते-होते भीलवाड़ा के स्कूल ‘महिला आश्रम’ की यानी भाभी की छुट्टियाँ ख़तम हो गईं. यह ज़रूरी था कि नौकरी की खातिर, भाभी अब भीलवाड़ा लौट जाए, लेकिन दिल्ली में भी गृहस्थी जमानी थी, इसलिए भाभी को एक महीने और छुट्टियां बढ़ानी पड़ीं, लेकिन जब वो महीना भी ख़तम हुआ तो भाभी का भीलवाड़ा लौट जाना ज़रूरी हो गया. नौकरी छोड़ कर दिल्ली में उनका रहना संभव नहीं था, क्योकि केवल बाबूजी के वेतन पर गृहस्थी का गुज़ारा नामुमकिन था. वैसे भी भीलवाड़ा वाला मकान अभी छोड़ा नहीं गया था. असल में घर-गृहस्थी का काफ़ी सामान वहां जमा था. सो दो बरस के फुन्नू को लेकर एक दिन भाभी भीलवाड़ा लौट गईं. भाभी के चले जाने के बाद, रसोई और घर की ज़िम्मेदारी मुन्नी पर आ गई और अब उसे स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ सुबह-शाम सबके लिए खाना बनाने की ड्यूटी भी निभानी पड़ती. जाते जाते भाभी कह गई थीं कि कुछ ही दिनों में वे वापस लौट आएंगी. लौट आने के उनके इस वादे का अर्थ ठीक से समझने की तब मेरी उम्र नहीं हुई थी. यह अर्थ तो मैंने बाद में ही जाना, जब कुछ महीनो बाद वे वापस लौटीं, अपने अगले प्रसव के लिए. लेकिन इसकी चर्चा बाद में.

                                  ***    


मोरीगेट का गवर्नमेंट हाईस्कूल, एक नहीं दो स्कूल थे, जो दो अलग-अलग शिफ़्टों में चलते थे. पहला स्कूल सुबह सात बजे शुरू होता और बारह बजे ख़तम हो जाता. इसके हेडमास्टर, अध्यापक और चपरासी सबकी छुट्टी हो जाती. फिर साढ़े बारह बजे से दूसरा स्कूल शुरू होता, जो साढ़े पांच बजे तक चलता. मुझे दूसरी शिफ़्ट में दाख़िल किया गया था. हमारा स्कूल दिल्ली के चारों तरफ़ बनी पत्थर की दीवार के एक तोपख़ाने में था. शाहजहां के ज़माने में बनी इस दीवार में कई दरवाज़े थे. दिल्ली दरवाज़ा, तुर्कमान दरवाज़ा, अजमेरी दरवाज़ा, लाहोरी दरवाज़ा, मोरी दरवाज़ा और कश्मीरी दरवाज़ा. शायद हमारे स्कूल की इमारत जैसे तोपख़ाने, हर दरवाज़े के साथ रहे होंगे, लेकिन अब दीवार के कुछ ही टुकड़े बचे थे. अन्य दरवाज़े तो अब भी अपनी-अपनी जगह खड़े थे, लेकिन मोरी दरवाज़े का केवल नाम ही रह गया था. लोगों का कहना था कि 1957 के ग़दर में ये दरवाज़ा अंग्रेजों की तोपों का शिकार हो गया. जो भी हो अब उस दरवाज़े की जगह केवल समतल ज़मीन थी, लेकिन मोरी दरवाज़े का खंडहर तोपख़ाना अभी भी बचा हुआ था और इस समय हमारे स्कूल के काम आ रहा था.


स्कूल के बाहर शरणार्थियों की घनी बस्ती थी. दोनों ओर दूकानें थीं और दूकानदारों ने बल्लियों के सहारे त्रिपाल और कनातें लगाकर सड़क का काफ़ी हिस्सा घेरा हुआ था. दूकानों के ऊपर लकड़ी और ईंटों की दीवारों से बनाए गए कच्चे-पक्के कमरे थे, जो शरणार्थियों के घर बने हुए थे. स्कूल के गेट से बाहर निकलते ही दाएं-बाएं दोनों तरफ़ खोमचे वालों की कतारें नज़र आती. स्कूल की दूसरी शिफ़्ट शुरू होने से पहले और आधी छुट्टी के समय खोमचे वालों की हलचल बढ़ जाती. एक चूरन वाला था, जो चूरन की पुड़िया में जादुई चिंगारी सी भड़काकर ग्राहक को देता. चिंगारी का जादू देखने के लिए बच्चों की भीड़, उसके खोमचे को घेरे रहती. एक मोटा सिंधी कढ़ाही में पापड़ तल-तल कर बेचता था. मैं कई बार उसे हसरत से देखता और अचरज करता कि कढ़ाही में उसने पापड़ तो छोटा ही डाला था, लेकिन उबलते हुए तेल में पहुंचते ही पापड़ का आकार दोगुना हो गया. बहुत दिनों बाद पता चला था कि चावल के पापड़ का यही हाल होता है. एक उबले हुए चने बेचने वाला भी था, जो बराबर पुकार लगाए जाता, “गरमा-गर्रम मस्सालेदार”. इस चने वाले की पुकार सुनकर मुझे भीलवाड़ा में महाराणा टॉकिज़ के सामने बैठे, मूंगफली वाले की पुकार, ‘गर्रमा-गर्रम. मीठीई-मीठीई’ याद आ जाती. लेकिन इन सब खोमचे वालों को मैं सिर्फ देखकर ही तसल्ली ही कर सकता था, कभी कुछ ख़रीदकर खाने जैसी मेरी औक़ात नहीं थी.


स्कूल के भीतर का दृश्य भी मज़ेदार था. फाटक में प्रवेश करते ही एक बड़ा मैदान सामने दिखाई देता और इसके चारों तरफ़ पत्थर की खंडहरनुमा बैरकें नज़र आतीं. सामने बाएं कोने में सीढ़ियां थीं, जो पहली मंज़िल तक जाती थीं, जहां बरामदे के पीछे कमरे थे. इन कमरों में अलग-अलग कक्षाएं लगा करतीं. बरामदे और कमरों का फ़र्श मिट्टी के उबड़-खाबड़ आंगन जैसा था और इसी में छात्रों की आड़ी-तिरछी बेंचें और डगमग करते डेस्क रखे थे. कक्षाओं में अपेक्षाकृत अंधेरा रहता था, जिसे दूर करने के लिए छत पर लटका बिजली का एक बल्ब हमेशा जला करता. एक पीरियड ख़तम होने के बाद दूसरे पीरियड के लिए नए मास्टरजी आते और आते ही उन्हें सबसे पहले अपनी डगमगाती कुर्सी को इधर-उधर खिसका कर, उसके लिए समतल ज़मीन तलाश करनी पड़ती. ज़्यादातर अध्यापक पंजाबी थे और उनकी भाषा भी पंजाबी और ऊर्दू से भीगी हुई थी. इस कारण कई बार कोई-कोई बात मेरी समझ में भी नहीं आती. गणित पढ़ाने वाले मास्टरजी जब ब्लैकबोर्ड पर सवाल समझाते, तो गुणा को ‘ज़रब’, ऋण को ‘घटा’, धन को ‘जमा’ और विभाजक को ‘भाग’ कहते और मुझे ख़ाक समझ में नहीं आता. गणित वाले मास्टरजी ने एक दिन मेरी तरफ़ इशारा करके कहा, “तू नवां है ना, चल ब्लैकबोर्ड पर ये सवाल कर.” अपनी सीट से उठकर ब्लैकबोर्ड तक जाते-जाते मैंने सोचा, गणित की ऊर्दू शब्दावली मुझे आती नहीं और यदि मैं भीलवाड़ा में सीखी गई हिंदी शब्दावली का प्रयोग करूंगा, तो यहां किसी को समझ में आएगा नहीं. सो चॉक हाथ में लेकर ब्लैकबोर्ड पर लिखने से पहले मैंने तय किया कि मैं अंग्रेजी की शब्दावली का इस्तेमाल करूंगा, ताकि सबको समझ में आ सके और मैंने यही किया. लेकिन ज्यों ही मेरे मुंह से ‘प्लस’, ‘माइनस’ और ‘इक्वलटू’ जैसे शब्द निकले, पीछे से दनदनाता हुआ मास्टरजी का झापड़ माथे पर पड़ा. मैं कुछ समझूं, इसके पहले ही वे चिल्लाए, “अंग्रेजदा पुत्तर. आठवीं जमात में इंग्लिश बोलेगा?” सिर के पीछे पड़ी मार और अपमान के कारण रोना सा आने लगा, लेकिन सफ़ाई में क्या कहूं, ये समझ नहीं पाया. मास्टरजी ने मुझे सफ़ाई का मौका भी नहीं दिया. डांटकर कहा, “चल जाके बैठ अपणी जगां.”



मास्टरजी ने जो किया, उनके लिए वो आम बात थी, लेकिन मेरे साथ जो हुआ, वो मेरे लिए सहज नहीं था. सारी क्लास के सामने अपमानित किए जाने पर मुझमें क्रोध और पीड़ा एक साथ जागे. मुझे पता था कि अब मुझे क्लास के दूसरे लड़कों का अपमान भी सहना है. अधिकतर छात्र शरणार्थी परिवारों के पंजाबी और सिंधी बच्चे थे. कई बच्चे उम्र में मुझसे बड़े और लंबे-चौड़े भी थे. शुरू-शुरू में, वैसे भी मुझे उनकी पंजाबीनुमा हिंदी ठीक से समझ नहीं आती थी, जिसके कारण मेरा ख़ूब मज़ाक उड़ाया जाता. जब मास्टरजी क्लास में नहीं होते, तब लड़कों की दबंगई और बढ़ जाती. बड़ी उम्र का ना लड़का, बलविंदर जब भी मेरे पास से गुज़रता, गाल पर चिकोटी काटकर, ‘क्यों बे चिकणे’ कहता जाता. क़रीब महीना भर बीत जाने के बावज़ूद मेरी मिनी-रैगिंग जारी थी और ये अभी कितने दिनों तक और चलती रहेगी, इसका कुछ अंदाज़ा भी नहीं था. अब तो दिन में कई-कई बार क्लास के अलग-अलग कोनों से ‘अंग्रेजदा पुत्तर’ भी सुनाई देता और मुझे रोना सा आने लगता.


जब कई दिनों तक मेरे साथ रैगिंग चलती रही, तो एक दिन जाने मुझे कैसा ताव आया कि मैं झटके से उठा, तेज़ी से क्लास के बाहर आया, बरामदा पार किया और सीधा चिक का परदा उठाकर हेडमास्टर जी के ऑफ़िस में जा घुसा. हेडमास्टर जी रामचंद खरबंदा साहब कोई फ़ाइल देख रहे थे, अचानक मुझे सामने देखकर, उन्होंने अपना सिर उठाया. मैंने बिना किसी डर या संकोच के गीली आंखों और भरे गले से एकाएक कहना शुरू किया, “क्या यही है आपका अनुशासन? यही सिखाया जाता है आपके स्कूल में? मैं नया हूं, मुझे पंजाबी नहीं आती, तो ये क्या मेरा अपराध है? सारे लड़के मिलकर मुझे सुबह से शाम तक चिढ़ाते हैं. किससे शिकायत करूं? कहां जाऊं?” मैं आगे कुछ बोलूं, इससे पहले ही किसी का हाथ मेरे कंधे पर पड़ा. मैंने मुड़कर देखा, वही गणित वाले मास्टरजी थे. जाने कब चिक उठाकर वे कमरे में चले आए थे और चुपचाप खड़े मेरी बात सुन रहे थे. बोले, “कोण चिड़ान्दा है तुझे, चल दस्स मैनू”. हेडमास्टर साहब  ने भी कहा, “हां, सोढ़ी साहब, देखो ज़रा क्या मामला है.”
सोढ़ी साहब बाजू से मुझे पकड़कर तेज़ी से क्लासरूम की तरफ़ चले. चिक उठाने से पहले उन्होंने कोने में पड़ी बेंत उठा ली थी. क्लास में पहुंचते ही लगभग मुझे आगे धकेलते हुए उन्होंने कहा, “बता कौण ए? किसने छेड़ा ए? किसने मज़ाक उड़ाया?”  मैं सकते में खड़ा रहा. डरी-डरी आंखों से मास्टरजी की तरफ़ देखता रहा. किसी लड़के की तरफ़ इशारा करने की हिम्मत ही नहीं हुई. क्लास में भी अजब सन्नाटा था. मास्टरजी ने मेरी तरफ़ से ध्यान हटाया और सामने बैठे लड़के की डेस्क पर बेंत फटकारी और पूछा, “तू बता, कौण छेड़दा है इसनू?” सहमा हुआ लड़का चुपचाप खड़ा हो गया, बोला कुछ नहीं. मास्टरजी ने सड़ाक से एक बेंत उसे जड़ दी. फिर पीछे की क़तार में बैठे हुए बड़ी उम्र के बलविंदर से पूछा, “ओए तू बोल, तूने छेड़ा?” खड़े होकर उसने भी इनकार में सिर हिलाया और जवाब में मास्टरजी की बेंत खाई. इसके बाद तो मास्टरजी को जैसे दौरा ही पड़ गया. जिसपर नज़र पड़ी, उसे दनादन बेंत रसीद करने लगे. साथ ही उनका चिल्लाना भी जारी था, “मां-बाप तुमको इधर सकूल में भेजते हैं पढण वास्ते और यहां आकर दादागीरी करते हो... इतना लुट-पिट कर आए हो पार्टीशन में, लेकिन दमाग सीधा नहीं हुआ ... मरोगे सारे... मेरे हत्तों मरोगे... पढ़ना एक लफ़ज नहीं और हरामखोरी में अव्वल... कोई नया आएगा क्लास में, तो उसके साथ गुंडागर्दी करोगे... सकूल को क्या समझा है, अपणे बाप का हुजरा?” मास्टरजी की जबान और बेंत दोनों चल रहे थे. मार खाते हुए लड़के ‘हाय-हाय माड्डाला... मैं मर गया... माश्टरजी’ कर करके चिल्ला रहे थे, लेकिन मास्टरजी के क्रोध पर उनके रोने का कोई असर नहीं हो रहा था. मैं पीछे खड़ा हुआ थर-थर कांपने लगा. मार खाते और हाय-हाय करते लड़कों को देखकर मुझे रोना आ गया. मास्टरजी ने एक लड़के पर बेंत उठाई, लेकिन इससे पहले कि वो किसी पर बरसती, बेंत को पीछे से मैंने पकड़ लिया. मास्टरजी ने मुड़कर मुझे देखा, फिर मेरे आंसू भरे चेहरे को देखकर, एकाएक हाथ नीचे कर लिया. मैंने रोते-रोते हाथ जोड़कर उनसे कहा, “मत मारिए, बहुत हो गया. माफ़ कर दीजिए इनको.” मास्टरजी पहले हैरान हुए, फिर धीरे से आकर कुर्सी पर बैठ गए, मुझे बाजू से पकड़कर अपनी तरफ़ खींचा और दूसरे हाथ से मेरे आंसू पोंछते हुए कहा, “ओए तू क्यों रोता है? ये ससुरे तो हैंई इसी काबल हैं. तू अपना दिल क्यों ख़राब करता है. शाबाश, चुप हो जा.” फिर एकाएक मास्टरजी ने क्लास की तरफ़ देखते हुए कहा, “देखो नमूनो, ओए शरम करो, तुम इसके साथ कैसा सलूक करते हो और इसके दिल में तुम्हारे लिए कितना रहम है. संभल जाओ, पढ़ाई में त्यान लगाओ, इस लफंडबाजी में कुछ नहीं रखा. सीखो कुछ.” फिर मेरी तरफ़ देखकर आवाज़ में थोड़ा लाड़ भरते हुए मास्टरजी ने पूछा, “नांव क्या है तेरा?” मैं एकबार फिर सहम गया. मेरा संस्कृत जैसा नाम सुनकर कहीं मास्टरजी फिर से मुझे किसी का ‘पुत्तर’ न घोषित कर दें. मैंने डरते-डरते अपना नाम बताया. मास्टरजी ने पता नहीं समझा या नहीं, पर मुस्कराए और कहा, “जा बैठ जा अपनी जगा, अगर कोई भी तुझे कुछ बोले, तो हेडमाटसाबजी के पास जाने की ज़रूअत नईं, मेरे को बोलना. मैं हड्डियां तोड़ दूंगा इनकी. जा श्याबाश, बैठ जा.”


इस घटना के बाद लड़के मुझसे डरने से लगे. एक-दो शायद इज़्जत भी करने लगे. क्लास में दो भाई थे, दर्शन और प्राण. दोनों मेरे दोस्त हो गए. ये दोनों भी तेलीवाड़े में ही रहते थे, हमारे घर की खिड़की से जो पिछवाड़े की गली दिखाई देती थी, उसी में. स्कूल आने-जाने के लिए मेरा और उनका साथ हो गया. दर्शन, प्राण से छोटा था, उम्र में भी और कद-काठी में भी, लेकिन पढ़ने में ख़ासा तेज़ था. उसकी लिखावट बहुत सुंदर थी. कई दिनों बाद मुझे पता चला, उसका पूरा नाम सुदर्शन तलवार है, लेकिन घर और स्कूल में सब उसे दर्शन ही कहकर बुलाते थे. चूंकि पड़ोसी थे, हमारा एक-दूसरे के घरों में आना-जाना होने लगा. दर्शन के माता-पिता और बड़े भाई मुझे बहुत प्यार करते थे. दर्शन भी मेरे घर में वैसा ही आदर पाता था. भाभी, मुन्नी, अशोक सब दर्शन को बहुत पसंद करते थे. जिस मोहल्ले में दर्शन और प्राण का घर था, उसमें लगभग सभी घर पंजाबी शरणार्थियों के थे. स्कूल के कुछ और लड़के भी यहीं रहते थे. इनमे एक थोडा अमीर सा दिखाई देने वाला लड़का भी था - अमर. पूरा नाम था अमरनाथ पसरीचा. धीरे-धीरे मेरी सभी से दोस्ती हो गई. उनके संपर्क में, मैं पंजाबी समझने और थोड़ी-थोड़ी बोलने भी लगा.


नवंबर के साथ ही दिल्ली की हवा में ठंडक शुरू हो गई थी. स्कूल की ड्रेस ख़ाकी निकर और सफ़ेद क़मीज थी, जिसकी वजह से आते-जाते टांगों में झुरझुरी होती. एक दिन मास्टरजी ने बताया कि चौदह नवंबर को बाल-दिवस है. उस दिन सब बच्चों को नेशनल स्टेडियम जाना है, जहां देशभर से आए हुए बच्चे चाचा नेहरू का जन्मदिन मनाएंगे. हमारी कोर्स की किताब में चाचा नेहरू पर एक निबंध था, उसी में मैंने पढ़ा था कि चाचा नेहरू बच्चों को बहुत प्यार करते हैं, इसीलिए उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है. मैं इस बात से बहुत उत्साहित हो गया कि चौदह नवंबर को मैं चाचा नेहरू को देख पाऊंगा. स्कूल की तरफ़ से सब बच्चों को बस में बैठाकर इंडिया गेट के पास, नेशनल स्टेडियम ले जाया गया. अंदर प्रवेश करने के लिए हर बच्चे को एक पास दिया गया था. मैं पास हाथ में लिए गेट की तरफ़ बढ़ता रहा, लेकिन किसी ने पास चैक ही नहीं किया. मैंने पहली बार नेशनल स्टेडियम और इंडिया गेट को देखा था. अंदर पहुंचने पर पता चला कि नेशनल स्टेडियम, एक गोल मैदान को घेरकर चारों तरफ़ बनाई गई ढ़ेर सारी सीढ़ियों का नाम था. सीढ़ियों पर हज़ारों की तादाद में बच्चे बैठे थे. हम भी जाकर एक सीढ़ी पर बैठ गए. गोलाकार सीढ़ियों में ही बायीं ओर एक मंच बनाया गया था. मंच पर गांधी टोपी पहने हुए ढेर सारे लोग दिखाई दे रहे थे. मैं हैरान सा अभी नेशनल स्टेडियम को निहारने में ही लगा था कि अचानक बच्चों में शोर मचा. मैंने देखा मंच पर गोरे-चिट्टे चाचा नेहरू आकर सब बच्चों को आकर हाथ हिला रहे थे. किसी ने चाचा नेहरू ज़िंदाबाद का नारा शुरू किया और स्टेडियम बार-बार इस नारे से गूंजने लगा. कुछ देर बाद मंच पर से सैकड़ों की तादाद में सफ़ेद कबूतर उड़ाए गए. बच्चों ने तालियां बजाई. फिर चाचा नेहरू ने भाषण दिया. उन्होंने बस इतना ही कहा, प्यारे बच्चो, जयहिंद कुछ बच्चों ने तालियां बजाईं और कुछ ने जयहिंद का नारा दोहराया. फिर चाचा नेहरू एक खुली जीप में सवार हुए और जीप ने धीमी चाल से स्टेडियम का चक्कर लगाया. जहां से भी चाचा नेहरू की जीप गुज़रती, बच्चे तालियां बजाते और जय-जयकार करते. सफ़ेद शेरवानी और सफ़ेद टोपी में गोरे-चिट्टे चाचा नेहरू मुझे बहुत सुंदर लग रहे थे. वे जीप में खड़े हुए थे और हाथ हिला-हिला कर बच्चों का अभिवादन स्वीकार कर रहे थे. ज्यों-ज्यों उनकी जीप हमारे समीप आ रही थी, मेरी धड़कन बढ़ती जा रही थी. कुछ अजीब सा रोमांचकारी अनुभव था. जीप हमारे सामने से गुज़री तो मैंने भी ख़ूब तालियां बजाई. स्टेडियम का चक्कर पूरा करके, कुछ देर बाद चाचा नेहरू चले गए और बाल दिवस का मेला पूरा हो गया.
लौटने के लिए वापस बस में बैठने से पहले सब बच्चों को एक-एक पैकेट दिया गया. पैकेट में एक समोसा और दो लड्डू थे.

4 comments:

Unknown said...

बहुत सुंदर. स्कूल में मास्टर जी की छडी पकड़ने का दृश्य अत्यंत मार्मिक लगा और आँखें नम कर गया.

Unknown said...

महेन्द्र मोदी

Unknown said...

महेन्द्र मोदी

Unknown said...

बहुत सुंदर. स्कूल में मास्टर जी की छडी पकड़ने का दृश्य अत्यंत मार्मिक लगा और आँखें नम कर गया.

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