अफ़सरों और कर्मचारियों से भरे आकाशवाणी, जोधपुर के
प्रांगण में जब बवेजा साहब बहोत ही दोस्ताना अंदाज़ में मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे
सबसे दूर ले गए तो सबकी निगाहें हमारी तरफ उठ गयी. पूरी भीड़ की तरफ पीठ किये हम
दोनों खड़े बात कर रहे थे. वो मुझे बता रहे थे कि उन्होंने मेरा सलैक्शन ट्रांसमिशन
एग्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए भी कर दिया है. मुझे साफ़ महसूस हो रहा था कि कुछ
निगाहें लगातार हमें घूरे चली जा रही हैं. सबके मन में ये उत्सुकता होना लाज़मी था
कि अभी बमुश्किल एक-डेढ़ महीने पहले ज्वाइन
करने वाले एकदम नए अनाउंसर से पूरे राजस्थान के आकाशवाणी के सबसे बड़े अफसर को इतनी
अंतरंगता से बात करने की आखिर क्या ज़रूरत पड़ गयी. जब उन्होंने मुझे समझाया कि मुझे
माइक्रोफोन के मोह में नहीं फंसना है और जब भी ऑफर मिले, फ़ौरन अनाउंसर की पोस्ट से
इस्तीफा देकर ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट पर ज्वाइन कर लेना है तो मेरे मन
में एक सवाल उठा, मैंने आहिस्ता से उनसे पूछा, “सर, क्या इस खबर को मुझे अभी सबसे
छुपा कर रखना है?” इस पर उन्होंने मेरे कंधे पर जोर से हाथ मारते हुए हल्का ठहाका
लगाया और बोले, “ अरे हमारा महेंद्र इतना डरपोक कब से हो गया? धड़ल्ले से सबको ये
खबर दो.” फिर एक लम्हा खामोश रहने के बाद बोले, “चलो, मैं ही ऐलान कर देता हूँ
इसका सबके सामने.” वो मेरा कंधा पकड़े पकड़े ही भीड़ की तरफ घूम गए और बोलने लगे, “सब
लोग सुनिये.....” सब लोग चुप हो गए. अब बवेजा साहब ने कहना शुरू किया, “मैंने आप
लोगों को एक अच्छा अनाउंसर दिया था लेकिन सॉरी...... मैं जल्दी ही उसे वापस ले रहा
हूँ.” फिर मेरी तरफ इशारा करके बोले, “ये है वो अनाउंसर जिसे मैंने आपको दिया था,
लेकिन खुशी की बात है कि इसका सलैक्शन ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट पर भी हो
गया है. इसलिए ये आपके स्टेशन पर कुछ ही दिनों का मेहमान है.”
सब लोगों ने तालियाँ बजाकर उनके ऐलान पर खुशी जताई, न जाने
कितने लोगों को दरअसल खुशी हुई और कितने लोगों ने महज़ दिखावे के लिए अपने हाथों को
थोड़ी सी तकलीफ दे दी. किसी के चेहरे से भला क्या पता लगता है कि उसके मन में क्या
चल रहा है?
पार्टी के बाद बवेजा साहब ने वहाँ से विदा ली और
ऑफिस चले गए जहां उन्हें कुछ मीटिंग्स निबटानी थीं. अगले दिन वो जयपुर लौट गए. अब
आकाशवाणी, जोधपुर में मेरी हैसियत एक मेहमान की सी हो गयी थी. कुछ लोगों ने तो ये
भी अंदाजा लगा लिया कि बवेजा साहब के साथ मेरी कोई पुरानी पहचान है. आखिर आकाशवाणी जैसे क्रिएटिव
महकमे के लोग जो ठहरे. कुछ भी कहानियाँ गढ़ सकते थे. मेरे एक दो साथी अनाउंसर्स ने
इशारतन मुझे पूछ भी लिया कि मेरी बवेजा साहब से कबकी पहचान है? मैंने उन्हें बताया
कि भाई कभी कभी जब भाग्य खराब होता है तो अच्छा करने चलते हैं, बुरा हो जाता है
वहीं ये भी सच है कि कभी कभी जब भाग्य अच्छा होता है तो बुरा करने निकलते हैं और उसका
कुछ अच्छा फल मिल जाता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसी ही कहानी है. मैंने बवेजा साहब के
पी ए के साथ हुए हादसे को ज्यों का त्यों उन्हें सुना दिया. उन्हें मेरी बात पर
कितना यकीन हुआ, कितना नहीं इसका तो पता नहीं, लेकिन उसके बाद मुझसे इस मुताल्लिक
किसी ने कोई सवाल नहीं किया. अब मुझे जल्दी ही दूसरी पोस्ट पर ज्वाइन करना है एक तरफ
जहां ये खबर पाकर मन को तसल्ली हुई क्योंकि भट्ट साहब की बात सच साबित हो रही थी,
मेरा सलैक्शन दोनों ही पोस्ट्स पर हो गया था, वहीं इस बात का अफ़सोस भी कम नहीं था
कि जो माइक मुझे इतना अज़ीज़ है मैं उससे दूर हो जाऊंगा. ऐसे में मेरा मन ज़्यादा से
ज़्यादा माइक के सामने रहने को करता था और साथी अनाउंसर्स कहते थे, “ छोड़ो यार, तुम
काम वाम छोड़ो अब, मौज करो बस........ चन्द रोज़ के मेहमान हो..... घूमो फिरो, ये
काम वाम हम कर लेंगे.” मगर मैंने भी तय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं जब
तक इस्तीफा नहीं दे देता काम करना नहीं छोडूंगा. मैं अपनी ड्यूटीज़ करता जा रहा था.
मैं जब एम ए कर रहा था तब भी ट्यूशन और नीम हकीमी
से अच्छा भला कमा रहा था. नतीजतन मेरे लिए बहोत पहले से रिश्ते आने लगे थे. पिताजी
मुझे बताते थे, आज फलां जगह से रिश्ता आया है, आज फलां जगह से. जब भी ऐसा होता तो
वो मुझसे लड़की देख आने को कहते. मेरा यही जवाब होता था कि सबसे पहले तो मुझे जॉब
में लग जाने दीजिये. दूसरे मैं नहीं समझता कि किसी लड़की को देखकर उसे नापसंद करने
का मुझे कोई अधिकार है. क्या लड़कों को ये अधिकार सिर्फ इसलिए मिल जाता है कि वो
किसी भी लड़की को नापसंद कर बेइज्ज़त कर दे क्योंकि वो लड़के हैं? मैंने उनसे कहा कि आप
जिस भी पहली लड़की को देखने के लिए मुझे भेजेंगे, चाहे वो लड़की कैसी भी हो, मैं उसे
रिजेक्ट नहीं करूंगा, मैं उसके लिए हां ही कहूंगा. पिताजी भी मेरी बात सुनकर चुप
हो जाया करते थे.
अब जब से आकाशवाणी जोधपुर में मेरा जॉब लगा तो
पिताजी के पत्रों में इस बात का ज़िक्र दिनोदिन बढ़ने लगा कि फलां जगह से रिश्ता आ
रहा है......... फलां जगह से भी रिश्ता आ रहा है. मैं उनसे यही कह रहा था कि ज़रा
रुक जाएँ, कुछ दिन और रुक जाएँ. इसी बीच पिताजी कुछ दिन के लिए मेरे पास जोधपुर आये.
स्टाफ के काफी लोग मेरे कमरे के आस पास ही रह रहे थे. पिताजी की मुलाक़ात सभी लोगों
से हुई. दो-चार दिन बाद वो मुझसे बोले, “महेंदर, तुम कहते हो, तुम्हारा सिद्धांत
है कि तुम जिस पहली लड़की को देखने जाओगे, उसी के लिए हाँ कह दोगे क्योंकि प्रकृति
की किसी भी रचना को रिजेक्ट करने का अधिकार तुम्हें नहीं है. ऐसे में हमें ये ख़तरा
महसूस होता है कि वो पहली लड़की न जाने कैसी होगी? मगर मैं सोचता हूँ, अगर कोई लड़की
हमारे सामने ही हो, अच्छी भली हो, तो उसे देखने जाने की भी ज़रूरत नहीं होगी और किसी
अपात्र लड़की के लिए तुम्हारी हाँ का भी कोई ख़तरा नहीं रहेगा.”
मैंने कहा, “जी, मैं समझा नहीं.”
“देखो ये लड़की शीला जो तुम्हारे साथ काम करती है,
व्यवहार, स्वभाव, सामाजिक स्तर हर तरह से मुझे तुम्हारे लायक लगती है. एक ही फील्ड
में हो इसलिए एक दूसरे की तकलीफों को भी समझ सकोगे. तुम कहो तो मैं जैन साहब से
बात करूं.”
तब तक आकाशवाणी में साथ काम करते करते हम लोगों में
ट्यूनिंग भी ठीकठाक हो गयी थी. लिहाज़ा मुझे उनके इस प्रस्ताव में कुछ अनुचित नहीं
लगा. मैंने पिताजी से कहा, “जी, मुझे कोई एतराज़ नहीं, आप बात करके देखिये.”
पिताजी ने डूंगरपुर जाने का प्रोग्राम बना लिया.
शीला के पिताजी श्री कुरी चन्द जी जैन राजस्थान के जाने माने स्वतन्त्रता सेनानी
थे. २० बरस तक डूंगरपुर नगरपालिका के अध्यक्ष रहे थे और राजस्थान के भूतपूर्व मुख्यमंत्री
श्री मोहन लाल सुखाडिया के कॉलेज के ज़माने में हॉस्टल के रूममेट थे. राजस्थान के
तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हरिदेव जोशी भी अपने छुटपन से जैन साहब के सान्निध्य
में रहे थे. जैन साहब बहोत खुले और प्रगतिशील विचारों के इंसान थे. उन्होंने मेरे
पिताजी का भी खुले दिल से स्वागत किया और उनके प्रस्ताव का भी. आख़िरकार तय हुआ कि मेरे
ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव के पद पर ज्वाइन करने के बाद बहोत छोटे से समारोह में
बिना किसी लेनदेन के ये शादी की जायेगी.
इसी बीच मुझे आकाशवाणी, उदयपुर से ट्रांसमिशन
एग्जीक्यूटिव का ऑफर मिल गया और शीला का ट्रान्सफर भी आकाशवाणी, उदयपुर हो गया.
वहाँ पहुँचने के कुछ ही दिन बाद एक सादे समारोह में हम दोनों का विवाह संपन्न हुआ
जिसमें दोनों घरों के सदस्यों के अलावा
कुछ गिने चुने लोग शामिल हुए.
हमने एम बी कॉलेज के सामने सरदार श्री भूपेन्द्र
सिंह छाबड़ा का घर किराये पर लिया जिसमे दो कमरे थे. मेरी बड़ी बहन ने एक थाली, एक
लोटा, दो कटोरी से हमारी गृहस्थी की नींव रखी . इसके अलावा हम लोगों ने किसी से कोई
गिफ्ट स्वीकार नहीं किया. दहेज के नाम पर मैंने एक रुपया और एक नारियल लिया था. एक
बत्तीवाला स्टोव खरीदकर लाया गया और इस तरह हमारी गृहस्थी शरू हुई.
ऑफिस में अब हम दोनों एक ही पोस्ट पर काम कर रहे थे.
शिफ्ट में ड्यूटी होती थी. ट्रांसमीटर और ऑफिस के बीच ७-८ किलोमीटर का फासला था.
हमारा घर बीच में पड़ता था. इसलिए सुविधा ये थी कि स्टाफ कार ट्रांसमीटर जाते हुए हम में से जिसकी
भी ड्यूटी होती थी उसे ले जाती थी और जिसकी ड्यूटी ख़तम होती थी उसे घर छोड़ देती
थी. हम लोगों ने एक पुराना बजाज स्कूटर खरीद लिया था. जब भी हम लोग दोनों शाम को
खाली होते थे आटा गूंधकर उसे लेकर फतहसागर के किनारे बैठ जाते थे.गुंधे हुए आटेकी
गोलियां बना बना कर सीढ़ियों पर डालते थे और मछलियाँ सीढ़ियों पर आ कर उन गोलियों को
लपक लेती थीं. इतनी बड़ी बड़ी और खूबसूरत चमकदार मछलियाँ हुआ करती थीं फतहसागर में
कि उन्हें देखकर दिन भर की सारी थकान दूर हो जाती थी.
स्टेशन के इंचार्ज थे स्टेशन इंजीनियर श्री आई जे
वासुदेवा. नाम से मुझे लगा कि शायद दक्षिण भारत से हैं लेकिन बाद में पता लगा कि
वो दक्षिण भारत के नहीं थे. महज़ एक भ्रम
पैदा करने के लिए उन्होंने अपने नाम को कुछ इस तरह का बना लिया था. जब भी उनके
कमरे में जाना होता था, एक अजीब सी गंध महसूस होती थी जो थोड़ी थोड़ी मेरे पिताजी की
अलमारी में रखी व्हिस्की की गंध से मिलती जुलती होती थी. लेकिन इधर उधर नज़र दौड़ाता
था तो बस टेबल पर पानी के ग्लास के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता था.
एक रोज़ रात में जब ट्रांसमिशन ख़तम करके ट्रांसमीटर
बिल्डिंग को ताले लगा दिए गए थे और हम सब घर वापस जाने के लिए कार का इंतज़ार कर
रहे थे, हमने देखा कि मेन गेट में से कार अन्दर आ रही है. कार आकर रुकी और हम लोग
हैरान रह गए कि कार खाली नहीं थी. ड्राइवर धाराशंकर के अलावा हमारे स्टेशन
इंजीनियर श्री वासुदेव भी कार में विराजमान थे. कार के रुकते ही वो नीचे उतरे. हम सबने
सोचा शायद कोई ज़रूरी काम से आये हैं. सबने गुड इवेनिंग कहा. उन्होंने ऑर्डर दिया,
“ट्रांसमीटर हॉल का ताला खोला जाए.” कौन मना कर सकता था. ताला खोला गया और
वासुदेवा साहब ने उस हॉल में बैठ कर शराब के चार पैग पिए. हम सब लोग बाहर खड़े उनका
इंतज़ार करते रहे कि वो अपना प्रोग्राम ख़तम कर लें तो हम घर की तरफ रवाना हों. एक
घंटे में उनका प्रोग्राम ख़तम हुआ और हम लोग घर लौट पाए. उस दिन मुझे पता चला कि
उनके दफ्तर में वो गंध क्यों आती थी. दरअसल वो जिसे मैं पानी का गिलास समझता था, वो
कोरे पानी का गिलास नहीं होता था. उसमें वोदका या जिन नामक शराब मिली हुई रहती थी.दरअसल
उनकी बीवी उन्हें घर पर पीने नहीं देती थीं तो वो ऑफिस में पीकर अपने दिल की हसरत
पूरी किया करते थे. उनका ये पीना पिलाना इसी तरह चलता रहा मगर फिर एक असिस्टेंट
इंजीनियर प्रेम सिंह ने इसकी शिकायत दिल्ली को की और श्री वासुदेवा को उस दारूबाजी
का बहोत खामियाजा भुगतना पडा.
ऑफिस में दो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव हुआ करते थे,
श्री एच एच एन भटनागर और श्री डी के झिंगरन. ऊपर वाले की कुदरत देखिये कि आकाशवाणी,
उदयपुर के हिस्से में जो दो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव आये दोनों का कुल मिलाकर भी
वज़न किसी एक आम आदमी के वज़न से कम ही था.
भटनागर साहब दिन भर सिगरेट का धुंआ छोड़ते रहते थे और हर पंद्रह मिनट में
आवाज़ लगाते थे, “वेणी राम चाय लइयो.” और वेणी राम जी उनकी आवाज़ सुनते ही पांच मिनट
के अन्दर चाय लेकर हाज़िर हो जाया करते थे. भटनागर साहब प्रोग्राम हैड भी थे.
झिंगरन साहब संगीत के शौक़ीन थे और लोग बताया करते थे कि वो मैन्डोलिन बजाते थे,
हालांकि हमें कभी उनका मैन्डोलिनवादन सुनने का शरफ हासिल नहीं हुआ.
उन दिनों बीकानेर की ही तरह उदयपुर से भी कुछ इक्का
दुक्का प्रोग्राम ही ओरिजिनेट होते थे. बाकी सारे प्रोग्राम आकाशवाणी जयपुर से
रिले किये जाते थे या लाइव अनाउंसमेंट के साथ वहाँ से आये टेप्स बजाये जाते थे.
युववाणी में हफ्ते में दो युवापसंद प्रोग्राम आकाशवाणी, उदयपुर के स्टूडियो से हुआ
करते थे जिन्हें बारी बारी से वहाँ के दो अनाउंसर लोग पेश करते थे. युवापसंद
प्रोग्राम पूरे शहर में बहोत मकबूल था. कई श्रोता संघ बने हुए थे, जो फरमाइशें
भेजा करते थे और कई श्रोताओं ने अपने पोस्टकार्ड्स छपवा रखे थे जिन्हें वो नियमित
रूप से पोस्ट करते थे और फरमाइश में अपना नाम शामिल होने का बेताबी से इंतज़ार करते
थे. ये प्रोग्राम श्रोताओं की जान था और हर अनाउंसर ये चाहता था कि ये प्रोग्राम
पेश करने का ज़्यादा से ज़्यादा मौक़ा उसे मिले.
एक रोज़ न जाने क्यों और कैसे, हमारे प्रोग्राम हैड
श्रीमान एच एच एन भटनागर के दिमाग में चाय का घूँट भरते हुए और सिगरेट के धुंए के
छल्ले बनाते हुए कुछ ख़याल आया और उन्होंने फोन का चोंगा उठाकर ट्रांसमीटर में बने ड्यूटीरूम
में फोन लगाया. ड्यूटी पर मैं था. मैंने फोन उठाकर बोला, “आकाशवाणी”
उधर से भटनागर साहब की आवाज़ आई, “मिस्टर मोदी?”
“जी हाँ बोल रहा हूँ.”
“मैं एच एच एन भटनागर.”
“यस सर, फरमाएं.”
“कल क्या ड्यूटी है आपकी?”
“जी सुबह की ड्यूटी है.”
“अच्छा एक काम करें. कल सुबह की ड्यूटी के बाद एक
बार ऑफिस आयें. कुछ ज़रूरी काम है.”
“जी बेहतर.”
जुलाई का महीना ख़त्म हो रहा था. बारिश उन दिनों
उदयपुर में अच्छी खासी हुआ करती थी इसलिए जुलाई का अंत आते आते सुबह शाम हल्की
ठण्ड हो जाया करती थी . दूसरे दिन मैं सुबह की ड्यूटी पर स्टाफ कार की बजाय अपने
स्कूटर से गया और ट्रांसमीटर से सीधा दफ्तर चला गया ताकि वापसी में ऑफिस से घर आने
में कोई दिक्क़त ना हो. दरअसल उन दिनों उदयपुर में कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट नाम की
चीज़ तो थी नहीं तो अगर मैं कार से ड्यूटी पर ट्रांसमीटर जाता तो ड्यूटी ख़तम होने
पर कार मुझे मोहता पार्क के मेरे ऑफिस तक तो ले जाती लेकिन वहाँ से छाबड़ा निवास के
मेरे घर आना ज़रा मुश्किल हो जाता. मैं ऑफिस पहुंचा. भटनागर साहब और झिंगरन साहब
ऊपर के एक बड़े से हॉल में बैठा करते थे. मैंने जाकर दोनों को नमस्कार किया. भटनागर
साहब बोले, “आइये आइये हम आपका ही इंतज़ार कर रहे थे.”
“जी फरमाएं.”
“अरे यार पहले ज़रा बैठिये तो सही. झिंगरन साहब आप
भी इधर आ जाइए.”
और उन्होंने हस्बेमामूल आवाज़ लगाई, “वेणी राम......
चाय लइयो.”
मैंने कहा, “सर मैं चाय नहीं पीता.”
“चाय नहीं पीते? तो काम कैसे करते हो?”
“जी मैं कभी नहीं पीता.”
उन दोनों के लिए चाय आ गयी तो भटनागर साहब ने वेणी
राम को कहा, “वेणी राम ज़रा दरवाज़ा बंद करते जइयो.”
मैं सोच रहा था, माजरा क्या है? वेणी राम ने दरवाज़ा
बंद कर दिया. अब भटनागर साहब ने झिंगरन साहब के सामने देखा और झिंगरन साहब ने भटनागर
साहब के सामने. कुछ देर की खामोशी के बाद झिंगरन साहब ने बोलना शुरू किया, “
मिस्टर मोदी हमने सुना है कि आपने जयपुर के एस डी के पी ए की पिटाई की थी?”
मुझे समझ नहीं आया कि पी ए की पिटाई की रामायण अब
ये यहाँ क्यों खोलकर बैठे हैं? वो भी दरवाजा बंद करवा कर इतनी राजदारी से. मैंने
कहा, “सर उसे आप पिटाई कहें तो आपकी मर्जी है लेकिन हकीकत ये है कि मैंने उसे एक
ज़ोरदार धक्का दिया था जिससे वो मुंह के बल गिर पड़ा था, बाकी मैंने उसे थप्पड़
मुक्का कुछ भी नहीं मारा. लेकिन सर आप लोग ये सब क्यों पूछ रहे हैं?”
अब भटनागर साहब बोले, “देखिये यहाँ से आपको मालूम
ही है कि हफ्ते में दो बार एक प्रोग्राम होता है, युवापसंद जिसे दो अनाउंसर बारी बारी
से पेश करते हैं.”
“जी सर.”
“आप अभी अनाउंसर की पोस्ट से ही इस्तीफा देकर आये
हैं.”
“जी सर.”
“और आवाज़ के मामले में आप हमारे अनाउंसर्स से
इक्कीस ही पड़ते हैं उन्नीस नहीं.”
“थैंक यू सर लेकिन आप मुझसे क्या चाहते हैं?”
“हम ये चाहते हैं कि अगले हफ्ते से हफ्ते के दोनों युवापसंद
प्रोग्राम आप ही करें और दिल लगाकर करें.”
लम्हे भर को मैं कुछ नहीं बोला. माइक से अलग हुए बहोत
दिन हो गए थे. बिना माइक पर बोले दिल नहीं लग रहा था. अब ये एक सुनहरा मौक़ा मिल
रहा था. कैसे छोड़ देता? मैंने एक लम्हे सोचकर कहा, “यस सर ज़रूर करूंगा.”
अब फिर झिंगरन साहब बोले, “लेकिन मिस्टर मोदी, हम
आपको बता दें कि जिन अनाउंसर्स से छीन कर ये आपको दिया जाएगा वो आपसे झगड़ा भी कर
सकते हैं. आप घबराएंगे तो नहीं ना?”
मेरे अन्दर फिर वही जिद्दी इंसान सर उठाने लगा था........
मैंने कहा, “आप फिक्र न करें सर. मैं घबराऊंगा नहीं.”
“सोच लिया आपने अच्छी तरह से ?”
“जी सर सोच लिया.”
“ऑफिस ऑर्डर जारी कर दें ?”
“जी सर.”
मैं उनके कमरे से निकला तो मुझे फिर भट्ट साहब याद
आ गए, उनकी बातें याद आ गयीं, “मैं अपने तजुर्बे की बिना पर कह रहा हूँ कि तुम
जहां भी जाओगे, ज़्यादातर तुम्हारी आवाज़ वहाँ के अनाउंसर्स पर भारी पड़ेगी और वो अनाउंसर
तुम्हारे दुश्मन बन जायेंगे.”
फिर भी मुझे खुशी थी कि मैं इतने वक़्त तक माइक से
अलग रहने के बाद फिर से माइक्रोफोन से जुड़ने जा रहा हूँ. एक बार फिर से मैं
माइक्रोफोन पर बोलने के उस नशे को महसूस करूंगा.............यकीनन कुछ लोग मुझसे
नाराज़ होंगे और हो सकता है झगड़ा भी करें. एक बार को थोड़ा टेंशन सा महसूस हुआ. फिर मैंने अपनी आदत के मुताबिक अपने सर को झटका और
अपने आप से कह, “हुंह........ जो होगा सो देखा जाएगा.” और घर की ओर चल पड़ा.
अगले दिन मैं अपनी ड्यूटी पर हमेशा की तरह ट्रांसमीटर
पहुंचा. ऑफिस से आयी डाक में मेरे नाम का एक चार लाइनों का ऑफिस आर्डर था जिसमें
लिखा हुआ था कि अगले सप्ताह से हफ्ते के दोनों युवा पसंद प्रोग्राम मुझे तैयार
करने हैं और पेश करने हैं. मैंने वो ऑर्डर लेकर रजिस्टर पर दस्तखत कर दिए. थोड़ी
बहोत खुसुर पुसुर मेरे कानों में पड़ी मगर कुछ ख़ास असर उस ऑर्डर का मुझे वहाँ नज़र
नहीं आया क्योंकि इत्तेफाकन उस रोज़ उन दोनों अनाउंसर्स में से एक भी ड्यूटी पर
नहीं था जिनसे ये प्रोग्राम छीनकर मुझे दिया गया था. अगले दिन मुझे किसी काम से
ऑफिस जाना पड़ा तो देखा हर तरफ हंगामा सा था कि प्रोग्राम पेश करना अनाउंसर का काम
है, उसका हक है. प्रोग्राम किसी अनाउंसर से लेकर किसी ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव को
कैसे दिया जा सकता है ? हम जयपुर और दिल्ली इसकी शिकायत करेंगे. ये बातें मुझे
सीधे किसी ने आकर नहीं कहीं, बस इधर उधर से मेरे कानों तक आ रही थीं. मुझे भटनागर
साहब ने पहले ही बता दिया था कि कुछ हंगामा हो सकता है, इसलिए मुझपर इसका कोई ख़ास
असर नहीं हो रहा था. मैं तो ऑफिस के हुकुम की तामील करने जा रहा था और जयपुर में
बवेजा साहब ही थे जिन्हें शिकायत की जा सकती थी और बवेजा साहब पर मेरा विश्वास दिनोदिन
पक्का होता जा रहा था कि वो हर अच्छे बुरे हालात में मुझे सपोर्ट करेंगे.
मैंने अपना काम करना शुरू कर दिया. पहले प्रोग्राम
के लिए मैटेरियल इकट्ठा किया, फरमाइशी पोस्टकार्ड्स छांटकर, रिकॉर्ड्स निकलवाये.
स्क्रिप्ट तैयार की और उसमे बीच में कुछ अच्च्छे अशआर फिट किये. प्रोग्राम तो लाइव
होना था. मैं अपने पूरे असलहा के साथ तैयार था. स्टूडियो पहुंचा और मैंने आकाशवाणी
उदयपुर से अपना पहला प्रोग्राम पेश किया. कंट्रोल रूम में श्री बलदेव कस्तूरिया और
श्री राकेश शर्मा इशारे से मेरा उत्साह बढ़ा रहे थे लेकिन इसी बीच मैंने स्टूडियो
और कंट्रोल रूम के बीच के शीशे से देखा कि इंजीनियर श्री बलदेव कस्तूरिया ने दो
तीन बार फोन उठाया और उनका हंसता मुस्कुराता उत्साह बढाता चेहरा अचानक गंभीर हो गया. मुझे
कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ है? क्या मैं ठीक से प्रोग्राम नहीं कर पा रहा हूँ ?
और ये किसके और कैसे फोन आ रहे हैं जिन्हें सुनकर कस्तूरिया जी संजीदा हो रहे हैं?
मैं अपनी तरफ से मुतमईन स्टूडियो से बाहर निकला. मैं तो ट्रांसमिशन ड्यूटी के साथ
साथ ये काम कर रहा था. आगे तो मिसेज़ सोमानी को स्टूडियो संभालना था. आगे का
प्रोग्राम जयपुर से रिले होना था. वो रिले शुरू करके जब बाहर निकलने लगा तो देखा
मिसेज़ सोमानी के चेहरे पर भी कुछ अजीब से तआस्सुरात थे. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा
था कि आखिर हुआ क्या है? मैंने मिसेज़ सोमानी को पूछा, “क्या हुआ मैम.......
प्रोग्राम कुछ ठीक नहीं हुआ क्या ? वो फीकी सी मुस्कराहट के साथ बोलीं, “ठीक था
प्रोग्राम तो लेकिन...................”
मैंने कहा, “लेकिन क्या........?”
इसी बीच कंट्रोल रूम से उठकर कस्तूरिया जी भी आ गए
थे. उन्होंने मिसेज़ सोमानी को पूछा, “ड्यूटीरूम में भी आये क्या?”
मैंने कहा, “क्या हुआ आखिर?”
कस्तूरिया जी ने कहा, “बॉस बहोत सारे लिसनर्स के
फोन आये कंट्रोल रूम और ड्यूटीरूम में कि ये किसे बिठा दिया है माइक्रोफोन पर?......
कुछ इसी तरह की बातें हर इंसान कर रहा था.”
मुझे लगा, मैंने प्रोग्राम तो पूरे मन से तैयार
किया था और उतने ही मन से पेश किया था. प्रोग्राम करने में मुझे मज़ा भी उतना ही
आया था जितना बीकानेर या जोधपुर में आया था. फिर आखिर मुझसे गड़बड़ कहाँ हुई? भट्ट
साहब ने ये तो कहा था कि हर जगह ज़्यादातर अनाउंसर्स
तुम्हारे दुश्मन हो जायेंगे लेकिन यहाँ तो वो लोग ही मेरे प्रोग्राम को नापसंद कर
रहे हैं जिनके लिए मैं प्रोग्राम करता हूँ.
तभी ड्यूटीरूम के फ़ोन की घंटी बजी. मैंने फ़ोन उठाया.
उस तरफ भटनागर साहब थे. मैंने हेलो बोला तो वो कहने लगे, “शाबाश महेंद्र.......
बहोत अच्छा प्रोग्राम था तुम्हारा.”
वो बहोत प्यार से बोल रहे थे. उनका संबोधन भी
मिस्टर मोदी से बदलकर महेंद्र हो गया था, जिससे उनकी खुशी ज़ाहिर हो रही थी. लेकिन
मेरा मन तो थोड़ा बुझा बुझा सा था.
मैंने धीरे से कहा, “थैंक यूं सर........ लेकिन
यहाँ तो कई फोन आये हैं सुनने वालों के कि प्रोग्राम बकवास था.”
उन्होंने तीन चार मोटी मोटी गालियाँ निकालते हुए
कहा, “ये सब किसका काम है हम जानते हैं. तुम फिक्र मत करो. प्रोग्राम वास्तव में
बहोत अच्छा गया है.”
मैं अपनी ड्यूटी में लग गया........ सामयिकी
रिकॉर्ड करना, लॉगिंग करना, फोन अटेंड करना , अनाउंसर के अनाउंसमेंट चेक करना,
अगले दिन के मेटेरियल को चेक करना. बहोत से काम थे. इसी बीच में कस्तूरिया जी मेरे
पास थोड़ी देर आकर बैठे और बोले, “बॉस आपकी किसी से दुश्मनी है क्या ?”
मैंने कहा, “ मुझे यहाँ आये दिन ही कितने हुए हैं?
इतने दिन में दोस्ती-दुश्मनी छोड़कर जान पहचान भी नहीं हो पाती है लोगों से.”
“हाँ ये बात तो सही है, लेकिन जो भी फोन आये वो सब स्पौन्सर्ड
लग रहे थे क्योंकि सबकी भाषा एक ही थी.”
मैंने कहा, “होने दीजिये, मैं इन सब बातों की परवाह
नहीं करता.”
दो दिन और गुज़र गए. अगले दिन फिर मुझे प्रोग्राम
करना था. मैं ड्यूटीरूम में बैठा अपने प्रोग्राम की स्क्रिप्ट लिख रहा था कि फोन
की घंटी बजी. मैंने फोन उठाया तो उधर से आवाज़ आयी, “मोदी बोल रहा है?”
मैंने कहा, “जी बोल रहा हूँ, आप कौन बोल रहे हैं?”
“तेरा बाप.”
“मजाक मत कीजिये, कौन बोल रहे हैं और क्या चाहते
हैं?”
“मैंने कहा ना कि तेरा बाप बोल रहा हूँ और कान खोल
कर सुन, कल तू ऑफिस से छुट्टी लेगा और प्रोग्राम पेश नहीं करेगा.”
मैं कुछ कहूं उससे पहले ही फोन काट दिया गया. मुझे लगा होगा कोई पागल. मैं अपने काम में लगा
रहा.
अगले दिन फिर जब मैंने प्रोग्राम किया तो लिस्नर्स
के फोन आते रहे कभी ड्यूटीरूम में कभी कंट्रोलरूम में और मैं अपने काम में लगा रहा.
अगस्त का महीना चल रहा था मुझे अच्छी तरह याद है.
मेरे ड्यूटीरूम में एक फोन आया. बड़ी भारी सी बनायी हुई आवाज़ लग रही थी, “अबे मरना
है क्या तुझे?”
मैंने जवाब दिया, “भाई मरना तो सबको ही है इस
दुनिया में. जो भी आया है उसे जाना ही है.”
“बकवास मत कर....... जो कह रहा हूँ ध्यान से सुन......
या तो ये प्रोग्राम व्रोग्राम करना बंद करदे नहीं तो गोली से उड़ा देंगे तुझे.”
सच बात तो ये है कि मैं भी मन ही मन घबरा गया था
थोड़ा कि एक प्रोग्राम के लिए अपनी जान को जोखिम में डालने का क्या अर्थ है लेकिन
फिर वही जिद्दी इंसान पता नहीं कहाँ से मेरे अन्दर जाग पड़ा. मैंने चिल्लाते हुए कहा,
“माँ का दूध पिया है तो सामने आ........ आजा.... देखते हैं कौन किसे गोली से उडाता
है?”
फोन फिर रख दिया गया. मैंने भटनागर साहब को फोन
करके सारी बात बताई. वो बोले, “फिक्र मत करो मैं देखता हूँ. “
मैं ड्यूटीरूम में ही था कि कोई दो घंटे बाद पुलिस
के दो जवान ट्रांसमीटर पर आये. हमारे सिक्योरिटी गार्ड देवी सिंह जी ने आकर बताया
कि दो पुलिस वाले आये हैं मुझसे मिलना चाहते हैं. मैंने बुलवाया उन्हें. उन्होंने
आते ही सलाम ठोका और बोले, “सर हमारी ड्यूटी आपके साथ है. एस पी साहब का हुकुम है
कि हम चार लोगों में से कोई दो लोग हमेशा आपके साथ रहेंगे.”
मैंने कहा, “अच्छा ठीक है , रहिये आप मेरे साथ.”
और उस दिन से मैं पुलिस सुरक्षा में रहने लगा. जैसे
ही पुलिस सुरक्षा में रहने लगा, मेरे पास आने वाले फोन्स की तादाद कम होने लगी.
वक़्त गुज़रता रहा . मेरे प्रोग्राम्स प्रसारित होते रहे. धमकी भरे फ़ोन की तादाद कम
होने लगी और एक दिन आया .......... २७ अगस्त १९७७. ख़बरों में सुना कि पूरे
हिन्दोस्तान के चहीते गायक मुकेश नहीं रहे. पूरा देश जैसे सन्न रह गया. उसी दिन
शाम को मेरा प्रोग्राम होना था. मैंने भटनागर साहब को फोन करके कहा कि मैं मुकेश
जी पर एक स्पेशल प्रोग्राम करना चाहता हूँ. उन्होंने फ़ौरन कहा, “हाँ हाँ ज़रूर करो.”
मैं जुट गया प्रोग्राम की तैयारी में. मुझे आज भी
अच्छी तरह याद है, वो शाम मेरी ज़िंदगी की एक यादगार शाम बन गयी. उस प्रोग्राम में
मैं भी रोया और लोगों ने मुझे बाद में बताया कि मैंने सुनने वालों को भी खूब रुलाया.
प्रोग्राम ख़त्म होते ही ड्यूटीरूम में मेरे पास फोन आने लगे. हर इंसान एक ही बात
कह रहा था. सर माफ़ कर दीजिये. आपके स्टेशन के कुछ अनाउंसर्स ने हमें भड़काया था,
आपके खिलाफ वो सब करने को. आज का प्रोग्राम सुनने के बाद हमारी आँखे खुल गयी हैं.
हम आपसे जो आज जुड़ गए हैं, यकीन कीजिये हम पूरी ज़िंदगी आपसे जुड़े रहेंगे.
और ये हकीकत है कि हालांकि उनमे से कुछ लोग तो अब
नहीं रहे, लेकिन कुछ लोग आज भी मुझसे जुड़े हुए हैं और जब तक मैं इस दुनिया में हूँ
मुझे पूरा भरोसा है कि वो लोग मुझसे जुड़े हुए रहेंगे.
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