सबसे नए तीन पन्ने :

Sunday, October 15, 2017

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग -४० (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)



पिछली सभी कडियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए। 


वो दिन आज भी आँखों में पूरी तरह ज़िंदा है, जब बवेजा साहब के पी ए बालिन्द्रन को धक्का देकर ज़बरदस्ती धड़धड़ाता हुआ उनके कमरे में घुस गया था. उनकी पर्सनलिटी ने एकदम से मेरी सिट्टी पिट्टी गुम कर दी थी मगर बवेजा साहब मुस्कुराते रहे और मेरे इंटरव्यू की तारीख़ भी मेरी मर्जी के मुताबिक बदल दी. फिर भी मुझे लगा था कि ये साहब ऊपर से तो बहुत कूल नज़र आ रहे हैं लेकिन अन्दर तो कहीं कोई खुन्नस पाल ही ली होगी इन्होंने.
बवेजा साहब के कमरे से बाहर आया तो देखा लोग एक झुण्ड बनाकर खड़े हैं और उनके बीचोबीच बालिन्द्रन साहब हाथ नचा-नचा कर कुछ कह रहे है. वो शायद मेरे लिए ही कुछ बोल रहे थे. मुझे दूर से आता देख उन्होंने मेरी ओर इशारा किया. मैं समझ गया आकाशवाणी में मैंने अपने लिए दुश्मनी के बीज बो दिए हैं. मैं उस झुण्ड के पास से गुज़रा तो न जाने कितनी आँखें मेरे जिस्म पर चुभ रही थीं. बहोत लंबा चौड़ा था आकाशवाणी, जयपुर का प्रांगण. मैं थोड़ा आगे बढ़ा तो देखा एक तरफ एक पेड़ के नीचे चाचा जी खड़े हुए थे. पिछले एपिसोड्स में मैं लिख चुका हूँ कि सत्य नारायण अमन जी जो कृषकों के लिए कार्यक्रम में चाचा चौधरी का स्टॉक करैक्टर किया करते थे और जिन्हें सब चाचा जी के नाम से ही जानते थे, उनसे मेरी मुलाक़ात एक बार बस में हुई थी और उस दिन से ही वो मेरे भी चाचा जी बन गए थे.
उन्होंने आँख से अपनी ओर आने का इशारा किया और खुद चल पड़े. मैं उनके पीछे पीछे हो लिया. बड़े से आकाशवाणी, जयपुर के प्रांगण में पीछे की तरफ  रेल के डिब्बों की तरह बने हुए बैरक्स थे, जिनमें छोटे छोटे कोठरीनुमा कमरों में प्रोग्राम स्टाफ के लोग बैठा करते थे. मैं चाचा जी के पीछे चलते चलते उनके कमरे में घुस गया. वो जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए और मुझे अपने सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. मैं बैठ गया.
अब बहुत ही संजीदा आवाज़ में उन्होंने बोलना शुरू किया, “क्यों बेटा, अठै नौकरी करणनै आयो है या लड़ाई झगड़ा?”(क्यों बेटा, यहाँ नौकरी करने के लिए आये हो या लड़ाई झगड़ा करने?)
 मैंने गर्दन नीची किये हुए जवाब दिया, “चाचा जी ईं में म्हारी दर ई गळती कोनी.”(चाचाजी इसमें मेरी कोइ गलती नहीं है).
फिर मैंने जो वाक़या जैसा हुआ था, हर्फ़-ब-हर्फ़ उन्हें सुना दिया और बोला, “चाचा जी, म्हारै पिताजी री एक सीख दियोड़ी है कै ईं दुनिया में जीण गी पैली शरत ख़ुद्दारी हूवणी चाईजे. परवा नईं, जे ख़ुद्दारी खातर कित्तो ई नुक्साण उठाणो पड़ जावै. उण आदमी म्हनै आ कै’र  म्हारी खुद्दारी पर चोट करी ही म्हैं दोनूं इम्त्यान कोनी दे सकूं.”(चाचा जी, मेरे पिताजी की के सीख दी हुई है कि इस दुनिया में जीने की पहली शर्त ख़ुद्दारी होनी चाहिए. अगर अपनी ख़ुद्दारी को बचाने के लिए कोई नुकसान भी उठाना पड़ जाए तो कोई परवाह नहीं. उस आदमी ने मुझे यह कहकर कि मैं दोनों इम्तहान नहीं दे सकता, मेरी ख़ुद्दारी पर चोट की जिसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता).
पूरी बात सुनकर वो बोले, “बडा साब तो निराज कोनी हुया नी?”(बड़े साहब तो नाराज़ नहीं हुए ना ?)
मैंने जवाब दिया, “मन में तो दोरा हुया ई हुसी अर हुवे तो हुवे चाचा जी, पण बातां सूं तो निराज कोनी लाग्या.”(मन में तो नाराज़ हुए ही होंगे, पर ऊपर से तो नाराज़ नज़र नहीं आये और चाचा जी, नाराज़ हों तो हों.)
उन्होंने एक लम्बी सांस खींच कर छोड़ते हुए कहा, “जा बेटा जद मौज कर. बवेजा साब जे निराज हूँवता नी तो थारा कपड़ा उतरवा लेंवता. बै निराज कोनी लाग्या, मतबल निराज कोनी हुया. जा’र चोखी तरियां इंटरव्यू री त्यारी कर बेटा भगवान् भली करसी.”(जाओ बेटा, तब मौज करो. बवेजा साब नाराज़ होते ना तो तुम्हारे कपड़े उतरवा लेते. वो नाराज़ नहीं दिखाई दिए, मतलब नाराज़ नहीं हुए.)  
मैं थोड़ा कन्फ्यूज़ हो गया था. ये जानने का मेरे पास कोई ज़रिया नहीं था कि वास्तव में बवेजा साहब मुझसे नाराज़ हुए हैं या नहीं. मैंने सर को एक झटका देकर सारी बातों को अपने दिमाग से निकालने की कोशिश की. उठा. उठकर चाचा जी के पैर छुए और उनके ढेरों आशीर्वाद लेकर उनके कमरे से निकल गया. महेश श्रीमाली के कमरे पर पहुंचा तो उसने पूछा, “क्या कर आया ? पूरा दिन ही लगा दिया तूने तो आकाशवाणी में?” 


मैंने जवाब दिया, “ भाई महेश, इंटरव्यू की तारीख़ तो बदलवा ली मगर लगता है, साथ ही दुश्मनी की एक बेल भी वहाँ लगा आया. न जाने आकाशवाणी के साथ ये कैसे सम्बन्ध बन रहे हैं मेरे, एक लम्हे लगता है कि ये आकाशवाणी मुझे बेतरह अपनी ओर खींच रही है तो दूसरे ही लम्हे लगने लगता है कि आकाशवाणी में काम करने वाले लोग क़तई नहीं चाहते कि मैं आकाशवाणी में जाऊं. कल और तो न जाने क्या होगा लेकिन मुझे अभी से ये इल्हाम हो रहा है कि अगर मैंने आकाशवाणी में नौकरी की तो मेरे दुश्मनों की तादाद कम नहीं होगी.”
दो दिन बाद ही इंटरव्यू था. तैयारी तो जो होनी थी हो ही चुकी थी, करेंट अफेयर्स पर निगाह रखने के लिए अखबार रोज़ देख रहा था. वैसे भी जहां सिर्फ इंटरव्यू की बिना पर सलैक्शन होते हैं वहाँ अगर सिफ़ारिश चलती है तो सिफ़ारिश के बूते पर ही लोग चुने जाते हैं और अगर सिफ़ारिश नहीं चलती तो फिर उम्मीदवार की ओवर ऑल पर्सनैलिटी और ज्ञान देखा जाता है. कुल १० लोगों को चुना जाना था. सुना था कि खूब ऊंची ऊंची सिफारिशों वाले लोग इंटरव्यू में बैठ रहे हैं. मुझे वैसे भी कोई ख़ास उम्मीद नहीं थी क्योंकि एक तो अपने राम की दूर दूर तक सिफ़ारिश नाम की चिड़िया से कोई पहचान नहीं थी. ऊपर से डायरेक्टर साहब के पी ए को धकियाकर वैसे ही नाम कमा लिया था. सोचा, जब सलैक्शन ही नहीं होना है तो फिक्र किस बात की, टेंशन किस बात का.
मैं सिविल सर्विस के पेपर की तैयारी में लग गया. तीसरे दिन सिविल सर्विस का प्रीलिम्स था. इम्तहान तो दे दिया मगर कुछ ख़ास तसल्ली नहीं हुई. पहला मौक़ा था, सोचा चलो एक तजुर्बा हुआ है, अगले साल काम आयेगा ये तजुर्बा.
अगले दिन आकाशवाणी में इंटरव्यू था. सुबह ही सुबह मैं तैयार होकर इंटरव्यू के लिए जा पहुंचा. देखा खूब भीड़ लगी हुई थी कैंडिडेट्स की. गेट पर अपना नाम पता रजिस्टर में लिखा तो कुर्सी पर बैठे एक बाबूनुमा इंसान ने नाम पढ़कर मुझे थोड़ा घूरते हुए पूछा, “महेंद्र मोदी? अच्छा आप ही हैं वो जिन्होंने बालिन्द्रन की पिटाई की थी दो दिन पहले?” मैं एक दम चौंका. अरे....... मैंने तो सिर्फ धक्का दिया था. पिटाई तो क़तई नहीं की थी. फिर मुझे लगा, क्या होगा उसे ये सारी कहानी सुनाने से ? उसने तो जो मान लिया है मान ही लिया है. मैंने थोड़ा रूखे अंदाज़ में कहा, “जी हाँ मैं ही हूँ वो.”
वो बाबू मेरे थोड़ा करीब आकर धीरे से बोला, “वैसे अच्छा किया आपने. बहोत नकचढ़ा इंसान है ये बालिन्द्रन.एस डी का पी ए है तो  किसी को कुछ समझता ही नहीं.”
मैं हैरान.......मुझे तो लगा कि ये बाबू नाराज़ होगा मुझसे कि मैंने इसके एक साथी की पिटाई की है लेकिन ये तो शाबाशी दे रहा है मुझे. कैसी जगह है ये आकाशवाणी और कैसे हैं यहाँ के लोग ? वहाँ से आगे बढ़ा तो एक साहब स्टूडियो बिल्डिंग के बाहर के कमरे में बैठे उम्मीदवारों के कागज़ात चैक कर रहे थे. मैं भी उनके पास जा पहुंचा. मेरी बारी आई तो मैंने अपने कागज़ात निकालकर उनके सामने रखे. गहरे सांवले रंग के लम्बे से वो साहब मेरे पहले सर्टिफिकेट को देखते ही ऐसे चौंके जैसे किसी बिच्छू ने काट लिया हो. भारी आवाज़ में बोले, “अच्छा तो आप ही हैं महेंद्र मोदी.”
मैंने कहा, “जी हाँ, कोई ख़ास बात?”
वो मुंह बिगाड़कर बोले, “ख़ास बात तो कुछ नहीं है .........बस दो दिन से आपकी चर्चा सुन रहा था स्टेशन पर......चलिए आपके दीदार हो गए. मैं यहाँ सीनियर अनाउंसर हूँ. सुना है कि आपने दो दिन पहले यहाँ मारपीट की है. न जाने ये बवेजा साब भी कैसे इंसान हैं? आपको तो इंटरव्यू के लिए बुलाये जाने की जगह पुलिस में दे देना चाहिए था.”
वो बोलते चले जा रहे थे और मैं सुनता चला जा रहा था. जब उनकी बात ख़त्म हुई तो मैं अपने आपको बिलकुल नॉर्मल रखते हुए  बोला, “अब आप दे दीजिये पुलिस में.......आपको किसने रोका है ?”
इसके बाद वो एक शब्द भी नहीं बोले. मेरे कागज़ात चैक किये और मैं बाहर आकर  बाकी बैठे उम्मीदवारों से बात करने लगा. थोड़ी देर में मेरे नाम की पुकार हुई. मैं उसी कमरे में घुसा जिसके बाहर मैंने दो दिन पहले काण्ड किया था. कमरे में घुसते घुसते मैंने एक निगाह अन्दर बैठे लोगों पर डाली. बीच की कुर्सी पर बवेजा साब विराजमान थे और उनके दोनों तरफ दो दो लोग और बैठे थे. मुझे देखते ही बवेजा साहब के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट उभरी. मैं नहीं समझ पाया कि इस मुस्कुराहट में क्या था, किसी तरह का अपनत्व या एक तंज़ कि बेटा अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे. लेकिन इस बात को मैं अच्छी तरह समझ गया था कि उन्होंने मुझे पहचान लिया है. कुछ रस्मी सवालों के बाद मेरे रेडियो ड्रामा के ऑडिशन के रिज़ल्ट के पेपर पर शायद बवेजा साहब की नज़र पड़ गयी. बस पूरा इंटरव्यू नाटक की तरफ मुड़ गया. स्टेज से लेकर रेडियो नाटक पर अच्छी खासी चर्चा हुई. कुछ बरसों से स्टेज कर रहा था और उससे भी पहले से रेडियो नाटकों को बहोत ध्यान से सुन रहा था इसलिए इस चर्चा में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई. इंटरव्यू के लिहाज़ से मैं पूरी तरह मुतमईन होकर उस कमरे से निकला. बाहर आने पर इधर उधर लोगों से बात हुई तो हर तरफ एक ही चर्चा थी. ये इंटरव्यू महज़ एक दिखावा है. १० पोस्ट्स थीं और किन दस लोगों को लिया जाना है, वो पहले से तय है. 


मैंने मन में सोचा, चलो ठीक है.......न सही ये नौकरी, एक और तजुर्बा तो हुआ. यानी रेडियो के साथ अपने ताल्लुकात का अपना एपिसोड यहीं ख़त्म. तभी एक चपरासी मुझे ढूंढते ढूंढते मेरे पास आया और बोला, “साब आपको दफ्तर में अकाउंटेंट साब ने याद किया है”.
मैं थोड़ा चकराया. अब इन अकाउंटेंट साब को मुझसे क्या काम पड गया ? मैं दफ्तर में पहुंचा. अकाउंटेंट साहब ने मुझे कहा, “आपको एक कागज़ देना था. मुझे लगा कि जब आप जयपुर आये ही हैं, तो क्यों न आपको वो कागज़ यहीं दे दिया जाए? डाक से आपको सही वक़्त पर मिले न मिले, क्या भरोसा है?”
मैंने कहा, “कागज़? कौन सा कागज़?”
उन्होंने एक फ़ाइल में से एक कागज़ निकालकर मुझे देते हुए कहा, “आपका अनाउंसर की पोस्ट के लिए ऑडिशन और इंटरव्यू पंद्रह दिन बाद है. ये कॉल लैटर है, इसे लीजिये और यहाँ दस्तखत कर दीजिये.” मैंने कॉल लैटर लिया और मन ही मन मुस्कुराने लगा............यानी अभी ये एपिसोड ख़त्म नहीं हुआ. रेडियो ने एक बार फिर से मुझे अपनी ओर खींच लिया है.
कॉल लैटर लेकर मैं आकाशवाणी से बाहर आ गया और शाम की ट्रेन से बीकानेर के लिए रवाना हो गया क्योंकि इतने दिन जयपुर में रहने का कोई अर्थ नहीं था. बीकानेर पहुंचते ही नहा धोकर मैं आकाशवाणी जाकर भट्ट साहब से मिला. मुझे पता था घूमते घामते मेरे किये काण्ड की ख़बरें उनके कानों तक पहुँच ही जायेंगी. इससे अच्छा तो ये होगा कि मैं खुद ही उन्हें पूरा क़िस्सा सुना दूं. मैंने जो जो कुछ हुआ था, ईमानदारी से सिलसिलेवार उन्हें सब कुछ बता दिया और ये भी बता दिया कि अनाउंसर के ऑडिशन का कॉल लैटर भी ले आया हूँ.
उन्होंने तसल्ली से मेरी बात सुनी और बोले, “देखो महेंद्र, बवेजा साहब को जितना मैं जानता हूँ इन सारी बातों का उनपर कोई असर नहीं होने वाला है. मेरे हिसाब से तुम्हारा ट्रांसमीशन एग्जीक्यूटिव और अनाउन्सर दोनों पोस्ट्स के लिए सलैक्शन होने वाला है, बस प्रॉब्लम एक ही है, वो है सिफ़ारिश. अगर बहोत ऊंची सिफ़ारिश वाले कुछ ज़्यादा लोग जुट गए तो हो सकता है एक में भी तुम्हारा सलैक्शन न हो. लेकिन अभी इस बारे में ज़्यादा मत सोचो. अभी तो अनाउन्सर का इम्तहान मन लगा कर दो. देखो........ वक़्त तुम्हारा कितना साथ देता है?”
मैं घर लौट आया और लग गया अनाउंसर के इम्तहान की तैयारी में. जी के और करेंट अफेयर्स की तैयारी तो घर बैठकर हो सकती थी लेकिन बोलने की प्रैक्टिस करने के लिए मेरे पास कोई टेप रिकॉर्डर नहीं था. मैं रेडियो पर होने वाले अनाउंसमेंट सुनता था और जल्दी जल्दी उन्हें काग़ज़ पर लिखता था. जिस स्पीड से अनाउंसमेंट होते थे उस स्पीड से लिखना तो मुमकिन ही नहीं था. ऐसे में बीच बीच में कुछ शब्द छूट जाते थे, उन्हें अपना दिमाग़ लगा कर लिखता था और फिर अपने मालिये (छत पर बने कमरे) में बैठा बैठा उन अनाउंसमेंट्स की प्रैक्टिस किया करता था. घर में सुनाता तो किसे? क्योंकि घर में  छोड़कर दूर दूर तक कोई  ऐसा  इंसान नहीं था जो सही भाषा बोल सकता हो. जयपुर जाने से पहले एक बार भट्ट साहब के पास फिर से गया और ऑडिशन की जो भी तैयारी की थी, वो पूरी की पूरी उन्हें सुना दी. उन्होंने खुश होकर मेरी पीठ ठोंकी और कहा, “शाबाश, तुम अनाउंसर बन गए समझ लो. तुम्हें कोई फेल नहीं कर सकता.” मैं उन्हें धन्यवाद देकर लौट आया.
जिस दिन मेरा ऑडिशन था उससे एक दिन पहले मैं जयपुर पहुँच गया. महेश के तिलक मार्ग वाले कमरे में अपना झोला झंडा लेकर पहुंचा तो देखा वो मेरा इंतज़ार कर रहा था. मुझे देखते ही महेश बोला, “ आओ आओ....... स्वागत है. पिछली बार तो एक बेचारे पी ए की पूजा उतार कर गए थे, इस बार किसी अफसर की बारी है क्या?”
मैंने कहा, “शुभ शुभ बोलो भाई........जो हो गया सो हो गया, ऐसे क्या मैं मारपीट ही करता रहता हूँ क्या?”


दिन भर आराम करके अगले रोज़ मैं फिर जा पहुंचा आकाशवाणी, जयपुर के दफ्तर में. इस बार पिछली बार जितनी भीड़ तो नहीं थी लेकिन फिर भी काफी लोग जमा थे. इस बार कुछ कम लोग होने की वजह साफ़ थी. ट्रांसमीशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए तो हर वो इंसान अप्लाई कर सकता था जिसके पास पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री का काग़ज़ था, लेकिन अनाउंसर की पोस्ट के लिए एक ख़ास तरह की आवाज़, साफ़ उच्चारण और हिन्दी भाषा के अच्छे ज्ञान की ज़रुरत थी. मैंने देखा, ज़्यादातर वो लोग इस इम्तहान में आये थे जो किसी न किसी स्टेशन पर कैज़ुअल अनाउंसर के तौर पर काम कर रहे थे. क्योंकि स्टेट की कोई बंदिश थी नहीं, इसलिए उन सभी स्टेट्स के लोग थे जहां हिन्दी बोली जाती है. मेरे जैसे लोग गिनती के ही थे, जिन्होंने कभी कैज़ुअल अनाउंसर के तौर पर काम नहीं किया था.
स्टूडियो के बाहर एक साहब बैठे हुए सबके पेपर्स चैक कर रहे थे और सबसे एक सवाल पूछ रहे थे, “क्या आपका कोई संबंधी आकाशवाणी के किसी भी स्टेशन पर काम करता है?” मेरी बारी आई, तो मेरे पेपर्स चैक हुए और उन साहब ने मेरे सामने भी यही जुमला दोहरा दिया, “क्या आपका कोई रिश्तेदार आकाशवाणी के किसी भी स्टेशन पर काम करता है?” मैंने हंसकर जवाब दिया, “अजी साहब मेरी सात पुश्तों में किसी ने आकाशवाणी की शक्ल भी नहीं देखी है.” इस पर आस पास खड़े सब लोग ठहाका लगा कर हंस पड़े. मुझे कुछ पेपर्स दिए गए. मैंने उन्हें गौर से देखा. मुझे लगा कि जो तैयारी मैं करके आया हूँ वो ऑडिशन में ज़रूर मेरे काम आने वाली है क्योंकि उसी तरह के कुछ अनाउंसमेंट थे जिनकी मैंने तैयारी की थी. कुछ रूपकों के टुकड़े थे, जिनमें भट्ट साहब के साथ किये रूपकों का अनुभव काम में आने वाला था और कुछ नाटक के टुकड़े भी थे. नाटक तो मेरा क्षेत्र था ही. मुझे लगा, मेरा ऑडिशन ज़रूर अच्छा होगा.
थोड़ी देर बाद मेरा रोल नंबर पुकारा गया और मैं स्टूडियो में जा पहुंचा. एक बार फिर वही घोड़े और वही मैदान यानी वही माइक्रोफोन और वही स्टूडियो. आज मुझे स्टूडियो में रिसीव किया एक सांवले से दरमियाने क़द के साहब ने . मुझसे बोले, “ माइक्रोफोन के सामने यहाँ खड़े हो जाइए और अपना रोल नंबर बोलिए.”
मैंने अपने रोल नंबर बोले. अब मैं अनाउंसमेंट कर रहा था. मेरे साथ खड़े साहब के चेहरे के तास्सुरात से लग रहा था कि उन्हें मेरा परफोर्मेंस अच्छा लग रहा है. अनाउंसमेंट के बाद रूपक के कुछ हिस्से पढवाए गए. आखिर में नाटक के कुछ हिस्से. नाटक के हिस्से जैसे ही ख़त्म हुए, स्पीकर पर आवाज़ आई, “क्या आप रेडियो से नाटक में अप्रूव्ड  हैं?”
मैंने जवाब दिया, “जी हाँ सर मैं नाटक में अप्रूव्ड हूँ.”
उधर से आवाज़ आई, “धन्यवाद, आपका ऑडिशन हो चुका है.”
मैं स्टूडियो से बाहर निकलने लगा तो वो साहब भी मेरे साथ बाहर तक आये जो स्टूडियो में मझे क्यू दे रहे थे. बाहर आकर उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया और कहा, “मेरा नाम आर एस शर्मा है. मैं यहाँ असिस्टेंट स्टेशन डायरेक्टर हूँ.”
मैंने उनका हाथ थामा और अपना नाम बताया. वो बोले, “शाबाश बेटा, ऑडिशन में आप पास हो गए हैं, मानकर चलिए. इंटरव्यू में भी उम्मीद है निकल ही जायेंगे. एक सलाह बिना मांगे दे रहा हूँ. जैसे ही न्यूज़ रीडर की पोस्ट निकले आप ज़रूर अप्लाई कर दीजिएगा. आपकी आवाज़ न्यूज़रीडिंग के लिए परफैक्ट है.” 


मैं उनके मुंह के सामने देखने लगा. मुझे कुछ समझ नहीं आया कि ये हो क्या रहा है मेरे साथ? मैं कभी रेडियो की तरफ  एक क़दम आगे बढ़ रहा हूँ और कभी फिर से मुझे पीछे की तरफ धकेल दिया जा रहा है. मैंने उन्हें हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया और स्टूडियो बिल्डिंग से बाहर आ गया. हम लोगों को बताया गया था कि ऑडिशन के बाद हमें वहीं बने रहना है क्योंकि जो लोग ऑडिशन में पास होंगे, उनका इंटरव्यू लिया जाएगा. मैं वहाँ से फिर पीछे बनी बैरक्स में चला गया जहां डॉक्टर दोषी, श्री के बी शर्मा और चाचा जी बैठा करते थे. मैंने जब उन सबको श्री आर एस शर्मा जी के रिएक्शन के बारे में बताया तो सबकी यही राय थी कि अगर उन्होंने ऐसा कहा है तो ऑडिशन में तुम्हारा सलैक्शन पक्का है.
और वास्तव में जब ऑडिशन का रिज़ल्ट बताया गया तो पास होने वाले लोगों में मेरा भी नाम था. सब तरफ फिर यही चर्चाएँ थीं कि आखिरकार जो लोग सलैक्ट होने वाले हैं उनके नाम तो पहले से तय हैं. ठीक है, दिखावे के लिए कुछ और लोगों को ले लिया गया है लेकिन इंटरव्यू में तो वही लोग पास होंगे  जो सिफ़ारिश वाले हैं. इंटरव्यू शुरू हुए. मैं एक बार फिर बवेजा साहब के कमरे के बाहर खडा था. थोड़ी ही देर में मेरा नंबर आया. मैंने दरवाज़ा खोलकर जैसे ही कहा, “में आई कम इन सर?”
बीच की कुर्सी पर बैठे बवेजा साहब हंसे और बोले, “ आइये आइये मिस्टर मोदी.”
फिर बोर्ड के बाकी मेम्बर्स की तरफ देखते हुए बोले, “ये हमारे पुराने दोस्त हैं मिस्टर मोदी. अभी कुछ दिन पहले हुए ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव के इंटरव्यू में भी आये थे.”
इसके बाद थोड़ी देर सबने अपने अपने हिस्से के सवाल पूछे और मुझे धन्यवाद करके मेरे इंटरव्यू के ख़त्म होने की घोषणा कर दी. मैं सबका धन्यवाद करके बाहर आ गया.
मैं शाम की ट्रेन पकड़कर बीकानेर आ गया. सब पूछ रहे थे कि इंटरव्यू कैसा हुआ. दरअसल इंटरव्यू भी अच्छा हुआ था और ऑडिशन तो बहोत ही अच्छा हुआ था मगर कुछ समझ नहीं आ रहा था कि सलैक्शन होगा या नहीं. भट्ट साहब से मिलने गया तो उन्होंने भी यही सवाल किया, “क्यों महेंद्र, कैसा रहा ऑडिशन और इंटरव्यू?”
मैंने कहा, “सर सब कुछ अच्छा हुआ है और वहाँ के असिस्टेंट डायरेक्टर आर एस शर्मा साहब ने तो ये सलाह भी दी कि मुझे न्यूज़रीडर की पोस्ट के लिए अप्लाई करना चाहिए, मगर ऑफिस के गलियारों से जो बातें मुझे सुनाई दे रही थीं वो यही थीं कि सारे मैच फिक्स्ड हैं. जिनका सलैक्शन होना है, उनके नाम पहले से तय है. इसलिए लगता है रेडियो का पीछा छोड़ देना चाहिए मुझे.”
उन्होंने धीरे से मेरा कंधा थपथपाया और बोले, “ रिज़ल्ट आ गया क्या?”
मैंने कहा, “जी नहीं.”
“तो फिर ये नाउम्मीदी की बातें क्यों? मुझे भरोसा है कि दोनों में तुम्हारा सलैक्शन होगा. इसमें कोई शक नहीं कि बवेजा साहब रिश्तों को बहोत अहमियत देते हैं और हो सकता है कि कुछ बड़े लोगों से रिश्ते निभाने के लिए कुछ कमज़ोर लोगों को भी सलैक्ट कर लें लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि इसका असर तुम्हारे सलैक्शन पर नहीं पडेगा.”
“ठीक है सर देखते हैं.”


मैं वहाँ से उठकर आ गया. मेरा क्लिनिक अच्छा खासा चल रहा था और ट्यूशन्स भी चल रही थीं. कुल मिलाकर एक हज़ार रुपये से कुछ ऊपर ही मेरी आमदनी थी. और सबसे बड़ी बात ये कि मुझपर घर के लोगों की तरफ से जल्दी बारोजगार होने का कोई दबाव नहीं था. इधर रिश्तेदार संबंधी, यार दोस्त सब कह रहे थे कि मेरी मेडिकल प्रैक्टिस इतनी अच्छी चल रही है, लिहाजा मुझे या तो आर एम् पी की डिग्री ले लेनी चाहिए या फिर फार्मेसिस्ट का लायसेंस ले लेना चाहिए.
इसी दौरान मुझे बैंक ऑफ इंडिया से एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि इंटरव्यू बोर्ड ने मेरा सलैक्शन कर लिया है. मुझे १५ दिन में श्रीगंगानगर की ब्रांच में ज्वाइन करना है. मेरी तनख्वाह चार सौ रुपये के करीब होगी और मुझे एक बॉन्ड पर दस्तखत करने होंगे कि मैं तीन बरस तक वो नौकरी नहीं छोडूंगा. यानी नौकरी मिल तो रही थी मगर शर्त के साथ. और नौकरी भी क्या? बैंक में क्लर्क की नौकरी. सबसे पहले तो मेरी आँखों के सामने गुरुदेव दलीप सिंह जी का चेहरा आ गया. मुझे लगा वो हँसते हुए कह रहे हैं, “क्यों महेंद्र, तुम तो कह रहे थे मैं किसी भी हालत में बैंक में क्लर्की नहीं करूंगा..........बन गए ना आखिर बैंक के क्लर्क?”
मुझे पसीना आ गया, नहीं...... नहीं करूंगा ये नौकरी. एक हज़ार की आमदनी छोड़कर चार सौ रुपये की नौकरी करने श्रीगंगानगर जाऊं और तीन साल के बॉन्ड पर दस्तखत करूं? इधर अगर आकाशवाणी की दो पोस्ट्स में से किसी  एक में भी सलैक्शन हो जाता है तो उस बॉन्ड की वजह से मैं वो भी ज्वाइन नहीं कर पाऊंगा.
मैंने भाई साहब से सलाह की, पिताजी से सलाह की. दोनों की राय यही थी कि अगर मुझे आकाशवाणी में नौकरी की उम्मीद है तो बैंक के इस ऑफर को भूल जाना चाहिए. वैसे भी कुछ और कॉम्पीटिशन दिए हुए थे और आगे भी कुछ और जगह अप्लाई किया जा सकता है. अभी ओवरएज तो हो नहीं रहा हूँ, कमाई भी अच्छी खासी कर रहा हूँ तो ऐसी नौकरी में फंसने से क्या मतलब जिससे चाहकर भी पीछा न छुडाया जा सके. और मैंने बैंक को एक ख़त लिखकर भेज दिया, “मैं आपकी नौकरी ज्वाइन कर सकता हूँ बशर्ते कि आप मुझे किसी बॉन्ड पर दस्तखत करने को मजबूर न करें.”
जैसी कि उम्मीद थी, एक हफ्ते में ही जवाब आ गया बैंक का कि सर आप अपने घर बैठे रहिये, बेरोजगारों की लम्बी क्यू है. हम एक बार फिर से आपको मौक़ा देते हैं, आप चाहें तो आने वाले १५ दिन में ज्वाइन करलें वरना वेटिंग लिस्ट में मौजूद उम्मीदवार को मौक़ा दे दिया जाएगा.  
मैंने जी कड़ा करके फैसला ले लिया कि मैं नहीं जाऊंगा श्रीगंगानगर, बैंक ऑफ इंडिया की क्लर्की करने. कुछ और नौकरियों के लिए भी अप्लाई किया. अब तो मुझे उनकी डिटेल्स भी याद नहीं. किसी में सलैक्शन हुआ किसी में नहीं लेकिन मैं सब कुछ छोड़ता गया. कभी कभी लगता था कि ग़लत कर रहा हूँ. कहीं ऐसा ना हो कि ओवरएज हो जाऊं और फिर इस नीम हकीमी को ही अपना प्रोफेशन बनाना पड़े. जब कभी आकाशवाणी जाता तो भट्ट साहब से मिलता. वो दिलासा देते, “धीरज रखो धीरज रखो.......अभी रिज़ल्ट नहीं आया है.”
वक़्त गुज़रता रहा. दिसंबर का महीना आ गया था. बीकानेर में अच्छी खासी ठण्ड पड़ने लगी थी. एक रोज़ शाम को लक्ष्मी चन्द शर्मा जी घर आये और कहा कि भट्ट साहब ने याद किया है. मैं दूसरे दिन आकाशवाणी के ऑफिस में जा पहुंचा. भट्ट जी अपने कमरे में मौजूद थे. मैंने प्रणाम किया, सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया और कहा, “जी सर, फरमाएं क्या हुकुम है?”
“यार महेंद्र, एक मदद चाहिए तुम्हारी.”
“जी फरमाएं, क्या कर सकता हूँ मैं आपके लिए?”
“अरे नहीं मुझे नहीं, आकाशवाणी, बीकानेर को तुम्हारी मदद की ज़रुरत है.”
“जी मैं समझा नहीं.”


“देखो महेंद्र, तुम्हें ये तो मालूम है कि आकाशवाणी, बीकानेर की तीन सभाएं होती हैं. हर सभा में हमें एक अनाउंसर की ज़रूरत होती है और एक ड्यूटी ऑफिसर यानी ट्रांसमीशन एग्जीक्यूटिव की. हमारे स्टेशन के चारों ट्रांसमीशन एग्जीक्यूटिव ट्रान्सफर हो चुके हैं. हम किसी बाहर वाले को उस कुर्सी पर नहीं बिठा सकते. हाँ कैज़ुअल अनाउंसर ज़रूर बुक कर सकते हैं लेकिन हमारे पास कैज़ुअल अनाउंसर इतने नहीं हैं कि हमारा काम चल सके. आकाशवाणी के नियमों के मुताबिक़ हम ड्रामा आर्टिस्ट को बतौर कैज़ुअल अनाउंसर ड्यूटी पर लगा सकते हैं. तुम भी अनाउंसर की परमानेंट पोस्ट के लिए इम्तहान दे चुके हो. अब अगर तुम कैज़ुअल अनाउंसर की कुछ ड्यूटीज़ कर सको तो हमारी भी मदद हो जायेगी और एक तरह से तुम्हें भी फायदा होगा क्योंकि इस बहाने तुम्हारी जो प्रैक्टिस होगी वो तुम्हारे तब काम आयेगी जब तुम सर्विस ज्वाइन करोगे.”
मैंने मुस्कुराकर कहा, “सर मैं ये ड्यूटीज़ ज़रूर करूंगा, क्योंकि आपका हुकुम है. बाकी जहां तक परमानेंट अनाउंसर बनने का सवाल है और ये प्रैक्टिस आगे जाकर काम आने का सवाल है..... तो......फिलहाल तो वो एक सपना ही है. खैर, बताइये मुझे क्या करना है?
“तुम्हें मालूम है कि हमारा स्टूडियो ट्रांसमीटर बिल्डिंग में है. थोड़ी देर में स्टाफ कार वहाँ जायेगी. तुम वहाँ जाकर ज़रा देख लो कि अनाउंसर किस तरह से काम करता है. जब तुम सीख जाओगे तो तुम्हारी ड्यूटीज़ लगा दूंगा मैं.”
“जी बेहतर.”
थोड़ी ही देर में स्टाफ कार ट्रांसमीटर जाने लगी तो भट्ट जी ने मुझे उसमे बिठा दिया और दिन की ड्यूटी के अनाउंसर को कह दिया कि मुझे ज़रा काम समझा दें. आधे घंटे में हम लोग ट्रांसमीटर पहुँच गए. जो अनाउंसर साहब ड्यूटी पर थे, उन्हें शायद मेरी मौजूदगी कुछ नागवार गुज़र रही थी. वो अपनी तरफ से कुछ बता नहीं रहे थे और मैं कुछ पूछ रहा था तो उसके जवाब में हाँ हूँ करके मुझे टालते जा रहे थे. कंट्रोल रूम में श्री एस एन छाबला इंजीनियर की कुर्सी पर बैठे थे. वो स्टूडियो में एक आध बार आये तो उन्हें महसूस हो गया कि अनाउंसर साहब कुछ भाव खा रहे हैं. उन्होंने मुझे हाथ के इशारे से कुछ रुकने का इशारा किया. मैं बस चुपचाप बैठ कर अनाउंसर साहब को काम करते हुए देखता रहा. उस ज़माने में दिन का ट्रांसमीशन सिर्फ साढ़े बारह से ढाई बजे तक का हुआ करता था. जैसे ही ट्रांसमीशन ख़त्म हुआ. छाबला जी ने मुझे बुलाया और स्टूडियो में लेजाकर स्टूडियो की हर वो बारीकी समझा दी जिसे अनाउंसर को जानने की  ज़रूरत होती है. हालांकि उस ज़माने में स्टूडियो की मशीनों को चलाने से लेकर रिले देने का काम अनाउंसर को ही करना पड़ता था लेकिन फिर भी स्टूडियो में आज जितनी ना तो मशीनें होती थीं और न ही आजकल की तरह स्पॉट्स और जिंगल्स बजाने होते थे. ले दे कर दो टेप डैक, दो टर्न टेबल या रिकॉर्ड प्लेयर, एक माइक और इन सबको कंट्रोल करने के लिए आर सी ए का एक खड़ा कंसोल. हालांकि अनाउंसर साहब मुंह फुलाए बैठे रहे, मगर वो जो ऑपरेशन कर रहे थे वो तो मैं देख ही रहा था और मेरे लिए ये काफी था. रही सही कसर पूरी कर दी छाबला साहब ने. वो कुछ टेप्स और रिकॉर्ड्स लेकर आ गए और खुद खड़े होकर मुझसे प्रैक्टिस करवाई. साढ़े चार बजे वहाँ से रवाना होकर हम लोग वापस ऑफिस आ गए. ऑफिस आते ही भट्ट साहब ने पूछा, “क्यों महेंद्र, कैसा लगा ?”
मैंने कहा, “जी बहुत अच्छा.”
“देखा कुछ ?”
“जी सर.”
“सीख लिया ?”


ये सवाल ज़रा एक चैलेन्ज की तरह लगा मुझे. शुरू से ही इस तरह के चैलेन्ज को लपक लेने की आदत रही. मुझे याद आ गया जब चचा ने पूछा था, “तांगा चलाना आता है आपको?” या कि पिताजी ने पूछा था, “मोटर साइकिल चलानी आती है?” और मैंने हर बार हाँ में ही जवाब दिया था.
मैंने बहुत शान्ति से जवाब दिया, “जी सर बिलकुल सीख लिया.”
उन्हें शायद मुझसे इस जवाब की उम्मीद नहीं थी. वो शायद सोच रहे थे कि मैं कहूंगा, सर एक दो रोज़ और सीख लेने दीजिये. लेकिन मेरे ये कहते ही कि हाँ मैंने सीख लिया, वो तुरंत बोले, “तो कल अकेले की ड्यूटी लगा दूं?”
मैंने पूरे एतमाद के साथ कहा, “जी सर बिलकुल लगा दीजिये.”
वो बोले, “शाबाश, ठीक है कल दिन की ड्यूटी करो तुम.”
मैंने कहा, “जी बहुत बेहतर. एक बात की इजाज़त चाहता हूँ आपसे.”
“हाँ हाँ बोलो.......”
“मैं स्टूडियो ऑफिस की कार से नहीं जाऊंगा. कल अपने मोटर साइकिल से सीधे वहाँ पहुँच जाऊंगा ताकि वक़्त से थोड़ा पहले पहुंचकर अनाउंसमेंट लिख सकूं.”
“हाँ हाँ, इसमें क्या दिक्क़त है. तुम जल्दी जाना चाहो तो जा सकते हो.मैं तुम्हारा पास बना देता हूँ ताकि कोई तुम्हें अन्दर जाने से रोके नहीं. तो.......मैं सचमुच कल की ड्यूटी लगा रहा हूँ.”
“जी सर लगा दीजिये.”
उन्होंने मेरा चार दिन का एक कॉन्ट्रैक्ट बनवाया. मैंने देखा उस पर मेरी फ़ीस लिखी थी १५ रुपये एक ड्यूटी के. ये सब मेरे लिए कोई ख़ास अहमियत नहीं रखता था क्योंकि मैं अच्छा खासा कमा रहा था. मेरे लिए अहमियत इस बात की थी कि मैं अब बाकायदा रेडियो पर अनाउंसर के तौर पर काम करने वाला था. अगले दिन मैं सुबह १० बजे स्टूडियो पहुँच गया और ब्रॉडकास्ट मटेरियल जो ड्यूटी रूम में रखा हुआ था, लेकर पूरे ट्रांसमिशन के अनाउंसमेंट लिख लिए. १२.०० बजते बजते स्टूडियो के अन्दर पहुँच गया. साढ़े बारह बजे से ट्रांसमिशन शुरू किया और बिना किसी दिक्क़त के दो घंटे का वो ट्रांसमिशन कर लिया. जैसे ही सभा समाप्ति की उद्घोषणा की सिक्योरिटी गार्ड पेम्पा राम ने आकर कहा, “साब जी, आपके लिए भट्ट साहब का फोन है.”
मैं ड्यूटी रूम में आया. फोन उठाया तो भट्ट साहब बोले, “शाबाश महेंद्र......... बहुत अच्छा ट्रांसमिशन किया तुमने. बधाई हो. बिलकुल लगा ही नहीं कि तुम पहली बार ये काम कर रहे थे.”
मैंने कहा, “सर आपका आशीर्वाद.”
चार दिन का पहला कॉन्ट्रैक्ट पूरा हुआ और फ़ौरन ही भट्ट साहब ने तीन चार दिन के गैप से चार दिन का एक और कॉन्ट्रैक्ट दे दिया. वो चार ड्यूटीज़ की और फिर चार दिन का एक और कॉन्ट्रैक्ट मुझे मिल गया. उन दिनों आज की तरह आकाशवाणी में महीने में ६ ड्यूटीज़ की बंदिश नहीं हुआ करती थी.
जिस दिन मेरी १० वीं ड्यूटी थी, शाम को टाउन हॉल में एक नाटक था. मैं भी नाटक देखने चला गया. नाटक मंडली जोधपुर से आई हुई थी. नाटक बस शुरू ही होने वाला था कि मेरे एक साथी कलाकार एस डी चौहान ने मुझे कहा, “ जोधपुर मंडली के एक कलाकार लोगों से आपके बारे में पूछ रहे थे. चलो एक बार मिल लो उनसे.”
मैं ग्रीन रूम में गया तो चौहान जी ने एक साहब से मुझे मिलवाया और कहा, “लीजिये मुकुट जी आप जिनके बारे में पूछ रहे थे, वो यही हैं महेंदर जी.”
मुकुट जी नाम के उन साहब ने मुझसे हाथ मिलाया और कहा, “ मेरा नाम मुकुट माथुर है. आप जल्दी ही जोधपुर आ रहे हैं, अभी तो नाटक शुरू होने वाला है. नाटक के बाद डिटेल में बात करते हैं.”
ये कहते हुए वो ऊपर स्टेज की तरफ चल दिए. मुझे कुछ समझ नहीं आया कि ये साहब क्या कहना चाह रहे हैं और मुझे जोधपुर जाने का क्या इन्हें कोई सपना दिखाई दिया है?
नाटक ख़त्म हुआ. मेरे दिल में एक खलिश सी थी कि ये जोधपुर का क्या मामला है? मैं फ़ौरन स्टेज के पीछे गया और मुकुट जी से मिला. वो बोले, “चलिए कहीं चलकर इत्मीनान से बैठते हैं फिर बात करते हैं.”
हम लोग टाउन हॉल के बाहर आकर बैठ गए. मैं मुकुट जी के चेहरे की तरफ देखे जा रहा था कि वो अपनी बात शुरू करें. उन्होंने बात शुरू की, “देखिये मैंने अपना नाम तो आपको बता दिया लेकिन मेरा पूरा परिचय मैं आपको नहीं दे पाया. मैं आकाशवाणी, जोधपुर मे सीनियर एनाउंसर हूँ.”
अब मुझे उनकी बात थोड़ी थोड़ी समझ आने लगी थी. वो आगे बोले, “आपके लिए अच्छी खबर ये है कि आप जल्दी ही हमारे साथी बनने जा रहे हैं. आपका सलैक्शन हो चुका है और आपको जल्दी ही अनाउंसर की पोस्ट के लिए आकाशवाणी, जोधपुर से ऑफर का लैटर मिलने वाला है. बधाई हो आपको..........”
ये कहते हुए उन्होंने अपना हाथ बढाया और मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर बड़ी गर्मजोशी से मिलाया.”
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया. फिर धीमी सी आवाज़ में पूछा, “मुकुट जी खबर बिलकुल पक्की है ना?”
“बिलकुल १०० % पक्की. आप आराम से सबको बता सकते हैं और मिठाई बाँट सकते हैं.”
मैं अपना मोटर साइकिल उठा कर घर की तरफ चला. रास्ते में सोचता जा रहा था कि कभी आकाशवाणी अपनी ओर खींच रही थी, कभी दूर धकेल रही थी......... आखिरकार उसने मुझे अपनाने का फैसला कर ही लिया. घर आकर पिताजी को बताया. उनको खुशी होनी ही थी.
अगले दिन आकाशवाणी पर मेरी ११ वीं ड्यूटी थी. मैं सुबह की सभा का अनाउंसर था. मैं ड्यूटी पर जाने के लिए ऑफिस की कार नहीं लिया करता था क्योंकि सब लोगों को इकठ्ठा करने में बहुत देर लग जाया करती थी और फिर वापसी में कार ट्रांसमीटर से ऑफिस तक तो लाती थी मगर उसके बाद ऑफिस से पैदल आना होता था. हालांकि दिसंबर जनवरी में बीकानेर में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है फिर भी मैं अपने मोटर साइकिल से ही जाता आता था. मैंने सुबह की सभा समाप्त की और इंतज़ार करने लगा दूसरी सभा की ड्यूटी पर आने वाले लोगों का. ११ बजते बजते वो लोग आ गए तो मैं सीधा आकाशवाणी के ऑफिस में पहुंचा और भट्ट साहब को मुकुट माथुर जी से हुई सारी बातचीत तफसील से सुना दी. वो बहोत खुश हुए. काफी देर तक मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर हिलाते रहे. 


उसी समय पूरे दफ्तर को पता चल गया कि मेरा सलैक्शन आकाशवाणी में अनाउंसर की पोस्ट के लिए हो गया है और मेरी पोस्टिंग जोधपुर हो रही है. इस खबर से मेरा दोस्त शशिकांत पांडे तो खुश हुआ ही, लक्ष्मी चन्द जी, नवरंग जी, छाबला साब, एम पी श्रीवास्तव जी और यशपाल सिंह जी जैसे कई दूसरे साथी लोग भी बहोत खुश हुए लेकिन फिर से मुझे कुछ जलने की बू आई. लगा कि कहीं कुछ जल रहा है.
ये शनिवार का दिन था. रविवार को फिर मेरी सुबह की ड्यूटी थी. मैंने सुबह की ड्यूटी की. घर आया और मैंने सोचा कि ये खबर भाई साहब को दे आऊँ. भाई साहब की पोस्टिंग उन दिनों बीकानेर से २५ किलोमीटर दूर के एक गाँव नौरंगदेसर में थी जो उसी सड़क पर था, जिस पर आकाशवाणी की ट्रांसमीटर बिल्डिंग थी. यानी मेरे घर से लगभग ७ किलोमीटर ट्रांसमीटर बिल्डिंग थी और उससे १७-१८ किलोमीटर दूर नौरंगदेसर. मैं मोटर साइकिल उठा कर नौरंगदेसर के लिए निकल पड़ा. भाई साहब भाभी जी को खबर सुनाई. वो बहुत खुश हुए.
चार बजे के आस पास मैं नौरंगदेसर से निकल पड़ा ताकि शाम होने से पहले घर पहुँच जाऊं. मैं १२-१३ किलोमीटर आया और मुझे लगा मोटर साइकिल कुछ डगमगा रही है. मैंने उतर कर आगे के पहिये के हाथ लगाया तो मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गयी. आगे का पहिया पंक्चर हो गया था. आस पास रेत के टीलों के अलावा कुछ नहीं था. आजकल तो वो सड़क इतनी बिज़ी रहती है कि पांच मिनट भी नहीं गुजरेंगे कि कोई न कोई बस ट्रक आपको मिल जाएगा, लेकिन वो ज़माना और था. दूर दूर तक सुनसान सड़क और आस पास बिखरे हुए रेत के धोरे....... बस इनके अलावा और कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था. थोड़ी देर तो खड़ा सोचता रहा कि क्या करूं? थोड़ा इंतज़ार भी  कर रहा था कि शायद कोई बस या ट्रक आ जाए जिस पर लादकर मोटर साइकिल को बीकानेर ले जाया जा सके.
जब कहीं कुछ भी आता नज़र नहीं आया तो मन में ख़याल आया. यहाँ से आकाशवाणी की ट्रांसमीटर बिल्डिंग ६ किलोमीटर की आस पास होगी. अगर मैं इतनी दूर मोटर साइकिल को धकेल कर ले जाऊं तो इसे वहाँ लेजाकर रख सकता हूँ और राम करण जी या पेम्पा राम की साइकिल लेकर घर जा सकता हूँ. मैंने मोटर साइकिल को स्टार्ट किया और उसे लेकर दौड़ पड़ा. दौड़ते दौड़ते मेरी हालत खराब हो रही थी लेकिन इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था. करीब एक घंटे में मैं मोटर साइकिल को दौड़ाते दौड़ाते ट्रांसमीटर बिल्डिंग तक जा पहुंचा. गेट पर ताला लगा हुआ था. मैंने कई आवाज़ें लगाई तो कोई इंसान जो मुझे नहीं जानता था, गेट पर आया और पूछा कि क्या बात है? मैंने उसे कहा कि भाई छाबला जी, श्रीवास्तव जी में से कोई हो तो उन्हें बुला दो. उसने बताया कि न छाबला जी ड्यूटी पर हैं और न ही श्रीवास्तव जी. मैंने कहा, जो भी ड्यूटी ऑफिसर हो उन्हें बुला दो. मुझे लग रहा था कि कोई भी ड्यूटी ऑफिसर हो, मुझे मोटर साइकिल अन्दर खड़ी करने से क्यों मना करेगा और ख़ास तौर पर अब जब कि सबको पता चल गया है कि मेरा सलैक्शन हो चुका है और जल्दी ही में इन लोगों की ही तरह स्टाफ में आने वाला हूँ. उन दिनों चूंकि ड्यूटी ऑफिसर तो चारों ट्रान्सफर हो चके थे, परमानेंट अनाउंसर ड्यूटी ऑफिसर का काम किया करते थे, ज़ाहिर है उस दिन भी एक अनाउंसर साहब ही ड्यूटी ऑफिसरी कर रहे थे. पंद्रह मिनट इंतज़ार करवा कर वो गेट के पास आये और बोले, “कहिये क्या चाहिए आपको?”
मैंने नम्रता से कहा, “ जी मुझे चाहिए कुछ नहीं. मेरा मोटर साइकिल पंक्चर हो गया है. इसे अन्दर खड़ा करना है. उसके बाद मैं पैदल घर चला जाऊंगा.”
मुझे लगा कि इसमें उन्हें भला क्या दिक्क़त होगी? वो कहेंगे. “हाँ हाँ कर दो खड़ा मोटर साइकिल को.”
लेकिन वो थोड़े रूखे अंदाज़ में बोले, “आप जानते हैं न, एमरजेंसी  लगी हुई है देश में. मैं किसी आउटसाइडर को गेट के अन्दर नहीं घुसने दे सकता न ही किसी आउट साइडर की मोटर साइकिल को अन्दर खड़ा करने की परमिशन दे सकता हूँ.”
“आप जानते हैं मैं आउट साइडर नहीं हूँ. मैं आपका कैज़ुअल एनाउंसर हूँ और अब तो परमानेंट पोस्ट के लिए भी मेरा सलैक्शन हो चुका है.”
“सॉरी....... मैं आपको अलाऊ नहीं कर सकता. कौन जाने मोटर साइकिल में बम रखा हो तो?” गुस्सा तो बहोत आया मुझे लेकिन उन एनाउंसर साहब की और मेरी दोनों की क़िस्मत बहोत अच्छी थी कि हम दोनों के बीच अच्छा खासा ताला लगा हुआ गेट था.
मैं गेट से लौट पड़ा....... जिस तरह ६-७ किलोमीटर मोटर साइकिल को धकेलते हुए यहाँ तक लाया था, उसी तरह धकेलते हुए घर तक ले गया. पसीने से लथपथ हुआ रास्ते भर यही सोचता रहा कि मैं आकाशवाणी ज्वाइन तो कर रहा हूँ लेकिन अगर ऐसे लोग भरे हुए हैं आकाशवाणी में तो मेरी ज़िदगी की राहें हमवार तो नहीं रहने वाली है. मुझे भट्ट साहब का वो जुमला याद आ गया, “महेंद्र, मेरा जितना तजुर्बा है उसकी बिना पर मैं कह सकता हूँ कि तुम ट्रांसफर होकर जहां जहां भी जाओगे, बहुत कम अनाउंसर मिलेंगे जिनके पास तुम्हारे जैसी आवाज़ होगी....... यानी हर जगह ही अनाउंसर तुम्हारे दुश्मन बन जायेंगे.”




                                                                                                                                           
















No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

अपनी राय दें