रेडियोनामा पर महेंद्र मोदी के संस्मरणों की श्रृंखला ‘कैक्टस के मोह में
बिंधा एक मन’ पिछले कुछ समय ये स्थगित थी। इस रविवार से इसे फिर शुरू किया जा रहा
है। हर रविवार इसके अंक प्रकाशित किये जायेंगे।
पिछली सभी कडियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए।
मैं रेडियो जाने लगा था. हालांकि आकाशवाणी, बीकानेर पर अभी नाटक की शुरुआत नहीं हुई थी लेकिन कभी कोई रूपक, कभी कोई संगीत रूपक कभी कोई और छोटा मोटा प्रोग्राम रिकॉर्ड होने लगा था. कभी वैसे ही प्रोग्राम हैड महेंद्र भट्ट साहब बुला लिया करते थे. वो मुझसे कहते थे कि मुझे रेडियो ही ज्वाइन करना चाहिए क्योंकि मेरी आवाज़ रेडियो के लिए ही बनी है. मन ही मन में मुझे भी यही लग रहा था लेकिन अपने पहले ही रूपक की रिकॉर्डिंग के वक़्त जिस तरह लोगों को जलते हुए देखा, मैं अब भी ज़रा पशोपेश में था कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि रेडियो में आकर पूरी ज़िंदगी मैं लोगों की जलन का ही शिकार होता रहूँ और माइक्रोफोन के सामने बोलने से दिल को जो तस्कीन मिलती है वो बाकी वक़्त के लड़ाई झगड़ों की भेंट चढ़ जाए.
वक़्त गुज़रता रहा. मेरी नीम हकीमी चल रही थी और एकाध ट्यूशन
भी. इसी बीच एक रोज़ लक्ष्मी चन्द शर्मा जी ने घर आकर कहा कि भट्ट जी ने बुलाया है.
मैं आकाशवाणी पहुंचा. भट्ट जी बहोत खुश होकर बोले “आओ आओ महेंद्र, मैं तुम्हें ही
याद कर रहा था.”
मैंने कहा, “जी फरमाएं......... क्या हुकुम है मेरे लिए?”
“बताता हूँ..... बताता हूँ....... पहले ये बताओ जल्दी में
तो नहीं हो न?”
“जी नहीं”
“ लंच का वक़्त हो रहा है, घर चलते हैं, वहीं आराम से बात
होगी.”
“ जी जैसा आप ठीक समझें.”
दफ्तर के सामने ही उनका घर था. हम घर में घुसे तो मधु भाभी
जी ने हमारा स्वागत किया. मैं इंतज़ार कर रहा था कि भट्ट साहब कब वो बात शुरू करते
हैं जिसके लिए उन्होंने मुझे तलब किया है. भट्ट साहब के घर में एक बड़ा सा हॉल था जिसे
वो ड्राइंग रूम के काम में भी लेते थे और एक तरफ डाइनिंग टेबल लगी हुई थी. हम
दोनों हॉल में घुसे तो देखा एक दुबला सा लड़का एक किनारे बैठा हुआ गिटार बजा रहा
है. भट्ट साहब ने मेरा परिचय करवाया “ये महेंद्र मोदी हैं, मेरे दोस्त. रेडियो के
ड्रामा के कलाकार हैं और इनकी आवाज़ से मुझे ये लगता है कि ये जल्दी ही रेडियो में
हमारे साथी बनने वाले हैं और महेंद्र, ये मेरा छोटा भाई है विश्व मोहन. गिटार सीख
रहा है.” हम दोनों ने हाथ मिलाये. मुझे कहाँ पता था कि जिस दुबले पतले लड़के से मैं
हाथ मिला रहा हूँ वो आने वाले वक़्त की भारी भरकम शख्सियत है , जिसे लोग एहतराम से
पंडित विश्व मोहन भट्ट के नाम से जानेंगे, जिनका ईजाद किया मोहन वीणा पूरी दुनिया
में मशहूर होगा और जिन्हें दो-दो बार ग्रैमी अवॉर्ड के साथ साथ न जाने दुनिया भर
के कितने अवॉर्ड्स देकर ज़माना फख्र महसूस करेगा. विश्व मोहन जी मेरे हमउम्र हैं, लेकिन
उस रोज़ चूंकि उनके बड़े भाई ने अपने दोस्त के तौर पर मेरा उनसे परिचय करवाया था, वो
मुझे अब तक वही सम्मान और प्यार देते रहे हैं.
विश्वमोहन जी की बात चली है तो एक घटना याद आ गयी 1993-1994
की, पहले वो सुना देता हूँ. मैं आकाशवाणी, उदयपुर में पोस्टेड था. हमारे डायरेक्टर
हुआ करते थे श्री रतन सिंह हरयाणवी. बहुत ही सज्जन और मुहज्ज़ब लेकिन बहुत निश्छल
और सरल भी. अपनी सरलता और निश्छलता में कभी कभी कोई बात बिना किसी लाग लपेट के
इतने सीधे शब्दों में कह जाते थे कि सुनने वाला हक्का बक्का रह जाता था. हुआ ये कि
विश्व मोहन जी उदयपुर आये थे किसी प्रोग्राम के लिए. एक फाइव स्टार होटल में रुके
हुए थे. कुछ कलाकार उनसे मिलने गए तो आकाशवाणी की बात चल पडी और उसी बातचीत के
दौरान उन्हें पता लगा कि मेरी पोस्टिंग आकाशवाणी उदयपुर में है. उनका मन हुआ कि
मुझसे मिला जाए. उन दिनों मोबाइल फोन तो आये नहीं थे. संपर्क का साधन महज़ लैंड
लाइन के फोन ही हुआ करते थे. उन्होंने डायरेक्टरी उठाई, आकाशवाणी के डायरेक्टर का
फोन नंबर देखा और अपने कमरे में लगे फोन से वो नम्बर घुमा दिया. डायरेक्टर साहब की
पी ए शारदम्मा जी कहीं इधर उधर टहल रही थीं. घंटी बजी तो हरयाणवी साहब ने ही फोन
उठाया और बोले, “हलो........”
विश्वमोहन जी बोले, “आकाशवाणी से बोल रहे हैं?”
“जी हाँ, फरमाइए आप कौन बोल रहे हैं?”
“ जी मेरा नाम विश्व मोहन भट्ट है.”
उन्हीं दिनों उन्हें ग्रैमी अवॉर्ड मिला था इसलिए हर तरफ
उनकी नाम के चर्चे थे. ज़ाहिर है हरयाणवी साहब ने भी उनका नाम सुन ही रखा था. वो
तुरंत बोले, “विश्व मोहन जी.... वो गिटार वाले?”
“ जी हाँ, गिटार वाला. मुझे ज़रा महेंद्र मोदी जी से बात
करवा सकते हैं क्या? वो मेरे बड़े भाई के
दोस्त हैं.”
“ हाँ ज़रूर......... कैसे ? रिकॉर्डिंग करवाना चाहते हैं
क्या?” अपनी सरलता में हरयाणवी साहब कह गए बिना ये सोचे कि इतना बड़ा कलाकार जिसके
पीछे रिकॉर्डिंग के लिए दुनिया भर के स्टेशंस के लोग रिकॉर्डर लिए लिए घूमते हैं,
क्या वो कलाकार आगे होकर ये कहना चाहेगा कि मुझे आपके स्टेशन पर रिकॉर्डिंग करवानी
है? विश्वमोहन जी ने कोई जवाब नहीं दिया और फोन काट दिया. अब हरयाणवी साहब को लगा
कि कुछ गड़बड़ हुई है. उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलवाया. मैं जैसे ही कमरे में
घुसा कि बोले, “यार वो गिटार बजाते हैं ना विश्व मोहन भट्ट, उनका फोन आया था.
तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे, फिर पता नहीं क्या हुआ कि अचानक फोन काट दिया.”
“अच्छा वो उदयपुर आये हुए हैं क्या? क्या कह रहे थे? कहाँ
रुके हुए हैं ? पूरी बात बताइये ना?”
“यार ये सब तो पूछा नहीं मैंने. उन्होंने तो अचानक ही फोन
काट दिया.”
मुझे लगा कि कुछ तो गड़बड़ हुई है. मैं हरयाणवी साहब की सरलता
से अच्छी तरह वाकिफ था. मैंने कहा, “सर आप
पूरी बात बताइये. आपने उनसे क्या बोल दिया? विश्वमोहन जी बहोत सीधे सादे आदमी हैं,
तुनक मिज़ाज बिलकुल नहीं. वैसे ही वो फोन नहीं काट सकते. आपके मुंह से कुछ ऐसा ज़रूर
निकला होगा जो उन्हें बुरा लग गया.”
“ अरे यार मैंने ऐसा तो कुछ भी नहीं कहा. उन्होंने तुम्हारे
बारे में पूछा और कहा कि तुम उनके बड़े भाई के दोस्त हो, मैंने कहा हाँ बात करवाता
हूँ,फिर मैंने वैसे ही पूछ लिया........ क्या रिकॉर्डिंग करवाना चाहते हैं क्या ?
और तो कुछ भी नहीं कहा मैंने. बस उन्होंने तो फोन काट दिया.”
मैंने अपने सर पर हाथ मारते हुए कहा, “आप भी कभी कभी कमाल
ही कर देते हैं सर. अरे इतने मशहूर कलाकार. युवा पीढी तो उनके पीछे पागल है आज.
लोग रिकॉर्डर लेकर उनके पीछे पीछे घूमते हैं कि वो उनके लिए थोड़ा सा कुछ बजा दें
तो वो धन्य हो जाएँ और आप हैं कि उनसे पूछ रहे हैं कि रिकॉर्डिंग करवाना चाहते हैं
क्या?बुरा नहीं मानेंगे तो क्या मानेंगे?”
“सॉरी यार मेरा ऐसा कोई मतलब नहीं था. मुझे तो लगा कि कोई
कलाकार अगर आगे होकर फोन कर रहा है तो रिकॉर्डिंग ही करवानी होगी.”
“आपने बहोत गड़बड़ कर दी सर. उनके बड़े भाई महेंद्र भट्ट जी
मेरे दोस्त थे. उस नाते वो मुझे बहोत इज्ज़त देते हैं. मैं पता करता हूँ कि कहाँ
रुके हैं वो और फिर उनके पास जाता हूँ.”
“हाँ यार तुम देखो और यहाँ लाने की कोशिश करो. मैं माफी
मांग लूंगा उनसे और हाँ उनकी एक रिकॉर्डिंग भी कर ही लेंगे.”
मैंने दोनों हाथ जोड़ते हुए उनसे कहा, “हाँ सर मैं जाता हूँ
उनके पास लेकिन मैं हाथ जोड़ता हूँ आपको, बरायेमेहरबानी आप उनके सामने रिकॉर्डिंग
का तो नाम भी मत लेना.”
“अच्छा अच्छा यार, मैं कुछ भी नहीं बोलूंगा.”
मैंने एक दो कलाकारों को फोन किया तो पता चल गया कि विश्व
मोहन जी कहाँ रुके हुए हैं. मैंने फोन करके कहा, “हाज़िर होना चाहता हूँ आपके पास.”
बहोत खुश होकर बोले,
“हाँ हाँ ज़रूर आइये ना, मैंने तो आपसे मिलने के लिए ही आकाशवाणी फोन किया था
लेकिन..........”
इतने अच्छे और सज्जन इंसान कि किसी की बुराई उनके मुंह से
निकलती ही नहीं, कैसे कहें कि उनके साथ क्या हुआ? मैं उनकी दुविधा को भांप गया.
फ़ौरन उनके लेकिन बोलते ही बोल पड़ा, “जी मुझे पता चल गया सब कुछ. मैं मआज़रत करता हूँ
उस सबके लिए. बहरहाल मैं हाज़िर हो रहा हूँ अभी.”
मैं उनके होटल पहुंचा और उन्हें कहा, “हमारे डायरेक्टर साहब
बहोत ही अच्छे इंसान हैं, बिलकुल निश्छल और निष्कपट, बिलकुल बच्चों की तरह. आप
प्लीज़ बुरा मत मानिए उनकी बात का. आकाशवाणी चलिए.”
“आपसे मिलने के लिए ही मैंने तो फोन किया था. अब आपसे
मुलाक़ात तो हो ही गयी. अब आकाशवाणी चलकर भला क्या करूंगा?”
“अगर आप नहीं चलेंगे तो हमारे डायरेक्टर साहब यही मानेंगे
कि आपने उन्हें माफ़ नहीं किया है. तब वो खुद यहाँ आयेंगे आपसे माफी मांगने.”
“अरे नहीं नहीं महेंद्र जी, वो हमारे बुज़ुर्ग हैं, भला ये
अच्छा लगेगा कि वो मुझसे माफी मांगने यहाँ आयें?”
“तो फिर तैयार हो जाइए और चलिए मेरे साथ. और हाँ आप जैसे
कलाकार हमारे शहर में आयें और हमारे स्टेशन पर उनकी रिकॉर्डिंग हम ना कर पायें तो
यहाँ रेडियो स्टेशन के होने का अर्थ ही क्या है?”
“ठीक है चलता हूँ मैं लेकिन माफ़ करें, मैं रिकॉर्डिंग नहीं
करवाऊँगा.... आप खुद सोचिये, इतना सब होने के बाद क्या ये अच्छा लगेगा कि मैं वहाँ
रिकॉर्डिंग करवाऊं?”
मैंने हँसते हुए कहा, “भट्ट साहब, आकाशवाणी उदयपुर के लिए
रिकॉर्डिंग करवाने का आपका मन नहीं कर रहा तो मैं ज़बरदस्ती नहीं करूंगा लेकिन मैं
आपका बहोत वक़्त से इंतज़ार कर रहा था. मैं अभी यहाँ कुछ वक़्त पहले आया हूँ और मैंने
नाटक का प्रोडक्शन शुरू किया है. मेरी दिक्क़त ये है कि मेरे पास नाटकों में देने
के लिए बैकग्राउंड म्यूज़िक की बहोत कमी है. मैं चाहता हूँ कि आप अपनी मोहन वीणा पर
कुछ अच्छे अच्छे कट्स रिकॉर्ड करवा दें जिन्हें मैं नाटकों में काम ले सकूं.”
कोई और कलाकार होता तो इस तरह की दुर्घटना के बाद
रिकॉर्डिंग के लिए कभी तैयार नहीं होता लेकिन विश्व मोहन भट्ट जी ने मुस्कुराकर
फ़ौरन अपनी मोहन वीणा उठाई और मेरे साथ रवाना हो गए.
आकाशवाणी पहुंचे तो मैं उन्हें सीधे हरयाणवी साहब के कमरे
में ले गया. हरयाणवी साहब ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और दोनों हाथ जोड़कर कुछ इस
तरह माफी माँगी कि विश्वमोहन जी को कहना पड़ा, “सर क्या कर रहे हैं आप? मैं तो आपके
बच्चों की तरह हूँ. इस तरह माफी मांगकर मुझे शर्मिन्दा ना करें.”
हम लोग काफी देर तक हरयाणवी साहब के कमरे में बैठे रहे.
दुनिया जहान की बातें हुईं. हरयाणवी साहब से बात कर, विश्व मोहन जी के मन का सारा मैल
धुल गया. उसके बाद तो उन्होंने बहोत मन से मेरे नाटकों के लिए बैकग्राउंड म्यूज़िक
भी रिकॉर्ड करवाया और केंद्र के लिए शास्त्रीय संगीत भी.
तो........... वही विश्व मोहन भट्ट जी, हवाइन गिटार को एक
नया रूप देकर हिदुस्तानी क्लासिकल का एक शानदार साज़ बना देने वाले, दो दो बार
ग्रैमी अवॉर्ड जीतने वाले विश्वमोहन भट्ट जी, अपने बड़े भाई महेंद्र भट्ट जी के हॉल
के एक कोने में गिटार लेकर बैठे थे, जब मैं उनके घर पहुंचा. भाभी जी ने टेबल पर
खाना लगाया. मुझे भी भट्ट साहब के साथ खाना खाने बैठना ही पड़ा. अब भट्ट साहब ने
बात शुरू की. बोले, “देखो महेंद्र, मैं परसों जयपुर से आया हूँ. हालांकि ये सब कुछ
ऑफिशियल सीक्रेट है लेकिन फिर भी मैं तुम्हें बता रहा हूँ. जल्दी ही आकाशवाणी
ट्रांसमीशन एक्जीक्यूटिव की वैकेंसीज़ निकाल रहा है. तुम इसके लिए ज़रूरी सारी
शर्तें पूरी करते हो. अभी तय नहीं है कि खाली इंटरव्यू होगा या रिटन एग्जाम भी
होगा लेकिन तुम अभी से रेडियो से जुड़ी जितनी भी जानकारियाँ हैं उन्हें इकट्ठा करना
शुरू कर दो, कुछ अच्छा साहित्य पढ़ो और जनरल नॉलेज एवं करैंट अफेयर्स की स्टडी शुरू
कर दो ताकि अगर रिटन एक्ज़ाम हो तब भी ठीक है और सिर्फ इंटरव्यू हो तब भी ठीक.”
मुझे लगा इसमें कहीं भाषा का, आवाज़ का या माइक्रोफोन का तो
कोई ज़िक्र ही नहीं आया. ये कैसा इम्तहान होगा जिसमें मेरी आवाज़, मेरी भाषा का कोई
रोल नहीं होगा? फिर मैं करूंगा क्या आखिर रेडियो स्टेशन में? मैं यही सब सोच रहा
था कि भट्ट साहब मुस्कुराकर बोले, “मुझे पता है महेंद्र तुम क्या सोच रहे हो?”
“जी..........जी.........”
“तुमने नवतरंग प्रोग्राम किया था, उस रोज़ वहाँ एक साहब मिले
थे ने तुम्हें तुलसियानी जी.”
“जी हां”
“ ये वही पोस्ट है. वो अनाउन्सर को सुपरवाइज़ करते हैं.”
“ लेकिन वो खुद तो माइक्रोफोन पर नहीं बोलते?”
“ बिलकुल सही कहा तुमने. वो माइक्रोफोन पर नहीं बोल सकते .
सबसे पहली बात ये कि वो हिन्दीभाषी नहीं हैं. उनके पास आवाज़ तो हो सकती है , लेकिन
ना भाषा है और ना ही उच्चारण. रेडियो की
भाषा में वो रेडियो पर हिन्दी में बोलने के लिए अप्रूव्ड नहीं हैं. तुम्हारे पास
तो सब कुछ है, अच्छी आवाज़ भी, अच्छा तलफ्फुज भी और अच्छी भाषा भी.तुम तो ड्रामा के
लिए अप्रूव्ड भी हो और जो इंसान ड्रामा में अप्रूव्ड होता है, रेडियो के किसी भी
प्रोग्राम में बोल सकता है........तो तुम चाहे किसी भी कुर्सी पर बैठो तुम्हें
रेडियो पर बोलने से कोई नहीं रोक सकता. बस एक ही दिक्क़त है.”
“ जी वो क्या?”
“ अनाउंसर्स समझते हैं कि रेडियो पर बोलना सिर्फ उनका
अधिकार है, इसलिए तुम्हें हर क़दम पर अनाउंसर कौम की दुश्मनी झेलनी होगी. मेरा
जितना तजुर्बा है उसकी बिना पर मैं कह सकता हूँ कि तुम ट्रांसफर होकर जहां जहां भी
जाओगे, बहुत कम अनाउंसर मिलेंगे जिनके पास तुम्हारे जैसी आवाज़ होगी....... यानी हर
जगह ही अनाउंसर तुम्हारे दुश्मन बन जायेंगे.”
“ सर आप मुझे जॉब दिलवा रहे हैं या डरा रहे हैं? ”
“ देखो डियर मैं तुम्हें कुछ हकीक़तें बता रहा हूँ रेडियो
की.”
“ तो सर फिर मैं ट्रांसमीशन एक्जीक्यूटिव बनूँ ही क्यों?
क्यों न मैं अनाउंसर के लिए ही कोशिश करूं?”
वो ज़ोर से ठहाका लगाते हुए बोले, “हाँ , मुझे पता था कि तुम
यही कहोगे लेकिन तुम्हें मालूम है, जो अनाउंसर की पोस्ट पर लगता है वो उसी पोस्ट
पर रिटायर हो जाता है जबकि आज जो हमारे डायरेक्टर जनरल दिल्ली में बैठते हैं और
आकाशवाणी की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे हैं, उन्होंने भी अपनी ज़िंदगी की शुरुआत
ट्रांसमीशन एक्जीक्यूटिव की पोस्ट से ही की थी. मुझे पता है, तुम्हारे अन्दर इन
दोनों पोस्ट्स पर सलेक्ट होने की काबलियत है और दोनों के लिए तुम्हें मौके भी
मिलेंगे, अब ये तुम्हारे ऊपर है कि तुम अनाउंसर बनकर ये आकाशवाणी बीकानेर है का
राग अलापते अलापते पूरी ज़िंदगी गुज़ार दो या फिर दुश्मनियों की परवाह न करते हुए,
ट्रांसमीशन एक्जीक्यूटिव की पोस्ट ज्वाइन कर नए नए चैलेंजेज को मंज़ूर करो. माइक पर
बोलने की काबलियत को तो कोई तुमसे छीन नहीं सकता.”
“ जी अच्छा....... मैं अप्लाई करूंगा जैसे ही पोस्ट निकलती
है.”
खाना हो चुका था. हम लोग घर से बाहर निकले. मैंने भट्ट साहब को
प्रणाम कहा और घर आ गया. स्टेट लायब्रेरी का बरसों से मेंबर था और क़रीब क़रीब
रोज़ाना थोड़ी देर लायब्रेरी में जाकर बैठा करता था. अब मैंने वहाँ बैठने का अपना
वक़्त थोड़ा बढ़ा दिया.
कुछ ही दिनों बाद ट्रांसमीशन एक्जीक्यूटिव की पोस्ट निकली.
मैंने अप्लाई कर दिया. इधर यू पी एस सी की सिविल सर्विसेज की वैकेंसीज़ भी निकली,
उसमे भी फॉर्म भर दिया. कुछ ही दिन बाद आकाशवाणी, जयपुर ने अनाउन्सर की वैकेंसीज़ निकाली तो मैं सोच में पड़
गया कि फॉर्म भरूं या नहीं? 6-7 साल पहले जो पोस्ट मंजुरुल अमीन साहब और विश्वम्भर
नाथ तिलक साहब ने प्लेट में रखकर ऑफर की थी और मैंने उसे स्वीकार नहीं किया था,
क्या अब उसी पोस्ट के लिए मुझे अर्ज़ी देकर क्यू में खड़ा होना होगा ? 1974 में मेरा
एम् ए हो गया था.तब से क़रीब एक साल गुज़र चुका था. हालांकि नीम हकीमी और ट्यूशन की
बदौलत मैं अच्छा खासा कमा रहा था फिर भी था तो बेरोज़गार ही. मैं फिर जा पहुंचा
महेंद्र भट्ट साहब के पास ये सलाह लेने कि अनाउंसर की पोस्ट के लिए फॉर्म भरूं या
नहीं?
उन्होंने बड़ी शान्ति से मेरी बात सुनी और बोले, “ देखो
महेंद्र, जो गुज़र चुका सो तो गुज़र चुका. तुमने अगर तब अनाउन्सर की पोस्ट पर ज्वाइन
कर लिया होता तो आज तुम्हारी 6-7 साल की नौकरी हो चुकी होती लेकिन ये भी तो सोचो
कि अगर किसी वजह से तुम नौकरी में आने के बाद पढाई न कर पाते तो हायर सैकेंडरी पास
ही रह जाते. बीती बातों को छोडो. अभी तो जो भी वैकेंसीज़ सामने आये अप्लाई करते जाओ.
सलेक्शन होने के बाद किस जगह ज्वाइन करना है, ये तय करना तो तुम्हारा हक़ होगा, उसे
तुमसे कोई थोड़े ही छीन सकता है ?”
मैंने अनाउन्सर की पोस्ट के लिए अप्लाई कर दिया. कस्टम्स
में इंस्पेक्टर की पोस्ट निकली, उसमें भी फॉर्म भर दिया, बैंक ऑफ इंडिया में
क्लर्क की पोस्ट के लिए भी फॉर्म भर दिया और इन्वेस्टिगेटर की एक पोस्ट निकली वहाँ
भी अप्लाई कर दिया यानी जहां भी जो भी पोस्ट थोड़ी ठीकठाक दिखाई देती, मैं अप्लाई
करता चला गया.
बैंक ऑफ इंडिया के रिटन इम्तेहान में पास हो गया. इंटरव्यू
दे दिया. इन्वेस्टिगेटर के इम्तहान को भी पास कर लिया. कस्टम्स का इम्तेहान भी दे
दिया. इसी बीच सिविल सर्विसेज़ के प्रिलिम्नरी इम्तेहान की तारीख़ आ गई . इम्तेहान
देने जयपुर जाना था. मैं जयपुर के लिए रवाना होने ही वाला था कि आकाशवाणी से
ट्रांसमीशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए इंटरव्यू की तारीख़ भी आ गयी. इत्तेफाक
कुछ ऐसा हुआ कि सिविल सर्विस का पेपर उसी
तारीख़ को था जिस दिन आकाशवाणी में मेरा इंटरव्यू था. अब मैं सोच में पड़ गया कि
दोनों में से कौन सा इम्तेहान मैं दूं और कौन सा छोड़ूँ?
विधि के लेख भी बड़े निराले होते हैं. इंसान चाहे चाँद पर
पहुंच जाए चाहे मंगल पर, लेकिन वो विधि के
लेख को नहीं पढ़ सकता. बड़े बड़े ज्योतिषी, बड़े बड़े भविष्य वक्ता, बड़े बड़े नजूमी हुए
हैं. उन्होंने इंसान के भाग्य की लकीरों को पढने के बड़े बड़े दावे भी किये हैं मगर
क्या सचमुच कोई सौ प्रतिशत पढ़ पाया है हाथ की लकीरों को?जी नहीं. मैं इधर पशोपेश
से रूबरू था कि दो इम्तेहानों में से कौन सा दूं और कौन सा छोड़ूँ? मुझे कहाँ पता
था कि तारीख का ये क्लैश बिला वजह ही नहीं हो रहा था . विधि इसी के बहाने मेरा आगे
का रास्ता तय कर रही थी. मुझे कहाँ पता था कि ये क्लैश ही मेरे रेडियो में आने की
वजह बनेगा.
मैंने तय किया कि मैं दोनों इम्तेहान देने की कोशिश करूंगा.
सिविल सर्विस के इम्तेहान की तारीख़ तो तय थी लेकिन आकाशवाणी पर इन्टरव्यू तो एक
दिन में खतम होने के बहोत कम इम्कान थे. तो....... क्यों न उसकी तारीख़ बदलवाने की
जुगत की जाए? मैं जयपुर तीन चार दिन पहले ही पहुँच गया था. अपने दोस्त महेश
श्रीमाली के साथ रुका था. अगले दिन सुबह ही सुबह आकाशवाणी जा पहुंचा. श्री के बी
शर्मा, डॉक्टर जे के दोषी जैसे कुछ दोस्त लोग थे. जगत चाचा सत्य नारायण अमन जी भी
वहीं थे. सबसे मिलकर अपनी दिक्क़त बयान की तो सबने कहा “डायरेक्टर श्री जे डी बवेजा
थोड़े कड़क ज़रूर हैं मगर बहोत अच्छे इंसान हैं. तुम उनसे मिलकर अपनी दिक्क़त उन्हें
बताओ वो इंटरव्यू की तारीख़ ज़रूर बदल देंगे क्योंकि इंटरव्यू चार पांच दिन तक चलने
वाले हैं. उनसे मिलने के लिए तुम्हें उनके पी ए बालिन्द्रन से मिलना होगा. वो
तुम्हें बताएँगे कि मुलाकात कितनी देर में हो सकती है ?”
मैं जा पहुंचा डायरेक्टर साहब के पी ए श्री बालिन्द्रन के
कमरे में. वो फोन पर किसी से बात कर रहे थे. मैं इंतज़ार करने लगा कि वो फोन रखें
तो मैं बात करूं. न उन्होंने फोन रखा न मुझे बैठने को कहा. मुझे बड़ा बुरा लग रहा
था कि मैं उनकी छोटी सी टेबल के सामने खडा था और वो मलयालम में फोन पर किसी से
बतियाये जा रहे थे. मैं कमरे के बाहर आकर खडा हो गया कि वो फोन पर अपनी बात ख़तम कर
लें तो बात करूं. बाहर आकर देखा, पास वाले कमरे के बाहर डायरेक्टर श्री जे डी
बवेजा के नाम की तख्ती लगी हुई थी. ओह..... तो ये है बवेजा साहब का कमरा. ऊपर एक
लाल रंग का बल्ब जल रहा था जैसा कि स्टूडियो के बाहर जलता है, जब स्टूडियो लाइव
होता है. तभी बालिन्द्रन साहब की बात ख़तम हुई, मैं उनके कमरे में घुसा, उन्होंने
मेरी तरफ नज़र भी नहीं डाली और एक फ़ाइल उठाकर बाहर की तरफ चल पड़े. मैं ज़रा जोर से
बोला, “सुनिए सुनिए मिस्टर बालिन्द्रन......”
मगर वो रुके नहीं
चलते चलते ही बोले, “वेट..... डायरेक्टर साहब के पास जा रहा हूँ. यू वेट हियर.”
मैं देखता रह गया और वो डायरेक्टर साहब के कमरे में घुस गए. आधे घंटे बाद वो वहाँ
से अपने कमरे में आये.
मैंने कहा, “मुझे डायरेक्टर साहब से पांच मिनट के लिए मिलना
है.”
वो तुनक कर बोले, “सॉरी..... वो बिजी हैं.”
“कितनी देर में हो सकती है मुलाक़ात ?”
“मैं अभी कुछ नहीं बता सकता. वो बहोत बिजी हैं.”
“अच्छा मैं इंतज़ार करूंगा.”
“जैसी आपकी मर्जी. लेकिन क्यों मिलना है आपको? क्या काम है
उनसे?”
मैंने उन्हें बताया कि जिस दिन मेरा यहाँ इंटरव्यू है उसी
दिन मेरा एक और इम्तहान है, मुझे इंटरव्यू की तारीख़ बदलवानी है. उन्होंने फिर एक
फ़ाइल उठाई और “वेट हियर” कहते हुए डायरेक्टर साहब के कमरे में घुस गए. थोड़ी देर
बाद लंच हो गया. पूरा दफ्तर लंच के डिब्बे खोल खोलकर खाने पर टूट पडा. माहौल में
हर तरफ तरह तरह की खुशबुएँ तैरने लगीं. मैं डायरेक्टर साहब के कमरे के बाहर ही खडा
रहा. भूख मुझे भी लगी थी लेकिन मुझे लग रहा था, कहीं ऐसा न हो कि मेरा बुलावा आ
जाए और मैं यहाँ न मिलूँ. बालिन्द्रन भी अपने कमरे के दरवाज़े को उढका कर लंच करने
लगे. डायरेक्टर साहब के कमरे पर लगी लाल बत्ती अभी भी जल रही थी. मैं सोच रहा था
कि जब डायरेक्टर साहब का पी ए जो कि एक मामूली कर्मचारी होता है, इतना भाव खा रहा
है तो फिर ये डायरेक्टर साहब तो पता नहीं कैसे पेश आयेंगे. एक बार तो मन हुआ, चलो
यार यहाँ से निकल चलो. इन तिलों में तेल नहीं है. और कई जगह अप्लाई किया हुआ है,
कई जगह सलैक्शन भी हुआ पडा है, कहीं और नौकरी करेंगे. रेडियो में अपना दाना पानी
नहीं है. लेकिन फिर के बी शर्मा जी, डॉक्टर दोषी और चाचा जी की बात याद आई कि डायरेक्टर
साहब बहोत अच्छे इंसान हैं. मेरे पाँव आगे बढ़ते बढ़ते रुक गए. मन किया, इन्हें भी
देख ही लिया जाय आज.
थोड़ी देर में बालिन्द्रन अपने कमरे से निकलकर बिना मेरी ओर
देखे फिर डायरेक्टर साहब के कमरे में घुस गए. अब मेरा खून थोड़ा गरम होने लगा था.
मैंने सोचा, ऐसा क्या ज़रूरी है कि रेडियो की ही नौकरी की जाए? लेकिन नहीं......
नौकरी न मिले तो न मिले यहाँ मैं हर हालत में डायरेक्टर साहब से तो मिलकर ही
जाऊंगा. जैसे जैसे वक़्त गुज़रता जा रहा था मेरा खून और गरम होता जा रहा था. मुझे
डायरेक्टर साहब के कमरे के बाहर खड़े चार घंटे से ज्यादा गुज़र चुके थे. बालिन्द्रन
अभी उनके कमरे में घुस रहे थे और कभी बाहर आ रहे थे. आखिर मेरे सब्र का पैमाना छलक
उठा. बालिन्द्रन एक फ़ाइल लेकर डायरेक्टर साहब के कमरे से निकले और दरवाज़े पर ही
फ़ाइल खोलकर कुछ देखने लगे. मैं उनके करीब गया और बोला, “ मुझे चार घंटे से ज़्यादा
हो गए हैं इंतज़ार करते करते. अब आप मुझे डायरेक्टर साहब से मिलने दीजिये.”
वो झुंझलाकर बोले, “आपको दिखाई नहीं दे रहा लाल बत्ती जल
रही है, इसका मतलब बहोत बिजी हैं वो. मैं आपको नहीं मिलवा सकता उनसे. आपके
इंटरव्यू की तारीख़ नहीं बदल सकती. जाइए आप को दोनों में से कौन सा इम्तहान देना है
ये आप तय कीजिये और दूसरा छोड़ दीजिये.”
इतना सुनना था कि मैं चिल्लाया, “ये मेरा हक है कि मैं
दोनों इम्तहान दूं, आप कौन होते हैं ये फैसला करने वाले कि मैं एक इम्तहान दूं या
दो?”
और गुस्से में मेरा हाथ उठा और मैंने बालिन्द्रन को एक
ज़ोरदार धक्का दिया. दुबला पतला सा इंसान, मेरे धक्के को सहन नहीं कर पाया और इधर
वो धडाम से नीचे गिरा और उधर मैंने भड़ाम से डायरेक्टर साहब के कमरे का दरवाज़ा खोला
और अन्दर जा घुसा. मुझे लगा इस भड़ाम की आवाज़ से जो भी डायरेक्टर साहब होंगे, उछलकर
खड़े हो जायेंगे और मुझे कहेंगे, “निकलो मेरे कमरे से और आइन्दा कभी आकाशवाणी की तरफ
रुख करने की भी हिम्मत मत करना.” फिर मन में सोचा, होने दो, आज ये भी होने दो,
नौकरी ये नहीं तो कोई और सही. पूरी दुनिया रेडियो की नौकरी से ही तो पेट नहीं
भरती.
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. दरवाज़ा मेरे पीछे बंद हो गया और
मैंने सामने की तरफ देखा, काले मोटे फ्रेम का चश्मा पहने एक गोरे चिट्टे सज्जन
फ़ाइल खोले मेज़ के उस तरफ एक बड़ी सी कुर्सी पर बैठे हैं. उछलकर खड़े होना तो दूर की
बात है, वो चौंके भी नहीं. हल्की सी मुस्कराहट उनके चेहरे पर आई और उनकी भारी गंभीर
आवाज़ फिजा में गूँज उठी, “क्या हुआ यंगमैन.....इतने गुस्से में क्यों हो?”
कहाँ तो मैं गुस्से से भरा हुआ धड़धड़ाता हुआ अन्दर घुसा था,
लेकिन उस शख्सियत को देख कर, उनकी आवाज़ सुनकर मेरी सिट्टी पिट्टी एकदम गुम हो गयी
थे. मैं खुद सुन रहा था, मेरे मुंह से सिर्फ इतना सा निकला, “जी सर........
वो........वो......वो..........”
उन्होंने हल्की हंसी के साथ सामने रखी कुर्सियों की तरफ
इशारा करते हुए कहा, “बैठो” और कॉलबैल बटन दबाया. मैं पसीने से तरबतर कुर्सी पर बैठा.
अन्दर के दरवाज़े से एक चपरासी घुसा. उन्होंने पाने लाने का इशारा किया. चपरासी ने
फ़ौरन पानी का ग्लास लाकर मेरे सामने रख दिया. गटागट मैं पूरा पानी पी गया.
जैसे ही मैंने ग्लास खाली करके टेबल पर रखा, वो साहब बोले,
“हाँ....... अब बताओ क्या बात हुई? क्यों इतना नाराज़ हो रहे थे मेरे पी ए पर?”
मैंने अपने आप पर काबू करते हुए उन्हें बताया कि किस तरह
मैं चार पांच घंटे से मैं उनसे मिलने के इंतज़ार में खड़ा था और उनके पी ए महोदय
मुझे उनसे मिलने नहीं दे रहे थे. जब उन्होंने ये कहा कि मेरे इंटरव्यू की तारीख़
नहीं बदल सकती. मैं दोनों में से कोई एक इम्तहान दूं तो मुझे गुस्सा आ गया. मैंने
बालिन्द्रन को मारा नहीं लेकिन जोर से धक्का ज़रूर दे दिया जिससे वो गिर पड़े.
वो मुस्कुराते हुए मेरी बात सुनते रहे. उनकी उस मुस्कराहट
को मैं कभी नहीं भूल सकता. बिल्कुल ऐसी ही मुस्कराहट मैंने उनके चेहरे पर १९८३ में
उस वक़्त देखी थी जब मैं यू पी एस सी से सलैक्ट होकर प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बन
चुका था, मुझे सिर्फ तंग करने की नीयत से उस वक़्त के डी जी ने यह कहते हुए मुम्बई पोस्ट कर दिया था कि वो मुझे राजस्थान
से चौबीस घंटे की दूरी पर रखना चाहते हैं क्योंकि मेरी वजह से राजस्थान में पॅालिटिक्स
बढ़ जाती है. वो महानिदेशालय में डी डी जी
की कुर्सी पर बैठे थे और मैं उनके सामने बैठा उन्हें बता रहा था कि डी जी साहब ने
मुझे मुम्बई पोस्ट करने की क्या वजह बताई. वो इसी तरह मुस्कुराकर बोले थे, “तू
साला बदमाश भी तो बहोत है.” खैर ये बहोत बाद की बात है. अभी तो मैं उनके पी ए को
धक्का मारकर उनके कमरे में घुसा था और उनके सामने घबराया हुआ सा बैठा था. उन्होंने
फिर घंटी बजाई, अन्दर से वो फ़ाइल मंगवाई जिसमे हम लोगों के इंटरव्यू के कॉल लैटर्स
की कॉपीज़ थीं. मुझसे कॉल लैटर लिया. दोनों में अपने हाथ से तारीख़ बदली अपने दस्तखत
किये और इंटरव्यू लैटर मेरे हाथ में रखते हुए बोले, “अब तो खुश ?” मैं उन्हें बहोत
बहोत धन्यवाद देते हुए कमरे से बाहर आ गया. मुझे लगा, चाहे इंटरव्यू की तारीख़ बदल दी
हो, लेकिन मन में खुन्नस तो पाल ही ली होगी इन साहब ने. चलो बेटा अब नौकरी तो कोई
और ही ढूंढो.
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