लोकेंद्र शर्मा की श्रृंखला 'ताने-बाने' हर बुधवार को प्रकाशित होती है। पिछले हफ्ते
भूलवश हम इसे प्रकाशित ना कर सके। इसका हमें खेद है।
रेडियोनामा पर लोकेंद्र जी का लिखा सब कुछ पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए।
भीलवाड़ा मेवाड़ का वो हिस्सा है, जो अरावली पर्वत माला से पश्चिम में कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर है. दूरी पर है - इसलिए पठारी कम और धूल-भरा ज्यादा है. इसके आगे ज्यों-ज्यों पश्चिम दिशा में बढें, तो धूल वाली धरती, रेतीली होती जाती है. भीलवाड़ा वाले मेवाड़ के टुकड़े को रेगिस्तान का किनारा भी कह सकते हैं. रेगिस्तान में अक्सर दिखाई देने वाले धूल के बगूले, कभी-कभी यहाँ भी आते हैं. गर्मी और सर्दी तो भीलवाड़ा में भर पेट होती है, लेकिन बरसात कई बार कंजूसी कर जाती है. इस बरस भी ऐसा ही कुछ हुआ. भारत के खेत सदा से आसमानी रहमत के मोहताज़ रहे हैं. बारिश हुई तो फ़सल भी हुई, वर्ना बरखा बिन सब सून. हरियाली को तरसते प्यासे खेत, धूल उड़ाते रह जाते हैं. पानी की कमी, देश में कहीं भी हो, उसकी सबसे ज्यादा मार पशुओं पर पड़ती है. न खाने के लिए चारा मिलता है और न पीने के लिए पानी. गोमती और उसकी दोनों बछियों के लिए भी, कहां तो हर दसवें दिन गाड़ीभर चारा आ जाता था और कहां अब हफ़्तों तक घास की व्यवस्था करना कठिन हो रहा था.
भूलवश हम इसे प्रकाशित ना कर सके। इसका हमें खेद है।
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भीलवाड़ा मेवाड़ का वो हिस्सा है, जो अरावली पर्वत माला से पश्चिम में कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर है. दूरी पर है - इसलिए पठारी कम और धूल-भरा ज्यादा है. इसके आगे ज्यों-ज्यों पश्चिम दिशा में बढें, तो धूल वाली धरती, रेतीली होती जाती है. भीलवाड़ा वाले मेवाड़ के टुकड़े को रेगिस्तान का किनारा भी कह सकते हैं. रेगिस्तान में अक्सर दिखाई देने वाले धूल के बगूले, कभी-कभी यहाँ भी आते हैं. गर्मी और सर्दी तो भीलवाड़ा में भर पेट होती है, लेकिन बरसात कई बार कंजूसी कर जाती है. इस बरस भी ऐसा ही कुछ हुआ. भारत के खेत सदा से आसमानी रहमत के मोहताज़ रहे हैं. बारिश हुई तो फ़सल भी हुई, वर्ना बरखा बिन सब सून. हरियाली को तरसते प्यासे खेत, धूल उड़ाते रह जाते हैं. पानी की कमी, देश में कहीं भी हो, उसकी सबसे ज्यादा मार पशुओं पर पड़ती है. न खाने के लिए चारा मिलता है और न पीने के लिए पानी. गोमती और उसकी दोनों बछियों के लिए भी, कहां तो हर दसवें दिन गाड़ीभर चारा आ जाता था और कहां अब हफ़्तों तक घास की व्यवस्था करना कठिन हो रहा था.
गांवों
में पालतू पशुओं को दोपहर से पहले ही जंगल की तरफ़ छोड़ देने का चलन है. इससे एक
तो खुली हवा में उनका घूमना-फिरना हो जाता है और दूसरे जहां घास और पानी मिले,
वहां तक वे आराम से पहुँच सकते हैं. लेकिन भीलवाड़ा गांव नहीं था, इसलिए इस सुविधा
से वंचित था. जंगल यहाँ बहुत दूर थे और थे भी तो सूखे. जब गोमती के लिए चारे की
व्यवस्था करना मुश्किल हो गया, तो फ़ैसला किया गया कि बछियों समेत उसे अपने पैतृक
गांव साड़ास भेज दिया जाए. साड़ास में भाबा (हमारी दादी) के पास एक गाय और एक भैंस पहले से थी.
उनके साथ गोमती भी जंगल के चरागाहों में जा सकती थी, जिनका दायरा गांव की सीमा
समाप्त होते ही शुरू हो जाता था. एक ग्वाले का इंतज़ाम किया गया. उसे गाय और दोनों
बछियों को लेकर पैदल-पैदल साड़ास तक जाना था. वहां उन्हें भाबा के हवाले करके,
सावित्री रोडवेज की हमारी बस में वापस लौट आना था.
गोमती और
बछिया के बिना घर का आंगन सूना सा हो गया. मैं, मुन्नी और अशोक तीनों बहुत उदास हो
गए, लेकिन सबसे ज्यादा उदास थीं बुआजी. दिन में कई-कई बार वो उस बरामदे में जातीं,
जहां गोमती के रहने की व्यवस्था की गई थी.
खाना खाते-खाते भी अक्सर उनका हाथ रुक जाता और वे गोमती को याद करने लगती. गोमती
को गए क़रीब एक हफ्ता हो चुका था. ग्वाला लौट आया था और बस का कंडक्टर भी ये ख़बर लेकर
आ चुका था कि गोमती सही-सलामत साड़ास पहुंच चुकी है.
गर्मियों
की रात में हम सब छत पर बिस्तर लगाकर सोते थे. बिस्तर बिछाने से पहले हम छत पर
पानी का छिड़काव करते और अचरज से देखते कि तपती हुई छत गीली होते ही फटाफट सूख
जाती है. हम फिर से पानी का छिड़काव करते और हाथ लगा-लगाकर छत के तापमान की जांच
करते. बच्चों के लिए अच्छा खासा खेल था ये. जब छत ठंडी हो जाती, तो बिस्तर बिछा
दिए जाते और हम हवा चलने का इंतज़ार करते-करते, बिस्तर पर गुलाटियां मारते. रात को
परेंडी से मटके उठाकर मुंडेर की दीवार पर रख दिए जाते थे, ताकि रात की हवा से पानी
ठंडा हो सके. धीरे-धीरे रात गहराती और हम अपने-अपने बिस्तरों पर नींद में लुढ़क
जाते.
ऐसी ही
एक रात थी. शायद आधी से ज्यादा बीत चुकी थी. अचानक बुआजी उठ बैठीं. गर्मी से बाउजी
की नींद भी उचटी हुई थी. उन्होंने देखा, तो पूछा, “कई व्हैग्यो?”
बुआजी
ने कहा, “गोमती की आवाज़ लागै.”
“अठै
कठै सूं आगी. गोमती तो साड़ास में है. सुपणो आयो होयगो.”
तभी
बांआआआ करती गाय के रंभाने की आवाज़ आई. बुआजी झटके से उठीं, “यो बोल तो री है.”
कहते-कहते झपटकर वो मुंडेर तक गईं और नीचे झांका. फिर, “हे म्हारा राम” कहते हुए बुआजी
नीचे सीढ़ियों की तरफ़ दौड़ पड़ीं. अंधेरे में कहीं ठोकर खाकर गिर पड़ेंगी, इस बात
की भी परवाह नहीं की. सीधे नीचे जाकर चौक का दरवाज़ा खोल दिया.
सामने
गोमती अपनी दोनों बछियों के साथ खड़ी थी. बुआजी दौड़कर गोमती के पास पहुंची और
दोनों हाथों से उसके गले में लिपटकर रोने लगीं. तब तक पीछे-पीछे बाउजी भी पहुंच
गए. आंखें उनकी भी भर आई होंगी, लेकिन वो बोले कुछ नहीं. कुछ ही देर में सारा
घर-बार गोमती और उसकी बछियों के पास पहुंच चुका था.
गोमती
कब साड़ास से निकली, कितने गांव-जंगलों से होकर गुजरी, कैसे बीच में पड़ने वाली दो-दो
नदियों को पार किया, कैसे सिर्फ एक बार देखा रास्ता याद रखा और कैसे सीधे भोपालगंज
के हमारे घर के सामने आकर पुकार लगाई, इसका उत्तर कोई तर्कशास्त्री नहीं दे पाएगा. जानवर होते हुए भी
गोमती ने जो किया, वह विशुद्ध प्यार नहीं तो और क्या था. ऐसा प्यार जिसे शायद कोई
नाम देना संभव नहीं है. भारतीय मनस जन्मों के संबंध की बात करता है. शायद यह ऐसे
ही किसी पूर्व जन्म के संबंधों का प्रमाण था. जो भी था, कम से कम वो मानवीय तर्क
से तो परे था ही.
बाउजी
देर तक गोमती की पीठ को धीरे-धीरे सहलाते रहे, जैसे अपने से दूर करने के लिए माफ़ी
मांगते रहे. उस पल बाउजी के मन में गोमती के प्रति जो श्रद्धा, प्रेम और भक्ति
जागी, वो जीवन भर बनी रही. बरसों बाद, जब दिल्ली में बाउजी अपनी आयु के अंतिम पड़ाव
में थे और चुपचाप बैठे पता नहीं क्या-क्या सोचा करते थे, तब अक्सर उनके मुंह से
गोमती का नाम निकल पड़ता और फिर वे एक ठंडी सांस छोड़ कर आँखें मूँद लेते और कहते,
‘श्री राम’. लेकिन ये कई बरस बाद की बातें हैं.
***
महाराणा
टॉकीज़ और प्रताप टॉकीज़ में जो फ़िल्में दिखाई जाती थीं, उन के लिए विज्ञापन प्रसारण
सेवा की ड्यूटी एक तांगेवाला निभाता था. तांगे के ऊपर रस्सी से लाउडस्पीकर बंधा
होता, अगल-बगल में फिल्म के पोस्टर चिपके होते. गाने बजाता हुआ तांगा शहर की
सड़कों-गलियों में घूमता और बीच-बीच में लाउडस्पीकर पर फिल्म के बारे में कुछ इस
तरह ऐलान करता जाता, जैसा भारत के रेलवे स्टेशनों पर ट्रेन के आने का किया जाता
है. “मेहराणा टोकीज में आगिया, आगिया, आगिया, हर्र हर्र महाआदेव. सब घर्रवालों के
साथ आइए. बाल-बच्चों और पड़ोस्यों को भी साथ में लाइए. दूसरा शान्दार हपता. भग्वान
महाद्देव और पार्वतीजी का दर्शन कीजिए. बाद में देखने को नईं मिलेगा. हर्र हर्र
महाआदेव. रोजाना दो शो. शाम के छे बजे और रात के नौ बजे. याद रखियेगा मेहराणा
टोकीज में.” और इसके बाद लाउडस्पीकर पर डबल स्पीड में किसी और फिल्म का कोई और
गाना बजने लगता.
बाउजी को तो फ़िल्म देखने का इतना चाव नहीं था, लेकिन भाभी और
बुआजी इसरार करते, तो फ़िल्म देखने की इजाज़त मिल जाती. सिनेमा घर का मैनेजर ख़ुद
घर पर टिकट दे जाता. याद है हम सब ‘हर हर महादेव’ देखने गए थे और उसका एक गाना ‘कंकर
कंकर से मैं पूछूं, शंकर मेरा कहां है, कोई बता दे, कोई बता दे.’ भाभी अक्सर
गुनगुनाया करती थीं. बुआजी की पसंद का गाना था, ‘भोले नाथ से निराला, गौरीनाथ से
निराला, कोई और नहीं’. उन्हीं दिनों एक सामाजिक फिल्म भी आई थी और हमें देखने को भी
मिली थी. फिल्म का नाम था ‘मां’. फिल्म के पोस्टर पर बनी बर्तन मांजती हुई फटेहाल
मां की तस्वीर मुझे आज तक याद है. तब हीरो-हीरोइन का नाम किसे मालूम था. हम तो किरदार
के नाम से ही उन्हें जानते थे. फिल्म ‘मां’ का हीरो था भानु. जब भानु घर छोड़कर
जाता है, तब एक गाना सुनाई देता है, ‘सांझ हुई भानु छुपा, छाया चहुंदिस अंधियारा,
मां की आंखों से छुपा मां की आंखों का तारा.’ इस फिल्म में एक और गाना था, ‘दुनिया
में हजारों नाते, पर माता दो चार नहीं, वो दिल पत्थर है, जिस दिल में माता का
प्यार नहीं.’ फिल्म ‘मां’ ने मेरे बाल मन पर गहरा असर किया था. इसके गीतों की गूंज
तो मेरी यादों में बरसों तक सुनाई देती रही. कई बरस बाद, जब मैंने विविध भारती के फिल्मी
गीतों के भंडार में प्रवेश किया, तो फिल्म ‘मां’ के गीतों को लाइब्रेरी में कई बार
ढूंढ़ा, लेकिन ये गीत नहीं मिले. हां, फिल्म ‘मां’ के बारे में जानकारियां हासिल
हो गईं.
फिल्म ‘मां’
बिमल रॉय की पहली हिंदी फिल्म थी. सन 1951 तक बिमल रॉय कलकत्ता में बंगला फिल्म
निर्देशक के रूप में स्थापित हो चुके थे और ठीक उन्हीं दिनों बंबई (आज की मुंबई)
में फिल्म कंपनी ‘बॉम्बे टॉकीज़’ अपनी माली हालत सुधारने की जुगाड़ में थी. कंपनी
के संस्थापक हिमांशु राय का निधन हो चुका था और उनकी पत्नी देविका रानी ‘बोम्बे
टाकीज़’ की कंट्रोलर थीं. अशोक कुमार ने उन्हें सुझाव दिया कि कलकत्ता के बिमल रॉय
को, कंपनी के लिए एक फ़िल्म बनाने का न्योता भेजा जाए. न्योता पाकर, बिमल रॉय ने एक शर्त रखी कि
यदि वे बंबई आए, तो अपनी टीम साथ लेकर आएंगे. शर्त मान ली गई. बिमल रॉय अपने साथ
सलिल चौधरी, हृषिकेश मुखर्जी, नवेंदू घोष और असित सेन को लेकर बंबई आए और बॉम्बे
टॉकीज़ के लिए अपनी पहली हिंदी फिल्म बनाई ‘मां’.
लेकिन
जब सन् 1953 में मैंने फिल्म ‘मां’ देखी थी, तब न तो मुझे ये सब बातें पता थी और न
इन बातों के महत्व की जानकारी थी. फ़िल्म के हीरो-हीरोइन भारत भूषण और श्यामा थे,
माँ की भूमिका लीला चिटनीस ने निभाई थी, संगीत सलिल चौधरी का था और मेरे प्रिय गीत
मन्नाडे की आवाज़ में थे, इन सब बातों से भी तब मुझे कोई मतलब नहीं था. मुझे तो बस
फ़िल्म अच्छी लगी थी और इतनी अच्छी कि उसके कई दृश्य मुझे आज तक याद हैं, जबकि उसे जीवन
में दोबारा फिर कभी देखने का अवसर नहीं मिला.
जीवन
सन् 1954 से गुजर रहा था. भीलवाड़ा में सिंधी शरणार्थियों ने व्यापार के कई मोर्चे
संभाल लिए थे. ग्रामोफोन रिकॉर्ड और लाउडस्पीकर आदि की भी दो-तीन दूकानें बाज़ार
में और आ गई थीं. ज़ाहिर है ‘एच. बल्लभ एंड कंपनी’ घाटे की तरफ मुड़ गई. व्यापार की
हिम्मत तो बाउजी ने कई बार की, लेकिन व्यापार में कामयाब होना उन्हें कभी नहीं
आया. बाउजी पर काफ़ी कर्ज हो गया था. परिवार की आर्थिक मदद के लिए भाभी ने पड़ोस में
स्थित लड़कियों के एक स्कूल ‘महिला आश्रम’ में पचास रुपए मासिक वेतन पर, अध्यापिका
की नौकरी कर ली. मुन्नी को भी इसी स्कूल में बिना फ़ीस के दाख़िला मिल गया. ‘नवयुग
विद्या मंदिर’ की फ़ीस तीन रुपए महीना थी और इस नाते यह एक महंगा स्कूल था, इसलिए
मुझे भी यहां से निकालकर ‘महावीर दिगम्बर जैन मिडिल स्कूल’ में दाख़िल करा दिया
गया. यहां की फ़ीस एक रुपया माह थी.
मेरा
नया स्कूल पुराने स्कूल के ठीक पिछवाड़े था. ‘नवयुग विद्धा मंदिर’ तो हमारे घर की
छत से दिखाई देता था, लेकिन नया स्कूल उसके पीछे छुपा हुआ था. छुपे हुए इस नए
स्कूल ने मेरी तालीम के कई नए दरवाज़े खोले. यह स्कूल एक दानी अजमेरा-परिवार की
मदद से चलता था. स्कूल ऊपर की मंज़िल पर था और निचले तल पर, अजमेरा परिवार का बसेरा
था. स्कूल के छज्जे से मैं कई बार नीचे चौक में, गहनों से लदी औरतों को एक कमरे से
दूसरे कमरे में आते-जाते देखा करता. देखकर इस बात पर अचरज होता कि हाय इत्ती गोरी
औरतें. इस परिवार का एक लड़का दीवानचंद अजमेरा मेरी क्लास में पढ़ता था. वो भी
इतना गोरा था कि एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया, “तुम लोग कौन से साबुन से नहाते
हो?” पहले तो उसकी कुछ समझ में नहीं आया, फिर उसने जवाब दिया, “नहाने वाले साबुन
से.”
दान पर
चलने वाले स्कूल में आए मुझे अभी कुछ ही दिन हुए थे कि अजमेरा-परिवार ने दान देना
बंद कर दिया. स्कूल के प्रिंसिपल त्रिपाठी जी ने मैनेजमेंट की मीटिंग बुलवाई और
आगे स्कूल कैसे चलेगा, इस बात पर विचार करने बैठे. सामने सिर्फ दो ही रास्ते थे.
या तो स्कूल बंद कर दिया जाए या बच्चों की फ़ीस बढ़ा दी जाए. स्कूल बंद करने का
मतलब था, सारे अध्यापक बेकार हो जाते और बीच में पढ़ाई रुकने से बच्चों का साल भी
ख़राब हो जाता. त्रिपाठी जी ने भीलवाड़ा के कुछ और दानियों के दरवाज़ों पर भी गुहार
लगाई, लेकिन जब टालमटोल हाथ लगी, तो फिर एक ही उपाय बचा था कि छात्रों की फ़ीस बढ़ा
दी जाए. सब बच्चों को बताया गया कि अब अगले महीने से सबकी फ़ीस साढ़े तीन रुपए हो
जाएगी. बच्चों को यह बात घर जाकर अपने माता-पिता को बतानी थी. मैंने यह बात भाभी
को बताई और भाभी ने बाउजी को. बाउजी बोले तो कुछ नहीं, लेकिन उनके माथे पर चिंता
की लकीरें खिंच आईं. इतना मैं भी समझ रहा था कि स्कूल की बढ़ी हुई फ़ीस जुटाना
मुमकिन नहीं है. मतलब साफ़ था कि मैं आगे नहीं पढ़ सकता. इस बात के ध्यान में आते
ही मेरी कल्पना में, पत्थर तोड़ते हुए, भीख मांगते हुए, फटेहाल, भूखे-नंगे बच्चों
की कई तस्वीरें तैर गईं और मैंने पाया कि मैं स्वयं भी उन्हीं के बीच खड़ा हूं. इस
सोच के साथ ही ढेर सारा रोना घुमड़ कर बाहर आ गया. उस समय मैं दरी पर नीचे बैठा था
और बाउजी पास रखे एक मोढ़े पर बैठे थे. उन्होंने शायद मेरी रोती हुई हिचकी सुन ली.
चिंता से हाथ पर टिकाए माथे को, उन्होंने मेरी तरफ मोड़ा और हाथ से मेरी ठोढ़ी को
उठाकर चेहरा अपनी तरफ किया. मेरा आंसुओं से भरा चेहरा उन्होंने देखा, लेकिन विचलित
होने की जगह एक दृढ़ता का भाव उनकी आंखों में आ गया. उसी दृढ़ स्वर में बाउजी ने
मुझसे पूछा, “रोते हो? क्यों? डर लगता है?” फिर बड़े सहज भाव से मेरे सिर पर अपने
बड़पन्न का हाथ फिराया और कहा, “देखो बेटा, ये जो संघर्ष होता है न, यह आदमी के
पुण्यों का फल होता है. इससे डरना नहीं चाहिए. ईश्वर जिससे प्यार करता है, उसी को
संघर्ष की भट्टी में झोंकता है. क्योंकि उसे वो तपाना और चमकाना चाहता है. याद रखो
कि जब तुम इस भट्टी से तपकर बाहर निकलोगे, तो सोने की तरह और चमक जाओगे और अगर तुम
सोना नहीं हो, तो फिर राख हो जाओ. इस संसार को तुम्हारी आवश्यकता नहीं है.”
उस
कच्ची उम्र में यह बात मेरे भीतर कितनी उतरी, सो तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन इतना
ज़रूर समझ गया कि मुझे रोना नहीं चाहिए. बाउजी की बात बड़ी थी, उसे समझने के लिए बड़ा
होना ज़रूरी था. सुनकर उस दिन से शायद मैंने बड़ा होना शुरू भी कर दिया. लेकिन छोटी उम्र
में मेरे ज़हन पर लिखी गई यह बड़ी बात, उम्र के एक सीमा तक पहुँचने के बाद ही पूरी
तरह समझ में आई और समझने पर ही मैंने जान पाया कि यह मेरे जीवन का वो पहला सूत्र
था, जिसने मुझे संघर्ष को प्रणाम करना सिखाया.
***
कांता
जीजी यानी बुआजी की बेटी, अपने पति यानी हमारे जीजाजी के साथ, गोद में एक नन्ही
बच्ची को लिये भीलवाड़ा आई हुई थी. जीजाजी पंडित दिवाकर शर्मा हिन्दुमहासभा के
सक्रीय कार्यकर्ता रहे थे और जोधपुर में एक प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे. उनके प्रेस
में हिन्दुमहासभा की कोई पत्रिका भी छपती थी. गांधीजी की ह्त्या के बाद उन्हें
गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया था. जेल-प्रवास में जीजाजी कवितायेँ लिखा करते थे
और कविताओं को उन्होंने एक कॉपी में संकलित भी किया हुआ था. जेल के माहौल पर लिखी,
उनकी कविता की शुरूआती पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं – ‘सुना किन्तु ना देखा होगा
चाहे हो दुनिया छानी, वह तो एक अजायबघर है इस दुनिया में अभिमानी.’
जेल-प्रवास
ने जीजाजी का ह्रदय-परिवर्तन कर दिया था. अब वे पक्के कांग्रेसी हो गए थे और
जोधपुर को अलविदा कहकर स्थायी निवास के लिए अपने पैत्रिक गाँव बेंगू जा रहे थे.
भीलवाड़ा बीच में पड़ता था, सो कुछ दिन के लिए यहाँ रुक गए थे.
जीजाजी
जब भी आते हम बच्चों के मज़े आ जाते. एक तो कुंवरसाब (राजस्थान में दामाद को इसी
नाम से संबोधित किया जाता है) की ख़ातिरदारी में रोज़ नए-नए पकवान बनते, जो हमारी
थालियों में भी आते और दूसरे जीजाजी अक्सर हमें फ़िल्म दिखाने ले जाते. मुझे याद है
महाराणा टॉकीज़ में उनके साथ हमने फ़िल्म ‘श्री 420’ देखी थी. अब तक मैं अभिनेताओं
को किरदारों की जगह उनके असली नामों से जानने लगा था. मुझे पता था कि इस फिल्म में
राजकपूर और नरगिस हैं. बस इससे ज्यादा जानकारी के लायक, मैं तब भी नहीं हुआ था.
जीजाजी
और कांता जीजी बेगूं चले गए, तो मेरा ज़्यादातर समय दूकान में ही बीतने लगा. दूकान
लगभग सूनी ही रहती थी और मैं दिनभर बैठा ग्रामोफ़ोन में चाबी भरता, साउंड बॉक्स में
नई सुई लगाता और रिकॉर्ड बजाता रहता. उन दिनों मुझे फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के गाने
ख़ूब अच्छे लगते थे. मैं अक्सर सुनता, ‘ओजी ओओओ... तू गंगा की मौज मैं जमना का
धारा’. तब ‘मौज’ शब्द का मतलब मैं ‘मौज-मस्ती’ समझता था. ताउजी (घासीराम जी
डोलिया) दूकान पर आते, तो अपने एक गाने की फ़रमाइश करते. उनकी पसंद का गाना था –
‘तेरे पूजन को भगवान्, बना मनमंदर आलिशान’.
एक तरफ
हालात मुझे रिकॉर्ड बजाने की तालीम दे रहे थे और दूसरी तरफ ‘महावीर दिगम्बर जैन
मिडिल स्कूल’ का माहौल मेरे लिए अध्यात्म के दरवाज़े खोल रहा था. तब मैं पांचवीं
क्लास में था. हमारे एक पीरियड का विषय था, ‘धर्म’. हमें जैन धर्म की जानकारियां
दी जाती थीं. सभी चौबीस तीर्थंकरों के नाम हमें रटाए गए. धर्म पढ़ाने वाले
मास्टरजी के गोरे-चिट्टे चेहरे पर मुझे एक नूर सा दिखाई देता. मैंने उन्हें कभी
गुस्सा करते या ज़ोर से बोलते नहीं देखा. इतने प्यार से समझाने और पढ़ाने वाले
अध्यापक से, जीवन में फिर कभी सामना नहीं हुआ.
मुझे
याद है एक बार हमें चित्तौड़गढ़ के टूर पर ले जाया गया. गढ़ का अर्थ है क़िला. चितौडगढ़
वैसे तो आज एक शहर है, जो पहाड़ के पायताने, बेड़च नदी के तट पर बसा हुआ है, लेकिन
भारत का यह सबसे विशाल गढ़, अरावली पर्वतमाला के एक हिस्से पर है. पहाड़ पर बना यह
क़िला लगभग पौने तीन वर्ग मील में फैला हुआ है और चारों तरफ ऊँचे परकोटे से घिरा
है. ऊपर तक पहुँचने के लिए एक चढ़ाई वाले घुमावदार रास्ते से हो कर जाना पड़ता है.
बीच में सात बड़े बड़े भीमकाय दरवाज़े आते हैं. दरवाज़ों को यहाँ ‘पोल’ कहते हैं. पहले
दरवाज़े का नाम है ‘रामपोल’. लगभग एक मील लम्बे सात दरवाजों वाले इस रास्ते को हमने
तांगे में बैठ कर पार किया. ऊपर जाकर हमें कीर्तिस्तंभ, विजयस्तंभ, राणा कुम्भा का
महल, रानी पद्मिनी का महल और मीरा बाई का मन्दिर दिखाए गए. ख़ूब सारी सीढियां उतर
कर हमने एक बावड़ीनुमा तालाब भी देखा, जिसका पानी ऊपर जमी हुई काई के कारण एकदम हरा
लग रहा था, लेकिन काई को हटाते ही एकदम कांच सा निर्मल पानी दिखाई दिया. एक तरफ
पत्थर के तीन गौमुख बने थे, जिनसे लगातार पानी की धारा निकल रही थी. बताया गया कि गौमुख
में यह पानी की धारा कहाँ से आती है, यह आज तक कोई भी नहीं जान पाया.
कीर्तिस्तंभ
एक ऊँचे चबूतरे पर खड़ी मीनार सी थी. इसकी बाहरी दीवारों पर बहुत सुन्दर जैन
तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनी हुई थीं. सब बच्चे खूब शोर मचाते और दौड़ते हुए कीर्तिस्तंभ
की सीढ़ियों पर चढ़े और सबसे ऊपर की छतरी पर पहुंचे. यहाँ खूब हवा आ रही थी. किसी ने
बैठ कर तो किसी ने इधर-उधर घूमते हुए हवा में अपना हांफना मिटाया.
चित्तौड़गढ़
के क़िले में एक काली माता का मंदिर भी था. गाइड ने हमें बताया कि साल में एक बार
आज भी वहां भैंसे की बलि दी जाती है. धर्म पढ़ाने वाले मास्टरजी से जैसे यह बात
सुनी नहीं गई. धम्म से वे वहीँ मंदिर की सीढ़ियों पर ही बैठ गए. शायद उनकी आंखें
भी छलक आईं थीं. भरे गले से बोले, “यह जो देवी मां है, यह तो सारे जगत की मां है,
ये उस भैंसे की भी तो मां होगी, जिसकी इसके सामने बलि दी जाती है, संसार में ऐसी
कौन सी मां हो सकती है, जो अपने बेटे की गर्दन कटती देखकर प्रसन्न हो जाए.”
मास्टरजी
का यह तर्क मुझे आज तक झकझोरता है.
***
मेरे
और मुन्नी के साथ-साथ खेलने को बुआजी पहले ही नापसंद करती थीं और अब तो हम थोड़े
बड़े भी हो चुके थे, सो मेरे खेल का समय अब मुन्नी की जगह अशोक के साथ ज्यादा बीतने
लगा. भीलवाड़ा में भीड़ बढ़ी तो नए-नए काम-धंधे भी शुरू हो गए. घर के सामने वाले
मैदान में, अक्सर मदारी लोग अपनी महफ़िल जमाने लगे. कभी कोई बन्दर के साथ तमाशा
करता, तो कभी कोई भालू को नचाता. कोई कोई मदारी जमूरे के साथ आता. जमूरे और मदारी
के बीच होने वाला संवाद बहुत मज़ेदार होता, साथ में अजब-अजब कारनामे भी देखने को
मिलते. एक दिन एक मदारी ने नया खेल दिखाया. उसने अपने जमूरे से कहा कि वो मदारी को
पत्थर मारे. जमूरा ज़मीन से उठा-उठा कर मदारी को पत्थर मारता और मदारी हर वार को
अपने हाथ में ढाल की तरह पकड़े एक पत्थर पर रोक लेता. कुछ देर बाद मदारी ने घेरा
बांधकर खड़ी भीड़ में से भी दो-चार लोगों को पत्थर मारने के लिए आमंत्रित किया और
उनके पत्थरों की मार को भी वो अपने हाथ में पकड़े पत्थर से रोकता रहा. एक भी पत्थर
मदारी के बदन पर नहीं लगा. मैं इस खेल से बहुत प्रभावित हुआ. सोचा, ये कमाल तो मैं
भी कर सकता हूं. उसी शाम को मैं मदारी की तरह पत्थर हाथ में लेकर खड़ा हुआ और अशोक
से कहा कि वो सामने से मुझ पर पत्थर फेंके. मुझे पूरा विश्वास था कि उसके फेंके
हुए हर पत्थर को मैं अपने हाथ में पकड़े पत्थर की ढाल पर रोक लूंगा. अशोक ने पहला
पत्थर फेंका और वो सीधा मेरे सिर पर आकर पड़ा. मैंने सिर को हाथ लगाया, तो हाथ खून
से रंग गया. चोट लगने के दर्द से ज्यादा चिंता इस बात की हुई कि अब पिटाई हो सकती
है. अशोक भी मेरे पास आकर रोने-रोने को हो गया, लेकिन मैं उससे क्या कहता, पत्थर
फेंकने को तो मैंने ही कहा था. मकान के बगल में ही ताज़ा-ताज़ा एक सिंधी डॉक्टर ने
अपना क्लिनिक खोला था. मैं सिर पर हाथ रखे दौड़ता हुआ इसी क्लिनिक में जा पहुंचा.
बहते हुए खून से भरा मेरा चेहरा देखकर डॉक्टर साहब भी घबरा गए. उन्होंने जल्दी से
मुझे कुर्सी पर बिठाकर मरहम-पट्टी करना शुरू किया. इसी बीच अशोक जाकर हरिशंकर
भाईसाहब को बुला लाया. रोने-रोने को आया हुआ अशोक लगातार अपनी सफ़ाई दे रहा था कि
पत्थर उसने अपने-आप नहीं फेंका. मैं सोच रहा था कि अपनी इस हरकत पर डांट-डपट तो
ज़रूर खाऊंगा, लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा. और जब किसी ने कुछ नहीं कहा, तो इस बात
पर हैरानी से ज़्यादा मुझे निराशा हुई. इतना खून बह गया और किसी को चिंता ही नहीं
! बुआजी ने एक गिलास हल्दीवाला दूध पिलाया और मुझे चुपचाप बिस्तर पर लेट जाने को
कहा.
सिर पर
पट्टी बांधे मैं चुपचाप लेटा हुआ था कि तभी एक बात याद आई. कुछ दिन पहले मैंने
फ़िल्म ‘अंदाज़’ में दिलीप कुमार को इसी तरह सिर पर पट्टी बांधे बिस्तर पर लेटे हुए
देखा था. तब वो मुझे बहुत ख़ूबसूरत लगा था. अचानक ख़याल आया कि मुझे भी अपने आप को
आईने में देखना चाहिए. उठकर दीवार पर टंगे आईने में अपनी शकल देखी. देखकर बड़ी
हैरानी हुई कि सिर पर पट्टी बंधी होने के बावजूद मेरी सूरत खासी मरियल लग रही है.
मैं दिलीप कुमार जैसा बिल्कुल नहीं लग रहा था. इस बात से मन बहुत उदास हो गया. मैं
फिर से बिस्तर पर लेट गया. लगा फ़िल्मों पर से मेरा भरोसा उठ जाएगा. पिछले दिनों
हम साड़ास गए थे. वहां बैलगाड़ी में बैठाकर हमें पास के एक गांव में हो रही शादी
में न्योता जीमने के लिए ले जाया गया था. तब रास्ते में मुझे हाल ही में देखी गई
फ़िल्म ‘पूजा’ का एक दृश्य याद आया था, जिसमें हीरो बैलगाड़ी में खड़ा-खड़ा गाना
गाता है. बैलगाड़ी दौड़ी जा रही है. हीरो के बाल हवा में उड़ रहे हैं और वो गा रहा
है, ‘चल चल रे मुसाफ़िर चल, तू उस दुनिया में चल, जहां दिल का एक इशारा हो, और
दुनिया जाए बदल’, मैंने भी बैलगाड़ी में खड़े होकर यही गाना गाने की कोशिश की थी,
लेकिन एक तो हीरो की बैलगाड़ी दौड़ी जा रही थी, जबकि मेरी गाड़ी मरी-मरी चाल से चल
रही थी. दूसरे, पथरीले रास्ते पर चलती बैलगाड़ी के पहियों का इतना शोर था कि अपने
गाने की आवाज़, मुझे भी ठीक से सुनाई नहीं दे रही थी. उस दिन भी हीरो बनने की अपनी
कोशिश को धराशाई होते देखा था और आज आईने में अपनी सूरत देखकर फिर से निराशा हुई
थी. सिनेमा के परदे पर जो होता है, वैसा ज़िदगी में क्यों नहीं होता?
आज ये
पंक्तियां लिखते समय मुझे हॉलिवुड स्टार सोफिया लौरेन का एक बयान याद आ रहा है, “ये
सच है कि सिनेमा के परदे पर जो होता है, वो आपकी ज़िदगी में नहीं होता, पर ये भी
सच है कि परदे पर जो होता है, हम चाहते हैं कि वैसा आपकी ज़िंदगी में भी हो.”
लेकिन ये बयान तो आज याद आया है, उस दिन तो सिर पर पट्टी बांधे, बिस्तर में
पड़े-पड़े रोने को जी कर रहा था.
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