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‘महावीर दिगंबर जैन मिडिल स्कूल’ का विद्यार्थी था, सो जैन सम्प्रदाय के बारे में जानकारियां मिलना स्वाभाविक ही था. मैंने जाना कि यह सम्प्रदाय दो हिस्सों में बंटा हुआ है. दिगम्बर और श्वेताम्बर. श्वेताम्बरों में भी दो धाराएं हैं, तेरापंथी और बाइसपंथी. एक दिन स्कूल में घोषणा की गई कि तेरापंथी समुदाय के जैन मुनि सुशील कुमार भीलवाड़ा आने वाले हैं. शहर में जगह-जगह उनके प्रवचनों का इंतज़ाम किया जाएगा, जहां सभी विद्यार्थियों को वॉलंटियर का काम करना होगा. वॉलंटियर का काम, मतलब प्रवचन सुनने के लिए आने वाले लोगों को दिशा-निर्देश देना, कोई पानी मांगे तो उसे पिलाना, कोई शोर मचाए तो उसे इशारे से चुप कराना और कुछ नहीं हो, तो स्कूल की ड्रेस पहनकर वॉलंटियर का बिल्ला लगाए हुए चुपचाप एक तरफ खड़े रहना.
‘महावीर दिगंबर जैन मिडिल स्कूल’ का विद्यार्थी था, सो जैन सम्प्रदाय के बारे में जानकारियां मिलना स्वाभाविक ही था. मैंने जाना कि यह सम्प्रदाय दो हिस्सों में बंटा हुआ है. दिगम्बर और श्वेताम्बर. श्वेताम्बरों में भी दो धाराएं हैं, तेरापंथी और बाइसपंथी. एक दिन स्कूल में घोषणा की गई कि तेरापंथी समुदाय के जैन मुनि सुशील कुमार भीलवाड़ा आने वाले हैं. शहर में जगह-जगह उनके प्रवचनों का इंतज़ाम किया जाएगा, जहां सभी विद्यार्थियों को वॉलंटियर का काम करना होगा. वॉलंटियर का काम, मतलब प्रवचन सुनने के लिए आने वाले लोगों को दिशा-निर्देश देना, कोई पानी मांगे तो उसे पिलाना, कोई शोर मचाए तो उसे इशारे से चुप कराना और कुछ नहीं हो, तो स्कूल की ड्रेस पहनकर वॉलंटियर का बिल्ला लगाए हुए चुपचाप एक तरफ खड़े रहना.
जब मुनि सुशील कुमार और उनके मुनि दल ने पुराने भीलवाड़ा की
तरफ़ से शहर में प्रवेश किया, तो सारे शहर में उत्सव जैसा वातावरण था. दूध से भी
ज्यादा सफेद वस्त्रों में सजी मुनियों की टोली. सबके मुंह पर कान से बंधी हुई सफ़ेद
रंग की एक पट्टी. सबसे आगे मुनि सुशील कुमार चल रहे थे, एक हाथ में लाठी और दूसरा हाथ
आशीर्वाद की मुद्रा में उठा हुआ. मुनियों की टोली नंगे पैर थी, लेकिन सड़क पर उनके बढ़ने से पहले लाल रंग की एक लंबी चादर बिछा दी जाती,
जितनी देर में मुनिगण उस चादर को पार करते तब तक दूसरी चादर आगे की
ज़मीन को ढांप लेती. मुनियों के दोनों ओर भक्तों का एक दल चंवर डुलाता हुआ चल रहा
था. जयजयकार की आवाज़ बराबर सुनाई दे रही थी. वॉलंटियरों की ड्यूटी बस इतनी थी कि
चंवर डुलाने वालों के साथ-साथ जुलूस में आगे बढ़ते चलें.
हनुमान मंदिर वाले मेरे पहले स्कूल से कुछ ही आगे, सड़क के
किनारे ही एक बड़ा सा मैदान था. यहीं प्रवचन के लिए एक विशाल पंडाल बनाया गया था. मुनिवर
सुशील कुमार पंडाल में पहुंचे, यहां उनके लिए पहले से एक मंच सजा हुआ था. मंच के सामने
सैकड़ों की भीड़ प्रवचन सुनने के लिए मौजूद. पंडाल में मेरे खड़े होने की ड्यूटी,
ठीक एक बल्ली पर रस्सियों से कसे हुए तिकोने लाउडस्पीकर के सामने
थी. पंडाल में जगह-जगह ऐसे कई लाउडस्पीकर बल्लियों पर बंधे थे. कुछ देर बाद मुनि
सुशील कुमार का प्रवचन आरंभ हुआ. चूंकि मैं लाउडस्पीकर के सामने खड़ा था, इसलिए उनकी सांस लेने की आवाज़ भी मुझे साफ-साफ सुनाई दे रही थी. मुझे लगा
उनकी आवाज़ में कोई जादुई प्रभाव है. जो वो बोल रहे थे, उसकी गहराई तो मेरी बाल-बुद्धि
में नहीं समाई, लेकिन सुनते हुए भीतर किसी आनंद की अनुभूति
हो रही थी. कुछ था, जो अच्छा लग रहा था. थोड़ी ही देर बाद
भीड़ में उनके समीप बैठे एक व्यक्ति ने खड़े होकर कहा, “आप
से एक प्रश्न पूछ सकता हूं?” मुनि जी ने अपने प्रवचन में आए
व्यवधान का जैसे बिल्कुल बुरा नहीं माना और मुस्कुरा कर कहा, “हां, क्यों नहीं.”
उस व्यक्ति ने पूछा, “आप मुंह पर ये कपड़ा क्यों बांधते हैं?”
मुनि सुशील कुमार के होठों पर जो मुस्कान आई, वो मुंह पर बंधी पट्टी के कारण
दिखाई तो नहीं दी, लेकिन उनकी आवाज़ में सुनाई दी. उन्होंने
कहा, “मित्रवर, मैं आप जैसा बहादुर
नहीं हूं, बहुत कमज़ोर आदमी हूं. मेरी जिह्वा मेरे वश में
नहीं रहती. जो मर्ज़ी खाना चाहती है, जो मर्ज़ी बोलना चाहती
है. मेरा विचार है कि खाने और बोलने -- इन दोनों बातों पर यदि नियंत्रण नहीं रहे,
तो अनर्थ हो सकता है. जिह्वा मेरे वश में रहे, इस बात को याद
रखने के लिए, मैंने सिंबल के रूप में ये पट्टी मुंह पर बांध
रखी है, समझिए मुंह पर ताला लगा लिया है, ताकि हर पल मुझे जिह्वा को वश में रखना याद रहे.”
सवाल पूछने वाला व्यक्ति मुनिवर को प्रणाम करके अपने स्थान
पर बैठ गया. उसे कैसा लगा, सो
तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन मेरे मन पर इस बात का गहरा असर
हुआ. जैन मुनियों के मुंह पर बंधी हुई पट्टी को देखकर कुछ अजीब तो लगता था,
लेकिन इस बारे में सोचने या किसी से पूछने की बात मन में कभी नहीं
आई थी. उस दिन जैसे मुझे अनजाने में ही अजीब लगने का उत्तर मिल गया.
मुनि सुशील कुमार जी ने प्रवचन को जारी रखते हुए आगे बोलना
शुरू किया. उनकी आवाज़ में अहिंसा, सत्य, भगवान महावीर,
आत्मा, परमात्मा, आदि
शब्द लाउडस्पीकर से उतरकर मुझ पर झर रहे थे, लेकिन मेरे भीतर
अभी-अभी कही गई उनकी बात घुमड़ रही थी. तभी दूसरे कोने से एक अन्य व्यक्ति खड़ा
हुआ और हाथ उठाकर उसने भी सवाल पूछने की आज्ञा चाही. मुनि सुशील कुमार ने भी हाथ
से उसे बोलने का इशारा किया. इस बार प्रश्न पूछा गया, “सुना
है आप स्नान नहीं करते. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि शरीर की
सफ़ाई के लिए नहाना बहुत ज़रूरी है. हम तो दिन में कभी-कभी दो बार भी स्नान कर लेते
हैं और आप कभी नहीं नहाते. क्या यह उचित है?”
मुनि सुशील कुमार की आवाज़ में एक बार फिर मुस्कुराहट सुनाई
दी. “स्नान
करने का आशय क्या है? शरीर को साफ़ रखना. अगर मैं पानी का
उपयोग किए बिना ही अपने शरीर को साफ़ रख सकता हूं, तो पानी को
व्यर्थ गंवाने की क्या आवश्यकता है.” इतना कहकर मुनि जी ने सफ़ेद
वस्त्र में ढके अपने हाथ को निकालकर बाहर फैलाया और आगे कहा, “यदि आपको मेरे शरीर पर कोई गंदगी नज़र आए, तो बता
दीजिए, मैं अभी जाकर स्नान कर लूंगा, लेकिन
यदि मेरा शरीर साफ़ है, तो कृपया बताएं कि बेकार पानी क्यों
बहाऊं.”
उपस्थित समुदाय के साथ मैंने भी देखा, मुनि सुशील कुमार का गोरा-चिट्टा
फैला हुआ हाथ एकदम साफ़-सुथरा दिखाई दे रहा था. वह दिन मेरे भीतर मचलते कई सवालों
के जवाब पाने का दिन था. शायद वह दिन मेरे भीतर अध्यात्म के बीज बोने का भी दिन
था.
एक सज्जन और खड़े हुए. पहले उन्होंने अपना परिचय दिया. वे
भीलवाड़ा के इंटर कॉलेज के एक प्राध्यापक थे. उन्होंने पूछा, “हम मन की बात करते हैं. कहते
हैं, मेरा मन इस बात को नहीं मानता. फिर हम आत्मा की भी बात
करते है. कहते हैं, मेरी आत्मा इस बात की गवाही नहीं देती.
तो ये मन और आत्मा क्या एक ही हैं ? अगर नहीं, तो मन और आत्मा का आपस में सम्बन्ध क्या है ?”
मुनि सुशील कुमार ने मंच के ऊपर लटकते, एक जलते हुए बल्ब को देखा. फिर
उसकी और इशारा करके बोले, “यह जो बल्ब है, प्रकाशित है. लेकिन यह प्रकाश इसका अपना नहीं है. यह उस करंट के कारण है,
जो बिजली के तारों से होता हुआ इस तक पहुँच रहा है. और ये तार जुड़े
हुए हैं, पावरहाउस के साथ. समझिये की पावरहाउस आपकी आत्मा है
और आपका मन है एक बल्ब. जब आत्मा से बहता हुआ परमसत्य का करंट आपके मन तक पहुंचेगा,
तभी मन प्रकाशित होगा और तभी जीवन में उजाला होगा. मन और आत्मा
हमारे शरीर के अंग नहीं हैं, लेकिन इनका अस्तित्व है,
ये हम जानते हैं. बस थोड़ा सा इनके रिश्ते को भी समझ लें तो बहुत
सारी उलझनें दूर हो जाएंगी.”
उस दिन ये बात बहुत अच्छी लगी थी. इतनी अच्छी कि आज तक याद
है, लेकिन उस
दिन इस बात को पूरी तरह समझ पाने जितनी समझ नहीं थी मुझमें. उस दिन तो बस इतना ही
हुआ कि ऐसी बातों ने मेरी सोच को मथना शुरू कर दिया और ये मंथन फिर जीवन भर होता
रहा. आज भी होता है
***
शर्णार्थियों के आने से भीलवाड़ा की आबादी एकाएक बढ़ गई.
आबादी बढ़ी तो शहर में दूकानें और व्यापारी भी बढ़े और इसके असर से ‘एच बल्लभ एंड कंपनी’ का व्यापार सिकुड़ने लगा. बाउजी के पार्टनर घाटे के हिस्सेदार नहीं बनना
चाहते थे, सो अपने-अपने हिस्से के साथ अलग होने की मांग करने
लगे.
परिवार पर आर्थिक संकट के बादल मंडरा रहे थे. केवल ‘महिला आश्रम’ से मिलने वाले भाभी के वेतन पर ही घर को गुज़ारा करना पड़ रहा था. ऐसे में
‘महावीर दिगम्बर जैन मिडिल स्कूल’ की फ़ीस देना मुश्किल गया. वैसे बाउजी केवल पुस्तकीय
ज्ञान को ही व्यक्तित्व-निर्माण का आधार नहीं मानते थे, लेकिन
एक सीमा तक इसके महत्व को नकारते भी नहीं थे. मेरा पढ़ना तो आवश्यक था ही, वे शायद मुझे एक आत्मनिर्भर व्यक्ति के रूप में भी देखना चाहते थे. परिवार
के आर्थिक संकट को उन्होंने मुझे सबल बनाने के लिए इस्तेमाल किया. मुझे भीलवाड़ा
के स्कूल से निकालकर, दूर बस्सी के सरकारी स्कूल में दाख़िल
करा दिया गया.
भीलवाड़ा से बस्सी तक ‘सावित्री रोडवेज’ की
हमारी बस चलती थी. इसलिए कंडक्टर-ड्राइवर द्वारा मेरी ख़ैर-ख़बर मिलती रहेगी,
यह सुनिश्चित था. बस्सी वैसे तो गांव ही था, लेकिन
गांव से थोड़ा बड़ा और कस्बे से थोड़ा छोटा. जितना था उससे अधिक बड़ा होने की बस्सी
में गुंजाइश भी नहीं थी. एक तरफ़ पहाड़, पहाड़ की तलहटी में
एक मैदानी इलाक़ा और इसके ख़तम होते ही एक झील जैसा बड़ा तालाब. बस्सी तालाब और
पहाड़ के बीच वाले मैदान में बसा गाँव था. इसलिए इसके और फैलने के रास्ते बंद थे.
मूसलाधार बारिशों में बस्सी के पहाड़ पर से कई सारे झरने
फूटने लगते और तेज़ी से उनका पानी गलियों और सड़कों से होता हुआ, तालाब में उतरने के लिए दौड़ता.
पानी की गति इतनी तेज़ होती कि कई बार जानवर और लोग भी उसके साथ बह जाते. एक बार
स्कूल से आते समय मैं भी इस बहाव की चपेट में आ गया था और दूर तक बहता गया. स्कूल
का बस्ता और एक पैर की चप्पल बहकर कहां गए, सो मैं जान ही
नहीं पाया, बस किसी तरह एक पत्थर को पकड़ कर ख़ुद को बहने से
बचाया. बारिश के अलावा बस्सी की एक और विशेषता थी. गांव के जितने भी निवासी थे,
सब दुमंज़िले मकानों में रहते थे और तकरीबन सभी मकान ऊंचे परकोटों
से घिरे हुए थे. नीचे की मंज़िल में केवल पशुओं को रखा जाता था, लेकिन अंधेरा होने से पहले ही सब लोग अपने ढोरों को परकोटे के अंदर लेकर
फाटक बंद कर देते थे. चारों ओर पहाड़ी और जंगली इलाक़ा होने के कारण कई बार रात को
तेंदुए या शेर तालाब में पानी पीने आते थे. ऐसे में अगर कोई जानवर बाहर छूट जाए, तो उसका बचना नामुमकिन था. एकबार गांव की सीमा के बाहर एक अधखाए गधे की
लाश मिली थी और लोगों का कहना था कि रात को शेर आया था. मेरी ख़ैर-ख़बर भीलवाड़ा
तक पहुंचाने वाली बस, आकर एक ढाबे के पास रुकती और रात भर
यहीं विश्राम करती, लेकिन ड्राइवर और कंडक्टर के लिए हिदायत
थी कि वो बस के अंदर खिड़कियां-दरवाज़े बंद करके ही सोएं.
मेरे रहने के लिए बाज़ार में राशन की एक दूकान के ऊपर बने
कमरे को किराए पर लिया गया था. रात को अकेले सोने में मुझे बहुत डर लगता. लालटेन
बुझाकर मैं कभी नहीं सोता, लेकिन
कभी-कभी मिट्टी का तेल ख़तम हो जाने पर लालटेन अपने आप बुझ जाती और फिर आंख खुलने
पर घुप्प अंधेरा मुझे डराया करता. लघुशंका के लिए कमरे से बाहर छत पर जाना पड़ता
था और बाहर जाते हुए मेरी टांगें कांपती रहती थीं. शेर के आने का डर इतना था कि
रात में छत की मुंडेर से कभी बाहर की तरफ झांका तक नहीं.
खाने की व्यवस्था बाउजी के एक मित्र कोठारी साहब के यहां
थी. मुझे दोनों समय खाने के लिए कोठारी साहब के घर जाना पड़ता था. घर की महिलाओं
में किसी को मैं चाचीजी और किसी को ताईजी कहता था. बस्सी-प्रवास के दिनों में इस
घर में खाए गए खाने का स्वाद मुझे आज तक याद है. शायद इसलिए क्योंकि जीवन में इतना
स्वादिष्ट खाना मैंने और कहीं नहीं खाया. खाना कंडे की आंच वाले चूल्हे पर बनता था
और जिन बर्तनों में बनता था, वो सब मिट्टी के थे. मिट्टी की हांडी में साग-सब्जी या दाल और
मिट्टी की ही पोवणी (तवा) पर रोटी. खाने का स्वाद इन मिट्टी के बर्तनों के कारण था,
कंडे की आंच के कारण था या ये चाची-ताई के हाथों का कमाल था,
सो मैं नहीं जानता, लेकिन वो स्वाद मेरी
सांसों में सदा के लिए रच-बस गया है.
ग्यारह-बारह बरस की उमर में ऐसी विषम परिस्थितियों वाले
गांव में मुझे अकेले रहने के लिए क्यों छोड़ दिया गया, यह बात तब समझ में नहीं आई थी,
लेकिन बाउजी का स्वयं अपना जीवन घोर कठिनाइयों से होकर गुज़रा था और
उनका दृढ़ विश्वास था कि संघर्ष की भट्टी में ही व्यक्तित्व निखरता है, शायद उनका यही विश्वास मुझे बस्सी की परिस्थितियों में तपाने के लिए अकेला
छोड़ सका. महीने दो महीने में कभी एक-आध बार बाउजी भी बस्सी आते. स्कूल के
हेडमास्टर जी और कोठारी साहब से मेरे हाल-चाल पूछते और एक-दो दिन बाद, मुझे ढाढस बंधाकर वापस लौट जाते. शुरू-शुरू में मुझे घर की बहुत याद आती
थी. फिर धीरे-धीरे घर से दूर रहने की आदत सी पड़ गई. आज सोचता हूं, शायद होस्टल में रहने वाले विद्यार्थियों को भी मानसिकता के इसी दौर से
गुज़रना पड़ता होगा, लेकिन मेरी तुलना होस्टल के किसी
विद्य़ार्थी के साथ, इससे अधिक नहीं की जा सकती थी. होस्टल
में रहने वाले बच्चे चौबीसों घंटे निगरानी में रहते हैं. उनका सोना-जागना, पढ़ना-लिखना सब किसी की देख-रेख में बंधा होता है, जबकि
मैं स्कूल से आकर पढ़ूं या खेलूं, इसपर नज़र रखने वाला कोई
नहीं था. ज़ाहिर है पढ़ाई में मैं कोई कमाल नहीं कर रहा था.
एकबार बाउजी लगभग हफ्ते भर मेरे पास रुके. इस दौरान पूरे
हफ्ते उन्होंने ख़ुद ही खाना बनाकर मुझे खिलाया और अपने हाथ से बने हुए खाने का
महत्व भी समझाया. बाउजी कहते थे कि सबसे श्रेष्ठ भोजन वो है, जो व्यक्ति स्वयं अपने हाथ से
बनाकर खाए. इसके बाद आता है, मां के हाथ का बना खाना. इसमें
मां का विशुद्ध और नि:स्वार्थ प्रेम जुड़ा होता है. तीसरे
नंबर पर है पत्नी के हाथ का बना खाना. इसमें प्रेम तो होता है, लेकिन नि:स्वार्थ नहीं होता. इन तीन के अतिरिक्त किसी
और के हाथ का बना खाना व्यक्तित्व-निर्माण के लिए उचित नहीं है. रसोईया घर का हो
या होटल का, उसके हाथ का बना खाना, व्यक्ति
को प्यार के नहीं, व्यापार के संस्कार देता है. क्योंकि खाना
पकाने वाले का और खाने वाले का रिश्ता प्रेम से नहीं, रुपए
से जुड़ा है. पश्चिमी देशों में अधिकतर लोग घर के बाहर, होटल
या रेस्टोरेंट में खाते हैं. यही कारण है कि उनकी बुद्धि में व्यापार अधिक है.
उनकी तुलना में भारत के लोगों में और वो भी गांव-कस्बे के लोगों में, प्रेम अधिक पाया जाता है. क्योंकि यहां के अधिकांश लोग खाना घरों में खाते
हैं. मुझे लगा बाउजी के इस प्रवचन का मतलब शायद मुझे यह समझाना है कि खाना मुझे ख़ुद
बनाकर खाना चाहिए, कोठारी साहब के यहां जाकर नहीं. सुना तो
मुझे रोना सा आने लगा. फिर बाउजी ने कुछ नहीं कहा.
एक दिन बाउजी मुझे तालाब पर ले गए. किनारे पर पीपल और बट के
घने पेड़ थे. इन्हीं की छाया में हनुमान जी का एक मंदिर भी था, जिसके सामने लंबा-चौड़ा एक
पथरीला फ़र्श था. तालाब के किनारे इस फ़र्श से उतरकर सीढ़ियां तालाब के पानी में
नीचे तक गईं हुईं थीं. सीढ़ियों के उथले पानी में कई बच्चे कमर पर तुंबा बांधे
छपछपा रहे थे. तुंबा एक तरबूज जैसे बड़े आकार वाले फल का सूखकर कड़ा हो चुका रूप
होता है. इसी तुंबे को काटकर साधु और भिक्षुक अपना कमंडल बनाते हैं. अगर तुंबा
कहीं से कटा हुआ ना हो, तो यह पानी में नहीं डूबता. इसलिए सुतली
की जाली में लपेटकर इसे कमर पर बांध लिया जाता है और फिर आराम से पानी में उतरकर
तैरना सीखा जाता है. तुंबा को लेकर एक ग्रामीण कहावत भी है –
‘तुंबा तारे, तुंबा तारे, तुंबा कभी न भूखा मारे’ अर्थात तुंबे के सहारे नदी
पार की जा सकती है और उसे कमंडल बनाकर भोजन भी पाया जा सकता है. बाउजी ने भी एक
तुंबा लिया और मेरी कमर पर बांध दिया. फिर मुझसे कहा, ‘डरने की जरूरत नहीं, कुछ नहीं होगा, पानी में उतरो’. डर तो बहुत लग रहा था, लेकिन बाउजी के सामने उसे जतलाने की हिम्मत नहीं थी. बाउजी ने हाथ पकड़कर
पानी में उतारा और तैरते हुए मुझे खींचकर किनारे से दूर ले गए. मैंने दोनों हाथों
से बाउजी का बाजू पकड़ा हुआ था, लेकिन पैर पानी में तेज़ी से
छटपटा रहे थे. कभी गुड़ुप से माथा पानी में डूबता, फिर तड़प
कर बाहर आ जाता. बाउजी लगातार मेरी हिम्मत बंधा रहे थे और कह रहे थे, ‘घबराओ मत, डूबोगे नहीं.’
बाउजी स्वयं बहुत अच्छे तैराक थे. खींचकर वो मुझे किनारे से खूब दूर
तक ले गए. यहां पानी बहुत गहरा था. पानी की गहराई को गांव में हाथी की ऊंचाई के
नाप में बताया जाता है. इसी भाषा में कहूं तो यहां तीन हाथीडूब पानी था. अचानक
बाउजी ने मेरा हाथ छोड़ दिया और स्वयं तैरते हुए किनारे की ओर चल दिए. मैं
डूबता-उतराता, हाथ-पैर पछाड़ता उनके पीछे आने की कोशिश में
जुट गया. तुंबा पानी की सतह से मुझे ऊपर रखे हुए था और हाथ-पैर हिलाते हुए मैं
किनारे की तरफ़ बढ़ने लगा. किनारे तक पहुंचते-पहुंचते मेरा डर तो दूर हुआ ही,
शायद तैरने का तरीका भी समझ में आ गया.
***
बस्सी-प्रवास की सबसे अधिक रोमांचकारी घटना है, स्कूल की पिकनिक. स्कूल की
तरफ़ से हमें पिकनिक के लिए रामचौक ले जाया गया था. लगभग 15-20 बच्चे थे और साथ
में तीन मास्टर जी. हमें शोर मचाते हुए पहाड़ पर चढ़ना था. मास्टर जी ने बताया था
कि अगर शोर मचाते हुए दौड़ा जाए, तो थकान कम होती है. फ़ौजें जब हमला करती हैं, तो
इसी तरह शोर मचाते-दौड़ते हुए दुश्मन पर टूटती हैं. इससे एक तो जोश बना रहता है,
दूसरे थकान भी कम होती है. हमने भी पहाड़ पर इसी तरह चढ़ाई की और हांफ़ते, शोर
मचाते ऊपर तक जा पहुंचे. ऊपर घने पेड़ों के झुरमुट तले इकट्ठा हो कर सब हांफ़ना
मिटाने लगे. पसीने से भरे बदन को ठंडी-ठंडी हवा खूब मज़ा दे रही थी. यहां मास्टर
जी के कहने पर एक लड़के ने गाना सुनाया. गाने की एक पंक्ति थी, ‘महम्मद की रहमत
बही जा रही है, मदीने से ठंडी हवा आ रही है.’ मुझे अचरज हुआ कि अगर लड़का यह गाना
नहीं गाता, तो कभी ध्यान ही नहीं जाता, वो मुसलमान है. शायद एक उम्र तक
जात-बिरादरी और धर्म के दायरे इतने बड़े नहीं होते कि सबकी अलग-अलग पहचान बन सकें.
हमने पहाड़ के ऊपर से नीचे गहरी खाई में घना जंगल और जंगल में पेड़ों पर इधर-उधर
छलांगें मारते हुए ढेर सारे बंदर देखे. बंदरों को देखते-देखते ही हमने घर से लाया
हुआ खाना एक-दूसरे के साथ मिल-बांट कर खाया और पानी पीकर हम आगे की पिकनिकी-यात्रा
के लिए तैयार हुए. अब हमें पहाड़ के दूसरी तरफ़ उतरना था, लेकिन उतरने का रास्ता
चढ़ाई से ज्यादा मुश्किल था. पैर फिसलते ही सीधे नीचे जाने का डर था. पीटी वाले
मास्टर जी लगातार एहतियात बरतने की चेतावनी देते जा रहे थे. बीच-बीच में सीटी
बजाकर सबका ध्यान भी अपनी तरफ़ खींचते. नीचे उतरकर सब लोग फिर एक जगह इकट्ठा हुए.
मास्टर जी ने बताया कि आगे घना जंगल है और उसी के बीच में है रामचौक.
रामचौक एक मंदिर था. छोटा सा. चारों तरफ़ पहाड़ और बीच के मैदान में निरी एक
कमरे की जर्जर इमारत, बस यही था मंदिर. भीतर काले पत्थर की कोई मूर्ति थी, जिसे
देखने पर समझ में नहीं आता था कि किस देवता की है, लेकिन जगह का नाम रामचौक था,
इससे अनुमान हुआ कि ज़रूर रामचन्द्र जी की होगी. हम मंदिर के बरामदे में बैठकर
सुस्ता रहे थे, तभी जाने कहां से एक साधु महाराज प्रकट हुए. मास्टर जी ने दौड़कर
उनका अभिवादन किया और बताया कि हम गवर्नमेंट हाईस्कूल, बस्सी से आए हैं. सुना था
कि साधु महाराज यहां शेरों के बीच में रहते हैं. साधु जी ने हाथ उठाकर आशीर्वाद सा
दिया और कहा, “सब प्रभु की माया है.” साधु महाराज की भारी आवाज़ में एक अजीब सी
गूँज थी.
साधु महाराज और मास्टरजी के बीच कुछ बातें हुई और फिर हम सब को मंदिर की छत पर
चढ़ जाने को कहा गया. साधुजी नीचे ही रहे. अभी दिन का तीसरा पहर था. पहाड़ों की
चोटियों पर धूप खिली हुई थी. मंदिर के पीछे वाले पहाड़ की तरफ मुंह करके साधु
महाराज ने जोर से अपनी भारी आवाज़ में पुकारा, “अरे ओ नरसिंह.”
पहाड़ की ढलान पर एक बड़ी सी चट्टान दिखाई दे रही थी. मास्टरजी ने बताया कि वहीँ
से आएगा शेर. साधु महाराज ने एक बार फिर आवाज़ लगाई, “नरसिंह. देख तेरे दर्शन को
आये हैं”. हम सांस रोके चट्टान की तरफ देखते रहे. तभी जाने कहाँ से, शायद चट्टान
के पीछे से ही, शेर की दहाड़ सुनाई दी. बदन में झुरझुरी सी दौड़ गई. साधु जी ने फिर
आवाज़ लगाईं, “नरसिंह.” शेर ने एक बार फिर दहाड़ कर साधु महाराज को मानो जवाब दिया.
कई बच्चों ने कांपना शुरू कर दिया था. तीनों मास्टरजियों का भी गला सूखने लगा था. साधु महाराज ने हमारी
तरफ देख कर कहा, “अभी विश्राम कर रहा है. सूरज ढलने के बाद आएगा.”
पीटी वाले मास्टरजी ने छत पर से ही हाथ जोड़ कर कहा, “ कोई बात नहीं, महाराज
जी. दर्शन फिर कभी कर लेंगे.”
“ठीक है. जैसी प्रभु की इच्छा. आप लोग धूप रहते ही निकल जाइए. जंगल का कोई
भरोसा नहीं.” साधु महाराज ने कहा.
कुछ ही देर बाद हम सब लगभग दौड़ने जैसा चलते हुए वापस लौट रहे थे. मुझे याद है
रामचौक की पिकनिक का यह क्लाइमेक्स, बहुत दिनों तक डराता रहा था. साधु महाराज की
भारी आवाज़ और शेर की दहाड़ कई दिनों तक कानों में गूंजती रही थी.
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