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Wednesday, June 15, 2016

ताने-बाने लोकेंद्र शर्मा की जिंदगी के- आठवीं कड़ी।

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युद्ध में हारे हुए सिपाही सा,
मैं बस्सी से वापस भीलवाड़ा लौट आया. इस एक बरस में परिवार का आर्थिक संकट और बढ़ गया था. लेनदार लगभग लड़ने की मुद्रा में घर आते और ऊँची आवाज़ में तकाज़ा करते. ‘एच बल्लभ एंड कम्पनी’ का बोर्ड उतार कर, रेलवे स्टेशन के पास भीड़ भरे बाज़ार में एक छोटी दूकान के ऊपर टांग दिया गया था. पूरी हवेली का किराया चुकाना मुश्किल हो रहा था, इसलिए ग्रामोफोन रिकॉर्ड की दूकान यहां स्टेशन के पास आ गई और यहीं, रिकॉर्ड बजाने के मेरे कार्यक्रम की दूसरी इनिंग शुरू हुई.

ज़िंदगी 1954-55 से गुज़र रही थी. चेतू के बाद भाभी ने चार और बच्चों को जन्म दिया था. ये चारों प्रसव भीलवाड़ा के सरकारी अस्पताल में हुए. इनमें से तीन तो जन्म से पहले ही दुनिया छोड़ गए. लेकिन चौथा बहुत दिनों बाद घर में खिलौना बनकर आया था, सो सबके खेलने का सामान हो गया. मुन्नी ने उसका नाम रखा, फुन्नू. मुन्नी दिनभर फुन्नू को गोदी में उठाए फिरती. जब तक फुन्नू का मुंडन नहीं करवाया गया, उसके बड़े-बड़े बालों की दो चोटियां बनाई जातीं और लड़कियों वाली फ्रॉक पहना दी जाती. वो गुड़िया सा लगता. मुझे भीलवाड़ा के ‘गवर्नमेंट हाईस्कूल’ में भर्ती करवा दिया गया था, क्योंकि वहां की फ़ीस बहुत कम थी. यह स्कूल महाराणा टॉकिज़ के ठीक सामने था. आधी छुट्टी में लड़कों का दल सिनेमा के पोस्टरों का मुआइना करने के लिए टाकीज के चक्कर लगाता, तो कभी-कभार मैं भी इस दल के साथ हो लेता. स्कूल का माहौल मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था और पढ़ाई में बिल्कुल भी जी नहीं लगता था.

हमारे मकान मालिक छगनमल जी मूंदड़ा हमीरगढ़ में रहते थे और साल में एक-आध बार ही भीलवाड़ा आते थे, लेकिन अबकी बार जब वो आए, तब नाथद्वारा के पंडित चंद्रशेखर त्रिवेदी का परिवार भी उनके साथ आया. परिवार के पास असबाब के नाम पर केवल एक ट्रंक और चार-पांच पोटलियों के अलावा और कुछ नहीं था. नाथद्वारा में त्रिवेदी जी का कामकाज ठीक नहीं चल रहा था. माथे पर साफ़ा और तिलक सजाए त्रिवेदीजी, संस्कृत के अध्यापक थे और उन्हें भीलवाड़ा के सरकारी स्कूल में नौकरी मिल गई थी, इसलिए यहाँ आना पड़ा. त्रिवेदी जी के दो बेटे थे, शिवशंकर और श्यामसुन्दर. दो बेटियां भी थीं, शारदा और शांति. शारदा सबसे बड़ी थी. उसका विवाह हो चुका था और वो अपने ससुराल में थी. इसी बेटी के नाम पर त्रिवेदी जी ने नाथद्वारा में एक छोटा सा प्रिंटिंग प्रेस खोला था, ‘शारदा प्रिंटिंग प्रेस’. लेकिन उसका काम वहां कुछ ठीक से चल नहीं पाया था.

त्रिवेदी परिवार आकर मकान के नीचे वाले कमरे में बस गया. उसी कमरे में, जिसमें अशोक ने इस संसार में कदम रखा था. कमरे के बाहर वही बरामदा था, जिसमें कभी हमारी गाय गोमती और उसकी दोनों बछियाँ रहा करती थी. जब आर्थिक संकट बहुत घना हो गया और गाय के लिए चारा जुटाना असंभव हो गया, तब एक बार फिर दिल कड़ा करके, गोमती को भाबा के पास वापस साड़ास भिजवा दिया गया था. और अब इस कमरे और बरामदे में त्रिवेदी परिवार ने पसरना शुरू कर दिया.

पंडित चंद्रशेखर त्रिवेदी स्कूल में पढ़ाने के अलावा, छोटी-मोटी ट्यूशने करके गुज़ारा कर रहे थे. फिर भी देखते-देखते त्रिवेदी परिवार की संपन्नता बढ़ने लगी. रसोई के सामान और सुविधा की दूसरी चीज़ो से घर भरने लगा. किसी को पता ही नहीं चला कि इन सारे असबाब के लिए, अजमेर सोप फैक्ट्री का बचा-खुचा, उनके कमरे की टाण्ड पर रखा हुआ सामान, धीरे-धीरे बेचा जा रहा है. पीतल की बड़ी-बड़ी भारी मोहरें, जो साबुन की टिक्कियों पर ठप्पा लगाने के काम आती थीं और साबुन जमाने के खांचे, ग़ायब हो रहे थे. भाभी दिन भर स्कूल में रहती थीं. बाउजी खेती की देखभाल के लिए गांव चले गए थे और ऐसे में त्रिवेदी परिवार को लूट की पूरी छूट मिल गई थी.

चूंकि ‘एच बल्लभ एंड कम्पनी’ स्टेशन बाज़ार जा चुकी थी और हॉलनुमा कमरा खाली पड़ा था, सो एक दिन त्रिवेदी जी ने उसे भी कब्ज़ा लिया. फिर एक दिन नाथद्वारा से अपने प्रिंटिंग प्रेस की मशीनें मंगवाई और हॉलनुमा दूकान में अपने बेटों के साथ उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस शुरू कर दिया. सबने देखा कि अब तक जहां ‘एच बल्लभ एंड कंपनी’ का बड़ा सा बोर्ड दिखाई देता था, वहां एक नया बोर्ड लगा दिया गया है ‘शारदा प्रिंटिंग प्रेस’.

प्रिंटिंग प्रेस में काग़ज़ छापने वाली एक मशीन थी, जिसमें खूब बड़ा एक लोहे का पहिया था. मशीन के सामने खड़े होकर पेडल दबा-दबा कर उसे चलाया जाता था. पहिया घूमता और छापने वाला हिस्सा मगरमच्छ की तरह अपना मुंह खोलता, इसी बीच उस के सामने काग़ज़ लगाया जाता और मगरमच्छ अपना मुंह बंद कर लेता. फिर खुलता, तो छपा हुआ काग़ज़ निकाल कर उसकी जगह नया कोरा काग़ज़ लगा दिया जाता. मशीन के सामने वाली टेबल पर बीसियों छोट-छोटे खाने बने हुए थे, जिनमे सीसे के अलग-अलग अक्षरों वाले टाइप भरे हुए थे. इन टाइपों को खांचे में सजा कर छपने वाली इबारत तैयार की जाती थी. इसे कम्पोज़ करना कहते थे और इस काम को करने वाला कम्पोज़ीटर कहलाता था. छापे के अक्षरों में मेरा नाम कैसा लगेगा, यह देखने की मुझे बहुत तमन्ना थी, सो एक बार मैंने त्रिवेदीजी के बेटे श्यामू की मदद से अपने नाम के टाइप जोड़े और उन्हें एक रबरबेंड से कस कर स्टाम्प सा बना लिया, फिर दिनभर स्टाम्प पर स्याही पोत-पोत कर काग़ज़ पर ठप्पे मारता रहा. पहली बार छपे के अक्षरों में अपना नाम देखने का नशा ही कुछ और है.

दूकान के पिछले हिस्से में, अभी भी हिंद-साइकिलों के पुर्जे, मर्फी रेडियो के डिब्बे, साबुन काटने की मशीनें और गन्ना पेरने की चरखियां आदि ढेर सारा सामान कबाड़ की तरह रखा हुआ था. धीरे-धीरे ये सामान भी ग़ायब होने लगा. इस बीच पंडित चन्द्रशेखर ने अपने बेटे शिव की शादी करवा दी. और इस तरह अपने घर की सम्पन्नता के लिए उनके पास, मिले हुए दहेज़ का एक माकूल बहाना भी आ गया. त्रिवदी परिवार का किसी से ज्यादा मेलजोल नहीं था. बुआजी को इस परिवार के गुप-चुप व्यवहार पर अचरज तो होता था, पर इसका कारण समझ में नहीं आता था. उन्हें कहीं कुछ असहज अवश्य लगता था. कई बार मजदूरों को भरी-भरी बोरियां ले जाते देखा, तो मन शंकित भी हुआ. एक बार अपने दादाभाई (बाउजी) को इस बारे में बताया भी. लेकिन बाउजी जैसी सोच के व्यक्ति थे, वैसा ही जवाब दिया, “रहिमन चुप ह्वै बैठिये, देखि दिनन को फेर”.

सर्दियों के दिन थे. शिवशंकर की नवेली बहू हमारी रसोई के सामने वाली छत पर, धूप में बैठी गेहूं बीन रही थी. बगल में अनाज की अधखुली बोरी रखी थी. साथ में एक छलनी और धान फटकने वाली छाज पड़ी थी. बहू की गोदी में एक पीतल की परातनुमा बड़ी किनोरी वाली थाली थी, जिसमें भरे हुए गेहूं वो बीन रही थी. बुआजी की नज़र पड़ी, तो थाली उन्हें कुछ परिचित सी लगी. शंका मिटाने के लिए नज़दीक जा कर देखा, तो थाली के किनारे पर ‘अजमेर सोप’ खुदा हुआ नज़र आया. शंकाएं तो उनके मन में पहले से ही भरी थीं, अब तो सबूत भी नज़र आ गया. उन्होंने कमरे में जाकर भाभी को बताया. भाभी भी सकते में आ गई. बुआजी ने कहा, “म्हारो तो जी करे के जाऊं, अर परांत ने वांके हाथां से खींच लाऊं”. भाभी ने सुझाव दिया कि बुआजी को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए. फिर सोचा गया यह काम करने के लिए अशोक से कहा जाए. वो जाएगा और झपट्टे से थाली खींच लाएगा.

अशोक शुरू से ही शरारती था. मारा-मारी के कामों में उसका जी भी खूब लगता था. अशोक को समझा दिया गया कि क्या करना है. अशोक ऐसी बहादुरी का काम करने के लिए एकदम जोश में आ गया. उसने जाकर झपट्टे से त्रिवेदी बहू के हाथ से थाली छीनी और उसे लेकर दौड़ता हुआ कमरे में आ गया. त्रिवेदी बहू एकाएक इस हमले से कुछ समझ नहीं पाई. थाली के गेहूं चारों ओर बिखर गए थे और वो सकते में आ गई थी. उसके मुंह से लगभग चीख सी निकली. उसने ऊपर छज्जे में से ही आवाज़ देकर अपनी सास को बताया कि उसके साथ क्या हुआ है, लेकिन इससे पहले कि सास कुछ कहती, बुआजी मोर्चा संभालने के लिए छज्जे में आ खड़ीं हुईं.

बुआजी युद्ध के लिए तैयार थी, लेकिन नीचे से कोई आवाज़ नहीं आई. शायद एकाएक चोरी पकड़ी जाने के सदमे ने त्रिवेदन को चुप करा दिया था. त्रिवेदी बहू चुपचाप नीचे चली गई और कुछ देर बाद अपनी सास के साथ आई और बिखरा हुआ सामान समेट कर वापस लौट गई.

बुआजी को इससे तसल्ली कहां होने वाली थी. कुछ देर बाद जब बाउजी आए, तो उन्होंने सारी बात बताते हुए उन्हें थाली दिखाई और कहा, “मू आपणे के री थी न, ये माको सामान चोरी करण आपणो घर भर लीदो”. बाउजी ने हाथ से चुप रहने का इशारा करके कहा, “कोई बात कोन्नी. आपणे थें चुप रवो. लड़ाई सूं फायदो कोन्नी. थाने थांकी परांत मिलगी न”.
“परांत? एक परांत ही ना ली यानें? या लोगां माको सामान बेच बेचअर आपणों घर भर्या है. मैं ना छोड़ूं यानें. आबा दो यांके सगला घर वालां ने. अब तो यानें ना छोड़ूं में. अब ताणि घणो झेल लियो”.

बुआजी ने सचमुच जो ठाना था, वो कर दिखाया. शाम होते ही जब त्रिवेदी-परिवार के सब सदस्य घर में थे, तब उन्होंने ऊपर छज्जे से अपने वाक्-बाण चलाने शुरू किए. परम्परानुसार महिलाओं की लड़ाई में पुरुषों का बोलना वर्जित होता है, सो ऊपर छज्जे में बुआजी और नीचे चौक में त्रिवेदन और उनकी बेटी शांति, वाक्-युद्ध इन्हीं के बीच हो रहा था. बहू बेचारी नवेली थी सो घर में दुबकी रही.

बाउजी घर में थे ज़रूर, लेकिन भीतर कमरे में चुपचाप सिर पर हाथ रखे बैठे थे. शायद यही हाल त्रिवेदी जी का भी रहा होगा. महिलाओं की लड़ाई आरोप से शुरू हुई और गाली-गलौज तक पहुंच गई. गालियां पहले तो हल्की-फुल्की थीं, लेकिन क्रोध के साथ-साथ सुर और गालियों का वज़न भी बढ़ता गया. नीचे से गालियों का एक रेला आया, जिसमें बाउजी को लेकर अनाप-शनाप कहा गया था. बाउजी को दी गई गालियां सुनकर, बुआजी ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया और तड़पकर कहा, “मालजादी रांड़, म्हारा दादाभाई ने अश्यान कैवे? लै थारे माथै मरूं नीचे कूद कै.” और कहते-कहते वो छज्जे से नीचे लटक गईं. भाभी और मुन्नी ने एक साथ चीख मारी. बाउजी कमरे से झटक कर बाहर आए और देखा - भाभी, मैं और मुन्नी छज्जे से लटकी हुई बुआजी का हाथ पकड़े चिल्लाते हुए उन्हें ऊपर खींचने की कोशिश कर रहे हैं. बाउजी झपट कर समीप आए. उन्होंने बुआजी का हाथ पकड़ा और खींचते हुए कहा, “यो कई कर्री है, अश्यान तो घणां लोग कुछ भी कैता रैवें, मरबा दे याने. यां लोगां के वास्ते जान देवा की कई जरूअत है”. बड़ी मुश्किल से सबने ज़ोर लगाकर बुआजी को ऊपर खींचा, ऊपर आते ही बुआजी चक्कर सा खाकर गिर पड़ीं. नीचे चौक में सन्नाटा था. अपने कमरे में घुसकर त्रिवेदी परिवार ने दरवाज़ा बंद कर लिया था.
इस घटना के बाद बुआजी लगभग दो दिन तक बिस्तर पर रहीं.

                                      ***
                                          
एक बारगी हालात ने आर्थिक ढलान की तरफ़ कदम बढ़ाए, तो फिर जीवन ग़रीबी के रास्ते पर उतरता ही चला गया. जीवन कहाँ किस दिशा में लेकर जाएगा और संघर्ष की कितनी भट्टियों से गुज़रना अभी बाक़ी है, सो कोई नहीं जानता था. बाउजी को बुआजी की अक्सर चिंता होती. वे चाहते थे कि अगर पढ़-लिखकर बुआजी स्वयं अपने पांव पर खड़ी हो सकें, तो उन्हें किसी का मोहताज नहीं रहना पड़ेगा.  किसी भी कीमत पर वे यह बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि हालात की मार की वज़ह से बुआजी को कभी फिर अपनी ससुराल लौटना पड़े. उन्होंने बुआजी को पढ़ाने के लिए दीपचंदजी माट्साब की ट्यूशन भी रखी थी, लेकिन घर-गृहस्थी के काम में रमा हुआ बुआजी का मन पढ़ाई-लिखाई से जुड़ ही नहीं पाया. किसी तरह वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाई. एक दिन मुलाक़ात होने पर, बाउजी ने अपने अच्छे दिनों के मित्र मोहन लाल सुखाड़िया से बुआजी के लिए सलाह मांगी. बाउजी चाहते थे कि किसी तरह वे अपनी बहन को आत्मनिर्भर बना सकें. सुखाड़िया जी उन दिनों राजनीति में ख़ासे पैर जमा चुके थे, लेकिन पुराने मित्रों को भी भूले नहीं थे. उन्होंने सुझाव दिया कि अगर बुआजी को नर्सिंग ट्रेनिंग करवा दी जाए, तो बाद में उन्हें किसी सरकारी अस्पताल या डिस्पेंसरी में नौकरी दिलवाई जा सकती है. फिर यही तय किया गया और बुआजी से नर्सिंग ट्रेनिंग के लिए फॉर्म भरवाया गया. फॉर्म का जवाब जल्दी ही आ गया. बुआजी का चुनाव कर लिया गया था और अब उन्हें मिड-वाईफ की ट्रेनिंग के लिए उदयपुर जाना था. उन दिनों राजस्थान में मेडिकल की पढ़ाई के लिए उदयपुर का ख़ासा नाम था. यहीं के एक युवा नेत्रचिकित्सक, डॉ सत्यदेव शर्मा ने भारत में पहली बार किसी मृतक की आँखें निकाल कर, एक नेत्रहीन को दृष्टि प्रदान करने का काम किया था. उन दिनों इस ऑपरेशन को किसी चमत्कार से कम नहीं माना गया था. और इस के बाद नेत्र-चिकित्सा के लिए, उदयपुर सारे देश में मशहूर हो गया था.  

                                  ***

बुआजी के उदयपुर चले जाने के बाद, बाउजी ने तय कर लिया कि अब इस घर में नहीं रहेंगे. नए घर की तलाश शुरू हुई और कुछ ही दिनों बाद प्रताप टॉकिज़ के पीछे, चार कमरों वाले एक मकान के दो कमरे हमने किराए पर ले लिए. घर में कच्चा आंगन था. आंगन से सीढ़ियां छत की ओर जाती थीं और सीढ़ियों के नीचे वाली कोलकी में रसोई घर था. मकान के दरवाज़े के ठीक बाहर एक घना नीम का पेड़ था. पेड़ की छाया मकान की आधी छत को आधे दिन तक ढांपे रखती और हम अक्सर इस छाया में खेलते.

घर पर तो पेड़ की छाया हो गई, लेकिन परिवार पर छाया करने वाले बाउजी दूर खेतों में पसीना बहाने के लिए चले गए. चारों तरफ़ से निराश होकर बाउजी ने एक वकील साहब के तीन सौ बीघे ज़मीन पर खेती करने की ज़िम्मेदारी ले ली थी. यह ज़मीन भीलवाड़ा से कुछ मील उत्तर-पूर्व में, बेड़च नदी के किनारे थी. पास ही एक गांव था बड़ल्यास. वकीलसाहब नारायणलाल व्यास के पिताजी इसी गांव में रहते थे, लेकिन वृद्धावस्था के कारण खेती-बाड़ी का काम देखने में असमर्थ थे. बाउजी को वकील साहब ने बरसों से उजाड़ पड़ी अपनी ज़मीन पर खेती करने का काम सौंपा और तय हुआ कि फ़सल आधी-आधी बांट ली जाएगी.

कुछ दिनों तक अशोक भी बाउजी के पास खेत पर रहा था और लौटकर उसने जो वर्णन किया, वो केवल बाउजी के घोर परिश्रम की कहानी थी.
तीनसौ बीघे की ये ज़मीन बेड़च नदी के किनारे-किनारे दूर तक फ़ैली हुई थी. नदी बहुत नीचे थी और उसके पानी को सिंचाई के लिए खेतों तक पहुंचाने के लिए, बाउजी ने जेनरेटर वाले पंप लगाए. बड़ल्यास गाँव के ही कुछ खेतिहर मज़दूर भी लिए गए थे, लेकिन ट्रैक्टर चलाना सिर्फ बाउजी को ही आता था, इसलिए जुताई-बुआई का काम उन्हीं को करना पड़ता. फ़सल को जंगली जानवरों और ढोरों से बचाने के लिए, अक्सर रातों को ट्रेक्टर लेकर वे खेतों का चक्कर काटते और जहां से बाड़ तोड़ दी गई होती, उसकी मरम्मत करते. खेतों में जगह-जगह मचान बनाए गए, जिन पर खड़े होकर मजदूर लोग पंछियों को उड़ाया करते. दिनभर खेतों में घूम-घूम कर सिंचाई की नालियों को कहीं बंद किया और कहीं खोला जाता.

अपने रहने के लिए बाउजी ने खेतों के बीच में ही एक झोपड़ी बना ली थी और खेती करते हुए, बरस भर के सारे मौसम उन्होंने इसी झोपड़ी में बिताए. बारिश के दिनों में चारों तरफ़ की मूसलाधार बौछारें झोपड़ी को तर-बतर कर जातीं और रात-रात भर एक तरफ़ सिकुड़कर बैठे रहना पड़ता. गर्मी की चिलचिलाती धूप में, बांस और सरकंडे की झीनी दीवारों और छत से झोपड़ी, लू और तपन में सुलगा करती. जाड़े के मौसम में खुले खेतों की वजह से हड्डियों तक को कड़कड़ा देने वाली बर्फ़ीली हवा से भी झोपड़ी में कोई बचाव नहीं हो पाता. पूरा एक बरस बाउजी ने यहां किसी तपस्वी की तरह बिताया. और इस तपस्या का वरदान, खेतों ने सोने जैसी लहलहाती फ़सल के रूप में दिया. लेकिन उम्मीद से ज्यादा अच्छी फ़सल देखकर वकील साहब के बड़ल्यास निवासी बड़े व्यासजी का दिल बेईमान हो गया. तय बेशक ये हुआ था कि बाउजी को फ़सल का आधा हिस्सा दिया जाएगा, पर ऐन वक्त पर वकील साहब के पिताजी इस बात से मुकर गए. उन्होंने बेबाक-बेशर्मी के साथ कह दिया, ‘मैं एक दाना भी नहीं ले जाने दूंगा’. नारायणलालजी व्यास ने पहले तो बड़े व्यासजी को समझाया, लेकिन बाद में वकील साहब ने भी पिताजी की ज़िद के आगे हथियार डाल दिए. बाउजी के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था. उन्होंने वहीं खेत पर ही भूख-हड़ताल शुरू कर दी. अपने अधिकार के लिए अन्न-जल छोड़कर बैठ गए.

जब ये ख़बर भीलवाड़ा पहुंची, तो बाउजी के पुराने साथी घासीरामजी डोलिया, जिन्हें हम ताउजी कहते थे, परेशान हो गए. उन दिनों ताउजी ने रेलवे-फाटक के पास एक पेट्रोल-पंप की एजेंसी ले रखी थी. उन्होंने अपने बेटे हरिशंकर को आदेश दिया कि वो जाए और बाउजी को समझा-बुझा कर भीलवाड़ा ले आए. हरिशंकर भाईसाहब पेट्रोल-पंप से ही, बड़ल्यास की तरफ जाने वाले एक ट्रक में चढ़ गए. खेत पर पहुँच कर उन्होंने किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर बाउजी को मनाया, और फिर वहां से आ रहे एक दूसरे ट्रक में बैठाकर, उन्हें अपने साथ भीलवाड़ा लिवा लाए.

एक बरस बाद थके-टूटे-हारे बीमार बाउजी, साधुओं जैसा दाढ़ी भरा चेहरा और दुबला बदन, लेकर वापस घर लौटे. एक बरस के उनके अनथक श्रम के बदले, उन्हें सिर्फ एक पोटली सफ़ेद तिल दिया गया था.
                                   
                                                                                  ***

हरिशंकर भाईसाहब को हम सब बच्चे कहते तो ‘भाईसाहब’ थे, लेकिन असल में कहना बनता था ‘जीजाजी’. एक बार कहा भी था, लेकिन सुनकर वो इतने ज़ोर से नाराज़ हुए कि हम फिर से ‘भाईसाहब’ पर उतर आये. हरिशंकर भाईसाहब बच्चों से खूब घुले-मिले थे. मुन्नी उन्हें राखी बांधती थी. मुझे वो ख़ासतौर पर अच्छे लगते थे और इसका एक कारण था. मैंने फ़िल्म ‘आन’ के पोस्टर पर दिलीप कुमार का चेहरा देखा था और मेरा ख़याल था कि हरिशंकर भाईसाहब बिल्कुल दिलीप कुमार जैसे लगते हैं. ताउजी (घासीरामजी डोलिया) का अपने बेटे के बारे में कहना था कि हरिशंकर भाईसाहब उनसे से भी अधिक फर्माबरदार बाउजी के हैं. बचपन के उस दौर में जितने लोगों से मेरा संपर्क रहा, उनमें केवल हरिशंकर भाईसाहब ही एक ऐसे व्यक्ति रहे, जिन्होंने अगले लगभग तीस बरस यानी अपने अंतिम समय तक, हमारे साथ रिश्ता निभाया. इस रिश्ते के अटूट होने की भी एक कहानी थी.

सन् 49-50 में जब ‘एच बल्लभ कंपनी’ खूब नाम और दाम कमा रही थी, तब की बात है, जमना देवी नाम की एक एक फटेहाल प्रौढ़ महिला बाउजी से मिलने पहुँची. वो बाउजी का नाम सुनकर, नसीराबाद से उन के पास गुहार लगाने आई थी. जमनादेवी एक विधवा थी और उसकी सोलह-सत्रह साल की एक बेटी थी – अजोध्या. विधवा जमनादेवी के भाई, रुपयों के लालच में अजोध्या की शादी, एक बूढ़े से करवा रहे थे और बेटी को बचाने के लिए उसे साथ लेकर, जमनादेवी रातों-रात छुपती-छुपाती भीलवाड़ा आ गई थी. यहाँ आकर उसने भदादों की बगीची में एक पेड़ के नीचे डेरा जमा लिया था और अब पूछती-पूछती बाउजी के पास पहुंची थी. बाउजी ने जमनादेवी की पूरी समस्या सुनी और कहा कि पहला काम तो वो यह करें कि अपनी बेटी को लेकर यहां घर आ जाएं, बगीची में पेड़ के नीचे रहने की ज़रूरत नहीं है. इसके बाद आगे क्या किया जा सकता है, इस पर विचार करने के लिए थोड़ा समय दें.

शाम को बाउजी ने भाभी और बुआजी से इस विषय पर बात की. इस बात का तो वे फ़ैसला कर ही चुके थे कि जमनादेवी की मदद करनी है. बुआजी ने सुझाव दिया कि अजोध्या की शादी हरिशंकर से क्यों न करवा दी जाए. हरिशंकर भाईसाहब की एक बार शादी हो चुकी थी, लेकिन उनकी पत्नी का कुछ ही महीनों बाद देहांत हो गया था. शादी का सुझाव तो अच्छा था, लेकिन हरिशंकर भाईसाहब की दुबारा शादी करने की इच्छा होगी या नहीं, इस सवाल पर विचार करना भी ज़रूरी था. अगले दिन बाउजी ने घासीरामजी डोलिया से इस बात पर चर्चा की. डोलियाजी हंस पड़े. बोले, “मुझसे क्या पूछ रहे हो, आपका बेटा है, जहां मर्जी ब्याह दो. आपकी बात को हरिशंकर इनकार थोड़े ही करेगा. आप अगर उसको एक बार धूप में खड़ा रहने को बोल दो, तो बिना चीं-चपड़ किए सारा दिन खड़ा रहेगा. वजह तक नहीं पूछेगा.”

सुनकर बाउजी को अच्छा तो लगा, फिर भी उन्होंने घासीरामजी से आग्रह किया कि एक बार वो हरिशंकर से पूछ लें. घासीरामजी ने बाउजी के सामने ही पूछा और जैसा कि विश्वास था, हरिशंकर भाईसाहब ने सिर झुकाकर हामी भर दी. बाउजी की बात वे सचमुच नहीं टाल सकते थे. तय हुआ कि बाउजी अजोध्या को अपनी धर्म-बेटी बनाएंगे. शादी और विदाई इसी घर से होगी. कन्यादान बाउजी और भाभी करेंगे.

और यही हुआ. भोपालगंज की हवेली शादी की हलचल से भर उठी. नसीराबाद की अजोध्या अब हमारी अजोध्या जीजी बन गई थी. चार-पांच दिन तक घर गाजे-बाजे और शहनाई से गूंजता रहा. बुआजी और भाभी ने औरतों के साथ मिलकर खूब गीत गाए. हलवाइयों ने ढेरों मिठाइयां बनाईं. फिर बैंड-बाजे के साथ हरिशंकर भाईसाहब की बारात आई, फेरे हुए, कन्यादान किया गया, पलंगाचार हुआ, घराती औरतों ने बरातियों को खूब गालियों भरे गीत सुनाए. बच्चों को इस हो-हल्ले में बड़ा मज़ा आया. मुझे याद है, औरतों ने मिलकर दूल्हे के पिता घासीरामजी डोलिया का लुगाइयों जैसा सिंगार किया. मांग में सिंदूर भरा, आंखों में काजल लगाया गया और बुआजी ने तो उन्हें कांचली (अंगिया) पहनाकर सिर पर ओढ़नी डाली और घूंघट भी निकाल दिया. ताऊजी बेचारे चुपचाप अपना तमाशा बनवाते रहे. हंसी-ठठ्ठे के बाद आई रोने-पीटने की बारी. अब लड़की को विदा होना था.

अजोध्या जीजी विदा हो गई और जमनादेवी वापस नसीराबाद लौट गई. शादी की हलचल खतम हो गई, तो सबसे ज्यादा उलझन मुझे और मुन्नी को हुई. हफ्ते भर तक घर में मेले जैसा माहौल था और अब सब चुप-चुप सा. बची हुई मिठाइयां हमारी पहुंच से दूर, कनस्तर में भर-भर कर ऊपर टांड पर रख दी गई थी. एक दिन मैंने और मुन्नी ने मिठाइयों पर हाथ साफ़ करने का प्रोग्राम बनाया. मुन्नी ने किसी तरह धक्का मारकर मुझे टांड पर चढ़ा दिया और मैंने कनस्तर खोलकर बेसन की चक्की खाना शुरू किया. बीच-बीच में नीचे खड़ी मुन्नी को भी चक्की सप्लाई करता गया. मुन्नी चक्की खाती और थोड़ा-थोड़ा तोड़कर नन्हे अशोक के मुंह में भी देती जाती. भर पेट मिठाई खा चुकने के बाद, टांड से नीचे उतरना याद आया. चढ़ने के लिए तो मुन्नी ने धक्का लगाकर चढ़ा दिया था, पर अब उतरने के लिए कोई उपाय नहीं सूझ रहा था. काफ़ी दिमाग़ लगाया और कोशिश की, जब कोई तिकड़म काम नहीं आई, तो मेरा रोना शुरू हुआ. मुन्नी अशोक को लेकर डर के मारे भाग गई और मैं बुआजी के द्वारा टांड पर रोता हुआ पकड़ा गया. सोचा तो ये था कि मार पड़ेगी, लेकिन बहुत देर तक समझ में नहीं आया, मेरी हरक़त पर घर के सारे लोग ज़ोर-ज़ोर से हंसते क्यों रहे थे.


ये सब बातें सन् 49-50 की हैं. बाउजी का बड़ल्यास से बीमार और निराश होकर लौटना इसके कई बरस बाद हुआ था. वकील साहब नारायणलाल व्यास के खेत से, साल भर बाद बीमार होकर लौटे  बाउजी को लगभग महीने भर बिस्तर पर रहना पड़ा. बच्चों को उनके कमरे में जाने की मनाही थी. ताऊजी घासीरामजी लगभग रोज़ ही उन्हें देखने आते थे. बुआजी उदयपुर में मिड-वाइफ़ की ट्रेनिंग ले रही थी. उन्हें बाउजी की बीमारी के बारे में कुछ नहीं बताया गया, वर्ना डर था कि वो सबकुछ छोड़-छाड़ कर अपने दादाभाई के सिरहाने आ बैठेंगी. बीमारी के बावजूद, बाउजी को लगातार इस बात की चिंता बनी हुई थी कि बुआजी उदयपुर में अकेली हैं. कुछ दिनों बाद तय किया गया कि अशोक को उनके पास भेज दिया जाए. अशोक उदयपुर चला गया तो मैं कुछ अकेला सा हो गया. मुन्नी अब बड़ी हो रही थी और मेरे साथ पहले की तरह धींगा-मस्ती नहीं कर सकती थी.

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