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कुम्भाणे के ठाकर साहब ने अपने वादे के मुताबिक, हम सबको अगले दिन अपनी जीप में बीकानेर भिजवा दिया. एक तरफ हम लोग थककर चूर हो चुके थे, वहीं हर तरफ सांप ही सांप देखकर और पीवणे जैसे साँपों के किस्से सुन सुनकर, मानो एक अलग ही दुनिया से लौटकर आये थे. बीकानेर लौटने के बाद भी कई दिन तक मुझे साँपों के ही सपने आते रहे. मैं रात में न जाने कितनी बार सपने में सांप देखता था और मेरी नींद खुल जाती थी. कई बार मुझे लगता था कि पीवणे ने अभी अभी मेरे सीने पर अपनी पूंछ फटकार कर मुझे जगाया है. मैं नींद में ही उठकर किचन में जाता था और नमक की डळी लेकर चूसने लगता था और कई बार तो कुछ देर तक मुझे महसूस होता था कि मुझे नमक की डळी मीठी लग रही है. फिर मैं जागता था और सोचता था कि मैं तो बीकानेर में हूँ. यहाँ शहर में कौन सा पीवणा आएगा. और मुझे वो नमक अचानक खारा लगने लगता था और मैं थू थू करके उसे थूक देता था. एक दो बार पिताजी ने और माँ ने भी मुझे रात में किचन में जाते हुए देखा. वो यही सोचते थे कि शायद मैं पानी पीने गया हूँ या फिर मुझे भूख लग गयी है और मैं कुछ खाने के लिए ढूंढ रहा हूँ, लेकिन जब ऐसा कई बार हुआ तो पिताजी ने मुझसे पूछा कि मैं रात को किचन में जाकर क्या करता हूँ? मैंने उन्हें सारी बात बताई तो उन्होंने समझाया कि पीवणे बीकानेर शहर में नहीं होते. इसलिए मुझे अपने मन से ये वहम निकाल देना चाहिए.
धीरे धीरे ये वहम दिल से निकला. मैं वापस अपने कॉलेज जाने
लगा. तभी एक दिन सूचना मिली कि वो ज़मीने जो हम लोग देखकर आये हैं, वो हमें अलॉट हो
गयी हैं और वहाँ जाकर ज़मीन का कब्जा हमें लेना है. बाबू मामा जी की आर सी ए
इंडस्ट्री उस वक्त अच्छी खासी चल रही थी. जीजा जी अपनी दूकान गोपाल लाल एंड संस
में बहुत मसरूफ थे. उन्हीं दिनों में वो बीकानेर जनसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे,
इसलिए पार्टी की कई अहम जिम्मेदारियां भी उनके कन्धों पर आ गयी थीं. अब सवाल ये था
कि ज़मीन का कब्जा लेने और उसे संभालने आखिर कौन जाए? हम चार लोग, जो ज़मीने देखने
गए थे और जिन्हें उन ज़मीनों के बारे में जानकारी थी. उनमे से दो लोग बचे थे, जिनके
पास कोई खास काम नहीं था. मैं और काशी राम मामा जी. काशी राम मामा जी तो खाली ही
थे और मैं जबसे आर्ट्स में आया था, सबको लगता था कि कुछ दिन कॉलेज नहीं भी जाऊं तो
उससे कोई खास नुक्सान नहीं होने वाला है. बहुत सोच विचार के बाद तय हुआ कि ज़मीनों
का पजेशन लेने हम दोनों को ही जाना होगा. हालांकि पीवणे और दूसरे साँपों को याद करते ही रोंगटे खड़े हो
जाते थे, लेकिन बचने का कोई रास्ता नहीं था.
हम दोनों अनूपगढ़ वाली उस डब्बा बस में सवार हुए. हमारे साथ
वो पटवारी भी था, जो ज़मीनों को नाप जोखकर
हमें सौंपने वाला था. छतरगढ़ तक का सफर पिछली बार की तरह आराम से कटा. छतरगढ़ से
निकलकर उस रेत के समंदर में दाखिल होने के कोई डेढ़ दो घंटे बाद, अचानक बस की छत पर
बैठे कुछ लोग चिल्लाये..... “काळी पीळी आंधी आ रई है रे………………………”
बस का ड्राइवर, कंडक्टर और खलासी एकदम चौकन्ने हो गए, लेकिन
ये सोचते कि अब क्या करना चाहिए, उससे पहले ही रेत के उस समंदर ने बस को अपनी आगोश
में ले लिया. हर ओर बस रेत ही रेत. दो फुट दूर का भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था.
दिन देखते देखते काली रात में बदल गया. कुछ लोगों ने कहा “ड्राइवर साब बस को वापस छतरगढ़ ले चलो.”
ड्राइवर ने हँसते हुए जवाब दिया “अरे भाई अगर ऐसे में बस चल
सकती तो हम आगे नहीं बढते क्या? जब तक आंधी थोड़ी मंदरी(धीमी) नहीं पड़ जाती, हम
जहां हैं, हमें वहीँ खड़े रहना पडेगा.” सभी लोग बीकानेर और आसपास के इलाकों के ही
थे और काळी पीळी आंधी से अच्छी तरह वाकिफ थे, इसलिए किसी ने कोई जिद नहीं की. ऐसी आंधियां
अक्सर चार पांच दिन तक चलती थीं. कभी कभी तो ये एक हफ्ते तक चलती रहती थीं. शहर
में तो दिन में भी सड़क की बत्तियाँ जला दी जाती थीं, जिससे थोड़ा उजाला हो जाता था,
लेकिन इस रेत के समंदर में तो ऐसी कोई रोड़ लाइट्स के जलाने की भी गुंजाइश नहीं थी.
कोई रास्ता नहीं था, सिवाय इसके कि जब तक आंधी धीमी न पड़े, हम जहां हैं वहीं खड़े
रहें. कंडक्टर टॉर्च लेकर नीचे तो उतरा, लेकिन साँपों की माँ बहनों के साथ बेहद
अन्तरंग ताल्लुकात बनाने की घोषणा करते हुए, फ़ौरन वापस बस पर आ गया. उसने सबको
सावधान करते हुए कहा “कोई नीचे ना उतरे. नीचे बहुत सारे सांप हैं. अगर किसी को काट
लिया तो हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है और हाँ, कोई बड़ा सांप ऊपर भी आ सकता है. अगर
ऐसा हो, तो खामोशी से बिना हिले डुले बैठे रहें. करीब छ घंटे तक हम सभी लोग सांस
रोके बैठे रहे. पता ही नहीं चला कि रेत से ढके ढके ही सूरज देवता कब अस्ताचल में चले गए और रात हो
गयी. आंधी थोड़ी सी कम हुई थी. कलाई पर बंधी घड़ी पर नज़र डाली तो आठ बज रहे थे. खाने
का टाइम हो गया था और पेट में चूहे कूदने लगे थे. अचानक मुझे याद आया, बीकानेर से
निकलते हुए मैंने, सोहनलाल जी बिस्सा के कुछ मोटे भुजिया एक बैग में डाल लिए थे, जो हर बार भूखे होने पर मेरे पेट का सहारा बनते थे, चाहे
लाल गेहूं की वजह से सबूरी(संतुष्टि) न आयी हो, चाहे सोहनी बाई के भजन सुनकर लौटते
हुए, तेज भूख लग गयी हो, या फिर वैसे ही रतन के साथ गपशप करते करते, देर रात पेट
में चूहे कूदने लगे हों. उस ज़माने में पॉलिथिन ईजाद नहीं हुआ था. खाने पीने की चीज़ें खाकी रंग के हलके से मोटे
कागज़ के बने लिफाफों में डालकर ही दी जाती थीं. कागज़ के इन लिफाफों को हम लोग
ठुंगा या थुंगा कहते थे. मैंने फ़ौरन वो भुजिया का ठुंगा बाहर निकाला और काशी राम
मामा जी के सामने किया. भूख शायद उन्हें भी जोर से लगी हुई थी, लेकिन वो यही सोचकर
खामोश बैठे हुए थे कि मैं बच्चा हूँ, मुझसे आखिर क्या कहें वो. भुजिया का ठुंगा
सामने आते ही वो अपने आपको रोक नहीं पाए और “तुम खाओ.....तुम खाओ” कहते हुए भी
उन्होंने वो पैकेट अपने हाथ में ले लिया. मैंने सोचा चार छः भुजिया चबाकर वो पैकेट
वापस मुझे दे देंगे, लेकिन शायद हम दोनों ही भूल गए थे कि बस में हम दो लोग ही
नहीं थे. अच्छी हट्टी कट्टी, पांच छः बकरियां भी उस बस में सवार थी. जैसे ही उनके
नथुनों से खाने की किसी चीज़ की खुशबू टकराई, वो सारी बकरियां काशीराम मामाजी पर
टूट पड़ीं. हम दोनों देखते ही रह गए और पलक झपकने से पहले ही उन बकरियों ने उस ठुंगे
को चीरकर छोड़ दिया. सारे भुजिया बस के फर्श पर जा गिरे और वो बकरियां हमारा मुंह
चिढा चिढ़ाकर वो भुजिया चबाने लगीं. काशीराम मामाजी रुआंसे से होकर बोले “बेटा आपां
दोआं की किस्मत में कोनी हा ऐ भुजिया.” मुझे अचानक चूनावढ का वो कच्चा घर याद आ
गया, जिसमे मैं और भाई साहब खेला करते थे. मैं बड़ा भाई बनकर उन्हें झूठ मूठ के
भुजिया दिया करता था और भाई साहब उन झूठमूठ के भुजिया को स्वाद ले लेकर खाया करते
थे. जो भुजिया मैं उन्हें देता था, उन्हें खाकर वो और भुजिया की मांग करने लगते थे
और मैं उन्हें समझता था कि ज़्यादा भुजिया खाने से पेट खराब हो जाएगा. वो फिर भी
जिद करने लगते, तो एक बार मैंने उन्हें थप्पड़ मार दिया था. अब मुझे महसूस हो रहा
था कि वो भुजिया कितने स्वाद होंगे जो बकरियों ने काशीराम मामा जी के हाथ से छीन
लिए थे. भाई साहब भी शायद वैसा ही महसूस करते होंगे, जो आज हमें महसूस हो रहा था.
लेकिन हमारे सामने सिवाय अपने हाथ मलने के कोई चारा नहीं था. मैंने रुआंसे काशीराम
मामा जी से कहा “कोई बात नहीं मामाजी, ये भुजिया खाने से हमारा पेट खराब हो सकता
था, जाने दीजिए.”
आंधी थोड़ी कम हुई थी. ड्राइवर और कंडक्टर ने तय किया कि इस
मौसम में हम लोग अनूपगढ़ तो नहीं पहुँच सकते. बेहतर होगा कि आसपास कोई भी ऐसी जगह
मिल सके जहां रात बिताई जा सके, तो वहाँ डेरा डाला जाए. ड्राइवर ने संभल संभलकर बस
चलाते हुए, धीरे धीरे आगे बढ़ना शुरू किया . पता नहीं कितने मील हम लोग चल पाए
होंगे क्योंकि ये देखने का हमारे पास कोई ज़रिया नहीं था. बस में माईलोमीटर के
सिर्फ खंडहर मौजूद थे. ऐसी बस में जो १५५ किलोमीटर का सफर तय करने में पूरा पूरा
दिन लगा देती हो, बेचारे माईलोमीटर की क्या ज़रूरत हो सकती थी? बस में ले देकर दो
तीन लोगों के पास रिस्ट वाचेज थीं, जो हमें टाइम बता सकती थी. रात के कोई बारह बजे
होंगे कि हमें दूर, कहीं से आती हुई हल्की सी रोशनी नज़र आई. शहर में जहां चारों और
रोशनियाँ बिखरी रहती हैं, किसी अकेले बल्ब का भी कोई वजूद नज़र नहीं आता, लेकिन उस
रेगिस्तान में, दूर जलती एक लालटेन की रोशनी ऐसे नज़र आ रही थी, मानो कोई सूरज उग
आया हो. ड्राइवर आंधी से बाथेड़ा( संघर्ष ) करते हुए आधे घंटे तक किसी तरह बस चलाता
रहा, तब जाकर हम उस लालटेन तक पहुंचे. देखा, एक छोटी सी ढाणी थी, जिसमे एक तरफ दो
झोंपडियां थीं और उनसे थोड़ी दूरी पर एक और झोंपड़ी थी. आस पास कुछ मूढे और खाटें भी
खड़ी थीं. इन्हीं झोंपडियों में से रिस रिसकर लालटेन की रोशनी बाहर आ रही थी. कंडक्टर ने बस से उतरकर आवाजें लगाई, तो चार लोग
निकलकर आये. जहां सब लोग भूख से बेहाल थे, वहीं मन ही मन डरे हुए भी थे क्योंकि ये
वो ज़माना था, जब डाकू लोग रेगिस्तान के अंदर अपने ठिकाने बना कर पुलिस से छुपकर
रहा करते थे. दिन में अपने ऊंटों से इधर उधर घूमते थे और राहगीरों को लूटा करते
थे. रात में आकर फिर अपने ठिकाने पर सो जाया करते थे. महीने बीस दिन में अपना
ठिकाना बदल लिया करते थे ताकि कोई उन्हें ढूंढ ना सके. वो ज़माना ही बड़ा सुस्त
रफ़्तार था. आज की पीढ़ी को ताज्जुब होगा कि उस ज़माने में एक खत को बीकानेर से १२
किलोमीटर दूर गंगाशहर पहुँचने में कई बार दो दो महीने लग जाया करते थे.
कंडक्टर के आवाज़ लगाने पर पहले जो दो लोग बाहर आये, वो
मजदूर टाइप के लोग थे लेकिन उनके बाहर निकलने के फ़ौरन बाद ही जो दो शख्स बाहर
निकले, उन्हें देखते ही, कंडक्टर और सवारियां, सबके होश फाख्ता हो गए. उनके बड़ी
बड़ी मूंछें थीं और हाथ में दोनाली बंदूके थीं. मैंने और शायद बस के हर फर्द ने यही
सोचा कि लगता है, आज भूख के चक्कर में हम लोग डाकुओं के चंगुल में फँस गए हैं. बस
की तरफ एक निगाह डालकर उन दोनों में से एक आदमी ने कडकडाती ही आवाज़ में कहा “कांई
चाइजे.....?”(क्या चाहिए)
कंडक्टर लगभग गिडगिडाते हुए बोला “ठाकरां, काळी पीळी आंधी में रास्तो भटक ग्या हाँ अर सब लोग भूख सूं बेहाल हां. खाणै पीणै रो कुछ इंतजाम हो सकै तो सब री जान बचै. सूरज उगता ईं म्हे लोग रवाना हूँ जासां.”(ठाकुर साब, काली पीली आंधी में रास्ता भटक गए हैं हम लोग भूख से बेहाल हैं. कुछ खाने पीने का इंतजाम हो सके तो हमारी जान बचे. सुबह होते ही हम लोग यहाँ से आगे चल देंगे.)
अँधेरे की वजह से ठाकुर साहब के चेहरे के तास्सुर तो हमें
नज़र नहीं आये, बस उनकी वो खरजदार आवाज़ गूंजी, “ठीक है, उतार लो सब नै. आटो दाळ तो
मिल जासी, आप लोग मिल’र बणा लो अर खालो.” (ठीक है, उतार लो सबको. आटा दाल मिल
जाएगा, आप लोग बनाकर खा लेना.)
फिर अपने नौकरों की तरफ घूमकर बोले “जाओ रे छोरो, आटा, दाल,
चूल्हा, बर्तन, सब दे दो.”
सब लोगों के जैसे जान में जान आई. हम लोग बस से नीचे उतरे तो देखा अँधेरे में कुछ ऊँट खड़े हुए थे. जो कुछ सुन रखा था, उसकी बिना पर मैंने फुसफुसाते हुए काशी राम मामा जी के कान में कहा “मामा जी, ये कहीं डाकू तो नहीं हैं?” मामाजी ने झट मेरे मुंह पर हाथ रखते हुए कहा “श श श चुप रह बेटा . अब तो जो भी है, आपणा अन्नदाता है क्योंकि खाणो खिला रिया है.”
मेरे अलावा बस की सारी सवारियां या तो धोती कुरते में थीं,
या फिर कुर्ते पजामे में. किसी किसी ने धोती पर कमीज़ पहन रखा था. यानी पैंट पहने
हुए अकेला मैं ही था उस बस में. कॉलेज में पढ़ रहा था, उस ज़माने में अमिताभ बच्चन
जी अवतार ले चुके थे और सारी नौजवान पीढ़ी को लंबे बाल रखना सिखाने में लगे हुए थे.
लिहाजा मेरे बाल भी उस ज़माने के नौजवानों की तरह ज़रा ज़्यादा ही बड़े बड़े थे. कुल
मिलाकर ये कहा जा सकता है कि मेरा हूलिया बस की बाकी सारी सवारियों से अलग ही नज़र
आ रहा था. मेरे दिमाग में आया, मैं ये सब क्यों सोच रहा हूँ? मेरे अंदर से जो जवाब
आया वो मुझे एक दम हिला गया. जवाब ये आया “बेटा अगर ये लोग डाकू हैं, तो मेरे ठीक
ठाक से कपडे देखकर इनके मुंह में पानी आ सकता है कि शहर के किसी अच्छे घर का लड़का
है , इसे अगवा करके कुछ कमाई की जा सकती है.” ये सब दिमाग में आते ही मैं काशी राम
मामा जी की ओट में हो गया. दो मिनट भी नहीं गुज़रे होंगे कि एक ठाकुर साहब लालटेन
उठाकर सवारियों की शक्लें देखने लगे. मेरे पास पहुँचते ही उन्होंने सवाल किया “ऐ
कंवर कुण है?”
मैं कुछ बोलूँ इससे पहले ही काशी राम जी बोल पड़े, “बीकानेर का मोदी हाँ हुकुम. ओ म्हारो भाणजो है.” ठाकुर साहब एक अजीब से तरीके से मुस्कुराए “मोदी ? बीकानेर का मोदी तो बहोत पइसे वाळा हुवे.......” फिर लालटेन मामा जी की तरफ करके गौर से उनके चेहरे की तरफ देखा. मैले कुचैले कपडे, बढ़ी हुई दाढी और बेतरतीब बाल. मेरे फटीचर हाल रिश्ते के मामा जी को देखकर ठाकुर साहब को लग गया होगा कि ये लोग पैसे वाले तो नहीं हो सकते.” वो आगे बढ़ गए. वहाँ कुछ खाटें पडी हुई थीं. ठाकुर साहब ने कुछ सवारियों को कहा “ऐ मांचा बिछालो अर बैठ जाओ.” कुछ लोग खाटें बिछाने में लग गए, कुछ पानी पिलाने में और कुछ ठाकुर साहब के नौकरों से आटा दाल लेकर खाना बनाने की तैयारी में लग गए. मैंने मामा जी से पूछा कि मुझे क्या काम करना चाहिए? उन्होंने कहा “तूं बैठ बेटा, मैं देखूं हूँ.” चारों तरफ अन्धकार का राज था, वो उठे और जिधर चूल्हा जलाया जा रहा था उधर बढे लेकिन किसी चीज़ से टकराए और उनके मुंह से निकला “ओय रे.......” मैं काँप गया, मुझे लगा, हो न हो मामा जी को सांप या बिच्छू ने काट लिया है. मैं वहीं से चिल्लाया “मामा जी क्या हुआ........... मामा जी क्या हुआ?” सारी सवारियां जो काम करते हुए आपस में खुसुर पुसुर कर रही थीं, सब चुप हो गईं और दो तीन लोग मामा जी की तरफ लपके. पता लगा, एक पत्थर से टकरा गए थे. पैर के अंगूठे पर थोड़ी चोट लगी थी. दो लोगों ने सहारा देकर, उन्हें वापस मेरे पास खाट पर लाकर बिठा दिया था. मैं उनके अंगूठे की चोट को देख ही रहा था कि एक ठाकुर साहब ने लालटेन थोड़ा सा ऊंचा करते हुए मुझे अपने पास आने का इशारा किया. मेरी सिट्टी पिट्टी गुम. मैंने मामाजी को पूछा “ क्या करूं मामा जी?”
वो भी घबराए, लेकिन मुझे हिम्मत बंधाते हुए बोले “ कोई बात
नईं......जा बेटा, बुला रिया है तो जाणो ई पड़ैगो.”
मैं मरे मरे क़दमों से ठाकुर साहब की तरफ चल पड़ा. जैसे ही
उनके पास पहुंचा वो एक तरफ मुड़ गए और मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया. मेरे
सामने, उनके पीछे पीछे आगे बढ़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था. मेरी टांगें थर
थर थर थर काँप रही थीं. थोड़ी सी दूरी पर एक झोंपड़ी थी, जिसमे एक लालटेन जल रहा था.
एक साया मुझे झोंपड़ी के दरवाज़े पर नज़र आया. उस घनघोर अँधेरे में लालटेन की मद्धम
रोशनी में वो साया, मुझे बहुत डरावना लग रहा था. मुझे लगा, कहीं हम भूतों की बस्ती
में तो नहीं आ गए हैं? फिर अपने पिताजी को याद किया, जो हमेशा यही समझाते थे कि
भूत नाम की कोई चीज़ नहीं होती, इस दुनिया में. ये सिर्फ हमारे मन का डर होता है,
जो भूत बनकर हमारे सामने आ खडा होता है. मैंने अपने आपको थोड़ी हिम्मत दिलाई और आगे
बढ़ गया. जैसे ही ठाकुर साहब झोंपड़ी के दरवाज़े पर पहुंचे , वो साया वहाँसे हटकर
अंदर चला गया और ठाकुर साहब ने मुझे कहा “ अंदर आ जाओ कवरां.” मुझे तो हर हाल में
उनका हुकुम मानना ही था. थोड़ा ताज्जुब ज़रूर हो रहा था कि मेरे फटीचर मामा जी को
देखने के बाद भी मुझे कंवरां क्यों बुला रहे हैं? मैं डरता डरता, ये सोचता हुआ
झोंपड़ी में दाखिल हो गया कि ये विधि जाने अब क्या खेल मेरे साथ खेलने वाली है?
जैसे ही अंदर दाखिल हुआ, देखा वो जो साया नज़र आ रहा था, किसी औरत का था. मैं घबराया हुआ सा लालटेन की रोशनी में पहचानने की कोशिश करने लगा. तभी आवाज़ आई..... “कंवर साब........ क्या बात है? पाडोसियों को भूल गए क्या ?” अरे......... ये तो अमरू की बेटी भंवरी है..........!!!!!!!
मैंने कहा “अरे भंवरी.........? तूं यहाँ कैसे ?”
वो हंसी..... वही बिंदास हंसी थी. उसकी उस हंसी को देखकर,
सुनकर मेरा डर थोड़ा सा कम हुआ. तभी ठाकुर साहब बोले “अरे भाई म्हारे सासरै ऊं
मुश्किल सूं तो कोई आयो है, आप इयाने
बैठाओ खातरदारी करो ठकराणी सा.”(अरे भाई हमारे ससुराल से मुश्किल से तो कोई आया
है, आप इन्हें बिठाओ ठकुराइन साहिबा और कुछ खातिरदारी करो इनकी)
भंवरी ने बड़े अदब से कहा “बडो हुकुम.” और वहाँ बिछे हुए एक
मूढे की तरफ इशारा करती हुई बोली “बैठो कंवर साब.” भंवरी उम्र में मुझसे काफी बड़ी
थी, लेकिन उस परिवार के साथ हमारे रिश्ते कुछ इस तरह के थे कि उनके घर का बड़े से
बड़ा इंसान यानी अमरू भी मेरे घर के छोटे से छोटे इंसान को यानी मुझे भी कँवर साब
कहकर बुलाता था और हम सब लोग अमरू के परिवार के अपने से बड़े लोगों को भी तू कहकर
बुलाते थे. अब जब ठाकुर साहब ने भंवरी को ठकराणी सा कहकर बुलाया तो मुझे अपने आप
पर बड़ी शर्म आयी, लेकिन अब क्या हो सकता था? अब तो तीर कमान से निकल चुका था.
भंवरी ठाकुर साहब को बोली “आपने बताऊँ हुकुम कि म्हारी माँ म्हनै बोहत लड़ती कि
बच्चा रे हाथ ना लगाया कर, थानेदारजी(मेरे पिताजी) नाराज हू जासी, पण म्हे लुक
लुक’र घणा ई खेलायोड़ा है कंवर साब नै.”(आपको बताऊँ हुकुम कि मुझे मेरी माँ बहुत
डांटती थी कि मैं इन्हें हाथ नहीं लगाऊँ क्योंकि थानेदार जी (मेरे पिताजी) ने देख
लिया तो नाराज़ हो जायेंगे, लेकिन मैं छुप छुपकर कँवर साब को इनके बचपन में खूब
खिलाया करती थी.)
ठाकुर साहब भी हंस पड़े और बोले “अब तो भाई बाहर आयोडा सारा ही लोग पावणा है, मैं इंतज़ाम
देखूं थोडो, आप कंवर साब री खातरदारी करो.”(अब तो भई, ये सारे ही लोग मेरे ससुराल
पक्ष के मेहमान हैं, मैं देखूं ज़रा उधर सबके खाने पीने के इंतजाम को, आप कँवर साब
की खातिरदारी करो)
ठाकुर साहब इतना कहकर उस तरफ निकल गए जहां बस की सवारियां
दाल रोटी बना रही थीं. अब झोंपड़ी में, मैं और भंवरी दो ही लोग बच गए थे. भंवरी ने
मेरे हाथ पाँव धुलवाए, तौलिया दिया. मैं हाथ मुंह पोंछकर मूढे पर बैठ गया. वो बोली
“आपकी क्या खातिर करूं ? अपना छुआ खाना खिलाकर भरष्ट तो नईं कर सकती आपको. मैंने
एकदम से चौंक कर कहा “ नईं नईं भंवरी मैं इस छुआछूत को बिलकुल नहीं मानता...... आप
बनाओ खाना, मैं ज़रूर खाऊंगा.”
ठाकुर साहब जिस भंवरी को ठकराणी सा कहकर इज्ज़त बख्श रहे थे,
उसके लिए अपने आप ही मेरे मुंह से तू की जगह आप निकल गया. इस पर भंवरी ने हल्की सी
हंसी के साथ कहा “क्या कँवर साब आपके वास्ते तो मैं वही भंवरकी हूँ. आप मुझे यूं
आप आप ना करो. और हाँ आपके लिये मैंने खाना बनाया है, ये अगर मेरे माँ बाप को पता
लग गया तो वो मुझे ज्यान से मार देंगे. मैं आपका खाना अलग से बनवाती हूँ. आपके साथ
और कौन है?”
मैंने कहा “मेरे एक रिश्ते के मामा जी हैं.” इतनी देर से कई
सवाल मेरे मन में सर उठा रहे थे. सबसे पहला तो ये कि बस जहां खड़ी है, उससे इतनी
दूर बनी झोंपड़ी में उसे कैसे खबर हुई कि मैं भी बस में हूँ. दूसरा वो यहाँ इन
लोगों के साथ कैसे? वो तो उस बहावलपुरिये अल्ताफ के साथ
दूसरी शादी करके चली गयी थी और ये लोग आखिर कौन हैं?
भंवरी ने बाहर आवाज़ देकर किसी चाकर को बुलाया और मेरे लिए
और मामा जी के लिए अलग से खाना बनाने के लिए कहकर झोंपड़ी के एक किनारे रखे डिब्बों
में से कुछ काजू, बादाम, अखरोट, किशमिश, पिस्ते वगैरह निकालकर एक तश्तरी रखे और
उन्हें मेरे सामने करती हुई बोली, “कँवर साब ये तो सूखा मेवा है, इनको खाने में तो
कोई हरज नहीं है, इनमे छूआछूत नहीं होती.”
मैं ने खामोशी से दो बादाम उठा कर अपने मुंह में डाले और
उन्हें चबाने लगा. भंवरी ने मेरे मन में उठ रहे भंवर को ताड़ लिया था. वो एक मूढे
पर बैठती हुई बोली “म्हे जाणू हूँ आप क्या सोच रये हो कँवर साब?”
उसने वो सारे सवाल एक एक करके मेरे सामने दोहरा दिए, जो
मेरे मन में कई देर से उठ रहे थे. मैं हैरान रह गया. कितना गलत सोचते हैं हम कि
अक्ल हम पढ़े लिखे लोगों की ही जागीर है. इस अनपढ़, अंगूठाछाप लड़की ने किस होशियारी
के साथ मेरे दिलोदिमाग को पढ़ लिया ?
मैंने मुस्कुरा कर कहा “हाँ भंवरी, सोच तो मैं यही सब रहा
हूँ.”
“सबसे पहले तो आप ये बताओ कि आप ही अभी थोड़ी देर पहले क्या
हो गया मामा जी....... क्या हो गया मामाजी चिल्लाये थे न?”
मैंने कहा “हाँ उनके अंगूठे में चोट लग गयी थी..... मुझे
लगा कि शायद किसी बिच्छू या सांप ने न काट लिया हो........”
“हालांकि आप काफी दूर थे जब आप चिल्लाये, लेकिन आपकी आवाज़ को
तो मैं बहोत अच्छी तरह से पहचानती हूँ. आप एक बार मामा जी बोले और मैं समझ गयी कि
आज तो सुदामा के घर किशन जी पधार गए हैं.... आपकी आवाज़ सबसे अलग भी तो है......”
मैंने हंसकर कहा “अच्छा? आप मेरी आवाज़ इतने अच्छे से
पहचानती हो?”
वो बोली “अरे कँवर साब आपकी आवाज़ है ही ऐसी. मेरी आँखों पर
पट्टी बाँध दो, उसके बाद भी हज़ार लोगों की आवाजों में से आपकी आवाज़ पहचान लूंगी
मैं......”
मुझे क्या पता था, भंवरी उस घनघोर रेगिस्तान में, रेत के
बगूलों के बीच उस झोंपड़ी में बैठकर, आधी रात को एक नजूमी की तरह मेरे नसीब का लेखा
जोखा पढकर मुझे बता रही थी कि आगे जाकर मुझे रेडियो में अनाउंसर बनना है.
फिर बोली कँवर साब अब मैं आपको बताती हूँ कि मैं आखिर यहाँ
कैसे पहुँची?”
पांच सेकंड के लिए वो खामोश हो गयी मानो सोच रही हो कि कहाँ
से शुरू करे? फिर मुस्कुराकर बोली, “अल्ताफ के साथ दूसरी शादी करके मैं सत्तासर
चली गयी थी, इसी अहद के साथ कि अब चाहे ज़िंदगी कुछ भी रंग दिखाए, वापस अपने बाप के
घर नहीं जाऊंगी. दस पांच दिन सब ठीक रहा, मगर उसके बाद मैंने देखा कि अल्ताफ बहुत
ही सीधा सच्चा और भोला इंसान था. अल्ताफ का बाप तो मर चुका था और घर की बागडोर
अल्ताफ की माँ के हाथ में थी. अल्ताफ जहां उसकी माँ कहे उठ, वहाँ उठे और जहां कहे,
बैठ वहाँ बैठे. मैंने जब जब भी बीच में कुछ बोलने की कोशिश की, अल्ताफ की मा ने
बेंत से बुरी तरह मेरी पिटाई की और वो मिट्टी का माधो अपनी माँ के सामने चूं तक
नहीं कर सका था. १५ दिन में ही मेरा दम बुरी तरह घुटने लगा.”
“आप बीकानेर क्यों नहीं चली आईं ?”
“मैंने कहा ना कि मैंने कसम ही खा ली थी कि मैं मर जाऊंगी
लेकिन फिर से बिकने के लिए बीकानेर नहीं आऊँगी.मैं जानती थी, मेरा बाप मुझे लेकर
फिर एक मंडी सजा लेगा. उसके दारू और गोस जुटाने के लिए आखिर कब तक मैं एक हाथ से
दूसरे हाथ में बिकती रहती ?” मैंने उसके गले को रुन्धते हुए सुना.
मैं खामोश रहा. हालांकि नीम अँधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं
दे रहा था लेकिन अँधेरे में शायद हर तरह के जज़्बात और भी शिद्दत के साथ कम्युनिकेट
भी होते हैं और महसूस भी. अपने आपको संभालकर भंवरी ने फिर बोलना शुरू किया.
“ये ठाकुर साहब दो भाई हैं, ये रेगिस्तान में आते जाते
सेठों को लूटते हैं या फिर आस पास के गाँवों शहरों में बड़ी बड़ी हैसियत वालों के
यहाँ डाके डालते हैं. ये बड़ी बड़ी असामियों को अगवा करके भी पैसे वसूलते हैं, लेकिन
गरीबों को कभी परेशान नहीं करते. वैसे सभाव के बोहत अच्छे हैं दोनूं ई भाई.
इन लोगों ने सुना कि सत्तासर के मियों के पास बहोत धन है,
तो इन्होने सत्तासर में डाके डाले. डाकों की ज़द में मेरा घर भी आ गया. अल्ताफ के
पास बन्दूक थी, मगर वो ठहरा सीधा सादा आदमी. वो बेचारा मारकाट के लिए बना ही नहीं
था. मेरी सासू ने बन्दूक लेकर डाकुओं का सामना किया. मालिक की कुदरत कि इस
गोलीबारी में मेरी सासू को तो कुछ नहीं हुआ, एक गोली अल्ताफ को लग गयी. वो काली
रात मैं कभी भूल नहीं सकती. अल्ताफ मारा गया. अब वहाँ रहने का मतलब था, अपनी सासू
के जुलम पर जुलम सहना. मैं छोटे ठाकुर साहब के ऊँट के सामने खड़ी हो गयी. वो जोर से
चिल्लाये “परे हट. ऊँट ऊपर चढ जाएगा.”
मैंने कहा “हुकुम सिरफ़ गोलियाँ चलाना ही जानते हो या किसी
को बचाना भी जानते हो?”
“क्या मतलब ?”
“जब मेरे धणी को मार डाला है, तो मुझे किसके लिए छोड़ जा रहे
हो ? मुझे भी साथ ले चलो”
छोटे ठाकुर साहब ने एक लम्हे के लिए अपने बड़े भाई की ओर
देखा. बड़े भाई ने कहा “हम ठहरे डाकू, हमारे साथ रेगिस्तान की धूल फांकनी
पड़ेगी....... इधर उधर मारा मारा फिरना पडेगा.”
“मंज़ूर है मुझे, मगर मेरी एक छोटी सी शर्त है.”
“बोलो”
“मैं दोनों के साथ नहीं रहूंगी. एक भाई मेरा भरतार(पति)
होगा और दूसरा मेरा बाप.”
बड़े भाई ने कहा “ वचन देता हूँ...... मेरे भाई के सिवाय कोई
तुम्हारी तरफ आँख भी उठाकर देखेगा तो उसकी आँखें निकाल लूंगा. और हाँ अब के बाद
मेरी ढाणी जहां भी बसेगी, वहीं तेरा पीहर
और ससुराल दोनों होंगे. मेरे भाई की झोंपड़ी तेरा ससुराल और मेरी झोंपड़ी तेरा पीहर.
चलो बैठो मेरे भाई के ऊँट पर.”
“छोटे भाई ने ऊँट जह्काया(बिठाया) और मुझे हाथ का सहारा
देकर ऊँट पर ले ले लिया. बस कँवर साब उस दिन वहाँ से निकल के जो रेगिस्तान का रुख
किया, तो बस रेगिस्तान की ही होकर रह गयी. बोहत अच्छे लोग हैं ये दोनों भाई. हर दस
बीस दिन में ठिकाना बदलते रहते हैं. लूटपाट तो करते हैं, लेकिन जहां तक सामने वाला
गोली न चलाये, खून खराबा नहीं करते.”
हम लोग बात कर ही रहे थे कि मेरे लिए खाना झोंपड़ी के बाहर
ही लगा दिया गया. काशीराम मामा जी को भी वहीं बुला कर ले आया नौकर. हम दोनों ने बैठकर खाना खाया और दोनों ठाकुर साहब ने बहुत
प्यार से पास बैठकर हमें खाना खिलाया. ठाकुर साहब ने अपनी खाटों के पास ही हम
लोगों के लिए भी दो खाटें लगवा दी और हम लेट गए. आज हमने नमक की डळियाँ नहीं ली
थीं क्योंकि ठाकुर साहब का कहना था कि आज तो इतने सारे समधी लोग हैं यहाँ, कि
बेचारा पीवणा शर्म मरते ही नहीं आएगा. वैसे भी इतने लोगों के सोने का इंतजाम तो हो
नहीं सकता था, इसलिए लोग इधर उधर घूमते चलते रहेंगे. ऐसे में पीवणा आस पास भी नहीं
फटक सकता था.
बस की सारी सवारियों ने खाना खाया तब तक रात के तीन बज चुके
थे. आंधी अभी भी चल रही थी. आंधी क्या है आखिर? रेत से सराबोर हवाएं ही तो हैं. हर
तरफ रेत होती है लेकिन जो उस रेत को इधर से उधर ले जाने वाली हवा होती है, वही तो
रेगिस्तान में रहने वालों को गर्मी से राहत देनेवाली एक मात्र चीज़ होती है. पेट
में अनाज गया और ऊपर से आंधी के ठन्डे ठन्डे झोंके आ रहे थे, ऐसे में मुझे कब नींद
आ गयी कुछ पता ही नहीं चला.
सुबह सूरज कब निकला, कुछ खबर ही न हुई क्योंकि आंधी अब भी
चल रही थी और आसमान पर रेत की इतनी गहरी चादर छाई हुई थी कि सूरज भगवान को अपनी
किरनें फैलाने का मौक़ा ही नहीं मिला. हमें अपने सफर पर आगे निकलना था. कंडक्टर ने
हाथ जोड़कर ठाकुर साहब से कहा “हुकुम आप तो म्हारी सब री जान बचा ली, पण आपरो सारो आटो म्हे खाय्ग्या.
उण री कीमत देवण री तो म्हांरी कईं हैसियत है....... फेर भी सारी सवारियां री मंशा
है कि आटै दाळ रा पइसा...........”
बड़े ठाकुर साहब ने हाथ जोड़कर बहोत नम्रता से कहा “ म्हारी
कईं औकात है कि म्हें आपने खाणो खिलाऊँ? कीडी रे कण आर हाथी रे मन रो इंतजाम
करणियो बो नीली छतरी आळो है. आप लोग तो पधारो बस.
मुझे एक बार फिर छोटे ठाकुर साहब अपने ज़नानखाने यानी उस
झोंपड़ी में ले गए जिसमे भंवरी रहती थी. अंदर घुसते हुए ठाकुर साहब बोले “ ठकराणी
सा, पावणे जा रहे हैं भई.... इन्हें विदा
करो.”
भंवरी मेरे पास आई, थोड़ा हिचकिचाते हुए....... मेरे सर पर
हाथ रखा और बोली “कँवर साब, आज ज़िंदगी में पहली बार आपके सर पर हाथ रखने की हिम्मत
कर रही हूँ.......कुछ भी हो, उम्र में तो मैं कमला बाई सा (मेरी बड़ी बहन जिन्हें
मैं बाई के नाम से बुलाता हूँ) के बराबर ई हूँ.......मैंने झुककर हाथ जोड़े और उस
झोंपड़ी से बाहर आ गया.......... झोंपड़ी से बाहर निकलने के बाद मैंने घूमकर देखा, नम
आँखों से भंवरी मेरी ओर एकटक देखे जा रही थी. मुझे लगा, मेरी पीठ पर भंवरी की वो
दो आँखें जैसे चिपक कर मेरे साथ चली आईं..... बरसों तक मुझे भंवरी की वो आँखें याद
रही, मगर वक्त जहां बड़े बड़े घाव भर देता है, वहीं कई बहुत बेशकीमती यादों को भी
धुंधला कर देता है. मैं भी नौकरी में आने के बाद बीकानेर से ऐसा निकला कि बस जब
कभी जाना होता तो घरवालों के साथ दो चार दिन गुज़ारने का मौक़ा मिलता. बेचारी भंवरी
मुझे कितने दिन याद रहती?
इसी बीच पिछले महीने जब बीकानेर गया तो बाई (मेरी बड़ी बहन
जो कि भंवरी की हमउम्र हैं) ने मुझसे कहा ...... “जानते हो महेंदर अभी चार पांच
दिन पहले मुझसे मिलने कौन आया था ?”
मैंने कहा “कौन?”
“भंवरी”
मैं एक दम जैसे ४४ साल पीछे पहुँच गया...... वो रेगिस्तान
की भयंकर आंधी...... वो ठाकुरों की ढाणी........वो झोंपड़ी में बना ठाकुर साहब का
ज़नानखाना.......उसमें खड़ी भंवरी......... और मुझे बाहर निकलकर जाते हुए देखती
उसकी वो दो नम हुई आँखें....... जैसे सब कुछ फिर से ज़िंदा होकर मुजस्सिम मेरे
सामने खडा हो गया और फिर से मुझे लगा, दो आँखें मेरी पीठ से चिपकी हुई हैं.... दो
नम आँखें..... ख़ुलूस से लबरेज दो नम आँखें.
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