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ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान के जिस हिस्से में थार का रेगिस्तान है, कुछ लाख साल पहले वहाँ समंदर हिलोरें लिया करता था, लेकिन कुदरत का अपना एक निजाम होता है और उसी के मुताबिक कुदरत चलती है. वो समंदर न जाने कैसे वहाँ से किसी दूसरी तरफ मुड गया. वो जहां भी गया होगा, वहाँ जाकर उसने निश्चित ही कहर बरपाया होगा. जाने वहाँ कितने इंसान, कितने जानवर मरे होंगे और जब समंदर यहाँ से हटकर गया होगा तो कितने पानी में रहने वाले जानवरों ने यहाँ अपनी जाने दी होंगी, लेकिन कुदरत पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता. उसे तो जो करना होता है, करना ही होता है.
ऐसा कहा जाता है कि राजस्थान के जिस हिस्से में थार का रेगिस्तान है, कुछ लाख साल पहले वहाँ समंदर हिलोरें लिया करता था, लेकिन कुदरत का अपना एक निजाम होता है और उसी के मुताबिक कुदरत चलती है. वो समंदर न जाने कैसे वहाँ से किसी दूसरी तरफ मुड गया. वो जहां भी गया होगा, वहाँ जाकर उसने निश्चित ही कहर बरपाया होगा. जाने वहाँ कितने इंसान, कितने जानवर मरे होंगे और जब समंदर यहाँ से हटकर गया होगा तो कितने पानी में रहने वाले जानवरों ने यहाँ अपनी जाने दी होंगी, लेकिन कुदरत पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ता. उसे तो जो करना होता है, करना ही होता है.
मैं स्कूल-कॉलेज में पढता था, उस ज़माने
में बीकानेर से अगर अनूपगढ़ जाना होता था तो दिन भर में एक प्राइवेट बस ही एक ज़रिया
था, जिस से अनूपगढ़ जाया जा सकता था. हमारे घर के पास ही से ये बस
रवाना होती थी. बस सुबह ही आकर लग जाया करती थी, लोगों से, सामान से
और भेड बकरियों से भरती जाती थी और फिर ठसाठस भरने के बाद, दिन में बारह बजे वहाँ
से रवाना होती थी. बस के बीच में सीट्स नहीं थीं सिर्फ किनारे किनारे ही पतली सी
सीट हुआ करती थी, ताकि बीच में भेड बकरियों और दूसरे सामान को लादा जा सके. बस की
छत पर भी बैठने का फ्री स्टाइल इंतजाम होता था. यानी कोई सीट नहीं होती थी. जो
सामान छत पर लादा जाता था, उसका सहारा लेकर लोग इधर उधर बैठ जाते थे. मैंने सपने
में भी नहीं सोचा था कि इस तरह की बस में मैं भी कभी सफर करूँगा. उस बस में बैठने
का सोचते ही मुझे घबराहट सी होने लगती थी. उस बस के दोनों तरफ खूंटियों पर एक खास
किस्म की जालियां टंगी रहती थीं. मैं कई बार सोचता था कि बस में भला इन जालियों का
क्या उपयोग होता होगा? और सुना था कि बीकानेर से अनूपगढ़ का १५५ किलोमीटर का ये सफर
तय करने में इस बस को १० घंटे लग जाया करते थे. १९६९ में अमेरिका ने चाँद पर इंसान
को टहला दिया था और हमारे देश में १५५ किलोमीटर के सफर में १० घंटे लग रहे थे. हम
अड़ोसी पड़ोसी उस बस को देखकर बातें किया करते थे कि अगर इस बस में बिठाकर नील
आर्मस्ट्रौंग और उसकी बीवी को चाँद के लिए रवाना किया जाता तो शायद नील
आर्मस्ट्रौंग की ५०वीं पीढ़ी चाँद पर पहुँचती.
कई बरसों से हम लोग सुन रहे थे कि एक नहर
जिसका नाम राजस्थान केनाल है, बनाई जा रही है, जिस दिन वो बन जायेगी, बीकानेर का
पूरा इलाका उसी तरह सरसब्ज़ हो जायगा जिस तरह श्रीगंगानगर का इलाका गंग केनाल से
सरसब्ज़ हुआ. जब मैं सेकंड ईयर में था तो सुना कि राजस्थान केनाल अनूप गढ़ इलाके में
बन चुकी है और सरकार चाहती है कि ऐसे लोग जिनके पास खेती की ज़मीन नहीं है, खास तौर
से ऐसे नौजवान जो खेती करना चाहते हैं और पढ़े लिखे हैं, उन्हें नहर के आस पास
ज़मीनें अलॉट की जाएँ. वो ज़मीनें कुछ बरस खेती करने के बाद उन्हीं लोगों की हो
जायेंगी और उनके पट्टे बना दिए जायेंगे. इस बीच हर साल उन्हें एक बहुत ही मामूली
रकम सरकारी खाते में जमा करानी होगी. पूरे बीकानेर में हर तरफ राजस्थान केनाल और
खेतीबाड़ी की ही चर्चाएं थीं, खास तौर पर बीकानेर के बाहर के इलाके में. आप पूछेंगे
कि बीकानेर के बाहर के इलाके से मेरा क्या मतलब?
दरअसल अब तक बीकानेर शहर की कई खासियतें
मैं आपको बता चुका हूँ, आज एक और खासियत बताने का मन कर रहा है, उम्मीद है कि जो
लिख रहा हूँ, किसी बीकानेर वाले को बुरा नहीं लगेगा. बीकानेर शहर किसी ज़माने में
एक परकोटे में बसा हुआ था. कोटगेट गोगागेट, जस्सूसर गेट, शीतला गेट जैसे कई दरवाज़े
बने हुए थे जिनसे परकोटे या फसील से बाहर आना जाना होता था. महाराजा साहब का पैलेस
जहां वो रहते थे, कोटगेट से करीब ४ किलोमीटर दूर है और जूनागढ़ जो कि बीकानेर का
किला है, कोटगेट से आधा किलोमीटर दूर है. वहीं जूनागढ़ के पास सारे सरकारी दफ्तर
वगैरह पब्लिक पार्क में बने हुए थे. कलक्टर ऑफिस, अदालतें वगैरह आज भी उसी तरह
पब्लिक पार्क में मौजूद हैं, जैसे कि आज से १०० साल पहले थीं. हो सकता है कि जब
शहर बसाया गया था, तो सिर्फ परकोटे के अंदर ही बीकानेर की आबादी बसती थी, फिर धीरे
धीरे लोग परकोटे के बाहर दफ्तरों के आस पास भी बसने लगे, लेकिन ये आज भी एक राज़ ही
है कि फसील के अंदर रहने वाले लोगों और बाहर रहने वाले लोगों के रहन सहन, खान पान,
बोली जुबान सबमे ज़मीन आसमान का फर्क कैसे पैदा हो गया? बीकानेर शहर के परकोटे के
अंदर और जोधपुर के अलावा पुष्करणा ब्राह्मण बहुतायत से शायद आपको और कहीं नहीं
मिलेंगे. उनकी अपनी अलग भाषा है, अपना खानपान है, अपने जीने का एक तरीका है. ९९%
पुष्करणा ब्राह्मण या तो नौकरी करेंगे या पूजा पाठ का काम. बड़ी मुश्किल से अगर
आपको कोई पुष्करणा ब्राह्मण दुकानदारी करता मिलेगा तो वो दुकान खाने पीने की चीज़ों
की ही होगी, जैसे पान, कचोरी, पकौड़ी, दहीबड़ा, कान्जीबड़ा, समोसा, मिठाई वगैरह
वगैरह. शायद इन पुष्करणा लोगों ने व्यापार के लिए ऐसी चीज़ों का चुनाव इसलिए किया
होगा क्योंकि ये खुद खाने पीने की इन चीजों के बेहद शौक़ीन रहे हैं. मिठाई और भांग
इनकी सबसे बड़ी कमजोरी रही है. लहसुन प्याज से कोसों दूर रहने वाले इन पुष्करणा
ब्राह्मणों के मोहल्ले में आज भी अगर कोई लहसुन प्याज खाने वाला चला जाए, तो उसे
किराए पर मकान भी नहीं मिलता. पान तम्बाकू के शौक़ीन पुष्करणा ब्राह्मणों के बच्चे
छोटी उम्र में ही बड़े हो जाते हैं. बड़े इस मायने में कि छुटपन से ही पान और ज़र्दा
इनकी ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा बन जाते हैं और छुटपन में ही इनके यहाँ शादियाँ कर दी
जाती है. बाकी लोगों की तरह इनके यहाँ शादी कभी भी मुहूर्त देखकर नहीं की जा सकती.
जैसे चार साल में एक बार ओलंपिक्स होते हैं ठीक उसी तरह इन लोगों में चार साल में
एक बार कुछ दिन का मुहूर्त होता है और हर आदमी सोचता है कि बच्चा थोड़ा छोटा है तब
भी उसकी शादी कर ही दी जाए वरना चार साल तक इंतज़ार करना पडेगा.
बीकानेर की फसील से बाहर रहने वाले मिली
जुली जातियों, कौमों के लोग हैं जिनका न रहन सहन शहर के अंदर रहने वालों से मिलता
है, न बोल चाल और ना खान पान. एक ही शहर में रहने वाले लोगों के बीच हर मामले में
इतना फर्क, शायद हमारे मुल्क में किसी भी शहर में आपको नहीं मिलेगा. जब पूरे
बीकानेर में गरमागरम चर्चाएं चल रही थी, राजस्थान केनाल की, ज़मीनों के अलॉटमेंट
की, शहर की फसील के अंदर कोई गहमागहमी नहीं थी क्योंकि शहर के अंदर के बाशिंदे
जानते थे कि खेतीबाड़ी उनके बस की बात नहीं है. “जिसका काम उसी को साजे” पर यकीन
रखने वाले लोगों को इससे कोई मतलब नहीं था, लेकिन कोटगेट से बाहर के लोगों में
खलबली मची हुई थी. ऐसा लग रहा था कि हर आदमी बस अब किसान बन जाएगा. हमारे घर में
भी इस सिलसिले में बातें चलने लगीं कि क्यों न कुछ ज़मीन अलॉट करवा ली जाए. थोड़े थोड़े
करके जो रकम भरनी है, वो भर दी जायेगी.
मेरे घर पर मीटिंग्स होने लगीं. मेरे छोटे
मामाजी बाबूलाल जी हरफनमौला थे. उन्होंने कहा, मैं आप लोगों के साथ हूँ. मेरे जीजा
जी जो कि साइकिल के अच्छे बड़े बिजनेसमैन थे, उन्होंने सोचा कि अगर ज़मीन अलॉट हो
रही है तो कुछ ज़मीन ले ली जाए, बच्चों के काम आयेगी. इधर बाबू मामा जी अपनी एक
रिश्ते की मौसी के बेटे काशीराम जी को ले आये, जिन्होंने कहा कि भाई मेरे पास पैसा
वैसा तो है नहीं , हाँ खेती का पूरा तजुर्बा है, अगर आप लोग मुझे शामिल करो तो मैं
खेती में आपकी मदद कर दूंगा, आप लोग मुझे जो फसल हो उसमे वाजिब हिस्सा दे देना.
सबने सोचा चलो , एक इंसान तजुर्बे वाला भी साथ हो गया है.
तय हुआ कि पहले ज़मीनें देखी जाएँ उसके बाद
उनमे से छांटकर वो वो टुकड़े लिए जाएँ, जिनमे डायरेक्ट पानी लगता हो, चाहे उसके लिए
थोड़े ज़्यादा पैसे देने पड़ें. सवाल ये था कि ज़मीनें देखने जाएँ कैसे? अनूपगढ़ की तरफ
जाना था और अनूपगढ़ के लिए बस तो वाहिद वही थी, जो हमारे घर के सामने से जाया करती
थी, जिसमे कुछ इंसान होते थे, कुछ भेड बकरियां और बाकी सामान. मुझे लगा कि पहले ही
क़दम पर घबराने से तो काम नहीं चलेगा. मैं अपने आप को उस बस में लटकने के लिए तैयार
करने लगा. आखिरकार मैं, जीजाजी, बाबू मामा जी और उनके कज़न काशीराम मामा जी, हम
चारों उस बस में सवार हुए. रास्ता थोड़ा खराब था, लेकिन फिर भी कोई खास परेशानी
इसके सिवा नहीं हो रही थी कि कभी कोई बकरी सू सू कर देती थी और कभी कोई भेड
मेंगनिया. तीन घंटे में हम छतरगढ़ पहुँच गए. मुझे लगा सफर उतना बुरा तो नहीं है,
जितना मैं सोच रहा था. पन्द्रह मिनट के आराम के बाद बस फिर से रवाना होने लगी तो
ड्राइवर और खलासी ने पहले सारे पहियों की हवा चैक की, फिर बस के दोनों और टंगी हुई
जालियों को चैक किया गया और फिर दो तीन बार बस का फोर बाई फ़ोर गियर लगा कर चैक
किया गया. मैंने सोचा, अब तक तो ये लोग आराम से चल रहे थे, अब ये सारी चैकिंग
क्यों चल रही है कि बस रवाना हुई और सड़क से नीचे रेत के एक ऐसे घनघोर समंदर में
घुस गयी जिसे सिर्फ देखकर ही समझा जा सकता है. जिन लोगों का रेगिस्तान से कोई
वास्ता न पड़ा हो वो तो उस भयानक समंदर का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. मुझे लगा शायद
ये अभी भी बस की कोई जांच ही कर रहे हैं मगर नहीं, बस रेतके टीलों के ऊपर चढ रही
थी और नीचे उतर रही थी. सड़क कब की पीछे छूट चुकी थी. मैंने मामा जी से पूछा
“मामाजी क्या कुछ दूर सडक टूटी हुई है?कितनी दूर इस तरह रेत के टीलों पर चलना
पडेगा?”
मामाजी जोर से हँसे और बोले ‘महेंदर, बस
सड़क तो छतरगढ़ तक ही थी, अब आगे अनूपगढ़ तक कोई सड़क नहीं है, इन्हीं रेत के धोरों पर
से होकर गुजरना है.”
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. चारों तरफ
एक रेत का समंदर था और उसके बीच हिचकोले खाती हुई हमारी वो बस चल रही थी. कभी इधर
से टेढी हो जाती थी और कभी उधर से. कभी बकरियां हमारे ऊपर आ गिरती थीं और कभी हम
बकरियों पर. हिल हिलकर अंतडियां जैसे मुंह से बाहर आने को हो रही थीं.
थोड़ी दूर ही गए होंगे कि पता नहीं क्या
हुआ कि बस के पहिये रेत के धोरों के अंदर घुसने लगे...ड्राइवर चिलाया “नीचे
उतरो.... सगळा(सब लोग) नीचे उतरो.” मैंने मायूस निगाहों से मामा जी की तरफ देखा.
वो बोले “तू बैठा रह, हम देखते हैं.” लेकिन जब मैंने देखा कि सभी लोग उतरकर बस को
धक्का लगाने की तैयारी में है, मैं भी बस से नीचे कूद पड़ा. अब वो बड़ी बड़ी जालियां
पहियों के आगे रखी गईं ताकि पहिये एक्सिलरेटर देने पर घूमकर रेत में और न धंसें.
हम सबने बस को धक्का लगाया. बस के आगे के पहिये जाली पर आये. ड्राइवर बहुत
होशियारी के साथ बस को रेट के टीबे से निकाल रहा था. अब बस का खलासी दो-दो, दो-दो
जालियां बस के आगे रखता जा रहा था और हम धक्का लगा कर बस को उस धोरे के पार पहुंचा
रही थे. थोड़ी मशक्कत के बाद ड्राइवर फिर चिल्लाया, “बैठो सब लोग फटाफट.” सारे लोग
दौड दौड कर बस पर चढ़े.”
न जाने कितनी बार हम लोग बस से उतरे और
कितनी बार चढ़े. आखिर रात में आठ बजे हम अनूपगढ़ पहुंचे. पता किया कि क्या कोई होटल
है, जहां रुका जा सके? जैसे ही किसी से पूछते “ भाई यहाँ कोई होटल है?” हर इंसान
जवाब देता “ हाँ , थोड़ी सी दूर चले जाओ, एक होटल है.” वहाँ पहुँचते और पूछते “ भाई
ये होटल है ?”
“हाआं”
“रात को रुकना है, आपके पास कमरे का कोई
इंतजाम है?”
“नहीं जी ये तो होटल है , आप सीधे सीधे
बोलो न कि धरमशाला चाहिए”
लोग हँसने लगते, जैसे हमने कोई लतीफा
सुनाया हो.
आखिर एक आदमी ने समझाया कि यहाँ होटल खाने
की जगह को ही बोलते हैं. रातबासा करने के लिए कोई होटल यहाँ नहीं मिलेगी. हम लोग
दिन भर में थककर चूर हो गए थे और भूख भी लग गयी थी, लेकिन धरमशाला में रुकने के
नाम पर मेरे पूरे शरीर में जैसे खुजली चलने लग गयी थी, मुझे कहाँ मालूम था कि एक
दिन ऐसा भी आएगा, जब बोहरा जी के साथ रोहतक जाऊंगा और भयंकर सर्दी में उस धरमशाला
में जाकर दुबकना पडेगा, जिसमे पच्चीसों मोडे(साधू) चिलम से उस से भी ज़्यादा धुंआ
उगल रहे होंगे, जितना धुआं ट्रेन का इंजन उगल रहा था.
हमने सोचा खाना खा लिया जाए, वरना कहीं
ऐसा ना हो कि बाद में खाना भी ना मिले. हमने वहाँ के हिसाब से, एक बेहतरीन जगह पर
बैठ कर खाना खाया. मेन्यू मुझे आज भी याद है. मोटे भुजिया का साग और मोटी मोटी
रोटियां. भूख इतनी तेज लगी थी और कुछ शायद उम्र का भी असर था, वो रोटियां इतनी
स्वाद लग रही थीं कि मैं वो सात आठ रोटियां खा गया. रोटियां खाते ही अब नींद सताने
लगी. गर्मी का मौसम था. जिस खाटपर लकड़ी का पट्टा लगा कर मैं खाना खा रहा था, उसी
पर, वो पट्टा हटाकर लेटा तो पता नहीं, मुझे कब नींद आ गयी. नींद इतनी गहरी थी कि
मेरी आँख सुबह सूर्योदय के बाद ही खुली.
देखा, मेरे साथ आये जीजा जी, और दोनों
मामाजी भी मेरी ही तरह खाट पर लम्बलेट हुए पड़े हैं. थोड़ी देर में होटल वाला आया.
उसने कहा “ बाऊजी आप लोग इस तरह बिना लूण (नमक) लिए सो गए? आप लोग नहीं जानते,
कितना खतरनाक है ये...... वो तो मैं आप सबके सिरहाने लूण की डलियाँ छोड़ गया था,
लेकिन जब तक आपको मालूम ना हो कि आपके सिरहाने लूण पड़ा है, उसके होने का भी क्या
फायदा?”
मैं एक दम चकराया. ये खतरनाक और ये लूण और
ये पता नहीं होना, ये सब क्या माजरा है मुझे कुछ समझ नहीं आया.
मैंने होटल वाले से पूछा “ भाई क्या कह
रहे हो, मुझे समझ नहीं आया. लूण सिरहाने रखने या नहीं रखने से क्या फर्क पड़ता है?
और क्यों रखना होता है लूण सिरहाने?”
वो बोला “अरे बाबूजी आप लोग लगता है, सीधे
शहर से आ रहे हो, हमारी तरफ के गाँव नहीं देखे हैं आप लोगों ने.”
मैंने कहा “हाँ भाई ये तो सही है, लेकिन
ये हमारे मामा काशीराम जी तो हरियाणा में खेती करते थे. इन्होने तो हमें कुछ नहीं
बताया.”
“ये कहाँ से बताएँगे? ये राजस्थान है,
यहाँ में और हरियाणा में बहुत फर्क है.”
“अच्छा अब बताओ, बात क्या है ?”
“बाबूजी, आपने ये तो सुना होगा कि इस
रेगिस्तान में सैकड़ों तरह के सांप होते हैं. आप बिस्वास नईं करेंगे बाबूजी, हमारा
एक दिन ऐसा नईं गुजरता जब कम से कम एक सांप से वास्ता न पड़े. लेकिन इन सब साँपों
में एक सांप ऐसा होता है जो काटता नहीं.”
“तो फिर?”
“वो छोटा सा सांप जिसका नाम पीवणा या पैणा
है, सोये हुए इंसान के सीने पर बैठ कर अपना मुंह खोल देता है, जिसमे ज़हर का एक
छाला होता है. इंसान की सांस की गर्मी से सांप के मुंह का वो छाला फूट जाता है और
ज़हर की बूँद उस सोये हुए इंसान के मुंह में टपक जाती है.”
“अच्छा ?”
“हाँ बाबूजी, लेकिन भगवान की करामात
देखिये, वो जब इंसान के सीने से उतरकर जाने लगता है, तो पूंछ फटकार कर इंसान को
जगाकर जाता है कि “ले मैंने तो तुझे पी लिया है, अब तुझे जो कुछ जतन करना है वो
जतन कर ले.”
हम सब सन्न हो गए थे. मैंने धीरे से पूछा,
“ फिर वो नमक का क्या चक्कर है?”
“बाबूजी हम सब लोग जब रात में सोते हैं,
तो लूण की डलियाँ सिरहाने रखकर सोते हैं. जैसे ही हमें लगता है कि कोई हमारे सीने
पर पूंछ फटकार कर गया है, हम फ़ौरन लूण की एक डली मुंह में डालते हैं अगर वो नमकीन
लगे तो कई ख़तरा नहीं, खींच के सो जाओ, लेकिन अगर वो मीठी लगे तो इसका मतलब ये है
कि पीवणा अपना काम कर चुका है, वो पी चुका है. उठो, सबको उठाओ और इलाज के लिए भाग
दौड शुरू करदो क्योंकि इलाज होना है, तो सुबह होने से पहले ही होना है, सुबह तक
इलाज नहीं हुआ तो फिर राम नाम सत्य ही होगा.”
“फिर...... कोई इलाज है उसका ?”
“हाँ झाड फूँक है, कोई बहुत जाणीकार
झाड़ेवाला ही इलाज कर सकता है. कुल मिलाकर दस में से एक ही इंसान बच पाता है.”
हम सबके चेहरे सफ़ेद हो गए थे.
मेरे भाई साहब डॉक्टर थे और अपनी पूरी
ज़िंदगी रेगिस्तान में ही लोगों का इलाज करते रहे. तरह तरह के स्नेक बाइट के केस भी
उनके पास आते थे और वो बताया करते थे कि जो मरीज़ वक्त पर आ जाया करता था उसकी जान
बच जाती थी. अनूपगढ़ के इस किस्से के बहुत बरसों बाद जिन दिनों मैं आकाशवाणी
इलाहाबाद में था और वो लूनकरनसर में थे तो कुछ दिन की छुट्टियों पर मैं उनके यहाँ
गया हुआ था. एक रात लगभग तीन बजे घंटी बजी, मैंने उठकर दरवाज़ा खोला. कुछ लोग पूछ
रहे थे, “डॉक्टर साब हैं क्या?”
मैंने कहा “ हाँ हैं, क्या बात है?”
“मेरे भाई को पीवणा पी गया है, जल्दी बुला
दो उन्हें.”
मैं भागा हुआ अंदर आया , भाई साब को उठाया
और पीवणे की बात उन्हें बताई. वो आये, उन्होंने उसे देखा और एक बड़ा सा इंजेक्शन
लगाया और कहा इसे यहीं बाहर लिटा दो. थोड़ी देर बाद उसे फिर से कुछ इंजेक्शन लगाए
और सुबह तक वो लड़का काफी ठीक हो गया. गाँव के लोगों का भी यही विश्वास है कि अगर
पीवणे का पिया रात काट ले तो बच जाता है.
दूसरे दिन मैंने भाई साब से पूछा “ये सब
क्या था? ये पीवणा आखिर क्या होता है? क्या ये काटता नहीं पीता है?”
उन्होंने बताया कि उन्होंने ऐसे कई मरीजों
का इलाज किया है और उन्हें बचाया है. उन्होंने कहा “पता नहीं सच्चाई क्या है,
लेकिन इतना कह सकता हूँ कि बहुत ढूँढने पर भी सांप के काटने के निशान मरीज़ के शरीर
पर कहीं नहीं मिलते. रेगिस्तान में बहुत तरह के सांप होते हैं. मेरा मानना ये है
कि कोई ऐसा सांप है, जिसके ज़हर के दांत इतने छोटे होते हैं कि उनके निशान दिखाई
नहीं देते और लोग समझते हैं कि मरीज़ को पीवणे ने पी लिया है. मैं तो उसे जो दो तरह
के एंटी स्नेक वेनम के इंजेक्शन होते हैं,
एक कोबरा के लिए और दूसरा करैत और वाइपर के लिए उनमे से एक लगाता हूँ और वो ठीक हो
जाता है. हकीकत क्या है वो तो भगवान ही जाने.”
फिर बोले, “वैसे अपने इलाके में वाइपर
सांप के कई प्रकार मिलते है. एक है अकिस केरेनेतिस, जो बहुत छोटा सा होता है. उसे
लोग बांडी कहते हैं. ये इतना ज़हरीला और इतना फुर्तीला होता है कि ऊँट पर जा रहे
इंसान को भी उछलकर काट खाता है और अगर मरीज़ फ़ौरन डॉक्टर के पास न पहुंचे तो कुछ ही
घंटो में मरीज़ की मौत हो जाती है. इसका सर काट दिया जाए तो उस सर में भी बहुत देर
तक जान रहती है. एक दिन एक आदमी मेरे पास आया जिसके पैर के अंगूठे पर सांप ने काट
रखा था. वो बहुत घबराया हुआ था. मैंने उससे कहा फ़िक्र मत करो , तुम वक़्त पर मेरे
पास पहुँच गए हो, ठीक हो जाओगे. मैंने उसे एंटी स्नेक वेनम लगाया. उसकी हालत
सुधरने लगी तो मैंने उससे पूछा “ एक बात तो बताओ, ये पैर के अंगूठे के बिलकुल सिरे
पर सांप कैसे काटा तुम्हें? देखकर तो ऐसा लगता है कि तुमने सांप के मुंह में अपना
पैर दे दिया.”
चूंकि अब उसे भरोसा हो गया था कि उसकी जान
बच गयी है, वो थोड़ा सा मुस्कुरा कर बोला “क्या बताऊँ डॉक्टर साहब, मेरा पता नहीं
क्यों, दिमाग ही खराब हो गया था. खेत में काम कर रहा था कि सांप दिखाई दिया, मैंने
हाथ की कस्सी(फावड़ा) को उसके सर पर दे मारा. उसका सर धड से अलग हो गया. मैं अपना
दूसरा कुछ काम करने लगा. थोड़ी देर बाद वापस उस तरफ आया तो देखा सांप का धड ठंडा हो
गया था. मैंने उसे लकडियों पर रखकर आग लगा दी. इतने में मुझे सांप का सर नज़र आया,
पता नहीं क्या सूझी मुझे कि उस सर से एक फुट से भी ज़्यादा दूरी पर मैंने अपना पैर
रखा और गुस्से से दांत पीसकर कहा “ले अब खा.......खा ले अब” और डॉक्टर साहब........
वो सर उछल कर मेरे पैर के अंगूठे से चिपक गया और उसने शायद अपना पूरा का पूरा ज़हर
मेरे अंगूठे में उंडेल दिया.”
भाई साहब ने बताया कि वो आदमी बच गया,
लेकिन वास्तव में उस सांप ने मरते मरते अपना पूरा ज़हर उसके अंगूठे में उंडेल दिया
था इसलिए दूसरे दिन उन्हें उस अंगूठे को काटना पड़ा.
खैर, ये तो अनूपगढ़ में गुजारी उस रात के बहुत
साल बाद की बात है. वो रात बिना पीवणे के बारे में कोई जानकारी के, पूरी रात में एक बार भी नमक की डळी मुंह में
डाले बिना गुज़ार दी थी, लेकिन मन में एक अजीब सा डर बैठ गया था.
अब हमें वो ज़मीनें देखने जाना था जिन्हें
हम खरीदने की सोच रहे थे. इसका एक ही रास्ता था कि हम कोई फ़ोर बाई फ़ोर जीप लेकर,
उस इलाके में निकल पड़ें. हमने इधर उधर तलाश की. एक पुरानी सी जीप का इंतजाम हुआ.
अनूपगढ़ से हमने पटवारी को साथ लिया जो हमें उन ज़मीनों तक पहुंचाने वाला था. इस तरह
ड्राइवर समेत छः लोग हो गए थे. दो आगे बैठे और चार पीछे. पटवारी ने बताया कि एक
जगह है रोजडी. वहाँ नहर बहुत चौड़ी है. अगर पानी पीछे से बंद भी हो जाता है, तो
वहाँ इतना पानी होता है कि कई दिन तक खेतों को पानी की कमी नहीं होती. हम लोग
रोजडी की तरफ निकल पड़े. न कोई सड़क, न कोई पगडंडी..... फिर से वही रेत का समंदर. उस
ज़माने में कम्पास जैसी कोई चीज़ भी बाज़ार में आम तौर पर नहीं मिलती थी. बस एक ही
सहारा होता था दिशा जानने का, वो था सूरज. हम लोग सूरज के हिसाब से ही दिशा पकड़कर
रोजडी की तरफ बढ़ रहे थे. जीप शायद उन धोरों में २० किलोमीटर फी घंटे से ज़्यादा
रफ़्तार से नहीं चल रही थी. रात होते होते हम लोग रोजडी पहुंचे. शुक्र ये कि हमारे
साथ में पटवारी था, जिसे लोग पहचानते थे. एक छोटी सी झोंपड़ी के सामने जीप रोकी
गयी. एक आदमी बाहर आया. पटवारी ने उसे बताया कि हम ज़मीनें देखने आये हैं हमारे
खाने, सोने का इंतजाम करे. उस बेचारे आदमी के चेहरे को मैंने देखा, मुझे लगा उसे
पसीना आ गया. इतनी छोटी सी जगह में छः लोगों का इंतजाम करना आसान काम नहीं था
लेकिन गाँव में पटवारी भी एक बड़े अफसर की हैसियत रखता है सो उस बेचारे को कुछ
इंतजाम तो करना ही था. उस ने कई झोंपडियों में जाकर कुछ चारपाइयों का इंतजाम किया
और खाना बनवाने लगा. चारों तरफ घुप्प अन्धेरा.... शायद अमावस्या या चौदस की रात
थी. मुझे लगा कि मुझे सू सू करके आना चाहिए. मैं जो अब तक जीप पर ही बैठा हुआ था,
टॉर्च लेकर जैसे ही नीचे कूदा कि मेरे पैर के पास से एक सांप सर्र से निकल गया.
मैं एकदम घबडा गया. मैंने उस तरफ टॉर्च की रोशनी डाली, जिधर से आवाज़ आई थी. देखा
एक सांप टेढा चलता हुआ तेज़ी से जा रहा है. मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पटवारी जी
मुस्कुरा कर बोले “कँवर साब यहाँ इन चीज़ों से घबराने से काम नहीं चलेगा. ये तो
अपने बेली (पंजाबी में दोस्त) हैं.” डरते डरते किसी तरह मैं फारिग होकर फिर एक खाट
पर पैर ऊपर करके बैठ गया.
थोड़ी देर में थालियों में खाना परोसकर
हमारे सामने रखा गया. मैंने देखा, मेन्यू वही था, पिछली रात वाला. यानी मोटे
भुजिया का साग और मोटी मोटी रोटियां. मैं खाने पर बुरी तरह टूट पड़ा.
खाना खाने तक तो सब ठीक था, लेकिन उसके
बाद खुले मैदान में उन नीची नीची खाटों पर हमें सोना था. जिस शख्स ने हमारे लिए
खाना बनाया था उसने किचन समेटी और हमारे पास आया. मैंने पूछा, “क्या बात है भैया
?” उसने मेरे हाथ में नमक के तीन चार बड़े बड़े डळे रखते हुए कहा “इनका इस्तेमाल तो
आप जानते ही होंगे....... अगर रात में लगे कि कोई आपकी सीने पर मार कर गया है, तो
एक डळी मुंह में डालना. अगर मीठा लगे तो सबको उठा लेना, ज़रा भी संकोच किया तो जान
से जाओगे.”
मेरी सारी नींद हवा हो चुकी थी. सुबह सर बहुत
भारी भारी लग रहा था, क्योंकि उस पूरी रात
मुझे नींद नहीं आयी...... बिलकुल नहीं आयी. सुबह हम लोग उस तरफ चल पड़े जहां नहर
थी. पटवारी ने हमें अपने नक़्शे निकालकर वो सारी ज़मीनें दिखाईं, जिनके बारे में हम
लोगों में बातचीत हो चुकी थी.हालांकि उस वक्त थे तो वहाँ रेत के धोरे ही धोरे,
लेकिन नहर के दोनों तरफ की ज़मीनें थी. पटवारी ने बताया कि इन धोरों को पाटने के
बाद ये शानदार खेत बन जायेंगे. हमने डील करीब फाइनल कर ली तो पटवारी ने कहा, “मुझे
किसी दूसरे क्लाएंट के पास जाना है. आप लोग यहाँ से अनूपगढ़ लौट जाएँ.” और वो वहाँ
से इस तरह गायब हुआ, जैसे गधे के सर से सींग.
हम लोग जीप पर सवार होकर अनूपगढ़ की तरफ
बढ़ने लगे. १५ मिनट भी नहीं हुए थे कि जीप का आगे का टायर भडाम से बर्स्ट हो गया.
ड्राइवर ने हमारी मदद से स्टेपनी लगाई और हम फिर चल पड़े अनूपगढ़ की तरफ, लेकिन हमें
लगा हम रेत के टीलों में गोल गोल चक्कर लगा रहे हैं, किसी भी दिशा में आगे नहीं बढ़
पा रहे हैं. जब सूरज उगता है या अस्त होता है तब तो वो सही दिशा दिखाता है मगर
दोपहरी में वो भी साफ़ साफ़ किसी दिशा की ओर इशारा नहीं करता बल्कि इंसान को
कन्फ्यूज़ ही करता है. करीब तीन घंटे हम चक्कर लगा चुके थे कि अचानक जो स्टेपनी
ड्राइवर ने लगाई थी वो भी एक जोर की आवाज़ के साथ बर्स्ट हो गयी और इसके साथ ही हम
चारों के दिल, धक धक करके बंद होने की हालत में आ गए. अब समझ नहीं आ रहा था कि
आखिर क्या किया जाए. रेत के समंदर में इन्सान तो दूर, कोई चिड़िया का बच्चा भी नज़र
नहीं आ रहा था. ड्राइवर ने धोरों पर उगी हुई झाडियाँ तोड़ीं और हमने एक जो थोड़ा ठीक
ठाक सा टायर था, उसमे उन झाडियों को कूट कूटकर भरा और उसे जीप में लगाकर फिर रवाना
हुए.....करीब एक घंटा चल चुके थे, हमने नहर की पटरी पकड़ी और उस पर चलने लगे, लेकिन
जिस तरफ का पहिया हम बिना ट्यूब के चला रहे थे, उसी तरफ नहर थी. घच्च घच्च करके चल
रही जीप ऐसा लग रहा था कि किसी भी लम्हे उस नदी जैसी चौड़ी नहर में उलट जायेगी.
मुझे थोड़ा बहुत तैरना ज़रूर आता था, लेकिन अगर जीप नहर में गिर जाती तो उस विशाल नहर
में डूब कर जान देने के सिवा और कोई इमकान नहीं लग रहा था. बाकी लोगों को तो मेरे
जितना भी तैरना नहीं आता था. हारकर जीप उस पटरी से उतारकर, हम फिर से धोरों में ही
चलने लगे. शाम भी बहुत दूर नहीं थी. अब हम सभी को घबराहट होने लगी थी कि क्या
करेंगे? बस एक ही सहारा था कि हमें बार बार नहर से निकली हुई कोई न कोई धारा टकरा
जाती थी तो इस बात का ढाढस था कि हम प्यास से नहीं मरेंगे, लेकिन हमें सही रास्ता
नहीं मिल रहा था. अचानक बहावलपुरी पोशाक में एक इन्सान दूर जाता हुआ हमें नज़र आया.
हम सब एक साथ चिल्ला पड़े. वो आदमी रुक गया. हमने उससे कहा “ भाई हम रास्ता भटक गए
हैं.... आप हमें रास्ता बताकर हमारी मदद करो.”
वो बोला “आथूणे(पश्चिम) सीधे तीन मील निकळ
जाओ, गाँव फोट अब्बास आ जाएगा.”
जीजाजी ने पूछा “भाई कौन सा गाँव आएगा?”
“फोट अब्बास है, खीचिवाला है, खैरपुर है.”
ये सारे नाम हमारे लिए बिलकुल अनजान थे.
जीजाजी ने कहा “ उससे आगे कौन सा शहर आएगा?”
उसने जो जवाब दिया, उसे सुनकर, हमारे
पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी. उसने कहा “देखो साईं फिकर मत करो, ये टीबा पार करते
ही फिर अपना पाकिस्तान ही है सारा. बोहत सारे गाम मिल जायेंगे, इंशाल्लाह शहर भी
मिल जायेंगे.”
यानी हम पाकिस्तान से सिर्फ एक रेत का
टीला दूर रह गए थे. उस ज़माने में सरहद पर तारबंदी नहीं हुई थी. जहां पोस्ट्स थीं
वहाँ तो पता लगता था कि यहाँ सरहद है, बाकी जगह तो रेत के टीले ही टीले थे बस.
हमने उसे हाथ जोड़कर कहा “ भाई हम लोग हिन्दुस्तानी हैं, हमें हिन्दुस्तान का कोई
गाँव बताओ.” उसने कहा “अरे अरे भागो आप लोग जल्दी से उल्टी तरफ, नहीं तो मुसीबत
में पड जाओगे. अगर किसी रेंजर ने देख लिया तो फ़ौरन गोली मार देगा सबको.”
हम अपनी घच्च घच्च करती जीप से उल्टी दिशा
में भागे. शाम हो रही थी. एक ऊंचा, बहुत ऊंचा टीबा आया.... हमने सोचा इसके पार
शायद ज़मीन हमवार होगी, हम उस टीबे पर चढ गए और जो दूसरी तरफ लुढके तो जीप के टायर
लुढकते ही चले गए. शाम हो चुकी थी और हमें महसूस हो गया था कि हम किसी गहरे गड्ढे
में उतर गए है. जिधर भी टॉर्च की रोशनी डाली उधर बस ऊंचा टीला नज़र आ रहा था. जीप
भी बंद हो चुकी थी. हमें बार बार साँपों की फुफकारें सुनाई दे रही थीं. लग रहा था
जीप के नीचे साँपों का मेला लगा हुआ है. एक बार तो हमें लगा कि ये हमारी ज़िंदगी की
आख़िरी रात है क्योंकि साँपों के लिए जीप पर चढना कोई मुश्किल काम नहीं होता और उस
कुआँरे जंगल में जहां हजारों लाखों बरसों से किसी इन्सान के पैर नहीं पड़े थे, बस
इन जंगली जानवरों का ही राज पाट था. ड्राइवर ने कहा, “सब लोग दम साध कर बैठ जाओ,
अगर कोइ सांप जीप पर चढता भी है, तो हिलना डुलना नहीं है. अगर हिलेंगे डुलेंगे तो
सांप डरकर काट सकता है. हम बुरी तरह फँस
गए थे. टॉर्च की बैटरी भी कमज़ोर पड़ने लगी थी इसलिए उसे हम लोग कभी कभी ही जला रहे
थे. सबको अपने अपने दिल की धडकन साफ़ सुनाई दे रही थी.
वो रात इतनी लंबी हो गयी थी कि कटने का
नाम ही नहीं ले रही थी. पता नहीं कितने बरस उस एक रात में गुजर गए. सूरज निकला, तो
हमने देखा एक बहुत गहरे लेकिन काफी चौड़े गड्ढे में हमारी जीप फसी हुई थी. दिन निकल
चुका था इसलिए सब कुछ साफ दिखाई दे रहा था. हमने धक्के दे देकर जीप को निकालने की
बहुत कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुए. आखिर हमने तय किया कि जीप को यहीं छोड़कर
पैदल यहाँ से बाहर निकला जाय. जीप का ड्राइवर भी इसके लिए तैयार हो गया. तभी हमें
गोलियां चलने की आवाज़ सुनाई दी. मेरे मुंह से निकला “अरे ये तो १२ बोर की आवाज़ है.... यानी कोई आस
पास शिकार कर रहा है.” मैं सबसे छोटा था उस ग्रुप में. सब बोले “हो सकता है फ़ौजी
लोग गोलियाँ चला रहे हों, तुम्हें कैसे पता कि ये १२ बोर की आवाज़ है?”
मैंने उनसे कहा “ मैं एन सी सी में हूँ
मुझे पहचान है. चलिए इस टीबे के ऊपर चलते हैं.” हम टीबे के ऊपर आये तो हमें दूर एक
जीप दिखाई दी. हम सब मिलकर चिल्लाये, तो जीप चला रहे शख्स को हमारी आवाज़ सुनाई दी
और उसने इशारा किया कि हम रुकें, वो आ रहा है.
कोई सात आठ मिनट बाद एक बड़ी बड़ी मूंछों
वाला इन्सान हमारे सामने खडा था. उसकी जीप के पीछे की तरफ ढेर सारे तीतर बटेर
छर्रे खाए हुए पड़े थे.
“मैं कुम्भाने गाँव का ठाकर हूँ. आप लोग
कौन हैं?”
जीजाजी ने जब गोपाल लाल एंड संस का हवाला
देते हुए अपना परिचय दिया तो ठाकर साहब ने कहा “ आप लोग घबराएं नहीं, मेरे पास
रस्सा है. आपकी जीप को बांधकर गड्ढे से निकालते हैं, फिर सोचते हैं कि क्या किया
जाए. हम सबने ठाकर साहब की मदद से जीप बाहर निकाली और उसे खींचकर ठाकर साहब की
ढाणी तक ले गए. वहाँ उनके कई नौकर चाकर थे. हम लोग वहाँ नहाये, हमारे लिए खाना
बनवाया गया. मेन्यू वही था, मोटे भुजिया का साग और रोटी. ठाकर साब बोले, “आज आप
लोग आराम करो. कल मैं अपनी जीप से आप लोगों को बीकानेर भिजवा दूंगा और भाई
ड्राइवर, तूं सुन, टायर ट्यूब मेरे से ले ले और अनूपगढ़ चला जा यहाँ से, एक छोरा
तेरे साथ भेज दूंगा.”
हम लोगों ने एक दिन उनसे मेहमाननवाजी
करवाई. रात को खाना वाना खाकर बैठे बातें कर रहे थे कि एक नौकर एक प्लेट लेकर आया,
मैंने सोचा सौंफ होगी. हाथ आगे बढ़ाया तो हाथ में कुछ कंकर कंकर से महसूस
हुए....... देखा नमक की डळियाँ थीं. ठाकुर साहब हंसकर बोले “कंवरां यहाँ रहोगे तो
ये परसाद तो सिरहाने रखना ही पडेगा.”
मैं एक बार फिर पीवणे की कल्पना से काँप
उठा, फिर धीरे से चार पांच डळियाँ उठाकर तकिये के नीचे रख ली. मुझे कहाँ पता था कि
ये साँपों से मेरी पहली मुलाकात थी आख़िरी नहीं. जब ज़मीनें ले ली गईं और खेती होने
लगी तो किन हालात में मुझे खेतों में जाकर रहना पड़ा और कितने साँपों से वास्ता
पड़ा, ये एक लंबी कहानी है जो आगे किसी और एपिसोड में आपको सुनाऊंगा.
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