रेडियोनामा पर जानी-मानी रेडियो-शख्सियत महेंद्र मोदी रेडियोनामा पर अपनी जीवन-यात्रा के बारे में बता रहे हैं। तो आज सातवीं कड़ी में पढिए कुछ मार्मिक यादें।
जिस उम्र में स्कूल में पेन-पेन्सिल खो जाना या होम वर्क न कर पाने पर अध्यापक की डांट पड़ जाना या फिर किसी खिलौने का टूट जाना बहुत बड़ी दुर्घटना लगती है, उस उम्र में मैंने अपने प्यारे दोस्त कल्याण सिंह को इस तरह खो दिया था. मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये आखिर हुआ क्या है? मौत से ये मेरा पहला आमना-सामना था.......नहीं नहीं..... शायद ये कहना ठीक नहीं होगा कि मौत से ये मेरा पहला साबका था क्योंकि सरदार-शहर के कसाइयों के उस मोहल्ले में,कोठरी में बंद झुण्ड में से छांट कर लाने से लेकर ज़िबह किये जाने और जान निकलने तक लम्हा लम्हा मरते हुए उन बेजुबान जानवरों को अपनी खिड़की से न चाहते हुए भी मैं रोज देखा करता था.......वो छटपटाते थे मौत के पंजों से बचने के लिए मगर........मौत अट्टहास कर उठती थी और वो तब तक चीखते रहते थे जब तक कि .........आधी कटी गर्दन से उबलता हुआ खून धरती को पूरी तरह भिगो नहीं देता था.......कुछ ही देर में उनकी आँखें पथरा जाती थीं और कुछ हाथ तैयार हो जाते थे गर्दन को धड से अलग कर खाल उतारने के लिए. पास की कोठरी में बंद बाकी बकरे जो इतनी देर तक सांस रोके उस कट रहे बकरे की चीखें सुन रहे होते.... अब मिमियाने लगते थे....इसी उम्मीद में कि शायद... आज उनकी जान बच गयी......
न जाने क्या हो गया था मुझे, जब भी किसी कसाई के घर में कोई बकरा कटता, उसकी हर चीख के साथ मेरी आँखों के सामने कल्याण सिंह का चेहरा उभर आता और मुझे लगता कुछ हाथ उसे कसकर पकडे हुए हैं और दो हाथ धीरे धीरे उसका गला रेत रहे हैं और.... और..... उन कई जोड़ा हाथों में से एक जोड़ा हाथ मेरे भी हैं.........मैंने ही थाम रखा है उसके जिस्म को और कोई रेत रहा है उसका वो मासूम गला जिसने अपने जीवन के १२ सावन भी नहीं देखे थे....... और मैं चौंक कर जाग जाता था..... देखता मैं छत कि मुंडेर पर खड़ा हूँ और मुझे माँ और पिताजी ने दोनों तरफ से थाम रखा है. मैं पूछता “......क्या हुआ?” पिताजी कहते “कुछ नहीं, तुम सो जाओ.” और मैं अपने बिस्तर पर आकर सो जाता.... हर रोज यही सिलसिला..... मैं आधी रात को उठकर चल पड़ता था उस ओर जिधर से कल्याण सिंह की चीखें मुझे बुलाती थीं ........ माँ और पिताजी परेशान हो गए थे क्योंकि जिस छतपर हमलोग सोते थे उसकी दीवारें बहुत छोटी थीं. पूरी रात वो दोनों जागते रहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं ऐसा न हो, उनकी आँख लग जाए और नींद में चलते हुए मैं उस छोटी सी दीवार से नीचे गिर जाऊं.
पिताजी मुझे लेकर स्कूल गए.....स्कूल के प्रधानाध्यापक जी ने बहुत स्नेह से मेरी पीठ पर हाथ रखा और कहा “बेटा तुम तो बहुत बहादुर बच्चे हो, जाओ, अपनी क्लास में जाओ.” मैं अपनी क्लास में पहुंचा, देखा सबसे आगे की लाइन में दूसरी डेस्क पर बैठा हुआ कल्याण सिंह मुस्कुराते हुए मुझे बुला रहा है. मुझे लगा “मैं यूं ही डर रहा था... कल्याण सिंह तो वहीं बैठा है ... अपनी पुरानी जगह पर....” मैं डेस्क पर पहुंचा तो अचानक कल्याण सिंह चीख पड़ा...... ये चीख बिल्कुल वैसी ही थी जैसी मैं हर रोज अपने घर की खिड़की में खड़े होकर अपने आस पास के घरों में से आते हुए सुनता था.... मुझे लगा कोई कल्याण सिंह के गले पर छुरी फेर कर उसे रेत रहा है और कल्याण सिंह के गले से एक दबी हुई चीख निकल रही है..... मुझे चक्कर सा आया और मैं बेहोश होकर गिर पड़ा.मुझे होश आया तो मैं घर पर था. पिताजी माँ से कह रहे थे “तुम लोग बीकानेर चले जाओ, मुझे नहीं लगता कि महेन्द्र को इन हालात में यहाँ रहना चाहिए.” मैं आँखें बंद किये हुए ये सब सुन रहा था.......पता नहीं कब फिर मेरी आँख लग गयी. जब आँख खुली तो देखा सुबह का समय था वो.... मैं शायद पूरी रात सोता रहा था मगर आज भी याद है मुझे... मैं उस पूरी रात कल्याण सिंह के साथ था, कभी स्कूल के प्ले ग्राउंड में, कभी प्रार्थना स्थल पर और कभी क्लास में उस छोटे से डेस्क पर उस से बिल्कुल सटकर बैठे हुए.........मुझे बाद में पिताजी ने एक बार बताया कि दरअसल उस पूरी रात में बिस्तर पर नहीं सोया था, इधर से उधर टहलता रहा था.
आखिरकार मुझे लेकर मेरी माँ बीकानेर लौट आईं. भाई साहब पहले से ही यहाँ ताऊजी यानि ‘बा’ के घर राम भाई साहब और गायत्री भौजाई के पास रह रहे थे. मेरा दाखिला फिर से गंगा संस्कृत स्कूल में करवा दिया गया...... करनी सिंह, आशुतोष कुठारी झंवर लाल व्यास और दूसरे दोस्तों ने देखा कि मैं बदल गया हूँ, बिल्कुल बदल गया हूँ. इस दुर्घटना ने एक ही झटके में, बड़ी बेरहमी से जैसे मुझसे मेरा बचपन छीन लिया था. ऐसे में मुझे बहुत बड़ा मानसिक सहारा दिया, मेरे प्रधानाध्यापक पंडित गँगाधर शास्त्री जी ने. उन्होंने देखा कि खेलकूद में मेरी रुचि बिल्कुल खत्म हो गयी थी और मैं बहुत गंभीर रहने लगा था. उन्होंने मेरे बदले हुए स्वभाव को समझते हुए, मुझे कुछ बहुत अच्छी अच्छी पुस्तकें दीं और कहा “देखो बेटा, जब मन बहुत अशांत हो तो ये पुस्तकें पढ़ा करो...... मन को बहुत शान्ति मिलेगी.” और सचमुच उन पुस्तकों ने मुझे बहुत संभाला. पुस्तकें मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गईं. पुस्तकें पढ़ने की ऐसी आदत लग गयी कि अपने ३६ बरस के कार्यकाल में जिस जिस केन्द्र पर मेरी पोस्टिंग रही, मैंने वहाँ की लायब्रेरी को पूरी तरह से पढ़कर ही छोड़ा. इसी बीच पण्डित जी ने मुझे तैयारी करवा कर संस्कृत की दो परीक्षाएं और पास करवा दीं, “संस्कृत प्रबोध” और “संस्कृत विनोद”. इस तरह सातवीं क्लास में मैंने संस्कृत में स्नातक स्तर की परीक्षा पास कर ली थी. यहीं से भाषाओं के प्रति मेरे मन में रुचि जागनी शुरू हो गयी. आगे जाकर मैंने बाक़ायदा उर्दू और पंजाबी सीखी, टूटी फूटी रूसी अपने “बा” की मदद से और जर्मन अपने इलाहाबाद प्रवास के दौरान विभास चंद्र की सहायता से सीखी.सातवीं क्लास पास करने के बाद मैंने एक बार फिर स्कूल बदला. घर में सबकी राय थी कि चूंकि नौवीं क्लास में मुझे साइंस लेनी है, बेहतर ये होगा कि मैं आठवीं में ही सादुल स्कूल ज्वाइन कर लूं ताकि एक साल में मैं अपने आपको नए स्कूल के वातावरण में ढाल सकूं. स्कूल बदलना मुझे हमेशा तकलीफ देता था, इस बार भी मैं थोड़ा परेशान हुआ, मगर इत्तेफाक से श्याम सुन्दर मोदी, श्याम प्रकाश व्यास, ब्रजराज सिंह जैसे कुछ पुराने दोस्त जो मेरे साथ राजकीय प्राथमिक पाठशाला संख्या ९ में थे, यहाँ मुझे मिल गए थे. इनके साथ साथ शशि कान्त पांडे और हरि प्रसाद मोहता जैसे कुछ नए दोस्त भी बन गए. आगे जाकर यही शशि आकाशवाणी में भी न केवल मेरा सहकर्मी बना बल्कि, न जाने किस किस तरह की कितनी मुसीबतों में उसने रेडियो के लोगों के मिज़ाज के बिल्कुल खिलाफ एक सच्चे दोस्त की तरह मेरा साथ दिया. मैं जब आकाशवाणी, बीकानेर में था तो क़मर भाई ने एक बार कहा था, रेडियो में सहकर्मी तो खूब मिलेंगे तुम्हें, मगर रेडियो में दोस्त ढूँढने की कोशिश कभी मत करना. जब भी ऐसा करोगे, याद रखना एक गहरी चोट खाओगे. क़मर भाई के बारे में विस्तार से आगे चलकर लिखूंगा, जब आकाशवाणी बीकानेर की बात चलेगी, अभी तो यही कहूँगा कि उन्होंने बिल्कुल सही सीख दी थी मुझे. ३६ साल की नौकरी में, कई बार क़मर भाई की सीख को भुलाकर भी मैं अपने रेडियो के सहकर्मियों में से कुल २० दोस्त भी नहीं जुटा सका.
इसी बीच एक और तब्दीली आई मेरी ज़िंदगी में. मेरे छोटे मामाजी जो पहले जयपुर में रहते थे, अब बीकानेर आ गए थे. उनका दिमाग तकनीकी कामों में बहुत चलता था. उन्होंने बीकानेर आकर एक स्टील फ़र्नीचर का कारखाना लगाया......आर सी ए इंडस्ट्रीज़. ये कारखाना मेरे स्कूल और घर के बीच में पड़ता था. मामाजी के कारखाने में अच्छा खासा स्टाफ था मगर मामाजी खुद भी हमेशा मशीनों से जूझते रहते थे. स्कूल से लौटते हुए मैं अक्सर उनके कारखाने में रुक जाया करता था और वो जो भी काम कर रहे होते थे, मैं उस काम में उनका हाथ बंटाने लगता. मुझे बड़ा अच्छा लगता था मशीनों को खोलना, उन्हें ठीक करना और फिर वापस वैसे का वैसा जोड़ देना. उन दिनों घर में अक्सर ये चर्चा चलती थी कि नौवीं कक्षा में मुझे क्या विषय लेने हैं.मामाजी ने सलाह दी कि मुझे गणित विषय लेकर इंजीनियरिंग में जाना चाहिए क्योंकि मेरा दिमाग इस तरह के कामों में अच्छा चलता था. इस तरह मामाजी के उस कारखाने में कभी कभार उन मशीनों से जूझते हुए मेरे जीवन की दिशा तय होने लगी. मैंने नौवीं में गणित ली भी और इंजीनियरिंग में दाखिला भी लगभग ले ही लिया था मगर होनी को तो मुझे माइक्रोफोन के सामने लाकर खड़ा करना था जहां मुझे अपने अनगिनत श्रोताओं से जुड़ना था. मगर मशीनों में इस रुचि ने मुझे रेडियो के मेरे पूरे जीवन में बहुत से नए नए अनुभव भी दिए, कई बार लताड़ भी पड़वाई और कई अवसरों पर शाबाशी भी दिलवाई. हालाँकि जीवन भर अपने अधिकाँश इंजीनियर साथियों से मेरे अच्छे सम्बन्ध रहे मगर मशीनों से जूझ जाने की इसी आदत की बदौलत मुझसे पंगा लेने वाले कुछ इंजीनियरों को कई बार मैंने मज़ा भी चखाया. यहाँ एक मज़ेदार किस्सा याद आ रहा है जो हालाँकि मुझे कुछ आगे जाकर लिखना चाहिए था, जबकि मैं आकाशवाणी बीकानेर के अपने कार्यकाल की बात करता मगर कहीं ऐसा न हो कि एक बार रेडियो ज्वाइन करने तक पहुँच कर कैक्टस के काँटों में इतना उलझ जाऊं कि ऐसी हल्की फुल्की बातें ज़ेह्न से ही उतर जाएँ.ये बात है सन १९७७-७८ की. मैं आकाशवाणी, बीकानेर में ट्रांसमिशन एक्जेक्यूटिव था. हमारे स्टेशन इंजीनियर थे श्री घनश्याम वर्मा. पूरे सफ़ेद बाल, गोरे चिट्टे, कड़क आवाज़. कुल मिलाकर प्रभावशाली व्यक्तित्व. आकाशवाणी में जहां प्रोग्राम स्टाफ और इंजीनियरिंग स्टाफ कंधे से कंधा मिलाकर काम करता आया है वहीं कभी कभी कुछ ऐसे अफसर आ जाते हैं जो इंजीनियरिंग और प्रोग्राम स्टाफ के बीच खाई पैदाकर अपने आपको महान साबित करने की कोशिश करते हैं. इत्तेफाक से वर्मा साहब उसी तरह की ज़ेहनियत के इंसान थे. मशीनों के मामले में वो आकाशवाणी का सबसे बुरा समय था. जापान के निप्पन रिकॉर्डर जा रहे थे और थोक के भाव न जाने किस किस स्तर पर रिश्वत खा खिलाकर उसके बलबूते पर एकदम कचरे से भी गए गुज़रे बैल के रिकार्डर और डैक आकाशवाणी में भर दिए गए थे. बेचारे इंजीनियरिंग एसिस्टेंट और टेक्नीशियन रात और दिन उन्हें ठीक करने में ही जुटे रहते थे. हम प्रोग्राम के लोग इन मशीनों पर काम करते करते इनकी बहुत सी कमजोरियों को जान गए थे. एक दिन एक मशीन कुछ गडबड कर रही थी. बहुत माथापच्ची चल रही थी. वर्मा साहब भी वहीं मौजूद थे कि न चाहते हुए भी मेरे मुँह से एक जायज़ सी राय निकल गयी....... बस मेरा बोलना था और वो चिल्ला पड़े “आप चुप रहिये मिस्टर मोदी, ये इंजीनियरिंग का मामला है, इसमें अपनी टांग मत अड़ाइये.” मेरा चेहरा उतर गया......पन्द्रह बीस लोगों के बीच उन्होंने मेरा पानी उतार दिया था. मैंने धड़ाम से स्टूडियो का दरवाज़ा बंद किया और बाहर आ गया. शुरू से मिज़ाज थोड़ा गर्म ही रहा...... इस तरह बेइज्ज़त होना बहुत खल गया और मैं वर्मा साहब को झटका देने का रास्ता तलाशने लगा.
हम लोगों को रोज शाम को ५.५५ पर दिल्ली से और ६.०० बजे जयपुर से आनेवाला कार्यक्रम विवरण रिकॉर्ड करना होता था ताकि अगर कोई महत्त्वपूर्ण दिल्ली या जयपुर से आनेवाला है तो हम अपने कार्यक्रमों को निरस्त कर उन कार्यक्रमों को रिले करने का निर्णय ले सकें.कार्यक्रम विवरण की ये रिकॉर्डिंग डबिंग रूम में की जाती थी जिसमें तीन रिकार्डर लगे रहते थे. हर स्टूडियो की लाइन इस रूम में आती थी और एक कंसोल पर कुछ बटन लगे हुए थे जिनको दबाकर आप किसी स्टूडियो में चल रहे प्रोग्राम को रिकॉर्डर पर लेकर उसे रिकॉर्ड कर सकते थे. इस कंसोल की एक कमज़ोरी मैंने पकड़ी और बस उस कमज़ोरी ने मुझे बहुत अच्छा मौक़ा दे दिया वर्मा साहब को झटका देने का. हुआ ये कि अचानक एक दिन ६.०० बजे जब आकाशवाणी बीकानेर से कार्यक्रम विवरण पढ़ा जा रहा था, धीमे स्वर में आकाशवाणी, बीकानेर के उद्घोषक की आवाज़ के पीछे पीछे न समझ में आने वाला कोई कार्यक्रम चल रहा था. कंट्रोलरूम में दौड भाग मच गयी मगर जैसे ही कार्यक्रम विवरण खत्म हुआ, पीछे चलनेवाला कार्यक्रम भी रुक गया. इंजीनियर्स ने वार्ता स्टूडियो, जहाँ से प्रसारण होता था, का माइक बदल दिया ये सोचकर कि शायद माइक में कोई समस्या हो. अगले दिन फिर मेरी शाम की ड्यूटी थी. कार्यक्रम विवरण का समय हुआ और फिर उसके पीछे पीछे न समझ में आने वाला कुछ प्रसारित होने लगा. कंट्रोलरूम के इंजीनियर्स ने वर्मा साहब को फोन किया.... वो बोले “अभी एक बार स्टूडियो बदल दो तब तक मैं आता हूँ.और हाँ... मेरे लिए गाड़ी भेज दो.”ये सब होते होते पांच मिनट का कार्यक्रम विवरण समाप्त हो गया. प्रसारण को वार्ता स्टूडियो से नाटक स्टूडियो में स्थानांतरित कर दिया गया. वर्मा साहब तशरीफ़ ले आये और आते ही वार्ता स्टूडियो को पूरा खुलवा डाला. स्टूडियो के कनेक्शन उधेड़ते उधेड़ते रात के ग्यारह दस हो गए.... सभा समाप्त हो गयी, मैं और उद्घोषक घर के लिए रवाना हो गए मगर वर्मा साहब और उनकी टीम के ५-७ लोग रात भर स्टूडियो में लगे रहे. दूसरे दिन मेरी दिन में ड्यूटी थी.... जब दस बजे ऑफिस पहुंचा तो सुना कि वर्मा साहब रात भर स्टूडियो में थे, सब कुछ ठीक हो गया है और अब कोई गडबड नहीं होगी. उस दिन तो गडबड होनी भी नहीं थी क्योंकि मेरी तो दिन की ड्यूटी थी और ५ बजे मुझे तो घर चले जाना था. बड़ी शान से वर्मा साहब ने हमारे डायरेक्टर साहब को बताया कि कुछ टेक्नीकल गडबडी थी वार्ता स्टूडियो में, उसे ठीक कर दिया गया है.दो दिन सब कुछ ठीक रहा. दो दिन बाद मेरी ड्यूटी फिर शाम की लगी और जैसे ही ६.०० बजे.......आकाशवाणी, बीकानेर के उद्घोषक की आवाज़ के पीछे पीछे कुछ अस्पष्ट और न समझ आने वाले शब्द सुनाई देने लगे. कंट्रोलरूम फिर परेशान. वर्मा साहब भी रेडियो सुन रहे थे......उन्होंने भी वो सब कुछ सुना.....५ मिनट गुज़र गए.... अगले दिन डायरेक्टर साहब ने उन्हें बुलाकर पूछा तो बोले “शायद स्टूडियो बिल्डिंग और ट्रांसमीटर के बीच की लाइन में लीकेज है. लगता है उसकी खुदाई करवानी पड़ेगी.” डायरेक्टर साहब बोले “देखिये ये इंजीनीयरिंग का मामला है, क्या करना है, क्या नहीं करना है वो आप जानें.... मगर जैसे भी हो जल्दी से जल्दी इसे ठीक करवाइए.” उस मीटिंग में गर्दन झुकाए मैं भी बैठा हुआ था.... मन ही मन मुझे मज़ा तो आ रहा था मगर न जाने कैसे मन के भाव चेहरे पर उभर आये. मेरे डायरेक्टर साहब ने पूछा “क्या हुआ महेन्द्र ? तुम मुस्कुरा क्यों रहे हो?” मैं एकदम हडबडा गया. बड़ी मुश्किल से अपने आप पर काबू करते हुए मैंने कहा “नहीं सर कोई बात नहीं है.”
स्टूडियो बिल्डिंग और ट्रांसमीटर में करीब सात किलोमीटर का फासला था. स्टूडियो से लेकर ट्रांसमीटर के बीच टेलीफोन लाइन बिछी हुई थी. जो प्रोग्राम स्टूडियो में बजाया जाता था, वो उस टेलीफोन लाइन के ज़रिये ट्रांसमीटर तक आता था और यहाँ से प्रसारित हो जाता था. वर्मा साहब ने हर तरह से अपना दिमाग लगा लिया मगर कार्यक्रम विवरण के पीछे आने वाली वो आवाजें नहीं रुकीं. मुझे लग रहा था कि इस तरह किसी दिन तो मैं पकड़ा ही जाऊँगा क्योंकि लोगों के दिमाग में कभी तो आ ही जाएगा कि ये गडबडी उसी दिन होती है जब शाम की ड्यूटी पर मैं होता हूँ. इसलिए कई बार बिना काम ही रुक कर शाम की ड्यूटी वाले को मदद करने के बहाने मैं अपनी कारस्तानी कर देता था. आखिरकार वर्मा साहब ने टेलीफोन लाइन खुदवानी शुरू कर दी कोई दो किलोमीटर की खुदाई हुई थी कि मैंने अपनी कारस्तानी रोक दी... अब शाम का कार्यक्रम बिना किसी विघ्न के प्रसारित हो रहा था. दो तीन दिन बाद वर्मा साहब ने खुदाई रुकवा दी और घोषणा कर दी. लीकेज मिल गया है.... उसे ठीक कर दिया है और अब प्रसारण बिल्कुल ठीक होगा. मैं मन ही मन मुस्कुराया. जिस तरह वर्मा साहब ने मेरी बेइज्ज़ती की थी, मैं उन्हें अब भी माफ करने के मूड में नहीं था. ५-६ दिन बाद फिर से कार्यक्रम विवरण के पीछे आवाजें आने लगीं. इस बार बात अखबारों तक जा पहुँची. अखबार नमक-मिर्च लगाकर ख़बरें छापने लगे. अब वर्मा साहब थोड़ा घबराए मगर फिर भी उनकी अकड अपनी जगह क़ायम थी. मीटिंग में बोले “एक जगह लीकेज ठीक कर दी गयी थी मगर शायद कहीं और भी लीकेज रह गयी है. मैं और खुदाई करवाऊंगा, अगर फिर भी ठीक नहीं हुआ तो पूरी लाइन चेंज करवानी पड़ेगी. मैंने सोचा अब बहुत ज़्यादा हो रहा है. एक वर्मा साहब को सबक सिखाने में सरकार का बहुत नुकसान हो जाएगा अगर इन्होने सात किलोमीटर की खुदाई करवाकर पूरी लाइन बदलने का निर्णय ले लिया तो. वो बस आगे खुदाई करवाने की तैयारी कर ही रहे थे कि एक दिन सुबह सुबह मैं उनके कमरे में पहुंचा और कहा “सर नमस्कार”. उन्होंने गर्दन उठाई और अजीब सी नज़रों से देखते हुए बोले “हम्म, कहिये क्या बात है?” मैंने कहा “सॉरी सर अगर आप इसे इंजीनियरिंग मामलों में टांग अड़ाना न समझें तो..... मैं आपको आश्वस्त करना चाहूँगा कि अब वो आवाजें नहीं आयेंगी आप बेफिक्र रहिये...... और प्लीज़ अब खुदाई मत करवाइए और न ही लाइन चेंज करवाने की सोचिये.” उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें छलछला उठीं. वो दस सैकंड चुप रहे और फिर गर्दन उठा कर बोले “अच्छा.... तो ये आपका काम था....”मैंने कहा “जी”.
“आपने ऐसा क्यों किया और कैसे किया?”“आपने इतने लोगों के सामने मुझे बेइज्ज़त किया तो मुझे गुस्सा आ गया....”
“मगर आपने ये किया कैसे?”मैंने उन्हें बताया कि डबिंग रूम के कंसोल में एक कमज़ोरी है. स्टूडियोज़ के प्रोग्राम को तो वहाँ की मशीनों पर रिकॉर्ड किया ही जा सकता है, डबिंग रूम की किसी भी मशीन पर कोई टेप चलाकर कंसोल पर दो बटन एक साथ दबाकर उस टेप पर रिकॉर्डेड प्रोग्राम को किसी भी स्टूडियो से निकलकर कंट्रोलरूम जानेवाले प्रोग्राम के साथ मिक्स किया जा सकता है. मैंने डबिंग रूम की इसी कमज़ोरी को काम में लिया. मैं ५.५५ पर दिल्ली का कार्यक्रम विवरण रिकॉर्ड कर एक मशीन पर टेप को उलटा चला देता था और उसे वार्ता स्टूडियो की लाइन में मिक्स कर देता था. जब टेप को उलटा चलाया जाता है तो जो आवाज़ निकलती है वो बड़ी अजीब सी होती है और उसका लेवल इतना कम रखता था कि ये तो पता चलता था कि कोई बोल रहा है मगर किस भाषा में बोल रहा है ये समझ नहीं आता था.
ये सब सुनकर वर्मा साहब का मुंह खुला का खुला रह गया. बोले “बस इतनी सी बात थी?” मैंने कहा “जी हाँ.....मेरा मन तो था आपको और तंग करने का लेकिन मैंने सोचा कि इस तरह आप पूरी लाइन खुदवाएंगे और चेंज करवाएंगे तो बेकार में बहुत खर्च हो जाएगा. इसलिए मैंने आपको ये सब बता दिया मगर उम्मीद करता हूँ कि अगर कोई भी कुछ कह रहा है तो कम से कम उसकी बात सुन तो लीजिए..... वो इंजीनियर नहीं है तो क्या हुआ, हो सकता है उसकी राय में कुछ काम की बात हो.” वर्मा साहब ने वादा किया कि आगे से वो किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे मगर मुझसे भी ये वादा लिया कि जो कुछ इस बीच केन्द्र पर हुआ, उसके पीछे सच्चाई क्या थी, इसका किसी को पता नहीं लगेगा.बस..... इसके बाद आकाशवाणी, बीकानेर से प्रसारण बिल्कुल सही तरीके से, बिना किसी विघ्न के होने लगा. मैंने सबसे यही कहा कि वर्मा साहब ने सब कुछ ठीक कर दिया है. हर तरफ उनकी काफी वाहवाही हुई. अब तक मैंने इस वाकये को अपने सीने में दफन कर रखा था. आज वर्मा साहब अगर इस दुनिया में हैं और इत्तेफाक से मेरी ये श्रृंखला पढ़ रहे हों तो उनसे हाथ जोड़कर क्षमा चाहूँगा कि जिस बात को मैंने ३५ बरस तक सीने में दफन रखा, आज उसे दुनिया के सामने रख दिया है.
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