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Tuesday, November 28, 2017

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग- 46( महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला )




                    

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बहला फुसलाकर जैना ने मुनकी को नहलाया धुलाया और ठीकठाक से कपड़े पहना दिए थे. वो जानती थी कि चाहे मेहमानों ने मुनकी की खूबसूरती के बारे में कितना भी सुन लिया हो, वो एक बार उसे देखे बिना नहीं मानेंगे क्योंकि ऐसी अफवाहें घूम फिरकर जब जैना के कानों तक पहुँच चुकी थी कि जैना और अमरू बात मुनकी की करेंगे और अच्छा खासा पैसा लेकर फिर निकाह मुनकी से छोटी नूरकी का करवा देंगे,
तो कहीं न कहीं से ये अफवाहें लड़के वालों तक भी ज़रूर पहुँच गयी होंगी. मुनकी बाप के कहने पर तो पहन ओढ़कर मेहमानों के सामने जाने को कतई तैयार नहीं हुई लेकिन माँ के आंसुओं के सामने वो मजबूर हो गयी. पहन ओढ़कर झोंपड़े में बैठी थी. बाहर अमरू ने जैना को कहा, जा बाहर लेकर आ छोरी को, तो जैना अन्दर घुसी. मुनकी का हाथ पकड़ा और बाहर की तरफ खींचने लगी. मुनकी रोने लगी, “मा ए मा छोड़ दे म्हनै...... छोड़ दे म्हने..... तूं भी म्हारी दुस्मीं हुगी कांईं ?”(माँ ए माँ मुझे छोड़ दे....छोड़ दे मुझे.......तुम भी मेरी दुश्मन हो गईं क्या )
                   जैना ने बस इतना ही कहा, “चाल तूं बा’र चाल, जिद मती ना कर.” (चल तू, बाहर चल.....जिद मत कर ) उसके सर पर ओढ़नी डालदी, और बाहर की ओर खींचने लगी. झोंपड़े से बाहर जब वो घिसटती हुई सी निकली तो सारे मेहमानों की आँखें उस तरफ उठ गईं. ओढ़नी का घूंघट निकला हुआ था, इसलिए उसका चेहरा तो दिखाई नहीं दे रहा था, लेकिन  कान्चळी कुड़ती से झांकती उसकी सोने जैसी काया सारे मेहमानों को चकित कर रही थी. घुटनों को छूती काले स्याह बालों की चोटी और भरा हुआ बदन. सभी मानो कुछ पल के लिए सम्मोहित से हो गए. सबको मुंह बाए मुनकी को ताकते हुए देखकर अमरू ने ठहाका लगाया और बोला, “मैं नईं बोला था..... पूगळ की पद्मणी है मेरी छोरी...... साळों ..... आँखें फाड़ फाड़कर क्या देख रहे हो....? रुपये गिणो एक लाख अर सौदा पक्का करो. “
                   तभी गुस्से में भरी हुई मुनकी ने अपने चेहरे पर पड़ी ओढ़नी को नीचे फेंक दिया. सबकी नज़रें उसके चेहरे पर पड़ी. अचानक जैसे सबको  बिजली का झटका सा लगा. मुनकी की आँखों से चिंगारियां निकल रही थीं, ऐसी चिंगारियां कि उन बेचारे बहावलपुरियों की घिग्घी बंध गयी. मुनकी शापित यक्षिणी की तरह उनके सामने खड़ी थी. अमरू भी उसका ये रूप देखकर एकदम जड़ हो गया था. बेचारा वो ५०-५५ बरस का रमजान जो रुपयों की ताक़त से मुनकी को अपनी बीवी बनाना चाहता था, मुनकी की आँखों को देखकर कांपने लगा. उसने अपने साथियों की तरफ देखा और अचानक सारे बहावलपुरी उठ खड़े हुए. अमरू बोला, “अरे क्या हो गया? आप खड़े क्यों हो गए? आप फिकर ना करो.......आपको पसंद है तो मैं अपणी छोरी देणे को त्यार हूँ.”
अमरू के इतना कहते ही मुनकी चिल्लायी, “हाँ........ जा कठै रिया हौ? अरे हाल तो थे देख्यो ई कांईं है? हरामजादों....... म्हारे सरीर पर कित्तो गोस है देखणो है? कांचळी उतारूं? अर कुण तूं म्हनै थारी बीवी बणासी ? थारै सरीर में इत्ती तागत है?”(हाँ हाँ जा कहाँ रहे हो ? अभी तो आप लोगों ने देखा ही क्या है? हरामजादो....मेरे शरीर पर कितना गोश्त है देखना चाहते हो? कांचळी उतारूं? और कौन... तू मुझे अपनी बीवी बनाना चाहता है? तेरे शरीर में ताकत है इतनी ?)
वो पचास-पचपन साल का खिजाब लगा कर अपने को जवान दिखाने की कोशिश करने वाला इंसान दारू के नशे से डगमगाते क़दमों से मुनकी की तरफ बढ़ने लगा. तभी उसने देखा, मुनकी अपने बाप के सामने खडी थी. उसने अपने बाप के गाल पर खींचकर एक तमाचा जमाया और बोली, “ अरे भडवा.......तने सरम कोनी आवै? इये डोकरे सागै म्हारो ब्यांव करावै ? ईये नान्सू तो सडक पर बैठा दे म्हने. म्हारो सरीर बेच’र इत्ता पइसड़ा तो मिल ई जासी.” (अरे भडुए तुझे शर्म नहीं आती ? इस बूढे के साथ मेरी शादी करवा रहा है? अरे इससे अच्छा तो मुझे सड़क के किनारे बिठा दे. इतने पैसे तो मेरे शरीर को बेचकर मिल ही जायेंगे.)
तमाचा पड़ते ही गुस्से में तमतमाया हुआ, वो टूट पडा मुनकी पर. बाप बेटी गुत्थमगुत्था होकर एक दूसरे पर हाथ पैर चला रहे थे. दोनों एक दूसरे को गालियाँ भी निकाल रहे थे. नशे में चूर बूढा अमरू जवान मुनकी का कितनी देर मुकाबला करता. नीचे गिर पडा और पडा पडा मुनकी को गालियाँ देने लगा और मार खाने लगा. जैना रोती हुई, गालियाँ देने लगी और  मुनकी का हाथ पकड़कर खींचने लगी, “अरे रांड कठियाँ आयगी तूं म्हारी कोख में ? कांईं भी हूय जाओ आखर औ थारो बाबलियो है. तूं कठै ई जा’र कूओ खाड क्याँ नईं करै बाळनजोगी ?”(अरे रांड तू कहाँ से आ गयी मेरी कोख में?कुछ भी हो, है तो ये तेरा बाप. तू जाकर किसी कुए में क्यों नहीं कूद जाती ?)
मुनकी चिल्लाई, “ हाँ म्हारो बाबलियो है.......... इसो हुवै कांईं बाबलियो ? दो बगत रै टुकड़ां खातर आपरी औलाद नै नीलाम कर दै..........? नईं औ म्हारो बाप कोनी ? अर है तो भी थू है इसै बाप माथै......”  (हाँ मेरा बाप है ये.... ऐसा होता है बाप जो दो वक़्त की रोटी के लिए अपनी औलादों को नीलाम करदे? नहीं ये मेरा बाप नहीं है..... और अगर है भी तो थू है ऐसे बाप पर )                                     
वो चिल्लाए जा रही थी. जैना उसे खींच कर झोंपड़े में ले गयी. अमरू उठ खड़ा हुआ.
अमरू के घर की चौकी पर ये सारा हंगामा हो रहा था. आने जाने वाले, मोहल्लेवाले सब इकट्ठे होकर तमाशा देखने लगे. ये सारा हंगामा देखकर मेहमानों के होश उड़ गए. जो लड़की अपने बाप के साथ इस तरह मार पीट कर सकती है वो उनके घर आकर तो पूरे परिवार का जीना हराम कर देगी. ऐसी लड़की को ब्याह कर ले जाना तो आफत को दावत देना है. रमजान बोला, “ मुझे नहीं चाहिए ऐसी जोरू. मेरे रुपये वापस करो. अरे जो छोरी अपने बाप के साथ थप्पड़ मुक्के कर सकती हो वो हमें क्या गिणेगी ? लाओ हमारे दस हजार रुपिये वापस.”
इतनी देर मुनकी के हाथों मार खाने वाला अमरू रुपये की बात आते ही शेर बनकर दहाड़ने लगा, “रुपिये ? कौण से रुपिये ? साळों सुबै से दारू पी रए हो, गोस गटक रए हो, वो फोकट में आते हैं क्या? जाओ अपणा रस्ता नापो मेरी छोरी से ब्याँव नईं करना है तो. “
आपने हमने, अपने आस पास देखा ही है कि दारू का नशा कभी इंसान को इस क़दर बेहद भावुक बना देता है कि वो बिना बात के आंसू बहाने लगता है और कभी मच्छर जैसे इंसान को भी इतना बहादुर बना देता है कि वो अच्छे से अच्छे पहलवान से भिड़ पड़ता है. रमजान के साथ आये बहावलपुरियों में से एक ने कंधे पर लटकाई हुई दुनाली उतारी और बोला, “ए रुपिये निकाळ नईं तो गोळी मार दूंगा.”
अमरू सीना ठोक कर बोला, “अरे जा जा, बडा आया गोळी मारने वाळा........ तुम बहावलपुरियों को क्या मैं जानता नहीं ? खांधे पर दुनाळी लटकाने से ई कोई भादर नईं बण जाता. तुम्हारे बाप ने भी चलाई है कभी किसी मिनख पर गोळी ? लै काळजा है तो चला गोळी........चला...... चला.”
और वास्तव में उस बहावलपुरी के हाथ पैर फूल गए गोली चलाने के नाम पर. अब तो अमरू का हौसला और बढ़ गया कोने में पड़ी लाठी उठाकर गरजा, “साळे डरपोकों....... तुमसे तो गोळी क्या चलेगी ? भला चा’ते हो तो अल्ला अल्ला करके निकळ लो, नईं तो मैं सोट(लाठी) चलाणे लगा ना तो एक एक को पाधरा(सीधा) कर दूंगा. “
अब बहावलपुरियों ने भागने में ही खैरियत समझी. सब अपनी अपनी बंदूके लेकर भाग खड़े हुए. मगर जाते जाते अमरू को धमकी भी दे गए, “हरामी चोर, अपणे आप को बहोत तीसमार खां समझता है? ऐसे नहीं छोड़ेंगे दस हज़ार रुपये. याद रखना....... हम फिर आयेंगे और ये दस हज़ार रुपये वसूल करके जायेंगे तुझसे.”
“अरे जाओ जाओ गादड़े(गीदड़) की औलादों........ आ जाणा, जब भी इतनी हिम्मत बापर जाए तुम्हारे अन्दर....... तुम्हारे जैसे डरपोकों के लिए मैं एकला ई बोहत हूँ.”
वो आखिरकार वहाँ से चले गए. जैना ने अमरू को कहा, “अरे क्यों दुस्मणी मोल ले रिया हौ ? दे देंवता बाकी बच्योड़ा रुपिया. काल नै रात बिरात आ’र हमलो कर दियो तो तीन तीन टाबर है, इंयांनै ले’र कठै बड़ांला ?”(अरे क्यों दुश्मनी मोल ले रहे हो ?दे देते बाकी बचे रुपये. कभी रात बेरात हमला कर दिया तो तीन तीन बच्चों को लेकर कहाँ जायेंगे ?)
“अमरू री जेब में आयोड़ा रुपिया ईंयां सोरै सांस कोइ कोनी निकळवा सकै अर तूं फिकर ना कर, अै गादड़ां इसी माँ रौ ई दूध कोनी पियो कै पाछा आवण री हिम्मत कर सकै. ला ला म्हनै रोटी खुला बाळ तूं तो.”(अमरू की जेब में आये रुपये कोइ आसानी से नहीं निकलवा सकता. तू फिक्र मत कर, इन गीदड़ों ने ऐसी माँ का दूध ही नहीं पिया कि वापस आने की हिम्मत कर सकें...... ला ला मुझे रोटी खिला तू तो.)
जैना बड़बड़ाती हुई रोटी बनाने लगी. उधर मुनकी झोंपड़े में पस्त हुई पड़ी थी और नशे में चूर अमरू का दिमाग किसी और ही सिम्त चल रहा था. इस बहावलपुरी पार्टी ने दस हज़ार रुपये एडवांस दिए थे. उसमे से दारू मांस पर मुश्किल से सौ डेढ़ सौ रुपये खर्च हुए थे. वो मन ही मन मुस्कुराया, मुनकी के पास आया और बोला, “शाबाश मुनकी शाबाश......तूं तो कमाल कर दियो. दस हज़ार रुपिया दे’र गया साळा.........बै रुपिया तो हज़म......... तूं तो इसो ड्रामो हर मइने में एक बार कर लै तो पौ बारा पच्चीस है आपणा तो.” (शाबाश मुनकी शाबाश.... तूने तो कमाल कर दिया..... दस हज़ार रुपये दिए थे इन लोगों ने वो तो अब हज़म.......तू तो महीने में एक बार ऐसा ड्रामा करले तो हमारी तो पौ बारह पच्चीस है)
अब जैना से भी चुप नहीं रहा गया. वो रोटी बनाती बनाती बोली, “अरे तूं बाप है या कसाई ? आ थारी औलाद है, तूं जाणै है नी ? तूं हर मइने ईंनै इसो ई ड्रामो करण वास्ते कैवे है? अरे थारे तो कीड़ा पड़सी बुढापे में देख लिए. “( अरे तू बाप है या कसाई ? ये तेरी ही औलाद है और तू इसे हर नहीने एक बार ऐसा ड्रामा करने को कह रहा है? बुढापे में देख लेना तेरे शरीर में कीड़े पड़ेंगे .)
“चाल चाल चुप हूजा.........तूं चुपचुपाती रोटियां उतार...... गया साला हरामी. गोस सगलो तो कोनी खाय्ग्या? म्हने भूख लागी है, जोर सूं .” (चल चल तू चुपचाप रोटियाँ बना.... गए साले हरामी. गोश्त सारा तो नहीं डकार गए? मुझे बहोत जोर से भूख लगी है.)
सबने खाना खाया. बस मुनकी थी जिसने खाना खाने से मना कर दिया तो न जाने कहाँ से अमरु के अन्दर एक बाप उतर आया . उसने मुनकी के सर पर हाथ फेरा और बोला, “अरे रांड आ दुनिया इसी ई है. तूं नईं लूटसी इने तो आ तने लूटसी. म्हारो कै’णो मान. अरे इसे हरामजादां नै इयाँ ही लूटती रै . म्हारी ज़िंदगी भी चाल जासी अर म्हांरे पाछे थारी ज़िंदगी भी कट जासी. आपां कोई पईसे आला तो हाँ कोनी, गरीब लोग हाँ. आपाणी इज्ज़त खाली दो बगत री रोटी है.” (ये दुनिया ऐसी ही है, अगर तू नहीं लूटेगी इसे तो ये तुम्हें लूटेगी. मेरा कहना माँ, इन हरामजादों को इसी तरह लूटती रह. इससे हमारी ज़िंदगी भी आराम से कट जायेगी और हमारे बाद तुम्हारी भी. हम लोग पैसे वाले तो हैं नहीं, गरीब लोग हैं, दो वक़्त की रोटी ही हमारी इज्ज़त है.)
मगर मुनकी ने अपने बाप का हाथ बुरी तरह झटक दिया. वो मन ही मन सोच रही थी, “ यही हाथ था जो थोड़ी देर पहले इतने लोगों के सामने उसे मारने को उठा था, अब लाड जता रहा था........... हुंह झूठा लाड. ये उन दस हज़ार रुपयों का लाड है जो इसने हज़म कर लिए थे.”
मैंने तो यही समझा कि मुनकी का सौदा हो गया होगा और थोड़े ही दिनों में उसका ब्याह किसी पचास बरस के बुढ़ाते हुए बहावलपुरी के साथ हो जाएगा लेकिन अगले ही दिन मुनकी मेरे घर आई. उस दिन घर में काम करने वाली भाणी बाई नहीं आई थी इसलिए मुनकी को ही बर्तन साफ़ करने थे, सफाई करनी थी. पिताजी कहीं आस पास गए हुए थे. दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ सुनाई दी तो मैंने दरवाज़ा खोला और देखा, मुनकी मेरे सामने खड़ी हुई थी. मैं एक तरफ हट गया. वो अन्दर आई और चुपचाप आँगन के कोने में रखे गंदे बर्तन मांजने लगी. मैं आँगन में रखी आरामकुर्सी पर बैठ गया.  मैंने पूछा, “थारो ब्यांव तय हुग्यो काल ?”कल तुम्हारी शादी तय हो गयी?)
मुंह नीचा किये हुए वो बोली, “नईं कँवर साब, भाजग्या बै लोग तो ?”(नहीं कँवर साब, भाग गए वो लोग तो. )
“क्यों ?”
उसने कोई जवाब नहीं दिया. बस उसकी आँखों से टप टप आंसू गिरने लगे.
मैंने कहा, “अरे मुनकी, तूं रोवण क्यों लागगी ?”( अरे मुनकी तू रोने क्यों लगी ?)
“म्हारै जिसै लोकां रै भाग में जिनगी भर रोवणो ई लिख्योड़ो हुवै ओ कँवर साब...........”(मेरे जैसे लोगों के भाग्य में ज़िंदगी भर रोना ही लिखा होता है कँवर साब.)
“इयाँ क्यों सोचै तूं ?”(ऐसा क्यों सोचती है तू?)
“तो और कांईं सोचूँ .......? भाग खराब है जद ई इसे घर में जलम लियो है. ना कोई पढाई ना लिखाई. बाप इसो, बेटियाँ नै बेच बेच’र सोचै बीं री पूरी जिनगी निकळ जासी.”(और क्या सोचूँ फिर ? भाग्य खराब है तभी तो ऐसे घर में जन्म लिया. न कोइ पढाई ना लिखाई. बाप ऐसा कि सोचता है बेटियों को बेच बेच कर ही उसकी ज़िंदगी निकल जायेगी.)
“ खाली भाग नै दोख दियां कांईं होसी ? जे खुद रै पगां पर खड़्यो हुवण रौ हौसलो है तो हाथ रौ कोई हुनर  सीख अर  आपरी रोटी कमा’र खावण री कोशिश कर.”(सिर्फ भाग्य को दोष देने से क्या होगा ? अगर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला है तो हाथ का कोइ हुनर सीखकर अपनी रोटी कमा खाने की कोशिश कर.)
“ नईं ओ कँवर साब, म्हांरै भाग में धक्का खावणा ई लिख्योड़ा है, धक्का ई खासां. एक बात पूछूं कँवर साब, बता देसों कांईं ?”(नहीं कँवर साब, हम लोगों के भाग्य में धक्के खाना ही लिखा है और धक्के ही खायेंगे. एक बात पूछूं कँवर साब बता देंगे क्या?)
“ हाँ पूछ , म्हनै ठा हुसी तो ज़रूर बतासूं.” (हाँ पूछ, पता होगा तो ज़रूर बताऊंगा.)
“ दो मिंट थम जाओ, म्हैं बर्तन मांय धर’र आऊँ.”(दो मिनट रुकिए, मैं ज़रा बर्तन अन्दर रखकर आती हूँ.)
“ अच्छ्या.”(अच्छा)
उसने बर्तन साफ़ कर लिए थे. उन्हें रसोईघर में रखकर आयी, तभी दरवाज़े पर कुंडी खटकी. उसने जाकर दरवाजा खोला तो देखा सामने पिताजी खड़े थे. पिताजी अन्दर आये तो मैं भी आरामकुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया. पिताजी अन्दर साळ (अन्दर के कमरे ) में कपड़े बदलने चले गए तो मुनकी झाड़ू उठाकर ले आई और झाड़ू लगाने लगी. मुझे याद आया कि वो मुझसे कुछ पूछना चाहती थी. मैंने उससे कहा, “तूं कुंईं पूछ री ही नी मुनकी, बोल कांईं पूछणो है?”(तू कुछ पूछ रही थी न मुनकी, बोल क्या पूछना है?)
उसने अपने होठों पर अंगुली रखते हुए धीमी आवाज़ में कहा, “शी........... अबार नईं. थाणेदार जी आयग्या अबार तो. फेर कदी पूछसूं.” (शी.... अभी नहीं. थानेदार जी आ गए अभी तो. फिर कभी पूछूंगी.)
मेरी समझ नहीं आया कि ऐसी क्या बात हो सकती है जो वो मेरे से अकेले में पूछना चाहती है, पिताजी के सामने नहीं पूछना चाहती.
दो चार दिन निकल गए. एक दिन फिर इसी तरह उसे मेरे घर काम करने आना पड़ा तो मेरी कुर्सी के पास आकर बैठ गयी और बोली, “ थे रेल गाडी में चढ्योड़ा हौ कांईं ?”(आप ट्रेन में चढ़े हैं कभी?)
मैंने हँसते हुए जवाब दिया, “हाँ, बस औ ई पूछणो हौ कांईं ?”(हाँ, बस यही पूछना है?)
“ नईं कँवर साब म्हनै औ पूछणो है कै रेलगाडी में जावणो हुवै तो कांईं करनो पड़ै ? म्हैं कदी रेलगाडी में चढ्योड़ी कोनी.(नहीं कँवर साब, मुझे ये पूछना है कि ट्रेन से कहीं जाना हो तो क्या क्या करना पड़ता है ? मैं तो कभी ट्रेन में चढी नहीं ना.)
“देख सबसूं पैली तो जिकी जगह जाणो हुवै बठै जाण आळी गाडी रौ जावण रौ टैम पतों कर’र बीं टैम स्टेशन जावणो पड़ै. स्टेशन जा’र टिगट खिड़की सूं बीं जगह रौ टिगट खरीदणो पड़ै. टिगट खरीद’र औ पतो कारणों पड़ै कै कित्ता नंबर प्लेटफार्म पर गाडी आ री है. बीं प्लेटफार्म पर जा’र खड़ा हू जाओ. गाडी आवै जद बीं में चढ़ जाओ..... बस. इत्तो ई करनो पड़ै. पण तूं कियां पूछ री है ? तनै सिध जावणो ?”(देख सबसे पहले तो जहां जाना है वहाँ जाने वाली गाडी का वक़्त पता कर उस वक़्त स्टेशन जाना पड़ता है. स्टेशन पर टिकट खिडकी से उस जगह का टिकट खरीदना होता है. टिकट खरीदकर ये पता करना पड़ता है कि ट्रेन किस प्लेटफार्म पर आ रहे है? उसके बाद उस प्लेटफार्म पर जाकर खड़े हो जाओ और जब गाडी आ जाए तो उसमें बैठ जाओ. बस इतना ही करना होता है. लेकिन तू क्यों पूछ रही है ? तुझे कहाँ जानाहै ?)
उसने एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा, “नईं ओ कँवर साब, म्हनै बापड़ी नै कठै जावणो है, म्हैं तो ईंयां ई जाणकारी सारू पूछूं.”( अरे नहीं कँवर साब मुझ बेचारी को कहाँ जाना है? मैं तो बस ऐसे ही जानकारी के लिए पूछ रही थी.)
मुझे लगा, वैसे ही बिना कारण तो नहीं पूछ रही. कहीं न कहीं इसके दिमाग़ में कुछ पक रहा है लेकिन ये उसका ज़ाती मामला था. इससे आगे पूछने का मुझे कोई हक भी नहीं था. वो अपना काम निबटा कर चली गयी.  
कुछ ही दिनों बाद मुझे आकाशवाणी जोधपुर में एनाउंसर की नौकरी मिल गयी थी और मैं बीकानेर से जोधपुर चला गया था. नौकरी ज्वाइन करने के तीन चार महीने बाद बीकानेर आया तो सुना कि मुनकी घर से भाग गयी है. ये सुनते ही मुझे उसके साथ हुई वो बातचीत याद आ गयी जब उसने मुझसे पूछा था कि ट्रेन में जाने के लिए क्या करना पड़ता है. पिताजी ने बताया कि एक बार अमरू के घर कई बहावलपुरी इकट्ठे हुए थे. काफी झगड़ा झंझट हुआ था. उसके बाद १०-१२ दिन के बाद ही मुनकी घर से गायब हो गयी. अमरू और जैना तब से पगलाए हुए से हैं. जैना तो माँ है आखिर. उसे तो झटका लगना ही था, अमरू इसलिए ज़्यादा परेशान था कि उसने जो मंसूबे बना रखे थे मुनकी को लेकर, वो सब फेल हो गए थे और अब उसे अपना बुढापा तकलीफों से भरा हुआ साफ़ दिखाई दे रहा था.
मैं दो चार दिन बीकानेर रहकर जोधपुर लौट आया था. बरस गुज़रते गए....... जोधपुर से उदयपुर, उदयपुर से बीकानेर पोस्टिंग पर आया तब तक अमरू ने वो झोंपड़ानुमा घर हुसैन खां नाम के एक ड्राइवर को बेच दिया था और उसका परिवार जाने कहाँ चला गया था. मैं तीन साल बीकानेर में रहा. उस दौरान कभी कभी थका मांदा अमरू गाड़े पर सामान ढोते हुए नज़र आता था.  बहोत कमज़ोर हो गया था वो. दो चार बार  बात हुई उससे. मैंने उसका हाल पूछा तो बोलने लगा, “कँवर साब लारलै जनम में पाप कर्या हुसी जिकै रा फळ भोग रिया हाँ.”(कँवर साब, पिछले जन्म में कोइ पाप किये होंगे, उनका फल भुगत रहे हैं.)
मैंने पूछा, “मुनकी मिली कांईं  ?”(मुनकी मिली क्या?)
वो एक दार्शनिक की तरह शून्य में ताकते हुए बोला, “ जावण आळा कोई पाछा आया करै है कांईं ? बा तो गयी जिकी बस चली ई गयी. अल्ला करै जठै भी रैवै खुश रैवै.......म्हांरो कांईं है, किताक दिन जीवणो है, जियां कियां ई मजूरी कर’र पेट भर लेसां. अच्छ्या कँवर साब एक पव्वे रा पेइसिया तो दे दो, नाड़का टूट रिया है, केई दिन हूयग्या एक टोपो ई दारू कोनी मिली.” (जाने वाले भी भला कभी वापस आते हैं ? वो तो गयी तो बस चली ही गयी. अल्लाह करे जहाँ भी रहे खुश रहे वो. हमारा क्या है ? कितने दिन जीना है हमें ?जैसे तैसे मजदूरी करके पेट भर लेंगे. अच्छा कँवर साब..... एक पव्वे के पैसे तो दे दो, शरीर टूट रहा है. कई दिन हो गए, दारू की एक बूँद भी नसीब नहीं हुई है.)
“ क्यों अमरू तूं तो रोज़ पिया करतो...........”(क्यों अमरू... तू तो रोज़ पीते थे.)
“ बै दिन गया कँवर साब...... अबै तो म्हैं अर मंगतियो दोनूं ई मजूरी करां पण बळग्या आधा ऊं घणा पेइसा तो दवायाँ में खर्च हुजावै. मंगतिये री माँ घणी बेमार रैवै है अजकालै.”(वो दिन गए कँवर साब, अब तो मैं और मंगतिया दोनों मजदूरी कर रहे हैं पर आधे से ज़्यादा पैसा तो दवाइयों में ही खर्च हो जाता है. मंगतिये की माँ आजकल बहोत बीमार रहने लगी है.)
मैंने जेब से निकाल कर उसे एक पव्वे के पैसे दिए तो आशीषें देता हुआ अमरू चला गया. मैं सोचने लगा, इंसान क्यों नहीं अपने आप पर भरोसा रख कर ज़िंदगी को संतोष के साथ जीता? क्यों दूसरों के भरोसे बड़े बड़े सपने देखता है? औलाद हो या बीवी हो या पति, किसी के भरोसे सपने नहीं पालने चाहिए. बस जो अपनी चादर है , उसी के अनुसार अपने पाँव पसारने चाहिए.
बीकानेर से सूरतगढ़ , मुम्बई होते हुए १९८४ में मैं इलाहाबाद चला गया था. उन दिनों मेरे खिलाफ कुछ मुकद्दमे बीकानेर की अदालतों में चल रहे थे, जिनके बारे में मैं आगे लिखूंगा. मुझे इन मुकद्दमों की तारीखों पर इलाहाबाद से हर पंद्रह बीस दिन में बीकानेर आना पड़ता था. इलाहाबाद से बीकानेर की सीधी ट्रेन होने का तो कोई सवाल ही नहीं था, क्योंकि बीकानेर में ब्रॉडगेज नहीं आई थी. इलाहाबाद से दिल्ली के लिए भी कोई सीधी ट्रेन नहीं थी. तिनसुकिया से चलने वाली तिनसुकिया मेल में चार डिब्बे इलाहाबाद से दिल्ली के लगते थे. ये ट्रेन रात में सवा नौ बजे चलती थी और सुबह दिल्ली पहुँचती थी. दिन भर दिल्ली में रुकना होता था. शाम को बीकानेर मेल पकड़ कर तीसरे दिन मैं बीकानेर पहुँच पाता था. हर पंद्रह बीस दिन में ये यात्रा करनी होती थी इसलिए इस भाग दौड़ में हर वक़्त मैं थका थका सा रहता था. दिल्ली में मेरा दोस्त वागीश कुमार सिंह कर्ज़न रोड़ पर ओल्ड नर्सिंग हॉस्टेल में रहता था. उसने एन एस डी से डिग्री ली थी और एन एस डी के रंग मंडल में काम कर रहा था.  तब तक उसकी शादी नहीं हुई थी. उसके बारे में भी विस्तार से मैं तभी लिखूंगा जब इलाहाबाद की बारी आयेगी. अभी तो आप बस ये समझ लीजिये कि सुबह आठ बजे के आस पास दिल्ली उतरता था और सीधे वागीश के कमरे पर पहुँच जाता था. उसके कमरे की एक चाबी मेरी अटैची में हर वक़्त रहती थी. अक्सर मैं उसके कमरे पर पहुंचता तब तक वो रंग मंडल यानी रैपैटरी के लिए निकल चुका होता था. मैं उसके कमरे में आराम करता, खाना बना कर उसके लिए रैपैटरी में छोड़ता और या तो वापस कमरे में आकर सो जाता या फिर अगर डायरेक्टरेट जाना होता तो उधर निकल जाता.
एक बार इसी तरह इलाहाबाद से दिल्ली पहुंचा. रिज़र्वेशन मिला नहीं था, इसलिए रात भर बैठे रह कर सफ़र किया था. ऊपर से ट्रेन लेट हो गयी थी. ११ घंटे की बजाय १३ घंटे सैकंड क्लास के साधारण डिब्बे में बैठे बैठे पीठ अकड़ चुकी थी. किसी तरह वागीश के कमरे पर पहुंचा. देखा वागीश अपनी नौकरी पर जा चुका था. चाबी मेरे पास थी. मैंने ताला खोला और अटैची रखी. नहा धोकर खाना बनाया. थकान बहुत लग रही थी लेकिन जैसा कि हमेशा का नियम बना रखा था, वागीश का टिफिन लेकर रैपैटरी की तरफ निकला. नज़दीक ही थी रैपैटरी, लेकिन थकान और नींद के मारे मेरी आँखें बंद हुई जा रही थीं. चक्कर भी आ रहे थे और दिमाग़ सुन्न सा हो रहा था. किसी तरह मैं रैपैटरी तक पहुंचा. टिफिन वहाँ काम करने वाले सरदार जी को सौंपा और हालांकि डायरेक्टरेट जाने का मन था लेकिन थकान से हारकर वापस रूम की तरफ ही मुड़ गया.
दिमाग़ इतना थका हुआ और सुन्न था कि मैं पता नहीं कैसे घूम घूम कर एक ही जगह पहुँच रहा था. जिस कमरे की चाबी हर वक़्त मेरी अटैची में रहती थी और जहां हर पंद्रह दिन में एक बार मैं आया जाया करता था वो कमरा गुम हो गया था मेरे लिए. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मुझे क्या हो गया है ? मैं अपना ठिकाना नहीं ढूंढ पा रहा था. मैं थक कर एक घर के सामने लगे पेड़ का सहारा लेकर खड़ा हो गया और सोचने लगा कि अब मैं क्या करूं ? मैंने आँखें बंद कर ली. तभी मुझे एक आवाज़ सुनाई दी, “बाउजी, आपको हमारी मेमसाब बुला रही हैं सामने वाले घर में. “
मेरा सर वैसे ही चकरा रहा था. मुझे लगा मुझे कुछ भ्रम हो रहा है. थकान की वजह से दिमाग़ बिना सोये ही सपना देख रहा है...... या फिर वास्तव में मुझे नींद आ गयी है और मैं सपना देख रहा हूँ. फिर थोड़ी देर में वो आवाज़ आई, “बाउजी...... बाउजी........” किसीने शायद मुझे पकड़कर हिलाया. मैंने आँखें खोली. सामने एक नौकर नुमा आदमी खड़ा हुआ था, हाथ जोड़कर. मैं थोड़ा होश में आया. मैंने कहा, “ हाँ भाई क्या बात है ?”
“ जी आपको हमारी मेमसाब बुला रही हैं, उस सामने वाले घर में.”
“ कौन मेमसाब भाई, ज़रूर तुम्हें या तुम्हारी मेमसाब को कोई  गलतफहमी हुई है. मैं यहाँ किसी मेमसाब को नहीं जानता.”
“ बाउजी आप एक बार चलिए तो सही, मेमसाब आपको अच्छी तरह से जानती हैं.”
               मैं हैरान सा उसके पीछे पीछे चल पड़ा. घर सामने ही था. मैं थोड़े संकोच के साथ उसके पीछे पीछे घर में घुसा. देखा सामने के बरामदे में टंगे हुए झूले पर हाथ में सिगरेट लिए एक औरत बैठी है. मुझे लगा शायद इसे कोई गलतफहमी हो गयी है, क्योंकि मैं ऐसी किसी औरत को नहीं पहचानता. तभी उसने हाथ की सिगरेट एक तरफ फेंकी और झूले पर से उठ खड़ी हुई. मैं असमंजस में ही था कि उसने मुस्कुराते हुए कहा,“आओ कँवर साब आओ, भूल ग्या कांईं मनै ?”(आओ कँवर साब आओ, भूल गए क्या मुझे ?)
 मैं एक दम से चौंका.......... अरे ये तो मुनकी है.......!!!!!!  
मैंने आँखें मसलीं. क्या मैं सपना देख रहा हूँ? तभी वो खिलखिलाकर हंस पड़ी. हँसते हँसते ही बोली, “गजानन ड्राइंग रूम खोलकर ए सी चलादो.”
फिर मेरी तरफ मुड़कर बोली, “आओ कँवर साब मांय आ’र आराम सूं बैठो.” (आओ कँवर साब अन्दर चलकर आराम से बैठो.)
मुझे अभी भी अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था. मैं खड़ा खड़ा उसे तके जा रहा था. वो मेरे पास आई, मेरा हाथ पकड़कर मुझे सोफे पर बिठाया तब मुझे ज़रा होश आया. मैंने कहा, “तूं साँची मुनकी है?” (क्या तू सचमुच मुनकी है?)
“हाँ कँवर साब, बिसास करो, मैं मुनकी ही हूँ.”(हाँ कँवर साब, विश्वास करो, मैं मुनकी ही हूँ.)
“अरे थे लोकां म्हनै झटका देवण रौ ठेको ले राख्यो है कांईं ? पैली तो भंवरी अर अबै तूं...........” (अरे तुम लोगों ने मुझे शॉक देने का ठेका ले रखा है क्या ? पहले तो भंवरी और अब तू.......)
“अै बातां तो पछै कर लेसां, म्हैं इत्ती देर सूं देख री हूँ थे घड़ी घड़ी ईं सडक रा चक्कर काट रिया हौ ? आखिर बात कांईं है अर इत्ता थक्योड़ा सा क्यूं हौ ?”(ये बातें बाद में कर लेंगे. मैं इतनी देर से देख रही हूँ कि आप बार बार इस सड़क पर चक्कर लगा रहे हैं . आखिर बात क्या है? और आप इतने थके हुए से क्यों लग रहे हैं?)
“ म्हैं साँची बहोत थक्योड़ो हूँ.......इत्तो कै म्हारै दोस्त रौ घर ई भूलग्यो जिकै रै घरै ठहर्योड़ो हूँ.”(मैं सच में बहुत थका हुआ हूँ.... इतना कि अपने उस दोस्त का घर ही भूल गया जिसके घर रुका हुआ हूँ.)
तभी गजानन ट्रे में ठंडा और कुछ खाने पीने की चीज़ें ले आया. ठंडा पीकर लगा जैसे सदियों से मैं प्यासा चलता चला जा रहा था. मैंने जैसे ही ठन्डे का ग्लास नीचे रखा मुनकी बोली, “कँवर साब, थांरी आंख्यां तो नींद सूं भारिज्योड़ी है. थे ईं तखत पर दो घंटा आराम कर लो पछै बात करसां.”(कँवर साब आपकी आँखें तो नींद से भरी हुई हैं. आप इस तख़्त पर दो घंटे आराम कर लो, फिर बात करेंगे.)
मेरी आँखों में नींद तो भरी हुई थी लेकिन मुझे उसी शाम को बीकानेर की ट्रेन पकड़नी थी. मैंने कहा, “नईं मुनकी जे नींद ले ली तो शाम तक खुलेली कोनी अर म्हनै शाम री गाडी पकडनी है.(नहीं मुनकी, अगर सो गया तो शाम तक मेरी नींद ही नहीं खुलेगी और मुझे शाम को गाडी पकड़नी है.)
“अच्छा आप तख़्त पर लेट जाइए, लेट कर बात करते रहिये.”
ये एक और झटका था मेरे लिए. बिलकुल साफ़ अनपढ़ मुनकी इतनी साफ़ हिन्दी में मुझसे बात कर रही थी, जैसे किसी पढ़े लिखे खानदान की बहू या बेटी हो. मैंने कहा, “ अरे...... तुम तो बड़ी अच्छी हिन्दी बोलने लगी हो ?”
“ वक़्त बहोत कुछ सिखा देता है कँवर साब. आप कहते थे मुनकी कोई हाथ का हुनर सीख लो तो अपने पैरों पर खडी हो सकती हो. वक़्त ने न जाने क्या क्या हुनर सिखा दिए मुझे भी. खैर आप लेट जाइए.’
मैं तख़्त पर लेट गया और मुनकी की तरफ देखने लगा . मैं उसे लगभग दस साल बाद देख रहा था. दस साल पहले जो अल्हड़पन था वो अब सलीक़े में बदल गया था. उसे देखकर बिलकुल नहीं लग रहा था कि ये वही अमरू की बेटी मुनकी है जो उस दिन अपने बाप से गुत्थमगुत्था हो गयी थी जब रमजान उसे देखने आया था. उसके चेहरे से एक तरह का रुआब और संजीदगी टपक रहे थे. मैंने कहा, “ मुनकी तुम यहाँ कैसे आ पहुँची ? तुम तो घर से भाग गयी थी ना?”
“ हाँ घर से भाग गयी थी, ये बात तो सब ने बताई होगी आपको, लेकिन क्यों भागी, किसी ने भी इसका ज़िक्र किया आपसे ? नहीं किया होगा. किसी ने नहीं किया होगा. आपको याद है रमजान मुझे देखने आया था चार पांच लोगों के साथ ?
“ हाँ. वो तो याद है मुझे .“
“ मेरे बाप के मुंह तो खून लगा हुआ था. उसने सोचा कि अगर रमजान लाख रुपये देकर मुझे ब्याह ले जाता है तो छः महीने मुझे उसके घर रहने देगा, फिर मेरा दूसरा और फिर तीसरा खसम करता चला जायेगा और खुद आराम से चैन की बंसी बजाता रहेगा, इसी तरह ज़िंदगी काट देगा. जैसे मैं इंसान नहीं कोई बेचने की चीज़ हूँ जिसे चाहे जितनी बार बेच दो.”
उसने पानी का ग्लास उठा कर दो घूँट भरे और आगे बोलने लगी, “मैंने जब अपने बाप के साथ मारपीट की तो रमजान ने मुझसे ब्याह करने से इनकार कर दिया और अपने दस हज़ार रूपये जो उसने पेशगी दिए थे वापस मांगने लगा. मेरे बाप ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं. उसने उन्हें ये समझकर डरा धमका कर भगा दिया कि ये बहावलपुरी डरपोक होते हैं, मैं रुपये नहीं दूंगा तो क्या कर लेंगे ? उसे ये तरीका और कारगर लगा कि थोड़े थोड़े दिनों में यही देखने दिखाने का ड्रामा किया जाए और हर बार पेशगी लिया हुआ रुपया हज़म कर लिया जाए. मैंने सोचा, वो मेरा जिस्म बेच ही तो रहा है. फिर मैं उसे मेरा जिस्म क्यों बेचने दूं ? क्यों न मैं ही अपना जिस्म बेचूं, कम से कम मेरे बुढापे में मेरी जेब में इतना पैसा तो होगा कि दो वक़्त की रोटी आराम से खा सकूं. ये सोचकर घर से भागने की योजना बनाने लगी. इसीलिये मैंने आपसे पूछा था कि रेलगाडी में जाने के लिए क्या करना पड़ता है.”
“ ओह हाँ, तुमने पूछा था, मुझे उसी वक़्त लग गया था कि तुम कहीं बाहर निकलना चाह रही हो.”
“ हाँ कँवर साब, पर मैं ये सब सोच ही रही थी कि एक दुर्घटना हो गयी. दुनिया बदल रही है तो क्या बहावलपुरी भी उसके साथ नहीं बदल सकते? रमजान उस दिन तो वहाँ से चला गया लेकिन अपने गाँव जाकर उसने अपनी बिरादरी के कुछ लड़कों को सारी बात बताई और कहा कि कैसे भी करके वो दस हज़ार रुपये वसूलने हैं. पांच छः मुश्टंडे एक रात आये. मेरे माँ बाप, भाए बहन को मारकूट कर एक कोने में डाल दिया और रुपये तो वहाँ कहाँ पड़े थे जो वो वसूल करते. हाँ मैं ज़रूर वहाँ थी और औरत के जिस्म से बेहतर रूपये की वसूली और भला कहाँ हो सकती है? उन्होंने जी भरकर मुझसे वो दस हज़ार वसूल किये और वापस लौट गए. मेरा जिस्म भी बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया था और मेरी रूह भी. अगले ही दिन मैं घर से भाग गयी. मैंने दिल्ली का टिकट लिया और गाडी में बैठ गयी.”
“ उसके बाद........?”
“ बहोत धक्के खाए कँवर साब बहुत धक्के खाए.....वो सारे ज़ख्म मैं आपके सामने नहीं उघाड़ सकती क्योंकि वो सारे ज़ख्म अभी भी कच्चे हैं और आप जानते हैं ना कच्चे ज़ख्म को छेड़ा जाए तो उसके ऊपर की पपड़ी उतर जाती है और ज़ख्म फिर से हरे हो जाते हैं.....खैर.... बस इतना ही समझ लीजिये कि अब अच्छे अच्छे लोगों के बीच उठती बैठती हूँ. काम वही करती हूँ जो मेरा बाप मुझसे करवाना चाहता था लेकिन पूरी इज्ज़त के साथ और अपनी मर्जी से. एक बात और कहूं मैं? हो सकता है आपको अच्छी न लगे लेकिन ये एक सच्चाई है.”
“ हाँ बोल दो.”
“ इस दुनिया की हर औरत वही काम करती है जो मैं कर रही हूँ. उसे एक घर मिलता है, परिवार मिलता है लेकिन उसकी कीमत उसे भी वही चुकानी पड़ती है जो मैं चुका रही हूँ.”
मुझे शाम की गाडी पकड़नी थी. मैं वहाँ से उठ खड़ा हुआ. मुनकी की आँखें भर आयी थीं. रूंधे हुए गले से वो बोली, “कँवर साब, जज्बाती होकर कुछ ज़्यादा बोल गयी हूँ तो माफ़ कर देना. मेरे माँ बाप मिल जाए तब भी उन्हें मत बताना कि आपकी मुझसे मुलाक़ात हुई थी. और हाँ.......जानती हूँ आप आयेंगे नहीं लेकिन फिर भी हाथ जोड़कर विनती कर रही हूँ, आप तो दिल्ली आते ही रहते हैं........ जब भी सहूलत हो घर ज़रूर पधारें, ताकि मुझे भी लगे कि आपके ज़रिये मैं अपनी धरती से जुडी हुई हूँ.” और उसने नीचे झुककर मेरे पाँव छू लिए. मुझे लगा उसकी आँख का एक आंसू मेरे पाँव पर गिरकर मुझे अन्दर तक भिगो गया था.


Sunday, November 19, 2017

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग- 45( महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला )






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ज़िंदगी सीधी रेखा में चलने वाली कोई चीज़ तो है नहीं. अगर सीधी रेखा में चलने वाली चीज़ ही होती तो शायद इसमें कोई कहानियां ही जन्म न लेतीं और हर इन्सान की ज़िंदगी एक ही तरह से गुज़रती. लेकिन इंसान न जाने एक साथ कितने स्तरों पर एक साथ जीता है, न जाने कितने मोर्चों पर एक साथ जीवन की ये लड़ाई अलग अलग रूप में लड़ता है. कहीं बुरी तरह
हारता है तो कहीं-कहीं वो जीतता भी है और उसे कुछ हासिल भी होता है.  जब कोई भी इंसान अपनी गुज़री ज़िंदगी की दास्तान सुनाने लगता है तो वो अपने हर स्तर पर जिए गए लम्हों को एक ही वक़्त में पढने वालों के सामने नहीं रख सकता. अक्सर वो एक रौ में बह निकलता है और उस रौ में जीवन के एक ही पक्ष को छू पाता है. ऐसे में थोड़ा आगे चलकर उसे महसूस होता है कि, अरे, जीवन का ये पक्ष तो अधूरा ही छूट गया या  फिर कि ये पक्ष तो मैंने छुआ ही नहीं. मैं भी इसका अपवाद नहीं हूँ. कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा है. मैं अपने निजी और सरकारी जीवन की बातें करते करते भूल ही गया कि कुछ और लोग भी थे, जिनके बारे में मैं आपको बता रहा था. ये वो लोग थे जिनमें से कुछ ने मेरे जीवन को प्रभावित किया तो कुछ मेरे नाटकों के चरित्र बनकर उभरे.
आपको अमरू, जैना और उनका परिवार याद होगा. उनकी बेटियाँ भंवरी, काळकी, मुनकी और नूरकी याद होंगी, उनका बेटा मंगतिया याद होगा. अमरू और मेरे घर के बीच एक पतली सी गली थी. इसलिए उस झोंपड़ेनुमा घर और उसके आगे गोबर और मिट्टी से लिपी चौकी पर होने वाली हर घटना हमारी आँखों के सामने ही घटती थी. अमरू भंवरी की दो बार शादी कर चुका था और हर बार उसने भंवरी के बदले अच्छी खासी रक़म अपने दामादों से वसूल की थी और अपना गाड़ा चलाने का काम छोड़कर घर में पड़ा रहता था. वो सोचने लगा था कि जब एक भंवरी के दो ब्याह करके वो आसानी से गोश्त रोटी खा सकता है तो फिर उसे काम करने की ज़रूरत क्या है? उसके तो चार बेटियाँ हैं. मान लिया कि काळकी काली-कलूटी है मगर है तो लड़की ही. उसके भी कुछ तो दाम मिलेंगे ही. फिर उसकी मुनकी तो हद दर्जे की खूबसूरत है. वो देसी दारू का पव्वा चढ़ाकर खुले आम कहा करता था, मुनकी की शादी तो वो उसी से करेगा जो उसे पूरे एक लाख रोकड़े देगा. उन दिनों मेरी माँ ज़िंदा थीं. अक्सर जैना उनके पास आकर रोया करती थी, “काकी जी कांईं करूं? औ बाळनजोगो तो इसो हराम हाड हुयो है कै कीं काम करनो ई नी चावै ? औ कोई ब्यांव करनौ हुवै? औ तो साफ़ बेचणो है छोरियां नै”.(काकी जी क्या करूं ? ये हरामी तो ऐसा हुआ है कि कुछ काम करना ही नहीं चाहता. ये कोई शादी होती है? ये तो साफ़ बेचना है लड़कियों को .)
मेरी माँ बेचारी क्या करतीं सिवाय जैना के दुःख से दुखी होने और उसे दिलासा देने के. वो कहतीं, “तूं समझा बीनै. अरे मिनख ई तो है, डांगर तो है कोनी, तूं समझासी सावळ तो समझ जासी.” (अरे समझा उसे मनुष्य ही तो है, कोई जानवर तो है नहीं, तू ढंग से समझाएगी तो मान जायेगा.)
“अरे नईं ओ काकीजी, डांगरां सूं भी गयो बीत्यो हुग्यो औ मूफत रौ माल खा खा’र.” (अरे नहीं काकी जी मुफ्त का माल खा खाकर ये पशुओं से भी बदतर हो गया है.)
और रोती रोती जैना चली जाती अपने झोंपड़े में उस डांगर के हाथ से पिटने के लिए. अमरू के लिए जीवन का सिर्फ एक ही अर्थ था, एक पव्वा दारू और गोश्त रोटी. जब उसे ये नहीं मिलते थे तो वो घर में सबके साथ मार-पीट करता रहता था. काळकी की शादी में अमरू को बहोत खींच तान करके भी दो हज़ार ही मिल पाए थे. भंवरी की तीसरी शादी भी उसने अनूपगढ़ के एक बहावलपुरी के साथ करीब करीब तय ही कर दी थी. उसे लगा कि इस तरह पंद्रह बीस हज़ार उसकी जेब में आ जायेंगे तो वो आराम से साल-दो साल निकाल देगा, तब तक मुनकी शादी लायक हो ही जायेगी. अगर उसकी भी इसी तरह दो तीन बार शादी हो गयी तो उसकी ज़िंदगी तो बहोत आराम से बिना किसी तकलीफ के, बिना कोई काम किये गुज़र जायेगी. लेकिन जब अमरू ने भंवरी को काळकी के ब्याह के बाद दामाद के साथ नहीं भेजा तो भंवरी समझ गयी कि उसके बाप ने उसे एक बार फिर से बेचने का इरादा किया है. वो सोचने लगी कि आखिर कब तक वो इस तरह बार बार बिकती रहेगी ?
उसे अपना पहला शौहर शफी बहोत याद आया, लेकिन उसके पास लौटना तो अब मुमकिन नहीं था, उसने तय कर लिया कि बस बहोत हो गया, अल्ताफ जैसा भी है, वो उसके साथ ही रहेगी. उसने अमरू से छुपाकर अल्ताफ को खबर करवाई कि वो आकर उसे ले जाए. अल्ताफ दस बीस बंदूकों वाले आदमी लेकर दुबारा उसे हर हालत में लेनेआ पहुंचा.अमरू बिलकुल डरा नहीं क्योंकि वो जानता था कि ये बहावलपुरी इन बंदूकों से तीतर बटेर ही मार सकते हैं, किसी इंसान को मारने का कलेजा इनके पास नहीं है, लेकिन भंवरी अड़ कर खड़ी हो गयी कि वो अल्ताफ के साथ जायेगी और वो सचमुच उसके साथ चल दी. अमरू उसका मुंह देखता रह गया, लेकिन भंवरी भी जाने अपने भाग्य में क्या लिखवा कर लाई थी. उसके गाँव में डाका पडा और डाकुओं से मुठभेड़ में उसका शौहर अल्ताफ मारा गया. अब उसे ससुराल में रहकर सिवाय सास की मार के क्या हासिल होना था, इसलिए वो डाकू छोटे ठाकुर के ऊँट के सामने जा खड़ी हुई और कहा, मेरे शौहर को तो मार दिया है, अब मुझे यहाँ क्यों छोड़कर जा रहे हो, मुझे भी साथ ले चलो. ठाकुर ने उसे अपने ऊँट पर बिठा लिया और रेगिस्तान का रुख किया, जहां वो ठकुरानी बनकर रह रही थी और जहां एक काली पीली आंधी में भटककर बस के एक मुसाफिर के रूप में मैं पहुँच गया था. ये सारा वाकया मैं ३१ वें एपिसोड में विस्तार से लिख चुका हूँ .
काळकी के ब्याह में मिले पैसे तेज़ी से ख़तम हो रहे थे. जैना की गालियों के तीर अमरू पर तेज़ हो चले थे लेकिन अमरू कहाँ जैना से कम रहने वाला था? जब उसके हाथ पैर चलने लगते तो वो कुछ न सोचता.  थप्पड़, मुक्का, लात हर हथियार आजमा लेता था, यहाँ तक कि अगर हाथ में कोई लकड़ी का टुकडा आ गया तो उसका इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकता था. ऐसे में जवानी की तरफ तेज़ी से क़दम बढाती मुनकी आगे बढ़कर अमरू का हाथ पकड़कर चिल्ला पड़ती, “बाळण जोगो, हत्तो तत्तो, पीटणै पड़ियो........आ बापड़ी तो बियान ई मरी पड़ी है, क्यों मारै ईने ? जा गाडो ले’र बळै क्याँ नी ? च्यार पेइसिया कमा’र ला जिकै सूं सगळां रौ घोघो भरीजै........अर जे कमा नईं सकै तो इत्ता इत्ता टाबर क्याँ पैदा कर्या बाळ्या हा ? जद तो हरामी रै जवानी फूटी पड़ती ही..... म्हारी माँ नै ज़रा ई जक कोनी लेण देतो, दिन देखतो ना रात देखतो अर ना म्हां टाबरां रै सोवण नै अडीकतो.....!!!!”(राजस्थानी गालियाँ, ये बेचारी तो पहले ही मरी पड़ी है, क्यों मार रहा है इसको ?...... गाड़ा लेकर मजदूरी पर क्यों नहीं जाता ?चार पैसे कमाकर लाएगा तो सबका पेट भरेगा....और अगर कमा नहीं सकता तो इतने बच्चे क्यों पैदा किये ? तब तो जवानी फूट रही थी. मेरी माँ को न दिन में चैन लेने दिया ना रात में....और तो और हम बच्चों के सो जाने का भी इंतज़ार नहीं कर सकता था.)
जवान होती बेटी के हाथ से बुढापे की तरफ तेज़ी से बढ़ता अमरू अपना हाथ नहीं छुड़ा पाता तो चिल्लाने लगता, “घणी जबान चालण लागगी है थारी मादर.......... रंडी....... छोड......छोड म्हारो हाथ.....”(बहोत जुबान चलने लगी है तेरी मादर....... रंडी..... छोड़....छोड़ मेरा हाथ......)
और मुनकी उसका हाथ तो छोड़ देती लेकिन जोर से धक्का भी देती और आँखें निकाल कर चिल्लाती, “चाल गाडो उठा अर रवाना हुजा काम माथै, नईं तो साळा हरामी आज दुनिया देखसी कै एक बाप नै बीं री ई औलाद कियां कूटै है?”(चल, गाड़ा उठा और रवाना हो जा काम के लिए साले हरामी, वरना आज दुनिया देखेगी कि एक बाप की उसकी औलाद कैसे पिटाई करती है.)
उसकी लाल लाल बड़ी बड़ी आँखें देखकर अमरू आजकल वास्तव में डरने लगा था. गालियाँ निकालते निकालते भी उसे अपना गाड़ा लेकर निकलना ही पड़ता. अब मुनकी एक कोने में गठरी की तरह पड़ी माँ को उठाती, लेकिन उसका चिल्लाना अब भी नहीं रुकता था. “देख कित्ती लागी है. दो दिनां सूं भूखी पड़ी है अर ऊपर सूं इसी मार...... अरे मावड़ी तूं आखर जींवती क्याँ है? बस ईं जिनावर रै हाथां आ मार खाण खातर? “(देख कितनी चोट लगी है तेरे, अरे माँ तू क्या सिर्फ इस जानवर के हाथों ये मार खाने के लिए जी रही है?)
कराहती कराहती जैना उठती. उसके घावों को साफ़ करती करती मुनकी फिर चिल्लाने लगती, “थे लुगायां भी किसी माटी री बण्योड़ी हुओ हौ अल्ला जाणै, भूखां मर लेसो पण टाबर जण्याँ बिना कोनी रैवो. अरे मरद खनै आवै जणै बीं भड़वै रै ढूंगां माथै दो लात कोनी मारीजे थांरे सूं ?” (तुम औरतें भी अल्लाह जाने किस मिट्टी की बनी हुई होती हो, भूख मर लोगी लेकिन बच्चे पैदा किये बिना नहीं मानोगी. अरे मर्द जब तुम्हारे पास आता है तो उसके पिछवाड़े में दो लात नहीं जमा सकतीं तुम लोग ?)
कराहती कराहती जैना बोलती, “अरे घणी जिबान ना चला बाळनजोगी...... है तो तूं भी लुगाई री जात.....बा भी गरीब घर में पैदा हुयोड़ी......तनै किसो राजकंवर परणीज’र ले जाण आळो है ? तनै भी औई सो क्यूंई झेलणो है बावळी, घणा मोटा बोल मती ना बोल.”(अरे ज़्यादा जुबान मत चला करमजली... है तो तू भी औरतजात.... वो भी गरीब घर में पैदा होई हुई..... तुझे कौन सा राजकुमार ब्याहकर ले जानेवाला है ? तुझे भी यही सब कुछ झेलना है बावली, ज़्यादा बड़े बोल मत बोल.)
“रैवण दे अै बातां मा.........म्हारो नांव मुनकी है. म्हारी मरजी रै बिगर जे म्हारै कोई हाथ लगा लै नी तो म्हैं बीं रौ जड़ सूं ई काट नाखूं.”(रहने दे ये बातें माँ..... मेरा नाम मुनकी है. मेरी मर्जी के बिना मेरे कोई हाथ लगा ले ना, तो मैं उसका जड़ से काट फेंकूं.)
अमरू गाड़ा लेकर जाता था तो शाम तक चार पैसे कमा कर ही लौटता था. वो पैसे जैना के सामने फेंक कर चिल्लाता था, “लै मर.... तूं ई थारो घोघो भर अर थारी औलादां रौ घोघो भी भर. साळी म्हारो हाथ इसो मरोड़्यो कै हाल दूखै बळै. ज़रा ई दया माया कोनी ईं रांड नै...... च्यार पेइसिया कम मिलै तो परवा कोनी पण ईं छिनाळ खातर आदमी इसो जोसूं जिको रोज ईं रा हाड भांगै.”(ले मर, तू भी अपना पेट भर और अपनी औलादों का भी पेट भर. साली ने मेरा हाथ ऐसा मरोड़ा है आज कि अभी तक दर्द कर रहा है. इस रांड को ज़रा भी दया माया नहीं है. चार पैसे कम मिलें तो कोई परवाह नहीं लेकिन इस छिनाल के लिए ऐसा मर्द ढूंढूंगा जो रोज़ मार मार कर इसकी हड्डियां तोड़े.)
इतनी मार खाने के बाद भी अपने शौहर का हाथ दुखने की बात सुनकर जैना जैसे किसी आत्मग्लानि से भर उठती थी. उसका खुद का शरीर सुबह की मार से घायल होता था मगर वो मुनकी को गालियाँ देने लगती, “आ रांड है ई इसी..... क्याँ मूँडै लाग्या करो बीं रै ? लै मंगतिया लाधू बाबै अठियां समान ले’र आ भाज’र जितै म्हैं थारै बाप रै हाथ रै मालिश कर दूं.” (ये रांड है ही ऐसी. क्यों मुंह लगते हो इसके? ले मंगतिया, लाधू बाबा के यहाँ से भागकर  सामान लेकर आजा, तब तक मैं तुम्हारे बाप के हाथ के मालिश कर देती हूँ. )
मंगतिया पैसे लेकर लाधू बाबा की दूकान की ओर भागता था. सामान क्या क्या लाना था वो उसे भी पता था और लाधू बाबा को भी . वही फिक्स शॉपिंग लिस्ट आठ आने का आटा, एक आने का तेल वगैरह वगैरह. मंगतिया जानता था कि रोटी तो बाद में मिलेगी लेकिन चुंगी में लाधू बाबा से दो चार गुड़ चढ़े भुजिया मांगने का अधिकार तो उसे मिल ही जाएगा.
जैना झोंपड़े के किसी कोने से डिब्बी में रखा जला हुआ तेल उठा लाती और अमरु के पास मालिश करने की नीयत से आकर बैठती. उधर मुनकी ठहाका लगाती, “ओ हो हेत फूट्यो पड़ रियो है चिड़ै चिड़कली में...........?”( ओहो तो प्यार फूटा पड़ रहा है पति पत्नी में........?)
जैसे ही जैना मालिश करने लगती, देसी दारू का भभका उसके नथुनों से टकराता और वो उसका हाथ दूर फेंकती हुई चिल्ला पड़ती, “अरे गेइवाळ दारू पी’र मर्यो है तूं ? जणै तो काळी माई रै अठियां रोटी भी खा’र मर्यो हुसी......” (अरे गए गुज़रे आदमी, दारू पीकर आया मरा है क्या ? तब तो काली माई के यहाँ खाना भी खाकर आया मरा होगा.......)
“हाँ दारू भी पी’र आयो हूँ अर गोस रोटी भी खा’र आयो हूँ, किसी के बाप का नहीं खाता हूँ अपणी कमाई का खाता हूँ .”( हाँ दारू पीकर आया हूँ और गोश्त रोटी भी खाकर आया हूँ.) फिर अपने सीने पर हाथ मारता हुआ बोलता, “म्हैं है नी चासूं जिको खासूं चासूं जिको पीसूं..... हरामजादी, गिन्दी रांड परै मर तूं..........” (मैं जो चाहूंगा वो खाऊंगा और चाहूंगा वो पियूंगा, हरामजादी गंदी रांड, परे मर )
और मुनकी फिर ठहाका लगाती, “बस..........हूयगी प्यार मोब्बत? थे हौ दोनूं एक ई माजनै रा. अबार लाड उमड़ रियो हौ अर अब गाळ्यां काढ रिया हौ एक दूसरै नै अर थोड़ी’क ताळ नै भेळा सूसो मरसो.” (बस हो गयी प्यार मुहब्बत? तुम दोनों हो एक ही जैसे मुआज़ने के. अभी दोनों में प्यार उमड़ रहा था, अब एक दूसरे को गालियाँ दे रहे हो और अभी थोड़ी ही देर में फिर साथ सोओगे.)
 ये रोज़ का नाटक बन गया था. जबसे अमरु को लगने लगा कि काळकी के ब्याह से मिली पूंजी  बस ख़तम होने वाली है तो जब भी गाड़ा लेकर कमाने जाता तो शाम को कुछ रुपये अपनी जमा पूंजी में से निकाल लेता और कुछ उस रोज़ की हुई कमाई में से निकाल लेता क्योंकि वो जानता था कि अगर उस दिन की कमाई में से वो पूरा खर्चा करेगा तो माँ बेटी उसे गालियाँ निकाल निकालकर गंदा कर देंगी. अब वो उन रुपयों से  घर आने से पहले एक पव्वा दारू ठेके पर ही चढ़ा लेता और अपना गाड़ा वहीं खड़ा करके काळी माई के यहाँ दो रुपये का गोश्त और तीन चार रोटियाँ खाकर घर लौटता था. अगर किसी दिन झगड़ा झंझट नहीं होता तो चुपचाप घर में एक दो रोटी और ठूंस कर सो जाता और किसी को पता भी नहीं चलता कि वो अपना पेट भरकर आया है. कभी कभी जैना को या मुनकी को पता लग ही जाता कि वो खा पीकर आया है तो उसका रटा रटाया जुमला था, “किसी के बाप का नहीं खाता हूँ अपणी कमाई का खाता हूँ.”
मुनकी फिर एक ठहाका लगाती, “ अपणी कमाई का खाता हूँ.......हुंह....... शर्म ई कोनी आवै बोलतै नै.... अरे बेटियाँ नै बेच बेच’र खावै तूं हरामी.” (अपनी कमाई का खाता हूँ......हुंह... शर्म ही नहीं आती ऐसा कहते हुए..... अरे बेटियों को बेच बेच कर तू खाता है हरामी. )
मुनकी तेज़ी से बड़ी हो रही थी और जैसे जैसे बड़ी हो रही थी उसका गोरा रंग और भी गोरा होता जा रहा था. बड़ी बड़ी आँखें, तीखे नैन नक्श और भरा हुआ बदन. उसे देखकर लगता था कि अजन्ता एलोरा की कोई मूर्ति सजीव होकर जैना और अमरू के उस गोबर लिपे आँगन में आकर बैठ गयी है. वो अपनी खूबसूरती से अनजान नहीं थी बल्कि उसे अपनी खूबसूरती पर बहोत घमंड था, इसीलिये जैसे जैसे वो बड़ी हो रही थी, उसकी ज़ुबान भी लम्बी होती जा रही थी.
जिस दिन काळकी को देखने लड़के वाले आ रहे थे, जैना ने मेरी माँ से इजाज़त लेकर उसे हमारे घर भेज दिया था, ताकि लड़के वालों की नज़र उस पर ना पड़े. इस तरह वो पहला दिन था, जबकि मुनकी ने हमारी दहलीज़ लांघकर हमारे आँगन में क़दम रखा था. इसके बाद तो वो अक्सर माँ के पास आने लगी थी. माँ भी उसका बहुत लाड रखती थी. घर में कोई अच्छी चीज़ बनती तो वो थोड़ी बहुत उसमें से बचाकर मुनकी के लिए रखती थीं. अपनी खूबसूरती के घमंड से भरी मुनकी जो अपने घर में हर वक़्त चण्डी बनी सबको गालिय्याँ निकालती रहती थी या अपने बाप को कोसती रहती थी, वही मुनकी मेरे घर के आँगन में एक दम दूसरी ही इंसान बन जाती थी. बहोत नरम लहजे में बोलना, हंसते मुस्कुराते रहना और तमीज तहजीब का पूरा ख़याल रखना. हमारे घर उसे बैठे देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि ये जैना और अमरू की बदतमीज़ लड़की है. कई बार बाहर से आये लोग तो पूछ भी लेते थे, “ ये लड़की कौन है? कोई रिश्तेदार है क्या आपकी ?
माँ हंसकर कहतीं, “ हाँ, समझ लो कि मेरी बेटी ही है.”
एक दिन ऐसे ही दुपहरी में मेरी माँ के पास बैठे बैठे मुनकी उनके पाँव दबा रही थी. न जाने क्या सोचते सोचते बोली,”एक बात कैऊं काकी जी, बुरो नईं मानो तो ?” (काकी जी बुरा ना मानो तो एक बात कहूं?)
माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, “कांईं बात है बोल मुनकी.........” (क्या बात है  मुनकी बोल? )
“ काकी जी म्हनै खोळै ले लो नी थे . थांरी बेटी बिण जासूं तो थांरी सेवा भी करसूं अर म्हारो जमारो भी सुधर जासी......... नईं तो औ म्हारो बाबलियो  कांईं  ठा कित्ती जगह बेचैलो म्हारै ई सरीर नै ?” (काकी जी आप मुझे गोद लेलो ना. आपकी बेटी बन जाऊंगी तो आपकी खूब सेवा भी करूंगी और मेरा जीवन भी सुधर जाएगा. वरना ये मेरा बाप है ना... ना जाने कितनी जगह और कितनी बार मेरे इस शरीर को बेचेगा...? )
            ऐसा कहते कहते उसकी आँखें भर आई थीं. सिसकती हुई वो बोली, “ औ बाळनजोगो सरीर खपसूरत है, ई में म्हारो कांईं कसूर है, थे ई बताओ ? बौ म्हारो बाप है पण म्हारै सरीर खानी घड़ी घड़ी इयाँ देखै जाणै कसाई बकरै रै सरीर नै देख’र बीं में कित्तो गोस निकळसी ईं रो अनाजो लगावै........ साँची कैवूं हूँ काकी जी, केई वार तो मन करै ई सरीर पर तेज़ाब छिड़क लूं, पछै कैवूं म्हारै बाप नै कै लै हम्मै बेच ई गोस नै.......देखां कुण खरीददार मिलै ईंनै.......” (ये साला शरीर खूबसूरत है तो आप ही बताओ इसमें मेरा क्या कुसूर है?वो मेरा बाप है लेकिन मेरे शरीर की तरफ बार बार इस तरह देखता है जैसे कोई कसाई बकरे के शरीर को देखकर अंदाजा लगाता है कि इसमें से कितना गोश्त निकलेगा ?...... सच कहती हूँ काकी जी, कभी कभी मेरा दिल करता है कि इस शरीर पर तेज़ाब छिड़क लूं और फिर कहूं अपने बाप से कि ले अब बेच इस गोश्त को... देखें कौन खरीददार मिलता है इसे? ) और ये कहते कहते वो फूट फूट कर रो पड़ी थी.
मेरी माँ बोलीं , “म्हनै भी सो क्यूं ई दीखै बेटा.....म्हारो बस चालै तो काल लेंवती आज खोळै ले लूं तनै, पण जिका माँ बाप तनै जलम दियो है, बियाँ री मरजी बिगर म्हैं तनै खोळै किंयां ले सकूं, तूं ई बता.” (मुझे भी सब कुछ दिखता है बेटा, अगर मेरा बस चले तो कल लेती आज तुझे गोद ले लूं लेकिन तू ही बता , जिन माँ बाप ने तुझे जन्म दिया है, उनकी मर्जी के बिना मैं तुझे गोद कैसे ले सकती हूँ? )
“म्हारै बाप नै खाली म्हारो सरीर दीसै पण बौ आ कोनी समझै कै ईं सरीर में एक जी है, जिकै रा भी कीं सुपना होसी....कीं अरमान हुसी..... अरे ना सई मै’ल माळिया, दो टैम रोटी ना मिलसी तो एक बखत खा’र ई गुजारो कर लेसूं पण धणी तो कम सूं कम म्हारै जोड़ रौ हुवै. लाख लाख री रट लगा राखी है म्हारै बाप. लाख रुपिया ले’र म्हनै कोई बूढै रै लार कर देसी तो बीं बूढिये कनै कित्ती ई धन दौलत हुवो, बा म्हारै काँईं काम री ?” (मेरे बाप को सिर्फ मेरा शरीर दिखता है. वो ये नहीं सोचता है कि इस शरीर में भी एक जीव है जिसके कुछ सपने हो सकते हैं, जिसके कुछ अरमान हो सकते हैं. अरे ना सही महल, दो वक़्त रोटी ना मिले तो एक वक़्त रोटी खाकर भी ज़िंदा रह सकती हूँ मैं लेकिन कम से कम पति मेरे जोड़े का तो हो. लाख लाख की रट लगा रखी है मेरे बाप ने..... लाख रुपये लेकर मुझे किसी बूढ़े के पीछे कर दिया तो उसके पास कितनी भी धन दौलत हो वो मेरे किस काम की? )
“हाँ मुनकी सगळी बात समझूं थारी, पण कांईं करूं, तूं ई बता.” (हाँ मुनकी, तुम्हारी सारी बात समझती हूँ लेकिन तू ही बता कि मैं क्या करूं आखिर? )
“ काकी जी म्हनै बंचा लो थे ईं कसाई रै हाथां सूं. नईं तो म्हैं या तो खुद मर जासूं, या ईं नै मार काढसूं.” (काकी जी मुझे इस कसाई के हाथों से किसी तरह बचा लो वरना या तो मैं अपनी जान दे दूंगी या फिर इसकी जान ले लूंगी. )
“ चुप हो जा बेटा.........अभी तो कीं कोनी हू रियो........बिसास राख, म्हैं थारी जित्ती मदद हूँ सकैला, करसूं जे जींवती रैई तो.”(चुप हो जा बेटा... अभी तो कुछ नहीं हो रहा है... विश्वास रख, मैं जितनी हो सकेगी , वक़्त आने पर तेरी मदद ज़रूर करूंगी, अगर तब तक ज़िंदा रही तो. )
लेकिन नहीं ज़िंदा रह सकीं वो तब तक. ब्रेन हैमरेज हुआ और पंद्रह दिन हास्पिटल में रहकर मेरी माँ हम सबको छोड़ गईं. हम सबके साथ मिलकर मुनकी भी खूब रोई मेरी माँ की मौत पर जिनकी गोद जाकर वो सुरक्षित होना चाहती थी.
वक़्त गुज़रता गया. अब मुनकी के पास कोई आँचल नहीं बचा था जिसमे मुंह छुपा कर वो अपने मन का गुबार निकाल सके. घर में मैं और पिताजी बच गए थे. हमारे पास आकर वो क्या करती. पिताजी से वो बहुत डरती भी थी, फिर भी कभी कभी मेरे पास आकर बैठ जाया करती थी, मेरी माँ को याद करके खुद भी रोती थी और मुझे भी रुलाती थी.
उसके लिए रिश्ते आने लगे थे. छोटी मोटी आसामी को तो अमरू मुंह ही नहीं लगाता था. अपने समाज में यानी हलालखोरों में मुनकी की शादी वो नहीं करेगा ये तो मोहल्ले के सभी लोग जानते थे. भंवरी की दो दो शादियाँ करके उसके मुंह खून लग चुका था. उसका बस चलता तो वो उसकी एक दो शादियाँ और करता लेकिन पहले भंवरी अड़ कर खड़ी  हो गयी अल्ताफ के साथ जाने के लिए और फिर वो ठाकुरों के घर चली गयी जिनके नाम से उसकी जान सूखती थी. अब उसने तय कर रखा था कि अपनी बाकी लड़कियों को वो बहावलपुरियों में ही देगा क्योंकि उनमें लड़कियों की कमी है इसलिए वो अपना घर बसाने के लिए अच्छी रक़म दे सकते हैं. सैकड़ों गायें भैंसे और हजारों भेड़ बकरियों के मालिक इन बहावलपुरियों के पास पैसे की कोई कमी नहीं होती और वो झगडे झंझट से बहोत डरते हैं इसलिए शादी तोड़कर फिर से दूसरी जगह शादी करना आसान होता है.
एक सुबह मैंने छत पर से देखा पांच छः लम्बे लम्बे बहावलपुरी सफ़ेद तहमद और कुर्ता पहने दुनाली बंदूके लटकाए अमरू की चौकी पर बैठे हैं. जैना और अमरू उन्हें चाय पिला रहे हैं. मुझे लगा कि ये ज़रूर मुनकी की शादी के सिलसिले में आये हैं. पिताजी भी घर में ही थे. मैं उनके लिए चाय बना रहा था कि मुझे लगा हमारे घर के पीछे वाले दरवाज़े को कोई खटखटा रहा है. गायें थीं तब तक तो कई लोगों का आना जाना उस दरवाज़े से होता था लेकिन गायें बेचने के बाद आम तौर पर उस दरवाज़े से कोई आता जाता नहीं था. मुझे लगा कि शायद मुझे वहम हुआ है लेकिन एक मिनट बाद ही फिर से दरवाज़े पर खटखट सुनाई दी. मैंने जाकर दरवाज़ा खोला तो देखा कि मुनकी खड़ी काँप रही है. मैं कुछ बोलूँ उससे पहले ही उसने मुझे हाथ से एक तरफ हटाया, दरवाज़े के अन्दर घुसी और दरवाज़ा बंद कर लिया. मैंने कहा, “अरे रे ये क्या कर रही हो मुनकी ?”
कँवर साब म्हनै लको लो कठै ई...... बौ म्हारो बाप म्हारो सौदो कर रियो है. म्हनै लको लो..........” (कुंवर साब, मुझे कहीं छुपा लो, मेरा बाप मेरा सौदा कर रहा है, मुझे कहीं छुपा लो .)
 मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं? हालांकि अमरू मेरे पिताजी से बहोत डरता था लेकिन ये तो उसके लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल था. मुझे पता था वो अभी मुनकी को ढूंढता हुआ आ पहुंचेगा. मैं ये सब सोच ही रहा था कि पिताजी आ पहुंचे और बोले, “कांईं बात है छोरी ? तूं कांईं करै है अठै ?” (क्या बात है लड़की, यहाँ क्या कर रही है तू? )
“म्हनै थोड़ी देर खातर लको लो थाणेदार जी.... म्हैं थोड़ी देर में चली जासूं कठै ई .” (थानेदार जी मुझे कुछ देर के लिए छुपा लो घर में. फिर कहीं चली जाऊंगी मैं. )
जब पिताजी आ गए तो मैं तो क्या बोल सकता था? पिताजी ने कहा, “ नईं भई म्हे थांरे घर री बातां रै बिचाळै कोनी बोल सकां. तूं जा अठियां. बौ अमरियो आयग्यो तो म्हारो माथो लाग जासी.” (नहीं भई, हम लोग तुम्हारे घर के अन्दर की बातों में बीच में नहीं बोल सकते. तू जा यहाँ से, अगर अभी अमरू आ गया तो मेरा झगड़ा हो जाएगा उस से. )
मैं बोलने लगा, “ये बालिग़ हो चुकी है, ज़बरदस्ती इसे इस तरह कैसे बेचा जा सकता है? हम लोग पुलिस को भी तो.............”
पिताजी ने मेरी बात को बीच में ही काटते हुए कहा, “तुम चुप रहो......इन लोगों के घर के मामले में हमें नहीं पड़ना.”
इतनी सख्ती से पिताजी मुझसे कभी पेश नहीं आये थे. उनका वो सख्त रवैया देखकर मैं भी आगे कुछ नहीं बोल सका. बस मजबूर होकर मुनकी की तरफ देखता रहा.
आँखों में पानी भरे मुनकी ने वही दरवाज़ा खोला जिससे बड़ी उम्मीद लेकर वो अन्दर आई थी और धीमे धीमे क़दमों से बाहर निकल पड़ी. जाते जाते आंसुओं से लबरेज़ नज़रों से जिस तरह उसने मेरी ओर देखा था वो  नज़रें मैं कभी नहीं भूल सकता. वो नज़रें मानो मुझसे कह रही थीं, “आपने मुझे नहीं बचाया कँवर साब, अब मेरी जो भी बरबादी होगी उसके ज़िम्मेदार आप होंगे.” मुनकी चली गयी थी. मैं बस मन ही मन उससे माफी मांग रहा था, “मुझे माफ़ करना मुनकी...... मैं तेरे लिए कुछ नहीं कर सका.”
दिन भर अमरू के घर में गहमागहमी रही.  बोळकी और मटोलकी जैना की खाना बनाने में मदद कर रही थी. लहसुन छीला जा रहा था बड़े से देग में गोश्त उबाला जा रहा था. दारू की बोतलें आ चुकी थी. अमरू बहोत खुश था और दारू की बोतल आज उसने दिन में ही खोल ली थी. मेहमानों को भी पिला रहा था और खुद भी पी रहा था. थोड़ा नशा जब हावी होने लगा तो जैना को गालियाँ बकने लगा, “जल्दी कर नी, हाल थारो गोस कोनी बण्यो कांईं मरज्याणी........”( जल्दी कर ना मरज्यानी, तेरा गोश्त अभी तक नहीं पका क्या?)
जैना थोड़ी देर तो सुनती रही, फिर चिल्लाई, “ हाथ पग घाल दूं कांईं चूलै में ? औ तो बणतो सौ ई बणसी. अर थारै जिसे कोई बूढै अर फीटै बकरै रौ हुयो तो दिनगै ताईं भी कोनी सीजेला. “ (चूल्हे में हाथ पैर डाल दूं क्या अपने ? ये तो जब पकेगा तब ही पकेगा और तेरे जैसा बूढा और ढीठ बकरा हुआ तो सुबह तक भी नहीं पकेगा. )
“ला थोड़ो ऊबळ्योड़ो ई काढ’र लूण मिर्च नाख’र दे.......दारू सागै कीं तो खावण नै चाइजै. “ (ला थोड़ा सा उबला हुआ ही दे नमक मिर्च डालकर. दारू के साथ कुछ तो चाहिए ना खाने के लिए.)
“ लै तूं तो काचो ई खा मर, ला ए मटोलकी दे ईंनै देग मांय सू काढ’र.” (ले तू कच्चा ही खा मर. मटोलकी, दे इसको देग में से निकालकर. )
थोड़ी देर में अमरू काळू जी की ढोलकी ले आया और दारू तो सबके सर पर सवार हो ही चुकी थी, सब मिलकर नाचने लगे. अमरू पर दारू कुछ ज़्यादा ही सवार थी. वो नाचता भी जा रहा था और भद्दी भद्दी गालियाँ भी निकाल रहा था और सीने पर हाथ मार मारकर जाने किससे कह रहा था, “मैंने नईं बोला था, मुनकी के एक लाख लूंगा एक लाख.......ह ह ह ह .........तुम्हारी माँ की...........तुम्हारी भैण की........लाख रुपये में ही तय की है बात........तुम लोग भी सुण रये  हो ना साळो...... एक पैसा कमती नईं लूंगा..... मुझे एक लाख चाइये पूरे एक लाख.”
मेहमानों में से एक बोला, “हाँ हाँ अभी तो दस हज़ार दे दिए हैं, बाकी नुब्बे हजार भी दे देंगे. पण एक बार छोरी तो देखा दो.”
“ अरे म्हारी मुनकी को देखकर आँखें फाट जायेंगी तुमारी भड़वों..... पूगळ की पद्मण है वो.” (अरे मेरी मुनकी को देख कर तुम्हारी आँखें फट जायेंगी भड़वों... मेरी मुनकी पूगल की पद्मिनी है. )
“ फेर भी एक बार बुलाओ उसको.” (फिर भी बुलाओ उसे एक बार बाहर )
अमरू चिल्लाया, “ला रे उस मुनकी को ला बा’र......”
जैना बड़ बड़ करती हुई झोंपड़े में गयी और मुनकी का हाथ पकड़ कर उसे घसीटती हुई सी बाहर लेकर आई. मेरी आँखों के आगे फिर से एक बार सरदारशहर का वो कसाइयों का मोहल्ला आ गया जहां रोज़ सुबह हर घर की एक ही कहानी होती थी. बकरों को जिस बाड़े में बंद किया हुआ होता था, उसमें  से किसी एक को छांटकर उस जगह घसीटते हुए लाया जाता था जहां उसे जिबह करना होता था. वो बकरा सामने आई मौत को देखकर खूब चिल्लाता था लेकिन उस पर किसी को दया नहीं आती थी और आगे बढ़कर कई हाथ थाम लेते थे और उसे लिटा दिया जाता था, जहां उसकी गर्दन पर छुरी फेरी जानी होती थी.
मुनकी को भी घसीटते हुए जैना वैसे ही बाहर लाई थी , लेकिन वो चिल्ला नहीं रही थी. उसकी आँखों से चिंगारियां निकल रही थीं, मानो वहाँ बैठे उन तमाम कसाइयों को वो भस्म कर देगी.






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