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Sunday, January 28, 2018

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग- 54 ( महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला )




आकाशवाणी सूरतगढ़ में अब राजस्थान के अलग अलग स्टेशंस से अनाउंसर्स के टूर पर आने का सिलसिला ख़त्म हो गया था. अनाउंसर लोग भी शायद यही चाहते थे कि उन्हें इस टूर पर ना जाना पड़े क्योंकि इतनी छोटी सी जगह में जहां न तो रुकने के लिए कोई क़ायदे का होटल हो और न ही खाना खाने के लिए कोई कायदे का रेस्टोरेंट, वहाँ बड़े शहरों से आये लोगों को 15 दिन गुज़ारना भी बहोत भारी लगता था. ले देकर दाल रोटी खाने वालों के लिए बिल्लू महाराज का ढाबा था और मांस मच्छी के शौकीनों के लिए सेठी होटल था. सोने में सुहागा ये कि चूंकि नया नया रेडियो स्टेशन खुला था, पूरे शहर(वहाँ के लोग सूरतगढ़ को शहर ही कहते थे) की निगाहें यहाँ काम करने वालों पर लगी रहती थी क्योंकि उनके लिए रेडियो में काम करने वाले किसी फिल्म कलाकार से कम नहीं थे. ऐसे में उनकी हर गतिविधि पूरे शहर में चर्चा का विषय बन जाया करती थी. अगर कोई अनाउंसर साहब सुबह या दिन की ड्यूटी करने के बाद शाम में दो पैग लगाने की नीयत से किसी दारू के ठेके पर चला जाता था तो अगले रोज़ सूरतगढ़ के हर फ़र्द की ज़ुबान पर यही होता था कि फ़लां जी तो दारूबाज़ हैं.
  हमारी बात डायरेक्टर साहब ने मानी, इसके पीछे इस तरह की कई वजूहात भी ज़िम्मेदार थीं. अब हम तीन लोग थे मैदान में. मैं, शीला और सरदार कुलविंदर सिंह कंग. नाम जितना भारी भरकम है खुद सरदार जी उतने ही दुबले पतले एक दम सींकिया पहलवान थे. अब हमें ही अनाउंसमेंट करने थे, हमें ही लॉगबुक भरनी थी, हमें ही मटेरियल चेक करना था, हमें ही लायब्रेरी को देखना था, हमें ही बाहर की रिकॉर्डिंग्स करके लानी थी. यानी पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सब कुछ हम तीनों लोग ही थे. हमारे ऊपर अचल साहब थे. वो बहोत ही नर्म लहजे में बात करने वाले, मुहज्ज़ब इंसान थे और उनके ऊपर हमारे डायरेक्टर साहब थे.  रोज़ मीटिंग डायरेक्टर साहब के कमरे में होती थी. वो मेरे सामने तो अब भी नहीं देखते थे, लेकिन मैंने नोटिस किया कि अनाउंसर्स के टूर का सिलसिला बंद हुआ और हम तीनों ने मोर्चा संभाल लिया उसके बाद उनके ललाट पर रहने वाली टेढ़ी मेढ़ी लकीरें वहाँ से गायब होने लगी थीं और चेहरे पर कभी कभी हल्की सी मुस्कराहट भी तैरने लगी थी. कभी कभार वो मीटिंग में हल्का फुल्का मज़ाक़ भी कर लेते थे लेकिन हँसते हुए भी एहतियात बरतते थे कि उनकी निगाहें मुझ से ना मिलें. मैं सोचता था, ये बर्फ कब पिघलेगी ? फिर खुद ही अपने आप को दिलासा देता था, कभी तो पिघलेगी ही.
इसी तरह कभी दिन रात की ड्यूटी कभी सुबह शाम की ड्यूटी यानी रोज़ ही दो दो ड्यूटी हम लोग कर रहे थे. गुप्ता जी अपना ट्रान्सफर करवाकर जा चुके थे. हालांकि हमें ड्यूटीज़ बहोत भारी पड़ रही थी मगर बिना किसी शिकवे शिकायत के हम तीनों काम किये चले जा रहे थे. कई बार हम तीनों में से किसी को छुट्टी जाना पड़ता तो जाने वाले को कहते थे, परवाह नहीं जाओ तुम पीछे हम लोग सब संभाल लेंगे. तब बाकी बचे दो लोगों को लगातार आठ आठ ड्यूटीज़ भी करनी पड़ जाती थी.
सूरतगढ़ बिलकुल पाकिस्तान के बॉर्डर पर है, इसलिए वहाँ एयर फ़ोर्स का बहोत बड़ा स्टेशन है. एक दिन सुना कि वहाँ कोई प्रोग्राम है और उसमें हमारे डायरेक्टर साहब और अचल साहब जा रहे हैं. उनकी सेना के तौर पर काम करने वाले हम तीनों ही लोग किसी दूसरे  काम में फंसे हुए थे. अचल साहब ने डायरेक्टर साहब को कहा कि रिकॉर्डिंग के लिए किसी इन्जीनियर को साथ ले लेते हैं. वो रिकॉर्डिंग कर लेगा और रिकॉर्डिंग लाकर हम लोगों को सौंप दी जायेगी. रेडियो रिपोर्ट हम में से कोई बना लेगा.
वो दोपहर बाद प्रोग्राम से लौटे तो मुझे तलब किया गया. डायरेक्टर साहब मुझे बुला रहे हैं, ये मेरे लिए एक ताज्जुब की बात थी. मैं उनके कमरे में पहुंचा. अचल साहब भी वहां मौजूद थे. मैंने कहा, “जी आपने याद किया ?”
डायरेक्टर साहब ने अपनी गर्दन झुकाए झुकाए ही कहा, “मिस्टर मोदी, ये रिकॉर्डिंग करके लाये हैं हम लोग. आपको रेडियो रिपोर्ट बनानी है. कर पायेंगे आप ?”
“जी सर, क्यों नहीं ?”
“अच्छा ये टेप्स ले जाइए, इन्हें सुनकर नैरेशन लिखकर मुझे सुनाइये.”
मैंने टेप्स लिए, उन्हें सुना. बीकानेर में पहले क़मर भाई के साथ और उसके बाद अकेले भी न जाने कितनी रेडियो रिपोर्ट्स बना चुका था इस लिए मेरे लिए नरेशन लिखना तो क्या पूरी रेडियो रिपोर्ट बना देने में भी कोई परेशानी नहीं थी. लेकिन डायरेक्टर साहब का हुकुम था कि नरेशन लिखकर उन्हें सुनाये जाएँ . मैं स्क्रिप्ट लेकर जा पहुंचा उनके कमरे में. उन्हें स्क्रिप्ट सुनायी. बहोत शान्ति से उन्होंने पूरी स्क्रिप्ट सुनी. जैसे ही स्क्रिप्ट पूरी हुई, उनके मुंह से निकला, “गुड पंडित जी.”
मैं चौंका....... उनका संबोधन थोड़ा बदल गया था. आज उन्होंने मुझे मिस्टर मोदी के नाम से नहीं पुकारा था, पंडित जी पुकारा था और सूरतगढ़ स्टेशन पर हर इंसान जानता था कि डायरेक्टर साहब  जिससे खुश होते हैं उसे पंडित जी कहकर बुलाते हैं और जिससे नाराज़ होते हैं उसे डॉक्टर के संबोधन से पुकारते हैं यानी आज वो मुझसे थोड़ा खुश हुए थे. मुझे नहीं पता था कि नियति मेरे लिए आगे क्या लिए बैठी है?मैं स्टूडियो में जाने लगा. पीछे मुड़कर देखा कि डायरेक्टर साहब अचल साहब के साथ मेरे पीछे पीछे चल रहे थे. मैं थोड़ा सा घबराया. मेरे चेहरे को शायद डायरेक्टर साहब ने पढ़ लिया. हलकी सी मुस्कराहट के साथ बोले, “चलिए पंडित जी, हम रिकॉर्ड करेंगे ये नरेशन.”
मैं क्या कह सकता था ?खुद डायरेक्टर साहब मेरे नरेशन रिकॉर्ड करने जा रहे हैं, मुझे समझ नहीं आया कि इससे मैं खुश हो जाऊं या कि सोचूँ कि उन्हें मुझपर भरोसा नहीं है कि मैं ठीक से नरेशन बोल पाऊंगा, इसलिए वो रिकॉर्डिंग के वक़्त स्टूडियो में रहना चाहते हैं.  स्टूडियो में जाकर नरेशन रिकॉर्ड किये गए. अचल साहब ने कहा, “चलिए अब बैठकर रिपोर्ट बना लेते हैं .”
 मिक्सिंग शुरू की ही थी कि मशीनें बैठ गईं. बैल की वही मशीनें लगी हुई थीं, जिनके बारे में मैं लिख चुका हूँ कि न जाने किस किस लेवल पर कितनी कितनी रिश्वतें ले देकर आकाशवाणी को बेशुमार  घटिया बैल की मशीनों से पाट दिया गया था. मशीनें देखने में बड़ी खूबसूरत हुआ करती थीं मगर काम करने में इतनी खराब कि हर स्टेशन के इंजीनियर्स दिन रात इन मशीनों से जूझते ही रहते थे. स्टेशन इंजीनियर आर सी विजय साहब को बुलाया गया. उन्होंने मशीने देखीं और बोले,  
“आप थोड़ा  वक़्त दीजिये. मैं देखता हूँ इन्हें.”
            हम लोग डायरेक्टर साहब के कमरे में आकर बैठ गए. चाय मंगवाई गयी. मैं तो चाय पीता ही नहीं था. मैंने हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए कहा, ”सर मैं चाय नहीं पीता.”
            डायरेक्टर साहब के मुंह का स्वाद थोड़ा कड़वा हो गया था. वो कुछ नहीं बोले. तभी कण्ट्रोल रूम से बुलावा आ गया. हम सब लोग फिर स्टूडियो जा पहुंचे. काम शुरू ही किया था कि मशीनें फिर बैठ गईं. विजय साहब को फिर बुलाया गया. उन्होंने बहोत ऊपर नीचे किया मशीनों को और बोले, “थोड़ा टाइम दीजिये. तीन चार घंटे लगेंगे शायद. आप लोग घर जाकर फ्रेश होकर आ जाइए. हम लोग देखते हैं तब तक.”
            डायरेक्टर साहब बोले, “लेकिन मैं एयर फ़ोर्स में कहकर आया हूँ कि कल दिन में एक बजकर दस मिनट पर ब्रॉडकास्ट करेंगे, हम लोग इस रेडियो रिपोर्ट को.”
            विजय साहब उम्र में हमारे साहब से बड़े थे. उन्होंने डायरेक्टर साहब के कंधे पर हाथ रखा और बोले, “आप थोड़ी देर रैस्ट करके आइये ना, हम लोग तब तक सब कुछ सही कर देंगे.”
            कोई चारा नहीं था. आकाशवाणी की जीप मुझे आज भी अच्छी तरह याद है, ड्राइवर जगदीश चला रहा था. आगे डायरेक्टर साहब बैठे हुए थे और पीछे मैं और अचल साहब. मेरा घर रास्ते में पड़ता था. वहाँ मुझे ड्रॉप करते हुए डायरेक्टर साहब बोले, “हम लोग डेढ़ घंटे में आ रहे हैं. आप तैयार रहिएगा.”
            मैंने कहा, “जी सर.”
            मैं घर में आया और सोचा कि डायेक्टर साहब और अचल साहब लौटेंगे तो क्यों न उन्हें एक एक कप कोल्ड कॉफ़ी पिला दी जाए. उसके बाद हम लोग जायेंगे और जब रेडियो रिपोर्ट  ख़त्म हो जायेगी, मैं अपना स्कूटर लेकर लौट आऊंगा और ये दोनों अफसर ऑफिस की जीप से घर चले जाएंगे. कॉफ़ी को बहोत अच्छी तरह घोटकर तैयार किया गया और उसे फ्रीजर में रख दिया गया. मैंने थोड़ी देर आराम किया और इंतज़ार करने लगा अपने अफ़सरों का.
            घर के बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा. मैं बाहर आया. देखा जगदीश जीप लिए खड़ा था. आगे की सीट पर डायरेक्टर साहब बिराजमान थे, पीछे अचल साहब. मैं जैसे ही बाहर आया, डायरेक्टर साहब मानो कहीं और देखने लगे. मैंने  कहा, “सर पांच मिनट, आप अन्दर आ जाइए, एक कप कॉफ़ी ले लीजिये फिर चलते हैं.”
            डायरेक्टर साहब के चेहरे के तास्सुर एकदम से बिगड़ गए और बहोत ही कड़वी और चुभने वाली आवाज़ में वो बोले, “नहीं मिस्टर मोदी, थैंक यू. हमें कोई कॉफ़ी नहीं पीनी है, आप चलिए.”
                        मैं एक बार फिर से मिस्टर मोदी हो गया था. बहोत बुरा लगा था मुझे उनका ये बर्ताव, इसके बावजूद मैंने दबी आवाज़ में एक बार फिर कोशिश की, “सर कॉफ़ी बनी हुई फ्रीजर में रखी हुई है, बस पांच मिनट लगेंगे पीने में.” अचल साहब ने तो जीप का दरवाज़ा भी खोल दिया था नीचे उतरने के लिए लेकिन डायरेक्टर साहब नहीं पिघले. उसी तरह पत्थर बने अपनी सीट पर बैठे रहे और बर्फ जैसी  ठंडी आवाज़ में बोले, “आपसे कहा ना, हमें कॉफ़ी नहीं पीनी है अभी, चलिए आप गाडी में बैठिये, देर हो रही है.”
 मैंने उसी दिन ये अहद किया, ये आदमी कभी मेरे घर की दहलीज़ नहीं पार करेगा. गुस्से में भरा हुआ मैं घर में आया, मैंने कोल्ड कॉफ़ी का जग नाली में उलट दिया और जीप में आकर बैठ गया बिना जीप में बैठे लोगों के चेहरों की तरफ एक भी नज़र डाले.
            हम लोग स्टूडियो में गए. विजय साहब और उनकी टीम के लोग अभी भी लगे हुए थे मशीनें ठीक करने में. रात के ग्यारह बजे विजय साहब मुंह लटकाए हुए आये और बोले, बहोत मेहनत की है हमने . आप लोग देखिये. शायद अब काम चल जाएगा.
            हमने कोशिश की लेकिन पांच मिनट का प्रोग्राम भी नहीं बना था और मशीनें फिर बैठ गईं. अब डायरेक्टर साहब के चेहरे पर पसीना छलछला गया. बोले, “मैंने एयर फ़ोर्स में खुद अनाउंसमेंट किया है कि कल एक बजकर दस मिनट पर ये रेडियो रिपोर्ट ब्रॉडकास्ट होगी. मेरी तो इज्ज़त चली जायेगी.”
            मैंने गर्दन झुका ली. अचल साहब की गर्दन भी झुक गयी. हम भला क्या कर सकते थे ?
            विजय साहब  बोले, “हम कुछ नहीं कर सकते अगर मशीनें काम नहीं कर रहीं . फिर भी हम हार नहीं मानेंगे. आप लोग जाकर सो जाइए. हम लोग काम करेंगे. सुबह छः बजे आप आइये. भगवान् चाहेगा तो तब तक सब कुछ ठीक हो जाएगा और आपका प्रोग्राम उसके बाद बन जाएगा.”
            डायरेक्टर साहब ज़रा ऊंची आवाज़ में बोले, “विजय साहब आधा घंटे की रेडियो रिपोर्ट बनाना कोई मज़ाक़ नहीं है. आप सुबह तक मशीनें ठीक करेंगे तो प्रोग्राम कब बनेगा आखिर ?”
             बहोत ही खराब मूड लिए हुए हम सब लोग स्टूडियो से चल पड़े. घर आकर सोया. सुबह पांच बजे उठकर नहाधोकर तैयार हो गया और इंतज़ार करने लगा गाड़ी का. पौने छः बजे हॉर्न बजा. मैं चुप चाप आकर गाड़ी में बैठ गया. मैंने महसूस किया कि कार में हर तरफ टेंशन पसरा हुआ था. स्टूडियो में जाकर देखा कि विजय साहब, श्री विजय खरबंदा, श्री एस के देव और कई इंजीनियर रात भर मशीनों से जूझकर थक चुके थे. विजय साहब बोले, “हमने रात भर काम किया है, उम्मीद है, मशीनें काम करेंगी अब.”
            मैंने टेप्स लगाए. काम शुरू हुआ लेकिन हमारी बदनसीबी. दस मिनट के बाद ही मशीनों ने जवाब दे दिया और विजय साहब रुआंसे से होकर बोले, “सॉरी.... मुझे नहीं लगता कि आपकी ये रिपोर्ट अब बन पायेगी. मुझे किसी को जयपुर भेजकर कुछ पार्ट्स मंगवाने होंगे जिसमे कम से कम चार दिन लग जायेंगे. “
            अब डायरेक्टर साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वो परेशान होकर बोले, “यानी मेरी इज्ज़त चली जायेगी इस शहर में ?”
            मैंने सुना, मेरे मुंह से निकला था, “नहीं सर, आपका सर नीचा नहीं होगा. ये रेडियो रिपोर्ट आज दिन में एक बजकर दस मिनट पर जायेगी.”
            वो एक दम हडबडाकर बोले, “लेकिन महेंद्र...... कैसे ?”
            “प्लीज़ आप और अचल साहब मेरे साथ चलिए डबिंग रूम में और...... और...... भरोसा रखिये.... सब कुछ ठीक होगा.”
            “ठीक है, जैसा तुम कहो...... “
            हम लोग डबिंग रूम में आये. एक मशीन पर मैंने अपने नरेशन लगाए दूसरी मशीन पर एयर फ़ोर्स में की गयी रिकॉर्डिंग. तीसरी मशीन पर दोनों तरफ खाली स्पूल. अचल साहब के हाथ में मैंने कैंची थमा दी थी और डायरेक्टर साहब सेलो टेप लेकर खड़े हो गए थे. मैं टेप्स के छोटे छोटे टुकड़े काट काट कर एडिटिंग कर रहा था. एक टुकडा अपने नरेशन का और उसके बाद जो जो टुकड़े एयर फ़ोर्स में की गयी रिकॉर्डिंग से लेने थे,  उन्हें सेलो टेप से चिपका चिपका कर तीसरी मशीन के खाली स्पूल पर लपेटता जा रहा था. इस तरह टेप काट काट कर  मैं वो रेडियो रिपोर्ट बना रहा था. ये सब कुछ हमारे देश में नहीं होता था. हम एक गरीब देश हैं. हम कैसे एक प्रोग्राम के लिए 10 टेप्स को काट काटकर फेंक सकते थे. मगर उस वक़्त और कोई रास्ता नहीं था. ये तो उसके बरसों बाद 1987 में जब मैं एक कैनेडियन प्रोजेक्ट में आया तब मुझे पता लगा कि ज़्यादातर अमीर देशों में एडिटिंग इसी तरह की जाती थी. वो तो बहोत बाद की बात है, अभी तो मैं 1981 की बात कर रहा हूँ, जब मैं कुर्सी पर बैठा हुआ टेप काट काट कर एडिटिंग कर रहा था और मेरे एक तरफ मेरे प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव कैंची लिए हुए खड़े थे और दूसरी तरफ मेरे डायरेक्टर सेलो टेप लिए हुए खड़े थे. दिन में एक बजते बजते..... रेडियो रिपोर्ट पूरी हुई और टेप स्टूडियो को सौंपी गयी. आज भी याद है मुझे..... डायरेक्टर साहब ने, उन्हीं डायरेक्टर साहब ने जिनके मुंह से मिस्टर मोदी भी बहोत तकलीफ के साथ निकलता था, मुझे गले लगाते हुए कहा था, “थैंक यूं महेंद्र, तुमने मेरी इज्ज़त बचा ली आज.”
            बस उस दिन के बाद मैं डायरेक्टर साहब के लिए महेंद्र हो गया . सिर्फ महेंद्र, न मोदी, न मोदी जी और न मिस्टर मोदी. ये बात अलग है कि उसके कुछ ही बरस बाद..........खैर इसे अभी छोडिये. तो मैं बता रहा था कि मैं अब डायरेक्टर साहब के लिए महज़ महेंद्र हो गया था. हर चार छः दिन बाद मुझसे पूछा करते, “महेंद्र, क्या ड्यूटी है?”
            “जी सर सुबह में ड्यूटी कर चुका हूँ.”
            “अच्छा शीला की क्या ड्यूटी है?’
            “जी दिन में.”
            “अच्छा, बेटा कैसा है ?”
            “जी सर बिलकुल ठीक.”
            “बहोत प्यारा बच्चा है महेंद्र, मन करता है उसके साथ खेलूँ थोड़ी देर.”
            “जी सर, थैंक्स.”
            चार छः दिन बाद फिर उनके यही सवाल होते थे और मेरे यही जवाब. मैं महसूस कर रहा था, वो चाहते हैं कि मैं उन्हें अपने घर बुलाऊँ, लेकिन मैं वो शाम नहीं भूल पा रहा था जब मैंने कोल्ड कॉफ़ी बना कर फ्रीजर में रखी थी और बहोत मिन्नतें की थी डायरेक्टर साहब से कि वो दो घूँट कॉफ़ी के ले लें. उन्होंने साफ़ मना कर दिया था और मैंने कॉफ़ी का वो जग नाली में उलट दिया था.
            कई दिन गुज़र गए. डायरेक्टर साहब का रवैया बिलकुल बदल गया था. अब महेंद्र के नाम का डंका बजने लगा था दफ्तर में कि एक दिन फिर डायरेक्टर साहब ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, “क्या ड्यूटी है महेंद्र ?”
            “जी सर एक महीने बाद आज छुट्टी मना रहा हूँ.”
            “अच्छा ? और शीला की क्या ड्यूटी है?”
            “जी अभी दिन में.”
            “यानी शाम को फ्री हो दोनों ?”
            “जी सर “
            “अच्छा तो फिर बेटे को लेकर मेरे गेस्ट हाउस आओ शाम को और मेरे साथ खाना खाओ तुम लोग.”
            मुझे लगा कि जो बात कहने की कोशिश वो पिछले काफी दिनों से कर रहे थे, आज कह दी है उन्होंने और अब मेरा जिद करना भी मुनासिब नहीं है. वो एक गेस्ट हाउस में रह रहे थे. हम उनके गेस्ट हाउस में डिनर के लिए जाएँ ये मुझे मुनासिब नहीं लगा क्योंकि हमने तो पूरी गृहस्थी बसा ली थी तब तक और वो उस गेस्ट हाउस में अकेले रह रहे थे. मैंने हाथ जोड़कर कहा, “सर आप गेस्ट हाउस में रहते हैं. हम वहाँ क्या आयेंगे? आप आइये हमारे घर....... बेटे के साथ खेलिए भी और डिनर भी लीजिये हमारे साथ.”
            “नहीं...... ये ग़लत बात है, आज तो तुम लोग ही आओगे. फिर जब भी तुम बुलाओगे, मैं आऊँगा ये वादा रहा.”
            हम शाम में उनके गेस्ट हाउस गए. बहोत देर तक वो बेटे के साथ खेलते रहे और उसके बाद हमने साथ खाना खाया. रात ग्यारह बजे हम लोग घर लौटे. मुझे लगा शायद हमारे लिए कुछ बेहतर दिन आ रहे हैं.
            दफ्तर में स्टाफ बढ़ने लगा था. श्री नरेन्द्र आचार्य  बनारसी पान का बीड़ा दबाये आकाशवाणी, सूरतगढ़ के गलियारों को अपने शानदार ठहाकों से जीवंत करने के लिए आ चुके थे. श्री अनिल राम जो कि मेरे साथ ही ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव बने थे, वो भी यू पी एस सी से प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बनकर आ गए थे. जहां आचार्य जी की पहचान उनके ठहाके थे, वहीं अनिल जी का धीर गंभीर लेकिन पुरख़ुलूस बर्ताव हर एक को मोह लेता था.  उनके अलावा भी एक दो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव आकर ज्वाइन कर चुके थे. उनके बारे में कुछ ज़्यादा कहने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि उनका होना न होना मेरे लिए बराबर था. सही पूछिए तो मैंने उनके वजूद को कभी भी महसूस नहीं किया. कुछ लोग होते हैं जो आपकी ज़िंदगी में कुछ मिनटों के लिए आकर भी एक अहम् रोल अदा कर जाते हैं, आपके दिमाग़ पर ऐसा असर छोड़ जाते हैं कि आप उन्हें कभी भुला नहीं पाते, वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो लम्बे अरसे तक आपके साथ बने रहने के बावजूद आपको ज़रा भी मुतास्सिर नहीं कर पाते. बस जैसे आपकी ज़िंदगी में आते हैं वैसे ही चुपचाप आपकी ज़िंदगी से चले जाते हैं और आपको कभी याद भी नहीं आते. कभी कोई ख़ास मौके पर जेहन में उनकी हल्की सी तस्वीर उभरती है तो आपको याद आता है कि अरे हाँ, ये इंसान भी तो आया था मेरी ज़िंदगी में कभी. बस इतना ही वजूद रहता है उनका.
 इसी बीच श्री सत्य नारायण प्रभाकर अमन जयपुर से ट्रान्सफर लेकर आ गए थे, जिनसे मेरी मुलाक़ात 1973 में बस में हुई थी जब मैं भाई साहब और भाभी जी के साथ बीकानेर से जयपुर जा रहा था. उन्होंने आते ही चौपाल प्रोग्राम शुरू कर दिया और डायरेक्टर साहब से कहा कि उन्हें अपने प्रोग्राम में मेरी, शीला की और कुलविंदर की ज़रूरत है क्योंकि स्टाफ में हम तीन ही ऐसे लोग थे, जिन्हें चाहे जहां फिट कर लीजिये. डायरेक्टर साहब की तरफ से ना होने का कोई सवाल ही नहीं था. मेरा वो नाम फिर से सूरतगढ़ में गाँव वालों के बीच पहचान बनाने लगा जो उदयपुर में सरयू प्रसाद जी ने दिया था, “नारायण” . बस फर्क इतना सा था कि अमन जी को हम लोग सब चाचा जी कहते थे और वो मुझे नराण के नाम से पुकारते थे. जब बहोत लाड आता था तो वो नराणिया भी कह देते थे.
            प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव जो भी थे, दिन में दफ्तर के टाइम ही आते थे, बाकी टाइम तो हम तीन लोग ही थे आकाशवाणी को अपनी पीठे पर संभाले हुए. अनाउंसर का काम भी देखना था, ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव का भी. कई बार जब हम तीन में से कोई एक छुट्टी पर चला जाता था तो बाकी दो की हालत बहोत ही खराब हो जाती थी. बस लगातार ड्यूटी, ड्यूटी और ड्यूटी. ऐसे में नींद के लिए बुरी तरह से तरस जाते थे हम लोग. यहाँ तक कि पांच मिनट का टाइम मिलते ही हम लोग झपकी ले लेते थे.
            एक बार की बात है मैं इसी तरह से दो दिन से तीनों ड्यूटीज़ लगातार कर रहा था. तीसरे दिन सुबह की ड्यूटी में बार बार आँखे झपक रही थीं. जहाँ भी चार मिनट का रिकॉर्ड चलाना होता, मैं अगला रिकॉर्ड क्यू करके तीन मिनट की झपकी ले रहा था. आँखे जैसे एक एक मन की हो रही थीं. किसी तरह साढ़े आठ बजे. साढ़े आठ बजे शास्त्रीय संगीत का आधा घंटे का प्रोग्राम हुआ करता था. मैंने अनाउंसमेंट किया और टेप चला दिया. सोचिये...... जो इंसान चार मिनट का रिकॉर्ड चला कर भी झपकी ले सकता हो, उसे अगर आधा घंटे का टाइम मिल जाए तो वो कैसे नहीं सोयेगा ? टेप चलाकर मैंने कंसोल पर सर टिकाया और सर टिकाते ही मुझे गहरी नींद आ गयी. तीन तीन मिनट की झपकियों का दिमाग़ पर ये असर हुआ था कि एक आदत हो गयी, जैसे ही संगीत ख़त्म हो, आँख खुल जाए. शास्त्रीय संगीत का टेप ख़त्म हुआ, आदत के मुताबिक झट से आँख खुल गयी. आँख तो खुल गयी लेकिन नींद की कमी रहने की वजह से नींद इतनी पक्की आयी थे कि नींद नहीं खुली. अपने आस पास देखा, कुछ समझ नहीं आया कि कहाँ हूँ. सामने घड़ी दिखाई दी तो ये तो समझ आ गया कि स्टूडियो में हूँ मगर फिर भी पूरी तरह से होश नहीं आया. नौ बज रहे थे. मुझे छोटी सुई बड़ी नज़र आ रही थी और बड़ी सुई छोटी. मुझे लग रहा था पौने बारह बजे हैं. स्टूडियो के अन्दर क्या पता लगे कि दिन है या रात है. मुझे एक बार को लगा कि शायद रात के पौने बारह बजे हैं, मुझे सभा समाप्त होने का अनाउंसमेंट कर देना चाहिये. मैं इसी असमंजस में डूबा हुआ था, कण्ट्रोल रूम ने देखा कि स्टूडियो से कोई अनाउंसमेंट नहीं आया तो वहाँ बैठे इन्जीनियेर ने स्टूडियो काटकर रिले दे दिया. जैसे ही राज्य की चिट्ठी शुरू हुई , मुझे होश आया कि अरे........ घड़ी तो सुबह के नौ बजा रही है. कहाँ मैं सोच रहा था कि रात के पौने बारह बजे हैं . मैंने अपने आपके कसकर दो तीन थप्पड़ लगाए और सोचा, अगर मैं अभी माइक खोलकर बोल देता कि रात के पौने बारह बजे हैं अब हमारी ये सभा समाप्त होती है, तो लोग कितनी हंसी उड़ाते मेरी और मेरा सूरतगढ़ शहर में निकलना मुश्किल हो जाता.
            डायरेक्टर साहब  देख रहे थे कि मैं, मेरी शीला और कुलविंदर हम तीनों दिन रात काम कर रहे थे. हम शिकायत करते भी तो किससे ? हमने खुद ने ही आ बैल मुझे मार की तर्ज़ पर कहा था कि अनाउंसर्स को टूर पर ना बुलाया जाए. सारा काम हम लोग संभाल लेंगे. एक दिन मीटिंग में हम लोगों की खराब हालत की चर्चा हुई तो तय किया गया कि कैज़ुअल अनाउंसर्स का एक पैनल तैयार किया जाए ताकि उन लोगों को अनाउंसर की ड्यूटी पर लगाया जा सके.  रेडियो पर अनाउंसमेंट किया गया कि जो लड़के लडकियां ग्रेजुएट हैं और रेडियो पर काम करना चाहते हैं वो दरख्वास्त दें ताकि उनका ऑडिशन किया जा सके. खूब दरख्वास्तें आईं लेकिन जब हम लोग ऑडिशन करने लगे तो देखा, न किसी की हिदी दुरुस्त है और न ही किसी की उर्दू. सब पर एक अलग सा ही प्रभाव नज़र आ रहा था, कभी वो पंजाबी का लगता था तो कभी राजस्थानी का. फिर भी कुछ लोगों को तो लेना ही था. छांटकर कुछ लोग लिए गए और हम लोग उनकी भाषा सुधारने के काम में जुट गए.    
            इसी दौरान एक दिन मैं ड्यूटीरूम में बैठा हुआ था कि देखा एक दुबला पतला लड़का ड्यूटी रूम की तरफ आ रहा है और उसके पीछे पीछे सिक्योरिटी गार्ड भागा हुआ आ रहा है. मुझे समझ नहीं आया कि माजरा क्या है ? तभी वो सिक्योरिटी गार्ड भागकर मेरे पास आया और बोला, “ सर.... ये साब ज़बरदस्ती मुझे धक्का देकर अन्दर आ गए हैं....... मैंने बहोत रोका लेकिन इन्होंने मेरी बात ही नहीं सुनी.”
            मैंने उस शख्स की आँखों में झाँका. न जाने मुझे वहाँ क्या नज़र आया, मैं सिक्योरिटी गार्ड से बोला, “कोई बात नहीं, आप जाइए, मैं देखता हूँ.”
            अब मैं उस शख्स की ओर मुड़ा, “कहिये क्या बात है? कौन हैं आप और क्या चाहते हैं ? इस तरह सरकारी ड्यूटी कर रहे कर्मचारी से धक्का मुक्की करना कानूनन जुर्म है, जानते हैं आप ?”
            “जी मेरा नाम कृष्ण कुमार बोहरा है. मुझे यहाँ रेडियो में काम करना है. इसीलिये मैं अन्दर आकर आप लोगों से मिलना चाहता था. इस सिक्योरिटी गार्ड ने मुझसे कहा कि मैं उसे नाम बताऊँ जिस से मुझे मिलना है. मैं यहाँ किसी को जानता ही नहीं तो भला नाम किसका बताता. मैंने बहोत मिन्नत की आपके इस आदमी की कि मुझे किसी का नाम पता नहीं है, जो भी साहब अन्दर होंगे, मैं उनसे मिल लूंगा. इस पर ये अड़ गया कि जब तक मैं किसी का नाम ना बताऊँ ये मुझे अन्दर नहीं आने देगा. ऐसे में मैं क्या करता, मैंने इसे धक्का दिया और अन्दर आ गया
             मैंने कहा, “यहाँ काम करना है से मतलब ? आप जानते हैं, वही लोग यहाँ काम कर सकते हैं जिनकी भाषा अच्छी हो, उच्चारण अच्छे हों और जिनकी आवाज़ अच्छी हो.”
            “मुझे पता नहीं कि मेरी आवाज़ कैसी है लेकिन हाँ अगर आप सिखायेंगे तो मैं कुछ भी सीखने को तैयार हूँ.”
            मैं उनकी आवाज़ पर ध्यान दे रहा था. मुझे लगा, आवाज़ अच्छी भली है, उच्चारणों पर राजस्थानी का प्रभाव था, मगर हमें राजस्थानी बोलने वाले लोगों की भी ज़रूरत  तो थी ही अपने चौपाल प्रोग्राम के लिए. मैंने  कहा, “बोहरा जी, आप रेडियो में काम कर सकते हैं लेकिन आपको मेहनत करनी होगी. बोलिए, मंज़ूर है ?”
            “जी भाई साहब आप जितनी भी मेहनत करवाएंगे मैं करूंगा.”
            “ठीक है फिर, कल से आप आइये मेरे पास. मैं जितना भी जानता हूँ आपको सिखाऊंगा.”
            और उस दिन के बाद बोहरा जी मुझसे रेडियो में बोलने की ट्रेनिंग लेने लगे. मुझे लगा अभी इन्हें चौपाल के लिए ही तैयार करना चाहिए क्योंकि उनकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव था. ज़िंदगी के नाटक में कई बार अचानक कोई किरदार दाखिल होता है, आपको पता भी नहीं चलता और दाखिल होते ही वो बहोत अहम किरदार बन जाता है. बोहरा जी इसी तरह मेरी ज़िंदगी में दाखिल हुए. मुझसे बहोत छोटे हैं उम्र में, मगर जाने कैसे मेरे दिल में अपने लिए, इतनी इज्ज़त बना ली कि शुरू दिन से आज तक मैं उन्हें कभी उनके पहले नाम से या बिना “जी” के नहीं बुला सका. शुरू दिन से आज तक बोहरा जी ही कहता हूँ  बिलकुल इसी तरह कुछ लोगों के साथ इससे उलटा भी होता है. कई किरदार आपकी ज़िन्दगी में बहोत अहम् होते हैं मगर अचानक जाने कैसे उठकर हाशिये पर चले जाते हैं या अपनी ज़िंदगी के नाटक में से निकाल कर आपको हाशिये पर डाल देते हैं. इसकी एक बहोत अच्छी मिसाल थे हमारे डायरेक्टर साहब. सूरतगढ़ में और क्या क्या हुआ, बोहरा जी ने क्या क्या किया, हमारी ज़िंदगी कैसी चल रही थी, ये आगे के एपिसोड्स में लिखूंगा, आज मैं उन डायरेक्टर साहब की ही  कहानी पूरी कर देता हूँ.  जब से मैं उनके लिए महेंद्र बना, मेरी अहमियत उनकी नज़र में काफी बढ़ गयी थी. अब मुझे अपने हर फैसले में शामिल करने लगे थे वो. कई बार मेरे घर भी आये, यहाँ तक कि उनके कई राज़ जो सूरतगढ़ में कोई नहीं जानता था, उन्हें भी मेरे सामने खोलकर रख दिया उन्होंने.
            इस बीच मैंने यू पी एस सी में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए फॉर्म भरा और मेरा सलैक्शन हुआ, इसकी तफसील भी मैं आगे वक़्त आने पर लिखूंगा, बस इस वक़्त ये जान लीजिये कि मेरे सलैक्शन पर सबसे ज्यादा खुश होने वालों में हमारे डायरेक्टर साहब भी एक थे. जैसे ही ये खबर मिली कि मेरा सलैक्शन हो गया है, उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और बोले, “महेंद्र, आज मैं कितना खुश हूँ तुम इसका अंदाजा नहीं लगा सकते.”
            “आपका आशीर्वाद सर.”
            एक दिन उन्होंने बताया, “मेरा दिल्ली तबादला हो गया है एक्सटर्नल सर्विसेज डिवीज़न में. जल्दी ही चला जाऊंगा मैं सूरतगढ़ से.”
            मैंने दुखी होते हुए कहा, “सर आप अपने शहर के करीब पहुँच जायेंगे, इस नज़र से आपके लिए तो ये अच्छी खबर है मगर हमारे लिए तो ये बहोत बुरी खबर है कि आप यहाँ से जा रहे हैं.”
            “यही तो ज़िंदगी है महेंद्र, कौन एक ही जगह रहता है ? नौकरी में तो ये सब लगा ही रहता है.”
            “जी सर ये तो है.”
            “सुनो महेंद्र, मेरी एक इच्छा है, पूरी करोगे ?”
            “ जी फरमाइए क्या हुकुम है?”
            “ मैं चाहता हूँ कि दिल्ली जाने से पहले एक दिन पूरा हम लोग साथ रहें. मैं तुम्हारे बेटे के साथ खूब खेलना चाहता हूँ.”
            “ जी सर इसमें क्या दिक्क़त है ?जब आप कहें हम लोग प्लान कर लेते हैं.”
            “ठीक है, अगले सन्डे को गाडी लेकर कहीं पिकनिक पर चलते हैं, मैं और तुम्हारा परिवार, बस और कोई नहीं.”
             सन्डे को हम लोग निकल पड़े पिकनिक के लिए. खाने पीने का सामान हमारे साथ था. दिन भर इधर उधर घूमे. डायरेक्टर साहब रेत के धोरों में मेरे बेटे वैभव के साथ खेलते खेलते मानो अपने बचपन में पहुँच गए थे. मैं सोच रहा था, वैभव के साथ धोरों पर रेत उड़ा रहा ये इंसान क्या वही इंसान है जो हमें सूरतगढ़ में ज्वाइन करवाने को भी तैयार नहीं था और जिसने हमारे पहुँचते ही दिल्ली को कहा था कि मुझे ये दोनों लोग नहीं चाहिए ?
             घूमते घामते खाते पीते हम लोगों ने वो पूरा दिन गुज़ारा. दो तीन दिन बाद ही साहब दिल्ली के लिए रवाना हो गए. जाते जाते हमसे वादा लिया कि जब भी हम दिल्ली जायेंगे तो उनसे ज़रूर मिलेंगे.
            थोड़ा ही वक़्त गुज़रा था कि मुझे किसी काम से दिल्ली जाना पड़ा. जो काम दिल्ली में था, सो तो था ही लेकिन मन में एक उमंग थी कि जो डायरेक्टर साहब इतने प्यार और ख़ुलूस के साथ हमें मिलने की दावत देकर गए हैं, उनसे भी मुलाक़ात होगी. मैं अपना काम करूं उससे पहले ही ई एस डी में जा पहुंचा और उनकी पी ए को अपने नाम की पर्ची लिख कर दी. पी ए ने चपरासी के हाथों उस पर्ची को अन्दर भिजवा दिया. अब मैं पी ए के कमरे में बैठा उनके बुलावे का इंतज़ार करने लगा. करीब एक घंटे बाद चपरासी ने कहा, “जाइए सर आप अन्दर जाइए, साहब बुला रहे हैं.”  
            मैं उनसे मुलाक़ात की उमंग से भरा हुआ कमरे का दरवाज़ा खोल कर अन्दर पहुंचा. वो अपने सिंहासन पर विराजमान थे. कुछ कागज़ देख रहे थे, मैंने उनके सामने रखी कुर्सियों की ओर क़दम बढाए ही थे कि वो गर्दन हल्की सी ऊंची करके बोले, “आइये मिस्टर मोदी.........कहिये कैसे आये?”
            मुझपर जैसे किसी ने घड़ों पानी डाल दिया. मेरे पैर जहां थे वहीं थम गये. मैंने देखा उनके चेहरे पर एक बहोत ही रस्मी सी मुस्कराहट मौजूद थी. मैं जहां था, वहीं रुक गया. मुझसे नहीं रहा गया. मैं बोल ही पड़ा, “मैं........ फिर से..... मिस्टर मोदी..... हो गया? बड़ी मुश्किल से मैंने मिस्टर मोदी से महेंद्र तक का सफ़र तय किया था सर.......मैं फिर वहीं पहुँच गया ? खैर कोई बात नहीं सर......मैं आपके पास किसी काम से नहीं आया था, बस आपके दर्शन के लिए ही आया था.....अच्छा........ प्रणाम.”
            और मैं तेज़ी से उनके कमरे से बाहर आ गया और सोचने लगा, ये क्या हुआ....? क्या इंसान इतनी जल्दी इस तरह किसी को उसकी जगह से उठाकर हाशिये पर फेंक सकता है ?
             एक तल्ख़ हक़ीक़त थी जिसे कुबूल करना था, एक लम्बी सांस छोड़ते हुए मैं ब्राडकास्टिंग हाउस से बाहर आ गया.
            इसके बाद उनसे दो चार बार किसी मीटिंग में रस्मी सी मुलाकातें हुईं. ज़िंदगी में मेरा उसूल रहा कि अगर कोई आपसे दूर हटने के लिए एक क़दम बढाता है तो आपको दो क़दम बढ़ा लेने चाहिए. यही हुआ....... कई बार दिल्ली जाता था, मगर उस कमरे की ओर मैंने कभी रुख नहीं किया.
            बरसों गुज़र गए उनसे मुलाक़ात हुए. इस बीच वो डायरेक्टर से डी डी जी हो गए थे. मैं नागौर में पोस्टेड था और शीला कोटा में. हम दोनों दिल्ली गए थे कि उदयपुर में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की खाली पड़ी दो पोस्ट्स पर ट्रान्सफर करवा लें. आकाशवाणी भवन से नीचे उतरकर  बिल्डिंग से बाहर आ रहे थे कि सामने देखा हमारे डायरेक्टर साहब जो अब डी डी जी साहब हो गए हैं सामने से चले आ रहे हैं. हम दोनों ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया, तो चौंक कर बोले, “अरे.....प्रणाम प्रणाम....कैसे हैं मिस्टर मोदी? कैसे आये दिल्ली ?”
            मैंने जवाब दिया, “सर हम लोग ट्रान्सफर के सिलसिले में आये हैं.’
            “ भई क्या बताएं ? मैं तो रिटायर होने वाला हूँ इसलिए कोई मेरी बात नहीं सुनता.”
            “ आप फिक्र न करें सर, हमारी बात कृष्णन साहब से हो गयी है और एक दो दिन में ऑर्डर्स हो जायेंगे.”
            “अच्छा अच्छा........ बहोत अच्छी बात है ये तो.........” कहते हुए वो दूसरी ओर मुड़ गए. बस ये मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात थी. इसके बाद उनसे मेरी कभी मुलाक़ात नहीं हुई. मुझे उनसे कोई शिकायत भी नहीं है क्योंकि शायद यही इस ज़माने की फितरत है. उनकी नज़रों में मुझे मिस्टर मोदी से महेन्द्र बनने में तो एक लंबा सफर तय करना पड़ा, लेकिन महेंद्र से मिस्टर मोदी मैं फ़ौरन बन गया. अब मुझे कोई ललक भी नहीं है उनके मुंह से महेंद्र सुनने की. वो जहाँ भी हैं खुश रहें, सेहतमंद रहें फिर भी  क़मर भाई की कही हुई बात रह रह कर याद आ जाती है, “जब जब तुम ऑफिस में दोस्त तलाश करोगे तो लाज़मी है कि तुम्हें ठोकर लगेगी.” मैं तो यहाँ दोस्ती से भी कुछ ज़्यादा की ही उम्मीद कर बैठा था.

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