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Monday, July 25, 2016

मेंहदी वाली सावन रुत आय गयी ...............पत्ता पत्ता बूटा बूटा - पंद्रहवीं कड़ी


सावन के महीने में मेंहदी की झाड़ियाँ फूल उठती हैं। उनके पास से गुज़रो तो भीनी-भीनी सुगंध मानो पुकार कर कहती है -
मेंहदी वाली सावन रुत आय गयी, जिया बिलमाय गयी ना। 

उस मादक गंध से बहू-बेटियों की हथेलियाँ मेंहदी रचाने को मचलने लगती हैं। कोई-कोई तो सीधे पतिदेव से माँग कर बैठती है कि मुझे मेंहदी रचानी है, लाकर दीजिये। पति अगर बहाने बनाकर टालना चाहे तो जगह भी बताती हैं और तरीका भी।

बनारस के एक पुराने रईस थे राजा मोतीचंद। उन्होंने शहर से कुछ दूर झील के किनारे अपना एक महलनुमा बँगला बनवाया था, जिसे "मोती झील" के नाम से जाना जाता था। बनारस के रईसों में इस तरह शहर से कुछ दूरी पर बगीचे और बँगले बनवाने की परंपरा रही है। इन बँगलों में आम तौर पर सिर्फ़ माली और चौकीदार रहते थे, जो समय-समय पर बगीचे के फल-फूल कोठी तक पहुंचा दिया करते थे। लेकिन बरसात के मौसम में सेठ जी पूरे परिवार या फिर यार-दोस्तों के साथ "बहरी अलंग" का मज़ा लेने के लिए खुद बगीचे में जाते थे। परिवार साथ हुआ तो झूला, मेंहदी और पकवानों का आनंद लिया जाता। दोस्त साथ होते तो भाँग-बूटी छनती, दाल-बाटी-चूरमा बनता और साज़-संगीत की महफ़िल जुटती। ऐसे ज़्यादातर बगीचे सारनाथ के आस-पास हैं लेकिन मोती झील शहर से उतनी दूर नहीं थी इसलिए फ़रमाइश हुई  -
पिया मेंहदी लिया द मोती झील से, जाके साइकिल से ना। 







मेंहदी रचाने का शौक़ नन्हीं-नन्हीं बच्चियों को भी होता है। हमें भी बड़ा शौक़ था। जब कभी घर में तीज की तैयारियाँ चल रही होतीं और माँ-मासियों-मामियों के लिये सिल-बट्टे पर मेंहदी पीसी जा रही होती तो हम भी अपनी नन्हीं हथेली फैला कर फ़रमाइश करते रहते - हमें भी, हमें भी लगाना। और जब उँगलियों के छोर पर मेंहदी लग जाती तो हथेली के बीच में चाँद बनाने की माँग करते। फिर सारे घर में ये गीत गाते घूमते -

गोरे-गोरे हाथों में मेंहदी रचाके, नैनों में कजरा डालके 
चलो दुल्हनिया पिया से मिलने छोटा-सा घूँघट निकालके।


  

पता नहीं ये फ़िल्म देखी थी या नहीं, लेकिन इतना याद है कि इस गाने का ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड इतना बजाया था कि वह कभी तो एक झटके से किसी और लाइन पर पहुँच जाता और कभी एक ही जगह रिड़कता रहता  - मोती की लड़ियाँ उछाल के- छाल के- छालके - - - 
कुछ बड़े हुए और अपनी पसंद का रेडियो स्टेशन सुनने की छूट मिली तब मेंहदी का एक गीत बड़ा मोहक लगता था -

मेंहदी लगी मेरे हाथ रे 
पी मतवारे आयेंगे द्वारे लेके संग बारात रे।   








इन्हीं दिनों बनारस में गुजरातियों की काफी बड़ी संख्या को देखते हुए नोवेल्टी टॉकीज़ में रविवार की सुबह एक गुजराती फ़िल्म प्रदर्शित की गयी। हॉल के मालिक स्वयं गुजराती थे और उन्होंने ज़ोरदार पब्लिसिटी के ज़रिये सभी गुजरातियों को अपनी भाषा-संस्कृति का वास्ता देकर कहा था कि फिल्म ज़रूर देखें और उनके इस प्रयास को सफल बनायें। लिहाज़ा मेरे नाना जी भी उनके प्रयास की सफलता में योगदान देने गये और इस तरह हमने मेंहदी का एक और गीत सीखा -


मेंदी ते वावी मालवे ने एनो रंग गयो गुजरात रे 
मेंदी रंग लाग्यो। 





मेंहदी के रंग चाहे गुजरात के हों या पंजाब के, बहुत सारी ख़ुशी-उमंग-उछाह के साथ कहीं दिल के किसी कोने में एक टीस भी दे जाते हैं। आज जो लड़की घर में किलकारियाँ भरती घूम रही है, उसे कल घर छोड़कर जाना है यह याद आते ही मेंहदी के गीत ग़मज़दा हो उठते हैं -
मेंदी नी मेंदी, मेंदी नी मेंदी 
आज रलके लावण आइयां नी पैणां ते परजाइयाँ। 



हिंदी फिल्मों में यों तो मेंहदी के ढेरों गीत हैं। इतने कि अगर गिनाने बैठूँ तो सुबह से शाम हो जाये और गीत पूरे न हों। अपनी पसंद की बात करूँ तो मुझे एक वो गीत पसंद है जिसमें मुमताज़ जितेन्द्र से कह रही हैं - तू बन जाये मेंहदी का बूटा, गोरे-गोरे हाथ लूँ मैं रंग सजना - और दूसरा वो जिसमें शाहरुख़ ख़ान काजोल को आश्वस्त कर रहे हैं कि मेंहदी लगा के रखना, डोली सजाके रखना क्योंकि आख़िरकार दिलवाले ही दुल्हनिया ले जायेंगे। इनके अलावा मेंहदी का एक और बड़ा मीठा-सा, प्यारा-सा गीत है -

मेंहदी है रचने वाली हाथों में गहरी लाली 
कहें सखियाँ अब कलियाँ हाथों में खिलने वाली हैं 
तेरे मन को जीवन को नयी खुशियां मिलने वाली हैं।


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Saturday, July 23, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग-३६ (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला )


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एम ए में आने के बाद मेरे दो ग्रुप बन गए थे. एक तरफ हिम्मत सिंह, दिनेश मिश्र, नरेन्द्र भार्गव, राजेन्द्र पांडे, शिमला और मन्जीत कौर चड्ढा थे और दूसरे ग्रुप में मेरे पुराने हरि ओम ग्रुप के कुछ लोग थे. हालांकि हरि ओम ग्रुप के लोग कुछ बिखर गए थे
, लेकिन फिर भी अशोक बंसल, महावीर शर्मा, हरि कृष्ण मुंजाल और मोहन प्रकाश शर्मा के साथ बने ताल्लुक़ात दिनोदिन और पुख्ता ही होते जा रहे थे. अक्सर मैं महावीर और मोहन के घर जाया करता था. मोहन की मम्मी जी के हाथ की बनी उत्तर प्रदेश स्टाइल की खिचड़ी मुझे बहुत पसंद थी. जब भी उनके घर वो खिचड़ी बनती थी, मम्मी जी मोहन के हाथ मुझे बुलावा भेज देती थीं. अशोक बंसल, सादुल कॉलोनी में तरशेम तायल नाम के एक लड़के के साथ एक कमरा किराए पर लेकर रहता था और उसके घर के बिलकुल पास ही हरि कृष्ण मुंजाल और उनके बड़े भाई साहब एक कमरा किराये पर लेकर रहते थे.  
अशोक और मुंजाल को छोड़कर बाकी हम सबके घर बीकानेर में ही थे. इसलिए बाकी सबके घर के लोगों से मिलना जुलना होता रहता था, लेकिन इन दो लोगों के घर के लोगों से हम लोग अनजान थे. मुंजाल का घर हांसी, हरियाणा में था, जो बीकानेर से दूर पड़ता था, मगर अशोक का गाँव रायसिंह नगर तो बीकानेर के पास ही था और अशोक का हमेशा उलाहना रहता था कि हम लोग उसके घर नहीं जाते. इसलिए हम तीन दोस्तों ने तय किया कि तीन चार दिन के लिए रायसिंहनगर घूमकर आया जाए. मैं, महावीर और मुंजाल, हम तीन लोग तैयार हो गए. कुछ दिन की छुट्टियाँ थी, इसलिए कॉलेज की कोई फिक्र नहीं थी, मेरा कोई नाटक भी नहीं चल रहा था. बस दो चीजें थीं जिन्हें मैनेज करना था. मेरी ट्यूशन और मेरी क्लिनिक. सो दोनों से तीन चार दिन की छुट्टी मारी और हम लोग अशोक के साथ ही जा पहुंचे रायसिंहनगर. अशोक के पिताजी, माता जी, पुरुषोत्तम भाई साहब, भाभी जी, उनके दो बच्चे लवली और टीटू, बहनें काँता दीदी और सुदर्शन, सभी लोग हमारे जाने से बहुत खुश हुए और सबने हमारी बहुत आव-भगत की. अशोक के पिताजी स्वर्गीय बृज लाल जी बंसल, उस इलाके के जाने माने शख्स थे. उनका एक सिनेमा हॉल था. इसके अलावा आढत की दुकानें थीं और एक कपडे की दुकान थी. अशोक के एक भाई मेडिकल कॉलेज में मेरे भाई साहब के साथ पढते थे और अब डॉक्टर बनकर हरियाणा के गोहाना गाँव में उनकी पोस्टिंग हो चुकी थी.
अशोक की माताजी और भाभीजी ने बहुत प्यार से हमें सुबह से जो खिलाना पिलाना शुरू किया, तो खाने पीने का ये सिलसिला रात तक चलता रहा. रात को गाँव की खुली हवा में घर के सामने खाटें बिछा दी गईं. उस ज़माने में गाँवों में सोने का यही सबसे अच्छा इंतजाम होता था. मर्द लोग घर के बाहर खाटें बिछाकर सोते थे और औरतें घर के अंदर आँगन में. मेहमान आते तो उनके सोने का भी यही इंतजाम रहता था क्योंकि उन दिनों न तो ए सी हुआ करते थे और न ही कूलर. वैसे भी गाँवों में मई जून की रातें भी इतनी गरम नहीं हुआ करती थीं, जितनी अब होती हैं. हम सब देर रात तक गपशप करते रहे. सुबह सूरज उगने के साथ ही सब लोग उठ गए. अब बारी आई टॉयलेट जाने की. अशोक ने बताया कि लेडीज़ के लिए घर की छत पर एक सर्विस टॉयलेट बना हुआ है, जिसे मेहतरानी साफ़ करती है, उसे इस्तेमाल किया जा सकता है. फ्लश टॉयलेट तब तक गाँवों में नहीं पहुंचे थे. दूसरा तरीका ये है कि लोटा या बोतल लेकर हम लोग रेत के टीलों में, खुली हवा में जाएँ. मुंजाल तो बोले “अरे पानी की बोतल का क्या करेंगे? पानी का क्या है, वहीं कहीं मिल जाएगा, वरना रेत के टीले तो हैं ही. दरअसल वो जनाब भी गाँव के ही रहने वाले थे, उनके गाँव में भी यही सब हाल था,इसलिए उनके लिए इसमें कुछ भी नया नहीं था, लेकिन मेरे और महावीर के लिए ये एक बड़ा मसला था, क्योंकि हमारे घरों में इससे बहुत पहले फ्लश टॉयलेट आ चुके थे और हमारी आदत पड चुकी थी, फ्लश टॉयलेट की. इसी मसले ने मुझे तब भी बहुत परेशान किया था, जब मैं खेतों में रहा था. इस वाकये के कोई पांच-छः साल बाद, जब मैं और मेरी पत्नी मुंजाल साहब की शादी में गए थे, तब तो मुझमें और भी बुरी हुई थी. बारात देर रात हांसी से रवाना होकर सुबह सुबह लड़कीवालों के घर पहुँची थी. वहाँ लेडीज़ के लिए तो घर में इंतजाम था, मगर मर्दों के लिए कोई टॉयलेट नहीं बना हुआ था. दूल्हे राजा मुझसे बोले “चलिए महेंद्र साब, खेतों में चल के आते हैं.”
मैंने कहा “खेतों में जाना पडेगा?”
“भई गाँवों में तो ऐसा ही होता है, आइये.”
इतना कहकर वो रवाना होने लगे तो मैंने कहा “अरे लेकिन लोटे या बोतल में पानी तो ले चलें?”
वो हंसकर बोले “अरे वहाँ पानी की क्या कमी है? आप फिक्र न करें, वहाँ सब इंतजाम है.”
मैंने समझा कि बारातियों के लिए कुछ खास इंतजामात किये गए होंगे.
दस मिनट पैदल चलने के बाद दूल्हे मियाँ बोले “यही हैं खेत... बैठ जाइए कहीं भी.”
मैं भौंचक्का रह गया. वो खेत तो ज़रूर थे, लेकिन फसल कट चुकी थी और खेत के नाम पर वहाँ बस सपाट मैदान भर था.
मैंने कहा “मुंजाल साब ये क्या है ? ऐसे खुले में...............? और वो पानी का इंतजाम कहाँ है?”
वो हंसकर बोले “अरे महेंद्र साब, गाँवों में तो ऐसा ही होता है. ये जो झाडियाँ दिखाई दे रही हैं, इन्हीं में से किसी की ओट में हो लीजिए.” और एक गड्ढे की तरफ इशारा करके बोले “वहाँ........वो पानी रहा.”
बड़ी मुश्किल से मैं एक छोटी मोटी झाडी ढूंढ पाया था और उससे भी ज़्यादा मुश्किल से उस पानी के गड्ढे तक पहुँच पाया था.   
खैर साहब, ये बात तो बहुत बाद की है, अभी तो मैं बात कर रहा था, रायसिंहनगर की. पहले रोज हम लोगों को खिलाया भी ठूंस ठूंसकर गया था, सो कोई और रास्ता नहीं था, हम चारों पानी की बोतलें लेकर रेत के टीलों की तरफ भागे. खुशकिस्मती से रेत के वो टीले घर से बहुत दूर नहीं थे.
हलके होकर जब घर की तरफ आने लगे तो तय किया कि आज इतना खायेंगे ही नहीं कि इस तरह की एमरजेंसी की नौबत आये. घर आये तो नाश्ता तैयार था. ब्रश करके नाश्ता किया और फिर वही दिन भर खाने पीने का सिलसिला. तीन चार दिन हमने बस वहाँ खाया, खाया और खाया. इसके अलावा कोई काम ही नहीं था. घूमने लायक आस पास कोई जगह थी नहीं. ले दे कर दो फर्लांग दूर बाज़ार चले जाते थे, अशोक की सारी दुकानों का चक्कर लगा कर लौटकर घर आते तो  फिर खाने पीने की कुछ चीज़ें हमारा इंतज़ार कर रही होतीं.

इस तरह तीन चार दिन तक खूब खा पीकर हम बीकानेर लौट आये. 
इन्हीं दिनों बीकानेर में अशोक की मौसी जी का परिवार आकर बस गया था. एक छोटे से किराए के घर में रहने वाला, एक बड़ा सा परिवार. बहुत ही साधारण रहन सहन के उस परिवार की एक खासियत थी. सबसे बड़े बेटे प्रेम जी इंजीनियर थे और उनके बाद लाइन से तीन बहनें और दो भाई बीकानेर मेडिकल कॉलेज के स्टूडेंट. सारे भाई बहन बहुत ही साधारण कद काठी के थे, लेकिन सब के सब पढ़ने में गज़ब के होशियार. अशोक के साथ अक्सर मैं उनके घर जाया करता था. मौसी जी, मौसाजी के साथ साथ प्रेम भाई साहब और राज दीदी मेरा बहुत लाड रखते थे. प्रेम भाई साहब और राज दीदी भी अक्सर हमारे घर आया करते थे. इन दोनों के साथ मेरी पटरी खूब जमती थी. इस तरह अशोक के ज़रिये इस परिवार से सम्बन्ध बने और बहुत थोड़े दिनों में ही ये सम्बन्ध काफी मज़बूत हो गए.
मेरी पढाई के साथ साथ नाटक भी खूब अच्छी रफ़्तार से चल रहे थे. एक एक कर मैंने बादल सरकार, विजय तेंदुलकर, मोहन राकेश जैसे नामी लेखकों के कई नाटक, पारीक जी, चौहान जी, प्रदीप जी जैसे कलाकारों के साथ मिलकर किये.
सूरज सिंह जी जब भी कोई नाटक करते थे, तो मुझे अपने नाटक में ज़रूर शामिल किया करते थे और मैं भी उन्हें कभी इनकार नहीं करता था, क्योंकि प्रोफेशनल स्टेज पर सबसे पहले ड्रामा करना मैंने उनके साथ ही शुरू किया था.
एक दिन सूरज सिंह जी का बुलावा आया, तो मैं उनसे मिलने पहुंचा. उन्होंने कहा “ महेंदर, भायला एक ड्रामा मेडिकल कॉलेज के हॉल में करना है और तुम्हे उसमे एक रोल करना है.”
मैंने कहा “जी अच्छा. रिहर्सल कबसे करेंगे और कहाँ करेंगे?”
वो बोले “रिहर्सल अगले हफ्ते से शुरू कर देंगे. एक महीना करेंगे. के ई एम रोड पर एक छोटा सा हॉल है वहाँ करेंगे.”
“जी अच्छा”
“लेकिन महेंदर एक बात सुनो.....”
“जी भाई साहब, बताएं”
“यार ये जो स्टेज पर काम करने वाली बीकानेर की लडकियां हैं, मैं मेन रोल उनमें से किसी से नहीं करवाना चाहता.”
“तो किससे करवाएंगे?”
“कोई नया चेहरा लाना चाहता हूँ.”
“जी”
“तुम कॉलेज में पढते हो, क्या तुम्हारे साथ पढ़ने वाली लड़कियों में से कोई ऐसी लड़की नहीं है, जो अपने ड्रामा में काम कर ले?”
मैंने कहा “भाई साहब मैं बात करके देखता हूँ कि कोई लड़की तैयार होती है या नहीं.”
“ठीक है, तुम दो चार दिन में बात करके मुझे बताओ.”
“जी भाई साहब.”
मैं उनके पास से उठ कर आ गया और सोचने लगा कि किससे बात की जाय? किसी भी लड़की से बात करने से तो कोई मतलब नहीं था. जिससे भी बात करूं, उसे कलाकार भी होना ही चाहिए. अचानक मुझे एक नाम ध्यान आया, विभा गुप्ता. हाँ...... विभा से बात की जा सकती है.
मैं कॉलेज गया, तो इत्तेफाक से विभा से मुलाक़ात भी हो गयी. मैंने विभा को बताया कि इस तरह से हम लोग एक ड्रामा कर रहे हैं, क्या तुम रोल कर पाओगी? उसने कहा कि वो अपने पापा से बात करके ही कुछ जवाब दे सकती है.
अगले दिन जब फिर कॉलेज में मैं विभा से मिला तो उसने मुझे कहा कि उसके पापा ने मुझे घर बुलाया है. विभा के पापा बीकानेर के रामपुरिया कॉलेज के प्रिंसिपल थे और बहुत खुले दिमाग के और खुले खयालात के इंसान थे. मैं इससे पहले भी कई बार उनसे मिल चुका था इसलिए उनसे जाकर मिलने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी. मैं उसी दिन शाम को विभा के घर गया और अंकल से मिला. उन्होंने कहा “देखो महेंद्र, विभा अगर ड्रामा करना चाहे तो मुझे कोई एतराज़ नहीं हैं लेकिन सबसे पहली बात तो ये है कि जिनके साथ काम करना है, वो लोग अच्छे होने चाहिए.”
“जी अंकल..... इस मामले में आप बेफिक्र रहिये.”
“दूसरी बात, रिहर्सल किस वक्त करेंगे आप लोग?”
“जी रिहर्सल तो शाम को ही हो पायेगी, क्योंकि सभी आर्टिस्ट्स दिन में कहीं न कहीं मसरूफ रहते हैं.”
“हाँ..... तो यहाँ सवाल ये उठता है कि शाम होने से पहले तो विभा अकेली रिहर्सल की जगह पहुँच जायेगी, लेकिन रिहर्सल खत्म होने तक तो काफी देर हो जायेगी.”
“जी अंकल”
“साइकिल से उसका अकेले वापस आना मुझे थोड़ा ठीक नहीं लगता.”
“जी अंकल”
“तो ये जिम्मेदारी तुम्हारी होगी कि रिहर्सल के बाद रोजाना उसे घर तक तुम पहुंचाकर जाओगे. वो अपनी साइकिल पर रहेगी, तुम अपनी साइकिल या मोटरसाइकिल से इसके साथ साथ आओगे और घर तक छोड़कर जाओगे.”
“जी अंकल, इसमें तो ज़रा भी दिक्कत नहीं है मुझे. आप यकीन रखें, मैं ही इसे घर पहुंचाकर जाऊंगा.”
“ठीक है फिर. करो आप लोग रिहर्सल. आप लोगों का ड्रामा देखने मैं भी आऊँगा. मुझे पास दोगे या नहीं?” ये कहकर वो ठहाका लगाकर हंस पड़े.
मैंने जवाब दिया “ कैसी बात कर रहे हैं अंकल ? आप तो सबसे आगे बैठकर हमारा ड्रामा देखेंगे. आप हमारा ड्रामा देखें, इससे ज़्यादा खुशी की बात हमारे लिए और क्या होगी?”
मैंने उस वक्त ये कह तो दिया था कि सबसे आगे आपको बिठाऊँगा, लेकिन मुझे उस वक्त कहाँ पता था कि ये कहकर मैंने अपने लिए एक परेशानी खडी कर ली है?
दो तीन दिन बाद हमने रिहर्सल शुरू कर दी. मैं रोजाना रिहर्सल के बाद विभा की साइकिल के साथ साथ कभी साइकिल से और कभी मोटर साइकिल से विभा के घर तक जाता था. जब वो घर में दाखिल हो जाती थी, उसके बाद मैं वापस आया करता था. कभी कभी अंकल बाहर ही मिल जाते तो कहते, “भई महेंद्र, तुम्हें ये कहा है कि तुम घर तक छोड़कर जाओगे, इसका मतलब ये तो नहीं है कि तुम घर में नहीं आ सकते. चलो अंदर चलो.... दस मिनट गपशप करके जाना.” तब फिर मुझे घर में भी जाना ही होता.
इस ड्रामा में विभा मेरी भाभी का रोल कर रही थी. एक सीन था, जिसमे उसे गश आ जाता है, वो गिरने लगती है और मुझे अपनी बाहों का सहारा देकर उसे  सम्भालना होता है. जैसा कि मैंने पहले भी एक जगह कहा है कि वो ज़माना ऐसा था कि रिहर्सल के दौरान मर्द और औरतें एक दूसरे को छुआ नहीं करते थे. जब ऐसा कोई सीन आता, तो डायरेक्टर कह देता था, इसे ग्रांड रिहर्सल के दिन देख लेंगे. लिहाजा मैं और विभा भी जब इस सीन को करने लगते तो न तो वो गिरती थी और न ही मैं उसे अपने बाहों का सहारा देकर संभालता था. हर रोज सूरज सिंह जी कह देते थे, बस विभा यहाँ तुमको गिरना है और महेंदर तुम इसे गिरने मत देना पकड़ लेना. हम दोनों हाँ हाँ कह देते थे.
रिहर्सल इसी तरह चलती रही. सबको सारे डायलॉग भी याद हो गए, सारे मूवमेंट्स भी. साउंड इफेक्ट्स, म्यूजिक, लाइटिंग, हर चीज़ अपनी अपनी जगह पर ठीक हो चुकी थी और ड्रामा करने का दिन नज़दीक आ गया था. ग्रांड रिहर्सल का दिन भी आ गया. उस दिन भी कुछ ऐसा हुआ कि गिरने और संभालने वाले सीन की रिहर्सल हम लोग नहीं कर पाए.
आखिरकार शो का दिन भी आना था, आ ही गया. मेडिकल कॉलेज का बड़ा सा ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था. नाटक शुरू हुआ. बीच बीच में हॉल में तालियों की गडगडाहट गूँज रही थी. ड्रामा बहुत अच्छा चल रहा था कि वो सीन आया, जिसमे विभा को गश खाकर गिरना था और मुझे उसे बांहों का सहारा देकर संभालना था. एक बार भी इसकी रिहर्सल तो हुई नहीं थी, वो गिरने लगी...... मैंने  अचकचाकर उसे जैसे तैसे पकड़ा और एकदम से मेरी नज़र सबसे आगे की लाइन  में बैठे हुए विभा के पापा पर पड गयी, मैं उनकी बेटी को बाहों में थाम रहा था, मुझे लगा कि वो मुझे गुस्से से घूर रहे हैं, बस मैं घबरा गया और मेरी हाथों की पकड़ एक लम्हे के शायद २० वें हिस्से के लिए ढीली पड गई, पकड़ ढीली होते ही विभा गिरने लगी तो मुझे होश आया कि मैं स्टेज पर हूँ.....ड्रामा कर रहा हूँ. मैंने फ़ौरन उसे फिर से कसकर पकड़ा. ये सब कुछ बस कुछ ही लम्हों में हो गया था और किसी को इसका पता भी नहीं चला, लेकिन विभा को तो महसूस हो ही गया था. ड्रामा खत्म होने के बाद विभा ने मुझसे पूछा “महेंद्र..... क्या हो गया था तुम्हें ? तुम तो छोड़ने लगे थे मुझे..... मैं गिर पड़ती तो?”
मैंने कहा “सॉरी विभा, जैसे ही मैंने तुम्हें पकड़ा, मेरी नज़र सबसे आगे बैठे अंकल पर पड गयी और मैं घबरा गया.”
“हाँ और उन्हें सबसे आगे भी तुमने ही बिठाया था.”
बाद में अंकल को जब सारा क़िस्सा सुनाया तो वो खूब हँसे.
कुछ ही वक्त बाद कॉलेज में कल्चरल वीक मनाया जाने वाला था. कल्चरल सैक्रेटरी ने मुझे कहा कि इस मौके पर म्यूज़िक के मुख्तलिफ़ प्रोग्राम्स के साथ साथ ड्रामा भी होना चाहिए. मैं, प्रमोद खन्ना, सरोज शर्मा और विभा गुप्ता ने एक ड्रामा तैयार करने का बीडा उठाया और डायरेक्शन करने के लिए मैंने सूरज सिंह जी को कहा तो वो फ़ौरन तैयार हो गए. हमने सूरज सिंह जी का ही लिखा एक ड्रामा लिया और उसकी रिहर्सल में लग गए.
तय दिन ड्रामा का शो हुआ जिसे बहुत पसंद किया गया. इस ड्रामा के दौरान प्रमोद खन्ना से जो दोस्ती हुई, वो आज तक उसी तरह बनी हुई है. बहुत मुसीबत की घड़ियों में मेरा साथ देने वाला प्रमोद खन्ना, आज बीकानेर का माना हुआ एडवोकेट है. आज भी कभी ऐसा नहीं होता कि मैं बीकानेर जाऊं और प्रमोद से मिलकर ना आऊँ. इसी कल्चरल वीक के दौरान मेरी दोस्ती वागीश कुमार सिंह से हुई. स्टेज करने के साथ साथ, वागीश रेडियो के लिए ड्रामा लिखा करता था. हम दोनों ने आगे जाकर रेडियो में नौकरी के लिए फॉर्म भरे और दोनों ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में एडमिशन के लिए फॉर्म मंगवाए. मैं रेडियो में आ गया और वागीश नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में चला गया लेकिन हमारी ये दोस्ती पारिवारिक दोस्ती बन गयी, जो आज भी अपनी जगह पर कायम है. वागीश के साथ मैंने अपनी ज़िंदगी के कई बहुत अच्छे और बुरे लम्हों को साझा किया है, जो आगे आने वाले एपिसोड्स में जगह जगह पर आयेंगे.
कॉलेज से निकलने के कुछ वक्त बाद एक ऐसा इत्तेफाक हुआ कि विभा मेरी भाभी बन गयी. उसकी शादी अशोक बंसल के मौसी जी के बेटे श्री प्रेम बंसल से हो गयी जिन्हें हम लोग प्रेम भाई साहब कहा करते थे. जब तक हम लोगों की पोस्टिंग बीकानेर में रही, हम लोग कई बार विभा और प्रेम भाई साहब के घर चले जाते थे, कई बार वो लोग हमारे घर आ जाया करते थे. ये ताल्लुकात इसी तरह चलते रहे. १९८१ में हम लोगों का तबादला बीकानेर से हो गया. वो लोग भी अपनी गृहस्थी में बिज़ी हो गए. बस अशोक के ज़रिये उन लोगों की ख़बरें कभी-कभार मिल जाया करती थीं. विभा रामपुरिया कॉलेज में लेक्चरर हो गयी थी, प्रेम भाई साहब की बहन राज तो पहले ही डॉक्टर बन चुकी थीं बाकी चारों भाई बहन भी डॉक्टर बनकर बीकानेर छोड़ चुके थे. एक अरसे तक इन लोगों से कोई मुलाक़ात नहीं हुई. १९९५ में जब मेरे पिताजी बहुत बीमार थे, तो प्रेम भाई साहब उनका हाल पूछने मेरे घर आये थे. ये मेरी उनसे आखिरी मुलाक़ात थी.
वक्त भी किस क़दर ज़ालिम चीज़ है अच्छे भले ताल्लुकात पर वक्त की धूल इस तरह से जम जाती है कि इन्सान उन ताल्लुक़ात की गर्माहट को खो बैठता है. दिल बहुत दुखता है, जब ऐसे किसी शख्स से कुछ बरस बाद मुलाक़ात होती है और वो कुछ बरस हमारे दरमियान कई सदियों के से फासले पैदा कर देते हैं.
कुछ साल पहले मैं बीकानेर गया हुआ था. जैसा कि मैंने बताया, मैं जब भी बीकानेर जाता हूँ, एक बार प्रमोद से मिलने ज़रूर जाता हूँ, उस बार भी मैं उससे मिलने गया. प्रमोद बोला, बाहर लॉन में बैठते हैं. हम दोनों कुर्सियां लॉन में लेकर बैठ गए, तभी मेन गेट खुला. मैंने देखा कोई लेडी अंदर घुसी है. प्रमोद मुझसे बोला “महेंदर..... देख कौन आया है?” मुझे शक्ल दिखाई नहीं दी क्योंकि वहाँ रोशनी कुछ कम थी. वो लेडी हौले हौले कदमों से चलते हुए हम लोगों के पास पहुँची. मैंने देखा “अरे.....विभा?” विभा के मुंह से भी निकला “अरे.... महेंद्र?”
विभा ने बताया कि चार दिन बाद उसके बेटे की शादी है और वो प्रमोद को शादी का कार्ड देने आई है. उसने मुझसे भी बहुत रस्मी अंदाज़ में कहा कि अगर मैं बीकानेर मे हूँ तो मुझे भी शादी मे शरीक होना है, लेकिन मेरा तो उससे अगले ही दिन का मुम्बई का रिज़र्वेशन था, इसलिए शादी में शरीक होने का तो सवाल ही नहीं उठता था. थोड़ी देर की इधर उधर की बातचीत के बाद वो वहाँ से चली गयी.
अभी तीन-साढ़े तीन साल पहले न जाने क्यों मुझे प्रेम भाई साहब की बहन डॉक्टर राज की, जिन्हें मैं राज दीदी कहा करता था, बेतरह याद आ रही थी. उनसे मुलाक़ात हुए करीब ३५ बरस गुजर चुके थे और मुझे सिर्फ ये पता था कि ये सभी डॉक्टर भाई बहन बीकानेर छोड़ने के बाद पंजाब और हरियाणा में बस गए थे. इन्टरनेट का ज़माना है, मैं इन्टरनेट की मदद से उन लोगों को ढूँढने की कोशिश कर रहा था. बहुत दिन गुजर गए, किसी का कोई सुराग नहीं मिल रहा था. एक रोज मैंने देखा, सिरसा में एक नर्सिंग होम का नाम है “बीकानेर नर्सिंग होम”. मुझे लगा, ये डॉक्टर ज़रूर कभी न कभी बीकानेर रहा होना चाहिए, तभी इसने अपने नर्सिंग होम का नाम बीकानेर नर्सिंग होम रखा है. मैंने उसके फोन नंबर खोजे तो एक लैंडलाइन नंबर मिला. दो तीन दिन तक मैं उस नंबर से राब्ता कायम करने की कोशिश करता रहा, लेकिन शायद फोन खराब था, इसलिए किसी से बात नहीं हुई. तीन चार दिन बाद आखिरकार किन्हीं मोहतरमा ने फोन उठाया. मैंने उनसे पूछा कि इस नर्सिंग होम के मालिक कौन हैं? उन्होंने जवाब दिया डॉक्टर बंसल. मुझे लगा, शायद मैं ठीक जगह पर पहुँच गया हूँ, मगर उन मोहतरमा के पास ज़्यादा वक्त नहीं था. उन्होंने जल्दी से बोला “पेशेंट का नाम बोलो और कब का अपोइंटमेंट चाहिए जल्दी बोलो.” मैंने उन्हें बताया कि मैं मुम्बई से बोल रहा हूँ और मुझे सिर्फ डॉक्टर साहब का पूरा नाम बता दीजिए. वो बोली “डॉक्टर एस के बंसल और उनकी वाइफ़ इस नर्सिंग होम के मालिक हैं.” इतना कहकर उसने फोन काट दिया. प्रेम भाई साहब के छोटे भाई का नाम सतीश था. मुझे लगा, हो न हो, ये उन्हीं का नर्सिंग होम है. मैंने अगले दिन फिर फोन लगाया तो उन मोहतरमा ने मुझे किसी तरह डॉक्टर एस के बंसल की बीवी का नंबर दे दिया. मैंने उन्हें फोन लगाया तो कन्फर्म हुआ कि ये डॉक्टर एस के बंसल, प्रेम भाई साहब के छोटे भाई सतीश ही हैं लेकिन उनकी पत्नी ने ये कहकर फोन काट दिया “अभी डॉक्टर सतीश से बात नहीं हो सकती, आपको उनसे बात करनी है तो रात में इसी नंबर पर करें.”
मुझे लगा, जिनकी मुझे इतनी याद आ रही है, उन राज दीदी तक पहुँचने का रास्ता अब मुझे मिल गया है. अब मैं रात को तसल्ली से सतीश से उनका नंबर ले लूंगा और कल उनसे बात कर लूंगा.
मैंने रात का इंतज़ार किया. रात करीब १० बजे मैंने उस नंबर पर फोन लगाया. उधर से आवाज़ आई “हेलो”
आवाज़ जानी पहचानी थी. हाँ ये सतीश की आवाज़ थी. मैंने कहा “सतीश....?”
“जी हाँ बोल रहा हूँ. आप कौन?”
“मैं मुम्बई से महेंद्र मोदी बोल रहा हूँ, आपको याद होगा.......”
मेरी बात बीच में ही काटकर सतीश बोला “ऑल इंडिया रेडियो वाले भाई साहब बोल रहे हैं क्या?”
“हाँ हाँ सही पहचाना. अरे यार मुझे बहुत दिन से राज दीदी की बहुत याद आ रही है. वो कहाँ रहती हैं? उनका मोबाइल नंबर दो ना.... मैं उनसे बात करना चाहता हूँ”
पांच सात सैकंड तक उधर से कोई आवाज़ नहीं आई. मुझे लगा फोन कट गया है. मैंने कहा “हलो सतीश मेरी आवाज़ आ रही है ना?”
सतीश की डूबती डूबती सी आवाज़ मेरे कानों में पडी “भाई साहब कहाँ से दूं मैं आपको उनका नंबर? जानते हैं आज ही उनका स्वर्गवास हुआ है और मैं अभी अभी उनका दाह-संस्कार करके लौटा हूँ.”
मैं एकदम हक्का बक्का रह गया.......ये कैसे हो सकता है? अगर उन्हें यों मुझसे मिले बिना चले जाना था, तो इतने बरस जैसी भूली बिसरी रहीं, वैसे ही रह जातीं ना ? क्यों इन्ही दिनों में इतनी शिद्दत से मुझे याद आईं? कुछ ही दिन बाद खबर मिली कि प्रेम भाई साहब भी हार्ट अटैक से चल बसे.
मगर क्या किया जा सकता है? इसी का नाम शायद ज़िंदगी है. क्यों आता है इंसान इस दुनिया में? आता है, कितनी परेशानियां उठाकर बचपन से जवानी का सफर तय करता है? फिर पूरी जवानी दाल रोटी कमाने और बच्चों की परवरिश में निकल जाती है? और बुढापा जब उसकी ज़िंदगी में दस्तक देना शुरू करता है, तब तक तो कई बीमारियाँ उसे चारों तरफ से जकड चुकी होती है. उसके बाद तो सिवा दुखों के, परेशानियों के उसके दामन में कुछ नहीं बचता. यानि पैदा होने के दिन से जो जद्दोजहद शुरू होती है, उससे उसे निजात उसी लम्हे मिलती है, जब उसे ऊपर से बुलावा आता है और वो अपने आस पास के सौ पचास लोगों को उदास, दुखी करके, अपने आख़िरी सफर पर कूच कर जाता है? फिर किसलिए आता है वो इस दुनिया में? लेकिन उसका आना या ना आना, उसके खुद के बस की बात नहीं है. वो इस दुनिया में आता है, उससे पहले उससे कोई नहीं पूछता कि तुम इस दुनिया में आना चाहते हो या नहीं? उसे इस दुनिया में लाने के फैसला तो किसी और के हाथ होता है?
आज सोच बदलने लगी है लोगों की. मेरी एक विविध भारती की लिसनर और  फेसबुक दोस्त से कुछ रोज पहले बात हुई तो मैंने पूछा “आपके कितने बच्चे हैं ?” उन्होंने हंस कर जवाब दिया “जी हमने बच्चे पैदा नहीं किये हैं और हमने तय किया है कि हम बच्चे पैदा नहीं करेंगे.”
मैंने पूछा “वजह....?”
“आप बताइये सर, इस दुनिया में दुखों के अलावा और क्या है? अगर किसी भी आम आदमी के जीवन में अच्छे और बुरे वक्त का हिसाब लगाया जाए, तो अच्छे पर बुरे वक्त का पलडा ही भारी पडेगा. फिर क्यों दो तीन जीवों को दुःख भोगने के लिए इस दुनिया में लाया जाए?”
ये एक बहस का मौजूं हो सकता है कि ये सोच सही है या नहीं, मगर इससे इनकार तो नहीं ही किया जा सकता कि ये भी सोचने का एक ज़ाविया तो है ही.

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

Monday, July 18, 2016

चंपा तुझमें तीन गुण :पत्‍ता पत्‍ता बूटा बूटा चौदहवींं कड़ी


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आजकल पत्र-पत्रिकाओं में, सोशल मीडिया में और आपसी बातचीत में सबसे अहम मुद्दा है -बरसात। बारिश हो रही है तो ख़ुशी में झूमते गीत और नहीं हो रही तो "अल्लाह मेघ दे" सरीखे गीत गाये-बजाये जा रहे हैं। रेडियो पर तो वर्षा गीतों की धूम मची हुई है। कुछ नया सुनाने की चाहत में उद्घोषक-उद्घोषिकायें जाने कहाँ कहाँ से भूले-बिसरे गीत ढूँढ कर ला रहे हैं। कुछ चिर-परिचित गीत भी बरसात के मौसम में सुने जाने पर बिलकुल नये-नये से लगते हैं, जैसे पहली बार सुन रहे हों। जैसे 1953 में बिमल रॉय की फ़िल्म दो बीघा ज़मीन के लिये सलिल चौधरी का संगीतबद्ध किया यह गीत -
हरियाला सावन ढोल बजाता आया,
धिन तक-तक मन के मोर नचाता आया,
मिटटी में जान जगाता आया।
धरती पहनेगी हरी चुनरिया,
बनके दुल्हनिया,
एक अगन बुझी,एक अगन लगी,
मन मगन हुआ एक लगन लगी। 



 

 या फिर शांताराम जी की प्रयोगात्मक फ़िल्म दो आँखें बारह हाथ के लिये भरत व्यास का लिखा और वसंत देसाई के स्वरों से सजा यह अद्भुत गीत -
हो उमड़ घुमड़कर आयी रे घटा,
कारे-कारे बदरा की छायी-छायी रे घटा
 सन सनन पवन का लगा रे तीर,
बादल को चीर निकला जो नीर, निकला जो नीर
 झर-झर झर-झर झर धार झरे हो
धरती जल से माँग भरे।
हो उमड़-घुमड़कर ---------
नन्हीं नन्हीं बूँदनियों की खनन-खनन खन खंजरी बजाती आयी
बजाती आयी देखो भाई बरखा दुल्हनिया, बरखा दुल्हनिया।


 

बरखा दुल्हनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसके आते ही सारी धरती हरी चुनरी ओढ़कर उसके स्वागत के लिये तैयार हो जाती है। घर के बड़े-बूढ़ों सरीखे पेड़ सर हिला-हिलाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते हैं। घर की बेटियों सरीखी लतायें फूली नहीं समातीं। छोटे बच्चों सरीखे पौधे यहाँ-वहाँ, हर कहीं झूमते फिरते हैं। सावन के दूल्हे की शान देखते ही बनती है। और ख़ुद बरखा दुल्हनिया हरी चुनरिया साजे, कलियों के कंगन खनकाती, रंग-बिरंगी झोली भरकर लोगों के भण्डार भरने निकल पड़ती है। बरखा के आने पर तरणि तनूजा तट के तमाल और कदम्ब वनों के पुलक उठने की बात हम पिछली कड़ियों में कर चुके हैं। आज एक और वृक्ष की बात करते हैं जो बरखा की नन्हीं-नन्हीं बूँदों की खंजरी से झूम उठता है - चंपा का वृक्ष। आम तौर पर आज हम जिसे चंपा समझते हैं और अपने बगीचों-पार्कों में बड़े शौक़ से लगाते हैं, वो असली चंपा नहीं है, चंपा का एक वर्णसंकर और आयातित संस्करण है। इसका सही नाम फ्रांजीपनी है और यह मूल रूप से मध्य और दक्षिण अमेरिका की प्रजाति है। ​




भारतीय चंपा इससे भिन्न है। इसका उल्लेख संस्कृत, पाली और तमिल साहित्य में मिलता है। अपने प्राकृतिक परिवेश में इसके पेड़ बहुत ऊँचाई तक जाते हैं। पत्तों की आकृति कुछ-कुछ मौलसिरी जैसी होती है और इसके फूल बहुत सुगंधित होते हैं।

भारत में भी अलग-अलग जगहों पर इसके अलग-अलग प्रकार देखने को मिलते हैं, जैसे काठ चंपा, कटहरी चंपा और नाग चंपा। कहते हैं कि चंपा के फूल पर भँवरे नहीं आते। बचपन में एक कहावत सुनी थी -

चंपा तुझमें तीन गुण, रूप रंग अरु बास 
केवल अवगुण एक है, भँवर न आवै पास।
 कई बार कोशिश की लेकिन इस कहावत की सच्चाई को अब तक सच या झूठ साबित नहीं कर पायी हूँ। अव्वल तो शहरों में भँवरे ही नज़र नहीं आते और कभी कोई भूला-भटका आ जाये तो इधर-उधर मँडराकर लौट जाता है। पता नहीं चंपा से उसकी गुफ्तगू होती है या नहीं।  बहरहाल पाती की जाली पर सोयी चंपा की कली का यह गीत मुझे बहुत प्यारा लगता है। आप भी सुनिये -
  

Saturday, July 16, 2016

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग-३५ (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)



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वैसे तो मैं जब बी ए में पढ़ रहा था, भाई साहब डॉक्टर बनकर नौकरी लग चुके थे और हर नज़र से एक कामयाब इंसान थे
, लिहाज़ा समाज में जिनके भी घरों में शादी के लायक बेटियाँ थीं, वो एक एक कर प्रपोज़ल लेकर आने लगे थे, लेकिन  मेरे एम् ए में पहुँचते पहुँचते तो रिश्ते के लिए आनेवालों की लाइन लग गयी. इनमें कई प्रपोज़ल बीकानेर से ही थे और कई बीकानेर से बाहर के. हनुमानगढ़ से आये एक रिश्ते की बात बहुत दिन तक चलती रही. कई बार लगा कि यहाँ बात पक्की हो जायेगी, लेकिन वहाँ बात नहीं बनी. उन दिनों में मेरी दोनों मौसियाँ ज़िंदा थीं. मेरी बड़ी मौसी और उनकी देवरानी लिछम बाई,जो मेरी छोटी मौसी की बेटी थीं, की कोशिशों और सिफारिशों से उनके पड़ोस में रहने वाले श्री सांवर लाल जी की लड़की राजकुमारी मोदी से भाई साहब का रिश्ता तय हुआ और कुछ ही दिनों में बहुत धूमधाम से उनकी शादी हो गयी.
अब घर में हम चार की जगह ५ लोग हो गए थे. भाई साहब बीकानेर और नौरंगदेसर के बीच शटल बने हुए थे. मेरी भाभी जी मेरे ही कॉलेज में एम ए पॉलिटिकल साइंस की स्टूडेंट थीं. नई नई शादी हुई थी, लेकिन जब तक भाभी जी का एम ए पूरा ना हो जाए, भाई साहब उन्हें बहुत दिन के लिए नौरंगदेसर नहीं ले जा सकते थे. राजस्थान में एक रिवाज है कि हर लड़की अच्छा दूल्हा मिलने के लिए शिव जी के मंदिर जाकर १६ सोमवार के व्रत बोलती है. जब शादी हो जाती है, तो उसे वो १६ सोमवार के व्रत करने होते हैं. मेरी भाभी जी की माँ सा ने भी उनसे ये व्रत बुलवा दिए थे. जब भाभी जी की शादी भाई साहब से हो गयी तो माँ सा ने भाभी जी से कहा, इतना अच्छा दूल्हा मिला है, अब १६ सोमवार के व्रत करो. मेरी भाभी जी ठहरीं भूख की बहुत कच्ची. उन्होंने कभी कोई  व्रत किये ही नहीं थे लेकिन अब तो वो ससुराल में आ चुकी थीं और ये चर्चा भी हर तरफ हो चुकी थी कि उन्होंने १६ सोमवार के व्रत बोले हुए हैं, तो वो व्रत तो उन्हें करने ही थे. पहले ही व्रत में शाम होते होते उनकी हालत भूख के मारे खराब हो गयी क्योंकि जब भी वो भूखी रहती थीं, उन्हें एसिडिटी होने लगती थी और उस एसिडिटी की वजह से उनका पेट दर्द होने लगता था. मैं और भाई साहब शाम से उनके पास बैठकर उनका मन बहला रहे थे ताकि वो अपनी भूख को भुलाकर सो सकें लेकिन भूखे पेट भला नींद भी आये तो कैसे आये? हम तीनों को बैठे बैठे रात के बारह बज गए. अब भाई साहब ने और मैंने भाभी जी को समझाना शुरू किया कि घड़ी देखिये, घड़ी में १२ बजते ही सोमवार की जगह मंगलवार आ गया है. व्रत तो सोमवार का था. अब तो आप कुछ खा सकती हैं. वो ना-नुकुर करती रहीं लेकिन भूख तेज लगी हुई थी और पेट दर्द कर रहा था इसलिए उन्हें हमारी बात माननी पडी. मैं खामोशी से नीचे किचन में जाकर कुछ खाने का सामान निकाल कर लाया. नई नई दुल्हन थीं, उन्हें बहुत शर्म आ रही थी, लेकिन फिर भी भाभी जी ने कुछ थोड़ा सा खाया, इस शर्त पर कि हम इसे एक राज़ रखेंगे. तब जाकर उन्हें नींद आयी.
सोमवार को तो बस एक हफ्ते के बाद ही फिर चले आना था और वो चला आया. मैंने शाम को दो चपाती ज़्यादा बनवाकर रख दी. सबको यही कहा कि मैं देर तक पढता हूँ, तो कई बार भूख लग जाती है. आज देर तक पढ़ने का इरादा है, इसलिए दो चपाती ज़्यादा बनवाई है. किसी ने कोई खास ध्यान नहीं दिया और उस रात हम दोनों भाइयों ने भाभी जी को १२ बजे बाकायदा खाना खिलाया. एक एक करके १६ सोमवार इस तरह कट गए. हालांकि हम लोगों को बाद में पता चला कि हमारा ये राज़ माँ पिताजी को पता चल चुका था, मगर वो यही सोचकर खामोश रहे कि नई नई बहू को एक छोटी सी बात के लिए शर्मिंदगी क्यों उठानी पड़े.
भाई साहब कभी बीकानेर में रह रहे थे कभी नौरंगदेसर और भाभी जी अब अक्सर मेरे साथ कॉलेज जाया करती थीं. शादी में भाई साहब को एक राजदूत मोटरसाइकिल मिला थी. घर में किसी को भी स्कूटर, मोटर साइकिल चलाना नहीं आता था. जब शादी के दो चार दिन बाद भाई साहब के ससुराल से ये मैसेज आया कि श्रीगंगानगर से मोटर साइकिल आ चुका है, आप लोग आ कर ले जाएँ तो पिताजी ने हम दोनों से पूछा “आप लोगों को मोटर साइकिल चलाना आता है?”
भाई साहब ने तो सीधे से मना कर दिया लेकिन जब यही सवाल मुझसे पूछा गया, तो मैंने पता नहीं किस सनक में कहा “जी हाँ”
पिताजी ने पूछा “कहाँ सीखा?”
मैंने फ़ौरन जवाब दिया “जी एक दोस्त के मोटर साइकिल से.”
दरअसल मैंने कभी किसी दोस्त का स्कूटर या मोटर साइकिल नहीं चलाया था. हाँ पिताजी के एक दोस्त डॉक्टर इन्द्रजीत सिंह जी के पास एक लम्ब्रेटा स्कूटर था और एक दो बार मैं उनके स्कूटर पर पीछे की सीट पर बैठा था. मेरी हमेशा से आदत रही हर चीज़ को गहराई से देखने की. जब भी इन्द्रजीत अंकल के पीछे बैठा, मैंने देखा कि वो स्कूटर कैसे चला रहे हैं? बस उसी ओब्जर्वेशन के बूते पर मैंने कह दिया कि मैं मोटर साइकिल चला सकता हूँ, बिलकुल वैसे ही जैसे मैंने इसहाक के अब्बू से कह दिया था कि मैं तांगा चला सकता हूँ.
पिताजी ने मुझे मोटर साइकिल की चाभी पकड़ा दी. मैं कंपनी गया और मोटर साइकिल को किक लगाई. वो स्टार्ट हो गया. मैं उसपर सवार हुआ और जिसतरह इन्द्रजीत अंकल को पहले गीअर में डालते देखा था, मोटर साइकिल को पहले गीअर में डाला, क्लच धीरे धीरे छोड़ा और वहाँ से निकल आया और मजेदार बात ये है कि उसी शाम मैं बीन्छ्वाल में भाई साहब और पिताजी को मोटर साइकिल चलाना सिखा रहा था.
भाई साहब की शादी के कुछ ही दिनों बाद मुझे एक इम्तहान देने जयपुर जाना था. भाई साहब भाभी जी शादी के बाद कहीं घूमने नहीं जा पाए थे. हम लोगों ने प्रोग्राम बनाया कि हम तीनों तीन चार दिन के लिए जयपुर जायेंगे. उन दिनों दिन भर में एक ट्रेन जयपुर जाया करती थी और उसमे भी रिज़र्वेशन नाम की कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी. जनरल डिब्बे में रातभर का सफर करना बहुत टेढी खीर थी, खास तौर पर जब साथ में कोई लेडी हों. राजस्थान रोडवेज़ तब तक वजूद में आ चुका था. हमने रोडवेज़ की बस से जाने का फैसला किया और एक रोज सुबह सुबह रोडवेज़ के बस स्टैंड जा पहुंचे. बस जैसे ही आकर लगी हम तीनों उसमे चढ़े. बस में बहुत सवारियां नहीं थीं. हम लोग आगे की तरफ तीन वाली एक सीट पर बैठ गए. ऊपर बनी हुई जगह पर अपना सामान रख दिया. मैंने बस पर नज़र दौडाई. हमारे पीछे की दो सीटें खाली थीं और उसके बाद वाली तीन की सीट पर एक बड़ी उम्र के पगड़ी वाले साहब बैठे हुए थे. उनके बाद फिर एक दो सीटें खाली थीं. फिर पीछे कुछ लोग बैठे हुए थे.
बस रवाना हुई. उन दिनों न तो आज की तरह चिकनी सड़कें हुआ करती थीं और न ही आज जैसी २ बाई २ ए सी बसें. बहुत साधारण सी जगह जगह गड्ढों वाली सड़कें होती थीं और ३ बाई २ खुली खिड़कियों वाली साधारण सी बसें, जो उन गड्ढे वाली सड़कों पर कूदफांद करती, खड़-खड का शोर मचाती हुई चलती थीं. इस कूदफांद के दो बहुत खतरनाक असर हुआ करते थे. पहला तो ये कि बस की डीज़ल की टंकी इतनी हिलती थी कि डीज़ल बाहर छलकने लगता था और दूसरा ये कि अगर आपने कुछ खा रखा है, तो बस की इस कूदफांद में वो बाहर निकलने को बेताब हो जाया करता था. डीज़ल की गंध से ये बेताबी और भी शदीद हो जाती थी. इसी लिए उन दिनों लोगों को बस में अक्सर उल्टियां हुआ करती थी.
बस में खिड़की की तरफ भाभी जी बैठी हुई थीं और उनके पास भाई साहब. चूंकि बस में भीड़ नहीं थी, मैं उनके पास से उठकर कंडक्टर साइड वाली दो की सीट पर बैठ गया था. बस चलते चलते कोई दो घंटे गुज़रे होंगे. कुछ देर तो भाई साहब भाभी जी से बातें करते रहे, उसके बाद अपनी आदत के अनुसार झपकी लेने लगे थे. मैं अपनी सीट पर बैठा जम्हाइयां ले रहा था कि अचानक भाभी जी को एक ज़ोरदार उल्टी हुई, जो उन्होंने खिड़की में से सर निकालकर भरसक सर को नीचा रखते हुए की, ताकि वो उछल कर किसी पर ना पड़े, मगर फिर भी मैंने देखा, दो सीट पीछे बैठे पगड़ी धारी साहब खामोशी से गमछे से अपना मुंह पोंछ रहे थे. मुझे इस बात का अहसास हो गया कि भाभी जी की उल्टी के कुछ छींटे उनके मुंह पर पड़े हैं. हम तीनों को बहुत बुरा लगा. मैं अपनी सीट से उठा. हाथ जोड़कर उन साहब के सामने जा खडा हुआ. वो मुस्कुराए और एक खास अंदाज़ में बोले “के  बात है बेटा?”(क्या बात है बेटा?)
मैंने हाथ जोड़े जोड़े हुए ही कहा “हम तीनों माफी चाहते हैं आपसे...... आपके चेहरे पर उल्टी के छींटे पड़े उसके लिए.”
वो थोड़ा और मुस्कुराए और उसी अंदाज़ में बोले “बलाय जाणै बेटा, समझ लेऊँ मतीरे गा छांटा पडग्या......”(कोई बात नहीं बेटा, समझ लूंगा कि तरबूज के रस के छींटे गिरे हैं.)
मैं एकदम चौंका, अरे ये आवाज़ तो बहुत जानी पहचानी है....
मैं हालांकि अब तक रेडियो के लिए कुछ करने तो नहीं लगा था लेकिन बरसों से रेडियो सुन तो बहुत शौक़ से रहा था और जयपुर रेडियो की करीब करीब सारी  आवाजों को पहचानने लगा था.
मैंने एकदम से उनकी आवाज़ पहचानते हुए कहा “अरे...... चाचा जी आप.........?”
“हाँ बेटा थारी उमर गे जवानां खातर तो चाचो ही हूँ मैं.”(हाँ बेटा, तुम्हारी उम्र के जवानों के लिए तो चाचा ही हूँ.)
“नहीं, आप सच सच बताइये, आप रेडियो पर बोलने वाले चाचाजी हैं न?”
इस बार वो जोर से हँसे और बोले “ हाँ बेटा, सही पहचाना तुमने, मैं ग्रामीणों के प्रोग्राम में चाचा जी के नाम से बोलता हूँ. वैसे मेरा नाम सत्यनारायण प्रभाकर ‘अमन’ है. बेटा, तुमने मुझे कैसे पहचाना?”
मैंने नीचे झुककर उनके पाँव छुए और कहा “चाचाजी, वैसे तो मैं ड्रामा का बहुत शौकीन हूँ, लेकिन बचपन से रेडियो के सारे ही प्रोग्राम सुनता रहा हूँ. आपका शाम साढे सात बजे जो प्रोग्राम आता है, वो भी अक्सर मैं सुनता रहा हूँ. आप लोगों की जो खिंचाई करते हैं, उसमे बहुत मज़ा आता है.”
उन्होंने जी भरकर आशीर्वाद दिए और पूछा “बेटा तुम्हारा नाम क्या है?”
मैंने अपना नाम बताया तो बोले “बेटा एक बात कहूँ?”
“जी चाचाजी.”
“तुम्हारी आवाज़ भी सच पूछो तो रेडियो वाली आवाज़ है. तुम चाहो तो रेडियो में आ सकते हो.”
“चाचा जी रेडियो ड्रामा का ऑडिशन मैं पास कर चुका हूँ.”
“अरे वाह बेटा, आज इस चाचे की बात सुन लो.... रेडियो में तुम कोई भी ऑडिशन देकर देखलो, अगर सब कुछ ईमानदारी से होता है तो तुम किसी भी ऑडिशन में फेल नहीं हो सकते.”
मुझे लगा चाचाजी की ये दुआएं हैं, जो आज मुझे नसीब हो रही हैं. मैंने भाई साहब भाभी जी को सारी बातें बताईं. उन्होंने भी चाचाजी के पास आकर उनके पाँव छुए और उनसे आशीर्वाद लिए.
पूरे रास्ते हम चारों बातें करते रहे. इस तरह बातों बातों में रास्ता कट गया और हम लोग जयपुर पहुँच गए.
जयपुर ठहरा राजस्थान की राजधानी. हर चार छः महीनों में किसी न किसी काम के लिए अक्सर मुझे जयपुर जाना ही पड़ता था. जब भी जयपुर जाता, मैं चाचा जी से मिलने आकाशवाणी ज़रूर जाता था.
इस वाकये के करीब ८-९ बरस बाद, जब मैं आल इंडिया रेडियो में आ चुका था, मेरा तबादला ट्रांसमिशन एक्ज़ेक्यूटिव के तौर पर बीकानेर से सूरतगढ़ हुआ, तो ये सुनकर बहुत खुश हो गया कि चाचा जी भी जयपुर से अपना तबादला करवाकर सूरतगढ़ आ चुके हैं. जिस दिन मैंने वहाँ ज्वाइन किया, उसके दूसरे ही दिन  हमारे डायरेक्टर श्री उमेश दीक्षित ने, जो मुझसे काफी खफा थे (क्यों खफा थे और उनकी नाराज़गी कैसे दूर हुई ये मैं आगे के एपिसोड्स में तफसील से बताऊंगा) मुझे अपने कमरे में बुलाया. मैं उनके कमरे में पहुंचा तो देखा, चाचाजी वहाँ बैठे हुए हैं. मैंने वहाँ पहुंचकर कहा “जी फरमाएं”
डायरेक्टर साहब बोले “ ये अमन जी हैं हमारे ग्रामीण प्रोग्राम  के कर्ता धर्ता.”
मैंने जवाब दिया “जी”
“ये चाहते हैं कि आप इनके साथ इनके प्रोग्राम में बैठें. आपको राजस्थानी आती है?”
“जी हाँ..... मैं राजस्थान में ही पैदा हुआ हूँ. यहीं बड़ा हुआ हूँ.”
“ठीक है, आप इनके साथ जाइए और अपने दूसरे कामों के साथ साथ जब भी ये कहें इनके साथ प्रोग्राम में बैठिये.”
“जी सर”
ड्रामा, फीचर, म्यूज़िकल फीचर, न्यूज़ रील जैसे कई प्रोग्राम्स मैं सीख रहा था, मुझे लगा चाचा जी के साथ रहकर गाँव वालों के लिए होने वाले प्रोग्राम के कुछ गुर भी सीखने को मिल जायेंगे. राजस्थानी तो मुझे आती ही थी.
मैं कमरे से बाहर आ गया और मेरे पीछे पीछे ही चाचा जी भी बाहर आ गए. इस तरह मैं ग्रामीण प्रोग्राम में चाचाजी के साथ बैठने लगा. उन्होंने मेरा नामकरण किया “निराण”(नारायण). वो क्या क्या तरीके हैं, जिनसे सुनने वालों के दिमाग में, आप अपनी एक गाँव वाले की इमेज बना सकते हैं, गांववालों के लिए इंटरव्यू कैसे किये जाते हैं, किस तरह भारी से भारी बात को हल्के अंदाज़ में रेडियो पर पेश किया जाता है, गांववालों को किस तरह की बातें पसंद हैं और किस तरह की बातें नापसंद, ये सब मैंने अपने डेढ़ साल के सूरतगढ़ स्टे के दौरान सीखा. कई बार वो हम प्रोग्राम में उनके साथ बैठनेवालों की बहुत ज़बरदस्त खिंचाई करते थे.... इस क़दर कि रुला देते थे, लेकिन वापस हंसाते भी वही थे. और मज़े की बात ये कि वो जितनी हम लोगों की खिंचाई करते थे, उतने ही ज़्यादा खत सुननेवालों के आते थे. उनकी इस नोकझोंक वाली स्टाइल पर गाँवों के लोग जान देते थे. वो बख्शते किसी को नहीं थे. एक बार मेरे एक डॉक्टर दोस्त महेश शर्मा लाइव प्रोग्राम में ‘बच्चों में डायरिया’ विषय पर बातचीत करने आये. डॉक्टर साहब राजस्थानी में बोल रहे थे “बच्चां ने दूध पिलावण गी बोतल अच्छी तरह साफ़ करनी चईजे और बाई द वे........”(बच्चों की दूध की बोतल को अच्छी तरह साफ़ करना चाहिए और बाई द वे........) बस डॉक्टर साहब के मुंह से गलती से ये अंग्रेज़ी के शब्द ‘बाई द वे’ निकले ही थे और चाचा जी ने उन्हें पकड लिया. बोले “के के....... थे के कैयो दागधर साब.... बाई के देवै?”(क्या क्या...?आपने क्या कहा डॉक्टर साहब बाई क्या देती है?)
डॉक्टर साहब बेचारे झेंपकर हंस पड़े.
चाचा जी ने तय किया की महीने में एक बार हम अपनी चौपाल किसी गाँव में जाकर रिकॉर्ड किया करेंगे. मैंने उनसे पूछा, “चाचाजी, मैं पहनूं क्या? पैंट शर्ट चलेगी?”
चाचा जी मुस्कुरा कर बोले “बेटा तुम्हारा अपना नाम महेंदर तो अच्छा भला है ना? फिर मैंने चौपाल में तुम्हारा नाम निराण क्यों रखा?”
फिर खुद ही आगे बोले “इसलिए बेटा कि गाँव के लोग तुम्हें अपने में से ही एक समझे. महेंदर नाम से तुम शहर के कोई बाबू लगते उनको, गाँव के किसान नहीं.”
मैंने कहा “जी चाचा जी”
“बेटा.....हम सब की बातें सुनकर गाँव वालों ने अपने जेहन में अपनी अपनी समझ से हमारी तस्वीरें बनाई है लेकिन अपने तजुर्बे से मैं जानता हूँ कि हर तस्वीर में हमारी पोशाक वही है, जो उनकी खुद की है..... यानि कुर्ता, धोती और सर पर पगड़ी या साफा. अगर तुम ये शर्ट पैंट पहनकर चलोगे तो उनकी भावनाओं को बहुत चोट लगेगी क्योंकि उनकी कल्पना में बनी तस्वीर चूर चूर हो जायेगी. इसलिए धोती कुर्ता ही पहन कर चलना होगा सबको.”
मैंने कहा “जी चाचाजी.... जैसा आपका हुकुम.”
हम लोग कुछ दिन पहले से ही अपने प्रोग्राम में बताने लगते थे कि अमुक तारीख को हम अमुक गाँव जायेंगे, सारे गाँववालों से मिलेंगे और सबके साथ बैठकर चौपाल प्रोग्राम रिकॉर्ड करेंगे. जिस गाँव में हम लोग जाते थे, उस गाँव के ही नहीं आस पास के गाँवों के लोग अपने अपने ट्रैक्टरों पर सवार होकर चाचा जी की एक झलक देखने को, चौपाल के लिए तय जगह पर उमड़ आया करते थे. भीड़ की कई बार हालत ये हो जाती थी कि उसे संभालना मुश्किल हो जाता था. चाचा जी से बड़ी उम्र के लोग भी उनके पैर छूने के लिए बेताब रहते थे. कई बार चाचा जी कहा करते “ अरे काका के करौ हो थे ? थे तो म्हारै ऊं मोटा हो उमर में, क्यूं पाप चढाओ हो मेरे सिर माथे, म्हारे पगां गै हाथ लगा गे?”(अरे चाचा क्या कर रहे हैं आप?आप तो उम्र में बड़े हैं मुझसे, मेरे पाँव छूकर क्यों मेरे सर पाप चढ़ा रहे हैं?)
वो बुज़ुर्ग अक्सर जवाब देते “उमर स्यूं के हुवै ? थे चाचा जी हो तो पगां गे हाथ तो लगाणो ई पड़ैगो.”(उम्र से क्या होता है आप चाचाजी हो तो आपके पाँव तो छूने ही पड़ेंगे)
यानि महीने में एक बार उस इलाके के किसी एक गाँव में ऑल इंडिया रेडियो की चौपाल का एक शानदार मेला लगता था जिसमे आस पास के दस पन्द्रह गाँवों के लोग इकट्ठे होते थे. यहाँ जाकर हमें पता लगता था कि रेडियो में कितनी ताकत है और हम लोग चौपाल में बैठकर जो बातें करते हैं उन्हें सुनने वाले कितनी संजीदगी से लेते हैं?
वक्त इसी तरह गुज़रता रहा.
एक दिन चाचाजी मुझसे बोले “अरे निराण..... सुण तो.”
मैंने कहा “जी चाचा जी”
“बेटा अब मेरे रिटायरमैंट में चार पांच साल बचे हैं. इधर तुम लोगों के तबादले का तो पता ही नहीं कि कब आर्डर आ जाएँ.”
“जी चाचाजी, आप कहिये ना क्या कहना चाहते हैं?”
“बेटा मेरे पास दो बहुत पुरानी चीज़ें हैं, जिन्हें मैं आगे आने वाली पीढ़ियों को सौंपकर जाना चाहता हूँ. एक है, ‘सिंहासन बत्तीसी’ और दूसरी है ‘हुंकारै बात आछी लागै’
“जी चाचा जी”
“ये छोटा सा स्टेशन है, यहाँ कोई साज़िन्दा तो है नहीं. मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी ये दोनों सीरीज़ रिकॉर्ड कर दो और सिंहासन बत्तीसी में हारमोनियम बजा दो.”
मैंने कहा “चाचा जी इसमें इतने संकोच की क्या बात है? आपकी दोनों सीरीज़ रिकॉर्ड कर दूंगा मैं, लेकिन हारमोनियम तो मुझे जैसा टूटा फूटा बजाना आता है वैसा ही आता है. आप जानते हैं कि मैं उसमें एक्सपर्ट तो हूँ नहीं.”
“मुझे जितना चाहिए, उतना तुम्हें आता है, बस मैं इतना जानता हूँ.”
मैंने उनसे एक हफ्ते का वक्त माँगा, ताकि हारमोनियम पर थोड़ा हाथ साफ़ कर सकूं और उसके बाद कुछ महीनों तक हम रोज़ाना ये सीरीज़ रिकॉर्ड करते रहे. जब ये काम पूरा हुआ तो चाचा जी ने मुझे गले से लगा लिया और आँखों में आंसू भर कर बोले “बेटा बहुत बड़ा काम किया है तुमने, तुम नहीं समझोगे इसे...... अगर आल इंडिया रेडियो इसी तरह काम करता रहा तो एक दिन सब याद करेंगे तुम्हारे इस काम को.”
ये काम करके मेरे दिल को भी बहुत सुकून मिला. नहीं जानता कि आज वो सारी रिकॉर्डिंग आकाशवाणी, सूरतगढ़ के पास है या कई स्टेशन्स की तरह, वहाँ आये बड़े बड़े सो कॉल्ड क़ाबिल डायरेक्टर्स ने, इस तरह के नायाब और बेशकीमती प्रोग्राम्स को युववाणी के किसी बच्चे की रिकॉर्डिंग करने के लिए, एक झटके में बल्क इरेज़र पर रखवाकर इरेज़ करवा डाला है.
१९८६ में उस दिन, मैं आकाशवाणी, इलाहाबाद में दिनभर बहुत उदास रहा जिसदिन चाचा जी को आकाशवाणी से रिटायर होना था. मैंने उनसे फोन पर बात करने की बहुत कोशिश की, मेरी टेबल पर दो फोन थे और दोनों में एस टी डी की सहूलियत थी लेकिन अफ़सोस उस वक्त तक सूरतगढ़ एस टी डी से नहीं जुड़ा था. सिर्फ एक ही रास्ता था, ट्रंक कॉल, मगर सुबह से लगाया हुआ ट्रंक कॉल शाम तक नहीं मिला तो नहीं ही मिला.
वक्त गुजरते देर कहाँ लगती है? मैं १९९९ में विविध भारती में आ गया. इस बीच जयपुर जाने का एक आध बार मौक़ा आया मगर चाचा जी का घर जयपुर के एक किनारे झोटवाड़ा में था, जहां बहुत चाहकर भी मैं नहीं पहुँच पाया.
इस बीच मुम्बई पहुँचने के साथ ही मेरे पास मोबाइल फोन आ चुका था. सन २००१ में उदयपुर गया हुआ था. मैंने चाचा जी के घर का नंबर ढूंढकर अपने मोबाइल से मिलाया. उनके बेटे ने बात करवाई. उन दिनों मोबाइल पर बात करना आजकल की तरह सस्ता नहीं हुआ करता था, और आज की तरह घर बैठे रिचार्ज भी नहीं करवाया जा सकता था, लेकिन मैं उनसे बात करता रहा......करता रहा, यहाँ तक कि उस रोज चाचाजी से बात करने में उस फोन में जितना भी बैलेंस था, वो पूरा का पूरा खर्च हो गया. जैसे ही बैलेंस खत्म हुआ, फोन कट गया. जो बात हम कर रहे थे, वो बीच में ही रह गयी.........मैं उन्हें फोन कटते वक्त प्रणाम भी नहीं कर पाया.
मैं मुम्बई आ गया. मैंने सोचा, जल्दी ही मैं उन्हें फोन करके बात करूँगा और उस रोज छूटा हुआ प्रणाम भी करूँगा, लेकिन अफ़सोस........ ऊपरवाले ने मुझे इसका मौक़ा नहीं दिया और.............कुछ ही दिन बाद जयपुर से मेरे दोस्त बोहरा जी ने, जो सूरतगढ़ में हमारे साथ कई बार ग्रामीण प्रोग्राम में शामिल हुआ करते थे, मुझे फोन पर ये बुरी खबर सुनाई “भाई साहब.....अपने चाचा जी नहीं रहे.”






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