सबसे नए तीन पन्ने :

Monday, October 30, 2017

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग -42 (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)



अफ़सरों और कर्मचारियों से भरे आकाशवाणी, जोधपुर के प्रांगण में जब बवेजा साहब बहोत ही दोस्ताना अंदाज़ में मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे सबसे दूर ले गए तो सबकी निगाहें हमारी तरफ उठ गयी. पूरी भीड़ की तरफ पीठ किये हम दोनों खड़े बात कर रहे थे. वो मुझे बता रहे थे कि उन्होंने मेरा सलैक्शन ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए भी कर दिया है. मुझे साफ़ महसूस हो रहा था कि कुछ निगाहें लगातार हमें घूरे चली जा रही हैं. सबके मन में ये उत्सुकता होना लाज़मी था कि अभी बमुश्किल एक-डेढ़ महीने  पहले ज्वाइन करने वाले एकदम नए अनाउंसर से पूरे राजस्थान के आकाशवाणी के सबसे बड़े अफसर को इतनी अंतरंगता से बात करने की आखिर क्या ज़रूरत पड़ गयी. जब उन्होंने मुझे समझाया कि मुझे माइक्रोफोन के मोह में नहीं फंसना है और जब भी ऑफर मिले, फ़ौरन अनाउंसर की पोस्ट से इस्तीफा देकर ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट पर ज्वाइन कर लेना है तो मेरे मन में एक सवाल उठा, मैंने आहिस्ता से उनसे पूछा, “सर, क्या इस खबर को मुझे अभी सबसे छुपा कर रखना है?” इस पर उन्होंने मेरे कंधे पर जोर से हाथ मारते हुए हल्का ठहाका लगाया और बोले, “ अरे हमारा महेंद्र इतना डरपोक कब से हो गया? धड़ल्ले से सबको ये खबर दो.” फिर एक लम्हा खामोश रहने के बाद बोले, “चलो, मैं ही ऐलान कर देता हूँ इसका सबके सामने.” वो मेरा कंधा पकड़े पकड़े ही भीड़ की तरफ घूम गए और बोलने लगे, “सब लोग सुनिये.....” सब लोग चुप हो गए. अब बवेजा साहब ने कहना शुरू किया, “मैंने आप लोगों को एक अच्छा अनाउंसर दिया था लेकिन सॉरी...... मैं जल्दी ही उसे वापस ले रहा हूँ.” फिर मेरी तरफ इशारा करके बोले, “ये है वो अनाउंसर जिसे मैंने आपको दिया था, लेकिन खुशी की बात है कि इसका सलैक्शन ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट पर भी हो गया है. इसलिए ये आपके स्टेशन पर कुछ ही दिनों का मेहमान है.”
सब लोगों ने  तालियाँ बजाकर उनके ऐलान पर खुशी जताई, न जाने कितने लोगों को दरअसल खुशी हुई और कितने लोगों ने महज़ दिखावे के लिए अपने हाथों को थोड़ी सी तकलीफ दे दी. किसी के चेहरे से भला क्या पता लगता है कि उसके मन में क्या चल रहा है?
पार्टी के बाद बवेजा साहब ने वहाँ से विदा ली और ऑफिस चले गए जहां उन्हें कुछ मीटिंग्स निबटानी थीं. अगले दिन वो जयपुर लौट गए. अब आकाशवाणी, जोधपुर में मेरी हैसियत एक मेहमान की सी हो गयी थी. कुछ लोगों ने तो ये भी अंदाजा लगा लिया कि बवेजा साहब के साथ मेरी कोई  पुरानी पहचान है. आखिर आकाशवाणी जैसे क्रिएटिव महकमे के लोग जो ठहरे. कुछ भी कहानियाँ गढ़ सकते थे. मेरे एक दो साथी अनाउंसर्स ने इशारतन मुझे पूछ भी लिया कि मेरी बवेजा साहब से कबकी पहचान है? मैंने उन्हें बताया कि भाई कभी कभी जब भाग्य खराब होता है तो अच्छा करने चलते हैं, बुरा हो जाता है वहीं ये भी सच है कि कभी कभी जब भाग्य अच्छा होता है तो बुरा करने निकलते हैं और उसका कुछ अच्छा फल मिल जाता है. मेरे साथ भी कुछ ऐसी ही कहानी है. मैंने बवेजा साहब के पी ए के साथ हुए हादसे को ज्यों का त्यों उन्हें सुना दिया. उन्हें मेरी बात पर कितना यकीन हुआ, कितना नहीं इसका तो पता नहीं, लेकिन उसके बाद मुझसे इस मुताल्लिक किसी ने कोई सवाल नहीं किया. अब मुझे जल्दी ही दूसरी पोस्ट पर ज्वाइन करना है    एक तरफ जहां ये खबर पाकर मन को तसल्ली हुई क्योंकि भट्ट साहब की बात सच साबित हो रही थी, मेरा सलैक्शन दोनों ही पोस्ट्स पर हो गया था, वहीं इस बात का अफ़सोस भी कम नहीं था कि जो माइक मुझे इतना अज़ीज़ है मैं उससे दूर हो जाऊंगा. ऐसे में मेरा मन ज़्यादा से ज़्यादा माइक के सामने रहने को करता था और साथी अनाउंसर्स कहते थे, “ छोड़ो यार, तुम काम वाम छोड़ो अब, मौज करो बस........ चन्द रोज़ के मेहमान हो..... घूमो फिरो, ये काम वाम हम कर लेंगे.” मगर मैंने भी तय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं जब तक इस्तीफा नहीं दे देता काम करना नहीं छोडूंगा. मैं अपनी ड्यूटीज़ करता जा रहा था.
मैं जब एम ए कर रहा था तब भी ट्यूशन और नीम हकीमी से अच्छा भला कमा रहा था. नतीजतन मेरे लिए बहोत पहले से रिश्ते आने लगे थे. पिताजी मुझे बताते थे, आज फलां जगह से रिश्ता आया है, आज फलां जगह से. जब भी ऐसा होता तो वो मुझसे लड़की देख आने को कहते. मेरा यही जवाब होता था कि सबसे पहले तो मुझे जॉब में लग जाने दीजिये. दूसरे मैं नहीं समझता कि किसी लड़की को देखकर उसे नापसंद करने का मुझे कोई अधिकार है. क्या लड़कों को ये अधिकार सिर्फ इसलिए मिल जाता है कि वो किसी भी लड़की को नापसंद कर बेइज्ज़त कर दे क्योंकि वो लड़के हैं? मैंने उनसे कहा कि आप जिस भी पहली लड़की को देखने के लिए मुझे भेजेंगे, चाहे वो लड़की कैसी भी हो, मैं उसे रिजेक्ट नहीं करूंगा, मैं उसके लिए हां ही कहूंगा. पिताजी भी मेरी बात सुनकर चुप हो जाया करते थे.
अब जब से आकाशवाणी जोधपुर में मेरा जॉब लगा तो पिताजी के पत्रों में इस बात का ज़िक्र दिनोदिन बढ़ने लगा कि फलां जगह से रिश्ता आ रहा है......... फलां जगह से भी रिश्ता आ रहा है. मैं उनसे यही कह रहा था कि ज़रा रुक जाएँ, कुछ दिन और रुक जाएँ. इसी बीच  पिताजी कुछ दिन के लिए मेरे पास जोधपुर आये. स्टाफ के काफी लोग मेरे कमरे के आस पास ही रह रहे थे. पिताजी की मुलाक़ात सभी लोगों से हुई. दो-चार दिन बाद वो मुझसे बोले, “महेंदर, तुम कहते हो, तुम्हारा सिद्धांत है कि तुम जिस पहली लड़की को देखने जाओगे, उसी के लिए हाँ कह दोगे क्योंकि प्रकृति की किसी भी रचना को रिजेक्ट करने का अधिकार तुम्हें नहीं है. ऐसे में हमें ये ख़तरा महसूस होता है कि वो पहली लड़की न जाने कैसी होगी? मगर मैं सोचता हूँ, अगर कोई लड़की हमारे सामने ही हो, अच्छी भली हो, तो उसे देखने जाने की भी ज़रूरत नहीं होगी और किसी अपात्र लड़की के लिए तुम्हारी हाँ का भी कोई ख़तरा नहीं रहेगा.”
मैंने कहा, “जी, मैं समझा नहीं.”
“देखो ये लड़की शीला जो तुम्हारे साथ काम करती है, व्यवहार, स्वभाव, सामाजिक स्तर हर तरह से मुझे तुम्हारे लायक लगती है. एक ही फील्ड में हो इसलिए एक दूसरे की तकलीफों को भी समझ सकोगे. तुम कहो तो मैं जैन साहब से बात करूं.”
तब तक आकाशवाणी में साथ काम करते करते हम लोगों में ट्यूनिंग भी ठीकठाक हो गयी थी. लिहाज़ा मुझे उनके इस प्रस्ताव में कुछ अनुचित नहीं लगा. मैंने पिताजी से कहा, “जी, मुझे कोई एतराज़ नहीं, आप बात करके देखिये.”
पिताजी ने डूंगरपुर जाने का प्रोग्राम बना लिया. शीला के पिताजी श्री कुरी चन्द जी जैन राजस्थान के जाने माने स्वतन्त्रता सेनानी थे. २० बरस तक डूंगरपुर नगरपालिका के अध्यक्ष रहे थे और राजस्थान के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री मोहन लाल सुखाडिया के कॉलेज के ज़माने में हॉस्टल के रूममेट थे. राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हरिदेव जोशी भी अपने छुटपन से जैन साहब के सान्निध्य में रहे थे. जैन साहब बहोत खुले और प्रगतिशील विचारों के इंसान थे. उन्होंने मेरे पिताजी का भी खुले दिल से स्वागत किया और उनके प्रस्ताव का भी. आख़िरकार तय हुआ कि मेरे ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव के पद पर ज्वाइन करने के बाद बहोत छोटे से समारोह में बिना किसी लेनदेन के ये शादी की जायेगी.
इसी बीच मुझे आकाशवाणी, उदयपुर से ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव का ऑफर मिल गया और शीला का ट्रान्सफर भी आकाशवाणी, उदयपुर हो गया. वहाँ पहुँचने के कुछ ही दिन बाद एक सादे समारोह में हम दोनों का विवाह संपन्न हुआ जिसमें  दोनों घरों के सदस्यों के अलावा कुछ गिने चुने लोग शामिल हुए.
हमने एम बी कॉलेज के सामने सरदार श्री भूपेन्द्र सिंह छाबड़ा का घर किराये पर लिया जिसमे दो कमरे थे. मेरी बड़ी बहन ने एक थाली, एक लोटा, दो कटोरी से हमारी गृहस्थी की नींव रखी . इसके अलावा हम लोगों ने किसी से कोई गिफ्ट स्वीकार नहीं किया. दहेज के नाम पर मैंने एक रुपया और एक नारियल लिया था. एक बत्तीवाला स्टोव खरीदकर लाया गया और इस तरह हमारी गृहस्थी शरू हुई.
ऑफिस में अब हम दोनों एक ही पोस्ट पर काम कर रहे थे. शिफ्ट में ड्यूटी होती थी. ट्रांसमीटर और ऑफिस के बीच ७-८ किलोमीटर का फासला था. हमारा घर बीच में पड़ता था. इसलिए सुविधा ये थी कि  स्टाफ कार ट्रांसमीटर जाते हुए हम में से जिसकी भी ड्यूटी होती थी उसे ले जाती थी और जिसकी ड्यूटी ख़तम होती थी उसे घर छोड़ देती थी. हम लोगों ने एक पुराना बजाज स्कूटर खरीद लिया था. जब भी हम लोग दोनों शाम को खाली होते थे आटा गूंधकर उसे लेकर फतहसागर के किनारे बैठ जाते थे.गुंधे हुए आटेकी गोलियां बना बना कर सीढ़ियों पर डालते थे और मछलियाँ सीढ़ियों पर आ कर उन गोलियों को लपक लेती थीं. इतनी बड़ी बड़ी और खूबसूरत चमकदार मछलियाँ हुआ करती थीं फतहसागर में कि उन्हें देखकर दिन भर की सारी थकान दूर हो जाती थी.
स्टेशन के इंचार्ज थे स्टेशन इंजीनियर श्री आई जे वासुदेवा. नाम से मुझे लगा कि शायद दक्षिण भारत से हैं लेकिन बाद में पता लगा कि वो दक्षिण भारत के नहीं थे. महज़ एक  भ्रम पैदा करने के लिए उन्होंने अपने नाम को कुछ इस तरह का बना लिया था. जब भी उनके कमरे में जाना होता था, एक अजीब सी गंध महसूस होती थी जो थोड़ी थोड़ी मेरे पिताजी की अलमारी में रखी व्हिस्की की गंध से मिलती जुलती होती थी. लेकिन इधर उधर नज़र दौड़ाता था तो बस टेबल पर पानी के ग्लास के अलावा कुछ भी नजर नहीं आता था.
एक रोज़ रात में जब ट्रांसमिशन ख़तम करके ट्रांसमीटर बिल्डिंग को ताले लगा दिए गए थे और हम सब घर वापस जाने के लिए कार का इंतज़ार कर रहे थे, हमने देखा कि मेन गेट में से कार अन्दर आ रही है. कार आकर रुकी और हम लोग हैरान रह गए कि कार खाली नहीं थी. ड्राइवर धाराशंकर के अलावा हमारे स्टेशन इंजीनियर श्री वासुदेव भी कार में विराजमान थे. कार के रुकते ही वो नीचे उतरे. हम सबने सोचा शायद कोई ज़रूरी काम से आये हैं. सबने गुड इवेनिंग कहा. उन्होंने ऑर्डर दिया, “ट्रांसमीटर हॉल का ताला खोला जाए.” कौन मना कर सकता था. ताला खोला गया और वासुदेवा साहब ने उस हॉल में बैठ कर शराब के चार पैग पिए. हम सब लोग बाहर खड़े उनका इंतज़ार करते रहे कि वो अपना प्रोग्राम ख़तम कर लें तो हम घर की तरफ रवाना हों. एक घंटे में उनका प्रोग्राम ख़तम हुआ और हम लोग घर लौट पाए. उस दिन मुझे पता चला कि उनके दफ्तर में वो गंध क्यों आती थी. दरअसल वो जिसे मैं पानी का गिलास समझता था, वो कोरे पानी का गिलास नहीं होता था. उसमें वोदका या जिन नामक शराब मिली हुई रहती थी.दरअसल उनकी बीवी उन्हें घर पर पीने नहीं देती थीं तो वो ऑफिस में पीकर अपने दिल की हसरत पूरी किया करते थे. उनका ये पीना पिलाना इसी तरह चलता रहा मगर फिर एक असिस्टेंट इंजीनियर प्रेम सिंह ने इसकी शिकायत दिल्ली को की और श्री वासुदेवा को उस दारूबाजी का बहोत खामियाजा भुगतना पडा.
ऑफिस में दो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव हुआ करते थे, श्री एच एच एन भटनागर और श्री डी के झिंगरन. ऊपर वाले की कुदरत देखिये कि आकाशवाणी, उदयपुर के हिस्से में जो दो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव आये दोनों का कुल मिलाकर भी वज़न किसी एक आम आदमी के वज़न से कम ही था.  भटनागर साहब दिन भर सिगरेट का धुंआ छोड़ते रहते थे और हर पंद्रह मिनट में आवाज़ लगाते थे, “वेणी राम चाय लइयो.” और वेणी राम जी उनकी आवाज़ सुनते ही पांच मिनट के अन्दर चाय लेकर हाज़िर हो जाया करते थे. भटनागर साहब प्रोग्राम हैड भी थे. झिंगरन साहब संगीत के शौक़ीन थे और लोग बताया करते थे कि वो मैन्डोलिन बजाते थे, हालांकि हमें कभी उनका मैन्डोलिनवादन सुनने का शरफ हासिल नहीं हुआ.
उन दिनों बीकानेर की ही तरह उदयपुर से भी कुछ इक्का दुक्का प्रोग्राम ही ओरिजिनेट होते थे. बाकी सारे प्रोग्राम आकाशवाणी जयपुर से रिले किये जाते थे या लाइव अनाउंसमेंट के साथ वहाँ से आये टेप्स बजाये जाते थे. युववाणी में हफ्ते में दो युवापसंद प्रोग्राम आकाशवाणी, उदयपुर के स्टूडियो से हुआ करते थे जिन्हें बारी बारी से वहाँ के दो अनाउंसर लोग पेश करते थे. युवापसंद प्रोग्राम पूरे शहर में बहोत मकबूल था. कई श्रोता संघ बने हुए थे, जो फरमाइशें भेजा करते थे और कई श्रोताओं ने अपने पोस्टकार्ड्स छपवा रखे थे जिन्हें वो नियमित रूप से पोस्ट करते थे और फरमाइश में अपना नाम शामिल होने का बेताबी से इंतज़ार करते थे. ये प्रोग्राम श्रोताओं की जान था और हर अनाउंसर ये चाहता था कि ये प्रोग्राम पेश करने का ज़्यादा से ज़्यादा मौक़ा उसे मिले.
एक रोज़ न जाने क्यों और कैसे, हमारे प्रोग्राम हैड श्रीमान एच एच एन भटनागर के दिमाग में चाय का घूँट भरते हुए और सिगरेट के धुंए के छल्ले बनाते हुए कुछ ख़याल आया और उन्होंने फोन का चोंगा उठाकर ट्रांसमीटर में बने ड्यूटीरूम में फोन लगाया. ड्यूटी पर मैं था. मैंने फोन उठाकर बोला, “आकाशवाणी”
उधर से भटनागर साहब की आवाज़ आई, “मिस्टर मोदी?”
“जी हाँ बोल रहा हूँ.”
“मैं एच एच एन भटनागर.”
“यस सर, फरमाएं.”
“कल क्या ड्यूटी है आपकी?”
“जी सुबह की ड्यूटी है.”
“अच्छा एक काम करें. कल सुबह की ड्यूटी के बाद एक बार ऑफिस आयें. कुछ ज़रूरी काम है.”
“जी बेहतर.”
जुलाई का महीना ख़त्म हो रहा था. बारिश उन दिनों उदयपुर में अच्छी खासी हुआ करती थी इसलिए जुलाई का अंत आते आते सुबह शाम हल्की ठण्ड हो जाया करती थी . दूसरे दिन मैं सुबह की ड्यूटी पर स्टाफ कार की बजाय अपने स्कूटर से गया और ट्रांसमीटर से सीधा दफ्तर चला गया ताकि वापसी में ऑफिस से घर आने में कोई दिक्क़त ना हो. दरअसल उन दिनों उदयपुर में कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट नाम की चीज़ तो थी नहीं तो अगर मैं कार से ड्यूटी पर ट्रांसमीटर जाता तो ड्यूटी ख़तम होने पर कार मुझे मोहता पार्क के मेरे ऑफिस तक तो ले जाती लेकिन वहाँ से छाबड़ा निवास के मेरे घर आना ज़रा मुश्किल हो जाता. मैं ऑफिस पहुंचा. भटनागर साहब और झिंगरन साहब ऊपर के एक बड़े से हॉल में बैठा करते थे. मैंने जाकर दोनों को नमस्कार किया. भटनागर साहब बोले, “आइये आइये हम आपका ही इंतज़ार कर रहे थे.”
“जी फरमाएं.”
“अरे यार पहले ज़रा बैठिये तो सही. झिंगरन साहब आप भी इधर आ जाइए.”
और उन्होंने हस्बेमामूल आवाज़ लगाई, “वेणी राम...... चाय लइयो.”
मैंने कहा, “सर मैं चाय नहीं पीता.”
“चाय नहीं पीते? तो काम कैसे करते हो?”
“जी मैं कभी नहीं पीता.”
उन दोनों के लिए चाय आ गयी तो भटनागर साहब ने वेणी राम को कहा, “वेणी राम ज़रा दरवाज़ा बंद करते जइयो.”
मैं सोच रहा था, माजरा क्या है? वेणी राम ने दरवाज़ा बंद कर दिया. अब भटनागर साहब ने झिंगरन साहब के सामने देखा और झिंगरन साहब ने भटनागर साहब के सामने. कुछ देर की खामोशी के बाद झिंगरन साहब ने बोलना शुरू किया, “ मिस्टर मोदी हमने सुना है कि आपने जयपुर के एस डी के पी ए की पिटाई की थी?”
मुझे समझ नहीं आया कि पी ए की पिटाई की रामायण अब ये यहाँ क्यों खोलकर बैठे हैं? वो भी दरवाजा बंद करवा कर इतनी राजदारी से. मैंने कहा, “सर उसे आप पिटाई कहें तो आपकी मर्जी है लेकिन हकीकत ये है कि मैंने उसे एक ज़ोरदार धक्का दिया था जिससे वो मुंह के बल गिर पड़ा था, बाकी मैंने उसे थप्पड़ मुक्का कुछ भी नहीं मारा. लेकिन सर आप लोग ये सब क्यों पूछ रहे हैं?”
अब भटनागर साहब बोले, “देखिये यहाँ से आपको मालूम ही है कि हफ्ते में दो बार एक प्रोग्राम होता है, युवापसंद जिसे दो अनाउंसर बारी बारी से पेश करते हैं.”
“जी सर.”
“आप अभी अनाउंसर की पोस्ट से ही इस्तीफा देकर आये हैं.”
“जी सर.”
“और आवाज़ के मामले में आप हमारे अनाउंसर्स से इक्कीस ही पड़ते हैं उन्नीस नहीं.”
“थैंक यू सर लेकिन आप मुझसे क्या चाहते हैं?”
“हम ये चाहते हैं कि अगले हफ्ते से हफ्ते के दोनों युवापसंद प्रोग्राम आप ही करें और दिल लगाकर करें.”
लम्हे भर को मैं कुछ नहीं बोला. माइक से अलग हुए बहोत दिन हो गए थे. बिना माइक पर बोले दिल नहीं लग रहा था. अब ये एक सुनहरा मौक़ा मिल रहा था. कैसे छोड़ देता? मैंने एक लम्हे सोचकर कहा, “यस सर ज़रूर करूंगा.”
अब फिर झिंगरन साहब बोले, “लेकिन मिस्टर मोदी, हम आपको बता दें कि जिन अनाउंसर्स से छीन कर ये आपको दिया जाएगा वो आपसे झगड़ा भी कर सकते हैं. आप घबराएंगे तो नहीं ना?”
मेरे अन्दर फिर वही जिद्दी इंसान सर उठाने लगा था........ मैंने कहा, “आप फिक्र न करें सर. मैं घबराऊंगा नहीं.”
“सोच लिया आपने अच्छी तरह से ?”
“जी सर सोच लिया.”
“ऑफिस ऑर्डर जारी कर दें ?”
“जी सर.”
मैं उनके कमरे से निकला तो मुझे फिर भट्ट साहब याद आ गए, उनकी बातें याद आ गयीं, “मैं अपने तजुर्बे की बिना पर कह रहा हूँ कि तुम जहां भी जाओगे, ज़्यादातर तुम्हारी आवाज़ वहाँ के अनाउंसर्स पर भारी पड़ेगी और वो अनाउंसर तुम्हारे दुश्मन बन जायेंगे.”
फिर भी मुझे खुशी थी कि मैं इतने वक़्त तक माइक से अलग रहने के बाद फिर से माइक्रोफोन से जुड़ने जा रहा हूँ. एक बार फिर से मैं माइक्रोफोन पर बोलने के उस नशे को महसूस करूंगा.............यकीनन कुछ लोग मुझसे नाराज़ होंगे और हो सकता है झगड़ा भी करें. एक बार को थोड़ा टेंशन सा महसूस हुआ. फिर  मैंने अपनी आदत के मुताबिक अपने सर को झटका और अपने आप से कह, “हुंह........ जो होगा सो देखा जाएगा.” और घर की ओर चल  पड़ा.
अगले दिन मैं अपनी ड्यूटी पर हमेशा की तरह ट्रांसमीटर पहुंचा. ऑफिस से आयी डाक में मेरे नाम का एक चार लाइनों का ऑफिस आर्डर था जिसमें लिखा हुआ था कि अगले सप्ताह से हफ्ते के दोनों युवा पसंद प्रोग्राम मुझे तैयार करने हैं और पेश करने हैं. मैंने वो ऑर्डर लेकर रजिस्टर पर दस्तखत कर दिए. थोड़ी बहोत खुसुर पुसुर मेरे कानों में पड़ी मगर कुछ ख़ास असर उस ऑर्डर का मुझे वहाँ नज़र नहीं आया क्योंकि इत्तेफाकन उस रोज़ उन दोनों अनाउंसर्स में से एक भी ड्यूटी पर नहीं था जिनसे ये प्रोग्राम छीनकर मुझे दिया गया था. अगले दिन मुझे किसी काम से ऑफिस जाना पड़ा तो देखा हर तरफ हंगामा सा था कि प्रोग्राम पेश करना अनाउंसर का काम है, उसका हक है. प्रोग्राम किसी अनाउंसर से लेकर किसी ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव को कैसे दिया जा सकता है ? हम जयपुर और दिल्ली इसकी शिकायत करेंगे. ये बातें मुझे सीधे किसी ने आकर नहीं कहीं, बस इधर उधर से मेरे कानों तक आ रही थीं. मुझे भटनागर साहब ने पहले ही बता दिया था कि कुछ हंगामा हो सकता है, इसलिए मुझपर इसका कोई ख़ास असर नहीं हो रहा था. मैं तो ऑफिस के हुकुम की तामील करने जा रहा था और जयपुर में बवेजा साहब ही थे जिन्हें शिकायत की जा सकती थी और बवेजा साहब पर मेरा विश्वास दिनोदिन पक्का होता जा रहा था कि वो हर अच्छे बुरे हालात में मुझे सपोर्ट करेंगे.
मैंने अपना काम करना शुरू कर दिया. पहले प्रोग्राम के लिए मैटेरियल इकट्ठा किया, फरमाइशी पोस्टकार्ड्स छांटकर, रिकॉर्ड्स निकलवाये. स्क्रिप्ट तैयार की और उसमे बीच में कुछ अच्च्छे अशआर फिट किये. प्रोग्राम तो लाइव होना था. मैं अपने पूरे असलहा के साथ तैयार था. स्टूडियो पहुंचा और मैंने आकाशवाणी उदयपुर से अपना पहला प्रोग्राम पेश किया. कंट्रोल रूम में श्री बलदेव कस्तूरिया और श्री राकेश शर्मा इशारे से मेरा उत्साह बढ़ा रहे थे लेकिन इसी बीच मैंने स्टूडियो और कंट्रोल रूम के बीच के शीशे से देखा कि इंजीनियर श्री बलदेव कस्तूरिया ने दो तीन बार फोन उठाया और उनका हंसता मुस्कुराता  उत्साह बढाता चेहरा अचानक गंभीर हो गया. मुझे कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ है? क्या मैं ठीक से प्रोग्राम नहीं कर पा रहा हूँ ? और ये किसके और कैसे फोन आ रहे हैं जिन्हें सुनकर कस्तूरिया जी संजीदा हो रहे हैं? मैं अपनी तरफ से मुतमईन स्टूडियो से बाहर निकला. मैं तो ट्रांसमिशन ड्यूटी के साथ साथ ये काम कर रहा था. आगे तो मिसेज़ सोमानी को स्टूडियो संभालना था. आगे का प्रोग्राम जयपुर से रिले होना था. वो रिले शुरू करके जब बाहर निकलने लगा तो देखा मिसेज़ सोमानी के चेहरे पर भी कुछ अजीब से तआस्सुरात थे. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या है? मैंने मिसेज़ सोमानी को पूछा, “क्या हुआ मैम....... प्रोग्राम कुछ ठीक नहीं हुआ क्या ? वो फीकी सी मुस्कराहट के साथ बोलीं, “ठीक था प्रोग्राम तो लेकिन...................”
मैंने कहा, “लेकिन क्या........?”
इसी बीच कंट्रोल रूम से उठकर कस्तूरिया जी भी आ गए थे. उन्होंने मिसेज़ सोमानी को पूछा, “ड्यूटीरूम में भी आये क्या?”
मैंने कहा, “क्या हुआ आखिर?”
कस्तूरिया जी ने कहा, “बॉस बहोत सारे लिसनर्स के फोन आये कंट्रोल रूम और ड्यूटीरूम में कि ये किसे बिठा दिया है माइक्रोफोन पर?...... कुछ इसी तरह की बातें हर इंसान कर रहा था.”
मुझे लगा, मैंने प्रोग्राम तो पूरे मन से तैयार किया था और उतने ही मन से पेश किया था. प्रोग्राम करने में मुझे मज़ा भी उतना ही आया था जितना बीकानेर या जोधपुर में आया था. फिर आखिर मुझसे गड़बड़ कहाँ हुई? भट्ट साहब  ने ये तो कहा था कि हर जगह ज़्यादातर अनाउंसर्स तुम्हारे दुश्मन हो जायेंगे लेकिन यहाँ तो वो लोग ही मेरे प्रोग्राम को नापसंद कर रहे हैं जिनके लिए मैं प्रोग्राम करता हूँ.
तभी ड्यूटीरूम के फ़ोन की घंटी बजी. मैंने फ़ोन उठाया. उस तरफ भटनागर साहब थे. मैंने हेलो बोला तो वो कहने लगे, “शाबाश महेंद्र....... बहोत अच्छा प्रोग्राम था तुम्हारा.”
वो बहोत प्यार से बोल रहे थे. उनका संबोधन भी मिस्टर मोदी से बदलकर महेंद्र हो गया था, जिससे उनकी खुशी ज़ाहिर हो रही थी. लेकिन मेरा मन तो थोड़ा बुझा बुझा सा था.
मैंने धीरे से कहा, “थैंक यूं सर........ लेकिन यहाँ तो कई फोन आये हैं सुनने वालों के कि प्रोग्राम बकवास था.”
उन्होंने तीन चार मोटी मोटी गालियाँ निकालते हुए कहा, “ये सब किसका काम है हम जानते हैं. तुम फिक्र मत करो. प्रोग्राम वास्तव में बहोत अच्छा गया है.”
मैं अपनी ड्यूटी में लग गया........ सामयिकी रिकॉर्ड करना, लॉगिंग करना, फोन अटेंड करना , अनाउंसर के अनाउंसमेंट चेक करना, अगले दिन के मेटेरियल को चेक करना. बहोत से काम थे. इसी बीच में कस्तूरिया जी मेरे पास थोड़ी देर आकर बैठे और बोले, “बॉस आपकी किसी से दुश्मनी है क्या ?”
मैंने कहा, “ मुझे यहाँ आये दिन ही कितने हुए हैं? इतने दिन में दोस्ती-दुश्मनी छोड़कर जान पहचान भी नहीं हो पाती है लोगों से.”
“हाँ ये बात तो सही है, लेकिन जो भी फोन आये वो सब स्पौन्सर्ड लग रहे थे क्योंकि सबकी भाषा एक ही थी.”
मैंने कहा, “होने दीजिये, मैं इन सब बातों की परवाह नहीं करता.”
दो दिन और गुज़र गए. अगले दिन फिर मुझे प्रोग्राम करना था. मैं ड्यूटीरूम में बैठा अपने प्रोग्राम की स्क्रिप्ट लिख रहा था कि फोन की घंटी बजी. मैंने फोन उठाया तो उधर से आवाज़ आयी, “मोदी बोल रहा है?”
मैंने कहा, “जी बोल रहा हूँ, आप कौन बोल रहे हैं?”
“तेरा बाप.”
“मजाक मत कीजिये, कौन बोल रहे हैं और क्या चाहते हैं?”
“मैंने कहा ना कि तेरा बाप बोल रहा हूँ और कान खोल कर सुन, कल तू ऑफिस से छुट्टी लेगा और प्रोग्राम पेश नहीं करेगा.”
मैं कुछ कहूं उससे पहले ही फोन काट दिया गया.  मुझे लगा होगा कोई पागल. मैं अपने काम में लगा रहा.
अगले दिन फिर जब मैंने प्रोग्राम किया तो लिस्नर्स के फोन आते रहे कभी ड्यूटीरूम में कभी कंट्रोलरूम में और मैं अपने काम में लगा रहा.
अगस्त का महीना चल रहा था मुझे अच्छी तरह याद है. मेरे ड्यूटीरूम में एक फोन आया. बड़ी भारी सी बनायी हुई आवाज़ लग रही थी, “अबे मरना है क्या तुझे?”
मैंने जवाब दिया, “भाई मरना तो सबको ही है इस दुनिया में. जो भी आया है उसे जाना ही है.”
“बकवास मत कर....... जो कह रहा हूँ ध्यान से सुन...... या तो ये प्रोग्राम व्रोग्राम करना बंद करदे नहीं तो गोली से उड़ा देंगे तुझे.”
सच बात तो ये है कि मैं भी मन ही मन घबरा गया था थोड़ा कि एक प्रोग्राम के लिए अपनी जान को जोखिम में डालने का क्या अर्थ है लेकिन फिर वही जिद्दी इंसान पता नहीं कहाँ से मेरे अन्दर जाग पड़ा. मैंने चिल्लाते हुए कहा, “माँ का दूध पिया है तो सामने आ........ आजा.... देखते हैं कौन किसे गोली से उडाता है?”
फोन फिर रख दिया गया. मैंने भटनागर साहब को फोन करके सारी बात बताई. वो बोले, “फिक्र मत करो मैं देखता हूँ. “
मैं ड्यूटीरूम में ही था कि कोई दो घंटे बाद पुलिस के दो जवान ट्रांसमीटर पर आये. हमारे सिक्योरिटी गार्ड देवी सिंह जी ने आकर बताया कि दो पुलिस वाले आये हैं मुझसे मिलना चाहते हैं. मैंने बुलवाया उन्हें. उन्होंने आते ही सलाम ठोका और बोले, “सर हमारी ड्यूटी आपके साथ है. एस पी साहब का हुकुम है कि हम चार लोगों में से कोई दो लोग हमेशा आपके साथ रहेंगे.”
मैंने कहा, “अच्छा ठीक है , रहिये आप मेरे साथ.”
और उस दिन से मैं पुलिस सुरक्षा में रहने लगा. जैसे ही पुलिस सुरक्षा में रहने लगा, मेरे पास आने वाले फोन्स की तादाद कम होने लगी. वक़्त गुज़रता रहा . मेरे प्रोग्राम्स प्रसारित होते रहे. धमकी भरे फ़ोन की तादाद कम होने लगी और एक दिन आया .......... २७ अगस्त १९७७. ख़बरों में सुना कि पूरे हिन्दोस्तान के चहीते गायक मुकेश नहीं रहे. पूरा देश जैसे सन्न रह गया. उसी दिन शाम को मेरा प्रोग्राम होना था. मैंने भटनागर साहब को फोन करके कहा कि मैं मुकेश जी पर एक स्पेशल प्रोग्राम करना चाहता हूँ. उन्होंने फ़ौरन कहा, “हाँ हाँ ज़रूर करो.”
मैं जुट गया प्रोग्राम की तैयारी में. मुझे आज भी अच्छी तरह याद है, वो शाम मेरी ज़िंदगी की एक यादगार शाम बन गयी. उस प्रोग्राम में मैं भी रोया और लोगों ने मुझे बाद में बताया कि मैंने सुनने वालों को भी खूब रुलाया. प्रोग्राम ख़त्म होते ही ड्यूटीरूम में मेरे पास फोन आने लगे. हर इंसान एक ही बात कह रहा था. सर माफ़ कर दीजिये. आपके स्टेशन के कुछ अनाउंसर्स ने हमें भड़काया था, आपके खिलाफ वो सब करने को. आज का प्रोग्राम सुनने के बाद हमारी आँखे खुल गयी हैं. हम आपसे जो आज जुड़ गए हैं, यकीन कीजिये हम पूरी ज़िंदगी आपसे जुड़े रहेंगे.
और ये हकीकत है कि हालांकि उनमे से कुछ लोग तो अब नहीं रहे, लेकिन कुछ लोग आज भी मुझसे जुड़े हुए हैं और जब तक मैं इस दुनिया में हूँ मुझे पूरा भरोसा है कि वो लोग मुझसे जुड़े हुए रहेंगे.


 
 





Saturday, October 21, 2017

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग -41 (महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)





पिछली सभी कडियां पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए।




मन बहोत उदास हो गया था . आकाशवाणी के गेट पर उन महान अनाउंसर साहब ने एक तरह से धक्के देकर निकाल दिया था मुझे . बहोत बेइज्ज़त महसूस कर रहा था मैं अपने आपको . सोच रहा था, एक कल्चरल डिपार्टमैंट है आकाशवाणी, यहाँ काम करने वाले लोग इतने अनकल्चर्ड कैसे हो सकते हैं? क्या बिगड़ जाता उन अनाउंसर साहब का अगर मैं अपना मोटर साइकिल रात भर के लिए वहाँ रख देता ? अगर राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली अहमद की कमज़ोर हालत का फ़ायदा उठाकर श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए, उनसे देश में एमेरजैन्सी का ऐलान करवा लिया तो उससे मेरे मोटर साइकिल का क्या सम्बन्ध है? अगर मेरा मोटर साइकिल रात भर आकाशवाणी में खड़ा रह जाएगा तो क्या उससे भी इंदिरा जी का सिंहासन हिल जाएगा ? क्या सोच है यहाँ के लोगों की?  मैं इस डिपार्टमेंट में आने के लिए इतनी नौकरियां छोड़ता चला आ रहा हूँ? क्या होगा मेरा भविष्य ? यही सब सोचते सोचते मैं रात ११ बजे मोटर साइकिल को धकेलते धकेलते घर पहुंचा. एक बार को मन किया, नहीं...... मैं नहीं करूंगा ऐसी जगह नौकरी, वरना ऐसे लोगों के साथ  रहकर मैं भी इन लोगों जैसा ही हो जाऊंगा. मेरे माता पिता द्वारा दिए  गए संस्कार कब तक मुझे ऐसे लोगों जैसा ही बन जाने से रोकेंगे ? मगर..... बार बार मेरी आँखों के सामने आकाशवाणी का स्टूडियो और उसमें लगा माइक्रोफोन घूम जाता था, जिसके सामने मुझे जितना अच्छा महसूस होता था, उतना और कहीं भी महसूस नहीं होता था. जितनी संतुष्टि मुझे आकाशवाणी के उस माइक्रोफोन के सामने मिलती थी उतनी कहीं भी नहीं मिलती थी. 


एक बात और थी जो मुझे रेडियो के उस माइक्रोफ़ोन की तरफ खींचती थी. जब जब भी माइक के सामने आया, सिवाय अनाउंसर लोगों के हर इंसान ने मेरा हौसला बढाया. जब सबसे पहले ड्रामा का ऑडिशन दिया तब तो मैं महज़ १८ बरस का था, आकाशवाणी, जयपुर के डायरेक्टर मंजुरुल अमीन साहब और विश्वम्भर नाथ जी ने सीधे सीधे अनाउंसर की नौकरी प्लेट में परोसकर मेरे सामने रख दी थी . उसी ऑडिशन के दौरान आकाशवाणी, बीकानेर के प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव सुरेन्द्र विजय शर्मा जी ने मेरी पीठ ठोंक कर मेरा उत्साह बढाया था. उसके बाद महेंद्र भट्ट साहब ने चार चार परमानेंट अनाउंसर्स के होते हुए मुझसे अपने फीचर्स के नरेशन करवाए. इसके बाद जब अनाउंसर की पोस्ट के लिए जयपुर में ऑडिशन दिया तो वहाँ के असिस्टेंट स्टेशन डायरेक्टर ने ना केवल मेरी आवाज़ की तारीफ़ की, मुझे ये सलाह भी दे दी कि मुझे न्यूज़ रीडर की पोस्ट के लिए अप्लाई करना चाहिए. मेरी आवाज़ उसके लिए परफेक्ट है. यानी हर तरफ से ये इशारे मिल रहे थे कि मैं रेडियो के लिए, रेडियो के माइक के लिए ही बना हूँ. अगर कुछ और करने की कोशिश करूंगा तो शायद मैं अपने आप के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगा. और ये कुछ लोग हैं जो मुझे बस पीछे धकेलने में लगे हुए हैं.
ये जनवरी की शुरुआत के दिन थे. बीकानेर में अच्छी खासी सर्दी पड़ने लगी थी. अगले दिन सुबह नींद से जागा तो पूरा बदन टूट रहा था. मैं करीब १२-१३ किलोमीटर मोटर साइकिल को धकेल कर लाया था. उस रोज़ मैं पूरे दिन बिस्तर पर ही पड़ा रहा. हिम्मत ही नहीं हुई उठकर कहीं जाने की. उसके अगले दिन मैं आकाशवाणी के दफ्तर गया. थकावट अभी भी उतरी नहीं थी. भट्ट साहब ने पूछ ही लिया, “क्या हुआ महेंद्र, बहोत थके थके से लग रहे हो?”
मैंने मुस्कुरा कर बात टालने की कोशिश की क्योंकि मैं किसी की शिकायत नहीं करना चाहता था लेकिन उन्होंने शायद मेरे चेहरे पर उभर आई कुछ गंभीर रेखाओं को पढ़ लिया था. फिर बोले, “अरे बताओ ना बात क्या है? इतने बुझे बुझे और थके थके क्यों लग रहे हो?”
मैंने कहा, “सर सोच रहा हूँ, हालांकि ये खबर पक्की हो गयी है कि मेरा आकाशवाणी में सलैक्शन हो गया है मगर मैं ज्वाइन करूं या नहीं ?”
“ऐसा क्यों सोचना पड़ रहा है तुम्हें, पूछ सकता हूँ ? दो दिन पहले तक तो तुम बहोत खुश थे अपने सलैक्शन पर. दो दिन मैं ऐसा क्या हो गया कि तुम ऐसा सोच रहे हो ?”
“सर मुझे लगता है कि जिस तरह के लोग आकाशवाणी में हैं, उनके साथ मेरी पटरी नहीं बैठेगी और कभी मैं बहोत मुसीबत में फँस जाऊंगा.”
“ओह तो मतलब हम लोग तुम्हें पसंद नहीं आये. ठीक है भाई मत करो ज्वाइन आकाशवाणी अगर ऐसा है तो.”
“नहीं सर प्लीज़ मुझे ग़लत मत समझिये. आपने तो मेरी हर क़दम पर  हौसला अफज़ाई ही की है, लेकिन कुछ लोगों का बर्ताव मुझे बिलकुल समझ नहीं आ रहा.”
“अरे तुम कुछ बताओगे भी या पहेलियाँ ही बुझाओगे ? आखिर हुआ क्या है इन दो दिनों में ?”
हालांकि मैं किसी की शिकायत नहीं करना चाहता था लेकिन उनके इतना जोर देने पर मुझे उन्हें पूरा वाकया सुनाना पड़ा. मेरी बात सुनकर उनकी पेशानी पर भी कुछ लकीरें उभर आईं. कुछ लम्हे खामोश रहकर वो बोले, “देखो दोस्त तुम रेडियो ना भी ज्वाइन करो तो दूसरे फ़ील्ड्स में इस तरह के लोगों से वास्ता नहीं पड़ेगा इसकी क्या गारंटी है ? हमें इस दुनिया में रहना है तो हर तरह के लोगों को झेलना सीखना होगा. जहां तक इस वाकये का ताल्लुक है, मैंने तुमसे बहोत दिन पहले कहा था कि अनाउंसर लोग हमेशा तुम्हारे दुश्मन बन जायेंगे. कुछ लोग ज़ाहिर कर देंगे और कुछ लोग अपने दिल में इस दुश्मनी को पोशीदा रखकर तुम्हारे मुंह पर मीठे बने रहेंगे. उनके अलावा क्या तुम्हें बाकी लोगों के बर्ताव से कोई  शिकायत है ?”
मैंने कहा, “जी नहीं बाकी तो सब लोग बहोत अच्छे से व्यवहार करते हैं. चाहे इंजीनियर्स हों चाहे ऑफिस के लोग हों.”
“ तो फिर गाँठ बाँध लो मेरी बात. ये लोग जो तुम्हारे साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते वो तुम्हारे सामने इनसिक्योर महसूस करते हैं और ये उसी का रद्देअमल है. इससे घबराओ मत.......अपनी तरफ से अपना बर्ताव अच्छा रखो. बस लेकिन आकाशवाणी की हाथ में आई नौकरी एक बार तुम छोड़ चुके हो, अब ये गलती फिर से मत करना वरना तुम कहीं भी नौकरी करो, तुम्हारी आत्मा असंतुष्ट होकर आकाशवाणी के आस पास ही गर्दिश करती रहेगी.”
मैंने सर झुकाए झुकाए कहा, “जी सर...... बहोत बेहतर.”


“अच्छा हां, एक बात और. मेरी कल आकाशवाणी जोधपुर के असिस्टेंट डायरेक्टर साहब से बात हुई थी. उन्होंने बताया कि तुम्हारा नाम दरअसल वेटिंग लिस्ट में पहले नंबर पर था, दो तीन दिन में ही वहाँ से तुम्हारे नाम का लैटर निकलने वाला है. अगले हफ्ते में तुम्हारे पास पहुँच जाएगा ये लैटर.”
मैंने थोड़ा हैरान होकर पूछा“जी............. मेरा नाम............ वेटिंग लिस्ट में था ?”
“हाँ तो उससे क्या हुआ?”
“नहीं सर हुआ तो कुछ नहीं लेकिन इसका मतलब ये हुआ कि मेरी आवाज़ अच्छी है ये वहम ही पाल रखा था मैंने अपने मन में और आपने, अमीन साहब ने, विश्वम्भर नाथ जी ने, आर एस शर्मा साहब ने जो मेरी आवाज़ के बारे में कहा, वो सब भी बस मेरा मन रखने के लिए कहा आप सबने.”
“नहीं, बिलकुल ग़लत सोच रहे हो तुम. हमें तुम्हारा मन रखने से क्या मिल जाएगा ? क्यों हम झूठमूठ कोई  ऐसी बात कहेंगे ? तुम सोचो जितने लोग सलैक्ट हुए हैं उनमें तुम अकेले ऐसे इंसान हो जिसने अनाउंसर के लिए इम्तहान देने से पहले कभी कैजुअल काम नहीं किया था. बाकी सब लोग बरसों से किसी न किसी स्टेशन पर कैजुअल एनाउंसर का काम कर रहे थे. खैर बाकी सारी बातों को मन से निकालो और जोधपुर जाने की तैयारी करो, तुम्हारा लैटर अगले हफ्ते तुम्हें मिल जाएगा.”
“जी अच्छा.”
मैं वहाँ से उठकर आ गया. एक बात तो मेरी समझ में आ गयी थी कि बवेजा साहब ने मेरे उनके ऑफिस में किये काण्ड को कोई तवज्जो नहीं दी थी, वरना वोटिंग लिस्ट में भी मेरा नाम नहीं आ सकता था. हो सकता है कि कुछ लोग बहोत ऊंची सिफ़ारिश वाले हों. उन्हें मेन लिस्ट में रखना उनकी मजबूरी रही हो मगर वेटिंग में ही सही मुझे उन्होंने सलैक्ट तो कर ही लिया.
अगले हफ्ते मुझे आकाशवाणी, जोधपुर से एक लैटर मिल गया, जिसमें १५ दिन के अन्दर अनाउंसर की पोस्ट पर ज्वाइन करने को कहा गया था. अब मुझे कुछ काम निबटाने थे. सबसे पहले तो जिन तीन लोगों को मैं ट्यूशन पढ़ा रहा था, उन्हें अपने एक दोस्त के सुपुर्द किया ताकि उन बच्चों की पढ़ाई ख़राब न हो. मेरी नीम हकीमी भी चल रही थी. उसे समेटना भी ज़रूरी था. जब मेरे मरीजों को ये पता लगा कि मैं क्लिनिक बंद करके जा रहा हूँ तो उन्हें समझ ही नहीं आया कि मैं अपनी डॉक्टरी का अच्छा जमा जमाया काम छोड़कर रेडियो में काम करने क्यों जा रहा हूँ ? मैंने उन लोगों को समझा बुझा कर कुछ अच्छे डॉक्टर्स के पास भेज दिया. इस सारे काम में मुझे ५-६ दिन लग गए. २५ जनवरी १९७६ को मैंने ११ रुपये में जोधपुर का टिकेट खरीदा और ट्रेन में जाकर सवार हो गया. ट्रेन देर रात बीकानेर से रवाना होकर सुबह जोधपुर पहुँचती थी. २६ जनवरी की सुबह जब पूरा देश गणतंत्र दिवस मना रहा था, मैं जोधपुर रेलवे स्टेशन पर उतरकर रहने के लिए कोई जगह ढूंढ रहा था.
मैं इससे पहले जोधपुर कुल दो बार आया था. एक बार तो सूरज सिंह जी की नाटक मंडली के साथ आया था . इसलिए रुकने के इंतजाम से लेकर खाने पीने के इंतजाम तक कुछ भी मेरे सर नहीं था. दूसरी बार उस वक़्त आया, जब भाई साहब पीलवा में पोस्टेड थे और उन्हें १९७१ के भारत पाक युद्ध के दौरान कुछ वक़्त के लिए मंडोर लगाया गया था. तब पूरे वक़्त मैं मंडोर ही रहा इसलिए जोधपुर के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानता था. भाई साहब ने बताया कि स्टेशन के सामने ही एक होटल है अशोका. मैं वहाँ रुक सकता हूँ. मैं अपने बोरिया बिस्तर के साथ अशोका होटल में जा टिका. २६ जनवरी का दिन था. मुझे पता था कि आकाशवाणी के दफ्तर में तो छुट्टी होगी. ज्वाइन तो २७ को ही कर पाऊंगा लेकिन सोचा, क्यों न एक चक्कर लगा कर आकशवाणी जोधपुर के दर्शन तो कर आऊँ ? नहा धो कर मैं एक टेम्पो के ज़रिये पावटा सी रोड पर उतरा और लाल मैदान में बने आकाशवाणी के स्टूडियो में जा पहुंचा. 


बाहर बैठे सिक्योरिटी गार्ड ने पूछा कि किससे मिलना है. मैंने उन्हें समझाया कि मुझे कल यहाँ ज्वाइन करना है इसलिए बस वैसे ही लोगों से मिलने आ गया हूँ यहाँ. वो मुझे बाहर ही रोककर ड्यूटी रूम में गया. ड्यूटी ऑफिसर को मेरे बारे में बताया और बाहर आकर मुझसे बोला, “जाइए साब आप अन्दर जा सकते हैं.”
मैं बिल्डिंग के अन्दर घुसा. बाएं हाथ की तरफ एक छोटा सा कमरा बना हुआ था, जिस पर लिखा हुआ था ड्यूटी रूम. मैंने देखा एक अधेड़ उम्र के साहब कुर्सी पर बैठे हैं और उनके सामने एक साहब चश्मा लगाए बैठे बीड़ी पी रहे हैं. मैंने दोनों को नमस्कार किया और अपना परिचय दिया. ड्यूटी ऑफिसर साहब ने अपना नाम पी पी माथुर बताया और सामने बैठे साहब ने अपना नाम सुरेश राही बताया और साथ ही ये भी बताया कि वो सीनियर अनाउंसर हैं. मैं उनके पास बैठकर बात करने लगा ही था कि अन्दर के स्टूडियो से एक साहब निकलकर ड्यूटी रूम की तरफ आये. मैंने पहचाना, अरे ये तो मुकुट माथुर जी हैं. उन्होंने भी मुझे फ़ौरन पहचान लिया और बहोत गर्मजोशी से मुझसे मिले.
थोड़ी ही देर में और भी कुछ लोग वहाँ इकट्ठे हो गए. ये वो वक़्त था, जब शिफ्ट बदलती है.यानी दो शिफ्ट्स के लोगों से मेरी मुलाक़ात हो गयी. मुझे स्टूडियो दिखाया गया जो अगले दिन से मेरा कर्मक्षेत्र बनने वाला था. सभी लोग इस बात की फिक्र भी करने लगे कि मेरे लिए आस पास कोई कमरा देखा जाए जहां मैं रह सकूं. कुल मिलाकर माहौल आकाशवाणी बीकानेर के मुकाबले काफ़ी बेहतर लगा. मुझे बताया गया कि वहाँ से आधा किलोमीटर दूर एक किराए के मकान में आकाशवाणी का ऑफिस है, जहां असिस्टेंट डायरेक्टर, दो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव और ऑफिस स्टाफ बैठता है. मुझे अगले दिन वहीं जाकर ज्वाइन करना था. एक एनाउंसर अरविन्द माथुर ने मुझे साथ लेजाकर ऑफिस की बिल्डिंग दिखा दी.
मैं दिन भर स्टूडियो बिल्डिंग में रहा. आकाशवाणी जोधपुर में दो चैनल थे. एक जिसे एच पी टी(हाई पावर ट्रांसमीटर) कहा जाता था, उस पर आकाशवाणी के तरह तरह के प्रोग्राम्स प्रसारित होते थे और दूसरा विविध भारती की विज्ञापन प्रसारण सेवा चैनल(सी बी एस ), जिस पर विविध भारती, मुम्बई से हवाई जहाज़ से आने वाले टेप्स प्रसारित होते थे और बीच बीच में स्पॉट्स और जिंगल्स भी बजाने होते थे. इसलिए एच पी टी पर एक वक़्त में एक अनाउंसर की ड्यूटी रहती थी और विविध भारती पर एक वक़्त में दो एनाउंसर ड्यूटी पर रहते थे. शाम तक करीब करीब सभी अनाउंसर्स से मुलाक़ात हो गयी. कुछेक को छोड़कर ज़्यादातर मेरे ही हमउम्र थे अनाउंसर्स  और बहोत अच्छी अच्छी आवाजों के मालिक थे. उनकी आवाजें सुनकर ये गलतफहमी भी दूर हो गयी कि बवेजा साहब ने इन्हें किसी बड़ी सिफ़ारिश की वजह से चुना है. हाँ जो पुराने लोग थे, उनमे से कुछ आवाजें मुझे बहोत हल्की लगीं . खैर......... मुझे लगा यहाँ मेरा गुज़ारा हो जाएगा क्योंकि जिन लोगों की खुद की इतनी अच्छी आवाजें हैं उन्हें भला मुझसे तकलीफ क्यों होगी.
शाम को वहाँ से निकल कर मैं पैदल चलकर पावटा आया, ये रेकी करने कि जब यहाँ ड्यूटी करनी होगी तो खाना कहाँ खाया जाएगा क्योंकि अभी किचन जमाने का तो कोई इरादा नहीं था. पावटा में ही एक सरदार जी का ढाबा मिल गया . मैंने जाकर उनसे दुआ सलाम की. पंजाबी मुझे ठीक ठाक आती थी. बस सरदार जी से दोस्ती हो गयी. मैंने उन्हें बताया कि मैं दोनों टाइम उनके यहाँ ही खाना खाऊँगा. उन्होंने शानदार लहसुन का तडका लगा कर दाल बनाई और गरम गरम तंदूरी रोटियाँ परोसने लगे. उस ज़माने में अपने राम की खुराक भी अच्छी खासी थी, ऊपर से मक्खन में लहसुन का तडका लगी हुई दाल और करारी तंदूरी रोटियाँ. मैं बहुत आराम से आठ रोटियाँ खा गया. सरदार जी पूछने लगे, सर जी रोज़ ही इतनी रोटियां खायेंगे क्या आप ? मैंने कहा कि हाँ आप अगर इतना अच्छा खाना खिलाएंगे तो पक्की बात है आठ तंदूरी रोटी और दो प्लेट दाल. सरदार जी खुश हो गए. मैं भी खुश हो गया. १५ पैसे की एक रोटी थी और एक रुपये की एक प्लेट दाल. यानी कुल सवा तीन रुपये में अपना शानदार खाना .  जी मैं किसी रिक्शा वालों के फुटपाथिया ढाबे की बात नहीं कर रहा. वो ज़माना था ही इतना सस्ता.


पावटा से टेम्पो पकड़ा और स्टेशन आया. अशोका होटल में रात को खींच कर सोया. बहोत अच्छी नींद आयी. सुबह नहा धोकर नाश्ता करके आकाशवाणी के ऑफिस पहुंचा. असिस्टेंट डायरेक्टर साहब के कमरे में पहुँच कर उन्हें बताया कि मैं ज्वाइन करने आया हूँ. छोटे से क़द के सांवले से एक साहब बड़ी सी मेज़ के उसपार बैठे थे. जैसे ही मैंने अपना परिचय दिया, उन्होंने अपना छोटा सा हाथ निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दिया. बड़ी मुश्किल से मैं पूरी मेज़ को पार करके उनसे हाथ मिला पाया . उन्होंने मेरा ऑफर लैटर देखा और चपरासी को कहा कि इन्हें ज्वाला प्रसाद जी से मिलवा दो. वो चपरासी मुझे ज्वाला प्रसाद जी के कमरे की तरफ लेकर चला. एक कमरे में दो शख्स बैठे हुए थे. मैं कमरे में घुसा. मैंने अपना परिचय दिया देखा, एक अधेड़ उम्र के साहब हैं, जिन्होंने मुंह में तम्बाकू वाला पान दबा रखा था और पान से बनने वाली पीक को संभालने की कोशिश कर रहे थे. ये कोशिश करते करते ही वो मुझसे मिले और मुंह ज़रा ऊपर करके अपने साथ बैठे दूसरे साहब से मुझे मिलवाया. ये दूसरे साहब थे नन्द भारद्वाज जी जो उम्र में काफी कम लग रहे थे. मुझे देखकर थोड़ा ताज्जुब हुआ कि ज्वाला प्रसाद जी की इतनी उम्र है और ये प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव हैं जबकि नन्द जी की इतनी कम उम्र है फिर भी ये प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की पोस्ट पर पहुँच गए. बाद में जाकर पता चला कि ज्वाला जी प्रमोटी थे जबकि नन्द जी यू पी एस सी से सीधे प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव सलैक्ट होकर आये हुए हैं.
अकाउंटेंट को बुलाकर सारी औपचारिकताएं पूरी की गयी और मुझे बताया गया कि अभी मुझे एक एक महीने के कॉन्ट्रैक्ट्स मिलेंगे. जब मेरा पुलिस वेरिफिकेशन हो जाएगा तो ५८ साल की उम्र तक का कॉन्ट्रैक्ट मिलेगा. उन दिनों अनाउंसर, प्रोड्यूसर, साइंस ऑफिसर, साज़िंदे, प्रोडक्शन असिस्टेंट ये सब की सब पोस्ट्स कॉन्ट्रैक्ट पोस्ट्स हुआ करती थीं. ये लोग सरकारी कर्मचारी नहीं माने जाते थे. ये बात अलग है कि कुछ बरसों बाद ज़माना कुछ ऐसा बदला कि हमारे बराबर ना माने जाने वाले ये स्टाफ आर्टिस्ट्स हम सब पक्की सरकारी नौकरी वालों के बाप बन गए.
सारी कार्यवाही के बाद मुझे स्टूडियो भेज दिया गया ताकि मैं अपने काम को समझ सकूं. मैं स्टूडियो में पहुंचा तो कई और लोगों से मुलाक़ात हुई जिनमे अनाउंसर्स राम दत्त वशिष्ठ, भगवान् मिहिरचंदानी, विष्णुदत्त जोशी, जगमोहन सिंह परिहार, सुबोध निगम, वेद बजाज, बी आर मेहता वगैरह थे. ड्यूटी ऑफिसर्स की यहाँ भी कमी ही थी. बुज़ुर्ग से पी पी माथुर के अलावा दो बिलकुल यंग ड्यूटी ऑफिसर्स थे. एक गोविन्द सोनी जिन्हें अपना नाम पसंद नहीं था और वो अपने आपको राजीव सोनी कहलवाना पसंद करते थे और कुमारी शीला जैन. इन दोनों को देखकर मुझे लगा कि मैं इन दोनों को कहीं देख चुका हूँ. अचानक ध्यान आया, हाँ ये तो ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव वाले इंटरव्यू में मेरे साथ ही थे. इसका मतलब हुआ कि उस इम्तहान का रिज़ल्ट आ चुका है और उसमें मेरा सलैक्शन नहीं हुआ है. मेरा मन बहोत दुखी हुआ. मुझे लगा, भट्ट साहब तो कह रहे थे कि दोनों पोस्ट्स के लिए मेरा सलैक्शन होने वाला है लेकिन अनाउंसर के पैनल में भी मेरा नाम वेटिंग में था और यहाँ तो लोगों ने ज्वाइन भी कर लिया है . इसका मतलब मेरा सलैक्शन नहीं हुआ. मगर क्या किया जा सकता था? अब अनाउंसर की पोस्ट पर ज्वाइन कर लिया है तो इसी पोस्ट को स्वीकार करना होगा. हाँ नन्द जी से जब भी मुलाक़ात होती थी तो मन में एक बात आती थी कि अगर यू पी एस सी से डायरेक्ट प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बना जा सकता है तो क्यों न मैं ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव के इम्तहान में फेल होने की बात को भुलाकर यूं पी एस सी की तैयारी करूं.
मैंने हमेशा की अपनी आदत के अनुसार अपने सर को झटककर इन खयालों को निकाला और सोचा अभी तो अनाउंसर के काम पर ध्यान देना चाहिए मुझे.


ये मेरे लिए कोई नया काम तो था नहीं. काफी कुछ जो यहाँ होता था, मैं पहले ही बीकानेर में कर चुका था. हाँ स्पॉट और जिंगल्स बजाने का काम नया था मेरे लिए लेकिन उसे सीखने में मुझे कोई दिक्क़त नहीं हुई. जो लोग जोधपुर के ही रहने वाले थे, उनके घर तो शहर में जहां जहां थे, वो लोग ड्यूटी के लिए वहाँ वहाँ से ही आते थे, कभी अलस्सुबह तो कभी दिन में और कभी शाम में, लेकिन बाहर से आये लोग स्टूडियो के आस पास ही किराए पर मकान लेकर रहते थे. मैंने भी एक कमरा किराए पर ले लिया. कमरे के साथ बस एक बाथरूम था और कुछ नहीं. कमरा सड़क पर था तो कमरे में बैठकर भी ऐसा लगता था कि सड़क पर बैठे हैं . किसी तरह एक महीना उस कमरे गुज़ारने के बाद मैंने पड़ोस में ही एक दूसरा कमरा खोज लिया. मेरे कमरे के पास ही ज्वाला प्रसाद जी का घर था, वहीं शीला जैन भी रहती थीं और सामने हमारे डायरेक्टर साहब भी रहते थे.
खाना मैं सरदार जी के ढाबे में खाता था इसलिए मेरे पास ड्यूटी के बाद करने को कुछ ख़ास नहीं था. मैंने ऑफिस में जाकर देखा कि एक शानदार लायब्रेरी बनी हुई थी वहाँ. मैं या तो वहाँ से किताबें लाकर पढता रहता था या फिर स्टूडियो में बैठकर लोगों के साथ बातचीत करता रहता था. एक दिन शाम को स्टूडियो बिल्डिंग में बैठा था कि मैंने देखा, हमारे असिस्टेंट डायरेक्टर साहब सामने से चले आ रहे हैं. ड्यूटी पर तैनात सभी लोग हडबडाकर उठ खड़े हुए. अब डायरेक्टर साहब ने पूछा, “कौन कौन है आज शाम की ड्यूटी पर?” किसी ने बताया, “जी सुबोध निगम है, अरविन्द है और बी आर मेहता है. “
“अच्छा ज़रा निगम को बुलाना बाहर.”
“जी सर”
स्टूडियो गार्ड भागा हुआ गया और सुबोध निगम को बुलाकर ले आया. सुबोध बोला, “जी सर”
“तुम शाम की ड्यूटी पर हो ना?”
“जी सर “
“ग्यारह बजे तक रहोगे ना स्टूडियो में ?
“जी सर “
“अच्छा ज़रा अपनी साइकिल की चाबी देना. मुझे कहीं जाना है. ११ से पहले लौट आऊँगा.”
सुबोध ने जेब से साइकिल की चाबी निकालकर पकड़ा दी.
“थैंक यू “ कहकर वो चाबी लेकर चल पड़े.
मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया कि ये क्या माजरा है? आकाशवाणी में सरकारी गाड़ियां मौजूद हैं फिर ये साहब सुबोध की साइकिल मांगकर क्यों ले गए हैं? मेरे पूछने पर वहाँ मौजूद सब लोग कहकहे लगा कर हंसने लगे. मैंने पूछा बात क्या है तो हमारे डायरेक्टर साहब की एक ऐसी ट्रिक के बारे में सुनने को मिला जो कभी फेल हो ही नहीं सकती थी.
वैसे ज़्यादातर प्रोग्राम तो वहाँ जयपुर से रिले होते थे लेकिन कुछ वार्ताएं वगैरह जोधपुर भी ओरिजिनेट करता था. डायरेक्टर साहब ने सभी प्रोग्राम वालों को कह रखा था कि कोई भी वार्ताकार रिकॉर्डिंग के लिए आये तो उन्हें एक बार उनसे ज़रूर मिलवाया जाए. नतीजतन जब भी कोई वार्ताकार आता था तो उसे लेकर सम्बंधित प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव या कोई कम्पीयर या एनाउंसर डायरेक्टर साहब के कमरे में जाता और उनसे मिलवाता. अब डायरेक्टर साहब उठकर वार्ताकार से हाथ मिलाते और प्रोग्राम स्टाफ के इंसान से कहते, “जाइए आप रिकॉर्डिंग की तैयारी कीजिए. हम लोग ज़रा बात करेंगे.” उस बेचारे को तो हुकुम की तामील करनी ही होती थी.
अब वो मुखातिब होते वार्ताकार की तरफ. कहाँ के रहने वाले हैं, कितने बच्चे हैं, ये कुछ रस्मी सवाल करने के बाद वो आते असली सवालों की तरफ. उनके कुछ ही सवाल होते थे.
“और जी कहाँ रहते हैं जोधपुर में?”

“जी महामंदिर या पावटा या सोजती गेट” या कुछ भी जवाब हो सकता था. इसका डायरेक्टर साहब की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता था. उनका अगला जुमला फ़ौरन से पेश्तर उनके मुंह से निकलता था और वार्ताकार बेचारा समझ भी नहीं पाता था कि मैं कहाँ फंसने जा रहा हूँ. वो बोलते, “अच्छा अच्छा वहाँ रहते हैं आप ? हं हं हं...... आयेंगे किसी रोज़ आपके घर.”
वार्ताकार के पास सिवा इसके कोई जवाब नहीं हो सकता था, “ जी ज़रूर आइये.”
डायरेक्टर साहब की टेबल पर एक कैलेण्डर सजा हुआ रहता था. वो फ़ौरन उस पर नज़र डालते और फरमाते, “ इस शनिवार को शाम को मैं फ्री हूँ.”
वार्ताकार के पास कोई रास्ता नहीं बचता  निकलने का. उसे कहना ही पड़ता, “जी ठीक है आइये आप.” अब उनका आख़िरी जुमला जो सबसे खतरनाक होता था, उनके मुंह से निकलता था, “जी हं हं हं.......मैं वेजीटेरियन हूँ.” यानी आपके घर आऊँगा और खाना खाकर ही जाऊंगा.
वार्ताकार रोनी सी सूरत बनाकर कहता, “जी अच्छा.” कहता क्या उसे कहना ही पड़ता.
और अगर उस दिन वार्ताकार कहीं और बिजी हैं तो कैलेण्डर तो टेबल पर लगा हुआ ही है. वो दिन नहीं तो कोई  दूसरा दिन सही. यानी चार  जुमलों में शाम का खाना पक्का. वार्ताकार के पास कोई रास्ता ही नहीं रहता था बच निकलने को. इसी तरह हफ्ते में तीन चार दिन वो लोगों के मेहमान बनते थे और जब उन्हें शाम को इस तरह जुगाड़ का खाना खाने जाना होता था तो वो स्टूडियो आकर किसी अनाउंसर की साइकिल मांगकर ले जाते थे क्योंकि अगर ऑफिस की कार से जायेंगे तो ऑफिस के लोगों को पता लग जाएगा कि साब किसी के घर खाना खाने गए हैं. ये बात अलग है कि पूरा ऑफिस जानता था कि साब ऐसा करते हैं मगर वो इसी भ्रम में रहते थे कि ऑफिस में कोई नहीं जानता कि वो ऐसा जुगाड़ करते हैं.
इसी तरह दिन गुज़र रहे थे और ऑफिस का माहौल अच्च्छा था. बस कुछ एक लोग कुछ अलग तरह के थे तो ये तो मानकर ही चलना पड़ता है कि किसी भी जगह सब लोग एक जैसे नहीं हो सकते. हमारे एक अनाउंसर साहब जिनकी अच्छी खासी नौकरी हो चुकी थी, हर काम बड़ी अदा के साथ किया करते थे. अनाउंसमेंट का उनका अपना एक स्टाइल था. सी बी एस (विविध भारती ) पर शाम को फ़िल्मी गानों का एक फरमाइशी प्रोग्राम हुआ करता था जो बहोत मशहूर था. जिस वक़्त ये प्रोग्राम प्रसारित होता, पूरे शहर के रेडियो चालू रहते. हमारे ये अदाकार अनाउंसर साहब जब ड्यूटी पर होते तो उनकी कोशिश यही रहती थी कि ये प्रोग्राम वो ही करें. फिर स्टूडियो का जो मंज़र होता था वो देखने लायक होता था . लोग उनसे कहते भी थे भाई जी ये रेडियो है, टी वी नहीं कि आपकी ये अदाएं लोगों को दिखाई दे जाएँ लेकिन वो कहाँ मानने वाले थे. हाथ नचा नचा कर जो अनाउंसमेंट करते थे उन्हें सुनकर ड्यूटीरूम और कंट्रोल रूम में लोग हंस हंस कर उलटे हो जाते थे. उनके एक अनाउंसमेंट की बानगी देखिये , “सब्भी सुनने वालों को रररराम  .......... .......... का प्यार भरा नमस्कारररर......... दोस्तो प्रोग्राम की शुरुआत में चले आ रहे हैं लता मंगेशकर और किशोर कुमार फिल्म कटी पतंग का एक गीत लेकर.” 

लोग कहते “भाई साब, दरवाज़ा खोलकर रखें क्या लता जी और किशोरकुमार चले आ रहे हैं तो.....? अरे सीधा सीधा अनाउंसमेंट करो ना यार ये फालतू की फफूंद क्यों फैलाते हो?” ऐसे में उन्हें लगता कि लोग उनसे जलकर कह रहे हैं और वो अफसरों से आये दिन जाकर इस तरह की शिकायतें करते.
 मैंने सारे अनाउंसर्स की स्टाइल की थोड़ी स्टडी की और एक तमाशा करने लगा. बाकी वक़्त तो ऑफिसर्स भी रेडियो सुनते थे इसलिए कोई शरारत करना खतरे से खाली नहीं था. लेकिन जब रात को क्लोजिंग अनाउंसमेंट करना होता तो मैं अपने नाटक की कला का थोड़ा इस्तेमाल करता था और हर बार किसी एक एनाउंसर की नक़ल करते हुए उसके स्टाइल में अनाउंसमेंट करता था. लोग इसके खूब मज़े लिया करते थे. थोड़ा मनोरंजन हो जाता था सबका. एक रोज़ रात को, मैंने अपने एक साथी की स्टाइल में क्लोजिंग की. अगले दिन सुबह मीटिंग में ज्वाला प्रसाद जी ने पूछा , “कल रात को सी बी एस की क्लोजिंग किसने की....? ज़रा लॉगबुक में देखिये. “ देखा वहाँ मेरा नाम लिखा हुआ था. ज्वाला प्रसाद जी बोले, “नहीं कुछ गड़बड़ है.... मोदी की आवाज़ तो नहीं थी.” ये तो फलां फलां अनाउंसर की आवाज़ थी. पी पी माथुर भी मीटिंग में थे, बोले, “सर मैं खुद गवाह हूँ, मोदी जी ने ही क्लोजिंग की थी.”
ज्वाला प्रसाद जी थोड़ा मुस्कुराए और बोले, “अच्छा आज जब वो आये तो उसे मेरे पास भेजना.”
मीटिंग ख़त्म हो गई. मै दिन की ड्यूटी पर था. मुझे बताया गया कि मेरे लिए बुलावा है ज्वाला प्रसाद जी का. मैं ऑफिस गया और ज्वाला प्रसाद जी के कमरे में हाज़िर हुआ. वो थोड़ा संजीदा होकर बोले, “कल शाम को आपकी ड्यूटी थी?”
“जी हाँ सर.”
“तो रात को क्लोजिंग के वक़्त कहाँ गायब हो गए थे आप ?”
“ जी कहीं नहीं . मैं स्टूडियो में ही था. “
“ तो फिर क्लोजिंग आपने क्यों नहीं की ?”
“ जी सर मैंने ही की थी क्लोजिंग.”
“ ग़लत... मैंने क्लोजिंग सुनी थी. आपकी आवाज़ नहीं थी वो.”
“ सर आप चाहें तो माथुर साहब से पूछ लें, वो ड्यूटी ऑफिसर थे.”
अब वो ठठाकर हँसे और बोले, “अमे यार ड्रामा ही करना है तो बताओ ना हमें, अगली बार ड्रामा करेंगे तो तुम्हें भी रोल देंगे ट्रांसमिशन में ड्रामा क्यों करते हो?
“जी सर थैंक यू..... दरअसल सारे एनाउंसर्स के बोलने की स्टाइल की थोड़ी स्टडी की है मैंने. रात की क्लोजिंग करनी होती है तो थोड़ी प्रैक्टिस कर लेता हूँ क्योंकि उस वक़्त ज़्यादा लोग सुनते नहीं.”
“मैंने तुम्हारे पेपर्स देखे हैं. तुम ड्रामा में काफी बरसों से अप्रूव्ड हो ........ किया करो यहाँ भी ड्रामा. और इस तरह मेरा ड्रामा आकाशवाणी जोधपुर पर शुरू हो गया.
लेकिन एक बार फिर मुझे स्टूडियो के बाहर ड्रामा करना पड़ गया. एक दिन कुछ काम था. मैंने ऑफिस में सी एल की दरख्वास्त भेज दी. मकान मालिक के बेटे के ज़रिये भेजी थे मैंने दरख्वास्त. उसने आकर कहा, “वहाँ एक साहब ने कहा है कि आज छुट्टी नहीं मिल सकती, किसी भी हालत में. आपको बुलाया है ऑफिस में बड़े साहब ने . “
मैं ऑफिस जा पहुंचा. आवाज़ को पूरी तरह से बदलकर मैं बोला, “सर मेरा गला खराब है, मैं कैसे ड्यूटी करूं?”
सब धोखा खा गए. ज्वाला प्रसाद जी बोले, “ अरे अरे..... ये आवाज़ तो रेडियो पर नहीं जा सकती और मुझे नहीं लगता कि एक दिन में तुम्हारी आवाज़ ठीक हो जायेगी. “
“मैंने कहा, “ जी आप मुझे एक हफ्ते की छुट्टी दे दीजिये, मैं कल आपको मेडिकल सर्टिफिकेट ला देता हूँ.”
उनके पास क्या जवाब हो सकता था. मैं उसी दिन हॉस्पिटल गया. भाई साहब के दोस्त डॉक्टर पूनम शर्मा वहाँ पी जी कर रहे थे. फ़ौरन मुझे एक हफ्ते का मेडिकल मिल गया. मैंने पूरे एक हफ्ते भरपूर आराम किया. बस दिक्क़त एक ही थी कि मेरे ऊपर के घर में ज्वाला प्रसाद जी रहते थे और सामने के घर में हमारे डायरेक्टर साहब. यानी घर में भी मुझे पूरे हफ्ते भर आवाज़ बदलकर हे उस फटी हुई आवाज़ में ही बोलना पडता था. जब एक हफ्ता पूरा हुआ तो ड्यूटी ज्वाइन करने गया. ज्वाला प्रसाद जी ने पूछा, “ अब तो आवाज़ ठीक हो गयी ना?”
भला कोई स्विच तो लगा हुआ है नहीएँ गले में कि सात दिन जो आवाज़ खराब थी वो आठवें दिन एकदम से ठीक हो जाती. मैंने आवाज़ को थोड़ा कम बनाकर कहा, “ जी कुछ कुछ ठीक हो गयी है.”
इसपर वो बोले, “अच्छा तुम सी बी एस में ड्यूटी करो कुछ दिन और पीछे बैठकर टेप्स क्यू वगैरह करने का काम करो. माइक पर अभी मत जाना.”
मैंने कहा, “ जी ठीक है.”
मैं लायब्रेरी से किताबें ले आया करता था और दिनभर पढता रहता था. एक हफ्ते और मैंने ड्रामा करते हुए मस्ती मारी.
इसी बीच एक दिन ऑफिस में बड़ा हंगामा मचा हुआ था. स्टूडियो की भी साफ़ सफाई चल रही थी. पूछने पर पता चला कि जयपुर से बवेजा साहब दो दिन बाद आ रहे हैं. मुझे तो क्या करना था, लेकिन पूरा ऑफिस तैयारी में लगा हुआ था.
दो दिन बाद सुना कि बवेजा साहब आ गए हैं और थोड़ी देर में स्टूडियो आयेंगे, जहां उनके लिए एक पार्टी रखी गयी है. मैं ठहरा पूरे प्रोग्राम स्टाफ में सबसे जूनियर. मेरे साथ जिन अनाउंसर साहब की सी बी एस में ड्यूटी थी, वो मुझे ये कहकर चले गए कि बवेजा साहब आये हैं, मैं उनकी पार्टी में जा रहा हूँ तुम ज़रा स्टूडियो संभालना. मैं स्टूडियो में बैठकर काम करने लगा. थोड़ी ही देर में आकाशवाणी जोधपुर के इंजीनियर-इन-चार्ज छाबडा साहब दौड़े हुए आये. स्टूडियो के शीशे में से झांका तो पाया कि मैं बैठा हुआ हूँ स्टूडियो में. उन्होंने धाड़ से दरवाज़ा खोला और बोले, “अरे मिस्टर मोदी आप यहाँ बैठे हैं? उधर बवेजा साहब आपको याद कर रहे हैं.............”
मैंने कहा, “जी....... बवेजा साहब मुझे याद कर रहे हैं?”
“ हाँ मिस्टर मोदी वो आपको बुला रहे हैं चलिए.”
“ लेकिन सर स्टूडियो..........”
“डोंट वरी....... मैं किसी इंजीनियर को बिठा दूंगा, आप तो बस जाइए बाहर.”

स्टूडियो इस तरह छोड़ कर जाने से दिल में धुक धुक हो रही थी मगर इंजीनियरिंग के सबसे बड़े अफसर ने कहा है तो जाना ही पडेगा, ये सोचकर मैं बाहर आ गया. बाहर देखा, बवेजा साहब कई लोगों से घिरे हुए खड़े हैं. उन्होंने जैसे ही मुझे स्टूडियो बिल्डिंग से बाहर निकलते हुए देखा, वो तुरंत मेरी ओर चल पड़े. सब हक्के बक्के....... मैं खुद हक्का बक्का कि ये क्या हो रहा है? मैं पैर जल्दी जल्दी उठा कर उनके पास पहुंचा. वो मानो सारी भीड़ से बेनियाज़ होकर मुझसे मिले. मेरे कंधे पर हाथ रखा और एक तरफ ले गए. सबसे पहला उनका जुमला तो था, “अरे ये मूंछें क्यों साफ़ कर ली? तुम्हारा चेहरा मूंछों के साथ ज़्यादा अच्छा लगता है.”
मेरे पास उनकी बात का कोई जवाब नहीं था. मैं बस जी जी करता रह गया. वो बोले, “खैर अब तुम मेरी बात ध्यान से सुनो.”
“जी सर.”
“ मैंने तुम्हारा सलैक्शन ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए भी किया है.उम्मीद है तुम्हें जल्दी ही ऑफर मिल जाएगा.”
मैं एकदम से चौंका, “जी वो लोग तो महीने भर पहले ज्वाइन भी कर चुके जिनका सलैक्शन हुआ था.”
“हाँ हां..... उनमें से कुछ लोग ज्वाइन कर चुके हैं.”
“तो सर, मुझे अब तक ऑफर क्यों नहीं मिला?”
वो हलके से मुस्कुरा कर बोले, “इसलिए दोस्त कि तुम्हारा नाम उसमे भी वेटिंग लिस्ट में है, लेकिन वहाँ भी तुम वेटिंग में पहले नंबर पर हो. मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हें जल्दी ही ऑफर मिल जाएगा.”
“ओह सर......... फिर वेटिंग.....? क्या ज़िंदगी भर हर जगह मैं वेटिंग में ही रहूँगा?”
“सुनो........इस बात से नाउम्मीद होने की ज़रुरत नहीं है. बाकी डिटेल्स तो मैं तुम्हें नहीं बता सकता लेकिन याद रखो, आज का ज़माना ऐसा ही है कि ज़्यादातर इम्तहानों में असली लिस्ट वेटिंग लिस्ट नंबर वन से ही शुरू होती है.”
“जी सर.”
“ मैं क्या कहना चाहता हूँ, तुम समझ गए होगे,”
“ जी सर.”
“ देखो मुझे पता है तुम माइक्रोफोन के आदमी हो लेकिन माइक्रोफोन के मोह में इस चांस को मत छोड़ देना. तुम्हारी आवाज़ तुम्हारे पास रहेगी. तुम रेडियो में रहोगे तो कहीं भी इसका उपयोग कर सकोगे लेकिन अगर माइक्रोफोन के मोह में ये चांस छोड़ दोगे तो बहोत दुःख उठाओगे, इस ज़िंदगी में. ठीक है? मेरी बात समझ आयी ना? ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव का जैसे ही ऑफर मिले यहाँ से इस्तीफा देकर ज्वाइन कर लेना. उसके बाद जहां तुम कहोगे, मैं तुम्हारा ट्रांसफ़र कर दूंगा.”
मेरे पास सिवा इसके कहने को कुछ भी नहीं था, “यस सर.”
मुझे याद आ गए भट्ट साहब के वो शब्द, “ देखो महेंद्र तुम पूरी ज़िंदगी ये आकाशवाणी बीकानेर है रटते रटते गुजारना चाहते हो या सामने आने वाले चैलेंजेज़ को कुबूल करना चाहते हो ये तुम्हें सोचना है.”
मुझे लगा, अब ज़िंदगी में वास्तव में चैलेंजेज़ को स्वीकार करने का वक़्त आ गया है.






अपनी राय दें