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Monday, July 23, 2012

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- 11 : महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

(मशहूर रेडियो शख्सियत महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला की 11 वीं कड़ी)


बचपन से पिताजी के मुंह से हमेशा एक अंग्रेज़ी कहावत सुना करता था कि अगर आपने पैसा खो दिया तो कुछ भी नहीं खोया, अगर सेहत खो दी तो बहुत कुछ खो दिया और अगर चरित्र खो दिया तो सब कुछ खो दिया. यानि इस दुनिया में सबसे कम महत्त्व पैसे का है. हमेशा कोशिश की कि इस बात पर पूरा भरोसा किया जाए लेकिन ज़िंदगी जो पाठ पढ़ाने की कोशिश पग पग पर करती है, वो इन कहावतों से बहुत अलग होते हैं.......जैसे जैसे बड़ा होता गया, ये बार बार महसूस किया. फिर भी जो संस्कार माता-पिता से मिले वो इतनी गहराई तक उतरे हुए थे कि हर बार ज़िंदगी के हर ऐसे पाठ को नकारने की हिम्मत न जाने कहाँ से आ गयी जिसने ये सिखाने की कोशिश की कि पैसा ही इस दुनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ है और रिश्ते-नाते, प्यार-स्नेह, सब जिस धरातल पर टिके हुए हैं, उस धरातल का नाम है अर्थ. बचपन वैसे तो आराम से गुजरा मगर सीमित साधनों के बीच. पिताजी की कोआपरेटिव डिपार्टमेंट की नौकरी हमें दो वक्त की रोटी और सरकारी स्कूल की पढ़ाई तो दे सकती थी मगर हम न प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के सपने देख सकते थे और न ही महंगे कपड़ों से भरी आलमारियों की कल्पना कर सकते थे.


सन १९६२ में पिताजी का तबादला बीकानेर हो गया था. घर में उस वक्त तक न बिजली थी और न ही पानी का कनेक्शन. मुस्लिम भिश्ती चमड़े की मशक में भरकर पानी लाया करते थे, जिसे उस ज़माने के छुआछूत मानने वाले बड़े से बड़े पण्डित भी पिया करते थे. नहाने धोने का पानी चमड़े की पखाल में भरकर ऊँट पर रखकर लाया जाता था. खाना बनाने के लिए फोग की लकडियां टाल(लकड़ी की दुकान) से खरीदकर लाई जाती थी. सर्दी के मौसम में जब ज़्यादा लकड़ी की ज़रूरत रहती थी हम लोग बाहर खड़े होकर गावों से आने वाले लकड़ी के लादों(ऊँट पर लादे हुए लकड़ी के गट्ठर) का मोल-भाव करते थे और वाजिब लगने पर पूरा लादा खरीद लिया करते थे. घर में गाय थी, उसके गोबर से थापी गयी थेपड़ियां(उपले) भी चूल्हे में लकडियों के साथ साथ जलाने के काम में ली जाती थीं. सर्दी के मौसम में उस चूल्हे और उल्हे (चूल्हे के पीछे की ओर बने मिनी चूल्हे) के पास बैठकर खाई माँ के हाथ की बाजरे की रोटियों और उस पर लगे ताज़े मक्खन का स्वाद आज भी मुंह में मौजूद है. कई बार जब लकडियाँ या थेपड़ियां गीली होती थीं तो पूरा किचन धुंए से भर जाता था.... तब किचन का एक टूल बहुत काम आता था जिसे भूंगळी कहा जाता था. ये पाइप का एक टुकड़ा होता था जिस से फूँक मारकर चूल्हे की आग को चेताया जाता था.


उस ज़माने में बिना भूंगळी के किसी रसोईघर की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. चाहे कितना भी धुंआ हो मैं, भाई साहब और पिताजी सर्दी के मौसम में शाम को तो रसोईघर में चूल्हे के पास ही बैठकर खाना खाया करते थे.... खाना भी होता था और दुनिया जहान की बातें भी. जब-तब पिताजी अपने सरकारी सेवाकाल की कई बातें सुनाया करते थे. वो बताया करते थे कि वो पुलिस विभाग में सब-इन्स्पेक्टर थे मगर उन्होंने अपना तबादला कोआपरेटिव डिपार्टमेंट में करवा लिया क्योंकि पुलिस विभाग के भ्रष्ट वातावरण में उनका दम घुटने लगा. वो अपने ईमान का सौदा किसी भी हालत में नहीं करना चाहते थे और ऊपर के अफसर चाहते थे कि वो स्वयं भी रिश्वत खाएं और उसका एक हिस्सा ऊपर भी पहुंचाएं. आखिरकार उन्होंने पुलिस विभाग ही छोड़ दिया. जब जब वो अपनी ईमानदारी के किस्से सुनाया करते थे, हम दोनों भाइयों के सीने गर्व से चौड़े हो जाते थे और हम घर में जहां तहां मुंह बाए अभावों को हँसते हँसते सहन करने को तैयार हो जाया करते थे.

जीवन चल रहा था, हालांकि हर मौसम की अपनी अपनी तकलीफ थी. गर्मी में, बंद कमरे में,पसीने से लथ-पथ, लालटेन के सामने बैठकर होमवर्क किया करते थे तो कॉपियों पर लिखे गए अक्षर पसीने से फैल जाया करते थे. हाथ का पंखा झलें तो लिखने का काम कैसे करें? ऐसे में हवा का कोई झोंका गाहे ब गाहे आ जाता था तो पसीने से भीगे शरीर को तो एक ठंडा अहसास दे जाता था मगर लालटेन् झब-झब करने लग जाता था. आखिर उसे थोड़ी देर के लिए बुझाना पड़ता था. बारिश में तो हालत और भी खराब हो जाया करती थी क्योंकि सारे मच्छर और पतंगे लालटेन और उसके आस-पास बैठे हम लोगों पर टूट पड़ते थे. ऐसे में अक्सर पिताजी के मुंह से एक कहावत निकला करती थी, सियाळे में सी लागै, उन्हाळै चालै लूआं, चौमासै में माछर खावै, अै दुःख जासी मूआं यानि सर्दी के मौसम में सर्दी लगती है, गर्मी में लू चलती है, बारिश के मौसम में मच्छर काटते हैं..... ये सारे दुःख तो तभी खत्म होंगे जब इस दुनिया से रुखसत होंगे. और हम बड़े संतुष्ट होकर फिर से पढ़ाई में मगन हो जाया करते थे.

जब किसी समस्या का कोई हल है ही नहीं तो उसके बारे में सोचना क्या ? इन तकलीफों ने उन संस्कारों को कुछ और पुख्ता कर दिया जिनके बीज माँ और पिताजी ने बचपन से हमारे भीतर रोपे थे. सच्चाई, ईमानदारी, समय की पाबंदी, अनुशासन उन्होंने हमें भाषण देकर सिखाने की कोशिश नहीं की बल्कि स्वयं इनका पालन कर हमारे सामने ऐसे उदाहरण रखे कि ये सारे मूल्य खुदबखुद हमारे जीवन का ज़रूरी हिस्सा बन गए. यदा कदा छोटे-मोटे अभावों के बीच जीते जीते पता नहीं कैसे एक मंहगा शौक़ हम लोगों ने पाल लिया. पिताजी एक दिन एक जर्मन शेफर्ड पिल्ला लेकर आये तो हम सब लोग बहुत खुश हो गए. हमें खेलने को एक दोस्त भी मिल गया और शायद कहीं न कहीं हमारे अहम को भी एक तुष्टि मिली कि हम भी महंगे शौक़ पाल सकते हैं. पिल्ले का नाम रखा गया “जैकी”. हम जिधर जाते.... पीछे पीछे जैकी भी उधर ही जाता, हमारे साथ भागता दौडता, खूब खेलता.हमें खूब मज़ा आता. बस दिक्क़त एक ही थी. उसे ये सिखाना बड़ा मुश्किल काम था कि जब उसे सू-सू, पॉटी करना है तो घर के पिछवाड़े जाकर करना है जहां गाय बांधी जाती थी. कुछ दिन हमें थोड़ी तकलीफ हुई मगर धीरे धीरे वो पिताजी के कठोर अनुशासन में ढल गया. कुछ ही महीनों में उसका कद कुछ इस तरह निकल कर आया कि लोग अब हमारे घर आने से डरने लगे. जितनी तेज़ी से उसका शरीर बढ़ रहा था उतनी ही तेज़ी से उसकी खुराक भी बढ़ती जा रही थी.


एक वक्त आ गया जब हम घर के सब लोग मिलकर जितनी रोटियां खाते थी उतनी रोटियां अकेला जैकी खा लेता था. ये वो वक्त था जब गेहूं एक रुपये का एक सेर (किलो से थोडा कम)-सवा सेर आया करता था. अचानक बाज़ार से गेहूं जैसे बिल्कुल लापता हो गया. किसी किसी दुकान में अगर थोड़ा बहुत गेहूं नज़र आता तो भाव होता ढाई रुपये सेर...... कौन खरीदेगा ढाई रुपये सेर गेहूं? हर ओर त्राहि त्राहि मच गयी. बड़े बुज़ुर्ग छप्पने अकाल (विक्रम संवत ५६ में पड़े भयंकर दुर्भिक्ष) को याद कर कांप गए. तभी सुना कि भारत और अमेरिका में एक संधि हुई है पी एल ४८०. इस संधि के तहत अमेरिका भारत को वो गेहूं देगा जो बेकार हो चुका है. अमेरिका उस गेहूं को समंदर में फेंकने की बजाय भारत को देगा और भारत में उस गेहूं को राशन की दुकानों के ज़रिये जनता को बेचा जायेगा. राशन की दुकान से एक रुपये का डेढ़ सेर भाव का ये गेहूं सबसे पहले मैं लेकर आया तो घर के सब लोगों ने कहा ये तो लाल रंग का है, इसकी रोटी कैसी बनेगी? साफ़ करके पिसवाया गया. जब मेरी माँ ने रोटी बनाने के लिए आटा लगाया तो बोलीं “इसमें तो न जाने कैसी बदबू आ रही है”. पिताजी बोले “तुम्हें वहम हो गया है, मुझे तो नहीं आ रही बदबू”. हम लोग खाने बैठे तो कौर गले से नीचे उतारना मुश्किल हो गया. पिताजी, भाई साहब और मैं जैसे तैसे आधा अधूरा खाना खाकर उठ गए. माँ ने कहा “अरे ! इस तरह कैसे चलेगा? आप लोगों ने तो पेट भर खाना भी नहीं खाया.” पिताजी बोले “इस गेहूं का स्वाद कुछ अलग है, चिंता मत करो, थोड़े दिनों में इसकी आदत पड़ जायेगी.” भाई साहब ने भी पिताजी की हाँ में हाँ मिलाई और मैंने भी मगर मन ही मन हम सब सोच रहे थे कि ये रोटियां हम लोग कैसे खा पायेंगे? कैसे आदत पड़ेगी इन लाल लाल रोटियों की? खाना बनाने के बाद माँ खाने बैठीं, उस से पहले उन्होंने जैकी के बर्तन में थोड़े दूध में चूर कर वही लाल लाल रोटियां डालीं. जैकी को भी भूख लग गयी थी शायद. वो तेज़ी से आगे बढ़ा. बर्तन के पास पहुंचा उसे सूंघा और पीछे हट गया. माँ ने हम सबको पुकारा “अरे इधर आओ तो सब लोग” हम लोग वहाँ पहुंचे तो देखा जैकी के बर्तन में दूध रोटी रखी हुई है और वो कभी अपने बर्तन की ओर देख रहा है और कभी हमारे मुंह की तरफ. पिताजी बोले “भूख नहीं लगी होगी इसे, भूख लगेगी तो अपने आप खा लेगा.”


मैं और भाई साहब पढ़ाई में लग गए मगर दोनों थोड़ी थोड़ी देर में उठ उठ कर किसी न किसी बहाने अंदर जाते और देखते कि जैकी ने रोटी खाई या नहीं? नहीं...... अभी भी नहीं खाई..........अभी भी नहीं खाई........... रात को सोने से पहले मैं फिर से जैकी के पास गया, उसने गर्दन उठाई, एक बार अपने बर्तन में पड़ी उन लाल लाल रोटियों को देखा और फिर न जाने कैसी नज़रों से मेरी ओर देखा...... फिर गर्दन नीचे ज़मीन पर टिकाकर बैठ गया. दूसरे दिन सुबह उठते ही हम सबने देखा कि जैकी अभी भी अपने खाने के कटोरे के पास बैठा है, मगर रोटियों के उसने मुंह तक नहीं लगाया है........ अब हम सबको चिंता होने लगी कि जैकी को क्या खिलाया जाए? पिताजी ने कहा “इसका बर्तन साफ़ करके कुछ ज़्यादा दूध डालकर ताज़ा रोटियां डालो उसमें”. माँ ने थोड़ा चने का बेसन मिलाकर उस लाल आटे की रोटियां बनाईं. हम सबने जैसे तैसे वो खा लीं, करते भी क्या? हर घर की यही कहानी थी. सभी लोग उसी पी एल ४८० गेहूं की रोटियां खा रहे थे. हर रोज़ हर तरफ इन्हीं रोटियों की चर्चा थी. कोई कहता उसे ये लाल गेहूं की रोटियां खाकर उल्टियां होती हैं, कोई कहता इन रोटियों की वजह से उसके शरीर पर चकत्ते होने लगे हैं और कोई कहता लाल गेहूं के कारण उसकी  भूख आधी रह गयी है.......यानि सब इनसे परेशान थे मगर हमारी परेशानी बाकी लोगों से कहीं ज्यादा थी. हम लोग तो जैसे तैसे अक्सर छाछ के साथ इन लाल रोटियों को निगल लेते थे मगर जैकी ने तो जैसे क़सम खा ली थी इन रोटियों के मुंह न लगाने की.


घर में एक गाय थी, उस गाय का सबके हिस्से का दूध जैकी को पिलाया जा रहा था.... फिर भी हमें महसूस होता था कि जैकी का पेट हम नहीं भर पा रहे हैं. ज्वार, बाजरा, चना, जौ सभी प्रकार के अनाज धीरे धीरे बाज़ार से गायब हो गए थे......हमें लगा, शायद जैकी को हम नहीं बचा पायेंगे. लोगों के सामने अपनी ये समस्या रखते तो कोई भी उसे उतनी गंभीरता से नहीं लेता जितनी गंभीर ये समस्या हमें लग रही थी. जिसके भी सामने बात होती, वो यही कहता “हुंह, अच्छे अच्छे पैसेवालों के नाज़ुक नाज़ुक बच्चे इसी लाल गेहूं के आटे की बनी रोटियां खा रहे हैं, आपका कुत्ता ऐसा क्या लाट साहब है कि इसे फार्मी गेहूं की रोटियां चाहिए?” हमारे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था मगर हम लोग महसूस कर रहे थे कि जैकी बहुत तेज़ी से कमज़ोर होता जा रहा है. आखिर हम सबने बैठकर तय किया कि हम सब अपने खर्चों में थोड़ी थोड़ी कटौती करेंगे और उस बचत किये हुए पैसे से ढाई रुपये सेर का महँगा गेहूं खरीदा जाएगा, उसे घर में ही पीसा जाएगा(क्योंकि चक्की पर पिसवाने देने पर उसमें मिलावट हो जाने का डर था) और उस आटे की रोटियां जैकी को खिलाई जायेंगी........


उन दिनों हम दोनों भाइयों को महीने में दो फ़िल्में देखने की इजाज़त थी. हमने तय किया कि हम तीन महीने में एक फिल्म ही देखेंगे क्योंकि इसके अलावा हमारे ऐसे कोई खर्चे थे ही नहीं जिनमें कटौती की जा सके. शुरू से ही घर की व्यवस्था इस प्रकार की थी कि हमें ज़रूरत की हर चीज़ मुहैया करवाई जाती थी और ज़रूरत होने पर नकद पैसे भी दिए जाते थे मगर आम तौर पर दूसरे बच्चों की तरह जेबखर्च के नाम पर कोई निश्चित रकम हर महीने नहीं दी जाती थी.......... जैकी की सेहत फार्मी गेहूं की रोटियां खाकर लौटने लगी थी मगर तब तक के जीवन में शायद पहली बार मुझे लगा, सच्चाई, ईमानदारी, अनुशासन सब कुछ एक अच्छे चरित्र का ज़रूरी हिस्सा हैं मगर पैसा भी इस दुनिया में बिल्कुल महत्वहीन नहीं है......ज़िंदगी ने छोटी सी अवस्था में एक नया पाठ पढ़ाने की कोशिश की थी मगर मेरा भाग्य बहुत अच्छा था कि इसी बीच एक ऐसी घटना मेरे जीवन में घटी, जिसने सिद्ध कर दिया कि नहीं, ज़िंदगी जो पाठ सिखाने की कोशिश कर रही है वो सही नहीं है. पिताजी की बार बार सुनाई हुई उस अंग्रेज़ी कहावत पर विश्वास और पक्का हो गया कि अगर आपने पैसा खो दिया तो कुछ भी नहीं खोया, अगर सेहत खो दी तो बहुत कुछ खो दिया और अगर चरित्र खो दिया तो सब कुछ खो दिया. 

स्कूल में अक्सर हम लोग देखते थे कि लड़के स्कूल से भागकर फिल्म देखने जाया करते थे लेकिन फिल्म देखने के लिए हम दोनों भाइयों को कभी घरवालों से छुपकर नहीं जाना पड़ता था क्योंकि पिताजी के सिद्धांत बहुत साफ़ और पारदर्शी थे. शुरू शुरू में जब हम लोग बहुत छोटे थे तो वो किसी अच्छी फिल्म के लगने पर खुद हमें फिल्म दिखाने ले जाया करते थे, फिर थोड़े बड़े हुए तो पहले पिताजी फिल्म देखकर आया करते थे और फिल्म अच्छी होने पर हम दोनों भाइयों को कहा करते थे कि जाओ फलां फिल्म देख आओ, अच्छी है, जब कुछ और बड़े हुए तो अपने अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने की भी छूट थी हमें. बस उनका कहना था, स्कूल के समय में सिनेमा मत देखो, जब भी सिनेमा देखना हो, इजाज़त की ज़रूरत नहीं है, बस उसकी सूचना घर में होनी चाहिए और कोशिश करो कि जिन दोस्तों के साथ जा रहे हो, वो भी अपने घर में इसकी सूचना दे दें ताकि उनकी वजह से तुम्हें कोई शर्मिंदगी न उठानी पड़े. उन दिनों जैकी के लिए फार्मी गेहूं की रोटियां जुटाने के लिए हम लोग फिल्म के उपवास पर चल रहे थे. यानि तीन महीनों में सिर्फ एक फिल्म. बड़ी कड़की का दौर था.


इसी बीच मेरे तीन घनिष्ठतम मित्रों ने मेरे सामने फिल्म देखने का प्रस्ताव रखा. ये तीनों ही मित्र बहुत धनाढ्य पिताओं के सुपुत्र थे. निर्मल धारीवाल के पिताजी का के ई एम् रोड़ पर बहुत बड़ा शो रूम था, हरि प्रसाद मोहता के पिताजी का कानपुर में लंबा चौड़ा व्यापार था और मैं पाठकों से क्षमा चाहूँगा कि अपने तीसरे मित्र का नाम नहीं लिख पाऊंगा क्योंकि उनके पिताश्री दिवंगत हो चुके हैं और मेरे वो मित्र आज भी मेरे संपर्क में है और बचपन की उस मित्रता को वही नहीं उनका पूरा परिवार पूरी ईमानदारी से निभा रहा है. आज अगर मैं उनका नाम लिखता हूँ तो शायद कहीं उनकी भावनाओं को चोट पहुंचे, जो मैं कतई नहीं चाहूंगा. बस इतना ही कहूँगा कि मेरे तीसरे मित्र के पिताश्री बीकानेर के माने हुए एडवोकेट थे. इन तीनों मित्रों के सामने धन कोई समस्या नहीं था. सौभाग्य से मुझे भी पिछली फिल्म देखे तीन महीने हो रहे थे...... इसलिए फिल्म देखने पर मेरे व्रत के टूटने का भी कोई डर नहीं था. हरि ने अपने भाई के साथ घर सूचना भेज दी कि वो फिल्म देखने जा रहा है, थोड़ा देर से घर लौटेगा, निर्मल महाराज को इसकी भी ज़रूरत महसूस नहीं हुई, उसने कहा “घर जाकर बता दूंगा”. मेरा घर स्कूल से ज़्यादा दूर नहीं था मगर सूचना तो देनी ही थी. निर्मल और हरि ने मुझे कहा “तुम फटाफट सूचना करके प्रकाश चित्र थियेटर पहुँचो हम तब तक टिकट खरीदकर रखते हैं. अब समस्या थी एडवोकेट साहब के सुपुत्र की. उन्होंने कहा “मैं अगर पिताजी के पास जाकर पूछता हूँ तो मुझे इजाज़त तो नहीं ही मिलेगी, उलटे डॉट पड़ जायेगी ....... हाँ तुम सब लोग मेरे साथ मेरे घर चलो तो शायद मेरे पिताजी कुछ न कहें और इजाज़त दे दें.” मैंने कहा “ठीक है, मैं घर सूचना देकर आप लोगों से प्रकाश चित्र में मिलता हूँ फिर हम सब इनके घर चलेंगे”. मैंने अपनी साइकिल उठाई और घर जा पहुंचा. पिताजी घर पर नहीं थे मगर मुझे इस बात की कोई फ़िक्र नहीं थी, क्योंकि मुझे इजाज़त तो लेनी नहीं थी सिर्फ सूचना भर देनी थी. मैंने माँ को बताया कि मैं फिल्म देखने जा रहा हूँ और मुझे लौटने में थोड़ी देर होगी. बस मैंने अपनी साइकिल उठाई और चल पड़ा प्रकाश चित्र की ओर. उन दिनों बीकानेर में न तो वन वे का चक्कर था, न इतने मोटर साइकिल, स्कूटर तो शायद पैदा भी नहीं हुआ था और कारें सिर्फ महाराजा करनी सिंह जी के पास और दो चार शहर के वणिक-पुत्रों के पास थीं. लगभग २० मिनट में मैं घर सूचना देकर आराम से प्रकाशचित्र पहुँच गया. देखा, निर्मल के हाथ में सिनेमा के चार टिकट मौजूद थे. आज की पीढ़ी के बच्चे, जिनके सामने टी वी पर देश-विदेश के २५-५० चैनल चौबीसों घंटे एक के बाद एक हर भाषा की फ़िल्में परोसते रहते है, इसके अलावा सी डी, डी वी डी, ब्ल्यू रे, पैन ड्राइव, पोर्टेबल हार्ड ड्राइव न जाने कितने साधन मौजूद हैं,जिनमें सहेजकर अपनी पसंद की फ़िल्में वो जब चाहें देख सकते हैं, वो नहीं समझ सकते कि हमारे लिए उस ज़माने में फिल्म देखना किसी बहुत बड़े अभियान से कम नहीं होता था.


विविध भारती पर जब किसी फिल्म के संवादों को काट-छांट कर सप्ताह में एक दिन चित्रध्वनि नामक प्रोग्राम में प्रसारित किया जाता था तो हर शहर, हर गाँव में पान की दुकानों पर वो संवाद सुनने के लिए मेला लग जाया करता था. निर्मल के हाथ में फिल्म के टिकट देखकर विश्वास हो गया था कि अब तो फिल्म देखनी ही है, अब हमें फिल्म देखने से कौन रोक सकता है? मैंने साइकिल खडी की और निर्मल के पास पहुंचा कि मेरे तीसरे मित्र बोले “भायला (दोस्त) भूल गए क्या?अभी तो मेरे पिताजी से परमीशन लेनी है......”. निर्मल ने टिकट जेब में रखे और बोला “चलो इसके घर चलते हैं.” हम चारों ने अपनी अपनी साइकिल उठाई और चल पड़े लक्ष्मी नाथ जी की घाटी की ओर. १० मिनट में हम घर पहुँच गए. पूछा, पिताजी घर पर हैं क्या? माताजी ने कहा “हाँ हैं, बैठो तुम लोग, अभी आते हैं.” हम बेचैनी से कमरे में इधर से उधर चक्कर लगाने लगे, लगा देर हो रही है, फिल्म्स डिविज़न की न्यूज़ रील तो निकल ही गयी होगी कहीं फिल्म का शुरू का हिस्सा भी न निकल जाए. उस समय रेडियो पर न्यूज़ सुनने को तो आसानी से मिल जाती थी मगर न्यूज़ देखने को तभी मिलती थी जब फिल्म देखने जाया करते थे. थोड़ी ही देर में मेरे मित्र के पिताजी कमरे में आये हम चारों के चेहरों पर एक नज़र डाली और बोले “क्या बात है? आज तुम लोग इकट्ठे होकर कैसे आये हो?” उनके सुपुत्र ने पहले ही कह दिया था कि वो कुछ भी नहीं बोलेंगे, जो कुछ कहना है, हम लोगों को कहना है. मुझे बड़ा अजीब लग रहा था.... जिस खुले वातावरण में मैं पला था, उसमें इस तरह किसी को भी कठघरे में खड़ा नहीं किया जाता. मैं चुपचाप खड़ा रहा क्योंकि अपने मित्र के पिताजी के सामने अपराधी की तरह खड़े रहना मुझे बहुत अपमानजनक लग रहा था. निर्मल ने हिम्मत की और बोला “ जी अंकल हम चारों फिल्म देखने जाना चाहते हैं.” वो बोले “अच्छा? तुम तो धारीवाल जी के बेटे हो न?”

      “जी अंकल”

      “अपने घर पूछकर आये हो? फोन करूँ धारीवाल जी को?”

      “अंकल मैं बाद में बता दूंगा पिताजी को”.

      “अच्छा... मतलब पूछकर नहीं आये हो!”

      इसके बाद वो मेरी तरफ मुड़े “हूँ.... तुम भी बिना पूछे ही आये होगे क्योंकि तुम्हारे पिताजी तो अभी दफ्तर से आये नहीं होंगे”

      मैं अब तक के वार्तालाप से बहुत उद्विग्न हो गया था. किसी तरह अपनी उद्विग्नता पर नियंत्रण करते हुए मैंने कहा “जी अंकल मेरे घर में फिल्म देखने के लिए इजाज़त नहीं लेनी पड़ती, सिर्फ इसकी सूचना देनी पड़ती है, जो मैं घर जाकर अपनी माँ को दे आया हूँ.”

      वो बोले “अच्छा?तुम्हारे पिताजी से तो मैं बाद में बात करूँगा क्योंकि तुम्हारे घर तो फोन भी नहीं है. खैर, अभी ये बताओ कि टिकट ले आये हो?”

      हमें लगा अभी वो कहेंगे अब जब टिकट ले ही आये हो तो जाओ, देख आओ.

      निर्मल ने झट से कहा “जी अंकल”

      “कहाँ है टिकट?”

      निर्मल ने जेब से टिकट निकालकर डरते डरते उनके सामने कर दिए. उन्होंने बहुत शान्ति से निर्मल की हथेली पर से टिकट उठाये, दोनों हाथों से उन चारों टिकटों के टुकड़े टुकड़े किये, उन टुकड़ों को खिड़की से बाहर फेंका और बोले “जाओ... काम करो अपना अपना, कोई फिल्म नहीं देखनी है.”

      हम चारों के चारों सन्न रह गए.......मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि वास्तव में उन्होंने टिकट फाड़ दिए हैं, मुझे लगा उन्होंने कागज़ का कोई और टुकड़ा फाड़ा है. अभी वो टिकट हमें लौटायेंगे और हंसकर कहेंगे......” अरे मैं तो मज़ाक कर रहा था, ये लो टिकट और जाओ.... आराम से फिल्म देखकर आओ.....” मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ.....तभी उनकी कडकती हुई आवाज़ फिर से फिजा में गूँज गयी..... “पढ़ते लिखते तो कुछ हैं नहीं और इन्हें फ़िल्में देखने को चाहिए..... सुनाई नहीं दिया तुम लोगों को? जाओ अपना अपना काम करो और भूल जाओ फिल्म देखना....और हाँ....तुम अंदर चलो” उनके आज्ञाकारी पुत्र चुपचाप नज़रें नीची किये हुए अंदर चले गए.हम तीनों मरे हुई कदमों से उनके घर से बाहर आए. मुझे इतनी शर्मिंदगी हो रही थी कि लग रहा था ये ज़मीन फट जाए तो मैं इसमें समा जाऊं......क्योंकि इस तरह की परिस्थिति से अपने तब तक के जीवन में पहली बार मेरा आमना सामना हुआ था..... मगर न ज़मीन को फटना था और न वो फटी.  मैं निर्मल और हरि किसी तरह अपनी अपनी साइकिल तक पहुंचे और चुपचाप वहाँ से चल पड़े. इतना बड़ा झटका हम तीनों के दिमाग को लगा था कि समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहकर एक दूसरे को दिलासा दें? कोटगेट से हम तीनों के रास्ते अलग हो गए. हम तीनों ने खामोशी से एक दूसरे की तरफ देखा और अपने अपने रास्ते पर चल पड़े. रास्ते में मैं सोचने लगा “अंकल के लिए सिनेमा के वो चार टिकट महज़ कागज़ के टुकड़े थे जिन्हें कुछ रुपये फेंककर खरीदा जा सकता है जिनकी उनके पास कोई कमी नहीं है. उन्हें क्या पता कि मेरे लिए वो टिकट रुपयों के पर्याय नहीं थे...... मेरे लिए वो टिकट मेरे तीन महीने इंतज़ार का मीठा सा फल थे...........”. साइकिल पर चलते चलते मैंने अपने आप से कहा “मैं ऐसा क्यों सोच रहा हूँ? अगर मैं अपने प्यारे जैकी के लिए महीने में दो बार की बजाय तीन महीने में एक फिल्म देखने का निर्णय कर सकता हूँ तो मैं छः महीने फिल्म नहीं देखूंगा तो क्या बिगड जाएगा? कुछ भी नहीं..... पिताजी कहते हैं, उपवास करने से चरित्र में दृढता आती है.....मेरे इस उपवास से भी निश्चित रूप से मेरा चरित्र दृढ होगा. और अंकल ने कुछ पैसों का टिकट ही तो फाड़ा है न? कुछ पैसों के जाने का क्या अफ़सोस करना?” और मैंने मन ही मन एक बार फिर दोहरा दिया “अगर आपने पैसा खो दिया तो कुछ भी नहीं खोया, अगर सेहत खो दी तो बहुत कुछ खो दिया और अगर चरित्र खो दिया तो सब कुछ खो दिया.”

     मेरे मन को शान्ति मिल गयी थी...... मैं बहुत खुश खुश घर में घुसा तो माँ ने पूछा “अरे तुम इतनी जल्दी कैसे लौट आये? तुम तो फिल्म देखने जाने वाले थे न?” मैंने हँसते हुए जवाब दिया “आज की फिल्म बहुत छोटी थी मगर बहुत अच्छी और शिक्षाप्रद थी.”

      मेरी सीधी सादी भोली भाली माँ को कुछ समझ नहीं आया मगर उन्हें शायद इस बात से कोई मतलब भी नहीं था कि मैंने कौन सी फिल्म देखी है और कौन सी नहीं...... उन्हें तो मुझे खुश देखने से मतलब था.....मैं खुश खुश सीढियां चढ़कर अपने माळिये की तरफ जा रहा था और उनके संतुष्ट होने के लिए इतना काफी था.

Friday, June 22, 2012

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- 10 : महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

मशहूर रेडियो शख्सियत महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला की दसवीं कड़ी।



संगीत की दुनिया से बेइज्ज़त होकर निकल पड़ा था अपने जीवन का कोई और मकसद ढूँढने के लिए मैं. सिविल इंजीनियरिंग करके ईंट पत्थरों में अपने कलाकार को मैं कतई दफ़न नहीं करना चाहता था. अब सवाल ये था कि मैं आखिर करूँ क्या? सबने सलाह दी कि मैं कॉलेज में जीव विज्ञान लेकर डॉक्टर बनने की कोशिश करूँ. भाई साहब डॉक्टर बन ही रहे थे, उनकी सारी किताबें कॉपियां काम आ जायेंगी तो खर्च भी कम लगेगा. इधर पिताजी रिटायर होने वाले थे इसलिए ये भी एक बहुत ही अहम प्रश्न था. मैंने जीव विज्ञान की पढाई शुरू कर दी और साथ ही ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू कर दिया. हालांकि मित्तल साहब की भाषा में कोतल घोड़ा रहा मगर फिर भी हकीकत ये थी कि गणित या किसी और विषय में मैं बहुत बुरा नहीं था. मैंने १०वीं क्लास के कुछ छात्रों को गणित, अंग्रेज़ी और साइंस पढ़ाना शुरू कर दिया.

मेरे तीन छात्र ऐसे थे जिन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता और खास तौर पर एक छात्र सत्य प्रकाश तो ऐसा था कि मैंने उसपर कई झलकियां भी लिखीं जो आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से प्रसारित हुईं. एक शाम ताऊ जी ने मुझे बुलाया. मैं उनके पास पहुंचा तो देखा एक बुज़ुर्ग वहाँ बैठे हुए थे. मैंने उनपर नज़र दौड़ाई तो देखा,बिना ब्लीच किये लट्ठे का कुर्ता, धोती, बंद गले का कोट और सर पर थोड़ी मैली सी टोपी. पहली ही नज़र में लगा वो किसी प्राइमरी स्कूल के अध्यापक होंगे. मैंने हाथ जोड़कर नमस्कार किया. उन्होंने खड़े होकर मेरे नमस्कार का जवाब दिया. ताऊ जी ने परिचय करवाया “महेन्द्र, ये पारीक जी हैं, पाबू पाठशाला के हैडमास्टर. इनका बेटा १०वीं में है. ये चाहते हैं कि तुम इनके बेटे को पढ़ा दो.” मैंने पूछा “किस किस विषय में उसे मेरी मदद की ज़रूरत है?” इस बार पारीक जी ने मुंह खोला “दरअसल वो एक बार दसवीं में फ़ेल हो चुका है, ये उसका दसवीं में दूसरा साल है.” मैंने कहा “ओह, किस किस विषय में फ़ेल हुआ है?” वो थोड़े संकोच के साथ बोले... “जी ....सारे विषयों में.” मैं उम्मीद कर रहा था कि वो साइंस, अंग्रेज़ी या गणित या इन तीनों विषयों का नाम लेंगे मगर वो तो कह रहे थे कि वो सभी विषयों में फ़ेल हुआ है. मैं लगभग चिल्ला पड़ा. “क्या? सारे विषयों में फ़ेल हुआ है और आप चाहते हैं कि मैं उसे पढाऊँ? क्या क्या पढाऊंगा मैं उसे? आप तो स्वयं अध्यापक हैं, आप ही क्यों नहीं पढ़ाते उसे?” वो रुआंसे से होकर बोले “हम मास्टरों की यही प्रॉब्लम है, हम दुनिया भर के बच्चों को पढ़ाते हैं मगर खुद अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाते. सुना है आप बहुत अच्छा पढ़ाते हैं अगर मेरा बेटा दसवीं पास कर ले तो एस टी सी करवाकर कहीं मास्टर लगवा दूंगा.” पारीक जी अपनी कल्पना की आँखों से अपने बेटे को अध्यापक बना हुआ देख रहे थे....... उन्हें क्या पता था कि उनके सुपुत्र सत्य प्रकाश के ललाट पर विधाता ने क्या लिखा है? और सच पूछिए तो मुझे ही कहाँ पता था कि जिस सत्य प्रकाश को पढ़ाने में मैं इतना हिचकिचा रहा हूँ वो आगे जाकर किस रूप में मेरे सामने आकर खड़ा होने वाला है? खैर , मैंने पारीक जी से कहा “आप कल सुबह सत्य प्रकाश को मेरे पास लेकर आइये और साथ में उसकी दसवीं की मार्कशीट भी.” पारीक जी गदगद होकर बोले “मेरा लड़का पढ़ने में कमज़ोर ज़रूर है मगर शरारती नहीं है, बहुत सीधा है. आपसे निवेदन है..... आप उसे पढ़ाने से इनकार मत करना, आपने पढ़ा दिया तो मुझे पता है, उसकी ज़िंदगी बन जायेगी और ये बाप आपको जीवन भर दुआएं देगा.”

दूसरे दिन सुबह पारीक जी अपने बेटे को लेकर मेरे घर आये. सत्य प्रकाश ने आज्ञाकारी शिष्य की तरह मेरे पाँव छुए. मैंने उससे कहा “अपनी मार्कशीट दिखाओ”. उसने शरमाते शरमाते मार्कशीट मेरे सामने रख दी. मार्कशीट देखकर मेरा सर चकरा गया. किसी भी विषय में पास होने के आसपास मार्क्स होना तो बहुत दूर की बात थी, किसी भी विषय में दो अंको में भी मार्क्स नहीं थी. किसी विषय में दो किसी में चार किसी में पांच, बस इसी तरह के मार्क्स थे सत्य प्रकाश जी के. मैंने पारीक जी को कमरे से बाहर लाकर फिर से एक बार उनके सामने अपनी प्रार्थना रखी “मास्टर जी... प्लीज़ मुझे माफ कर दीजिए, मैं आपके बेटे को नहीं पढ़ा पाऊंगा.” मगर पारीक जी तय ही करके आये थे कि उस बालक को मेरे गले डाल कर ही जायेंगे और मैं मना करता रह गया और वो सत्य प्रकाश को वहीं छोड़कर चले गए.

और दूसरे दिन से सत्य प्रकाश मुझसे पढ़ने आने लगा. कहने को मैं सत्य प्रकाश को पढाता था मगर हकीकत ये है कि मुझे ही उस से हर रोज नई नई ज्ञान की बातें सीखने को मिलती थी जैसे दुनिया गोल है ये एक अंधविश्वास है. एक दिन मैं उन्हें हिन्दी पढ़ा रहा था. अंधविश्वास की बात चल रही थी , उसने अंधविश्वास की परिभाषा बताई कि जिसपर अंधा भी विश्वास कर सके, उसे अंधविश्वास कहते हैं. मैंने कहा शाबाश, ज़रा उदाहरण दो, तो वो बोला... ये एक अंधविश्वास है कि दुनिया गोल है.......२० वीं सदी  में एक छात्र कह रहा था कि दुनिया का गोल होना एक अंधविश्वास है.

मैं रोज ही सत्य प्रकाश से कुछ न कुछ नया सीखता था.इसीलिये मैंने उसे शिष्य की बजाय अपना गुरु मान लिया था..... मैं सत्य प्रकाश को मास्टर जी पुकारने लगा था.

सत्य प्रकाश की एक बहुत बड़ी खासियत थी. उसे जब भी कुछ समझाया जाता, वो अपनी गर्दन हाँ में हिला देता था और उस से अगर पूछा जाता कि समझ में आया? तो उसका जवाब हमेशा हाँ में ही हुआ करता था, चाहे वो गणित का मुश्किल से मुश्किल सवाल हो, अंग्रेज़ी का जटिल से जटिल वाक्य हो या फिर साइंस का कोई लंबा चौड़ा फार्मूला. शुरू शुरू में जब वो हर बार मेरे ये पूछने पर कि क्या समझ में आ गया, वो जवाब देता था “हाँ”, तो मुझे लगता था दिमाग़ तो ठीक ही लगता है लड़के का, फिर इतने खराब नम्बर क्यों आये इसके? मगर एक दो दिन बाद मैंने जो कुछ पढ़ाया था उसमें से कुछ पूछा तो चुप. मैंने कहा सत्य प्रकाश ये कल ही तो तुम्हें पढ़ाया है और तुमने कहा था तुम्हें समझ में आ गया. चुपचाप उसने गर्दन नीची कर ली. मैंने धीरज का दामन नहीं छोड़ा और प्यार से कहा “देखो सत्य प्रकाश, अगर तुम्हें कुछ समझ न आये तो उसी वक्त पूछ लो, मैं तुम्हें दो बार, तीन बार, चार बार जितनी बार कहोगे समझाऊँगा. इसमें मुझे कोई दिक्क़त नहीं है, लेकिन जब मैं तुमसे वापस कुछ पूछूं तो तुम्हें चुप नहीं रहना है. तुम्हें जो कुछ पूछा जाए, उसका जवाब तो तुम्हें देना ही पड़ेगा......चाहे सही दो चाहे गलत. गलत होगा तो मैं ठीक करवा दूंगा लेकिन अगर इस तरह तुम चुप रहोगे तो मुझे गुस्सा आ जाएगा.....और मेरा हाथ उठ जाएगा.” सत्य प्रकाश ने शर्माते हुए हाँ में गर्दन हिलाई तो मुझे लगा, ये समस्या हल हो गयी. मैं नहीं जानता था कि ऐसा कहकर मैंने अपने लिए ज्ञान के नए द्वार खोल लिए हैं. इसके बाद जो जो नया ज्ञान मुझे मिलेगा वो अद्भुत होगा. १९९३-९४ में जब मैं उदयपुर में था तो हमारे केंद्र निदेशक थे स्वर्गीय श्री रतन सिंह हरयानवी. बहुत मिलनसार, सज्जन और बुद्धिमान अफसर थे वो. उन दिनों मेरे साथ मेरा पुराना मित्र कुलविंदर सिंह कंग भी मेरे कहने पर उदयपुर ट्रांसफर करवाकर आ गया था, हालांकि उदयपुर में उसका और उसके परिवार का मन नहीं लगा और थोड़े ही दिनों बाद वो वहाँ से ट्रांसफर करवा कर दिल्ली चला गया.

हरयाणवी साहब मेरे रेडियो नाटक के प्रति लगाव से तो वाकिफ थे ही, मैंने उन्हें बताया कि कुलविंदर की हास्य लेखन पर बहुत अच्छी पकड़ है. इस पर वो बोले एक हास्य व्यंग्य का कार्यक्रम शुरू करते हैं जिसे आप दोनों मिलकर लिखो और प्रोड्यूस करो. हमने कहा “जी”. नाम तय किया गया “डंके की चोट पर”. आलेख तैयार करने की जिम्मेदारी कुलविंदर निभाता था और मैं श्रीमती इंदु सोमानी के साथ मुख्य पात्र के रूप में अभिनय भी करता था और इसे प्रोड्यूस भी करता था. इसके अलावा कभी कभी स्टाफ से इतर कलाकारों को भी कुछ विशेष रोल्स के लिए अनुबंधित किया जता था. कभी कभी जब कुलविंदर छुट्टी पर होता तो पर “डंके की चोट पर” लिखने की जिम्मेदारी भी मेरे ही सर आ जाती थी. ऐसे में मेरे काम आता था मेरे छात्र उर्फ मास्टर जी श्री सत्य प्रकाश जी द्वारा दिया गया अमूल्य ज्ञान और मैं उनका पुण्य स्मरण कर डंके की चोट के एकाध एपिसोड लिख डालता था. मैंने इसके लिए एक स्टॉक कैरेक्टर गढ़ा “मेनका”. मेनका का चरित्र बड़ी खूबसूरती से निभाती थीं, दीपशिखा दुर्गापाल, जो इस समय आकाशवाणी, अहमदाबाद में पोस्टेड हैं. हालांकि दीपशिखा अच्छी भली बुद्धिमान लड़की हैं मगर डंके की चोट रिकॉर्ड करते वक्त सत्य प्रकाश की आत्मा उनमें कुछ इस तरह उतर आती थी कि वो साक्षात सत्य प्रकाश का स्त्री संस्करण नज़र आने लगती थीं.जैसा कि मैंने पहले एक एपिसोड में लिखा कि इस मेनका में मैंने दो चरित्रों को मिलाया था. सत्य प्रकाश के अलावा जो एक और महान आत्मा थी वो थी मेरे सोहन बाबो जी के सुपुत्र पूनम भाई जी की. बहुत ही सीधे सादे इंसान थे पूनम भाई जी. दुबले पतले छरहरे बदन के पूनम भाई जी खाने के बड़े शौकीन थे. खाने बैठते थे तो उन्हें खाते देखकर अच्छे अच्छों को पसीना आ जाता था. उनके दुबले पतले शरीर को देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि वो इतना खा सकते होंगे. माँ बाप की इकलौती लाडली संतान थे वो. सोहन बाबो जी पुलिस में हैड कॉन्स्टेबल थे.....पढाई लिखाई में पूनम भाई जी एकदम ज़ीरो थे मगर उनपर पढाई लिखाई का कोई दबाव नहीं था.....सोहन बाबो जी कहते थे, एक ही तो औलाद है मेरी. पढ़ेगा तो ठीक है नहीं पढ़ेगा तो भी कोई बात नहीं. सब पढ़े लिखे होंगे तो अनपढों की अलग दुनिया बसेगी क्या? बस पूनम भाई साहब मस्त..... दिन भर गली में बच्चों के साथ खेलना और जो खाने का मन हो, फरमाइश कर देना. सोहन बाबो जी जब भी रात को घर लौटते थे तो रोज अपने सपूत के लिए कुछ न कुछ मिठाई ज़रूर लेकर आते थे. कई बार पूनम भाई जी को इंतज़ार करते करते नींद आ जाती थी.


पूनम भाई जी को नींद से जगाया जाता.बाबो जी उन्हें प्यार से आवाज़ देते “पूनमिया उठ, रसमलाई खा ले या चमचम खा ले या फिर दाल का सीरा खा ले” और उसी वक्त उन्हें मिठाई खिलाई जाती. कभी कभार अगर उनका पेट खूब भरा हुआ होता या फिर बहुत ज़ोर से नींद लग रही होती तो वो कह देते “ऊं ऊं ऊं....कुल्हड़ में डाल कर रख दो कल सुबह खा लूंगा.” जब पूनम भाई जी ९-१० बरस के हुए तो सोहन बाबो जी का मन हुआ बेटे की शादी करने का. एक ६-७ बरस की लड़की उनके लिए तलाश की गयी और शादी का मुहूर्त निकाला गया. शादी का मुहूर्त देर रात का निकला. ९-१० बरस के पूनम भाई जी सजधज कर घोड़ी पर सवार हुए और खुश खुश लड़की वालों के घर बारात लेकर पहुँच गए. खुश क्यों न होते..... शादी जो हो रही थी. सबने बताया कि तुम्हारी एक सुन्दर सी दुल्हन आयेगी और सबसे बड़ी बात ये कि इन दिनों उन्हें खाने को जी भर मिठाइयां मिल रही थीं. बारात तो समय से पहुँच गयी मगर फेरे तो देर रात होने वाले थे. तब तक पूनम भाई जी को नींद आ गयी. सारी बाकी की रस्में चलती रहीं और पूनम भाई जी सो गए. जब फेरों का वक्त हुआ तो सोहन बाबो जी ने आवाज़ लगाई “पूनमिया, उठ..... फेरा खा ले (शादी के फेरे ले ले)” हमारे पूनम भाई जी की तो रोज की आदत थी देर रात अपने पिताजी की ऐसी आवाज़ सुनने की, कभी ये खा ले, कभी वो खा ले, उन्होंने समझा फेरा भी कोई मिठाई ही होगी, तो आँखें बंद किये किये बोले “कुल्हड़ में डाल कर रख दो, कल सुबह खा लूँगा.” पूरी बारात ठठा कर हंस पड़ी और गाहे बा गाहे ये वाकया लतीफे की तरह बरसों सुना और सुनाया जाता रहा.

तो साहब मैंने सत्य प्रकाश को पढ़ाना शुरू कर दिया था. टाइम का बहुत पक्का था वो, हमेशा बिल्कुल सही टाइम पर आता था. मेरा पढ़ना लिखना माळिए(छत पर बने कमरे) में होता था.... ठीक टाइम पर मेरी माँ की आवाज़ आती... “महेंदर.... सत्य प्रकाश” मैं कहता “ऊपर भेज दीजिए” और बालों में पाव भर तेल डालकर सँवारे गए पट्टे(राजस्थानी में एक खास तरह से बनाए गए बाल को पट्टे कहा जाता है), झकाझक सफ़ेद पतलून और इन किया हुआ वैसा ही झकाझक क़मीज़......और पांवों में साफ़ सुथरे जुराब. मैंने सत्य प्रकाश के पिताजी का जो रूप देखा था, उस से बहुत अलग..... मुझे लगा, ज़रूर सत्य प्रकाश की माता जी शऊर वाली महिला होंगी. आते ही नियम से अपना बस्ता टेबल पर रखकर नीचे झुककर दोनों हाथों से पैर छूता था, हाथों को माथे पर लगाता था और खड़ा हो जाता था, मैं उसे बैठने को कहता तो मेरे बैठने का इंतज़ार करता और जब मैं बैठ जाता तब कुर्सी पर बड़ी ही तमीज़ से बैठ जाता था.

यहाँ तक के सारे काम बहुत नियमित रूप से होते थे....... बस उसके बाद जो कुछ होता था, वो मुझे हर रोज ये सोचने पर मजबूर करता कि मैं आखिर इस भले मानुष को क्यों परेशान कर रहा हूँ? एक रोज अंग्रेज़ी पढ़ा रहा था. मैंने पूरा पाठ पढ़ा दिया और सत्य प्रकाश से पूछा “समझ में आया, जो मैंने पढ़ाया?” उसने अपनी स्टाइल में हाँ में गर्दन हिला दी. मैंने कहा “सत्य प्रकाश, सही बताओ, समझ आया?” उसने फिर अपनी गर्दन हाँ में हिला दी. मैंने कहा “अच्छा पहला वाक्य क्या है ,पढ़ो ज़रा.”  उसने पढ़ा “एयरोप्लेन इज़ फ़्लाइंग ओवर द हिल”. मैंने कहा “शाबाश”, अब ज़रा इसका हिन्दी में अनुवाद करो. उसने गौर से उस वाक्य को दो तीन बार पढ़ा. मैं उसकी फुसफुसाहट सुन रहा था. मैंने कहा “हाँ हाँ शाबाश .....कोशिश करो”. अब सत्य प्रकाश जी के श्रीमुख से जो कुछ निकला उसे सुनकर कम से कम मेरे दो – तीन जन्म तो अवश्य ही धन्य हो गए होंगे. सत्य प्रकाश ने इस अंग्रेज़ी वाक्य का अनुवाद किया था “हवाई जहाज़ हिल रहा है”. मैंने उसे अभयदान दे रखा था इसलिए कुछ भी नहीं कह सकता था....मैंने लंबी सांस ली और कहा “शाबाश बेटा”.

ये तो थी अंग्रेज़ी की कहानी. अब सुनिए गणित की दास्ताँ, मैंने सत्य प्रकाश को सारे पहाड़े रटवाये, जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वो सारी चीज़ें सिखाईं जोकि तीसरी चौथी क्लास में सिखाई जाती हैं मगर एक बात मैं उसे बिल्कुल नहीं समझा पाया कि हज़ार से बड़ी भी कोई संख्या होती है. उसके सामने आप चाहे कोई भी संख्या रख दीजिए वो हज़ार से आगे जाता ही नहीं था. जैसे २३५६८० को सत्य प्रकाश पढ़ेगा तेईस हज़ार पांच हज़ार छः सौ अस्सी या फिर दो हज़ार पैंतीस हज़ार छः सौ अस्सी. मैं उसे समझा समझाकर हार गया मगर लाख और करोड़ का अस्तित्व सत्य प्रकाश ने कभी स्वीकार नहीं किया.

यही हाल उसका साइंस में था. वैसे तो वो कभी भी अपनी ओर से कुछ भी पूछता नहीं था मगर एक दिन वो बहुत अच्छे मूड में था.... बोला “सर एक बात पूछूं?” मैंने कहा “हाँ हाँ ज़रूर.” तो वो बोला “पानी को पानी कहने से काम चल सकता है तो उसे साइंस में H2Oकहने की क्या ज़रूरत है?” मैंने कहा “हाँ बेटा बड़ी ही बेवकूफियां होती हैं साइंस में.”

सत्य प्रकाश के पिताजी बीच बीच में अपने बेटे की पढ़ाई का हाल चाल लेने आते रहते थे. मैं उनसे कहता, ज़रूरी नहीं है कि हर बच्चा पढ़ लिख कर बड़ा आदमी ही बने, सीधा सच्चा बच्चा है आपका, आप कोशिश कीजिये कि अच्छा इंसान बन जाए ये. रही रोजी रोटी की बात, तो हाथ का कोई हुनर इसे सिखा दीजिए, अपना और अपने परिवार का पेट भर लेगा. मास्टर जी हर बार बड़ी ही दयनीय मुद्रा में हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगते “नहीं सर आपके सर कोई इलज़ाम नहीं दूंगा अगर ये फिर फ़ेल हो जाता है तो, मगर आप इसे पढ़ाते रहिये, मुझे पूरा भरोसा है, ये पास हो जाएगा. बस ये दसवीं पास हो जाए किसी तरह तो एस टी सी करवा दूंगा, मेरा बुढ़ापा सुधर जाएगा.” मैं फिर निरुत्तर हो जाता.

मैं वैसे मूल रूप से बच्चों को अंग्रेज़ी, साइंस और गणित ही पढ़ाया करता था मगर, सत्य प्रकाश के पिताजी ने मुझसे वादा ले लिया कि मैं उसे हिन्दी और सामाजिक ज्ञान भी पढ़ा दूंगा. एक दिन मैंने उसे मीरा बाई के बारे में बताया और सामाजिक ज्ञान में इतिहास का एक पाठ पढ़ाया जिसमें मुग़लों के बारे में संक्षेप में बताया गया था. मैंने  सब कुछ पढ़ाकर पूछा “समझ में आ गया?” उसने बड़ी सी हाँ में सर हिला दिया. मैंने कुछ होमवर्क दिया और वो पैर छूकर घर चला गया. अगले दिन जब वो फिर मेरे पास आया, मैंने होमवर्क की कॉपी देखी तो मैं हैरान रह गया. उसमें एक सवाल था, अकबर का पूरा नाम क्या था?” उसने इसका जवाब लिखा था “जलालुद्दीन गिरधर अकबर”. मैंने पूछा “ये क्या लिखा है? अकबर का पूरा नाम जलालुद्दीन गिरधर अकबर था? वो बोला “जी हाँ और मीराबाई उनकी पत्नी थीं, तभी तो मीरा बाई ने भजन लिखा –मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई.” मुझे लगा... कितना कष्ट पा रही होगी मीराबाई की आत्मा?

खैर साहब.... इसी तरह पढ़ाते पढ़ाते और उसके ज्ञान से अपने आपको कृतार्थ करते करते साल गुज़र गया..... इम्तेहान आ गए. जब इम्तेहान शुरू होने में बस दो दिन बचे थे कि नीचे से मेरी माँ की आवाज़ आई “महेंदर....सत्य प्रकाश......” मैंने कहा “ऊपर भेज दीजिए”. थोड़ी देर में सत्य प्रकाश ऊपर आया, आकर बाकायदा पाँव छुए और खड़ा हो गया, मैंने कहा “हाँ बोलो सत्य प्रकाश.... क्या कुछ पूछना चाहते हो?” उसने हाँ में गर्दन हिलाई.हैं मैं बहुत खुश हुआ कि चलो आज तो कुछ पूछने आया है क्योंकि वरना वो ज्ञान देता ही था, पूछता कुछ भी नहीं था.  मैंने कहा “बैठो”. वो बैठ गया. एक कॉपी और पैन निकालकर मेरे हाथ में पकड़ा दिए. मैंने कहा “हाँ बोलो क्या पूछना है?” वो बोला “परसों से इम्तेहान चालू होने वाले है, मुझे अंग्रेज़ी में अपना रोल नंबर लिखना सिखा दीजिए” मैंने अपना सर पीट लिया मगर क्या करता... बैठकर उसे अंग्रेज़ी में उसका रोल नंबर लिखना ही नहीं सिखाया उसका अभ्यास भी करवाया.

मुझे पूरा विश्वास था कि सत्य प्रकाश दसवीं में फिर फ़ेल होगा.... वो किसी हालत में पास नहीं हो सकता. समय गुज़रा. एक दिन पता लगा कि दसवीं का रिज़ल्ट आ गया है. मुझे कोई उत्सुकता नहीं थी क्योंकि मुझे पता था वो पास नहीं होगा....इसलिए मैंने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया. तीन चार दिन बाद ही सत्य प्रकाश के पिताजी बड़े खुश खुश उछलते हुए मेरे घर आये और उस बुज़ुर्ग आदमी ने झुक कर मेरे पाँव छू लिए... मैं कहता रह गया “अरे अरे ... क्या कर रहे हैं मास्टर जी आप? क्यों पाप चढ़ा रहे हैं मुझपर?” वो आँखों में पानी भरते हुए बोले... “आपने तो कमाल कर दिया सर?” मैंने कहा “क्या हुआ मास्टर जी?आखिर बात क्या है?” उन्होंने सत्य प्रकाश की मार्कशीट निकाली और बहुत खुश होकर बोले “ देखिये, कहाँ तो पिछले साल उसके सारे पेपर्स में दो-दो चार-चार नंबर आये थे और इस बार सिर्फ तीन विषयों में दो-दो चार-चार अंको से फ़ेल हुआ है. अगर आप इस साल उसे और पढ़ा दें तो मुझे पूरा विश्वास है, इस बार वो ज़रूर निकल जाएगा. मैं हक्का बक्का..... एकदम सन्न... समझ नहीं आ रहा था क्या जवाब दूं? एक पिता की आशाओं पर पानी फेरने का पछतावा भी हो रहा था मगर मैं महसूस कर रहा था कि अगर मैंने इस बार भी सत्य प्रकाश को पढाया तो मेरी खुद की पढ़ाई बिल्कुल चौपट हो जायेगी. मैंने शर्मिन्दा होते हुए सत्य प्रकाश के पिताजी से कहा “ क्षमाप्रार्थी हूँ मास्टर जी अब मैं आपके पुत्र को नहीं पढ़ा पाऊंगा, इस से मेरी पढ़ाई चौपट हो जायेगी.” उनका चेहरा एकदम उतर गया. उदास स्वर में वो बोले “नहीं नहीं.... अगर मेरे बेटे से आपके भविष्य को ख़तरा है तो मैं उसे आपके आस पास भी नहीं आने दूंगा. ईश्वर आपको खूब तरक्की दे. मेरे बेटे के भाग्य में जो लिखा है, उसे वो भोगना ही होगा.” मैंने कहा “आप मुझे अन्यथा न लें, मैं नियमित रूप से तो उसे नहीं पढ़ा पाऊंगा मगर हाँ उस से कह दीजिए कभी कुछ पूछना चाहे तो मेरे घर के दरवाज़े उसके लिए हमेशा खुले रहेंगे.” मास्टर जी धीमे धीमे क़दम उठाते हुए चले गए.

मैंने सोचा मेरे जीवन का सत्य प्रकाश का ये चैप्टर यहीं समाप्त हो गया... मगर मैं गलत था. समय के गर्भ में बड़े बड़े चमत्कार छुपे रहते हैं जिसे इंसान कभी नहीं समझ सकता. वक्त गुज़रता रहा. एम ए किया, पत्रकारिता में पी जी डिप्लोमा किया और आकाशवाणी में आ गया. उन दिनों आकाशवाणी के प्रसारण निष्पादक की नौकरी पर एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन पर घूम रहा था. १९८२ की बात है मेरी और मेरी पत्नी की पोस्टिंग उन दिनों सूरतगढ़ आकाशवाणी पर थी. मैं मेरी पत्नी और मेरा बेटा... हम तीनों बीकानेर में राजस्थान रोडवेज़ के बस अड्डे पर बैठे हुए बस का इन्तज़ार का रहे थे कि एक बिल्कुल ब्रांड न्यू जीप हमारे पास आकर रुकी. मैं कुछ समझ पाऊँ उस से पहले ही ड्राइवर के पास की सीट से उतारकर एक नौजवान ने पहले मेरे पैर छुए और उसके बाद मेरी पत्नी के. मैंने चेहरे की तरफ देखा.....और चौंक गया  “अरे....? ये तो सत्य प्रकाश है?”  उसने शायद मेरे मन की आवाज़ सुन ली, बोला “जी सर मैं सत्य प्रकाश ही हूँ. आप यहाँ कैसे बैठे हैं?” मैंने उसे आशीर्वाद दिया और कहा “मेरी पोस्टिंग इन दिनों सूरतगढ़ है. वहीं जाने के लिए बस का इंतज़ार कर रहे हैं हम लोग.” वो बोला चलिए मैं आपको जीप से ड्रॉप करके आऊँगा.” मैंने बहुत मना किया मगर वो नहीं माना. बोला “सर आज जो कुछ भी हूँ आपके आशीर्वाद से ही हूँ, मेरे होते हुए आप यहाँ बैठे हुए बस का इंतज़ार करते रहें और मैं जीप में बैठ कर चला जाऊं, ये कैसे हो सकता है?” आखिर मुझे उसकी बात माननी पड़ी. वो हमें सूरतगढ़ ड्रॉप करके आया. १७० किलोमीटर के रास्ते में खूब बातें हुईं. बातचीत हुई तो पता चला कि उसकी शादी जिस लड़की से हुई वो अपने माँ बाप की इकलौती लड़की थी और उनके पास १५-२० ट्रक और १५-२० बसें थीं. सारा काम अब सत्य प्रकाश ही संभाल रहा था. सत्य प्रकाश के पिताजी रिटायर हो चुके थे और सत्य प्रकाश एक आज्ञाकारी पुत्र के रूप में उनकी जी भरकर सेवा कर रहा था. उसने बताया “सर ये सच है कि मैं दसवीं तो पास नहीं कर सका मगर आपने ही मुझे इस योग्य बनाया कि मैं इतने बड़े बिजनेस को संभाल रहा हूँ. और सर एक बात बताऊँ? वो लाख और करोड़ की संख्याएँ किताब में लिखी हुई देख कर मुझे कभी समझ में नहीं आती थीं, अब जब अपने हाथों से गिनने लगा तो सब समझ में आ गईं.” मुझे उस दिन बहुत अफ़सोस हुआ..... मैं अगर एक साल और उसे पढ़ा देता तो शायद वो दसवीं पास कर लेता और उसके मन में ये टीस नहीं रहती कि वो दसवीं पास नहीं कर सका.

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Saturday, May 26, 2012

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- 9 : महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

मशहूर रेडियो शख्सियत महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला की नौंवी कड़ी।


कितनी छोटी होती है इंसान की ज़िंदगी ? शुरू में उसे इस बात का अहसास नहीं होता. बचपन में हर बच्चा जल्दी बड़ा होना चाहता है और इस बात में फख्र महसूस करता है कि वो बड़ा हो गया है. वो जब ४-५ साल का होता है, तब भी माँ बाप के सामने तरह तरह से सिद्ध करने की कोशिश करता है कि वो बड़ा हो गया है. जब प्राइमरी क्लासेज़ में आता है तब भी उसे लगता है , अब वो एल के जी या यू के जी में नहीं है, बड़ा हो गया है......फिर जब छठी सातवीं में आता है तो उसे लगता है कि अब तो उसकी गिनती बडों में होनी ही चाहिए..... यानि वो तब तक बडा होने के लिए जी जान से कोशिश करता है जब तक कि वास्तव में बड़ा नहीं हो जाता. जब सब ये मान लेते हैं कि वो बड़ा हो गया है और हर बात में टोकने लगते है, ऐसा मत करो, वैसा मत करो..... अब तुम बड़े हो गए हो.... तब उसके पांव के नीचे से ज़मीन खिसकने लगती है और वो अपने बचपन को मिस करने लगता है.....बचपन को मिस करने का ये सिलसिला जीवन भर चलता है, ये बात अलग है कि जैसे जैसे बूढा होता जाता है..... बचपन के साथ साथ जवानी के दिनों को भी मिस करने लगता है.... एक बात आपने महसूस की है या नहीं, मैं नहीं जानता, बचपन में समय की गति बहुत धीमी होती है शायद इसीलिये बच्चा जल्दी बड़ा होना चाहता है... मगर धीरे धीरे समय की गति बढ़ने लगती है और फिर वो बढ़ती ही जाती है.


आप ज़रा याद करके देखिये २० साल पहले घटी कोई घटना आपको काफी दूर लगती होगी मगर १० साल पहले की कोई और घटना उससे आधी दूरी पर महसूस नहीं होगी बल्कि आधी से बहुत कम दूरी पर लगेगी और ५ साल पहले की घटना तो ऐसा लगेगा कि कल ही घटी हो. यानि समय की गति समान नहीं रहती ..... जैसे जैसे ज़िंदगी में आगे बढते हैं, समय की गति भी बढ़ती जाती है. जब वो अंतिम दिन आता है, जब उसे इस दुनिया को छोड़कर जाना होता है तब उसे लगता है अरे...... ज़िंदगी तो इतनी जल्दी गुज़र गयी.... मैं तो इसे ठीक से जी भी नहीं पाया..... मुझे थोड़ा सा समय काश मिल सके....मगर उसे जाना होता है तो जाना ही होता है.......ऐसे में वो लोग बहुत सुखी रहते हैं जो भगवान में, धर्म में, धार्मिक मान्यताओं में, पुनर्जन्म में गहरा विश्वास रखते हैं क्योंकि उन्हें लगता है....ये शरीर छोड़कर मुझे तो बस दूसरे शरीर में जाना है......मैं पूजा करूँगा, धर्म कर्म करूँगा तो ईश्वर मुझे किसी अच्छे घर में जन्म देंगे. दान-धर्म करूँगा तो मेरा अगला जन्म सुधर जाएगा ..... वगैरह वगैरह, मगर हर चीज़ को तर्क की कसौटी पर कसने वाले इंसान इन सब बातों पर विश्वास नहीं कर सकते. जीवन के इस दर्शन की शुरुआत उसी वक्त हो जाती है जब बच्चा बहुत छोटा होता है. वो अपने आस पास जो कुछ होता है उसे देखता है और ईश्वर, धर्म, समाज, स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म, पूजा –पाठ इन सबके बारे में उसके विचार बनने लगते हैं. मैंने बचपन से देखा कि मेरे पिताजी बहुत मन से दुर्गा की पूजा किया करते थे.....उनसे मेरे भाई साहब ने और मैंने भी ये संस्कार लिए मगर मेरे पिताजी कभी भी पंडितों की पोंगापंथी को स्वीकार नहीं करते थे......स्वर्ग, नर्क, धर्म, कर्म, इन सबको वो विज्ञान की कसौटी पर कसकर फेल कर चुके थे..... मैं भी इन सब बातों पर कभी विश्वास नहीं कर पाया. मेरे पिताजी ने कालांतर में जब मेरी माँ की मृत्यु हुई तो पूजा पाठ करना बिल्कुल बंद कर दिया. हालांकि पूजा-पाठ में मेरा बहुत विश्वास कभी नहीं रहा मगर जब उन्होंने पूजा-पाठ करना छोड़ा तो उनके साथ ही साथ मैंने भी पूजा-पाठ को तिलांजलि दे दी. मेरे भाई साहब आज भी नियमित रूप से पूजा करते हैं मगर जब भी उनसे इस बारे में बात होती है तो वो कहते हैं यार... इतने सालों का एक रूटीन बना हुआ है उसे तोड़ने का मन नहीं करता, इसके अलावा और कोई बात नहीं है........स्कूल में पढता था, घर में हर तरह के त्यौहार मनाये जाते थे.... मगर मेरे पिताजी उन त्योहारों के सामाजिक पक्ष पर ही ज़ोर देते थे...... धार्मिक पक्ष को हंसी में उड़ा देते थे.... नतीजा ये हुआ कि मेरे दिमाग़ में भी धीरे धीरे बैठने लगा कि ईश्वर कुछ नहीं होता...... ईश्वर की रचना लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए की और उसके नाम पर अपना पेट भरते हैं. और ९वीं १०वीं कक्षा में पहुँचते पहुँचते पूरी तरह नास्तिक हो गया


......इसी समय में मैंने एक तरफ जहां सुकरात, प्लेटो, हैरेक्लिटस जैसे ग्रीक दार्शनिकों को पढ़ना शुरू किया, वहीं सांख्य, बौद्ध, जैन, योग, चार्वाक, मीमांसा, न्याय आदि भारतीय दर्शनों को पढ़ना शुरू किया. इन सबका विवरण देना यहाँ मौजूं नहीं होगा, बस इतना कहूँगा कि सबसे ज़्यादा अपने आपको तर्क पर आधारित कहने वाला न्याय दर्शन भी मुझे कोई रास्ता नहीं दिखा सका और मैं पूरी तरह से नास्तिक हो गया ऐसे में मैंने नीत्शे को पढ़ा तो लगा शायद जो नीत्शे की सोच है वो सच्चाई के ज़्यादा करीब है..... मैं आज भी नास्तिक हूँ .... और मरते दम तक रहूँगा . हालांकि मैं जानता हूँ कि नास्तिक होना कितना तकलीफदेह है? आप के सामने कोई भगवान नहीं हैं, आपको बचाने कोई देवी देवता नहीं आयेंगे और आपके मरने के बाद आपका अस्तित्व मात्र आपके बाद की एक पीढ़ी तक घर में टंगी हुई एक तस्वीर तक सीमित हो जाएगा... वो भी अगर आपकी औलाद लायक हुई तो वरना वो आपकी नहीं, सिर्फ अपनी औलादों की तस्वीरों से अपने घर को सजाना पसंद करेंगे. यानि आपके इस दुनिया से जाने के बाद सब खत्म. आप ने चाहे कैसे भी कर्म किये हों, मृत्यु के पश्चात आपको उनका कोई लाभ नहीं होने वाला है... और आप इस विश्वास के साथ नहीं मर सकते कि ये तो सिर्फ शरीर का बदलना ही है.... मैं फिर से दूसरे जन्म में इस धरती पर आऊँगा..... बहुत डरावना लगता है न ये सोचकर कि मेरी मृत्यु के बाद मेरा कोई वजूद इस दुनिया में नहीं रहेगा.... मैं हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जाऊँगा. मगर क्या कर सकते हैं? आपने अपने जीवन का जो दर्शन तय किया है...वो आपकी सोच की जड़ों में इस तरह बैठ चुका होता है कि आप बहोत चाहकर भी नहीं बदल सकते. मेरे रेडियो के कई कार्यक्रमों में मेरी इस विचारधारा का असर साफ़ दिखा भी है और... इस विषय पर अपने साथियों और अफसरों से इस विषय में टकराव भी हुए हैं... मेरा मानना है कि धर्म और ईमान दो अलग अलग चीज़ें हैं. आप धर्म को न मानकर भी ईमानदार हो सकते हैं मगर ईमानदार हुए बिना धार्मिक होने का कोई मायने नहीं है बल्कि ईमान के बिना धर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं हो सकता.

स्कूल में इस विषय पर कभी कोई बात होना बिल्कुल संभव नहीं था. अगर किसी अध्यापक से जीवन, दुनिया, ईश्वर, इन विषयों पर बात करने की कोशिश करते तो वो डांटकर बिठा देते और हंसी उड़ाते कि पढाई तो होती नहीं जीवन को समझने की कोशिश कर रहे हैं.......गणित के हमारे एक अध्यापक थे डी पी मित्तल साहब. बड़े ही लहीम शहीम इंसान. हाथ में हर वक्त एक डंडा. बहुत ही कड़क अध्यापक माने जाते थे. क्लास में हम दो तीन लड़के ऐसे थे जो गणित के पीरियड में दुनिया भर की बातें करने को तैयार रहते थे सिवाय गणित के...... मित्तल साहब ने एक दिन हम दोनों तीनों लड़कों को एक उपाधि दे डाली. उन्होंने कहा... राजा महाराजाओं की सवारी जब चलती है, तो उसमें कुछ बेहद खूबसूरत और सजे धजे घोड़े भी चलते हैं. इन्हें कोतल घोड़े कहा जाता है.... ये और किसी काम के नहीं होते... इनकी सवारी नहीं की जा सकती, इन पर सामान नहीं ढोया जा सकता, ये युद्ध में भी काम नहीं आते. इन्हें तो बस सजा धजाकर रखिये... ये सिर्फ देखने में ही खूबसूरत लगते हैं. आप तीनों मेरे कोतल घोड़े हो.......संगीत और नाटक जैसी विधाओं में हर बार ढेरों तालियां और वाहवाही बटोरने वाले इंसान को कोतल घोड़े की ये उपाधि कैसी लगी होगी, आप समझ सकते हैं. लगा गणित विषय को छोड़ दूं मगर फिर क्या करूँगा? ये समझ नहीं आ रहा था.....ये मेरे जीवन का शायद बहुत कठिन वक्त था.....दिल कर रहा था पढाई छोड़ दूं और कुछ ऐसा काम करूँ जिस में संगीत हो मगर संगीत के आम कलाकारों की जो स्थिति देखता था, उसमें मैं अपने आपको फिट नहीं पाता था. इधर भाई साहब मेडिकल कॉलेज में पहुँच गए थे और घर में सब लोग उन्हें डॉक्टर कहकर पुकारने लगे थे.......आस पास के सभी लोगों की निगाहें अब मुझपर थीं कि मैं क्या लाइन पकडता हूँ..... मेरे ताऊजी के एक लड़के ने तो मेरी माँ से एक दिन कह भी दिया “काकी, राजा (मेरे भाई साहब का घर का नाम) तो खैर मेडिकल कॉलेज में दाखिल हो गया है तो डॉक्टर बन ही जाएगा लेकिन महेन्द्र किसी दिन कुछ बनेगा तब देखेंगे....... देखना... ये हमारी ही तरह रहेगा” ये बात कुछ समय बाद मुझे मेरी माँ ने उस वक्त बताई जब मैं रेडियो नाटक के उस ऑडिशन में पास हुआ जिसमें ३५० लोग बैठे थे और सिर्फ ३ लोग पास हुए थे.......बहुत खुश हुईं थीं वो और मुझे कहा था “लोग चाहे कुछ भी कहें तुम ज़रूर इस लाइन में अपना नाम कमाओगे. ज़रूरी थोड़े ही है कि सब लोग पढाई में ही नाम कमाएँ.” वैसे मैं आपको बता दूं कि हायर सेकेंडरी में मेरे ५५% अंक बने थे. मुझे इन्जीनियरिंग में सिविल ब्रांच मिल रही थी  जो मुझे कतई पसंद नहीं थी.

अब सवाल ये था कि आखिर हायर सेकेंडरी के बाद क्या करूँ मैं? संगीत के पीछे मैं पागल था. मैं चाहता था कि संगीत की शिक्षा लूं मगर मेरा दुर्भाग्य देखिये, उस ज़माने में बीकानेर में लड़कों के कॉलेज में संगीत नहीं था. संगीत सिर्फ और सिर्फ लड़कियों का विषय मन जाता था. अमर चंद जी जैसे कुछ कलाकार थे जो संगीत जानते थे मगर सिखाने में उनकी कोई रुचि नहीं थी. एक दिन मेरा दिमाग पता नहीं कैसे खराब हुआ, मैंने साईकिल उठाई और चल पड़ा महारानी सुदर्शना गर्ल्स कॉलेज की ओर. लड़कियों की कॉलेज में १६-१७ साल के लड़के को अंदर कौन घुसने दे? बाहर खड़े चौकीदार की बहुत मिन्नतें कीं कि बस एक बार मुझे प्रिंसिपल साहिबा से मिला दें. मैं इधर उधर देखूँगा भी नहीं. मैंने यहाँ तक कहा कि वो चाहें तो मेरी आँखों पर पट्टी बाँध दें ताकि मैं किसी लड़की की तरफ न देख सकूं. आखिर उसे दया आई और वो मुझे प्रिंसिपल के कमरे में ले गया और डरते डरते कहा कि मैडम जी ये लड़का आपसे मिलने की बहुत जिद कर रहा था. उन्होंने जलती हुई नज़रों से मुझे देखा और बोलीं “ पुलिस को बुलाऊँ? जानते हो लड़कियों की कॉलेज के अंदर आना तो दूर आस पास चक्कर लगाना भी जुर्म है और तुम्हें अंदर बंद किया जा सकता है.” मैं घबराया मगर किसी तरह अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए टूटे फूटे शब्दों में कहा “ मैडम मैं संगीत पढ़ना चाहता हूँ और संगीत आपकी कॉलेज के अलावा किसी भी दूसरे कॉलेज में नहीं है.”

     “क्या मतलब? क्या तुम्हें लगता है कि तुम यहाँ संगीत पढ़ सकते हो?”

     “मेरी आपसे रिक्वेस्ट है कि चाहे आप मुझे क्लास में मत आने दीजिए मगर इम्तेहान देने के लिए नाम को एडमिशन दे दीजिए क्योंकि लड़के प्रायवेट इम्तेहान भी नहीं दे सकते.”

      उन्होंने संगीत की लेक्चरर को अपने कमरे में बुलाया और कहा “ये लड़का बड़ी जिद कर रहा है कि इसे संगीत विषय के साथ बी ए करना है इसलिए इसे हम यहाँ एडमिशन दे दें.”

     वो लेक्चरर मुस्कुराईं और बोलीं... “ ये कैसे संभव है?”

     मैंने कहा “मैडम कोई रास्ता निकालिए न.....संगीत मेरा जीवन है..... अगर आप लोगों ने मना कर दिया तो मुझसे मेरा जीवन छीन जाएगा.”

     संगीत की मैडम बहुत मुलायमियत के साथ बोलीं.... “ अच्छा बेटे तुम संगीत संगीत कर रहे हो, क्या तुमने संगीत किसी से सीखा है?”

     मैंने कहा “जी नहीं मैडम.”

     वो बोलीं “अच्छा तुम संगीत में क्या कर सकते हो?”

     मैं उस वक्त तक बैंजो, हारमोनियम, बांसुरी बहुत अच्छी तरह बजाने लगा था और सितार, सारंगी और सरोद टूटा फूटा बजाने लगा था. मैं बोला.... आप मुझे संगीत रूम में ले चलिए.... जो कुछ में थोड़ा बहुत कर सकता हूँ आपको उसकी बानगी दिखाता हूँ.” मुझे म्यूजिक रूम में ले जाया गया. साथ में बहुत से लैक्चरर्स का काफिला हो गया था, तमाशा देखने. मुझे एक बार तो लगा... मुझे फांसी के फंदे की ओर ले जाया जा रहा है और ये सारे तमाशबीन मुझे फांसी पर चढाये जाने का तमाशा देखने जा रहे हैं.

     हम लोग म्यूजिक रूम में बैठे. मैंने डरते डरते हारमोनियम उठा लिया और मैडम से कहा आप किस सुर से गाएंगी? और क्या गाएंगी? मैं आपके साथ अलग अलग साज़ पर संगत करने की कोशिश करूँगा. उन्होंने बताया कि वो पांचवें काले से गाएंगी और दरबारी गाएंगी. मेरा भाग्य, मुझे एक सितार भी वहाँ मिल गया जो दरबारी के  सुरों में मिला हुआ था औरउनके सुर की बांसुरी भी मिल गयी. अब उन्होंने गाना शुरू किया... मैंने बारी बारी से उनके साथ हारमोनियम, बांसुरी और सितार बजाये. वो लगभग १५ मिनट गाती रहीं और मैं फुर्ती से बदल बदल कर साज़ उनके साथ बजाता रहा...१५ मिनट बाद जब वो रुकीं तो उनकी आँखें भरी हुई थीं... उन्होंने मेरे सर पर हाथ फेरा और बोली” शानाश बेटा शाबाश तुमने ये सब कहाँ सीखा? “ मैं बोला “बस रेडियो के साथ बजा बजा कर, लेकिन मैडम अगर आप बुरा न मानें तो एक चीज़ मैं भी सुनना चाहता हूँ”

     वो बोली “हाँ हाँ ज़रूर, मगर क्या सुनाना चाहते हो?”

     मैंने कहा “ये मैं नहीं आप तय करेंगी”.

     उन्होंने अचरज से पूछा “क्या मतलब?”

     मैंने कहा “ जी मैडम अब हारमोनियम आप उठाइये और कोई भी राग जो आप चाहें छेडिए. मैं उसी राग में गाऊंगा, थोडा बहुत आलाप लूँगा, ख़याल तो शायद मैं नहीं जानता रहूँगा मगर तराना भी गाऊंगा और तानें भी लूँगा.”

     उन्होंने राग ललित छेड़ा और मैं उसमें खो गया.......गाता गया गाता गया.....आँखें बंद करके गाता ही चला गया..... होश तब आया जब मैडम ने हारमोनियम बजाना रोका और पूरा म्यूजिक रूम तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा.... मैंने अपनी आँखें खोलीं..... मुझे कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था......तब महसूस हुआ... कि मेरी आँखें आंसुओं से सराबोर थीं.

      म्यूजिक की मैडम और प्रिंसिपल मैडम दोनों ने कहा “हम बहुत प्रभावित हैं तुमसे मगर बेटा, हमारी भी कुछ मजबूरियाँ है, हम कुछ नहीं कर सकते.......हाँ हमारे यहाँ जब भी कोई संगीत का प्रोग्राम होगा हम चाहेंगे तुम ज़रूर आओ.

     मैं वहाँ किसी प्रोग्राम का निमंत्रण लेने नहीं गया था........मैंने उन्हें धन्यवाद कहा, उन दोनों के पैर छुए और अपनी साईकिल उठाकर धीरे धीरे कॉलेज के गेट से बाहर निकल गया, इस अहद के साथ कि अब मैं कभी नहीं गाऊंगा......... मैंने संगीत को अपने जीवन से खुरच खुरच कर निकाल फेंका.....अब भी वो खुरचन रह रह कर बहुत दुःख देती है जब उसमें बड़ी गहरी टीस उठती है.

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Thursday, May 3, 2012

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन- 8 : महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

रेडियोनामा पर जानी-मानी रेडियो-शख्सियत महेंद्र मोदी रेडियोनामा पर अपनी जीवन-यात्रा के बारे में बता रहे हैं। तो आज सातवीं कड़ी में पढिए कुछ और यादें।



अब मैं सादुल स्कूल में पढ़ रहा था. मेरा बैंजो वादन भी चल रहा था. स्कूल में मैं पढाई के लिए कम और अपने बैंजो वादन के लिए ज़्यादा जाना जाने लगा था. पढाई से इतर गतिविधियों में मेरे भाई साहब भी बहुत सक्रिय थे मगर चूंकि वो पढाकू किस्म के रहे, उनका क्षेत्र रहा डिबेट, शतरंज और राजनीति. उन दिनों स्कूल कॉलेज में आज की तरह के चुनाव नहीं होते थे न चुनाव लड़ना सिर्फ गुण्डे बदमाशों का ही काम हुआ करता था. मेरे भाई साहब छोटे कद के हैं, चश्मा छठी-सातवीं कक्षा में ही लग गया था. क्लास में अव्वल आया करते थे. सभी अध्यापकों के अत्यंत प्रिय छात्र. श्री ओम प्रकाश जी केवलिया हम सब के अत्यंत प्रिय अध्यापक थे.....मगर केवलिया साहब के सबसे प्रिय छात्र थे मेरे बड़े भाई श्री राजेन्द्र मोदी. केवलिया साहेब ने उन्हें नाम दिया था “छोटा गांधी”. क्लास में अव्वल आने पर उन्होंने मेरे भाई साहब को एक बहुत ही सुन्दर पुस्तक ईनाम में दी थी “बन्दा बैरागी”. किस प्रकार बन्दा बैरागी देश के लिए शहीद होते है, इस पर पद्य में ये इतनी शानदार किताब थी कि इसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं.केवलिया साहब की प्रेरणा से ही भाई साहब स्कूल के प्रधानमंत्री पद के लिए खड़े हुए और बहुत अच्छे अंतर से अपने प्रतिद्वंद्वी सूर्य प्रकाश को मात दी.आदरणीय गुरुदेव ओम प्रकाश जी केवलिया का निधन अभी कुछ ही साल पहले हुआ है.इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि हम दोनों भाइयों पर केवलिया साहब का अत्यंत स्नेह रहा, हाँ ये बात और है कि दोनों पर उनके इस अप्रतिम स्नेह के कारण अलग अलग थे. भाई साहब पर उनके स्नेह का कारण उनका पढ़ाई में बहुत अच्छा होना था और मुझ पर उनका स्नेह मेरी स्टेज की गतिविधियों के कारण. हम दोनों भाई आज भी कभी साथ बैठते हैं तो केवलिया साहब को ज़रूर याद करते हैं. एक बात और बताऊँ? उनके सुपुत्र श्री गौतम केवलिया आज भी मेरी फेसबुक के दोस्तों की सूची में मौजूद हैं.

मेरा संगीत प्रेम ज़ोरों पर था. मैं बैंजो तो बजाता ही था, जब भी मौक़ा मिलता, कोशिश करता कि किसी दूसरे साज़ पर भी हाथ आज़माऊँ. मेरे ताऊ जी लोकदेवता राम देव जी के बहुत बड़े भक्त थे. पश्चिमी राजस्थान में रामदेव जी की बहुत मान्यता है. भाद्रपद में भक्तों के जत्थे के जत्थे बीकानेर से एक सौ बीस मील यानि लगभग पौने दो सौ किलोमीटर की पैदल यात्रा करके आज भी जोधपुर ज़िले के रामदेवरा नामक स्थान पर पहुँचते हैं जहां बाबा रामदेव का मंदिर बना हुआ है और एक बहुत गहरी बावली बनी हुई है. इस राम देवरा को बीकानेर और आस पास के क्षेत्रों में रूणीचा कहा जाता है और बावली को हमारे यहाँ बावड़ी कहते हैं. हर साल दो बार इस जगह मेला भरता है जहां दूर दूर से यात्री आकर इस बावडी में स्नान करते हैं और बाबा के दर्शन करते हैं. अरे ...... इस जगह की एक खास बात तो मैंने आपको बताई ही नहीं. जानते हैं जब आप बाबा रामदेव जी के मंदिर में प्रवेश करते हैं तो मंदिर के अंदर एक मज़ार बना हुआ पाते हैं. सभी लोग इसी मज़ार की पूजा करते हैं और सुबह शाम मज़ार की आरती भी उतारी जाती है. इस मंदिर में जितने हिन्दू तीर्थ करने आते हैं उतने ही मुस्लिम ज़ियारत करने आते हैं. हिदू इन्हें पुकारते हैं “रामदेव बाबा” और मुसलमान इन्हें कहते हैं “राम सा पीर”. आज तो ज़माना बदल चुका है, किसी मंदिर में कोई भी जा सकता है मगर इस मंदिर में कभी भी ऊंच-नीच, छोटे बड़े का भेद-भाव नहीं किया गया और हमेशा से ही हर धर्म, हर जाति के लिए इस मंदिर के द्वार खुले रहे हैं.ये बात कहाँ तक सच है कहा नहीं जा सकता, मगर लोग ऐसा कहते हैं कि यहाँ बहुत बड़े बड़े पर्चे यानि चमत्कार होते थे....बावडी की रचना कुछ इस तरह की है कि ऊपर लोहे का एक जंगला लगा हुआ है, और एक तरफ से सीढियां अंदर तक गयी हुई हैं. कहा जाता है कि जब कोई चमत्कार होना होता था तो उस व्यक्ति को बाबा रामदेव पुकारते थे और वो व्यक्ति भागता हुआ उस बावडी की तरफ जाता था, बावडी के जंगले का दरवाज़ा खुल जता था और वो व्यक्ति उस बावडी में कूद जाता था. कुछ ही पलों बाद वो सीढियां चढ़कर बाहर आता था पूरी तरह स्वस्थ होकर. कहा जाता है के हर साल इस मेले के दौरान इस तरह के कई पर्चे यानि चमत्कार होते थे और कई लोगों की आखें ठीक हो जाती थीं, कई लोगों को हाथ पैर मिल जाते थे और कई लोगों का कोढ़ ठीक हो जाता था. विज्ञान के युग में इस तरह की बातों पर विश्वास होना तो आसान नहीं है मगर बाबा रामदेव में पूरे राजस्थान और गुजरात की अत्यंत श्रद्धा है ये मानना ही पडेगा. मेरे मुम्बई आने पर एक बार संगीतकार आनंद जी से बात हुई तो उन्होंने बताया कि बाबा में उनकी ही नहीं स्वर्गीय कल्याण जी की भी बहुत श्रद्धा थी.

इन्हीं बाबा रामदेव जी के परम भक्त थे मेरे ताऊ जी . हर महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को उनके घर एक बड़ा आयोजन हुआ करता था जिसे जम्मा कहा जाता था. पास के ही एक गाँव सुजानदेसर के मंदिर के (जहां ताऊ जी रोज पैदल फेरी देने जाया करते थे ), पांच-सात पुजारी शाम से पहले ही आकर इकट्ठे हो जाया करते थे. ढेर सारी गुड़ की लापसी या चावल और चने की दाल बनती थी और हम सब लोग मिलकर गुड़ की उस लापसी या चावल और दाल के स्वाद का आनंद उठाया करते थे. उसके बाद घर के बाहर बनी हुई एक बड़ी सी चौकी पर जाजम बिछाकर सब लोग बैठ जाते थे. एक थैली में से मजीरे जिन्हें हम छमछमा कहते थे सब बच्चों के हाथ में दे दिए जाते थे, बड़े मजीरों की जोड़ी, ढोलक और खडताल पुजारियों के सुपुर्द कर दी जाती थीं और उसी वक्त ताऊ जी अंदर से निकालकर लाते थे वो चीज़ जो मुझे इस जम्मे में सबसे ज़्यादा आकर्षित करती थी. वो था एक पुराना हारमोनियम, जिसे सिर्फ और सिर्फ जम्मे के दिन ही ओरे (बिल्कुल अंदर के कमरे) में से निकला जाता था. मैं बेमन से छमछमे बजाता रहता था मगर मेरी निगाह हारमोनियम पर अटकी रहती थी. मैं बैंजो तो बजाता ही था इसलिए हारमोनियम बजाना मेरे लिए बहुत मुश्किल नहीं था मगर फिर भी जो चीज़ हमारी पहुँच में नहीं होती वो हमें ज़्यादा आकर्षित करती है. रात भर में कई बार जम्मा देने वाले पुजारियों के लिए चाय बनती और बार बार वो चिलम भी सुलगाते. ऐसे में मुझे मौक़ा मिल जाता हारमोनियम बजाने का. हारमोनियम बजाने वाले पुजारी जी चिलम सुलगाने लगते और कोई भजन शुरू हो जाता तो मैं आँखों ही आँखों में ताऊ जी से पूछता कि हारमोनियम मैं संभाल लूं? और वो आँखों ही आँखों में हामी भर देते थे और इस तरह मैं हारमोनियम संभाल लिया करता था. एक दो भजन तक मैं हारमोनियम बजाता रहता, फिर तो पुजारी जी को सौंपना ही पड़ता. ये जम्मा रात भर चलता था. सुबह सुबह सभी पुजारी वापस सुजानदेसर लौट जाया करते.... घर के सब लोग रात भर जागने के कारण अक्सर दूसरे दिन आराम करते मगर मेरे लिए वो दिन आराम करने का नहीं होता था क्योंकि उसके बाद तो वो हारमोनियम फिर से ओरे में रखा जाना होता था.... वही एक दिन होता था जब मैं पूरी आजादी के साथ हारमोनियम बजा सकता था. इस प्रकार हारमोनियम पर भी मेरा हाथ थोड़ा साफ़ होने लगा था. लेकिन ये सब तभी हो पाता था जब छुट्टियों में ताऊजी परिवार सहित बीकानेर में रहते थे.

उन दिनों सेवानिवृत्ति की उम्र ५८ वर्ष थी. अचानक राजस्थान सरकार ने सेवानिवृत्ति की उम्र घटा कर ५५ वर्ष कर दी. हजारों लोग जो ५५ और ५८ के बीच के थे..... एक साथ घर भेज दिए गए. इन हजारों लोगों में मेरे ताऊजी भी शामिल थे. अब उन्हें बीकानेर लौटना ही था.ताऊ जी के तीन बड़े बेटे पहले से ही बीकानेर में रहने लगे थे, अब ताऊजी, ताई जी, गणेश भाई साहब, विमला, रतन, निर्मला और मग्घा को लेकर बीकानेर आ गए थे. विमला, निर्मला और मग्घा का दाखिला महिला मंडल स्कूल में और रतन का दाखिला सादुल स्कूल में करवा दिया गया मगर ताऊजी के आमदनी के स्रोत बहुत सीमित हो गए थे.बहुत सिद्धांतवादी रहे वो जीवनभर. उन्होंने कभी भी ट्यूशन व्यवस्था को बढ़ावा नहीं दिया. बोर्ड से उनके पास इम्तहानों की कॉपियां आया करती थीं जो सेवानिवृत्ति के बाद भी चालू रह सकती थी मगर नौकरी के आखिरी दिनों में पदमपुर में अपनी ही एक औलाद के हाथों वो कुछ इस तरह छले गए कि उनके हाथ से आमदनी का ये स्रोत हमेशा के लिए छिन गया. अब उन्होंने एल एल बी की अपनी डिग्री को झाड़ पोंछकर निकाला और वकालत शुरू कर दी. बड़े ही जीवट के इंसान थे वो. बहुत सी भाषाओं पर उनकी बहुत अच्छी पकड़ थी. वो संस्कृत, पालि और प्राकृत के भी बहुत अच्छे विद्वान थे और उनका हस्तलेख ऐसा सुन्दर था कि उसके सामने छपे हुए शब्द भी फीके लगते थे. शाम के वक्त मैं देखता वो पालि और प्राकृत भाषाओं के हस्तलिखित ग्रंथों की अपने हाथ से हूबहू वैसी ही प्रतियां बनाया करते थे.......उन्होंने मुझे बताया कि बीकानेर में अगर चंद नाहटा जी की पांडुलिपियों की एक लायब्रेरी है. वो उस लायब्रेरी में मौजूद ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ बनाकर रख रहे हैं ताकि शोधकर्ताओं को मूल पांडुलिपियों को छूना न पड़े.

ताऊजी जब छुट्टियों में बीकानेर आते थे तो रतन, निर्मला और मग्घा तीनों अक्सर या तो मेरे घर रहते थे या फिर मैं उनके घर मगर रतन तो हर हाल में मेरे साथ ही रहता था. उन दिनों पता नहीं कैसे बीकानेर में मच्छर नाम की कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी. गर्मी में मैं और रतन अपने मालिये (छत पर बना कमरा) की छत जिसे तिप्पड कहते हैं उसपर सोया करते थे.........रात को जब हम दोनों अपने बिस्तर उठाये तिप्पड पर पहुँचते, चारों तरफ बिल्कुल शान्ति होती तो कई बार उस शान्ति को चीरती हुई एक सुरीली आवाज़ हमारे कानों से टकरा जाती और हम एक साथ या तो चिल्ला पड़ते “जगदीश जी”....... या फिर और भी ज़ोर से चिल्ला पड़ते  “सोहनी बाई”. और बिस्तर तिप्पड पर जैसे तैसे फेंककर नीचे उतरते, एक दरवाज़े पर ताला लगाते और चल पड़ते शब्दभेदी बाण की तरह उस आवाज़ की दिशा में और सचमुच हम कभी रास्ता नहीं भूलते थे.........और जा पहुँचते थे अपने लक्ष्य तक.

उन दिनों जोधपुर के एक कलाकार थे मोहनदास निम्बार्क जो जगह जगह घूम घूमकर रामदेव जी की कथा किया करते थे. अच्छा गाते थे मोहनदास जी मगर हमें जो चीज़ उनके गाने में चुम्बक की तरह खींचती थी वो थी उनके साथ बजने वाले क्लेरियोनेट की मधुर आवाज़. हम लोग जिस दिन पहली बार ये कथा सुनने पहुंचे तो देखा.... दरम्याने कद का दुबला सा एक इंसान आखें बंद किये बड़ी तन्मयता से क्लेरिओनेट जैसे मुश्किल साज़ पर कुछ इस तरह अंगुलियां घुमा रहा है, जैसे कोई कुशल तैराक बड़े सुकून से किसी स्वीमिंग पूल में तैर रहा हो. मैं और रतन मंत्रमुग्ध क्लेरिओनेट की उस मधुर आवाज़ को सुनते रहे. थोड़ी देर में कलाकार ने आँखे खोलीं. हम सबसे आगे बैठे हुए थे. आँखें खोलते ही उनकी नज़र हमारे मंत्रमुग्ध चेहरों पर पड़ी.... वो मुस्कुरा पड़े. हम जैसे निहाल हो गए........ सुबह चार बजे तक हम वो कथा सुनते रहे. जब कथा समाप्त हुई तो क्लेरिओनेट के वो सुरीले कलाकार उठकर हमारे पास आये क्योंकि वो समझ गए थे कि हम उन्हें सुनने के लिए ही बैठे थे. अब हमारा परिचय हुआ. उन्होंने बताया कि उनका नाम जगदीश है और वो एक बैंड में काम करते हैं....... हमारे पास तो अपना परिचय देने के लिए था ही क्या? सिवा इसके कि हम दोनों एक अच्छे घर के बच्चे हैं और पढ़ाई कर रहे हैं. बस उस दिन से जब भी जगदीश जी की क्लेरिओनेट की मधुर तान हमारे कानों में पड़ती थी हम भागे चले जाते थे उन्हें सुनने के लिए और अक्सर उनसे बात होती थी. ये दोस्ती जो मेरे छात्र जीवन में शुरू हुई वो तब तक चलती रही जब तक जगदीश जी परिस्थितियों से जूझते हुए क्लेरिओनेट जैसे मुश्किल साज़ को अपनी साँसों की भेंट चढाते रहे..... आखिरकार उसी क्लेरिओनेट ने बड़ी बेरहमी से उनकी साँसों को लील लिया जिसपर तैरती हुई उनकी अंगुलियां उस बेजान क्लेरिओनेट को साक्षात् सरस्वती में बदल देती थीं.......मगर अफ़सोस.....मैं उनके लिए बहुत कुछ करना चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया.


मैंने जब आकाशवाणी ज्वाइन किया ....और १९७७ में बीकानेर ट्रान्सफर होकर आया तो बहुत कोशिश की कि जगदीश जी को किसी तरह स्टाफ आर्टिस्ट के तौर पर ले लिया जाए मगर मैं कुछ नहीं कर पाया क्योंकि तब तक वो बहुत कमज़ोर हो गए थे और विभाग की अपनी कुछ सरकारी किस्म की मजबूरियाँ थीं. आप शायद जानते होंगे कि इस तरह के साज़ बजाने वालों के फेफड़ों पर बहुत ज़ोर पड़ता है....उनके लिए ज़रूरी है कि वो अच्छा और संतुलित खाना खाएं वरना टी बी के कीटाणु तो हर वक्त वातावरण में रहते हैं, जैसे ही शरीर की शक्ति कम हुई वो तुरंत उस शरीर को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं. आज टी बी का इलाज बहुत आसान है, बहुत मुश्किल तब भी नहीं था मगर अच्छा खाना उस वक्त भी इलाज की पहली शर्त थी और आज भी है........आखिर वो सुरीला कलाकार अपने उस साज़ की ही भेंट चढ गया जिसे वो अपनी ज़िंदगी से ज्यादा प्यार करता था. मुझे आज भी याद है, जैसी कि मेरी आदत थी कि मैं हर साज़ को बजाने की कोशिश किया करता था, छात्र जीवन में, एकाध बार मैंने जगदीश जी से क्लेरिओनेट लेकर बजाने की कोशिश की तो उन्होंने क्लेरिओनेट देने से मना तो नहीं किया लेकिन वो बोले..... “नहीं महेन्द्र जी ....आपके लिए और बहुत साज़ हैं..... आप कुछ और बजाइए.... ये साज़ ज़िंदगी का साज़ नहीं.... मौत का साज़ है”. उस वक्त मैं कुछ नहीं समझा था कि जगदीश जी ने ऐसा क्यों कहा मगर थोड़ा बड़ा हुआ तो बहुत से फूँक का साज़ बजाने वाले कलाकारों का हश्र देखा तो उनकी बात समझ में आई.

दूसरी आवाज़ जिसे सुनकर मैं और रतन खुशी से चिल्ला पड़ते थे......वो थी सोहनी बाई की आवाज़. दुबली पतली काया. चेहरे पर हल्का सा घूंघट और हाथ में तम्बूरा लिए हुए बड़ी सादगी से तान खींचती हुई सोहनी बाई.......हम लोग आवाज़ की सीध में भागते हुए जा पहुँचते थे उस जागरण में जहां सोहनी बाई गा रही होती थीं..... लगता था मीरा फिर से अवतार लेकर आ गयी हों इस धरती पर. सच बताऊँ मेरे जीवन में तीन लोगों में मुझे मीरा के दर्शन हुए हैं. जुथिका रॉय जी, सोहनी बाई और श्रीमती महादेवी वर्मा. महादेवी जी के साथ अपने अनुभव मैं तब लिखूंगा जब कि आकाशवाणी इलाहाबाद की बातें लिखूंगा........ सोहनी बाई की आवाज़ में कोई खास हरकत या गायकी नहीं थी, बहुत ही सीधा सीधा गाती थीं वो मगर दो चीज़ें ऐसी थीं जो उनके गाने को खास बना देती थीं. एक उनकी आवाज़ में ग़ज़ब का मिठास था और दूसरा समर्पण..... वो सिर्फ लोक भजन गाती थीं और उनका भजन सुनकर ऐसा लगता था कि ईश्वर के प्रति वो इस क़दर समर्पित हो गयी हैं कि स्वयं उनकी आत्मा परमात्मा का हिस्सा हो गयी हैं. मेरे कानों में आज भी उनका वो भजन गूँज रहा है “म्हाने अबके बचा ले म्हारी माय बटाऊ आयो लेवाने.....”  सीधा सीधा शब्दार्थ लें तो एक बेटी अपनी माँ से कह रही है कि हे माँ तेरा दामाद मुझे लेने आ गया है तू मुझे इस बार बचा ले...... मगर दरअसल ये माँ, दामाद और बेटी, ये सब तो प्रतीक हैं. मृत्यु के आगमन पर इस दुनिया से जाती हुई आत्मा वेदना से तडपती है और कहती है... कोई तो मुझे मृत्यु से बचा ले.

मैं और रतन सोहनी बाई के भजन सुनने बैठते तो कब सुबह हो जाती हमें पता ही नहीं चलता. इसके बरसों बाद १९७७ में जब मैं उदयपुर से ट्रान्सफर होकर बीकानेर आया और सबसे पहली बार सोहनी बाई को रिकॉर्ड किया तो मुझे लगा मेरा जीवन धन्य हो गया...... न कोई आलेख, न कोई कागज़ का टुकड़ा, न कोई लंबा चौड़ा लवाज़मा. बस हाथ में एक तम्बूरा और एक ढोलक.... कभी कभी दयाल पंवार जैसे कोई कलाकार हारमोनियम लेकर बैठ गए तो ठीक नहीं तो किसी साज़ की मांग नहीं.....  हर भजन के आखिर में या तो आता था “कहे कबीर सुनो भाई साधो....” या फिर “मीरा के प्रभु गिरधर नागर.......” अब ये पूछने की तो गुंजाइश ही नहीं रहती कि ये किसका भजन है. एक बार मैंने पूछा “बाई आपको इतने भजन याद कैसे रहते हैं? ये जो आपने अभी गाया वो मीरा का भजन था?” वो बड़ी सरलता से बोलीं.... “हुकुम.... मीरा बाई रो ई है (हुकुम मीरा बाई का ही है.)मैंने कहा “लेकिन कभी सुना नहीं ये भजन. वो थोड़ा घबरा गईं और बोलीं “अन्दाता म्हनै कीं ठा नईं है (अन्नदाता मुझे कुछ भी पता नहीं है) अब मैं चकराया. मैंने फिर भी मुलायमियत से कहा “बाई कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप खुद भजन लिख लेती हैं और मीरा बाई और कबीर दास जी के नाम से गा देती हैं ....घूंघट की ओट से वो हलके से मुस्कुराईं और बोलीं “म्हारी काईं औकात सा ? मैं तो साफ़ अनपढ़ हूँ.म्हने दसतक करना ई कोनी आवै. हूँ काईं लिख्सूं ? (मेरी क्या औकात साब? मैं तो बिल्कुल अनपढ़ हूँ. मुझे तो दस्तखत करने भी नहीं आते. मैं भला क्या लिख सकती हूँ?) मैंने कहा “सच सच बताइये कि फिर आखिर बात क्या है?” तो वो हाथ जोड़कर बोलीं  “भगवान री सौगन म्ह्नै कीं ठा नईं है. हूँ तंदूरो नईं उठाऊँ जद तईं म्हनै कीं पतों नईं रैवे कि मैं काईं गासूं पण तंदूरो उठाता ईं बा मावडी या बो बाबो जाणै हिवडेमें काईं उपजावै के आप ऊं आप जिको म्हारै मूंडै मैं आवै हूँ गा दूं.... (जब तक मैं तंबूरा नहीं उठाती हूँ, मुझे कुछ पता नहीं होता कि मैं क्या गाऊंगी मगर बस तम्बूरा हाथ में लेते ही या तो वो माँ(मीरा) या वो बाबा(कबीर) हिवडे में उतर के जो कुछ उसमें उपजा देते हैं, मैं गाती चली जाती हूँ......) हुकुम जिकी चीज नै हूँ समझूं ई नईं बा म्हारी कियां हूँ सकै? बा या तो बीं मावडी री हू सकै या फेर बीं बाबै री (हुकुम जिस चीज़ को मैं समझ ही नहीं सकती वो चीज़ मेरी कैसे हो सकती है? वो या तो उस माँ मीरा बाई की हो सकती है या फिर उस बाबा कबीर दास की). उनकी आवाज़ से लगा उनकी आँखें छलछला आई हैं. मुझे लगा इस विषय में और कुछ कहना उनका दिल दुखाना होगा. वैसे भी मीरा बाई तो राजस्थान की धरती पर पैदा हुईं थीं मगर देश के हर हिस्से में मीरा बाई के भजन लोक कलाकारों द्वारा अलग अलग रूप में गाये जाते रहे हैं...... कौन कह सकता है कि कौन कौन से भजन उनके खुद के रचे हुए हैं और कौन कौन से भजन महज़ उनके ऊपर घनघोर आस्था रखने वाले लोक कलाकारों के हृदयों ने रच दिए हों. मैंने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और.....मुझे लगा, मुझे आज मीरा बाई के दर्शन हुए हैं.



आज वो सोहनी बाई हमारे बीच नहीं हैं.... राजस्थान के बाकी केन्द्रों पर तो उनकी शायद ही कोई रिकॉर्डिंग होगी, पता नहीं आकाशवाणी बीकानेर पर भी उनके भजनों के कितने टेप्स इरेज़ कर, उनपर कमर्शियल रिकॉर्ड कर लिए गए होंगे क्योंकि अब तो आकाशवाणी के हर केन्द्र पर पैसा कमाने पर ही ज़ोर दिया जाता है ना? आकाशवाणी कभी कला और कलाकारों का अवश्य ही पोषक रहा है मगर पिछले काफी समय से ज़्यादातर इस पर अधकचरे अफसर ही काबिज रहे हैं, जिन्हें न कला की समझ होती है और न ही अफसरी की तमीज़ वरना डेढ़ डेढ़ घंटे तक के मेरे पचासों ऐसे नाटक एक ही दिन में श्याम प्रभू एरेज़ नहीं करवा देते जिन्हें तैयार करने में कोटा के ३०-४० कलाकारों ने एक एक महीने का वक्त दिया था . खैर...... ये कहानी फिर सही.........

हां...... अब भी जब कभी बीकानेर जाता हूँ और इत्तेफाक से रतन भी श्री गंगानगर से आया हुआ होता है, हम दोनों छत पर जाकर लेटते हैं तो दिल करता है, काश एक बार फिर जगदीश जी की क्लेरिओनेट की मधुर आवाज़ या फिर सोहनी बाई की ह्रदय के अंदर तक उतर जाने वाली तान सुनाई दे जाए........... मगर बीछवाल औद्योगिक क्षेत्र में बने हमारे नए घर की छत पर पूरी रात या तो कारखानों की खर्र खट खर्र खट सुनाई देती है या फिर पास ही बने लालगढ़ रेलवे स्टेशन पर खड़ा कोई डीज़ल इंजन बीच बीच में चीख पड़ता है.

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Wednesday, April 4, 2012

कैक्‍टस के मोह में बिंधा एक मन-7: महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

रेडियोनामा पर जानी-मानी रेडियो-शख्सियत महेंद्र मोदी रेडियोनामा पर अपनी जीवन-यात्रा के बारे में बता रहे हैं। तो आज सातवीं कड़ी में पढिए कुछ मार्मिक यादें।


जिस उम्र में स्कूल में पेन-पेन्सिल खो जाना या होम वर्क न कर पाने पर अध्यापक की डांट पड़ जाना या फिर किसी खिलौने का टूट जाना बहुत बड़ी दुर्घटना लगती है, उस उम्र में मैंने अपने प्यारे दोस्त कल्याण सिंह को इस तरह खो दिया था. मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये आखिर हुआ क्या है? मौत से ये मेरा पहला आमना-सामना था.......नहीं नहीं..... शायद ये कहना ठीक नहीं होगा कि मौत से ये मेरा पहला साबका था क्योंकि सरदार-शहर के कसाइयों के उस मोहल्ले में,कोठरी में बंद झुण्ड में से छांट कर लाने से लेकर ज़िबह किये जाने और जान निकलने तक लम्हा लम्हा मरते हुए उन बेजुबान जानवरों को अपनी खिड़की से न चाहते हुए भी मैं रोज देखा करता था.......वो छटपटाते थे मौत के पंजों से बचने के लिए मगर........मौत अट्टहास कर उठती थी और वो तब तक चीखते रहते थे जब तक कि .........आधी कटी गर्दन से उबलता हुआ खून धरती को पूरी तरह भिगो नहीं देता था.......कुछ ही देर में उनकी आँखें पथरा जाती थीं और कुछ हाथ तैयार हो जाते थे गर्दन को धड से अलग कर खाल उतारने के लिए. पास की कोठरी में बंद बाकी बकरे जो इतनी देर तक सांस रोके उस कट रहे बकरे की चीखें सुन रहे होते.... अब मिमियाने लगते थे....इसी उम्मीद में कि शायद... आज उनकी जान बच गयी......

न जाने क्या हो गया था मुझे, जब भी किसी कसाई के घर में कोई बकरा कटता, उसकी हर चीख के साथ मेरी आँखों के सामने कल्याण सिंह का चेहरा उभर आता और मुझे लगता कुछ हाथ उसे कसकर पकडे हुए हैं और दो हाथ धीरे धीरे उसका गला रेत रहे हैं और.... और..... उन कई जोड़ा हाथों में से एक जोड़ा हाथ मेरे भी हैं.........मैंने ही थाम रखा है उसके जिस्म को और कोई रेत रहा है उसका वो मासूम गला जिसने अपने जीवन के १२ सावन भी नहीं देखे थे....... और मैं चौंक कर जाग जाता था..... देखता मैं छत कि मुंडेर पर खड़ा हूँ और मुझे माँ और पिताजी ने दोनों तरफ से थाम रखा है. मैं पूछता “......क्या हुआ?” पिताजी कहते “कुछ नहीं, तुम सो जाओ.” और मैं अपने बिस्तर पर आकर सो जाता.... हर रोज यही सिलसिला..... मैं आधी रात को उठकर चल पड़ता था उस ओर जिधर से कल्याण सिंह की चीखें मुझे बुलाती थीं ........ माँ और पिताजी परेशान हो गए थे क्योंकि जिस छतपर हमलोग सोते थे उसकी दीवारें बहुत छोटी थीं. पूरी रात वो दोनों जागते रहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं ऐसा न हो, उनकी आँख लग जाए और नींद में चलते हुए मैं उस छोटी सी दीवार से नीचे गिर जाऊं.

पिताजी मुझे लेकर स्कूल गए.....स्कूल के प्रधानाध्यापक जी ने बहुत स्नेह से मेरी पीठ पर हाथ रखा और कहा “बेटा तुम तो बहुत बहादुर बच्चे हो, जाओ, अपनी क्लास में जाओ.” मैं अपनी क्लास में पहुंचा, देखा सबसे आगे की लाइन में दूसरी डेस्क पर बैठा हुआ कल्याण सिंह मुस्कुराते हुए मुझे बुला रहा है. मुझे लगा “मैं यूं ही डर रहा था... कल्याण सिंह तो वहीं बैठा है ... अपनी पुरानी जगह पर....” मैं डेस्क पर पहुंचा तो अचानक कल्याण सिंह चीख पड़ा...... ये चीख बिल्कुल वैसी ही थी जैसी मैं हर रोज अपने घर की खिड़की में खड़े होकर अपने आस पास के घरों में से आते हुए सुनता था.... मुझे लगा कोई कल्याण सिंह के गले पर छुरी फेर कर उसे रेत रहा है और कल्याण सिंह के गले से एक दबी हुई चीख निकल रही है..... मुझे चक्कर सा आया और मैं बेहोश होकर गिर पड़ा.

मुझे होश आया तो मैं घर पर था. पिताजी माँ से कह रहे थे “तुम लोग बीकानेर चले जाओ, मुझे नहीं लगता कि महेन्द्र को इन हालात में यहाँ रहना चाहिए.” मैं आँखें बंद किये हुए ये सब सुन रहा था.......पता नहीं कब फिर मेरी आँख लग गयी. जब आँख खुली तो देखा सुबह का समय था वो.... मैं शायद पूरी रात सोता रहा था मगर आज भी याद है मुझे... मैं उस पूरी रात कल्याण सिंह के साथ था, कभी स्कूल के प्ले ग्राउंड में, कभी प्रार्थना स्थल पर और कभी क्लास में उस छोटे से डेस्क पर उस से बिल्कुल सटकर बैठे हुए.........मुझे बाद में पिताजी ने एक बार बताया कि दरअसल उस पूरी रात में बिस्तर पर नहीं सोया था, इधर से उधर टहलता रहा था.

आखिरकार मुझे लेकर मेरी माँ बीकानेर लौट आईं. भाई साहब पहले से ही यहाँ ताऊजी यानि ‘बा’ के घर राम भाई साहब और गायत्री भौजाई के पास रह रहे थे. मेरा दाखिला फिर से गंगा संस्कृत स्कूल में करवा दिया गया...... करनी सिंह, आशुतोष कुठारी झंवर लाल व्यास और दूसरे दोस्तों ने देखा कि मैं बदल गया हूँ, बिल्कुल बदल गया हूँ. इस दुर्घटना ने एक ही झटके में, बड़ी बेरहमी से जैसे मुझसे मेरा बचपन छीन लिया था. ऐसे में मुझे बहुत बड़ा मानसिक सहारा दिया, मेरे प्रधानाध्यापक पंडित गँगाधर शास्त्री जी ने. उन्होंने देखा कि खेलकूद में मेरी रुचि बिल्कुल खत्म हो गयी थी और मैं बहुत गंभीर रहने लगा था. उन्होंने मेरे बदले हुए स्वभाव को समझते हुए, मुझे कुछ बहुत अच्छी अच्छी पुस्तकें दीं और कहा “देखो बेटा, जब मन बहुत अशांत हो तो ये पुस्तकें पढ़ा करो...... मन को बहुत शान्ति मिलेगी.” और सचमुच उन पुस्तकों ने मुझे बहुत संभाला. पुस्तकें मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गईं. पुस्तकें पढ़ने की ऐसी आदत लग गयी कि अपने ३६ बरस के कार्यकाल में जिस जिस केन्द्र पर मेरी पोस्टिंग रही, मैंने वहाँ की लायब्रेरी को पूरी तरह से पढ़कर ही छोड़ा. इसी बीच पण्डित जी ने मुझे तैयारी करवा कर संस्कृत की दो परीक्षाएं और पास करवा दीं, “संस्कृत प्रबोध” और “संस्कृत विनोद”. इस तरह सातवीं क्लास में मैंने संस्कृत में स्नातक स्तर की परीक्षा पास कर ली थी. यहीं से भाषाओं के प्रति मेरे मन में रुचि जागनी शुरू हो गयी. आगे जाकर मैंने बाक़ायदा उर्दू और पंजाबी सीखी, टूटी फूटी रूसी अपने “बा” की मदद से और जर्मन अपने इलाहाबाद प्रवास के दौरान विभास चंद्र की सहायता से सीखी.

सातवीं क्लास पास करने के बाद मैंने एक बार फिर स्कूल बदला. घर में सबकी राय थी कि चूंकि नौवीं क्लास में मुझे साइंस लेनी है, बेहतर ये होगा कि मैं आठवीं में ही सादुल स्कूल ज्वाइन कर लूं ताकि एक साल में मैं अपने आपको नए स्कूल के वातावरण में ढाल सकूं. स्कूल बदलना मुझे हमेशा तकलीफ देता था, इस बार भी मैं थोड़ा परेशान हुआ, मगर इत्तेफाक से श्याम सुन्दर मोदी, श्याम प्रकाश व्यास, ब्रजराज सिंह जैसे कुछ पुराने दोस्त जो मेरे साथ राजकीय प्राथमिक पाठशाला संख्या ९ में थे, यहाँ मुझे मिल गए थे. इनके साथ साथ शशि कान्त पांडे और हरि प्रसाद मोहता जैसे कुछ नए दोस्त भी बन गए. आगे जाकर यही शशि आकाशवाणी में भी न केवल मेरा सहकर्मी बना बल्कि, न जाने किस किस तरह की कितनी मुसीबतों में उसने रेडियो के लोगों के मिज़ाज के बिल्कुल खिलाफ एक सच्चे दोस्त की तरह मेरा साथ दिया. मैं जब आकाशवाणी, बीकानेर में था तो क़मर भाई ने एक बार कहा था, रेडियो में सहकर्मी तो खूब मिलेंगे तुम्हें, मगर रेडियो में दोस्त ढूँढने की कोशिश कभी मत करना. जब भी ऐसा करोगे, याद रखना एक गहरी चोट खाओगे. क़मर भाई के बारे में विस्तार से आगे चलकर लिखूंगा, जब आकाशवाणी बीकानेर की बात चलेगी, अभी तो यही कहूँगा कि उन्होंने बिल्कुल सही सीख दी थी मुझे. ३६ साल की नौकरी में, कई बार क़मर भाई की सीख को भुलाकर भी मैं अपने रेडियो के सहकर्मियों में से कुल २० दोस्त भी नहीं जुटा सका.

इसी बीच एक और तब्दीली आई मेरी ज़िंदगी में. मेरे छोटे मामाजी जो पहले जयपुर में रहते थे, अब बीकानेर आ गए थे. उनका दिमाग तकनीकी कामों में बहुत चलता था. उन्होंने बीकानेर आकर एक स्टील फ़र्नीचर का कारखाना लगाया......आर सी ए इंडस्ट्रीज़. ये कारखाना मेरे स्कूल और घर के बीच में पड़ता था. मामाजी के कारखाने में अच्छा खासा स्टाफ था मगर मामाजी खुद भी हमेशा मशीनों से जूझते रहते थे. स्कूल से लौटते radio-tower हुए मैं अक्सर उनके कारखाने में रुक जाया करता था और वो जो भी काम कर रहे होते थे, मैं उस काम में उनका हाथ बंटाने लगता. मुझे बड़ा अच्छा लगता था मशीनों को खोलना, उन्हें ठीक करना और फिर वापस वैसे का वैसा जोड़ देना. उन दिनों घर में अक्सर ये चर्चा चलती थी कि नौवीं कक्षा में मुझे क्या विषय लेने हैं.मामाजी ने सलाह दी कि मुझे गणित विषय लेकर इंजीनियरिंग में जाना चाहिए क्योंकि मेरा दिमाग इस तरह के कामों में अच्छा चलता था. इस तरह मामाजी के उस कारखाने में कभी कभार उन मशीनों से जूझते हुए मेरे जीवन की दिशा तय होने लगी. मैंने नौवीं में गणित ली भी और इंजीनियरिंग में दाखिला भी लगभग ले ही लिया था मगर होनी को तो मुझे माइक्रोफोन के सामने लाकर खड़ा करना था जहां मुझे अपने अनगिनत श्रोताओं से जुड़ना था. मगर मशीनों में इस रुचि ने मुझे रेडियो के मेरे पूरे जीवन में बहुत से नए नए अनुभव भी दिए, कई बार लताड़ भी पड़वाई और कई अवसरों पर शाबाशी भी दिलवाई. हालाँकि जीवन भर अपने अधिकाँश इंजीनियर साथियों से मेरे अच्छे सम्बन्ध रहे मगर मशीनों से जूझ जाने की इसी आदत की बदौलत मुझसे पंगा लेने वाले कुछ इंजीनियरों को कई बार मैंने मज़ा भी चखाया. यहाँ एक मज़ेदार किस्सा याद आ रहा है जो हालाँकि मुझे कुछ आगे जाकर लिखना चाहिए था, जबकि मैं आकाशवाणी बीकानेर के अपने कार्यकाल की बात करता मगर कहीं ऐसा न हो कि एक बार रेडियो ज्वाइन करने तक पहुँच कर कैक्टस के काँटों में इतना उलझ जाऊं कि ऐसी हल्की फुल्की बातें ज़ेह्न से ही उतर जाएँ.

ये बात है सन १९७७-७८ की. मैं आकाशवाणी, बीकानेर में ट्रांसमिशन एक्जेक्यूटिव था. हमारे स्टेशन इंजीनियर थे श्री घनश्याम वर्मा. पूरे सफ़ेद बाल, गोरे चिट्टे, कड़क आवाज़. कुल मिलाकर प्रभावशाली व्यक्तित्व. आकाशवाणी में जहां प्रोग्राम स्टाफ और इंजीनियरिंग स्टाफ कंधे से कंधा मिलाकर काम करता आया है वहीं कभी कभी कुछ ऐसे अफसर आ जाते हैं जो इंजीनियरिंग और प्रोग्राम स्टाफ के बीच खाई पैदाकर अपने आपको महान साबित करने की कोशिश करते हैं. इत्तेफाक से वर्मा साहब उसी तरह की ज़ेहनियत के इंसान थे. मशीनों के मामले में वो आकाशवाणी का सबसे बुरा समय था. जापान के निप्पन रिकॉर्डर जा रहे थे और थोक के भाव न जाने किस किस स्तर पर रिश्वत खा खिलाकर उसके बलबूते पर एकदम कचरे से भी गए गुज़रे बैल के रिकार्डर और डैक आकाशवाणी में भर दिए गए थे. बेचारे इंजीनियरिंग एसिस्टेंट और टेक्नीशियन रात और दिन उन्हें ठीक करने में ही जुटे रहते थे. हम प्रोग्राम के लोग इन मशीनों पर काम करते करते इनकी बहुत सी कमजोरियों को जान गए थे. एक दिन एक मशीन कुछ गडबड कर रही थी. बहुत माथापच्ची चल रही थी. वर्मा साहब भी वहीं मौजूद थे कि न चाहते हुए भी मेरे मुँह से एक जायज़ सी राय निकल गयी....... बस मेरा बोलना था और वो चिल्ला पड़े “आप चुप रहिये मिस्टर मोदी, ये इंजीनियरिंग का मामला है, इसमें अपनी टांग मत अड़ाइये.” मेरा चेहरा उतर गया......पन्द्रह बीस लोगों के बीच उन्होंने मेरा पानी उतार दिया था. मैंने धड़ाम से स्टूडियो का दरवाज़ा बंद किया और बाहर आ गया. शुरू से मिज़ाज थोड़ा गर्म ही रहा...... इस तरह बेइज्ज़त होना बहुत खल गया और मैं वर्मा साहब को झटका देने का रास्ता तलाशने लगा.

हम लोगों को रोज शाम को ५.५५ पर दिल्ली से और ६.०० बजे जयपुर से आनेवाला कार्यक्रम विवरण रिकॉर्ड करना होता था ताकि अगर कोई महत्त्वपूर्ण दिल्ली या जयपुर से आनेवाला है तो हम अपने कार्यक्रमों को निरस्त कर उन कार्यक्रमों को रिले करने का निर्णय ले सकें.कार्यक्रम विवरण की ये रिकॉर्डिंग डबिंग रूम में की जाती थी जिसमें तीन रिकार्डर लगे रहते थे. हर स्टूडियो की लाइन इस रूम में आती थी और एक कंसोल पर कुछ बटन लगे हुए थे जिनको दबाकर आप किसी स्टूडियो में चल रहे प्रोग्राम को रिकॉर्डर पर लेकर उसे रिकॉर्ड कर सकते थे. इस कंसोल की एक कमज़ोरी मैंने पकड़ी और बस उस कमज़ोरी ने मुझे बहुत अच्छा मौक़ा दे दिया वर्मा साहब को झटका देने का. हुआ ये कि अचानक एक दिन ६.०० बजे जब आकाशवाणी बीकानेर से कार्यक्रम विवरण पढ़ा जा रहा था, धीमे स्वर में आकाशवाणी, बीकानेर के उद्घोषक की आवाज़ के पीछे पीछे न समझ में आने वाला कोई कार्यक्रम चल रहा था. कंट्रोलरूम में दौड भाग मच गयी मगर जैसे ही कार्यक्रम विवरण खत्म हुआ, पीछे चलनेवाला कार्यक्रम भी रुक गया. इंजीनियर्स ने वार्ता स्टूडियो, जहाँ से प्रसारण होता था, का माइक बदल दिया ये सोचकर कि शायद माइक में कोई समस्या हो. अगले दिन फिर मेरी शाम की ड्यूटी थी. कार्यक्रम विवरण का समय हुआ और फिर उसके पीछे पीछे न समझ में आने वाला कुछ प्रसारित होने लगा. कंट्रोलरूम के इंजीनियर्स ने वर्मा साहब को फोन किया.... वो बोले “अभी एक बार स्टूडियो बदल दो तब तक मैं आता हूँ.और हाँ... मेरे लिए गाड़ी भेज दो.”ये सब होते होते पांच मिनट का कार्यक्रम विवरण समाप्त हो गया. प्रसारण को वार्ता स्टूडियो से नाटक स्टूडियो में स्थानांतरित कर दिया गया. वर्मा साहब तशरीफ़ ले आये और आते ही वार्ता स्टूडियो को पूरा खुलवा डाला. स्टूडियो के कनेक्शन उधेड़ते उधेड़ते रात के ग्यारह दस हो गए.... सभा समाप्त हो गयी, मैं और उद्घोषक घर के लिए रवाना हो गए मगर वर्मा साहब और उनकी टीम के ५-७ लोग रात भर स्टूडियो में लगे रहे. दूसरे दिन मेरी दिन में ड्यूटी थी.... जब दस बजे ऑफिस पहुंचा तो सुना कि वर्मा साहब रात भर स्टूडियो में थे, सब कुछ ठीक हो गया है और अब कोई गडबड नहीं होगी. उस दिन तो गडबड होनी भी नहीं थी क्योंकि मेरी तो दिन की ड्यूटी थी और ५ बजे मुझे तो घर चले जाना था. बड़ी शान से वर्मा साहब ने हमारे डायरेक्टर साहब को बताया कि कुछ टेक्नीकल गडबडी थी वार्ता स्टूडियो में, उसे ठीक कर दिया गया है.

दो दिन सब कुछ ठीक रहा. दो दिन बाद मेरी ड्यूटी फिर शाम की लगी और जैसे ही ६.०० बजे.......आकाशवाणी, बीकानेर के उद्घोषक की आवाज़ के पीछे पीछे कुछ अस्पष्ट और न समझ आने वाले शब्द सुनाई देने लगे. कंट्रोलरूम फिर परेशान. वर्मा साहब भी रेडियो सुन रहे थे......उन्होंने भी वो सब कुछ सुना.....५ मिनट गुज़र गए.... अगले दिन डायरेक्टर साहब ने उन्हें बुलाकर पूछा तो बोले “शायद स्टूडियो बिल्डिंग और ट्रांसमीटर के बीच की लाइन में लीकेज है. लगता है उसकी खुदाई करवानी पड़ेगी.” डायरेक्टर साहब बोले “देखिये ये इंजीनीयरिंग का मामला है, क्या करना है, क्या नहीं करना है वो आप जानें.... मगर जैसे भी हो जल्दी से जल्दी इसे ठीक करवाइए.” उस मीटिंग में गर्दन झुकाए मैं भी बैठा हुआ था.... मन ही मन मुझे मज़ा तो आ रहा था मगर न जाने कैसे मन के भाव चेहरे पर उभर आये. मेरे डायरेक्टर साहब ने पूछा “क्या हुआ महेन्द्र ? तुम मुस्कुरा क्यों रहे हो?” मैं एकदम हडबडा गया. बड़ी मुश्किल से अपने आप पर काबू करते हुए मैंने कहा “नहीं सर कोई बात नहीं है.”

स्टूडियो बिल्डिंग और ट्रांसमीटर में करीब सात किलोमीटर का फासला था. स्टूडियो से लेकर ट्रांसमीटर के बीच टेलीफोन लाइन बिछी हुई थी. जो प्रोग्राम स्टूडियो में बजाया जाता था, वो उस टेलीफोन लाइन के ज़रिये ट्रांसमीटर तक आता था और यहाँ से प्रसारित हो जाता था. वर्मा साहब ने हर तरह से अपना दिमाग लगा लिया मगर कार्यक्रम विवरण के पीछे आने वाली वो आवाजें नहीं रुकीं. मुझे लग रहा था कि इस तरह किसी दिन तो मैं पकड़ा ही जाऊँगा क्योंकि लोगों के दिमाग में कभी तो आ ही जाएगा कि ये गडबडी उसी दिन होती है जब शाम की ड्यूटी पर मैं होता हूँ. इसलिए कई बार बिना काम ही रुक कर शाम की ड्यूटी वाले को मदद करने के बहाने मैं अपनी कारस्तानी कर देता था. आखिरकार वर्मा साहब ने टेलीफोन लाइन खुदवानी शुरू कर दी कोई दो किलोमीटर की खुदाई हुई थी कि मैंने अपनी कारस्तानी रोक दी... अब शाम का कार्यक्रम बिना किसी विघ्न के प्रसारित हो रहा था. दो तीन दिन बाद वर्मा साहब ने खुदाई रुकवा दी और घोषणा कर दी. लीकेज मिल गया है.... उसे ठीक कर दिया है और अब प्रसारण बिल्कुल ठीक होगा. मैं मन ही मन मुस्कुराया. जिस तरह वर्मा साहब ने मेरी बेइज्ज़ती की थी, मैं उन्हें अब भी माफ करने के मूड में नहीं था. ५-६ दिन बाद फिर से कार्यक्रम विवरण के पीछे आवाजें आने लगीं. इस बार बात अखबारों तक जा पहुँची. अखबार नमक-मिर्च लगाकर ख़बरें छापने लगे. अब वर्मा साहब थोड़ा घबराए मगर फिर भी उनकी अकड अपनी जगह क़ायम थी. मीटिंग में बोले “एक जगह लीकेज ठीक कर दी गयी थी मगर शायद कहीं और भी लीकेज रह गयी है. मैं और खुदाई करवाऊंगा, अगर फिर भी ठीक नहीं हुआ तो पूरी लाइन चेंज करवानी पड़ेगी. मैंने सोचा अब बहुत ज़्यादा हो रहा है. एक वर्मा साहब को सबक सिखाने में सरकार का बहुत नुकसान हो जाएगा अगर इन्होने सात किलोमीटर की खुदाई करवाकर पूरी लाइन बदलने का निर्णय ले लिया तो. वो बस आगे खुदाई करवाने की तैयारी कर ही रहे थे कि एक दिन सुबह सुबह मैं उनके कमरे में पहुंचा और कहा “सर नमस्कार”. उन्होंने गर्दन उठाई और अजीब सी नज़रों से देखते हुए बोले “हम्म, कहिये क्या बात है?” मैंने कहा “सॉरी सर अगर आप इसे इंजीनियरिंग मामलों में टांग अड़ाना न समझें तो..... मैं आपको आश्वस्त करना चाहूँगा कि अब वो आवाजें नहीं आयेंगी आप बेफिक्र रहिये...... और प्लीज़ अब खुदाई मत करवाइए और न ही लाइन चेंज करवाने की सोचिये.” उनके चेहरे पर पसीने की बूँदें छलछला उठीं. वो दस सैकंड चुप रहे और फिर गर्दन उठा कर बोले “अच्छा.... तो ये आपका काम था....”

मैंने कहा “जी”.

“आपने ऐसा क्यों किया और कैसे किया?”

“आपने इतने लोगों के सामने मुझे बेइज्ज़त किया तो मुझे गुस्सा आ गया....”

“मगर आपने ये किया कैसे?”

मैंने उन्हें बताया कि डबिंग रूम के कंसोल में एक कमज़ोरी है. स्टूडियोज़ के प्रोग्राम को तो वहाँ की मशीनों पर रिकॉर्ड किया ही जा सकता है, डबिंग रूम की किसी भी मशीन पर कोई टेप चलाकर कंसोल पर दो बटन एक साथ दबाकर उस टेप पर रिकॉर्डेड प्रोग्राम को किसी भी स्टूडियो से निकलकर कंट्रोलरूम जानेवाले प्रोग्राम के साथ मिक्स किया जा सकता है. मैंने डबिंग रूम की इसी कमज़ोरी को काम में लिया. मैं ५.५५ पर दिल्ली का कार्यक्रम विवरण रिकॉर्ड कर एक मशीन पर टेप को उलटा चला देता था और उसे वार्ता स्टूडियो की लाइन में मिक्स कर देता था. जब टेप को उलटा चलाया जाता है तो जो आवाज़ निकलती है वो बड़ी अजीब सी होती है और उसका लेवल इतना कम रखता था कि ये तो पता चलता था कि कोई बोल रहा है मगर किस भाषा में बोल रहा है ये समझ नहीं आता था.

ये सब सुनकर वर्मा साहब का मुंह खुला का खुला रह गया. बोले “बस इतनी सी बात थी?” मैंने कहा “जी हाँ.....मेरा मन तो था आपको और तंग करने का लेकिन मैंने सोचा कि इस तरह आप पूरी लाइन खुदवाएंगे और चेंज करवाएंगे तो बेकार में बहुत खर्च हो जाएगा. इसलिए मैंने आपको ये सब बता दिया मगर उम्मीद करता हूँ कि अगर कोई भी कुछ कह रहा है तो कम से कम उसकी बात सुन तो लीजिए..... वो इंजीनियर नहीं है तो क्या हुआ, हो सकता है उसकी राय में कुछ काम की बात हो.” वर्मा साहब ने वादा किया कि आगे से वो किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करेंगे मगर मुझसे भी ये वादा लिया कि जो कुछ इस बीच केन्द्र पर हुआ, उसके पीछे सच्चाई क्या थी, इसका किसी को पता नहीं लगेगा.

बस..... इसके बाद आकाशवाणी, बीकानेर से प्रसारण बिल्कुल सही तरीके से, बिना किसी विघ्न के होने लगा. मैंने सबसे यही कहा कि वर्मा साहब ने सब कुछ ठीक कर दिया है. हर तरफ उनकी काफी वाहवाही हुई. अब तक मैंने इस वाकये को अपने सीने में दफन कर रखा था. आज वर्मा साहब अगर इस दुनिया में हैं और इत्तेफाक से मेरी ये श्रृंखला पढ़ रहे हों तो उनसे हाथ जोड़कर क्षमा चाहूँगा कि जिस बात को मैंने ३५ बरस तक सीने में दफन रखा, आज उसे दुनिया के सामने रख दिया है.




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Friday, March 30, 2012

रेडियो सीलोन की 61 वीं सालगिरह पर अतुल का विशेष लेख


आज रेडियो सीलोन की 61 वीं सालगिर‍ह है। श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के विदेश विभाग ने भारतीय रेडियो की दुनिया में भी क्रांति लाई। कहीं ना कहीं इसकी कामयाबी विविध-भारती की स्‍थापना की वजह भी बनी। दुनिया के इस बेहद लोकप्रिय रेडियो-स्‍टेशन की चमक आज पहले जैसी नहीं रही। अतुल ने अपने ब्लॉग
bollywood,binaca geetmala,humour etc पर ये लेख सन 2008 में लिखा था। जिसे रेडियोनामा पर अंग्रेज़ी में ही साभार प्रस्‍तुत किया जा रहा है। अतुल रेडियो और संगीत पर लेखन के लिए जाने जाते हैं और उनके काम को आप उनके ब्‍लॉग की लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।


Ceylon, as Sri Lanka was called till 1970 tended to emulate India in many fields. For example it got Independance just after India. They too had a political dynasty ruling Sri Lanka just like India.Their lady PM imposed emergency in their country in 1970s just after the Indian lady PM did, and then revoked it,just after her Indian counterpart did,and ended up losing the general elections just like her Indian counterpart.
But there was one field in which Ceylon stole a march over India.It was in the field of radio broadcasting, where they did not look up to India.Good that they did not seek to emulate India in this field, because what the Indian I & B minister did to their government broadcaster ( he banned film music from being played in akashwani),if emulated, would have killed Radio Ceylon's Hindi service for ever. Instead, Radio Ceylon saw the marketing potential of playing the latest Bollywood filmy songs in their Hindi overseas service, and the rest, as they say, is glorious history.

Ceylon as a country was just as resource starved as India during 1940s and 50s, but they made good use of their resources, at least in the field of radio broadcasting. They got some good radio transmitters for free from the British troops stationed in Sri Lanka who left their equipments behind when the WW II was over. Radio Ceylon used these equipments to set up Radio Ceylon's overseas service, viz English service and Hindi service.


Soon, they saw the potential of playing Bollywood filmy songs in their Hindi service. They signed up announcers from India who came to Colombo and would broadcast from the radio Ceylon studio there. The earliest announcers that joined them included one person called Balraj Dutt, who would later on go on to become a big Bollywood star under the name Sunil Dutt.
Ameen Sayani became the most famous name associated with Radio Ceylon. But in reality, he was not an employee of Radio Ceylon. He was a freelancer who worked for sponsors like Binaca.Ameen Sayani was based in Bombay and there he recorded sponsored programmes viz Binaca geetmala etc and their tapes were then flown to Colombo for broadcast. The inhouse announcers on the other hand were based at Colombo, and they were employees of Radio Ceylon.

Initially, the in house programmes of Radio Ceylon were nowhere near as impressive as their sponsored programmes.There were quite a few good quality sponsored programmes, but Binaca geetmala ended up as the most famous and the longest running sponsored programme of them all.
It was Vijay Kishore Dubey, recruited in 1954, who was entrusted with the job of improving the format of radio Ceylon's in house programmes. And what we grew up listening to in 1960s was a result of Mr Dubey's efforts. Dubey's efforts in revamping radio Ceylon were akin to Pt narendra Sharma's efforts in creating Vividh Bharati from scratch a couple of years later. While Pt Sharma, a respected man in Bollywood circles had the backing of Indian I & B ministry and the support of Indian film industry, Vijay Kumar Dubey did not have these luxuries. While Pt Narendra Sharma entrusted the job of creating signature tunes of various Vividh Bharati programmes to well known music directors like Anil Biswas, Dubey used readymade filmy tunes as the signature tunes for radio Ceylon's programmes. For instance, "Dastaan" movie's tune served as the signature tune for aaphi ke geet programme.

Another lasting contribution that Vijay Kishore Dubey made in programming was to make it compulsory to have a Sehgal song as the last song in the "purani filmo ke geet" programme just before 8 AM.
Vijay Kishore Dubey left Radio Ceylon in 1956 and he groomed Shiv Kumar Saroj to take his place. Other announcers who joined Radio Ceylon Hindi service included names like Manohar Mahajan, Dalbir Singh Parmar, VijayLaxmi etc. I do not remember who was the announcer ( may be Parmar) who tried to coin new Hindi words for standard English words. For instance, he would say "laghu tarang" for short wave, but gave up using this term when his enthusiasm did not rub off on the audience.

Like Akashwani, Radio Ceylon too functioned in three shifts. The morning shift started at 7 AM in the earlier days, but later it was made 6 AM. The first programme would be instrumental music of Bollywood songs,followed by filmy bhajans. then songs from one movie would be played in the "Ek hi film ke geet" programme from 7:15 to 7:30. 7:30 to 8 AM was for "purani filmon ke geet".The slot from 8 AM to 9 AM was for the farmaishi programme called "aap hi ke geet". This programme made places like Jhumri talaiya, Ganj Basoda,Akola, Nanded etc famous. In fact an entire article can be written on these places, and I intend to write one in the coming days. So keep watching this space.

9 AM to 9 :30 AM was the time when programmes like songs from one artist,or quawwali, or ghazals etc were played on different days of the week. 9:30 to 10 AM was the least popular one when classical music was played. It was also the time when school kids would be leaving for their schools.It may be difficult to imagine it today, but those days schools would start at 10 AM, not 8 AM as is the case these days.
When Vividh Bharati started in 1957, they not only had song based programmes, they also had news, which they relayed from the Delhi station of Akashwani.Radio Ceylon too decided to have atleast one news, but they did not have the resources to have dedicated staff for this Hindi news. So they hit upon a novel idea.The first sabha ( that is how BBC hindi service described it) of BBC Hindi service began at 6 AM and ended with a 8 minutes long news beginning at 6:20 AM. Radio Ceylon Hindi service started relaying this Hindi news. I am not aware if Radio Ceylon had taken any permission from BBC to do so, but I will not be surprised if it was done without informing BBC.Those were the days when terms like intellectual property, broadcasting rights etc were not yet coined.

This was a very good idea for Radio Ceylon because BBC was regarded very highly for its unbiased reporting and professionalism, unlike Akashwani news which was mainly government propaganda. Also, this 6:20 Hindi news was the earliest Hindi news in any radio stations that one could tune into.It was through one such BBC news relayed by Radio Ceylon that I came to know that India had beaten West Indies at Port of Spain in 1976 chasing over 400 runs in the last innings for a world record beating victory.
The afternoon programme of Radio Ceylon, which started at 12 O' Clock was not really any great shakes. This could be because most of their potential audience at that time were busy in their jobs. I do not remember whether this afternoon slot had anything for house wives. I vaguely remember that there was a programme in the afternoon where only female listeners were supposed to send their farmaishes. But I could be wrong.This programme ended at 3 or 3:30 PM, I am not sure.

The evening programme was prime time programme.It began tamely enough from 6 PM till 8 PM. It was from 8 PM onwards that sponsored programmes if any, were broadcast. There may have been sponsored programmes of 30 minutes durations on some of the week days. Wednesday was of course booked for the one hour sponsored programme Binaca geetmala. It was on this day that small time advertisers began to have 15 minutes sponsored programmes from 7:45 to 8 PM, hoping to cash in on the fact that most radio listeners had tuned in to Binaca geetmala at that time. This programme too needs a separate article, and I will come up with one article dedicated on Binaca geetmala.

Sunday was the day when there was no break between morning programme and afternoon programme and the programme that began at 6 AM would extend well into the afternoon. This day,sponsored programmes would be presented right from 8 AM onwards. The "aap hi ke geet " programme on sunday was presented at 1 PM, by which time there may not have been too much enthusiasm left among listeners.
Sunday sponsored programmes included programmes like "Polydor Sangeet Dhara" at 9 AM, presented by an announcer with a clipped voice and with a signature tune that went "tip tip tip tip, like a horse running on a canter."Tabassum ke chutkule" was at 10 AM ( or was it 10:30) where Tabassum would read out her stale jokes to Ameen Sayani. Once,Ameen Sayani actually complained that her jokes were stale. The quality of jokes definitely improved from the next episode, but she reverted back to type after a few weeks.
If I recall correctly then a slot was purchased by a Christian missionary oganisation too who would present their own sponsored programme at 9:30 and I remember hearing their prayer in Hindi "Vandana karte hain hun".

"S Kumar ka filmy muqadma" was also broadcast on sunday.
Advertisers not only presented their sponsored programmes, but there were small few seconds long ads too, viz the ad of Brylcreem who had signed cricketer Farokh Engineer to endorse them.The sportsweek publishers would give ads for their Urdu newspaper called "Inquilaab". Nowadays of course, both Sportsweek as well as Inquilaab have gone defunct. Ads of new films were played during the "aphi ke geet" and other such popular programmes. For a song lasting 3 minutes,the announcer would read out the list of farmaish senders that consumed more time than the duration of the song.And after every song, there would be ads.
Of course such ads were not played during the duration of a sponsored programme. For example, if S Kumar ka filmi muqadma was being presented, then only S Kumar's ads were played. Ads of movies etc were not given at that time.Producers of new movies also bought 15 minutes slots on sunday to advertise for their movies, and these programmes typically had Ameen Sayani exhorting the listeners to watch these movies by playing songs from these movies.

It is not incorrect to say that Radio Ceylon Hindi service was a musical opium for the masses in India. They were totally sold out on Radio Ceylon, and this state of affairs continued till 1970s when Indian I & B ministry finally decided to allow ads on Vividh Bharati. TV revolution in India in mid 1980s finally sounded the death knell of radio every where, and that included Radio Ceylon ( which was renamed as Sri Lanka Broadcasting Corporation in 1972) too.But it was good, rather great as long as it lasted.

अतुल की मूल पोस्‍ट का लिंक http://squarecutsblog.blogspot.in/2008/07/radio-ceylon-hindi-service-those-were.html?showComment=1333073140757

Square cuts blog से साभार

 

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