मशहूर रेडियो शख्सियत महेंद्र मोदी के संस्मरणों की श्रृंखला की नौंवी कड़ी।
कितनी छोटी होती है इंसान की ज़िंदगी ? शुरू में उसे इस बात का अहसास नहीं होता. बचपन में हर बच्चा जल्दी बड़ा होना चाहता है और इस बात में फख्र महसूस करता है कि वो बड़ा हो गया है. वो जब ४-५ साल का होता है, तब भी माँ बाप के सामने तरह तरह से सिद्ध करने की कोशिश करता है कि वो बड़ा हो गया है. जब प्राइमरी क्लासेज़ में आता है तब भी उसे लगता है , अब वो एल के जी या यू के जी में नहीं है, बड़ा हो गया है......फिर जब छठी सातवीं में आता है तो उसे लगता है कि अब तो उसकी गिनती बडों में होनी ही चाहिए..... यानि वो तब तक बडा होने के लिए जी जान से कोशिश करता है जब तक कि वास्तव में बड़ा नहीं हो जाता. जब सब ये मान लेते हैं कि वो बड़ा हो गया है और हर बात में टोकने लगते है, ऐसा मत करो, वैसा मत करो..... अब तुम बड़े हो गए हो.... तब उसके पांव के नीचे से ज़मीन खिसकने लगती है और वो अपने बचपन को मिस करने लगता है.....बचपन को मिस करने का ये सिलसिला जीवन भर चलता है, ये बात अलग है कि जैसे जैसे बूढा होता जाता है..... बचपन के साथ साथ जवानी के दिनों को भी मिस करने लगता है.... एक बात आपने महसूस की है या नहीं, मैं नहीं जानता, बचपन में समय की गति बहुत धीमी होती है शायद इसीलिये बच्चा जल्दी बड़ा होना चाहता है... मगर धीरे धीरे समय की गति बढ़ने लगती है और फिर वो बढ़ती ही जाती है.
आप ज़रा याद करके देखिये २० साल पहले घटी कोई घटना आपको काफी दूर लगती होगी मगर १० साल पहले की कोई और घटना उससे आधी दूरी पर महसूस नहीं होगी बल्कि आधी से बहुत कम दूरी पर लगेगी और ५ साल पहले की घटना तो ऐसा लगेगा कि कल ही घटी हो. यानि समय की गति समान नहीं रहती ..... जैसे जैसे ज़िंदगी में आगे बढते हैं, समय की गति भी बढ़ती जाती है. जब वो अंतिम दिन आता है, जब उसे इस दुनिया को छोड़कर जाना होता है तब उसे लगता है अरे...... ज़िंदगी तो इतनी जल्दी गुज़र गयी.... मैं तो इसे ठीक से जी भी नहीं पाया..... मुझे थोड़ा सा समय काश मिल सके....मगर उसे जाना होता है तो जाना ही होता है.......ऐसे में वो लोग बहुत सुखी रहते हैं जो भगवान में, धर्म में, धार्मिक मान्यताओं में, पुनर्जन्म में गहरा विश्वास रखते हैं क्योंकि उन्हें लगता है....ये शरीर छोड़कर मुझे तो बस दूसरे शरीर में जाना है......मैं पूजा करूँगा, धर्म कर्म करूँगा तो ईश्वर मुझे किसी अच्छे घर में जन्म देंगे. दान-धर्म करूँगा तो मेरा अगला जन्म सुधर जाएगा ..... वगैरह वगैरह, मगर हर चीज़ को तर्क की कसौटी पर कसने वाले इंसान इन सब बातों पर विश्वास नहीं कर सकते. जीवन के इस दर्शन की शुरुआत उसी वक्त हो जाती है जब बच्चा बहुत छोटा होता है. वो अपने आस पास जो कुछ होता है उसे देखता है और ईश्वर, धर्म, समाज, स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म, पूजा –पाठ इन सबके बारे में उसके विचार बनने लगते हैं. मैंने बचपन से देखा कि मेरे पिताजी बहुत मन से दुर्गा की पूजा किया करते थे.....उनसे मेरे भाई साहब ने और मैंने भी ये संस्कार लिए मगर मेरे पिताजी कभी भी पंडितों की पोंगापंथी को स्वीकार नहीं करते थे......स्वर्ग, नर्क, धर्म, कर्म, इन सबको वो विज्ञान की कसौटी पर कसकर फेल कर चुके थे..... मैं भी इन सब बातों पर कभी विश्वास नहीं कर पाया. मेरे पिताजी ने कालांतर में जब मेरी माँ की मृत्यु हुई तो पूजा पाठ करना बिल्कुल बंद कर दिया. हालांकि पूजा-पाठ में मेरा बहुत विश्वास कभी नहीं रहा मगर जब उन्होंने पूजा-पाठ करना छोड़ा तो उनके साथ ही साथ मैंने भी पूजा-पाठ को तिलांजलि दे दी. मेरे भाई साहब आज भी नियमित रूप से पूजा करते हैं मगर जब भी उनसे इस बारे में बात होती है तो वो कहते हैं यार... इतने सालों का एक रूटीन बना हुआ है उसे तोड़ने का मन नहीं करता, इसके अलावा और कोई बात नहीं है........स्कूल में पढता था, घर में हर तरह के त्यौहार मनाये जाते थे.... मगर मेरे पिताजी उन त्योहारों के सामाजिक पक्ष पर ही ज़ोर देते थे...... धार्मिक पक्ष को हंसी में उड़ा देते थे.... नतीजा ये हुआ कि मेरे दिमाग़ में भी धीरे धीरे बैठने लगा कि ईश्वर कुछ नहीं होता...... ईश्वर की रचना लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए की और उसके नाम पर अपना पेट भरते हैं. और ९वीं १०वीं कक्षा में पहुँचते पहुँचते पूरी तरह नास्तिक हो गया
......इसी समय में मैंने एक तरफ जहां सुकरात, प्लेटो, हैरेक्लिटस जैसे ग्रीक दार्शनिकों को पढ़ना शुरू किया, वहीं सांख्य, बौद्ध, जैन, योग, चार्वाक, मीमांसा, न्याय आदि भारतीय दर्शनों को पढ़ना शुरू किया. इन सबका विवरण देना यहाँ मौजूं नहीं होगा, बस इतना कहूँगा कि सबसे ज़्यादा अपने आपको तर्क पर आधारित कहने वाला न्याय दर्शन भी मुझे कोई रास्ता नहीं दिखा सका और मैं पूरी तरह से नास्तिक हो गया ऐसे में मैंने नीत्शे को पढ़ा तो लगा शायद जो नीत्शे की सोच है वो सच्चाई के ज़्यादा करीब है..... मैं आज भी नास्तिक हूँ .... और मरते दम तक रहूँगा . हालांकि मैं जानता हूँ कि नास्तिक होना कितना तकलीफदेह है? आप के सामने कोई भगवान नहीं हैं, आपको बचाने कोई देवी देवता नहीं आयेंगे और आपके मरने के बाद आपका अस्तित्व मात्र आपके बाद की एक पीढ़ी तक घर में टंगी हुई एक तस्वीर तक सीमित हो जाएगा... वो भी अगर आपकी औलाद लायक हुई तो वरना वो आपकी नहीं, सिर्फ अपनी औलादों की तस्वीरों से अपने घर को सजाना पसंद करेंगे. यानि आपके इस दुनिया से जाने के बाद सब खत्म. आप ने चाहे कैसे भी कर्म किये हों, मृत्यु के पश्चात आपको उनका कोई लाभ नहीं होने वाला है... और आप इस विश्वास के साथ नहीं मर सकते कि ये तो सिर्फ शरीर का बदलना ही है.... मैं फिर से दूसरे जन्म में इस धरती पर आऊँगा..... बहुत डरावना लगता है न ये सोचकर कि मेरी मृत्यु के बाद मेरा कोई वजूद इस दुनिया में नहीं रहेगा.... मैं हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जाऊँगा. मगर क्या कर सकते हैं? आपने अपने जीवन का जो दर्शन तय किया है...वो आपकी सोच की जड़ों में इस तरह बैठ चुका होता है कि आप बहोत चाहकर भी नहीं बदल सकते. मेरे रेडियो के कई कार्यक्रमों में मेरी इस विचारधारा का असर साफ़ दिखा भी है और... इस विषय पर अपने साथियों और अफसरों से इस विषय में टकराव भी हुए हैं... मेरा मानना है कि धर्म और ईमान दो अलग अलग चीज़ें हैं. आप धर्म को न मानकर भी ईमानदार हो सकते हैं मगर ईमानदार हुए बिना धार्मिक होने का कोई मायने नहीं है बल्कि ईमान के बिना धर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं हो सकता.
स्कूल में इस विषय पर कभी कोई बात होना बिल्कुल संभव नहीं था. अगर किसी अध्यापक से जीवन, दुनिया, ईश्वर, इन विषयों पर बात करने की कोशिश करते तो वो डांटकर बिठा देते और हंसी उड़ाते कि पढाई तो होती नहीं जीवन को समझने की कोशिश कर रहे हैं.......गणित के हमारे एक अध्यापक थे डी पी मित्तल साहब. बड़े ही लहीम शहीम इंसान. हाथ में हर वक्त एक डंडा. बहुत ही कड़क अध्यापक माने जाते थे. क्लास में हम दो तीन लड़के ऐसे थे जो गणित के पीरियड में दुनिया भर की बातें करने को तैयार रहते थे सिवाय गणित के...... मित्तल साहब ने एक दिन हम दोनों तीनों लड़कों को एक उपाधि दे डाली. उन्होंने कहा... राजा महाराजाओं की सवारी जब चलती है, तो उसमें कुछ बेहद खूबसूरत और सजे धजे घोड़े भी चलते हैं. इन्हें कोतल घोड़े कहा जाता है.... ये और किसी काम के नहीं होते... इनकी सवारी नहीं की जा सकती, इन पर सामान नहीं ढोया जा सकता, ये युद्ध में भी काम नहीं आते. इन्हें तो बस सजा धजाकर रखिये... ये सिर्फ देखने में ही खूबसूरत लगते हैं. आप तीनों मेरे कोतल घोड़े हो.......संगीत और नाटक जैसी विधाओं में हर बार ढेरों तालियां और वाहवाही बटोरने वाले इंसान को कोतल घोड़े की ये उपाधि कैसी लगी होगी, आप समझ सकते हैं. लगा गणित विषय को छोड़ दूं मगर फिर क्या करूँगा? ये समझ नहीं आ रहा था.....ये मेरे जीवन का शायद बहुत कठिन वक्त था.....दिल कर रहा था पढाई छोड़ दूं और कुछ ऐसा काम करूँ जिस में संगीत हो मगर संगीत के आम कलाकारों की जो स्थिति देखता था, उसमें मैं अपने आपको फिट नहीं पाता था. इधर भाई साहब मेडिकल कॉलेज में पहुँच गए थे और घर में सब लोग उन्हें डॉक्टर कहकर पुकारने लगे थे.......आस पास के सभी लोगों की निगाहें अब मुझपर थीं कि मैं क्या लाइन पकडता हूँ..... मेरे ताऊजी के एक लड़के ने तो मेरी माँ से एक दिन कह भी दिया “काकी, राजा (मेरे भाई साहब का घर का नाम) तो खैर मेडिकल कॉलेज में दाखिल हो गया है तो डॉक्टर बन ही जाएगा लेकिन महेन्द्र किसी दिन कुछ बनेगा तब देखेंगे....... देखना... ये हमारी ही तरह रहेगा” ये बात कुछ समय बाद मुझे मेरी माँ ने उस वक्त बताई जब मैं रेडियो नाटक के उस ऑडिशन में पास हुआ जिसमें ३५० लोग बैठे थे और सिर्फ ३ लोग पास हुए थे.......बहुत खुश हुईं थीं वो और मुझे कहा था “लोग चाहे कुछ भी कहें तुम ज़रूर इस लाइन में अपना नाम कमाओगे. ज़रूरी थोड़े ही है कि सब लोग पढाई में ही नाम कमाएँ.” वैसे मैं आपको बता दूं कि हायर सेकेंडरी में मेरे ५५% अंक बने थे. मुझे इन्जीनियरिंग में सिविल ब्रांच मिल रही थी जो मुझे कतई पसंद नहीं थी.
अब सवाल ये था कि आखिर हायर सेकेंडरी के बाद क्या करूँ मैं? संगीत के पीछे मैं पागल था. मैं चाहता था कि संगीत की शिक्षा लूं मगर मेरा दुर्भाग्य देखिये, उस ज़माने में बीकानेर में लड़कों के कॉलेज में संगीत नहीं था. संगीत सिर्फ और सिर्फ लड़कियों का विषय मन जाता था. अमर चंद जी जैसे कुछ कलाकार थे जो संगीत जानते थे मगर सिखाने में उनकी कोई रुचि नहीं थी. एक दिन मेरा दिमाग पता नहीं कैसे खराब हुआ, मैंने साईकिल उठाई और चल पड़ा महारानी सुदर्शना गर्ल्स कॉलेज की ओर. लड़कियों की कॉलेज में १६-१७ साल के लड़के को अंदर कौन घुसने दे? बाहर खड़े चौकीदार की बहुत मिन्नतें कीं कि बस एक बार मुझे प्रिंसिपल साहिबा से मिला दें. मैं इधर उधर देखूँगा भी नहीं. मैंने यहाँ तक कहा कि वो चाहें तो मेरी आँखों पर पट्टी बाँध दें ताकि मैं किसी लड़की की तरफ न देख सकूं. आखिर उसे दया आई और वो मुझे प्रिंसिपल के कमरे में ले गया और डरते डरते कहा कि मैडम जी ये लड़का आपसे मिलने की बहुत जिद कर रहा था. उन्होंने जलती हुई नज़रों से मुझे देखा और बोलीं “ पुलिस को बुलाऊँ? जानते हो लड़कियों की कॉलेज के अंदर आना तो दूर आस पास चक्कर लगाना भी जुर्म है और तुम्हें अंदर बंद किया जा सकता है.” मैं घबराया मगर किसी तरह अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए टूटे फूटे शब्दों में कहा “ मैडम मैं संगीत पढ़ना चाहता हूँ और संगीत आपकी कॉलेज के अलावा किसी भी दूसरे कॉलेज में नहीं है.”
“क्या मतलब? क्या तुम्हें लगता है कि तुम यहाँ संगीत पढ़ सकते हो?”
“मेरी आपसे रिक्वेस्ट है कि चाहे आप मुझे क्लास में मत आने दीजिए मगर इम्तेहान देने के लिए नाम को एडमिशन दे दीजिए क्योंकि लड़के प्रायवेट इम्तेहान भी नहीं दे सकते.”
उन्होंने संगीत की लेक्चरर को अपने कमरे में बुलाया और कहा “ये लड़का बड़ी जिद कर रहा है कि इसे संगीत विषय के साथ बी ए करना है इसलिए इसे हम यहाँ एडमिशन दे दें.”
वो लेक्चरर मुस्कुराईं और बोलीं... “ ये कैसे संभव है?”
मैंने कहा “मैडम कोई रास्ता निकालिए न.....संगीत मेरा जीवन है..... अगर आप लोगों ने मना कर दिया तो मुझसे मेरा जीवन छीन जाएगा.”
संगीत की मैडम बहुत मुलायमियत के साथ बोलीं.... “ अच्छा बेटे तुम संगीत संगीत कर रहे हो, क्या तुमने संगीत किसी से सीखा है?”
मैंने कहा “जी नहीं मैडम.”
वो बोलीं “अच्छा तुम संगीत में क्या कर सकते हो?”
मैं उस वक्त तक बैंजो, हारमोनियम, बांसुरी बहुत अच्छी तरह बजाने लगा था और सितार, सारंगी और सरोद टूटा फूटा बजाने लगा था. मैं बोला.... आप मुझे संगीत रूम में ले चलिए.... जो कुछ में थोड़ा बहुत कर सकता हूँ आपको उसकी बानगी दिखाता हूँ.” मुझे म्यूजिक रूम में ले जाया गया. साथ में बहुत से लैक्चरर्स का काफिला हो गया था, तमाशा देखने. मुझे एक बार तो लगा... मुझे फांसी के फंदे की ओर ले जाया जा रहा है और ये सारे तमाशबीन मुझे फांसी पर चढाये जाने का तमाशा देखने जा रहे हैं.
हम लोग म्यूजिक रूम में बैठे. मैंने डरते डरते हारमोनियम उठा लिया और मैडम से कहा आप किस सुर से गाएंगी? और क्या गाएंगी? मैं आपके साथ अलग अलग साज़ पर संगत करने की कोशिश करूँगा. उन्होंने बताया कि वो पांचवें काले से गाएंगी और दरबारी गाएंगी. मेरा भाग्य, मुझे एक सितार भी वहाँ मिल गया जो दरबारी के सुरों में मिला हुआ था औरउनके सुर की बांसुरी भी मिल गयी. अब उन्होंने गाना शुरू किया... मैंने बारी बारी से उनके साथ हारमोनियम, बांसुरी और सितार बजाये. वो लगभग १५ मिनट गाती रहीं और मैं फुर्ती से बदल बदल कर साज़ उनके साथ बजाता रहा...१५ मिनट बाद जब वो रुकीं तो उनकी आँखें भरी हुई थीं... उन्होंने मेरे सर पर हाथ फेरा और बोली” शानाश बेटा शाबाश तुमने ये सब कहाँ सीखा? “ मैं बोला “बस रेडियो के साथ बजा बजा कर, लेकिन मैडम अगर आप बुरा न मानें तो एक चीज़ मैं भी सुनना चाहता हूँ”
वो बोली “हाँ हाँ ज़रूर, मगर क्या सुनाना चाहते हो?”
मैंने कहा “ये मैं नहीं आप तय करेंगी”.
उन्होंने अचरज से पूछा “क्या मतलब?”
मैंने कहा “ जी मैडम अब हारमोनियम आप उठाइये और कोई भी राग जो आप चाहें छेडिए. मैं उसी राग में गाऊंगा, थोडा बहुत आलाप लूँगा, ख़याल तो शायद मैं नहीं जानता रहूँगा मगर तराना भी गाऊंगा और तानें भी लूँगा.”
उन्होंने राग ललित छेड़ा और मैं उसमें खो गया.......गाता गया गाता गया.....आँखें बंद करके गाता ही चला गया..... होश तब आया जब मैडम ने हारमोनियम बजाना रोका और पूरा म्यूजिक रूम तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा.... मैंने अपनी आँखें खोलीं..... मुझे कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था......तब महसूस हुआ... कि मेरी आँखें आंसुओं से सराबोर थीं.
म्यूजिक की मैडम और प्रिंसिपल मैडम दोनों ने कहा “हम बहुत प्रभावित हैं तुमसे मगर बेटा, हमारी भी कुछ मजबूरियाँ है, हम कुछ नहीं कर सकते.......हाँ हमारे यहाँ जब भी कोई संगीत का प्रोग्राम होगा हम चाहेंगे तुम ज़रूर आओ.
मैं वहाँ किसी प्रोग्राम का निमंत्रण लेने नहीं गया था........मैंने उन्हें धन्यवाद कहा, उन दोनों के पैर छुए और अपनी साईकिल उठाकर धीरे धीरे कॉलेज के गेट से बाहर निकल गया, इस अहद के साथ कि अब मैं कभी नहीं गाऊंगा......... मैंने संगीत को अपने जीवन से खुरच खुरच कर निकाल फेंका.....अब भी वो खुरचन रह रह कर बहुत दुःख देती है जब उसमें बड़ी गहरी टीस उठती है.
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