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Friday, September 7, 2018

रेडियो लाईसेंस से लाइव स्ट्रीमिंग तक

कईं बार मेरे को रेडियो लाईसेंस फीस के दिन याद आते हैं...क्या होता था कि हम लोग घर के बाहर खेल रहे होते थे और कभी कोई पूछने आ जाता था कि घर में कितने रेडियो हैं ... हमें तो यह भी पता नहीं होता था कि जवाब क्या देना है ...बाद में थोड़े बड़े हुए तो पता चला कि जिन के घरों में रेडियो हैं उन्हें साल में दो बार या शायद एक बार पास के डाकखाने में जाकर लाईंसेंस फीस जमा करवानी होती है ...एक धुंधली सी याद है कि एक बार तो मैं भी ३ रूपये किसी डाकखाने में जमा करवा के आया था ...और इस काम के लिए भी एक पासबुक सी होती थी जिस पर पोस्टमाटर एंट्री कर के मोहर लगा दिया करता था....
लीजिए, मिल गई वह पासबुक भी नेट से ढूंढने पर जिस को ले जाकर डाकखाने
में साल के दो या तीन या साढ़े तीन रूपये जमा करवाने पड़ते थे 

अब सोचता हूं तो लगता है कि घर में रेडियो न हो जैसे कोई लाईसैंसी रिवाल्वर रखा हो ...वैसे भी अपना मर्फ़ी वाला रेडियो भी सत्तर के शुरुआती दिनों में बडा़ परेशान करता था ...हम लोग लंबी सी तार उस के साथ जोड़ कर छत पर ईंट के नीचे रख के आते कि शायद इस से आवाज़ साफ़ सुनाई दे ...उन दिनों हमें यह बिनाका गीत माला और आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस पर (अमृतसर रहते थे हम लोग) आप की फरमाईश में हिंदी गीत और रविवार के दिन इकबाल साहब और एक बाजी द्वारा पेश किए जाने वाले बच्चों के प्रोग्राम का इंतज़ार रहता था ...मजे से कट रही थी ...

कुछ अरसा पहले मैँ इसे एक रेडियो के मैकेनिक के पास ले गया ...
मैंने उसे कहा कि इस में एफएम फिट करवाना है,
उसने मुझे ऐसे देखा कि मुझे  जवाब मिल गया ...
फिर हम लोगों ने १९७२-७३ के आसपास कहीं एक बुश का ट्रांजिस्टर खरीदा ... बंबई से खरीदा था ...क्योंकि वहां हम लोग गये हुए थे कुछ दिनों के लिए और मेरे ताऊ जी का दामाद बुश कंपनी में बहुत ऊंचे ओहदे पर था ... मुझे अच्छे से याद है कि यह हमारे आस पास के घरों में चर्चा का विषय था कि एक रेडियो जो सैलों से भी चलता है और बिजली से भी चलता है ... आप को ताजुब्ब होगा कि मैंने उस का ढांचा अभी तक रखा हुआ था ..just as a souvenir of good old innocent times!

बंबई में शायद १९९३-९४ में एफ एम आया तो बहुत अच्छा लगा ...उन दिनों हम लोग वहीं पोस्टेड थे ...एक फिलिप्स का वर्ल्ड रिसीवर इसी चक्कर में उस ज़माने में १७-१८०० रूपये का खरीद लिया ...यह भी सैल के साथ साथ बिजली से भी चलता है ...अभी भी सही चलता है ...

चलिए बात ज़्यादा लंबी नहीं करते ... नींद आ रही है ...अब तो यह आलम है कि घर में जितने कमरे हैं उस से भी ज़्यादा रेडियो हैं...बिजली वाले रेडियो ही मुझे ज़्यादा पसंद हैं... जिस कमरे में भी बैठता हूं वहां की रेडियो चला लेता हूं...और टीवी देखना लगभग २ महीने से बंद कर दिया है ..रिचार्ज ही नहीं करवाया ....इतनी गर्मा-गर्म बहसें देख-सुन कर अपना सिर भारी हो जाता था...देखते हैं कितना समय टीवी के बिना रह लेते हैं.....लेकिन जो भी है, टीवी के बिना सुकून है ...

हमारी रेडियो की लत की वजह से घर में रखे टीवी धूल चाट रहे हैं..
घर में किसी को भी टीवी का  शौक नहीं है 
विविध भारती मेरा पसंदीदा रेडियो है ...और सुबह सुबह लखनऊ का एफएम रेनबो चैनल भी सुनता हूं...रेडियो के बारे में लिखें तो लगता है लिखते ही जाएं...इतना कुछ लिखने को है ...कभी कभी किसी दूसरे चैनल को भी सुन लेता हूं ...लेकिन बहुत कम ...अपनी अपनी पसंद है...

हां, तो बात हो रही थी रेडियो लाईसैंस वाले दिनों से लेकर रेडियो लाईव स्ट्रीमिंग की ....हां, तो दोस्तो हुआ यह कि आज अपने के फेसबुक फ्रेंड काजल जी ने एक पोस्ट लिखी कि आप लोग Google playstore से Radio Garden App download कर लें और बिना एयर-फोन के मजे से दुनिया के किसी भी रेडियो स्टेशन के प्रोग्राम सुनें...तुरंत इस एप को इंस्टाल किया ..और कुछ समय तक प्रोग्राम सुने भी .....लेकिन जो मैं सुनना चाह रहा था वह मुझ नहीं दिखा ....शायद अभी इतने अच्छे से नेवीगेशन नहीं हो पाती ...

वैसे भी रेडियो तो तभी सुनने का मज़ा है कि जब आप सुनें तो आस पास बैठे दो चार लोग भी उस प्रोग्राम का आनंद लें...जैसे पुराने नाई की दुकान पर या चाय वाले की गुमटी पर एक अखबार को पांच सात लोग पढ़ रहे होते थे ...

तरक्की कितनी भी हो गई हो, हमें तो भई अभी भी पुराने रेडियो सेट ही भाते हैं ....कईं बार सोच कर हंसी भी आती है जब लगता है कि इन डिब्बों के अंदर से कोई बोल रहा है ...

आज या कल रेडियो पर एक गीत सुना था ...मुझे बहुत पसंद है यह गीत .... सुनते हैं ....मैं इस समय भी यह पोस्ट लिखते हुए भी रेडियो सुन रहा हूं ... अच्छा लगता है ...अपने बचपन के साथी को अपने आस पास रखना ..



Tuesday, April 10, 2018

कैक्टस के मोह में बिंधा एकमन भाग -55(महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला)


हमारे उन महान डायरेक्टर साहब की बात करते करते मैं बहोत आगे बढ़ गया जिनके  लिए मैं मिस्टर मोदी था. बड़ी मशक्क़त के बाद मिस्टर मोदी से मोदी जी हुआ और फिर मोदी जी से न जाने कितने पापड बेलकर महेंद्र हुआ . हर इंसान इस दुनिया में अलग अलग फितरत लेकर आया है. डायरेक्टर साहब  शायद इसी फितरत के साथ इस दुनिया में आये थे कि वक़्त के साथ फ़ौरन अपने आपको, अपने बर्ताव को बदल लिया जाए. खैर उन्हें उनकी फितरत उन्हें मुबारक, लेकिन हमने पिछले एपिसोड में जहां बात ख़त्म की थी, अगर हम लोग वहाँ से आगे बढ़ेंगे तो सूरतगढ़ की बहोत सी बातें छूट जायेंगी. इसलिए आइये एक बार फिर कदम थोड़ा सा पीछे कीजिये और मेरे साथ चले चलिए सूरतगढ़.

यू पी एस सी से प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की वकेंसीज़ निकली थी. हर तरफ उसी का शोर था. मैंने भी फॉर्म भर दिया था. मैंने खुद अपने आपका मुवाज़ना करने की कोशिश की तो मुझे महसूस हुआ कि मेरा सबसे मज़बूत पहलू है नाटक. पोस्ट्स जो थीं वो जनरल स्पोकन वर्ड्स की थीं या संगीत की. संगीत में रुचि तो रही मगर कभी बाकायदा सीख नहीं पाया. हाँ, जब जब भी नाटक करने माइक्रोफ़ोन के सामने खडा हुआ तो हर तरफ से मुझे तालियाँ मिलीं. कॉलेज के दिनों में और उसके बाद स्टेज भी किया था लेकिन रेडियो ज्वाइन करने के बाद स्टेज एक तरह से छूट सा गया था. रेडियो ड्रामा में मुझे अपने आप पर पूरा भरोसा था लेकिन स्टेज इतना नहीं किया था कि पूरे एतमाद के साथ कह सकूं कि स्टेज ड्रामा में मेरा स्पेशलाइजेशन है. मैंने एक योजना बनाई. उस वक़्त तक के उन सारे नाटकों की किताबें इकट्ठी कीं जो उपलब्ध हो सकती थीं. इसमें मेरी सबसे ज्यादा मदद की वागीश कुमार सिंह ने जो कि नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की पढाई पूरी कर चुका था और अब स्कूल की ही रेपेट्री में रहकर नाटक कर रहा था. करीब चार महीने बाद यू पी एस सी का इम्तहान होने वाला था. मैंने करीब पचास-साठ नाटक चुने और उन नाटकों को कई कई बार पढ़ते हुए अपने आपको यकीन दिलाया कि मैंने इन नाटकों में ये ये किरदार किये हैं. हर चरित्र को मैंने बिना स्टेज पर किये ही कुछ इस तरह जिया कि कुछ दिन बाद मुझे महसूस होने लगा कि मैंने सचमुच ये नाटक किये हैं और उनमे अमुक अमुक रोल किये हैं. तीन महीने बीतते बीतते हालत ये हो गयी थी कि अगर कोई मुझे नींद में भी पूछ लेता कि फलां नाटक में तुमने कौन सा रोल किया था, करके बताओ. तो मैं उस पूरे किरदार को नींद में रहते हुए भी पूरी तरह जी सकता था. आखिर के एक महीने में मैंने हर नाटक के पात्रों का बहोत सूक्ष्म तरीके से विश्लेषण करते हुए उनपर बड़े बड़े लेख लिख डाले. ये सारी तैयारी मेरे बहोत काम आई. एक कहावत है कि आप किसी झूठ को सौ बार बोलो तो खुद आपको भी सच लगने लगता है. मैं इसी कहावत को अपने जीवन में उतारकर एक एक्सपेरिमेंट करने जा रहा था.

यू पी एस सी के इंटरव्यू की तारीख आ गयी थी. मैं दिल्ली पहुंचा . पता चला कि बोर्ड में डायरेक्टर जनरल श्री अमृत राव शिंदे और नाटककार श्री लक्ष्मी नारायण लाल भी शामिल हैं. इन वेकेंसीज़ में नाटक की तो एक भी वेकेंसी थी नहीं इसलिए ये उम्मीद तो की नहीं जा सकती थी कि मेरा इंटरव्यू  स्वाभाविक तौर पर नाटक पर किया जाएगा. मुझे करना ये था कि मैं किसी तरह अपने इंटरव्यू को घुमा फिराकर नाटक की तरफ ले आऊँ और जो कुछ तैयारी मैंने की थी, उसे बोर्ड के सामने किसी तरह रख सकूं. मैं इंटरव्यू वाले कमरे में घुसा. सबसे पहले एक दो रस्मी सवाल पूछे गए. जाने कैसे धीरे धीरे इकोनॉमिक्स से रेडियो होते हुए इंटरव्यू रेडियो ड्रामा तक आ पहुंचा और इंटरव्यू शुरू होने के 3-4 मिनट के अन्दर ही स्टेज ड्रामा पर आ गया. अब मुझे इंटरव्यू में मज़ा आने लगा था. 45 मिनट के इंटरव्यू में मैंने बोर्ड को पूरा विश्वास दिला दिया कि मैंने स्टेज पर वो सभी नाटक किये हैं जिनके बारे में चर्चाएँ हुई थीं.

कुछ ही दिनों बाद दिल्ली से खबर मिली कि प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव के इंटरव्यू में पास हुए लोगों की मेनलिस्ट में तो मेरा नाम नहीं है मगर वेटिंग लिस्ट में मेरा पहला नंबर है. मुझे फिर भट्ट जी की कही बात याद आई, “ सुनो महेंद्र आजकल के ज़माने में असली लिस्ट वेटिंग लिस्ट नंबर एक से ही शुरू होती है. “ मैंने अपने अब तक के करियर पर निगाह डाली. मैं एनाउंसर के इम्तहान में भी वेटिंग नंबर एक पर था, ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव के इम्तहान में भी वेटिंग नंबर एक पर था और अब प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव के इम्तहान में भी अपनी उसी जगह पर अड़ा हुआ था. बस इस खबर के मिलने के कुछ ही दिन बाद हमारे डायरेक्टर साहब का ट्रान्सफर दिल्ली हो गया था.  

जब हमने डायरेक्टर साहब के दिल्ली ट्रान्सफर के बारे में सुना तो काफ़ी परेशान हुए थे क्योंकि अब तक जाहिरा तौर पर उनसे बहोत अच्छे ताल्लुकात बन चुके थे और दिन रात काम करने के बावजूद हमें दफ्तर से किसी तरह का कोई शिकवा नहीं था. उर्दू की एक कहावत है, बड़े मियाँ तो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुबहान अल्लाह. एक बार फिर ये कहावत हमें सही होती हुई नज़र आई . हुआ ये कि एक रोज़ खाना खाकर मैं दफ्तर लौटा तो डायरेक्टर साहब के कमरे के सामने भीड़ सी लगी हुई थी. मुझे कुछ समझ नहीं आया कि आखिर हुआ क्या है? इधर उधर लोगों से पूछा तो लोगों ने हंस हंसकर जो वाकया सुनाया उस पर मुझे भी हंसी आये बिना नहीं रही.

हुआ ये कि डायरेक्टर साहब का ट्रान्सफर तो हो ही चुका था . वो इंतज़ार कर रहे थे कि कोई आकर उनसे चार्ज ले और वो उस गरीब और पिछड़े हुए से गांवनुमा कस्बे से पीछा छुडाकर देश की राजधानी दिल्ली में जाकर अपने नए सिंहासन पर बिराजें. उधर जिन साहब को इस कुर्सी पर बैठना था उनके लिए ये एक बहोत बड़ी कुर्सी थी. वो किसी छोटे से स्टेशन पर महज़ एक फ़ार्म रेडियो अफसर थे. आप अगर आकाशवाणी का मैन्युअल उठाकर देखें तो एक प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की ड्यूटीज़ तीन पेज में दी हुई हैं जबकि एक फार्म रेडियो ऑफिसर की ड्यूटीज़ सिर्फ तीन लाइन्स में. ऐसे में कोई फार्म रेडियो ऑफिसर डायरेक्टर की कुर्सी तक पहुँचने का ख्वाब भी नहीं देख सकता था. उनका भाग्य कि वो एक ऐसे तबके के थे जिन्हें हर जगह तवज्जो दी जा रही थी. डायरेक्टर की कुछ पोस्ट्स निकली जो सिर्फ और सिर्फ उनके ही तबके के लोगों के लिए थीं. उन्होंने अप्लाई किया, बिना किसी बड़ी दिक्क़त के उसमे पास हो गए. जैसे ही उन्हें पास होने का समाचार मिला और सूरतगढ़ पोस्टिंग का ऑफर मिला, उन्होंने नक़्शे में सूरतगढ़ ढूंढा और आव देखा न ताव , सूरतगढ़ के लिए रवाना हो गए. सूरतगढ़ आकर उस गांवनुमा कस्बे को देखकर एक बार थोड़े घबराए लेकिन डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठने की कल्पना ने मानो उनके पंख लगा दिए. रेलवे स्टेशन के बाहर एक घटिया से ढाबे में उन्होंने अपना सामान रखा, नहाए धोये, खाना खाया और एक साइकिल रिक्शा लेकर आकाशवाणी जा पहुंचे.

उस वक़्त तक लंच टाइम हो चुका था और हमारे आउटगोइंग डायरेक्टर साहेब लंच के लिए जा चुके थे. मैदान खाली था. नए डायरेक्टर साहब दफ्तर में आये और आकर न किसी से बात की न किसी से कुछ पूछा, डायरेक्टर के कमरे में आकर उस कुर्सी पर बिराजमान हो गए जो कि डायरेक्टर के लिए तयशुदा थी. उन्होंने तो बेचारों ने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि वो डायरेक्टर की इस कुर्सी पर बैठ सकते हैं. अब उनके पास इस पोस्ट का अपॉइंटमेंट लैटर भी था और कुर्सी भी खाली पडी थी. दफ्तर में जो लोग मौजूद थे , उन्होंने झाँक कर डायरेक्टर साहब के कमरे में देखा कि एक काला सा छोटे क़द का  इंसान डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठा हुआ फ़ोन पर बातें किये जा रहा है . सूरतगढ़ में उन दिनों फोन पर लॉक तो बहोत दूर की बात थी, डायल वाला फ़ोन भी नहीं था. फ़ोन उठाने पर उधर से ऑपेरटर पूछता था, नंबर पिलीज़ और तब आप जो नंबर बताते थे वो उस नंबर से जोड़ देता था.

हमारे नए डायरेक्टर साहेब उस कुर्सी का आनंद उठाते हुए फोन पर फोन किये जा रहे थे कि तभी आउटगोइंग डायरेक्टर साहब खाना खाकर लौटे. जैसे ही अपने कमरे में घुसने को हुए , देखा एक आदमी उनकी कुर्सी पर पसरा हुआ फ़ोन पर किसी से बड़े इत्मीनान से बातें कर रहा है. वो एकदम  चकराए कि ये क्या माजरा है? फ़ोन पर बात करते करते ही उस आदमी ने हाथ के इशारे से हमारे आउटगोइंग डायरेक्टर साहब को बैठने को कहा. वो बेचारे बैठ गए. थोड़ी देर गपियाने के बाद नए डायरेक्टर साहब ने फोन क्रेडिल पर पटका और वैसे ही पसरे पसरे कहा , “ हां बोलो, क्या बात है ?”

आउटगोइंग डायरेक्टर साहब को समझ नहीं आया कि क्या जवाब दे. उन्होंने सिर्फ इतना सा कहा, “ जी आप............?”

“देख नहीं रहे हो डायरेक्टर के कमरे में डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठा हूँ तो यकीनन डायरेक्टर ही हूँ. आप कौन हैं और क्या चाहिए आपको ?
“जी मैं भी डायरेक्टर ही हूँ. अब तक इस कुर्सी पर मैं ही बैठता था और मेरे ख़याल से जब तक मैं आपको चार्ज नहीं दे देता, मैं ही इस स्टेशन का डायरेक्टर हूँ.”

“देखो जी फालतू की बात तो करो मत ना मुझसे. ये मेरा अपॉइंटमेंट लैटर है. इसके मिलते ही मैं इस स्टेशन का डायरेक्टर हो लिया .”

आउटगोइंग डायरेक्टर साहब के चेहरे पर पसीना आ गया. वो उस इंसान को कैसे समझाते कि जब तक वो नए साहब को चार्ज नहीं देते वही डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठने के हक़दार थे. उन्होंने अपना पसीना पोंछा, बाहर खड़े चपरासी से कहा कि अकाउंटेंट को बुलाये. अकाउंटेंट आया, उसी वक़्त चार्ज हैन्डिंग ओवर टेकिंग ओवर हुआ और हमारे आउटगोइंग डायरेक्टर साहब अपने दो चार ज़रूरी कागज़ात उठाकर चुपचाप दफ्तर से निकल गए.

अब नए डायरेक्टर साहब ने फ़ौरन एक मीटिंग बुलाई जिसमे ड्यूटीरूम के स्टाफ को भी बुलाया गया. लिहाजा हम लोग भी उस मीटिंग में पहुंचे. उनके पहले प्रवचन से साफ़ हो गया कि जिस पोस्ट से उठाकर सरकारी नियमों ने उन्हें डायरेक्टर की कुर्सी पर बिठा दिया है उस पोस्ट का असर अभी कुछ रोज़ उनके जेहन से जा नहीं सकता. वो अब भी उसी तरह बात कर रहे थे मानो फार्म रेडियो ऑफिसर हों. उनके बोलने में कहीं भी एक डायरेक्टर की संजीदगी नहीं थी.

उन दिनों सूरतगढ़ में आकाशवाणी की कॉलोनी तो बन गयी थी मगर एक बेडरूम के फ्लैट्स ही बने थे. डायरेक्टर और दीगर अफसरों के लिए बड़े फ्लैट्स नहीं बने थे. हम लोग भी एक फ्लैट में आ गए थे और हमारी खुशकिस्मती कि हमारे सामने वाले फ्लैट में हमारे डायरेक्टर साहब अपना परिवार लेकर आ चुके थे. सिर्फ सात बच्चे थे उनके. तीन लडकियां, फिर एक लडका और फिर तीन लडकियां. कॉलोनी में सारी औरतें बातें करतीं की जब तीन लड़कियों के बाद एक लड़का हो चुका था, तो फिर ये तीन लडकियां पैदा करने की इन्हें क्या सूझी ? मगर खैर ये तो अपनी अपनी मर्जी है, कोई क्या कर सकता है.?

अब सवाल ये उठता था कि अपने सात बच्चों के साथ वो दो कमरों के इस घर में सोयें कैसे ? ख़ास तौर पर तब जबकि बड़ी लडकियां काफी बड़ी हो गयीं थीं. आखिरकार तय हुआ कि कुछ लोग दो पलंगों के ऊपर सोयेंगे और बाकी लोग उनके नीचे. यानी रात को अगर उनके घर कोई चला जाता तो लगता था, कोई घर न होकर चिड़ियाघर था, जिसमें चारों और कुछ लोग बिखरे रहते थे.

इधर पूरे दफ्तर का हाल खराब हो चुका था क्योंकि जहां पुराने डायरेक्टर साहब बहोत होशियार इंसान थे, नए डायरेक्टर साहब सरकारी नियमों की वजह से डायरेक्टर तो बन गए थे मगर उनमें डायरेक्टर वाली कोई काबलियत नहीं थी. न उन्हें रेडियो के हिसाब से बोलना आता था और ना ही किसी प्रोग्राम की कोई समझ उनमे थी. आकाशवाणी को वो आकाशवाडी बोलते थे और मीटिंग में ऐसी ऐसी बातें करते थे कि पूरे वक़त लोग एक दूसरे के सामने देखकर बस मुस्कुराते ही रहते थे. वो हमेशा मीटिंग में बोलते थे, “ मुझे आकाशवाडी में सुद्ध बोलने वाले ही चाहिए.”

हम लोग बस मुस्कुरा कर रह जाते. मुझसे जब सहन नहीं होता तो मैं बोल दिया करता था, “यस सर हम सुद्ध बोलने की ही कोसिस करते हैं.”

इसी बीच श्री गोकुल गोस्वामी प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बनकर आ गए. इधर तीन एनाउंसर नए रिक्रूट होकर आ गए. श्री मोहम्मद सलीम बनारस से, श्री ओमकार नाथ मिश्र बिहार से और एक साहब श्री जय प्रकाश दुबे राजस्थान से ही . एक बहोत मज़ेदार बात हुई . एक रोज़ जब ऑफिस आया तो देखा कुछ सामान दफ्तर में रखा हुआ था. दो तीन सूटकेस और एक बेडिंग. उत्सुकता के साथ मैंने सामान पर नज़र डाली, उस पर कुछ कार्ड्स लगे हुए थे. मैंने कार्ड पढ़ा, जयप्रकाश दुबे, उद्घोषक, आकाशवाणी, सूरतगढ़. मुझे ताज्जुब हुआ. कौन साहब हैं ये? मैं ड्यूटीरूम में आया तो पांच फुट के एक साहब ने मेरा उसी ड्यूटीरूम में स्वागत किया जिसमे पिछले डेढ़ साल से मैं ड्यूटी कर रहा था. बोले, “मेरा नाम जय प्रकाश दुबे है मैं यहाँ एनाउंसर हूँ.”

मैं मुस्कुराया और बोला, “जी, आपका सामान बाहर देखा, उसपर कई चिप्पियाँ चिपकी हुई थीं आपके नाम की. लेकिन क्या आपने ज्वाइन कर लिया है?”

वो लापरवाही के साथ बोले, “ जी नहीं अभी ज्वाइन तो नहीं किया है लेकिन मेरे पास इस पोस्ट का ऑफर है.”

“ओह..... बहोत अच्छा, लेकिन पहले आप ज्वाइन कर लीजिये. चलिए मैं आपको ज्वाइन करवाता हूँ.”
“अच्छा, आप यहाँ क्लर्क व्लर्क होंगे.”

“हाँ कुछ भी समझ लीजिये. आइये.”

“मैं उन्हें दफ्तर में लेकर आया और अकाउंटेंट को बताया कि ये साहब एनाउंसर हैं, इन्हें ज्वाइन करवा लीजिये.”

वो ज्वाइन करने की फोर्मेलिटीज़ में लग गए और मैं अपने काम में लग गया. 
तीनों उद्घोषकों ने ज्वाइन कर लिया था. ओमकार नाथ मिश्र तम्बाकू का पान अपने मुंह में दबाये हुए अपना काम करते थे और आचार्य जी की तरह ठहाके लगाया करते थे, मोहम्मद सलीम राही, थोड़े संजीदा किस्म के इंसान थे और हमारे दुबे जी जो एनाउंसर की पोस्ट को शायद प्रधान मंत्री की पोस्ट से बस थोड़ी सी छोटी पोस्ट मानते थे, पूरे शहर में अपना परिचय दे देकर घूमते फिरते थे.

इधर मेरा बीकानेर का कोर्ट केस चल रहा था. हर पंद्रह बीस दिन में एक बार मुझे बीकानेर जाना होता था और मेरी ये यात्रा मेरे लिए बहोत तकलीफदेह होती थी क्योंकि कोर्ट में मैं एक मुल्ज़िम था, 179, 337 338 के साथ साथ attempt  to murder केस का. कोर्ट में जाते ही हर सीढ़ी पर कुछ रुपये चढाने होते थे और हर इंसान वहाँ मुझे अजीब सी नज़रों से देखता था. ऐसे में मेरा भरपूर साथ दिया बोहरा जी ने. वो सूरतगढ़ से बीकानेर तक मेरे साथ मेरी बन्दूक उठाकर चला करते थे और पूरे वक़्त मेरे साथ रहते थे. मुझे नहीं पता कि मैं उनके लिए क्या कर पाया लेकिन उन्होंने मेरे उस मुश्किल वक़्त में जिस तरह से साथ दिया , उसे में ताउम्र नहीं भूल सकता.

सब लोगों को ये तो पता चल चुका था कि मेरा सलेक्शन प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए हो चुका है. जाने ये लोगों के मन की जलन थी या मेरे बर्ताव में ही कोई कमी थी कि कई लोग मुझसे पंगा लेने को तैयार ही बैठे रहते थे. बीकानेर की मेरी मित्र मंडली ने इस बीच मेरे ऊपर कई उलटे सीधे कोर्ट केस दायर कर दिए थे. इधर मैं वो सारे केस लड़ रहा था उधर सूरतगढ़ के मेरे दफ्तर में ख़ास तौर पर कई इंजीनियर बिना किसी वजह से मुझसे पंगा ले रहे थे क्योंकि सब समझते थे कि कोई भी मुझसे झगड़ा करेगा तो गलती मेरी ही मानी जायेगी क्योंकि मेरे खिलाफ कई कोर्ट केस चल रहे हैं और मेरा ट्रान्सफर पनिशमेंट के तौर पर हुआ है.

एक इंजीनियर साहब थे श्री के...... माफ़ करें पूरे नाम नहीं लिखूंगा ऐसे लोगों के क्योंकि एक तो उन्हें पब्लिसिटी नहीं देना चाहता, दूसरे बहोत साल गुज़र गए इन बातों को, हो सकता है वो अपने पोतों पड़पोतों के साथ बैठ कर इस किताब को पढ़ें तो अपने आगे की पीढ़ियों के बीच नाहक उनकी इज्ज़त खराब हो जायेगी. एक दिन एक रिकॉर्डिंग के लिए बाहर गया था मैं. लौटा तब तक रात के १२ बज गए थे. आकाशवाणी का रिकॉर्डर और कुछ टेप्स मेरे पास थे, जिन्हें मैं घर नहीं ले जा सकता था. मैंने स्टूडियो का ताला खुलवाया और टेप रिकॉर्डर ड्यूटी रूम में रख दिया. टेप्स अपनी अलमारी में रखे क्योंकि अगले दिन मुझे उनसे प्रोग्राम बनाना था.  स्टूडियो बिल्डिंग पर एक सील लगा करती थी जिस पर कंट्रोल रूम के इंजीनियर्स दस्तखत किया करते थे. ज़ाहिर है की ड्यूटी रूम तक जाने के लिए मुझे उस सील को तोड़कर ही जाना था. बस इसी बात ने एक बतंगड़ का रूप  ले लिया. अगले दिन जब के..... महोदय ने देखा कि सील पर मेरे दस्तखत हैं तो वो जोर जोर से चिल्लाने लगे और स्टेशन इंजीनियर के पास जाकर शिकायत की कि मैंने रात को स्टूडियो बिल्डिंग की सील तोड़कर नियम के खिलाफ काम किया है क्योंकि स्टूडियो बिल्डिंग में सील लगाना और उसे तोड़ना सिर्फ इंजीनियर्स का हक होता है. स्टेशन इंजिनियर  विजय साहेब बहोत संजीदा और मुहज्ज़ब इंसान थे . उन्होंने के..... साहब को समझाया कि वो बात का बतंगड़ ना बनाएं, जो हुआ उसमे कुछ भी गलत नहीं हुआ लेकिन के..... साहब कुछ ज़्यादा ही जोश में थे. मैं अगले दिन डबिंग रूम में कुछ काम कर रहा था, वो आये और बोलने लगे, “आपने सील तोड़ने की हिम्मत कैसे की?” मैंने कहा, “ज़रा आप सोच कर देखिये कि उस वक़्त मैं और क्या कर सकता था?”

“मैं कुछ नहीं जानता, ये सिर्फ इन्जिनियर इंचार्ज ही कर सकता है और कान खोलकर सुन लीजिये, आप ब्लडी ड्यूटी ऑफिसर उसके अंडर में ही काम करते हैं.”

ये बात बिलकुल गलत थी. हम ड्यूटी ऑफिसर अपना काम करते थे और इन्जीनियेर्स अपना. कोई एक दूसरे के नीचे या ऊपर काम नहीं करते थे, बल्कि जो लोग रेडियो से जुड़े हुए रहे हैं वो मेरी बात की ताईद करेंगे कि जब भी कोई फैसला लेने का वक़्त आता था, ड्यूटी ऑफिसर को ही फैसला लेना होता था और इन्जीनियेर्स को उस फैसले के मुताबिक काम करना होता था. के.... साहब पर जाने उस वक़्त क्या भूत सवार था कि वो चिल्ला चिल्लाकर मुझे ज्ञान देने लगे. मैं थोड़ी देर उनकी बातें खामोशी से सुनता रहा. इससे उनका हौसला और बढ़ गया और वो मुझसे झगड़ा करने लगे. अब मैं अपने पर काबू नहीं कर सका. मैंने कहा, “दुबारा कहिये, जो आपने अभी कहा.” वो चिल्लाकर बोले, “ हाँ आप ड्यूटी ऑफिसर हमारे अंडर में काम करते हैं.”

बस इतना बहोत था मेरे सब्र को तोड़ने के लिए. मैंने उनकी कॉलर पकड़ी, तीन चार बार उनके सर को दीवार से टकरा दिया, खींचकर दो झापड़ उनके मुंह पर रसीद कर दिए और बोला, “ये ले अफसर के बच्चे, झाड अपनी अफसरी अब जहां भी झाड़नी हो.”

वो हक्के बक्के रह गए. अपने गालों को सहला रहे थे कि एक तकनीशियन ने डबिंग रूम के शीशे  से झाँक कर देखा और दो मिनट में पूरे ऑफिस में ये बात फैल गई थी कि मैंने के........ साहब की पिटाई कर दी है. लोगों ने उन्हे बहोत भरा कि वो मेरी शिकायत करें लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हुई. इसी बीच ये बात घूमती घामती न जाने कैसे उनके घर तक पहुँच गई. उनकी बीवी ने उन्हें धिक्कारा कि वो मार खाकर आ गए. पूरे ऑफिस के लोगों में चर्चा हो रही थी कि वो मेरे हाथ से पिट गए, उसका असर उनपर इतना नहीं हुआ लेकिन जब उनकी बीवी ने उन्हें इसी बात के लिए धिक्कारा तो वो सहन नहीं कर पाए और मुझे मज़ा चखाने का मौक़ा ढूँढने लगे.

आकाशवाणी काफी दूर था, शहर से. सभी लोग शाम की ड्यूटी में पैदल आया करते थे ताकि रात में ऑफिस की कार से लौट सकें. दो तीन दिन बाद ही मेरी भी शाम की ड्यूटी थी और उनकी भी. तब तक हम लोग पूरी तरह से कॉलोनी में शिफ्ट नहीं हुए थे. जब मैं आकाशवाणी के पीछे के मैदान को पार कर रहा था, के..... साहब मेरे पास आ कर मुझे ललकारने लगे. मैंने कहा, “जाओ यार जितनी मार खा ली क्या वो काफी नहीं है?”

उन्हें शायद अपनी बीवी की धिक्कार याद आने लगी, वो मेरे ऊपर टूट पड़े, मैं उन्हें अपने ऊपर से हटाता रहा, लेकिन जब मुझे लगा कि वो इस तरह नहीं हटने वाले. मैंने अपने हाथ खोले और उनकी पिटाई करने लगा. वो बेचारे डेढ़ पसली के इंसान. बस मार खाने लगे और मैं उनकी जमकर पिटाई करने लगा. उनके मुंह से खून बहने लगा और खूब अच्छी तरह मार खाकर आखिरकार वो वहाँ से भाग लिए. जाकर स्टेशन इंजीनियर विजय साहब को अपनी चोटों के निशान दिखाए. विजय साहेब ने उनसे कहा कि चूंकि मारपीट ऑफिस से बाहर हुई है, उन्हें खुद पुलिस में रिपोर्ट करवानी चाहिए. वो पुलिस स्टेशन गए भी लेकिन बोहरा जी जैसे मेरे दोस्तों ने जाकर उनके कान में कहा कि अगर वो रिपोर्ट करेंगे तो बाहर उनकी खैरियत नहीं. अभी तो थोड़ी ही मार पडी है, अगर पुलिस का झमेला किया तो मार मारकर उनका भुरता बना दिया जाएगा. बुनियादी तौर पर डरपोक इंसान तो थे ही, बस बीवी के चढाने पर लड़ने आ गए थे, जब उन्होंने सुना कि और पिटाई होने के आसार बन रहे हैं तो हारकर वो वहाँ से लौट आए और थोड़े ही दिन बाद अपना ट्रान्सफर करवाकर भाग लिए.

एक और इंजिनीयर साहब थे श्री बी........ जो कण्ट्रोल रूम में ड्यूटी कर रहे थे. मैं ड्यूटीरूम में ड्यूटी कर रहा था. रेडियो पर जो भी प्रोग्राम चलता उसे सुनना मेरी ड्यूटी थी. दिन का वक़्त था. स्टूडियो से कोई प्रोग्राम चल रहा था कि अचानक वो रुक गया और मुझे किसी और भाषा के कुछ ऊटपटांग शब्द सुनाई दिए. मैंने कण्ट्रोल रूम में फोन किया कि भाई ये क्या हो रहा है? उधर से आवाज़ आई, जो हो रहा है, ठीक हो रहा है, आप अपना काम कीजिये. मैंने शान्ति से जवाब दिया कि भाई आपको बताकर कि ब्रॉडकास्ट में कुछ गड़बड़ हो रही है, मैं अपना काम ही कर रहा हूँ. उधर से आवाज़ आई, “यू शट योर ब्लडी माउथ”. मैंने उनसे कुछ भी गलत नहीं कहा था, बस जो गलती ब्रॉडकास्ट में हो रही थी, उस ओर इशारा भर किया था. मैंने सोचा, जाने दो घर से लड़कर आये होंगे. कुछ ही मिनट गुज़रे होंगे कि फिर स्टूडियो का प्रोग्राम रुक गया और कुछ सेकंड्स के लिए किसी अजनबी जुबान में कुछ शब्द रेडियो पर आये. अब मैं उठकर कण्ट्रोल रूम की तरफ भागा. वहाँ जाकर देखा कि बी........ साहब मशीनों के साथ कुछ छेड़ छाड़ कर रहे हैं. मैंने कहा, “रेडियो पर चलते प्रोग्राम के बीच ये क्या कर रहे हैं आप ?”

इस पर उन्हें गुस्सा आ गया. वो चिल्लाये, “बाहर निकलो यहाँ से. ये कंट्रोल रूम है, यहाँ तुम्हारे बाप का राज नहीं चलता.”

इतना सुनना था कि मैं अपना आपा खो बैठा. मैंने कण्ट्रोल रूम में हमेशा मौजूद रहने वाली दो पैच कॉर्ड्स उठाई और उन पर टूट पडा. पैच कॉर्ड्स हंटर की तरह उनपर बरस रही थीं, वो नीचे गिरे हुए मार खा रहे थे और गालियाँ निकाल रहे थे. कण्ट्रोल रूम में ही मौजूद टेक्नीशियन ने भागकर स्टेशन इंजीनियर श्री आर सी विजय को इत्तेला दी. वो भागे हुए आये, लेकिन वो आये तब तक बी....... साहब की अच्छी तरह ठुकाई हो चुकी थी. विजय साहब ने मेरा हाथ पकड़ा और अपने कमरे में लेजाकर बोले, “ ये क्या करते हो महेंद्र तुम? आगे ही तुम्हारे ऊपर इतने कोर्ट केसेज़ चल रहे हैं, फिर नए बखेड़े क्यों खड़े कर रहे हो?”

            मैंने कहा, “ सर यहाँ हर इंसान सोचता है कि झगडा वो करेगा मुझसे और मारपीट भी कर लेगा लेकिन क्योंकि मुझ पर कोर्ट केस चल रहे हैं तो गलत मुझे ही माना जाएगा. अब मैंने इसकी परवाह करनी छोड़ दी है कि लोग क्या सोचते हैं. जो मुझसे पंगा लेगा मैं उसे ठीक कर दूंगा. जो होगा सो देखा जाएगा. दो चार कोर्ट केस और सही.”

चढ़ाने वालों ने बी........... साहब को भी चढ़ाया लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हुई मेरे खिलाफ कुछ लिखकर देने की क्योंकि उन्हें पता था कि वो लिखकर दे देंगे तो मेरे खिलाफ दफ्तर की कार्यवाही तो शुरू हो जायेगी लेकिन दफ्तर के बाहर अगर उन्हें मार पड़ी तो उन्हें कौन बचाने आयेगा. के.......... साहब की दुर्गति वो देख ही चुके थे.

इस तरह मैं सीधा सादा इंसान अब घोषित बदमाश बनता जा रहा था. कई बार मैं बैठे बैठे सोचा करता, क्यों ये दुनिया किसी सीधे सादे इंसान को इतना दबाने की कोशिश करती है कि उसे ज़ुल्म के खिलाफ खड़े हो जाना पड़ता है. किसी भी इंसान के क्रिमिनल बनने की शायद यही प्रक्रिया होती है.

एक तरफ जहाँ मैं सूरतगढ़ में बहोत दिल लगाकर मेहनत कर रहा था. हमने एनाउंसर और ड्रामा कलाकारों के ऑडिशन किये जिनमे पास हुए लोगों को ट्रेनिंग देने की ज़िम्मेदारी भी मुझे सौंपी गई, दूसरी तरफ अब स्टाफ के लोग मुझसे छेड़खानी करने में डरने लगे थे क्योंकि दो तीन लोग मेरे हाथ से पिट चुके थे. अन्दर से मैं उतना ही सीधा सादा प्राणी था, जितना रेडियो ज्वाइन करने के वक़्त था, लेकिन वक़्त और हालात ने मुझे ऊपर से एक सख्तजान लड़ाका इंसान बना दिया था.

आकाशवाणी सूरतगढ़ में नाटक की शुरुआत नरेन्द्र आचार्य जी ने की एक धारावाहिक के साथ. इस धारावाहिक का नाम था “न नमक न मिर्च”. इसमें दो पात्र होते थे और दोनों ही पात्र आचार्य जी ने निश्चित कर दिए थे. पुरुष पात्र मैं हुआ करता था और स्त्री पात्र सुश्री सुनंदा ओहरी हुआ करती थीं. पहले कुछ एपिसोड संगरिया में रहने वाले मशहूर लेखक श्री गोविन्द शर्मा ने लिखे थे, उसके बाद कभी गोविन्द जी लिखते थे तो कभी खुद नरेन्द्र आचार्य जी. ये साप्ताहिक धारावाहिक श्रोताओं में बहोत पोपुलर हुआ.

मोहम्मद सलीम भी नाटक लिखा करते थे, मैं भी कुछ टूटा फूटा लिख लिया करता था, आचार्य जी तो नाटक के आदमी थे ही. कुल मिलाकर नाटक का अच्छा माहौल आकाशवाणी सूरतगढ़ में बनने लगा था. आये दिन हममे से कोई एक इंसान नाटक लिखकर लाता और फिर सब उसपर चर्चा करते. हर तरह से जब नाटक की तहरीर दुरुस्त हो जाती तो हम लोग उसे मिलकर प्रोड्यूस किया करते. हर इंसान हर काम करने को तैयार रहता. हम सब मिलकर काम कर रहे थे लेकिन हमारे ऊपर जो साहब बैठे थे, वो तो “आकासवाड़ी” और “सुद्ध” बोलने वाले इंसान थे. उन्हें इन सबसे कोई लेना देना नहीं था. हाँ हम जो काम करना चाहते, उसमे कोई टांग नहीं अड़ाते थे. यानी काम करने की पूरी आज़ादी हमें थी.

इस वक़्त तक हमारे डायरेक्टर साहब काम के मामले में तो जीरो थे, मगर थे पूरे ईमानदार. रोज़ साइकिल रिक्शा से बाज़ार जाकर सब्जी लाते थे. किसी सरकारी सहूलियत का बेजा इस्तेमाल नहीं करते थे. सूरतगढ़ में एयर फ़ोर्स का बहोत बड़ा स्टेशन था. सैनिकों के लिए आकाशवाणी की तरफ से भी प्रोग्राम किये जाते थे और वैसे भी डिफेन्स के अफसर अपने जवानों के लिए आये दिन कुछ ना कुछ आयोजन करते ही रहते थे. इन आयोजनों में बाकी चाहे कुछ हो न हो, दारू की नदियाँ तो बहती ही थीं. इन सारे प्रोग्राम्स में हमारे डायरेक्टर साहब को भी बुलाया जाता. बस वहाँ से शुरू हुआ हमारे डायरेक्टर साहब की ज़िंदगी का एक नया चैप्टर. वो इंसान जो कभी कभार एक दो पैग ले लिया करता था, अब एयर फ़ोर्स की पार्टियों में जा जाकर बेतहाशा पीने लगा. कई बार तो मैंने अपनी आँखों से देखा कि नशे में बुरी तरह धुत वो एयर फ़ोर्स के अफसरों के सामने कुच्छ भी अंट शंट बोले चले जा रहे हैं. जैसे ही दारू की ट्रे उनके सामने आई, उन्होंने फिर एक ग्लास उठा लिया. उसमे से एक घूँट भरकर पास की टेबल पर रखा तो अनिल राम जी ने उस ग्लास को पास की झाड़ियों में खाली कर दिया. डायरेक्टर साहब तो नशे में इतने डूबे हुए रहते थे कि उन्हें याद भी नहीं रह सकता था कि उन्होंने अभी तो उस ग्लास में से एक ही घूँट भरा था, सारी दारू कहाँ चली गयी ? वो तो फिर से दूसरा ग्लास उठाकर शुरू हो जाते थे. अनिल जी फिर अपनी वही कारस्तानी दोहराते थे. इस कहानी का अंत एक ही तरह से हुआ करता था. डायरेक्टर साहब होश खोकर उल्टियां करने लगते थे और उन्हें गाडी में डालकर मुश्किल से घर लाया जाता था.

लोगों ने डायरेक्टर साहब को कहना शुरू कर दिया था कि दफ्तर में दो दो गाड़ियां होते हुए वो सब्जी लेने रिक्शा में जाते हैं तो क्या ये अच्छा लगता है? ये उनकी शान के खिलाफ है. एक दो बार वो डरते डरते गाडी लेकर बाज़ार गए, देखा कुछ नहीं हुआ तो हौसला खुल गया. अब वो अपने पूरे परिवार के साथ आकाशवाणी की गाड़ियों का भरपूर ज़ाती इस्तेमाल करने लगे. एक ईमानदार अफसर धीरे धीरे एक करप्ट अफसर में तब्दील हो रहा था. आटे में नमक जितनी बेईमानी तो सभी जगह चल जाती है लेकिन हमारे साहब इससे बहोत आगे निकल रहे थे. मैंने इन्हीं के बारे में इस किताब में एक जगह लिखा है कि स्टाफ के रिक्रूटमेंट में इन साहब ने लाखों रुपये की घूस लेकर ऐसे लोगों को भर लिया जो उन कुर्सियों के कतई हक़दार नहीं थे. जाने लोग इतिहास से कोई सबक क्यों नहीं लेते ? इतिहास भरा पडा है ऐसे लोगों के कारनामों से और उसके बाद उनके अंजाम से. इस तरह के किरदार के लोगों को आखिरकार अपने किये हर ऐसे काम की भारी कीमत चुकानी पड़ती है और इन साहब को भी चुकानी पड़ी. जब दूरदर्शन जयपुर के डायरेक्टर थे, घूस के एक केस में पकड़े गए और रिटायरमेंट से कुछ ही दिन पहले सस्पैंड कर दिए गए.





Sunday, January 28, 2018

कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन भाग- 54 ( महेंद्र मोदी के संस्मरणों पर आधारित श्रृंखला )




आकाशवाणी सूरतगढ़ में अब राजस्थान के अलग अलग स्टेशंस से अनाउंसर्स के टूर पर आने का सिलसिला ख़त्म हो गया था. अनाउंसर लोग भी शायद यही चाहते थे कि उन्हें इस टूर पर ना जाना पड़े क्योंकि इतनी छोटी सी जगह में जहां न तो रुकने के लिए कोई क़ायदे का होटल हो और न ही खाना खाने के लिए कोई कायदे का रेस्टोरेंट, वहाँ बड़े शहरों से आये लोगों को 15 दिन गुज़ारना भी बहोत भारी लगता था. ले देकर दाल रोटी खाने वालों के लिए बिल्लू महाराज का ढाबा था और मांस मच्छी के शौकीनों के लिए सेठी होटल था. सोने में सुहागा ये कि चूंकि नया नया रेडियो स्टेशन खुला था, पूरे शहर(वहाँ के लोग सूरतगढ़ को शहर ही कहते थे) की निगाहें यहाँ काम करने वालों पर लगी रहती थी क्योंकि उनके लिए रेडियो में काम करने वाले किसी फिल्म कलाकार से कम नहीं थे. ऐसे में उनकी हर गतिविधि पूरे शहर में चर्चा का विषय बन जाया करती थी. अगर कोई अनाउंसर साहब सुबह या दिन की ड्यूटी करने के बाद शाम में दो पैग लगाने की नीयत से किसी दारू के ठेके पर चला जाता था तो अगले रोज़ सूरतगढ़ के हर फ़र्द की ज़ुबान पर यही होता था कि फ़लां जी तो दारूबाज़ हैं.
  हमारी बात डायरेक्टर साहब ने मानी, इसके पीछे इस तरह की कई वजूहात भी ज़िम्मेदार थीं. अब हम तीन लोग थे मैदान में. मैं, शीला और सरदार कुलविंदर सिंह कंग. नाम जितना भारी भरकम है खुद सरदार जी उतने ही दुबले पतले एक दम सींकिया पहलवान थे. अब हमें ही अनाउंसमेंट करने थे, हमें ही लॉगबुक भरनी थी, हमें ही मटेरियल चेक करना था, हमें ही लायब्रेरी को देखना था, हमें ही बाहर की रिकॉर्डिंग्स करके लानी थी. यानी पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर सब कुछ हम तीनों लोग ही थे. हमारे ऊपर अचल साहब थे. वो बहोत ही नर्म लहजे में बात करने वाले, मुहज्ज़ब इंसान थे और उनके ऊपर हमारे डायरेक्टर साहब थे.  रोज़ मीटिंग डायरेक्टर साहब के कमरे में होती थी. वो मेरे सामने तो अब भी नहीं देखते थे, लेकिन मैंने नोटिस किया कि अनाउंसर्स के टूर का सिलसिला बंद हुआ और हम तीनों ने मोर्चा संभाल लिया उसके बाद उनके ललाट पर रहने वाली टेढ़ी मेढ़ी लकीरें वहाँ से गायब होने लगी थीं और चेहरे पर कभी कभी हल्की सी मुस्कराहट भी तैरने लगी थी. कभी कभार वो मीटिंग में हल्का फुल्का मज़ाक़ भी कर लेते थे लेकिन हँसते हुए भी एहतियात बरतते थे कि उनकी निगाहें मुझ से ना मिलें. मैं सोचता था, ये बर्फ कब पिघलेगी ? फिर खुद ही अपने आप को दिलासा देता था, कभी तो पिघलेगी ही.
इसी तरह कभी दिन रात की ड्यूटी कभी सुबह शाम की ड्यूटी यानी रोज़ ही दो दो ड्यूटी हम लोग कर रहे थे. गुप्ता जी अपना ट्रान्सफर करवाकर जा चुके थे. हालांकि हमें ड्यूटीज़ बहोत भारी पड़ रही थी मगर बिना किसी शिकवे शिकायत के हम तीनों काम किये चले जा रहे थे. कई बार हम तीनों में से किसी को छुट्टी जाना पड़ता तो जाने वाले को कहते थे, परवाह नहीं जाओ तुम पीछे हम लोग सब संभाल लेंगे. तब बाकी बचे दो लोगों को लगातार आठ आठ ड्यूटीज़ भी करनी पड़ जाती थी.
सूरतगढ़ बिलकुल पाकिस्तान के बॉर्डर पर है, इसलिए वहाँ एयर फ़ोर्स का बहोत बड़ा स्टेशन है. एक दिन सुना कि वहाँ कोई प्रोग्राम है और उसमें हमारे डायरेक्टर साहब और अचल साहब जा रहे हैं. उनकी सेना के तौर पर काम करने वाले हम तीनों ही लोग किसी दूसरे  काम में फंसे हुए थे. अचल साहब ने डायरेक्टर साहब को कहा कि रिकॉर्डिंग के लिए किसी इन्जीनियर को साथ ले लेते हैं. वो रिकॉर्डिंग कर लेगा और रिकॉर्डिंग लाकर हम लोगों को सौंप दी जायेगी. रेडियो रिपोर्ट हम में से कोई बना लेगा.
वो दोपहर बाद प्रोग्राम से लौटे तो मुझे तलब किया गया. डायरेक्टर साहब मुझे बुला रहे हैं, ये मेरे लिए एक ताज्जुब की बात थी. मैं उनके कमरे में पहुंचा. अचल साहब भी वहां मौजूद थे. मैंने कहा, “जी आपने याद किया ?”
डायरेक्टर साहब ने अपनी गर्दन झुकाए झुकाए ही कहा, “मिस्टर मोदी, ये रिकॉर्डिंग करके लाये हैं हम लोग. आपको रेडियो रिपोर्ट बनानी है. कर पायेंगे आप ?”
“जी सर, क्यों नहीं ?”
“अच्छा ये टेप्स ले जाइए, इन्हें सुनकर नैरेशन लिखकर मुझे सुनाइये.”
मैंने टेप्स लिए, उन्हें सुना. बीकानेर में पहले क़मर भाई के साथ और उसके बाद अकेले भी न जाने कितनी रेडियो रिपोर्ट्स बना चुका था इस लिए मेरे लिए नरेशन लिखना तो क्या पूरी रेडियो रिपोर्ट बना देने में भी कोई परेशानी नहीं थी. लेकिन डायरेक्टर साहब का हुकुम था कि नरेशन लिखकर उन्हें सुनाये जाएँ . मैं स्क्रिप्ट लेकर जा पहुंचा उनके कमरे में. उन्हें स्क्रिप्ट सुनायी. बहोत शान्ति से उन्होंने पूरी स्क्रिप्ट सुनी. जैसे ही स्क्रिप्ट पूरी हुई, उनके मुंह से निकला, “गुड पंडित जी.”
मैं चौंका....... उनका संबोधन थोड़ा बदल गया था. आज उन्होंने मुझे मिस्टर मोदी के नाम से नहीं पुकारा था, पंडित जी पुकारा था और सूरतगढ़ स्टेशन पर हर इंसान जानता था कि डायरेक्टर साहब  जिससे खुश होते हैं उसे पंडित जी कहकर बुलाते हैं और जिससे नाराज़ होते हैं उसे डॉक्टर के संबोधन से पुकारते हैं यानी आज वो मुझसे थोड़ा खुश हुए थे. मुझे नहीं पता था कि नियति मेरे लिए आगे क्या लिए बैठी है?मैं स्टूडियो में जाने लगा. पीछे मुड़कर देखा कि डायरेक्टर साहब अचल साहब के साथ मेरे पीछे पीछे चल रहे थे. मैं थोड़ा सा घबराया. मेरे चेहरे को शायद डायरेक्टर साहब ने पढ़ लिया. हलकी सी मुस्कराहट के साथ बोले, “चलिए पंडित जी, हम रिकॉर्ड करेंगे ये नरेशन.”
मैं क्या कह सकता था ?खुद डायरेक्टर साहब मेरे नरेशन रिकॉर्ड करने जा रहे हैं, मुझे समझ नहीं आया कि इससे मैं खुश हो जाऊं या कि सोचूँ कि उन्हें मुझपर भरोसा नहीं है कि मैं ठीक से नरेशन बोल पाऊंगा, इसलिए वो रिकॉर्डिंग के वक़्त स्टूडियो में रहना चाहते हैं.  स्टूडियो में जाकर नरेशन रिकॉर्ड किये गए. अचल साहब ने कहा, “चलिए अब बैठकर रिपोर्ट बना लेते हैं .”
 मिक्सिंग शुरू की ही थी कि मशीनें बैठ गईं. बैल की वही मशीनें लगी हुई थीं, जिनके बारे में मैं लिख चुका हूँ कि न जाने किस किस लेवल पर कितनी कितनी रिश्वतें ले देकर आकाशवाणी को बेशुमार  घटिया बैल की मशीनों से पाट दिया गया था. मशीनें देखने में बड़ी खूबसूरत हुआ करती थीं मगर काम करने में इतनी खराब कि हर स्टेशन के इंजीनियर्स दिन रात इन मशीनों से जूझते ही रहते थे. स्टेशन इंजीनियर आर सी विजय साहब को बुलाया गया. उन्होंने मशीने देखीं और बोले,  
“आप थोड़ा  वक़्त दीजिये. मैं देखता हूँ इन्हें.”
            हम लोग डायरेक्टर साहब के कमरे में आकर बैठ गए. चाय मंगवाई गयी. मैं तो चाय पीता ही नहीं था. मैंने हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए कहा, ”सर मैं चाय नहीं पीता.”
            डायरेक्टर साहब के मुंह का स्वाद थोड़ा कड़वा हो गया था. वो कुछ नहीं बोले. तभी कण्ट्रोल रूम से बुलावा आ गया. हम सब लोग फिर स्टूडियो जा पहुंचे. काम शुरू ही किया था कि मशीनें फिर बैठ गईं. विजय साहब को फिर बुलाया गया. उन्होंने बहोत ऊपर नीचे किया मशीनों को और बोले, “थोड़ा टाइम दीजिये. तीन चार घंटे लगेंगे शायद. आप लोग घर जाकर फ्रेश होकर आ जाइए. हम लोग देखते हैं तब तक.”
            डायरेक्टर साहब बोले, “लेकिन मैं एयर फ़ोर्स में कहकर आया हूँ कि कल दिन में एक बजकर दस मिनट पर ब्रॉडकास्ट करेंगे, हम लोग इस रेडियो रिपोर्ट को.”
            विजय साहब उम्र में हमारे साहब से बड़े थे. उन्होंने डायरेक्टर साहब के कंधे पर हाथ रखा और बोले, “आप थोड़ी देर रैस्ट करके आइये ना, हम लोग तब तक सब कुछ सही कर देंगे.”
            कोई चारा नहीं था. आकाशवाणी की जीप मुझे आज भी अच्छी तरह याद है, ड्राइवर जगदीश चला रहा था. आगे डायरेक्टर साहब बैठे हुए थे और पीछे मैं और अचल साहब. मेरा घर रास्ते में पड़ता था. वहाँ मुझे ड्रॉप करते हुए डायरेक्टर साहब बोले, “हम लोग डेढ़ घंटे में आ रहे हैं. आप तैयार रहिएगा.”
            मैंने कहा, “जी सर.”
            मैं घर में आया और सोचा कि डायेक्टर साहब और अचल साहब लौटेंगे तो क्यों न उन्हें एक एक कप कोल्ड कॉफ़ी पिला दी जाए. उसके बाद हम लोग जायेंगे और जब रेडियो रिपोर्ट  ख़त्म हो जायेगी, मैं अपना स्कूटर लेकर लौट आऊंगा और ये दोनों अफसर ऑफिस की जीप से घर चले जाएंगे. कॉफ़ी को बहोत अच्छी तरह घोटकर तैयार किया गया और उसे फ्रीजर में रख दिया गया. मैंने थोड़ी देर आराम किया और इंतज़ार करने लगा अपने अफ़सरों का.
            घर के बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा. मैं बाहर आया. देखा जगदीश जीप लिए खड़ा था. आगे की सीट पर डायरेक्टर साहब बिराजमान थे, पीछे अचल साहब. मैं जैसे ही बाहर आया, डायरेक्टर साहब मानो कहीं और देखने लगे. मैंने  कहा, “सर पांच मिनट, आप अन्दर आ जाइए, एक कप कॉफ़ी ले लीजिये फिर चलते हैं.”
            डायरेक्टर साहब के चेहरे के तास्सुर एकदम से बिगड़ गए और बहोत ही कड़वी और चुभने वाली आवाज़ में वो बोले, “नहीं मिस्टर मोदी, थैंक यू. हमें कोई कॉफ़ी नहीं पीनी है, आप चलिए.”
                        मैं एक बार फिर से मिस्टर मोदी हो गया था. बहोत बुरा लगा था मुझे उनका ये बर्ताव, इसके बावजूद मैंने दबी आवाज़ में एक बार फिर कोशिश की, “सर कॉफ़ी बनी हुई फ्रीजर में रखी हुई है, बस पांच मिनट लगेंगे पीने में.” अचल साहब ने तो जीप का दरवाज़ा भी खोल दिया था नीचे उतरने के लिए लेकिन डायरेक्टर साहब नहीं पिघले. उसी तरह पत्थर बने अपनी सीट पर बैठे रहे और बर्फ जैसी  ठंडी आवाज़ में बोले, “आपसे कहा ना, हमें कॉफ़ी नहीं पीनी है अभी, चलिए आप गाडी में बैठिये, देर हो रही है.”
 मैंने उसी दिन ये अहद किया, ये आदमी कभी मेरे घर की दहलीज़ नहीं पार करेगा. गुस्से में भरा हुआ मैं घर में आया, मैंने कोल्ड कॉफ़ी का जग नाली में उलट दिया और जीप में आकर बैठ गया बिना जीप में बैठे लोगों के चेहरों की तरफ एक भी नज़र डाले.
            हम लोग स्टूडियो में गए. विजय साहब और उनकी टीम के लोग अभी भी लगे हुए थे मशीनें ठीक करने में. रात के ग्यारह बजे विजय साहब मुंह लटकाए हुए आये और बोले, बहोत मेहनत की है हमने . आप लोग देखिये. शायद अब काम चल जाएगा.
            हमने कोशिश की लेकिन पांच मिनट का प्रोग्राम भी नहीं बना था और मशीनें फिर बैठ गईं. अब डायरेक्टर साहब के चेहरे पर पसीना छलछला गया. बोले, “मैंने एयर फ़ोर्स में खुद अनाउंसमेंट किया है कि कल एक बजकर दस मिनट पर ये रेडियो रिपोर्ट ब्रॉडकास्ट होगी. मेरी तो इज्ज़त चली जायेगी.”
            मैंने गर्दन झुका ली. अचल साहब की गर्दन भी झुक गयी. हम भला क्या कर सकते थे ?
            विजय साहब  बोले, “हम कुछ नहीं कर सकते अगर मशीनें काम नहीं कर रहीं . फिर भी हम हार नहीं मानेंगे. आप लोग जाकर सो जाइए. हम लोग काम करेंगे. सुबह छः बजे आप आइये. भगवान् चाहेगा तो तब तक सब कुछ ठीक हो जाएगा और आपका प्रोग्राम उसके बाद बन जाएगा.”
            डायरेक्टर साहब ज़रा ऊंची आवाज़ में बोले, “विजय साहब आधा घंटे की रेडियो रिपोर्ट बनाना कोई मज़ाक़ नहीं है. आप सुबह तक मशीनें ठीक करेंगे तो प्रोग्राम कब बनेगा आखिर ?”
             बहोत ही खराब मूड लिए हुए हम सब लोग स्टूडियो से चल पड़े. घर आकर सोया. सुबह पांच बजे उठकर नहाधोकर तैयार हो गया और इंतज़ार करने लगा गाड़ी का. पौने छः बजे हॉर्न बजा. मैं चुप चाप आकर गाड़ी में बैठ गया. मैंने महसूस किया कि कार में हर तरफ टेंशन पसरा हुआ था. स्टूडियो में जाकर देखा कि विजय साहब, श्री विजय खरबंदा, श्री एस के देव और कई इंजीनियर रात भर मशीनों से जूझकर थक चुके थे. विजय साहब बोले, “हमने रात भर काम किया है, उम्मीद है, मशीनें काम करेंगी अब.”
            मैंने टेप्स लगाए. काम शुरू हुआ लेकिन हमारी बदनसीबी. दस मिनट के बाद ही मशीनों ने जवाब दे दिया और विजय साहब रुआंसे से होकर बोले, “सॉरी.... मुझे नहीं लगता कि आपकी ये रिपोर्ट अब बन पायेगी. मुझे किसी को जयपुर भेजकर कुछ पार्ट्स मंगवाने होंगे जिसमे कम से कम चार दिन लग जायेंगे. “
            अब डायरेक्टर साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वो परेशान होकर बोले, “यानी मेरी इज्ज़त चली जायेगी इस शहर में ?”
            मैंने सुना, मेरे मुंह से निकला था, “नहीं सर, आपका सर नीचा नहीं होगा. ये रेडियो रिपोर्ट आज दिन में एक बजकर दस मिनट पर जायेगी.”
            वो एक दम हडबडाकर बोले, “लेकिन महेंद्र...... कैसे ?”
            “प्लीज़ आप और अचल साहब मेरे साथ चलिए डबिंग रूम में और...... और...... भरोसा रखिये.... सब कुछ ठीक होगा.”
            “ठीक है, जैसा तुम कहो...... “
            हम लोग डबिंग रूम में आये. एक मशीन पर मैंने अपने नरेशन लगाए दूसरी मशीन पर एयर फ़ोर्स में की गयी रिकॉर्डिंग. तीसरी मशीन पर दोनों तरफ खाली स्पूल. अचल साहब के हाथ में मैंने कैंची थमा दी थी और डायरेक्टर साहब सेलो टेप लेकर खड़े हो गए थे. मैं टेप्स के छोटे छोटे टुकड़े काट काट कर एडिटिंग कर रहा था. एक टुकडा अपने नरेशन का और उसके बाद जो जो टुकड़े एयर फ़ोर्स में की गयी रिकॉर्डिंग से लेने थे,  उन्हें सेलो टेप से चिपका चिपका कर तीसरी मशीन के खाली स्पूल पर लपेटता जा रहा था. इस तरह टेप काट काट कर  मैं वो रेडियो रिपोर्ट बना रहा था. ये सब कुछ हमारे देश में नहीं होता था. हम एक गरीब देश हैं. हम कैसे एक प्रोग्राम के लिए 10 टेप्स को काट काटकर फेंक सकते थे. मगर उस वक़्त और कोई रास्ता नहीं था. ये तो उसके बरसों बाद 1987 में जब मैं एक कैनेडियन प्रोजेक्ट में आया तब मुझे पता लगा कि ज़्यादातर अमीर देशों में एडिटिंग इसी तरह की जाती थी. वो तो बहोत बाद की बात है, अभी तो मैं 1981 की बात कर रहा हूँ, जब मैं कुर्सी पर बैठा हुआ टेप काट काट कर एडिटिंग कर रहा था और मेरे एक तरफ मेरे प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव कैंची लिए हुए खड़े थे और दूसरी तरफ मेरे डायरेक्टर सेलो टेप लिए हुए खड़े थे. दिन में एक बजते बजते..... रेडियो रिपोर्ट पूरी हुई और टेप स्टूडियो को सौंपी गयी. आज भी याद है मुझे..... डायरेक्टर साहब ने, उन्हीं डायरेक्टर साहब ने जिनके मुंह से मिस्टर मोदी भी बहोत तकलीफ के साथ निकलता था, मुझे गले लगाते हुए कहा था, “थैंक यूं महेंद्र, तुमने मेरी इज्ज़त बचा ली आज.”
            बस उस दिन के बाद मैं डायरेक्टर साहब के लिए महेंद्र हो गया . सिर्फ महेंद्र, न मोदी, न मोदी जी और न मिस्टर मोदी. ये बात अलग है कि उसके कुछ ही बरस बाद..........खैर इसे अभी छोडिये. तो मैं बता रहा था कि मैं अब डायरेक्टर साहब के लिए महज़ महेंद्र हो गया था. हर चार छः दिन बाद मुझसे पूछा करते, “महेंद्र, क्या ड्यूटी है?”
            “जी सर सुबह में ड्यूटी कर चुका हूँ.”
            “अच्छा शीला की क्या ड्यूटी है?’
            “जी दिन में.”
            “अच्छा, बेटा कैसा है ?”
            “जी सर बिलकुल ठीक.”
            “बहोत प्यारा बच्चा है महेंद्र, मन करता है उसके साथ खेलूँ थोड़ी देर.”
            “जी सर, थैंक्स.”
            चार छः दिन बाद फिर उनके यही सवाल होते थे और मेरे यही जवाब. मैं महसूस कर रहा था, वो चाहते हैं कि मैं उन्हें अपने घर बुलाऊँ, लेकिन मैं वो शाम नहीं भूल पा रहा था जब मैंने कोल्ड कॉफ़ी बना कर फ्रीजर में रखी थी और बहोत मिन्नतें की थी डायरेक्टर साहब से कि वो दो घूँट कॉफ़ी के ले लें. उन्होंने साफ़ मना कर दिया था और मैंने कॉफ़ी का वो जग नाली में उलट दिया था.
            कई दिन गुज़र गए. डायरेक्टर साहब का रवैया बिलकुल बदल गया था. अब महेंद्र के नाम का डंका बजने लगा था दफ्तर में कि एक दिन फिर डायरेक्टर साहब ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, “क्या ड्यूटी है महेंद्र ?”
            “जी सर एक महीने बाद आज छुट्टी मना रहा हूँ.”
            “अच्छा ? और शीला की क्या ड्यूटी है?”
            “जी अभी दिन में.”
            “यानी शाम को फ्री हो दोनों ?”
            “जी सर “
            “अच्छा तो फिर बेटे को लेकर मेरे गेस्ट हाउस आओ शाम को और मेरे साथ खाना खाओ तुम लोग.”
            मुझे लगा कि जो बात कहने की कोशिश वो पिछले काफी दिनों से कर रहे थे, आज कह दी है उन्होंने और अब मेरा जिद करना भी मुनासिब नहीं है. वो एक गेस्ट हाउस में रह रहे थे. हम उनके गेस्ट हाउस में डिनर के लिए जाएँ ये मुझे मुनासिब नहीं लगा क्योंकि हमने तो पूरी गृहस्थी बसा ली थी तब तक और वो उस गेस्ट हाउस में अकेले रह रहे थे. मैंने हाथ जोड़कर कहा, “सर आप गेस्ट हाउस में रहते हैं. हम वहाँ क्या आयेंगे? आप आइये हमारे घर....... बेटे के साथ खेलिए भी और डिनर भी लीजिये हमारे साथ.”
            “नहीं...... ये ग़लत बात है, आज तो तुम लोग ही आओगे. फिर जब भी तुम बुलाओगे, मैं आऊँगा ये वादा रहा.”
            हम शाम में उनके गेस्ट हाउस गए. बहोत देर तक वो बेटे के साथ खेलते रहे और उसके बाद हमने साथ खाना खाया. रात ग्यारह बजे हम लोग घर लौटे. मुझे लगा शायद हमारे लिए कुछ बेहतर दिन आ रहे हैं.
            दफ्तर में स्टाफ बढ़ने लगा था. श्री नरेन्द्र आचार्य  बनारसी पान का बीड़ा दबाये आकाशवाणी, सूरतगढ़ के गलियारों को अपने शानदार ठहाकों से जीवंत करने के लिए आ चुके थे. श्री अनिल राम जो कि मेरे साथ ही ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव बने थे, वो भी यू पी एस सी से प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव बनकर आ गए थे. जहां आचार्य जी की पहचान उनके ठहाके थे, वहीं अनिल जी का धीर गंभीर लेकिन पुरख़ुलूस बर्ताव हर एक को मोह लेता था.  उनके अलावा भी एक दो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव आकर ज्वाइन कर चुके थे. उनके बारे में कुछ ज़्यादा कहने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि उनका होना न होना मेरे लिए बराबर था. सही पूछिए तो मैंने उनके वजूद को कभी भी महसूस नहीं किया. कुछ लोग होते हैं जो आपकी ज़िंदगी में कुछ मिनटों के लिए आकर भी एक अहम् रोल अदा कर जाते हैं, आपके दिमाग़ पर ऐसा असर छोड़ जाते हैं कि आप उन्हें कभी भुला नहीं पाते, वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो लम्बे अरसे तक आपके साथ बने रहने के बावजूद आपको ज़रा भी मुतास्सिर नहीं कर पाते. बस जैसे आपकी ज़िंदगी में आते हैं वैसे ही चुपचाप आपकी ज़िंदगी से चले जाते हैं और आपको कभी याद भी नहीं आते. कभी कोई ख़ास मौके पर जेहन में उनकी हल्की सी तस्वीर उभरती है तो आपको याद आता है कि अरे हाँ, ये इंसान भी तो आया था मेरी ज़िंदगी में कभी. बस इतना ही वजूद रहता है उनका.
 इसी बीच श्री सत्य नारायण प्रभाकर अमन जयपुर से ट्रान्सफर लेकर आ गए थे, जिनसे मेरी मुलाक़ात 1973 में बस में हुई थी जब मैं भाई साहब और भाभी जी के साथ बीकानेर से जयपुर जा रहा था. उन्होंने आते ही चौपाल प्रोग्राम शुरू कर दिया और डायरेक्टर साहब से कहा कि उन्हें अपने प्रोग्राम में मेरी, शीला की और कुलविंदर की ज़रूरत है क्योंकि स्टाफ में हम तीन ही ऐसे लोग थे, जिन्हें चाहे जहां फिट कर लीजिये. डायरेक्टर साहब की तरफ से ना होने का कोई सवाल ही नहीं था. मेरा वो नाम फिर से सूरतगढ़ में गाँव वालों के बीच पहचान बनाने लगा जो उदयपुर में सरयू प्रसाद जी ने दिया था, “नारायण” . बस फर्क इतना सा था कि अमन जी को हम लोग सब चाचा जी कहते थे और वो मुझे नराण के नाम से पुकारते थे. जब बहोत लाड आता था तो वो नराणिया भी कह देते थे.
            प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव जो भी थे, दिन में दफ्तर के टाइम ही आते थे, बाकी टाइम तो हम तीन लोग ही थे आकाशवाणी को अपनी पीठे पर संभाले हुए. अनाउंसर का काम भी देखना था, ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव का भी. कई बार जब हम तीन में से कोई एक छुट्टी पर चला जाता था तो बाकी दो की हालत बहोत ही खराब हो जाती थी. बस लगातार ड्यूटी, ड्यूटी और ड्यूटी. ऐसे में नींद के लिए बुरी तरह से तरस जाते थे हम लोग. यहाँ तक कि पांच मिनट का टाइम मिलते ही हम लोग झपकी ले लेते थे.
            एक बार की बात है मैं इसी तरह से दो दिन से तीनों ड्यूटीज़ लगातार कर रहा था. तीसरे दिन सुबह की ड्यूटी में बार बार आँखे झपक रही थीं. जहाँ भी चार मिनट का रिकॉर्ड चलाना होता, मैं अगला रिकॉर्ड क्यू करके तीन मिनट की झपकी ले रहा था. आँखे जैसे एक एक मन की हो रही थीं. किसी तरह साढ़े आठ बजे. साढ़े आठ बजे शास्त्रीय संगीत का आधा घंटे का प्रोग्राम हुआ करता था. मैंने अनाउंसमेंट किया और टेप चला दिया. सोचिये...... जो इंसान चार मिनट का रिकॉर्ड चला कर भी झपकी ले सकता हो, उसे अगर आधा घंटे का टाइम मिल जाए तो वो कैसे नहीं सोयेगा ? टेप चलाकर मैंने कंसोल पर सर टिकाया और सर टिकाते ही मुझे गहरी नींद आ गयी. तीन तीन मिनट की झपकियों का दिमाग़ पर ये असर हुआ था कि एक आदत हो गयी, जैसे ही संगीत ख़त्म हो, आँख खुल जाए. शास्त्रीय संगीत का टेप ख़त्म हुआ, आदत के मुताबिक झट से आँख खुल गयी. आँख तो खुल गयी लेकिन नींद की कमी रहने की वजह से नींद इतनी पक्की आयी थे कि नींद नहीं खुली. अपने आस पास देखा, कुछ समझ नहीं आया कि कहाँ हूँ. सामने घड़ी दिखाई दी तो ये तो समझ आ गया कि स्टूडियो में हूँ मगर फिर भी पूरी तरह से होश नहीं आया. नौ बज रहे थे. मुझे छोटी सुई बड़ी नज़र आ रही थी और बड़ी सुई छोटी. मुझे लग रहा था पौने बारह बजे हैं. स्टूडियो के अन्दर क्या पता लगे कि दिन है या रात है. मुझे एक बार को लगा कि शायद रात के पौने बारह बजे हैं, मुझे सभा समाप्त होने का अनाउंसमेंट कर देना चाहिये. मैं इसी असमंजस में डूबा हुआ था, कण्ट्रोल रूम ने देखा कि स्टूडियो से कोई अनाउंसमेंट नहीं आया तो वहाँ बैठे इन्जीनियेर ने स्टूडियो काटकर रिले दे दिया. जैसे ही राज्य की चिट्ठी शुरू हुई , मुझे होश आया कि अरे........ घड़ी तो सुबह के नौ बजा रही है. कहाँ मैं सोच रहा था कि रात के पौने बारह बजे हैं . मैंने अपने आपके कसकर दो तीन थप्पड़ लगाए और सोचा, अगर मैं अभी माइक खोलकर बोल देता कि रात के पौने बारह बजे हैं अब हमारी ये सभा समाप्त होती है, तो लोग कितनी हंसी उड़ाते मेरी और मेरा सूरतगढ़ शहर में निकलना मुश्किल हो जाता.
            डायरेक्टर साहब  देख रहे थे कि मैं, मेरी शीला और कुलविंदर हम तीनों दिन रात काम कर रहे थे. हम शिकायत करते भी तो किससे ? हमने खुद ने ही आ बैल मुझे मार की तर्ज़ पर कहा था कि अनाउंसर्स को टूर पर ना बुलाया जाए. सारा काम हम लोग संभाल लेंगे. एक दिन मीटिंग में हम लोगों की खराब हालत की चर्चा हुई तो तय किया गया कि कैज़ुअल अनाउंसर्स का एक पैनल तैयार किया जाए ताकि उन लोगों को अनाउंसर की ड्यूटी पर लगाया जा सके.  रेडियो पर अनाउंसमेंट किया गया कि जो लड़के लडकियां ग्रेजुएट हैं और रेडियो पर काम करना चाहते हैं वो दरख्वास्त दें ताकि उनका ऑडिशन किया जा सके. खूब दरख्वास्तें आईं लेकिन जब हम लोग ऑडिशन करने लगे तो देखा, न किसी की हिदी दुरुस्त है और न ही किसी की उर्दू. सब पर एक अलग सा ही प्रभाव नज़र आ रहा था, कभी वो पंजाबी का लगता था तो कभी राजस्थानी का. फिर भी कुछ लोगों को तो लेना ही था. छांटकर कुछ लोग लिए गए और हम लोग उनकी भाषा सुधारने के काम में जुट गए.    
            इसी दौरान एक दिन मैं ड्यूटीरूम में बैठा हुआ था कि देखा एक दुबला पतला लड़का ड्यूटी रूम की तरफ आ रहा है और उसके पीछे पीछे सिक्योरिटी गार्ड भागा हुआ आ रहा है. मुझे समझ नहीं आया कि माजरा क्या है ? तभी वो सिक्योरिटी गार्ड भागकर मेरे पास आया और बोला, “ सर.... ये साब ज़बरदस्ती मुझे धक्का देकर अन्दर आ गए हैं....... मैंने बहोत रोका लेकिन इन्होंने मेरी बात ही नहीं सुनी.”
            मैंने उस शख्स की आँखों में झाँका. न जाने मुझे वहाँ क्या नज़र आया, मैं सिक्योरिटी गार्ड से बोला, “कोई बात नहीं, आप जाइए, मैं देखता हूँ.”
            अब मैं उस शख्स की ओर मुड़ा, “कहिये क्या बात है? कौन हैं आप और क्या चाहते हैं ? इस तरह सरकारी ड्यूटी कर रहे कर्मचारी से धक्का मुक्की करना कानूनन जुर्म है, जानते हैं आप ?”
            “जी मेरा नाम कृष्ण कुमार बोहरा है. मुझे यहाँ रेडियो में काम करना है. इसीलिये मैं अन्दर आकर आप लोगों से मिलना चाहता था. इस सिक्योरिटी गार्ड ने मुझसे कहा कि मैं उसे नाम बताऊँ जिस से मुझे मिलना है. मैं यहाँ किसी को जानता ही नहीं तो भला नाम किसका बताता. मैंने बहोत मिन्नत की आपके इस आदमी की कि मुझे किसी का नाम पता नहीं है, जो भी साहब अन्दर होंगे, मैं उनसे मिल लूंगा. इस पर ये अड़ गया कि जब तक मैं किसी का नाम ना बताऊँ ये मुझे अन्दर नहीं आने देगा. ऐसे में मैं क्या करता, मैंने इसे धक्का दिया और अन्दर आ गया
             मैंने कहा, “यहाँ काम करना है से मतलब ? आप जानते हैं, वही लोग यहाँ काम कर सकते हैं जिनकी भाषा अच्छी हो, उच्चारण अच्छे हों और जिनकी आवाज़ अच्छी हो.”
            “मुझे पता नहीं कि मेरी आवाज़ कैसी है लेकिन हाँ अगर आप सिखायेंगे तो मैं कुछ भी सीखने को तैयार हूँ.”
            मैं उनकी आवाज़ पर ध्यान दे रहा था. मुझे लगा, आवाज़ अच्छी भली है, उच्चारणों पर राजस्थानी का प्रभाव था, मगर हमें राजस्थानी बोलने वाले लोगों की भी ज़रूरत  तो थी ही अपने चौपाल प्रोग्राम के लिए. मैंने  कहा, “बोहरा जी, आप रेडियो में काम कर सकते हैं लेकिन आपको मेहनत करनी होगी. बोलिए, मंज़ूर है ?”
            “जी भाई साहब आप जितनी भी मेहनत करवाएंगे मैं करूंगा.”
            “ठीक है फिर, कल से आप आइये मेरे पास. मैं जितना भी जानता हूँ आपको सिखाऊंगा.”
            और उस दिन के बाद बोहरा जी मुझसे रेडियो में बोलने की ट्रेनिंग लेने लगे. मुझे लगा अभी इन्हें चौपाल के लिए ही तैयार करना चाहिए क्योंकि उनकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव था. ज़िंदगी के नाटक में कई बार अचानक कोई किरदार दाखिल होता है, आपको पता भी नहीं चलता और दाखिल होते ही वो बहोत अहम किरदार बन जाता है. बोहरा जी इसी तरह मेरी ज़िंदगी में दाखिल हुए. मुझसे बहोत छोटे हैं उम्र में, मगर जाने कैसे मेरे दिल में अपने लिए, इतनी इज्ज़त बना ली कि शुरू दिन से आज तक मैं उन्हें कभी उनके पहले नाम से या बिना “जी” के नहीं बुला सका. शुरू दिन से आज तक बोहरा जी ही कहता हूँ  बिलकुल इसी तरह कुछ लोगों के साथ इससे उलटा भी होता है. कई किरदार आपकी ज़िन्दगी में बहोत अहम् होते हैं मगर अचानक जाने कैसे उठकर हाशिये पर चले जाते हैं या अपनी ज़िंदगी के नाटक में से निकाल कर आपको हाशिये पर डाल देते हैं. इसकी एक बहोत अच्छी मिसाल थे हमारे डायरेक्टर साहब. सूरतगढ़ में और क्या क्या हुआ, बोहरा जी ने क्या क्या किया, हमारी ज़िंदगी कैसी चल रही थी, ये आगे के एपिसोड्स में लिखूंगा, आज मैं उन डायरेक्टर साहब की ही  कहानी पूरी कर देता हूँ.  जब से मैं उनके लिए महेंद्र बना, मेरी अहमियत उनकी नज़र में काफी बढ़ गयी थी. अब मुझे अपने हर फैसले में शामिल करने लगे थे वो. कई बार मेरे घर भी आये, यहाँ तक कि उनके कई राज़ जो सूरतगढ़ में कोई नहीं जानता था, उन्हें भी मेरे सामने खोलकर रख दिया उन्होंने.
            इस बीच मैंने यू पी एस सी में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की पोस्ट के लिए फॉर्म भरा और मेरा सलैक्शन हुआ, इसकी तफसील भी मैं आगे वक़्त आने पर लिखूंगा, बस इस वक़्त ये जान लीजिये कि मेरे सलैक्शन पर सबसे ज्यादा खुश होने वालों में हमारे डायरेक्टर साहब भी एक थे. जैसे ही ये खबर मिली कि मेरा सलैक्शन हो गया है, उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और बोले, “महेंद्र, आज मैं कितना खुश हूँ तुम इसका अंदाजा नहीं लगा सकते.”
            “आपका आशीर्वाद सर.”
            एक दिन उन्होंने बताया, “मेरा दिल्ली तबादला हो गया है एक्सटर्नल सर्विसेज डिवीज़न में. जल्दी ही चला जाऊंगा मैं सूरतगढ़ से.”
            मैंने दुखी होते हुए कहा, “सर आप अपने शहर के करीब पहुँच जायेंगे, इस नज़र से आपके लिए तो ये अच्छी खबर है मगर हमारे लिए तो ये बहोत बुरी खबर है कि आप यहाँ से जा रहे हैं.”
            “यही तो ज़िंदगी है महेंद्र, कौन एक ही जगह रहता है ? नौकरी में तो ये सब लगा ही रहता है.”
            “जी सर ये तो है.”
            “सुनो महेंद्र, मेरी एक इच्छा है, पूरी करोगे ?”
            “ जी फरमाइए क्या हुकुम है?”
            “ मैं चाहता हूँ कि दिल्ली जाने से पहले एक दिन पूरा हम लोग साथ रहें. मैं तुम्हारे बेटे के साथ खूब खेलना चाहता हूँ.”
            “ जी सर इसमें क्या दिक्क़त है ?जब आप कहें हम लोग प्लान कर लेते हैं.”
            “ठीक है, अगले सन्डे को गाडी लेकर कहीं पिकनिक पर चलते हैं, मैं और तुम्हारा परिवार, बस और कोई नहीं.”
             सन्डे को हम लोग निकल पड़े पिकनिक के लिए. खाने पीने का सामान हमारे साथ था. दिन भर इधर उधर घूमे. डायरेक्टर साहब रेत के धोरों में मेरे बेटे वैभव के साथ खेलते खेलते मानो अपने बचपन में पहुँच गए थे. मैं सोच रहा था, वैभव के साथ धोरों पर रेत उड़ा रहा ये इंसान क्या वही इंसान है जो हमें सूरतगढ़ में ज्वाइन करवाने को भी तैयार नहीं था और जिसने हमारे पहुँचते ही दिल्ली को कहा था कि मुझे ये दोनों लोग नहीं चाहिए ?
             घूमते घामते खाते पीते हम लोगों ने वो पूरा दिन गुज़ारा. दो तीन दिन बाद ही साहब दिल्ली के लिए रवाना हो गए. जाते जाते हमसे वादा लिया कि जब भी हम दिल्ली जायेंगे तो उनसे ज़रूर मिलेंगे.
            थोड़ा ही वक़्त गुज़रा था कि मुझे किसी काम से दिल्ली जाना पड़ा. जो काम दिल्ली में था, सो तो था ही लेकिन मन में एक उमंग थी कि जो डायरेक्टर साहब इतने प्यार और ख़ुलूस के साथ हमें मिलने की दावत देकर गए हैं, उनसे भी मुलाक़ात होगी. मैं अपना काम करूं उससे पहले ही ई एस डी में जा पहुंचा और उनकी पी ए को अपने नाम की पर्ची लिख कर दी. पी ए ने चपरासी के हाथों उस पर्ची को अन्दर भिजवा दिया. अब मैं पी ए के कमरे में बैठा उनके बुलावे का इंतज़ार करने लगा. करीब एक घंटे बाद चपरासी ने कहा, “जाइए सर आप अन्दर जाइए, साहब बुला रहे हैं.”  
            मैं उनसे मुलाक़ात की उमंग से भरा हुआ कमरे का दरवाज़ा खोल कर अन्दर पहुंचा. वो अपने सिंहासन पर विराजमान थे. कुछ कागज़ देख रहे थे, मैंने उनके सामने रखी कुर्सियों की ओर क़दम बढाए ही थे कि वो गर्दन हल्की सी ऊंची करके बोले, “आइये मिस्टर मोदी.........कहिये कैसे आये?”
            मुझपर जैसे किसी ने घड़ों पानी डाल दिया. मेरे पैर जहां थे वहीं थम गये. मैंने देखा उनके चेहरे पर एक बहोत ही रस्मी सी मुस्कराहट मौजूद थी. मैं जहां था, वहीं रुक गया. मुझसे नहीं रहा गया. मैं बोल ही पड़ा, “मैं........ फिर से..... मिस्टर मोदी..... हो गया? बड़ी मुश्किल से मैंने मिस्टर मोदी से महेंद्र तक का सफ़र तय किया था सर.......मैं फिर वहीं पहुँच गया ? खैर कोई बात नहीं सर......मैं आपके पास किसी काम से नहीं आया था, बस आपके दर्शन के लिए ही आया था.....अच्छा........ प्रणाम.”
            और मैं तेज़ी से उनके कमरे से बाहर आ गया और सोचने लगा, ये क्या हुआ....? क्या इंसान इतनी जल्दी इस तरह किसी को उसकी जगह से उठाकर हाशिये पर फेंक सकता है ?
             एक तल्ख़ हक़ीक़त थी जिसे कुबूल करना था, एक लम्बी सांस छोड़ते हुए मैं ब्राडकास्टिंग हाउस से बाहर आ गया.
            इसके बाद उनसे दो चार बार किसी मीटिंग में रस्मी सी मुलाकातें हुईं. ज़िंदगी में मेरा उसूल रहा कि अगर कोई आपसे दूर हटने के लिए एक क़दम बढाता है तो आपको दो क़दम बढ़ा लेने चाहिए. यही हुआ....... कई बार दिल्ली जाता था, मगर उस कमरे की ओर मैंने कभी रुख नहीं किया.
            बरसों गुज़र गए उनसे मुलाक़ात हुए. इस बीच वो डायरेक्टर से डी डी जी हो गए थे. मैं नागौर में पोस्टेड था और शीला कोटा में. हम दोनों दिल्ली गए थे कि उदयपुर में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव की खाली पड़ी दो पोस्ट्स पर ट्रान्सफर करवा लें. आकाशवाणी भवन से नीचे उतरकर  बिल्डिंग से बाहर आ रहे थे कि सामने देखा हमारे डायरेक्टर साहब जो अब डी डी जी साहब हो गए हैं सामने से चले आ रहे हैं. हम दोनों ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया, तो चौंक कर बोले, “अरे.....प्रणाम प्रणाम....कैसे हैं मिस्टर मोदी? कैसे आये दिल्ली ?”
            मैंने जवाब दिया, “सर हम लोग ट्रान्सफर के सिलसिले में आये हैं.’
            “ भई क्या बताएं ? मैं तो रिटायर होने वाला हूँ इसलिए कोई मेरी बात नहीं सुनता.”
            “ आप फिक्र न करें सर, हमारी बात कृष्णन साहब से हो गयी है और एक दो दिन में ऑर्डर्स हो जायेंगे.”
            “अच्छा अच्छा........ बहोत अच्छी बात है ये तो.........” कहते हुए वो दूसरी ओर मुड़ गए. बस ये मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात थी. इसके बाद उनसे मेरी कभी मुलाक़ात नहीं हुई. मुझे उनसे कोई शिकायत भी नहीं है क्योंकि शायद यही इस ज़माने की फितरत है. उनकी नज़रों में मुझे मिस्टर मोदी से महेन्द्र बनने में तो एक लंबा सफर तय करना पड़ा, लेकिन महेंद्र से मिस्टर मोदी मैं फ़ौरन बन गया. अब मुझे कोई ललक भी नहीं है उनके मुंह से महेंद्र सुनने की. वो जहाँ भी हैं खुश रहें, सेहतमंद रहें फिर भी  क़मर भाई की कही हुई बात रह रह कर याद आ जाती है, “जब जब तुम ऑफिस में दोस्त तलाश करोगे तो लाज़मी है कि तुम्हें ठोकर लगेगी.” मैं तो यहाँ दोस्ती से भी कुछ ज़्यादा की ही उम्मीद कर बैठा था.

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