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Wednesday, September 21, 2011

बड़े भैया यानी श्री विजय बोस को जन्‍मदिन मुबारक

रेडियोनामा पर मैं एक अनियमित श्रृंखला प्रस्‍तुत कर रहा हूं जिसका नाम है अग्रज पीढी। इस श्रृंखला के अंतर्गत
रेडियो की दुनिया के दिग्‍गज व्‍यक्तित्‍वों को याद किया जाता है। उनसे बातें की जाती हैं।
आज का दिन इस मायने में ख़ास है कि आज अग्रज पीढी के एक जाने-माने रेडियोकर्मी का जन्‍मदिन है।
रेडियोनामा पर इनकी बातें पहले भी हुई हैं।
आकाशवाणी इलाहाबाद के 'बड़े भैया' के नाम से मशहूर श्री विजय बोस।

रेडियो के उस दौर में जब तकनीकी सुविधाएं ज्‍यादा नहीं होती थीं, और इस सबके बावजूद रेडियो शीर्ष पर होता था, बडे भैया ने आकाशवाणी इलाहाबाद और शहर इलाहाबाद की सरहदों से परे सारे देश में नाम कमाया।
बच्‍चों के उनके कार्यक्रम बालसंघ के बारे में रेडियोनामा की एक पुरानी पोस्‍ट में बाक़ायदा चर्चा की जा चुकी है।


इलाहाबाद में उनसे मिलने का सौभाग्‍य भी हुआ। सन 2009 में 24 अक्‍तूबर के दिन बड़े भैया के घर जब मैं,ममता और जादू (और डाकसाब) गए तो वहां रेडियो की पुरानी दुनिया की बहुत सारी बातें हुईं। ये वीडियो मेरे संग्रह में जाने कब से पड़ा था। IMG_4718

लग ये रहा था कि इसे अच्‍छी तरह एडिट करके पेश किया जाए। यही नहीं हम चाहते थे कि इस बातचीत की इबारत भी दी जाए।

पर फिलहाल बड़े भैया के जन्‍मदिन के उपलक्ष्‍य में प्रस्‍तुत है अनकट वीडियो।

यहां रेडियो की दुनिया की शब्‍दावली इफरात में सुनाई पड़ेगी अगर दिक्‍कत आए तो पूछा जा सकता है।

भविष्‍य में इस बातचीत को शब्‍दांकित करके प्रस्‍तुत करने का वादा जरूर कर रहे हैं।

तो हमारे साथ आप सभी बड़े भैया को 84 वर्ष पूरे करने पर बधाईयां दीजिए।

ये वीडियो दो हिस्‍सों में है। तकरीबन आठ आठ मिनिट की दो फाइलें।

यानी कुल साढ़े सत्रह मिनिट के आसपास। बातचीत बेहद आत्‍मीय पारिवारिक और अनौपचारिक है। पर इसमें हैं रेडियो की दुनिया की अनमोल यादें।

पहला भाग।

दूसरा भाग


बडे भैया के बारे में विकीपीडिया पर यहां पढ़ें

और हाल ही में इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज की स्‍वर्ण जयंती के उत्‍सव पर बड़े भैया मंच पर उपस्थित हुए।
उसका वीडियो लिंक ये रहा

आपकी बधाईयां हम बड़े भैया तक ज़रूर पहुंचायेंगे।

 

Wednesday, September 14, 2011

रेडियो की दुनिया में कन्‍टेन्‍ट ही राजा है

प्रिय मित्रो हर दूसरे बुधवार को मशहूर समाचार-वाचिका शुभ्रा जी अपने संस्‍मरण लिख रही हैं। जिसका शीर्षक है 'न्‍यूज़रूम से शुभ्रा शर्मा'। अवकाश पर होने के कारण इस हफ्ते वे अपने आलेख के साथ नहीं आ पाईं। इसलिए उनकी जगह मेरा आलेख--जिसका संबंध रेडियो में कन्‍टेन्‍ट से है।

 


रेडियो की दुनिया कमाल की है। जिन कार्यक्रमों को आप आधे-एक या दो घंटे में सुनकर याद रखते हैं या फिर भुला देते हैं, पसंद करते हैं या फिर नापसंद करते हैं उनके पीछे गहरी सोच, मंथन, तैयारियां, रिहर्सल और विचार छिपे होते हैं। पहले एक विचार तैयार किया जाता है। उसके बाद उस विचार को एक शक्‍ल, एक आलेख या स्क्रिप्‍ट का रूप दिया जाता है। और उसमें संगीत या गानों की जगह तय की जाती है। उसके बाद कार्यक्रम को प्रस्‍तुत किया जाता है। ज़रा सोचिए कि इतनी सारी मेहनत का अंजाम ज़रा-सी देर में मिल जाता है।

रेडियो के लिए कार्यक्रम निर्माण बहुत कुछ फिल्‍म-निर्माण की तरह है। जिस तरह फिल्‍मों के हिट होने का कोई तयशुदा फॉर्मूला नहींlucknow_31_08_2011_page11 होता उसी तरह रेडियो पर कौन-सा कार्यक्रम लोकप्रिय हो जाएगा, इसका पहले-से अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। लेकिन ये तय है कि अगर ठोस तैयारी और बेहतरीन विचार के साथ कार्यक्रम लेकर श्रोताओं से मुख़ातिब हों तो उसका असर ज़रूर होता है। आपको ये जानकर थोड़ी हैरत हो सकती है कि रेडियो कार्यक्रम के फॉर्मेट को तय करने में इस बात का ध्‍यान रखना ज़रूरी होता है कि उसका प्रसारण दिन के किस समय किया जाएगा। मान लीजिए कि कोई बहुत ही ‘लाउड’ और ‘उछाल-भरा’ कार्यक्रम तैयार करना है तो सुबह आठ-नौ बजे से लेकर शाम पांच बजे तक का वक्‍त इसके लिए ठीक माना जाता है पर ढलती शाम और रात के वक्‍त थोड़े रूमानी और हल्‍के-फुलके कार्यक्रम पसंद किये जाते हैं। पर ये बात रेखांकित करते चलें कि इसका कोई तैयार फॉर्मूला नहीं है। हमेशा इसके अपवाद मिल सकते हैं।

रेडियो की सबसे बड़ी ताक़त होता है उसका कन्‍टेन्‍ट। जो ज्‍यादातर तो फिल्‍मी-गानों पर आधारित होता है पर बहुत बड़ा फर्क इस बात से पड़ता है कि फिल्‍मी गानों को आप पेश किस तरह से कर रहे हैं। यानी उसकी पैकेजिंग कैसी है। मैं बता रहा था कि कई बार टाइम-स्‍लॉट ग़लत होने के बावजूद कार्यक्रम हिट होते हैं। इसकी एक मिसाल था विविध-भारती का बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम ‘बाइस्‍कोप की बातें’। जिसे विविध-भारती के नामी प्रोड्यूसर लोकेंद्र शर्मा प्रस्‍तुत करते रहे। सन 1996 में ये कार्यक्रम वेराइटी शो पिटारा के तहत शुरू किया गया था। और विविध-भारती की कार्यक्रम-सारिणी ऐसी थी कि शाम चार बजे के सिवाय कोई गुंजाईश नहीं थी। ज़रा सोचिए कि अमूमन परिवार के घर पर रहने वाले सदस्‍यों का ये झपकी लेने का समय होता है। लेकिन इस कार्यक्रम की लोकप्रियता का असर ये था कि देश भर के हज़ारों लाखों शौक़ीन श्रोताओं ने अपने सोने के समय में तब्‍दीली कर दी थी। पिछले दिनों गुजरात के एक प्रशासनिक अधिकारी ने ये बताया कि इस कार्यक्रम को वो दफ्तर में सुन नहीं सकते थे। पर छोड़ भी नहीं सकते थे। ये उन दिनों की बात है जब मोबाइल पर एफ.एम.रेडियो का उतना चलन नहीं होता था। इसलिए इस कार्यक्रम के लिए वो या तो एक घंटे के लिए दफ्तर से ग़ायब होकर चाय की किसी गुमठी पर पाए जाते थे या फिर दफ्तर की छत पर, पार्किंग में या ऐसी किसी सहूलियत वाली जगह पर सुनते थे।

मैंने अब तक जो मिसाल दी है उससे आप ये समझ सकते हैं कि कन्‍टेन्‍ट हमेशा राजा होता है। कन्‍टेन्‍ट सब चीज़ों से ऊपर है। और वही है जो रेडियो-चैनल के निर्माताओं की नैया को पार लगा सकता है।

g0601845 रेडियो की दुनिया में आने के लिए लालायित नौजवानों के मन में अकसर यही सवाल उठता है कि वो कौन सी शैली अपनाएं। कैसे बोलें। कैसे लिखें। कैसे कार्यक्रम करें वो सुनने वालों का मन मोह ले और उनकी लोकप्रियता को शिखर पर पहुंचा दे। ऐसे में युवा और कम अनुभवी प्रस्‍तुतकर्ता अकसर एक बड़ी ग़लती करते हैं। अपने कार्यक्रम को बड़े ताम-झाम के साथ तैयार करने की ग़लती। ढेर सारे म्‍यूजिक-इफेक्‍ट। बहुत सारी बातें और जानकारियां। और खू़ब लटके-झटके के साथ बोलना। उसके बाद जब कार्यक्रम चल नहीं पाता तो वो निराश भी होते हैं। दरअसल इसकी एक ही वजह है। ज़रूरत से ज्‍यादा सजावट और स्‍टाइलिंग कहीं ना कहीं श्रोताओं को आपसे दूर करती है।

हमें ये समझ लेना ज़रूरी है कि रेडियो सुनने वालों में बहुत कम ऐसे लोग होते हैं, जो पूरी तन्‍मयता के साथ इसे सुनते हैं। ज्‍यादातर श्रोता अपनी जिंदगी के कुछ ज़रूरी काम कर रहे होते हैं और रेडियो उनकी जिंदगी का बैक-ग्राउंड म्‍यूजिक या पार्श्‍व-संगीत होता है। और वो इस पर तभी ध्‍यान देते हैं जब उन्‍हें कोई जानकारी अपने काम की लगती है। तब हो सकता है कि वो काम बंद कर दें और रेडियो की आवाज़ ऊंची कर दें। ज्‍यादा ‘लाउड’ तरीक़े से पेश किये गये कार्यक्रमों को इसलिए श्रोता अमूमन नकार देते हैं क्‍योंकि वो उनके सुकून को और उनके सोचने या मंथन करने की प्रक्रिया में अड़चन बन जाते हैं। रेडियो बहुधा मनोरंजन के लिए, तनाव दूर करने के लिए सुना जाता है। ज़ाहिर है कि अगर कोई कार्यक्रम तंग करे या आपके सुकून पर ग्रहण लगाए तो फौरन चैनल बदल दिया जाता है। आज का सच ये है कि श्रोताओं के पास बहुत विकल्‍प हैं। पर फिर भी वो विकल्‍पहीनता के दौर से गुज़र रहे हैं। इसकी वजह ये है कि जो विकल्‍प हैं वो अकसर काम के साबित नहीं होते।

फिर भी सुबह शाम पुराने गानों के सुनने के ख्‍वाहिशमंद श्रोताओं की तादाद कभी भी कम नहीं रहती। नए गानों का वक्‍त देर सुबह या फिर देर दोपहर को माना जाता है। आज के ज़माने में चूंकि बहुत सारे लोग सड़क पर सफ़र करते हुए अपनी गाड़ी या सार्वजनिक परिवहन में रेडियो सुन रहे होते हैं, इसलिए उनके लिए ये अपनी बोरियत को दूर करने का ज़रिया है। मजबूरी में वो हर तरह के गीत सुन सकते हैं। पर अगर रेडियो-प्रस्‍तुतकर्ता उनके साथ गानों को लेकर जुल्‍म करें तो वो अपनी मन की वादियों में गुम होना ज्‍यादा पसंद करेगा। आगे जब भी कभी मुलाकात होगी तो आपको बतायेंगे कि रेडियो की दुनिया में किस तरह अच्‍छी आवाज़ एक गुण होती है। पर वो एकमात्र गुण नहीं होती।

(लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश में 31 अगस्‍त को प्रकाशित)

Wednesday, September 7, 2011

बी.बी.सी. की प्रासंगिकता: जवरीमल्‍ल पारख का आलेख

रेडियो प्रेमियो को मालूम ही है कि विगत् अप्रैल महीने के अंत में बीबीसी हिंदी सेवा का बंद होना सुनिश्चित था। वित्तीय कारणों से एशिया महाद्वीप की इस अत्यंत लोकप्रिय प्रसारण संस्था की विदाई हाल फ़िलहाल टल गई है। रेडियो श्रोता संख्या और उसके वित्तीय तालमेल को लेकर बीबीसी का यह संकट क्यों टला है और कितने दिनों तक टल सकेगा; यही पड़ताल करता है यह महत्वपूर्ण आलेख। रेडियोनामा की ओर से हमारे साथी संजय पटेल ने जनसत्ता के संपादक ओम थानवी से बाक़ायदा इजाज़त लेकर यह लेख रेडियोनामा पर जारी किया है।

ब्रिटेन के विदेश मंत्री विलियम हेग ने पिछले दिनों बीबीसी को वित्तीय संकट से उबारने के लिए पैसठ करोड़ रुपए देने की घोषणा की। इस तरह हिंदी, अरबी सहित कई भाषाओं के उन रेडियो प्रसारणों को एक साल के लिए जीवनदान मिल गया है, जिन्हें समाप्त करने की घोषणा बीबीसी ने जनवरी में ही कर दी थी। हिंदी की रेडियो BBC-Logo प्रसारण सेवा बीते अप्रैल से बंद हो जानी थी। लेकिन भारतीयों ने सत्तर साल पुरानी इस सेवा को बंद करने के क़दम का विरोध किया था। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कई लेख प्रकाशित हुए, ब्लॉगों पर चर्चा चली और कई नामी-गिरामी लोगों की अपीलें प्रकाशित हुईं, जिनमें ब्रिटेन सरकार से अनुरोध किया गया था कि इस प्रसारण सेवा को बंद न किया जाए।

ऐसी एक अपील ब्रिटेन के प्रसिद्ध प्रगतिशील अख़बार 'दिन गार्डियन' में भी प्रकाशित हुई थी, जिस पर मार्क टुली सहित अठारह भारतीय और विदेशी विद्वानों ने हस्ताक्षर किए थे। इसमें अरुंधति राय, विक्रम सेठ, विलियम डालरिंपल, रामचंद्र गुहा, अमजद अली ख़ॉं, इंदर मल्होत्रा, कुलदीप नैयर, प्रशांत भूषण, सुनीता नारायण, किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश जैसे प्रख्यात लोगों के नाम थे। इनमें से मार्क टुली को छोड़कर, जो इस प्रसारण सेवा में कई दशक तक जुड़े रहे हैं, शायद ही कोई बीबीसी की हिंदी सेवा सुनता रहा होगा। इनमें से ़ज़्यादातर अपना लिखना-पढ़ना अंग्रेज़ी में करते हैं और अंग्रेज़ी मीडिया से ही उनकी पहचान है। लेकिन इन लोगों से दस्तख़त शायद इसीलिए कराए गए होंगे कि लंदन में बैठे अंग्रेज़ी प्रभुओं को प्रभावित किया जा सके। हिंदी में लिखने-पढ़ने वालों की "औकात' का पता तो इसी एक तथ्य से लग जाता है। बहरहाल, चाहे जिनकी प्रार्थनाओं का असर हो, बीबीसी की हिंदी सेवा एक साल के लिए बच गई है। क्या यह हिंदी वालों के लिए गर्व और गौरव का विषय है? क्या बीबीसी का हिंदी रेडियो प्रसारण बंद होने से हिंदीभाषी समाज कुछ ऐसी सच्चाइयों से वंचित रह जाता, जो सिर्फ़ बीबीसी उन तक पहुँचता रहा है?

BBC-Bush-House--006 बीबीसी से हिंदी में रेडियो प्रसारण की शुरूआत दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ११ मई, १९४० में हुई थी। तब इसका नाम था बीबीसी हिंदुस्तान सर्विस। इस प्रसारण का असली मक़सद उस दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ओर लड़ने वाले भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ाना और भारत के जनमानस को अपने पक्ष में करना था। लेकिन आज़ादी के बाद इस प्रसारण की भूमिका कुछ हद तक बदल गई। यह अपने प्रसारणों द्वारा भारत के शिक्षित, शहरी और कस्बाई मध्यवर्ग के बीच एक स्वतंत्र और स्वायत्त प्रसारण सेवा की छवि बनाने में क़ामयाब रहा। इस छवि को १९६५ और १९७१ के भारत-पाक युद्धों, आपातकाल और बाद में १९९२ में बाबरी मस्जिद ध्वंस के दौरान मज़बूती मिली। इस पूरी अवधि में भारत के रेडियो प्रसारण सेवा सीधे तौर पर सरकार के अधीन रही है।

इस बात में भी काफ़ी हद तक सच्चाई है कि आज़ादी के आरंभिक पैंतीस सालों में आकाशवाणी को वह स्वायत्ता नहीं मिली, जो बीबीसी को प्राप्त रही है। इसलिए संकट के इन दौरों में लोगों ने आकाशवाणी से ़ज़्यादा बीबीसी को विश्वसनीय माना। लेकिन यह विश्वसनीयता भारत-पाक, भारत-चीन और भारत की अंदरूनी समस्याओं के संदर्भ में ही था। इस संदर्भ में यह सवाल प्रायः नहीं पूछा गया कि जब-जब भारत और साम्राज्यवादी हितों में टकराव हुआ तब बीबीसी का रुख़ क्या रहा? इसकी स्वायात्ता और स्वतंत्रता ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के दायरे में ही रही है। यह और बात है कि भारत में सरकारी प्रसारण कभी भी उतनी स्वायात्ता हासिल नहीं कर पाया जो बीबीसी को रही है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नब्बे दशक से पहले तक बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा भारत में काफ़ी लोकप्रिय रही है। "दि गार्डियन' को लिखे जिस पत्र का उल्लेख किया गया है, उसमें यह भी दावा किया गया था कि बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में काफ़ी लोकप्रिय है। ऐसा दावा बहुत विश्वसनीय नहीं लगता, लेकिन यह ज़रूर है कि छोटे-छोटे क़स्बों तक में बीबीसी को सुनने वाले मौजूद रहे हैं और शायद आज भी हैं। लेकिन सच्चाई यह भी है कि टेलीविज़न प्रसारण के बहुविध राष्ट्रव्यापी फैलाव, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर अख़बारों का बढ़ता संजाल और एफ़एम रेडियो प्रसारणों के वैविध्यपूर्ण संस्करणों ने बीबीसी की लोकप्रियता को काफ़ी हद तक सीमित किया है। किसी समय बीबीसी की हिंदी सेवा को सुनने वाले श्रोताओं की संख्या तीन करोड़ थी, जो अब नब्बे लाख़ के आसपास है।

निश्चय ही श्रोताओं की संख्या में भारी गिरावट के लिए केवल बीबीसी दोषी नहीं है। दरअसल, लोगों के पास रेडियो और टीवी प्रसारणों के इतने विकल्प मौजूद हैं कि बीबीसी पर उसकी निर्भरता धीरे-धीरे समाप्त हो गई है। जिन "वस्तुगत' और "निष्पक्ष' समाचारों के लिए लोग बीबीसी प्रसारण सुनते रहते रहे हैं, वह अब कोई दुर्लभ चीज़ नहीं है। आज सच्चाई जानने के अनेक संसाधन जागरूक श्रोताओं और दर्शकों के पास मौजूद हैं। इंटरनेट उनमें से एक है। सच्चाई यह भी है कि इराक़ और अफ़गानिस्तान के हाल के उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि मीडिया के व्यापक संजाल के बावजूद वहॉं के हालात की सच्चाई जानना आसान न था और न है। दसियों समाचार चैनलों की मौजूदगी के बावजूद इराक़ के बारे में सारी ख़बरें उसी भाषा में और उसी नज़रिए के साथ प्रसारित होती रही हैं, जो अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप थीं। इस बात को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि इराक़ के बारे में जो मिथ्या प्रचार सारी दुनिया में किया गया, उसमें बीबीसी भी शामिल रहा है।

यहॉं यह सवाल लाज़िमी है कि बीबीसी ने जिन भाषाओं में प्रसारण बंद करने का फ़ैसला किया, उनमें हिंदी को क्यों चुना, जबकि तमिल, उर्दू, बांग्ला और नेपाली के प्रसारण पहले की तरह जारी रखे गए। इन चारों भाषाओं की तुलना में हिंदीभाषी लोगों की संख्या कई गुना ज़्यादा है। फिर भी यह फ़ैसला किया गया तो इसका राजनीतिक कारण है और उसको पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है। ये सभी भाषाएँ भारत के साथ-साथ पड़ोसी देशों में भी इस्तेमाल होती है और आपसी विवाद का माध्यम भी है। भारत और शायद पड़ोसी देशों में भी बीबीसी की लोकप्रियता का ग्राफ़ तभी ऊपर की ओर बढ़ा है, जब इन देशों में आपसी विवाद बढ़ा हैऔर ये विवाद हिंसक संघर्षों में तब्दील हुए हैं। क्या बीबीसी की यह उपयोगिता हिंदी के संदर्भ में सीमित हो गई है?

कहना मुश्किल है कि साल भर बाद बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा जारी रहेगी या नहीं? इसमें कोई दो राय नहीं कि इसने नब्बे के दशक के पहले रेडियो प्रसारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन किसी प्रसारण सेवा के बने रहने का औचित्य उसकी ऐतिहासिक भूमिका द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में यह भी जानना ज़रूरी है कि बीबीसी की अपनी हिंदी वेबसाइट पिछले कई सालों से मौजूद है और वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए उसके लंबे समय तक बने रहने की संभावना है। यह भी मुमकिन है कि बीबीसी हिंदी की रेडियो प्रसारण सेवा अगले कई सालों तक बनी रहे, लेकिन वह अपनी खोई हुई प्रासंगिकता वापस हासिल कर पाएगी, इसकी संभावना बहुत कम है।

-जवरीमल्ल पारख का यह महत्वपूर्ण लेख जनसत्ता से साभार

(यह भी पढ़ें--बीबीसी हिंदी सेवा की प्रमुख अचला शर्मा का आलेख )

Sunday, September 4, 2011

जानकारियों का अनमोल दस्तावेज़ आकाशवाणी पत्रिका

हम हिन्दुस्तानी चीज़ों को संग्रह करने के लिये दुनिया भर में बदनाम हैं। लेकिन कभी कभी यह प्रवृत्ति बड़े काम की साबित होती है। काग़ज़ों की अवेर-धवेर में अनायास सन 1977 आकाशवाणी पत्रिका हाथ में आ गई। आनंद द्विगुणित इसलिये हो गया कि इसके आमुख पर अज़ीम शायर हफ़ीज़ जालंधरी(पाकिस्तान के राष्ट्रगीत और मशहूर नज़्म अभी तो मैं जवान हूँ के रचयिता) तस्वीर मौजूद थी। बता दूँ कि अकाशवाणी पत्रिका का पूर्व नाम सारंग था और सन 1935 के आसपास इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। सनद रहे कि आकाशवाणी के दो ट्रांसमीटरों की शुरूआत सन 1927 में मुम्बई और कोलकाता से हुई थी। इसतरह से इस पत्रिका की शुरूआत आकाशवाणी की स्थापना के तक़रीबन 8 बरस बाद हो गई थी।

रेडियोनामा पर यह जानकारी साझा करना ज़रूरी है कि पचास के दशक में भारतीय जीवन बीमा निगम के अलावा संभवत: आकाशवाणी ही ऐसा सार्वजनिक उपक्रम रहा होगा जिसका कोई विधिवत प्रकाशन उन दिनों रहा होगा। आकाशवाणी पत्रिका का आवरण बहुरंगी होता था और इस अंक पर नज़र डालें तो सन 1980 के पहले या उल्लेखित अंक तक इसकी क़ीमत महज़ 50 पैसे प्रति अंक और रू। 12 प्रतिवर्ष थी। भीतर का काग़ज़ अच्छा और साफ़सुथरा सुफ़ैद हुआ करता था और प्रिंटिंग श्वेत-श्याम। जहाँ तक इसकी सामग्री का सवाल है वह उत्कृष्ट हुआ करती थी। जाने-माने कवि,कहानीकार और लेखक इसमें सहभाग करते थे जिनमें कई आकाशवाणी के मुलाज़िम हुआ करते थे। कवर पर हफ़ीज़ जालंधरी साह्ब के चित्र की वजह यह थी कि भीतर उनकी दो बेहतरीन नज़्मों का प्रकाशन भी हुआ था। इसी अंक में मशहूर कार्टूनिस्ट(सन 77 में युवा) सुधीर तैलंग का एक लेख कार्टून कला पर है।

मूलत: यह पत्रिका आकाशवाणी के केन्द्रों पर उपलब्ध हुआ करती थी लेकिन शुल्क चुकाकर इसे कोई भी ख़रीद सकता था। इनहाउस जर्नल होते हुए थी यह सार्वजनिक थी। इसमें देश भर के आकाशवाणी केन्द्रों पर स्टाफ़ के भर्ती के लिये आवश्यकता (अपॉइंटमेंट) के इश्तेहार भी होते थे। बहुत ज़रूरी सामग्री के रूप में आगामी माहों में विभिन्न केन्द्रों के कार्यक्रमों का झरोखा यानी प्रसारण दिनांक और समय और मीटर बैण्ड्स का उल्लेख होता था। प्रसारित हो चुकी झलकी और एकांकी भी इस पत्रिका में होते रहे हैं जिससे यदि एक केन्द्र के बाद यदि दीगर केन्द्र किसी कृति को अपने यहाँ तैयार करना चाहे तो उसे स्क्रिप्ट की कमी न अखरे। समाचार प्रभाग शासकीय स्तर पर क्रियान्वित हो रही योजनाओं को लेख के रूप में छापता था। यह पत्रिका आकाशवाणीकर्मियों को जीवंत संपर्क प्रदान करती थी। चूँकि अस्सी के दशक में टेलिग्राम,टेलिफ़ोन(एसटीडी भी नहीं) और टेलिप्रिंटर ही महत्वपूर्ण संचार माध्यम थे और ईमेल,फ़ैक्स,मोबाइल का अवतरण नहीं हुआ था;आकाशवाणी पत्रिका अपने प्रसारण केन्द्रों के बीच सार्थक संवाद बनाती थी। इसके अलावा विभिन्न केन्दों पर आनेवाले सितारा कलाकारों,कवियों,फ़िल्मी हस्तियों,साहित्यकारों के चित्रों को भी आकाशवाणी पत्रिका में शामिल किया जाता था। इन चित्रों में केन्द्रों द्वारा आयोजित लाइव संगीत कार्यक्रमों और जयमाला जैसे अत्यंत लोकप्रिय कार्यक्रमों में सम्मिलित होने वाले कलाकारों के चित्र अवश्य शुमार होते थे।

इन सब के अवाला आकाशवाणी केन्द्रों में काम करने वाले प्रसारण और तकनीकी स्टाफ़ की रचनाओं को मंच देने का महत्वपूर्ण कार्य भी इस प्रकाशन ने किया। बहरहाल आकाशवाणी पत्रिका देश के अग्रणी प्रसारण संस्थान के जगमगाते कार्यों का जीता-जागता चिट्ठा पेश करती थी। संस्कृति,संगीत और साहित्य से महकते इसके पन्ने आकाशवाणी गौरवशाली परंपरा का आख्यान होते थे। मालूम नहीं अब आकाशवाणी पत्रिका का प्रकाशन होता या नहीं लेकिन आज जब मैंने इसके पुराने अंक कोथ में लिया तो आकाशवाणी की महान विरासत की ख़ुशबू मेरे दिल में उतर गई। बात को ख़त्म करते हुए आइये आकाशवाणी पत्रिका के जून 1977 के इस दुर्लभ अंक से हफ़ीज़ जालंधरी साहब के इस रूहानी गीत को पढ़ते चलें।

झूठा सब संसार प्यारे
झूठा सब संसार
मोह का दरिया, लोभ की नैया, कामी खेवन हार
मौज के बल पर चल निकले थे, आन फंसे मझधार

तन के उजले , मन के मैले, धन की धुन असवार
ऊपर ऊपर राह बताएं, अंदर से बटमार

ज्ञान ध्यान के पत्तर बाजें, बेचे स्वर्ग उधार
ज्ञानी पात्र बन कर नाचे, नक़द करें बयोपार

चोले धर के दीन धर्म के, निकले चोर चकार
इन चोलों की आड़ में चमके, दो धारी तलवार,
प्यारे झूठा सब संसार, प्यारे झूठा सब संसार।

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