रेडियो प्रेमियो को मालूम ही है कि विगत् अप्रैल महीने के अंत में बीबीसी हिंदी सेवा का बंद होना सुनिश्चित था। वित्तीय कारणों से एशिया महाद्वीप की इस अत्यंत लोकप्रिय प्रसारण संस्था की विदाई हाल फ़िलहाल टल गई है। रेडियो श्रोता संख्या और उसके वित्तीय तालमेल को लेकर बीबीसी का यह संकट क्यों टला है और कितने दिनों तक टल सकेगा; यही पड़ताल करता है यह महत्वपूर्ण आलेख। रेडियोनामा की ओर से हमारे साथी संजय पटेल ने जनसत्ता के संपादक ओम थानवी से बाक़ायदा इजाज़त लेकर यह लेख रेडियोनामा पर जारी किया है।
ब्रिटेन के विदेश मंत्री विलियम हेग ने पिछले दिनों बीबीसी को वित्तीय संकट से उबारने के लिए पैसठ करोड़ रुपए देने की घोषणा की। इस तरह हिंदी, अरबी सहित कई भाषाओं के उन रेडियो प्रसारणों को एक साल के लिए जीवनदान मिल गया है, जिन्हें समाप्त करने की घोषणा बीबीसी ने जनवरी में ही कर दी थी। हिंदी की रेडियो प्रसारण सेवा बीते अप्रैल से बंद हो जानी थी। लेकिन भारतीयों ने सत्तर साल पुरानी इस सेवा को बंद करने के क़दम का विरोध किया था। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कई लेख प्रकाशित हुए, ब्लॉगों पर चर्चा चली और कई नामी-गिरामी लोगों की अपीलें प्रकाशित हुईं, जिनमें ब्रिटेन सरकार से अनुरोध किया गया था कि इस प्रसारण सेवा को बंद न किया जाए।
ऐसी एक अपील ब्रिटेन के प्रसिद्ध प्रगतिशील अख़बार 'दिन गार्डियन' में भी प्रकाशित हुई थी, जिस पर मार्क टुली सहित अठारह भारतीय और विदेशी विद्वानों ने हस्ताक्षर किए थे। इसमें अरुंधति राय, विक्रम सेठ, विलियम डालरिंपल, रामचंद्र गुहा, अमजद अली ख़ॉं, इंदर मल्होत्रा, कुलदीप नैयर, प्रशांत भूषण, सुनीता नारायण, किरण बेदी, स्वामी अग्निवेश जैसे प्रख्यात लोगों के नाम थे। इनमें से मार्क टुली को छोड़कर, जो इस प्रसारण सेवा में कई दशक तक जुड़े रहे हैं, शायद ही कोई बीबीसी की हिंदी सेवा सुनता रहा होगा। इनमें से ़ज़्यादातर अपना लिखना-पढ़ना अंग्रेज़ी में करते हैं और अंग्रेज़ी मीडिया से ही उनकी पहचान है। लेकिन इन लोगों से दस्तख़त शायद इसीलिए कराए गए होंगे कि लंदन में बैठे अंग्रेज़ी प्रभुओं को प्रभावित किया जा सके। हिंदी में लिखने-पढ़ने वालों की "औकात' का पता तो इसी एक तथ्य से लग जाता है। बहरहाल, चाहे जिनकी प्रार्थनाओं का असर हो, बीबीसी की हिंदी सेवा एक साल के लिए बच गई है। क्या यह हिंदी वालों के लिए गर्व और गौरव का विषय है? क्या बीबीसी का हिंदी रेडियो प्रसारण बंद होने से हिंदीभाषी समाज कुछ ऐसी सच्चाइयों से वंचित रह जाता, जो सिर्फ़ बीबीसी उन तक पहुँचता रहा है?
बीबीसी से हिंदी में रेडियो प्रसारण की शुरूआत दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ११ मई, १९४० में हुई थी। तब इसका नाम था बीबीसी हिंदुस्तान सर्विस। इस प्रसारण का असली मक़सद उस दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की ओर लड़ने वाले भारतीय सैनिकों का मनोबल बढ़ाना और भारत के जनमानस को अपने पक्ष में करना था। लेकिन आज़ादी के बाद इस प्रसारण की भूमिका कुछ हद तक बदल गई। यह अपने प्रसारणों द्वारा भारत के शिक्षित, शहरी और कस्बाई मध्यवर्ग के बीच एक स्वतंत्र और स्वायत्त प्रसारण सेवा की छवि बनाने में क़ामयाब रहा। इस छवि को १९६५ और १९७१ के भारत-पाक युद्धों, आपातकाल और बाद में १९९२ में बाबरी मस्जिद ध्वंस के दौरान मज़बूती मिली। इस पूरी अवधि में भारत के रेडियो प्रसारण सेवा सीधे तौर पर सरकार के अधीन रही है।
इस बात में भी काफ़ी हद तक सच्चाई है कि आज़ादी के आरंभिक पैंतीस सालों में आकाशवाणी को वह स्वायत्ता नहीं मिली, जो बीबीसी को प्राप्त रही है। इसलिए संकट के इन दौरों में लोगों ने आकाशवाणी से ़ज़्यादा बीबीसी को विश्वसनीय माना। लेकिन यह विश्वसनीयता भारत-पाक, भारत-चीन और भारत की अंदरूनी समस्याओं के संदर्भ में ही था। इस संदर्भ में यह सवाल प्रायः नहीं पूछा गया कि जब-जब भारत और साम्राज्यवादी हितों में टकराव हुआ तब बीबीसी का रुख़ क्या रहा? इसकी स्वायात्ता और स्वतंत्रता ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के दायरे में ही रही है। यह और बात है कि भारत में सरकारी प्रसारण कभी भी उतनी स्वायात्ता हासिल नहीं कर पाया जो बीबीसी को रही है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नब्बे दशक से पहले तक बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा भारत में काफ़ी लोकप्रिय रही है। "दि गार्डियन' को लिखे जिस पत्र का उल्लेख किया गया है, उसमें यह भी दावा किया गया था कि बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में काफ़ी लोकप्रिय है। ऐसा दावा बहुत विश्वसनीय नहीं लगता, लेकिन यह ज़रूर है कि छोटे-छोटे क़स्बों तक में बीबीसी को सुनने वाले मौजूद रहे हैं और शायद आज भी हैं। लेकिन सच्चाई यह भी है कि टेलीविज़न प्रसारण के बहुविध राष्ट्रव्यापी फैलाव, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर अख़बारों का बढ़ता संजाल और एफ़एम रेडियो प्रसारणों के वैविध्यपूर्ण संस्करणों ने बीबीसी की लोकप्रियता को काफ़ी हद तक सीमित किया है। किसी समय बीबीसी की हिंदी सेवा को सुनने वाले श्रोताओं की संख्या तीन करोड़ थी, जो अब नब्बे लाख़ के आसपास है।
निश्चय ही श्रोताओं की संख्या में भारी गिरावट के लिए केवल बीबीसी दोषी नहीं है। दरअसल, लोगों के पास रेडियो और टीवी प्रसारणों के इतने विकल्प मौजूद हैं कि बीबीसी पर उसकी निर्भरता धीरे-धीरे समाप्त हो गई है। जिन "वस्तुगत' और "निष्पक्ष' समाचारों के लिए लोग बीबीसी प्रसारण सुनते रहते रहे हैं, वह अब कोई दुर्लभ चीज़ नहीं है। आज सच्चाई जानने के अनेक संसाधन जागरूक श्रोताओं और दर्शकों के पास मौजूद हैं। इंटरनेट उनमें से एक है। सच्चाई यह भी है कि इराक़ और अफ़गानिस्तान के हाल के उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि मीडिया के व्यापक संजाल के बावजूद वहॉं के हालात की सच्चाई जानना आसान न था और न है। दसियों समाचार चैनलों की मौजूदगी के बावजूद इराक़ के बारे में सारी ख़बरें उसी भाषा में और उसी नज़रिए के साथ प्रसारित होती रही हैं, जो अमेरिकी और ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप थीं। इस बात को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि इराक़ के बारे में जो मिथ्या प्रचार सारी दुनिया में किया गया, उसमें बीबीसी भी शामिल रहा है।
यहॉं यह सवाल लाज़िमी है कि बीबीसी ने जिन भाषाओं में प्रसारण बंद करने का फ़ैसला किया, उनमें हिंदी को क्यों चुना, जबकि तमिल, उर्दू, बांग्ला और नेपाली के प्रसारण पहले की तरह जारी रखे गए। इन चारों भाषाओं की तुलना में हिंदीभाषी लोगों की संख्या कई गुना ज़्यादा है। फिर भी यह फ़ैसला किया गया तो इसका राजनीतिक कारण है और उसको पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है। ये सभी भाषाएँ भारत के साथ-साथ पड़ोसी देशों में भी इस्तेमाल होती है और आपसी विवाद का माध्यम भी है। भारत और शायद पड़ोसी देशों में भी बीबीसी की लोकप्रियता का ग्राफ़ तभी ऊपर की ओर बढ़ा है, जब इन देशों में आपसी विवाद बढ़ा हैऔर ये विवाद हिंसक संघर्षों में तब्दील हुए हैं। क्या बीबीसी की यह उपयोगिता हिंदी के संदर्भ में सीमित हो गई है?
कहना मुश्किल है कि साल भर बाद बीबीसी की हिंदी प्रसारण सेवा जारी रहेगी या नहीं? इसमें कोई दो राय नहीं कि इसने नब्बे के दशक के पहले रेडियो प्रसारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन किसी प्रसारण सेवा के बने रहने का औचित्य उसकी ऐतिहासिक भूमिका द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में यह भी जानना ज़रूरी है कि बीबीसी की अपनी हिंदी वेबसाइट पिछले कई सालों से मौजूद है और वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए उसके लंबे समय तक बने रहने की संभावना है। यह भी मुमकिन है कि बीबीसी हिंदी की रेडियो प्रसारण सेवा अगले कई सालों तक बनी रहे, लेकिन वह अपनी खोई हुई प्रासंगिकता वापस हासिल कर पाएगी, इसकी संभावना बहुत कम है।
-जवरीमल्ल पारख का यह महत्वपूर्ण लेख जनसत्ता से साभार
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