देश के आज़ाद होने के कुछ ही साल बाद मेरा जन्म हुआ था. यानि मेरा और आज़ाद भारत का बचपन साथ साथ गुज़रा. तब तक मेरे पिताजी पुलिस की नौकरी छोड़ चुके थे. यों तो उनकी श्री गंगानगर की पोस्टिंग भी मुझे याद है जब हम आसकरण बहनोई जी और रामभंवरी बाई के साथ एक ही घर में रहते थे. घर में कुल तीन कमरे थे. एक में मैं, मेरे भाई साहब, मेरे पिताजी और माँ, हम चारों रहते थे और एक कमरे में जीजाजी और बाई अपनी पांच लड़कियों के साथ. तीसरा कमरा बैठक कहलाता था जिसे हम सब काम में लेते थे मगर
मुझे उनकी जो पहली पोस्टिंग बहुत अच्छी तरह याद है वो है श्री गंगानगर जिले के चूनावढ गाँव की.
राजस्थान सरकार ने ग्रामीण उत्थान के लिए एक योजना शुरू की थी जिसके अंतर्गत गाँवों में एक दफ्तर खोला जाता था जिसे ग्राम सुधार केंद्र कहा जाता था. पिताजी चूनावढ के ग्राम सुधार केंद्र के प्रभारी थे. एक पुरानी मगर बड़ी सी मस्जिद में उनका दफ्तर था जो शायद पार्टीशन के वक्त उजड गयी थी और मस्जिद से लगे हुए एक छोटे से कच्चे घर में हम लोग रहा करते थे. घर और दफ्तर के बीच एक दरवाज़ा लगा हुआ था, यानि घर और दफ्तर एक ही था. पिताजी के दफ्तर में मेरी रुचि की तीन ऐसी चीज़ें मौजूद थीं जो अक्सर मुझे वहाँ खींच ले जाती थीं. रेडियो, ग्रामोफोन और कैमरा. कैमरा छूने की हमें इजाज़त नहीं थी हालांकि दिल बहुत करता था उसे छूने का, फोटो खींचने का मगर खैर हमारे लिए बाकी दोनों चीज़ों को छूने की इजाज़त भी कम नहीं थी. जूथिका रॉय, पहाड़ी सान्याल, जोहरा बाई अम्बालावाली, अमीर बाई कर्नाटकी, कुंदन लाल सहगल, पंकज मलिक, मास्टर गनी, ललिता बाई आदि के बहुत से रिकॉर्ड्स वहाँ मौजूद थे. संगीत से मेरा पहला परिचय था ये. रेडियो से मेरी दोस्ती की शुरुआत भी यहीं हुई और कैमरा भी पहली बार मैंने यहीं देखा. मैं कहाँ जानता था उस वक्त कि ये तीनों ही मेरी ज़िंदगी के अटूट हिस्से बन जायेंगे.
उस गाँव में एक शानदार नहर थी जिसका पानी पीने से लेकर सिंचाई तक सब कामों के लिए था लेकिन ये नहर महीने में तीसों दिन चालू नहीं रहती थी इसलिए गाँव में जगह जगह पक्की डिग्गियां बनी हुई थीं जिनमें घरेलू ज़रूरतों के लिए पानी जमा कर लिया जाता था और लोग अपनी अपनी ज़रूरत का पानी रस्से और बाल्टी की मदद से निकाल लिया करते थे. और हाँ एक बात तो मैं बताना ही भूल गया, चूनावढ में बिजली नहीं थी. आप सोच रहे होंगे कि फिर रेडियो कैसे बजता था? आपका सोचना सही है, उस वक्त तक ट्रांजिस्टर का आविष्कार भी नहीं हुआ था. कार में जो बैटरी लगती है, उस से थोड़ी छोटी EVEREADY की लाल रंग की एक बैटरी आया करती थी, जिसमें रेडियो का प्लग लगाया जाता था और लगभग १५ फीट लंबा जालीदार एरियल रेडियो से जोड़ दिया जाता था तब जाकर बजता था रेडियो . हर शाम मस्जिद यानि दफ्तर के आँगन में गाँव के लोग इकठ्ठे होते थे और उन्हें रेडियो पर समाचार, संगीत और खेती बाडी के कार्यक्रम सुनवाए जाते थे. बाकी वक्त वैसे तो वो रेडियो हमारी पहुँच में रहता था, हम जब चाहे उसे बजा सकते थे मगर सबसे बड़ी दिक्कत थी बैटरी, जो कि श्री गंगानगर से लानी पड़ती थी. हमें उस बैटरी को ६ महीने चलाना होता था, इसलिए रेडियो सुनने में बहुत कंजूसी बरतनी पड़ती थी. पूरे गाँव में उसी तरह का एक और रेडियो मौजूद था और वो था पिताजी के ही एक मित्र जोधा राम चाचाजी के घर में . कभी कभी हम वहाँ जाकर भी रेडियो सुनते थे मगर वहाँ दिक्कत ये होती थी कि चाचाजी सीलोन लगाते थे और उनका बेटा तुरंत विविध भारती की तरफ सुई घुमा देता था जो कि उन दिनों शुरू हुआ ही था फिर जैसे ही चाचाजी का बस चलता, वो फिर सीलोन लगा दिया करते थे . इस तरह दिन भर रेडियो की सुई, सीलोन और विविध भारती के बीच घूमती रहती थी.
ग्रामोफोन हालांकि बैटरी से नहीं चलता था, उसमें थोड़ी थोड़ी देर में चाबी भरनी पड़ती थी मगर आज से १५-२० साल पहले के रिकॉर्ड प्लेयर की तरह उसमें डायमंड की नीडल नहीं लगी होती थी. उसमें मैटल की सुई लगती थी और एक सुई से बस दो रिकॉर्ड ही बज पाते थे. हर दो रिकॉर्ड के बाद घिसी हुई सुई को हटा कर नई सुई लगानी पड़ती थी. यहाँ भी वहीं संकट था, सुइयां खत्म हो गईं तो जब तक पिताजी श्री गंगानगर जाकर सुई की डिब्बियां नहीं लायेंगे तब तक ग्रामोफोन बंद. बड़ी किफायतशारी से काम लेते हुए हम लोग बारी बारी से अपनी पसंद के गाने सुना करते थे. विविध भारती के अपने १२ बरस के कार्यकाल में जब भी मैं भूले बिसरे गीत सुना करता था, चूनावढ की ये तस्वीरें हर बार ज़िंदा होकर मेरे सामने आ खड़ी होती थीं और मैं आँखें बंद कर उसी वक्त में पहुँच जाता था. बीच के ४५-५० बरस एक लम्हे में न जाने कहाँ गायब हो जाते थे.चूनावढ के दिनों में मुझे जूथिका रॉय का गाया मीरा का भजन “घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे” बहुत पसंद था.
मुझे जब भी अकेले ग्रामोफोन बजाने का मौक़ा मिलता था, मैं ये भजन सुनता और रिकॉर्ड के साथ गुनगुनाया करता था. पता नहीं सुर में गाता था या बेसुरा मगर एक रोज मैं रिकॉर्ड चलाकर उसके साथ यही भजन गा रहा था कि पिताजी कमरे में घुसने लगे, मुझे गाते सुनकर वो दरवाज़े के बाहर ही रुक गए. रिकॉर्ड खत्म होने लगा तो वो अंदर आये.... मैं एकदम हडबडा गया... मेरी उम्र छह साल रही होगी उस वक्त. मुझे लगा अब शायद डांट पड़ेगी, मगर पिताजी ने बहुत प्यार से मुझे पूछा “तुम गा रहे थे?” मैंने डरते डरते हाँ में सर हिलाया. इस पर वो बोले “डर क्यों रहे हो? ये तो अच्छी बात है.” मेरी जान में जान आई. पिताजी थोडा बहुत हारमोनियम बजा लिया करते थे. कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक हारमोनियम का इंतजाम किया और मुझे गाने का अभ्यास करवाने लगे.............मेरा गाने का ये सिलसिला कॉलेज में पहुंचा तब तक जारी रहा. आप पूछेंगे, “क्या उसके बाद ये सिलसिला रुक गया?” जी हाँ, उसके बाद मैंने गाना बंद कर दिया. क्यों बंद कर दिया मैंने गाना... इसका ज़िक्र मैं आगे चलकर करूँगा.
हाँ तो मैं बता रहा था कि जुथिका रॉय का गाया मीरा का भजन मुझे बहुत प्रिय था.... सही पूछिए तो उस वक्त मुझे ये लगता था कि जो कलाकार ये भजन गा रही हैं वही मीरा हैं. चार साल पहले की बात है. मैं विविध भारती का प्रमुख था. एक रोज यही भजन विविध भारती से प्रसारित हो रहा था..... मैं हमेशा की तरह आँखें बंद करके अपने बचपन में पहुँच गया, वही चूनावढ का कच्ची ईंटों का बना कमरा और उसमें बजता वही चाबी वाला ग्रामोफोन.थोड़ी देर में भजन तो ख़त्म हो गया मगर मैं दिन भर चूनावढ के उस कमरे से बाहर नहीं निकल पाया. ऑफिस में भी आँखें बंद किये उन्हीं बचपन की यादों में खोया था कि तभी फोन की घंटी बजी, मानो किसी ने झिन्झोड़कर मेरा सपना तोड़ दिया. मैंने थोडा सा झुंझलाकर फोन उठाया. उधर से किसी संभ्रांत महिला ने नमस्कार के साथ एक ऐसी बात कही कि मैं उछल पड़ा. वो बोलीं “ सर, एक बहुत पुरानी सिंगर कलकत्ता से आयी हुई हैं, पता नहीं आपने उनका नाम सुना है या नहीं मगर वो विविध भारती आना चाहती हैं और आप चाहें तो उन्हें रिकॉर्ड भी कर सकते हैं.” मैंने कहा “विविध भारती में सभी कलाकारों का स्वागत है, मगर नाम तो बताइये उनका.” वो धीरे से बोलीं “ जूथिका रॉय.” मुझे उछलना ही था. खैर, अगले दिन उन्हें विविध भारती में आमंत्रित किया गया....वो जब मेरे सामने आईं तो मैं एक बार फिर चूनावढ के अपने उस कच्चे कमरे में पहुँच गया, अपने बचपन की उंगली थामे ..... मगर इस बार मेरे साथ सिर्फ वो चाबी वाला ग्रामोफोन ही नहीं था... इस बार साक्षात् मीरा मेरे सामने बैठकर हारमोनियम हाथ में लिए गा रही थीं, “घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे ..........” और मेरी आँखों से दो आंसू टपक गए .
विविध भारती के स्टूडियो में जूथिका रॉय: एक वीडियो। यहां देखिए।
7 comments:
आज एक नए मोदी सर से मुलाक़ात हो रही है, बहुत खूब !!!!
बहुत सुंदर संस्मरण लिखा है और आदरणीया जुथिका राय जी का ये भजन सुनकर बहुत आनंद आया
- लावण्या
बहुत ही सुंदर ढंग से आपने अपने बचपन की यादों को संस्मरण का रूप दिया है पढ़कर बहुत अच्छा लगा बहुत डीनो बाद कुछ हट कर पढ़ने को मिला शुभकामनायें समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है,वहाँ भी आपको मेरे पूरने आलखों में मेरे अनुभव पढ़ने को मिलेगे हो सकता है आपके और हमारे विचार कहीं किसी आलेख में मिल जाये। :-)http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/12/blog-post_06.html
http://aapki-pasand.blogspot.com/2011/12/blog-post_07.html
दोनों ही लिंक्स पर आपका हार्दिक स्वागत है
मोदी जी आप बेहद भाग्यशाली हैं जो आपके पिताजी आपके साथ बैठकर रियाज करवाते थे। यहां तो पिताजी अगर गाना सुनते देखते तो टेप ही बंद कर देते और डांट ऊपर से पड़ती।
हाँ मैं भाग्यशाली हूँ, मुझे याद है, नागिन फिल्म का वो गीत "मेरा दिल ये पुकारे आजा मेरे दिल के सहारे आजा.... भीगा भीगा है समाँ.. ऐसे में है तू कहाँ..." मैं गाया करता था और मेरे पिताजी हारमोनियम बजाय करते थे.
It was rather interesting reading your reminiscences. I liked the simple, flawless style of your writing. It keeps the reader engrossed.
Thanks a lot for Jyothika Roy's photo and her most memorable song.
---Mohini Moghe, Hyderabad.
Namaskar Mahendraji.
mujhe nahee pata thaa ki Vividh Bharati se aapka itna purana sambandh hai.han,choonavadh kee aapkee bachpan kee yadein bahut pyaree lageen,aapne yaadon ko sanjo kar rakha,yah aur bhi achchha laga.Dhanyawad.
-Suresh Agrawal
Kesinga (odisha)
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।