पांचवीं क्लास तक मैं जिस स्कूल में पढ़ा, उसका नाम था राजकीय प्राथमिक पाठशाला नंबर ९ . बहुत ही साधारण सा स्कूल था,अंग्रेज़ी के ए बी सी डी अभी कोर्स में नहीं थे हालांकि सभी गुरु लोग अंग्रेज़ी का नाम लेकर डराया करते थे कि अभी ये हाल है तो अगले साल छठी में क्या करोगे जब अंग्रेज़ी पढनी पड़ेगी. टाट पट्टी पर बैठना होता था अपने बराबर के बच्चों के साथ भी और अपने से बड़े बड़े चूहों के साथ भी. फर्श पर बड़े बड़े गड्ढे थे और बड़ी बड़ी मूंछों वाले एक मास्टर जी जिनका नाम श्री किशन जी था, एक बड़ा सा डंडा हाथ में लेकर जब क्लास में अवतरित होते थे तो हम सब बच्चों के प्राण सूख जाते थे. कम से कम मुझे तो वो चूहे, वो गड्ढे, वो मूंछे और वो डंडा हर चीज़ बड़ी बड़ी सी लगती थी. घर में साळ(अंदर का कमरा जिसे आज की भाषा में बैडरूम कह सकते हैं ) और ओरा ( साळ के अंदर का कमरा जिसमें पूरे घर की संदूकें रहती थी, अनाज रहता था और वो सभी चीज़ें रहती थी जो रोज़मर्रा काम में आने वाली नहीं होती थीं ) मुझे बचपन में बहुत बड़े बड़े लगा करते थे लेकिन अभी कुछ दिन पहले जब मैं बीकानेर गया तो अपने पुराने मोहल्ले में जाकर उस घर को एक बार देखने को मन ललचा गया जिसमें मैंने आँखें खोली थीं .
फड बाज़ार का वो मोहल्ला जिसमें कभी हम खुलकर मारदडी(एक खेल जिसमें एक दूसरे को गेंद फेंक कर मारा जाता है) और सतोलिया(सात ठीकरी और एक गेंद से खेला जाने वाला एक खेल) खेला करते थे अब भीड़ भरे बाज़ार में बदल गया है. कार आधा किलोमीटर दूर हैड पोस्टऑफिस के पास खडी करके मैं किसी तरह पैदल पैदल अपने पुराने घर में पहुंचा जिसे हमने १९९५ में लतीफ़ खान जी को बेच दिया था और उन्होंने उस पूरे घर को दुकान में बदल दिया था. मैं अंदर पहुंचा तो वो साळ और ओरा मुझे बहुत ही छोटे छोटे लगे मुझे समझ नहीं आया कि बचपन के इतने बड़े बड़े साळ और ओरा आखिर सिकुड़ कर इतने छोटे कैसे हो गए? मुझे एक बार को लगा, नहीं ये वो घर नहीं है जिसमें मैं पैदा हुआ बड़ा हुआ. १०-११ बरस की छोटी सी उम्र में मैं रसोई में बैठकर खाना बनाया करता था और मेरी माँ आँगन में खाट पर लेटे लेटे मुझे खाना बनाना सिखाती रहती थीं क्योंकि वो बहुत बीमार रहने लगी थीं जब मैं छोटा सा ही था.ये इतना छोटा सा आँगन? नहीं ये वो घर नहीं हो सकता.मैं ऊपर अपने प्रिय मालिए में भी गया जिसमें बैठकर मै पढाई भी करता था और बैंजो पर रियाज़ भी करता था. अरे ये तो बहुत ही छोटा सा कमरा है जबकि मेरे ज़ेहन में ये एक अच्छा बड़ा सा कमरा था. तब मैंने महसूस किया कि बचपन में चूंकि हम छोटे होते हैं हमें हर चीज़ बड़ी बड़ी लगती है और जब बड़े हो जाते हैं तो सभी चीज़ें छोटी लगने लगती हैं . मुझे वो बग्घी (विक्टोरिया) भी बहुत विशाल लगती थी, बिलकुल किसी राजा के सिंहासन की तरह, जो मेरे बड़े मामा राम चंद्र जी होली के दिन अपने क़ाफिले में लेकर आया करते थे और हम दोनों भाइयों को उस पर बिठा कर ले जाया करते थे . बड़ा लंबा काफिला हुआ करता था . आगे एक बग्घी और उसके पीछे कई तांगे.उन दिनों बीकानेर में कार तो शायद महाराजा करनी सिंह जी के पास हुआ करती थी और कुछ बड़े वणिक पुत्रों के पास. आम आदमी की सवारी थी तांगा और जो लोग थोड़े समृद्ध होते थे वो बग्घी पर आया जाया करते थे.
ये तो जब मैं १९८३ में आकाशवाणी, मुम्बई में कार्यक्रम अधिशासी बनकर आया तो इन बग्घियों की जिन्हें यहाँ की भाषा में विक्टोरिया कहा जाता था की दुर्दशा देखी. ५० पैसे में इसकी सवारी की जा सकती थी. तो... होली के मौके पर उस बग्घी पर बड़े बड़े लाउड स्पीकर्स लगे रहते थे. मेरे मामा जी बहुत पढ़े लिखे नहीं थे ये मुझे उस वक्त पता लगा जब मैं काफी बड़ा हो गया. मैं तो उन्हें काफी विद्वान समझता था क्योंकि चाहे वो ज्यादा पढ़े लिखे न हों और एक सेठ के यहाँ मुनीम की नौकरी करते हों, मगर उनमें एक बहोत बड़ा गुण था. वो आशुकवि थे. खड़े खड़े किसी पर भी कविता कर देते थे और वो इतनी सटीक हुआ करती थी कि लोग दांतों तले अंगुली दबाने लगते. उनका गला भी इतना सुरीला था कि जब वो गाते तो लोग जस के तस खड़े रह जाते. एक बात और बताऊँ, हँसेंगे तो नहीं न....? वो मुझे प्यार से चीनिया (चीनी) पुकारते थे क्योंकि मैं बचपन में ज़रा गोल मटोल था और मेरी आँखें छोटी छोटी थीं. आप सोच रहे होंगे कि मैं यहाँ अपने मामाजी का बखान क्यों कर रहा हूँ, मगर उसका एक कारण है जो अभी आपको समझ में आ जाएगा. उन दिनों बीकानेर में होली का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता था . होली से १५ दिन पहले लोग अपने चंग(बड़े बड़े डफ) निकाल लेते थे और हर गली कूचे में चंग और मजीरों के साथ कुछ सुरीली आवाजें गूंजने लगती थीं “हमैं रुत आई रे पपैया थारै बोलण री रुत आई रे............... ढमक ढमक टक ढमक ढमक .............” गीत बहुत से हुआ करते थे. लोग शराब या भंग पीकर अश्लील गीत भी गाया करते थे,ज़्यादातर के अर्थ भी मुझे समझ नहीं आते थे मगर चंग की ढमक ढमक और ऊंचे सुर में ली हुई टेर दिल के अंदर तक उतर जाती थी .
जैसे जैसे होली नज़दीक आती ये गीतों का रंग और गहरा होता जाता और पूरा बीकानेर शहर चंग, मजीरों और गीतों के सागर में डूबने लगता. आखिरकार होली खेलने का दिन आ जाता. यों तो बिना किसी जाति-धर्म के भेदभाव के सभी लोग फाग गाते और फाग खेलते मगर शहर के परकोटे के अंदर पुष्करणा ब्राह्मणों के दो समुदायों की होली दूर दूर से लोग देखने आते थे. चौक में दोनों ओर चंग, मजीरों, डोल्चियों, रंग से भरे बड़े बड़े टबों से सुसज्जित हर्षों और व्यासों के दो समूह जिन्हें बीकानेर की भाषा में गैर कहा जाता है और चौक के चारों ओर घरों की मुंडेरों पर औरतों के समूह के समूह. एक प्यार भरा संगीतमय युद्ध शुरू होता था जिसमें एक दूसरे पर रंग की बौछारें भी की जाती थीं और साथ ही स्नेह से सराबोर संगीतमय गालियों के तीर भी छोड़े जाते थे.हालांकि मैंने इस अद्भुत युद्ध के बारे में सिर्फ पढ़ा है या फिर सुना है, इसे साक्षात देखा नहीं पर अब भी दिल के किसी कोने में ये इच्छा है कि इसका साक्षी बनूँ, पता नहीं अब ये वैसा होता भी है या बाकी त्योहारों की तरह इसकी भी बस लोग तकमील ही पूरी करके रह जाते हैं. हम लोगों के लिए भी ये दिन बहुत खास हुआ करता था. इस दिन मामाजी एक सजी धजी बग्घी पर लाउड स्पीकर्स लगाए, अपने पीछे पीछे तांगों का लंबा सा क़ाफ़िला लिए अपने बनाए हुए गीत गाते हुए हमारे घर आते थे और आवाज़ देते “चीनियाआआअ....” हम लोग दौडकर उनके पास पहुँच जाते.वो मुझे और भाई साहब को बग्घी में बिठाकर ले जाते थे. मैं जब उनके गीत सुनता था तो मुझे बहुत अच्छा लगता था और मैं सोचता था ... कैसे लिख लेते हैं ये इतने सुन्दर गीत?
मुझे नहीं पता था उस वक्त कि जीन्स क्या होते हैं और जीन्स के ज़रिये कोई गुण एक पीढ़ी अनजाने में ही दूसरी पीढ़ी को कैसे सौंप देती है? इसका थोड़ा एहसास हुआ जब मैं आकाशवाणी, बीकानेर में था, इस मास का गीत रिकॉर्ड करने की बीकानेर की बारी थी और कोई गीत नहीं मिल रहा था, हमारे कार्यक्रम अधिशासी स्वर्गीय महेंद्र भट्ट(ग्रेमी अवार्ड विजेता पंडित विश्व मोहन भट्ट के बड़े भाई) जो कि एक ही नाम होने के कारण मुझे मीता बुलाते थे, मुझसे बोले “मीता, एक गीत लिखोगे?”, मैंने कहा “जी मैं ?” तो वो बोले “ हाँ, मुझे पता है तुम लिख लोगे”. मेरे पास कुछ जवाब था ही नहीं. मैंने कहा “जी कोशिश करता हूँ” .अपने साथी भाई चंचल हर्ष जी की मदद लेकर एक टूटा फूटा गीत लिखा था मैंने “ज़िंदगी अब है सज़ा जीना हुआ मुहाल है, मौत भी आती नहीं किस्मत का ये कमाल है”. एक समय में संगीतकार मदन मोहन के सहायक रहे स्वर्गीय डी. एस. रेड्डी ने धुन बनाई, स्वर्गीय दयाल पंवार( संगीतकार पंडित शिवराम के सहायक)ने रेड्डी जी के सहायक के तौर पर काम किया और स्वर्गीय बदरुद्दीन ने गाया इसे. इन सभी के साथ साथ स्वर्गीय जसकरण गोस्वामी (सितारवादक),स्वर्गीय मुंशी खान (सितारवादक)और स्वर्गीय इकरामुद्दीन खान(तानपूरावादक)के प्रति इस माध्यम से मेरी स्नेह्पूरित श्रद्धांजलि . जीन्स के ज़रिये ये गुण आगे बढते हैं इस पर विश्वास पक्का हुआ जब मेरे बेटे वैभव ने “जस्सी जैसा कोई नहीं”,“काजल”,“रिहाई”,”ये मेरी लाइफ है” वगैरह वगैरह बीसियों टी वी धारावाहिकों और “द्रोण”, “चल चला चल” और “नाइन्टी नाइन” जैसी फिल्मों में गाने लिखे. मगर इस सबके बीच मैं आज भी आकाशवाणी, इलाहाबाद के किसी ज़माने में मशहूर रहे गायक प्रणव कुमार मुखर्जी को नहीं भूल सकता जिन्होंने बात ही बात में मुझसे न जाने कितनी ग़ज़लें कहलवा लीं मगर अफ़सोस अब न प्रणव रहे और न ही ............ . खैर... उनकी कहानी फिर कभी.
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Sunday, December 25, 2011
कैक्टस के मोह में बिंधा एक मन-4: महेंद्र मोदी के संस्मरणों की श्रृंखला
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8 comments:
बहुत भावुक पोस्ट ! एक कवि के रूप में पहली बार परिचय मिला.
अन्नपूर्णा
सर बहुत ही सुन्दर तरीके से आप ने आपनी यादे ताज़ा की है मै एक ही साँस में पूरी बात पढ़ गया, मार दडी और सतोलिया सब कुछ एक बार फिर जेहन कोंध गया, आप ने सतोलिया का मतलब तो बताया पर ठीकरी कोन समझाएगा, हा हा हा मज़ा आया पढ़ कर.
सर बहुत ही सुन्दर तरीके से आप ने आपनी यादे ताज़ा की है मै एक ही साँस में पूरी बात पढ़ गया, मार दडी और सतोलिया सब कुछ एक बार फिर जेहन कोंध गया, आप ने सतोलिया का मतलब तो बताया पर ठीकरी कोन समझाएगा, हा हा हा मज़ा आया पढ़ कर.
kabhi kabhi kuchh baatein itni hridhaysparshi hoti hai ki aapko pata na chale ki aapki aankhose aansu beh rahe hai, and aap ka sharir , man bilkul sunn ho jaye, mahendraji ye padhate padhate main bilkul yahi mehsus kar raha hu, spellbound and breathless
bahot touching hai es baar ki kahani...shukriya aur bahot shubhkamanaye.
BIKANER KE AAPKE JEEVAN KI KAHAANI PADHTE HUE MERI NAZRON KE SAAMNE KEM ROAD ,KOTE GATE , HEAD POST OFFICE WALI GALI , PUBLIC PARK ,EK AANA KULFI WALA , PREMJI MEGHJI HOTEL . MUKTESHWAR MAHADEV .TOLIYASAR BHAIRUJI AUR BHI JAANE KITNE GALI KUCHE SAHSA YAAD AA GAYE. AAP TO SENIOR HEIN....BAGGHI BHI DEKH PAAYE ,KINTU TAANGON ME SUHANE SAFAR BHALA KAUN BHOOL SAKTA HAI...WO TAANGE NAHIN...BALKI SAMAY THA DAUDTA HUA....CHALA GAYA......!
आदरणीय महेन्द्रजी
रोचक संस्मरण है। बचपन के सतोलिया, मारदड़ी के साथ लंगड़ी टांग, चोर-पुलिस, छुपम-छुपाई के साथ गाँव की गलियां, नोहरे, ओवरे एक एक कर सब याद आ रहे हैं।
हमारे यहाँ होली की अपेक्षा सीतला सप्तमी के दिन ज्यादा हुड़दंग होता है, गाँव की सारी खाली दीवारों पर (इलाजी और इलण जी के) काम सूत्र के चित्र बन जाते हैं। :)
और हाँ गैर.. ओह बीस-पच्चीस बरस से गैर ना तो खेली ना ही देखी। अब तो शायद गाँव में भी गैर कोई नहीं खेलते अब सब जगह डांडीया खेलने लगे हैं।
आपने अपने जिस गीत का जिक्र ऊपर पोस्ट में किया है उसे सुनने की उत्सुकता हो रही है। अगली पोस्ट में उसे सुनाएं।
अगली कड़ी का इंतजार है।
धन्यवाद
Mahendraji, aapki lekhani itani jivant lgati hai ki,muze apna bachpan yaad aa gaya. sare gali mohalle apanese lage, yaha tak ki rajasthani bhasha ke shabd bhi. Shayad saabke bachpan ka mahaul aur oose yaad karneka tarika ekjaisa rahata hoga. Padhane me bada aacha lag raha hai. Aagle episod ka wait kaar rahee hun.
Mohini Moghe
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।