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Monday, January 30, 2012

काशीनाथ सिंह के बारे में शेषनारायण सिंह से शुभ्रा शर्मा की बातचीत


जैसा कि आप सभी जानते हैं कि 'काशी का अस्‍सी' के लिए लेखक काशीनाथ सिंह को साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार दिये जाने की img040घोषण की गयी है। शुभ्रा जी ने इस मौक़े पर दिल्‍ली के एफ.एम. गोल्‍ड के लिए काशी जी के पुराने मित्र शेष नारायण सिंह से उनके व्‍यक्तित्‍व के कुछ अंतरंग पहलुओं पर बातचीत की।

ये बातचीत एक जनवरी को काशीनाथ सिंह के जन्‍मदिन पर प्रसारित की गयी थी।

रेडियोनामा के पाठकों के लिए इसे यहां प्रस्‍तुत किया जा रहा है। 
पूरी बातचीत तकरीबन दस मिनिट की है।


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Wednesday, January 25, 2012

नए साल पर रेडियो से उम्‍मीदें: रेडियोनामा परिचर्चा

नया साल अब लगभग पुराना होने को है। जनवरी का महीना बस बीता ही जा रहा है। साल के शुरू होते-होते ही हमने रेडियोनामा के कुछ साथियों से ई-मेल पर नए साल में रेडियो से उनकी उम्‍मीदों के बारे में कुछ सवाल पूछे। ये हमारे वो साथी हैं जो रेडियो के नियमित श्रोता हैं।

हमारे सवाल थे ये-

1. नये साल में रेडियो की दुनिया से आपको कौन सी उम्‍मीदें हैं।
2. आज निजी और सरकारी रेडियो चैनलों में सबसे ज्‍यादा असह्य बात आपको कौन सी लगती है।
3. क्‍या गुज़रे साल का कोई यादगार कार्यक्रम याद है जिसके बारे में बताना चाहें।

सुजॉय चैटर्जी पेशे से इंजीनियर हैं। लेकिन संगीत के क़द्रदान हैं। इन दिनों वो
रेडियो प्‍ले-बैक इंडिया पर sujoy संगीत पर लिख रहे हैं। इससे पहले 'आवाज़' पर उन्‍होंने फिल्‍म-संगीत पर बेहतरीन लेख लिखे थे। सुजॉय विविध-भारती के भी बहुत सजग श्रोता हैं।


1.
नये साल में रेडियो की दुनिया से आपको कौन सी उम्‍मीदें हैं।

नये साल में रेडियो की दुनिया से मेरी उम्मीदें कई हैं, कुछ के बारे में बताता हूँ।

आकाशवाणी के स्थानीय केन्द्र, जो विविध भारती का प्रसारण रिले करते हैं, उनसे हाथ जोड़ कर विनती है कि विज्ञापन ठूंसते वक़्त कम से कम इतना ध्यान रखें कि सुनने वालों का मज़ा खराब न हो। कई बार ऐसा हुआ है और आज भी होता है कि फ़रमाइशी कार्यक्रमों में जब गीत के बाद फ़रमाइशी नाम बोले जाते हैं, उस वक़्त विज्ञापन बजाये जाते हैं, और जब तक विज्ञापन ख़त्म होते हैं, अगला गीत शुरु हो चुका होता है। 'विशेष जयमाला' के दौरान जब सेलिब्रिटी बोल रहे होते हैं, तब भी विज्ञापन बजाये जाते हैं, जिसके लिए माफ़ी की कोई गुंजाइश नहीं है। स्थानीय केन्द्रों को इस मामले में जागरूक होने और श्रोताओं के मनोभाव को समझने की ज़रूरत है।

जैसे-जैसे स्थायी उद्‍घोषक सेवानिवृत्त होते जा रहे हैं, वैसे वैसे आकस्मिक उद्‍घोषकों की संख्या और उनके द्वारा प्रसारण समय में वृद्धि होती जा रही है। (आकाशवाणी गुवाहाटी में इस समय हिन्दी विभाग में कोई भी स्थायी उद्‍घोषक नहीं हैं, बस प्रोग्राम एग्ज़ेक्युटिव हैं और कुछ आकस्मिक उद्‍घोषक)। लिस्नर्स के साथ कनेक्ट करने के लिए रेगुलर अनाउन्सर की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है। एक जो नियमितता वाली बात होती है, वह बहुत ज़्यादा मायने रखती है। यह बात मुझे आकाशवाणी गुवाहाटी की एक स्थायी उद्‍घोषिका नें ख़ुद बताई थी जब मैं उनसे मिलने रेडियो स्टेशन गया था कुछ साल पहले। अगर आकाशवाणी को बचाये रखना है तो सरकार को इस बारे में सोचना ही होगा।

और ख़ास तौर से विविध भारती से मेरी यह उम्मीद है कि 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में स्वर्गीय कलाकारों (जिनसे साक्षात्कार सम्भव नहीं हो पायी है), के परिवार वालों के भी इन्टरव्यूज़ लिए जायें। हिन्दी सिनेमा की प्रथम पार्श्वगायिका पारुल घोष की परपोती हैं, संगीतकार विनोद की बेटी और दामाद हैं, शक़ील बदायूनी के बेटे हैं, ये सभी फ़ेसबूक पर उपलब्ध हैं। साथ ही 'उजाले' में लता जी का लम्बा-सा इन्टरव्यू सुनने के लिए पता नहीं कब से तरसा बैठा हूँ।

2. आज निजी और सरकारी रेडियो चैनलों में सबसे ज्‍यादा असह्य बात आपको कौन सी लगती है।

तकनीकी ऐंगल की बात करें तो निजी चैनल सरकारी चैनलों से काफ़ी आगे हैं। उनका प्रसारण बहुत ही कसा हुआ होता है। गीत और घोषणा के बीच एक सेकण्ड का भी गैप नहीं होता। एक सेकण्ड के लिए भी आवाज़ ग़ायब नहीं होती और न ही कभी सीडी अटकने या किसी तरह का कोई तकनीकी समस्या जान पड़ती है। पर सरकारी चैनलों में ऐसा नहीं है। कभी सीडी अटक जाती है तो कभी घोषणा और गीत के बीच काफ़ी समय लिया जाता है। कभी ग़लत गीत भी बज जाता है।

निजी चैनलों की सबसे असह्य बात है कि उनके पास गीतों का बहुत बड़ा ख़ज़ाना नहीं होता। और ख़ास तौर से पुराने गीतों की बात करें तो राहुल देव बर्मन के गीतों की ही भरमार होती है। विविधता बहुत ही कम है। ऐसे में सरकारी चैनलों के पास कुबेर का ख़ज़ाना है। इस तरह से अगर निजी चैनलों का प्रसारण तकनीक और सरकारी चैनलों का आरकाइव एक साथ हो जाये तो रेडियो की दुनिया में नई क्रान्ति आ सकती है।

3. क्‍या गुज़रे साल का कोई यादगार कार्यक्रम याद है जिसके बारे में बताना चाहें।

गुज़रे साल का कोई यादगार कार्यक्रम तो नहीं है। पर रविवार की शाम 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम को सुनना एक अच्छा अनुभव रहता है हर सप्ताह।


रवि रतलामी का नाम नेट-जीवियों के लिए अनजान नहीं है। उन्‍हीं की प्रेरणा से मैंने ब्‍लॉगिंग की दुनिया में raviRATLAMI क़दम रखा था। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की नौकरी से रिटायरमेन्‍ट लेने के बाद वो पूर्ण-कालिक तकनीकी सलाहकार हैं। लिनक्‍स पर हिंदी और छत्‍तीसगढ़ी को शामिल करने में उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है। रवि भाई ब्‍लॉगिंग और कंप्‍यूटर की दुनिया में हम जैसे अज्ञानियों के लिए एक सतत हेल्‍पलाइन हैं। उनका नाम ब्‍लॉगिंग की दुनिया में बेहद सम्‍मान के साथ लिया जाता है। दिलचस्‍प बात ये है कि वो रेडियो की दुनिया से जुड़ाव रखते हैं। ये रहे उनके जवाब 

1. नये साल में रेडियो की दुनिया से आपको कौन सी उम्‍मीदें हैं।

उम्मीद तो कुछ खास नहीं है. निजी चैनलों में वही फालतू की बकवास - बकबक, वही 4-5 नए हिट गाने जिसे हर घंटे बीस बार बजाकर आपके दिमाग का दही जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. सरकारी चैनलों में वही बीस साल से चल रहे टाइप्ड प्रोग्राम - कहीं कोई नयापन नहीं.

2. आज निजी और सरकारी रेडियो चैनलों में सबसे ज्‍यादा असह्य बात आपको कौन सी लगती है।

निजी - फालतू की बकवास, सड़ियल चुटकुले, बारंबार बजते प्रोमो गाने। सरकारी - शून्य प्रयोगधर्मिता. बाबा आदम के जमाने से चले आ रहे टाइप्ड किस्म के प्रोग्राम. अरे भाई, कोई घंटे/आधे घंटे का दुनिया के बेहतरीन संगीत के बारे में कोई प्रोग्राम (या ऐसे ही कुछ अन्य) बनाने के बारे में क्यों नहीं सोचता?

3. क्‍या गुज़रे साल का कोई यादगार कार्यक्रम याद है जिसके बारे में बताना चाहें।

यादगार याद नहीं.

'डाकसाब' का जिक्र रेडियोनामा पर पहले भी होता रहा है। ज़ाहिर है कि पेशे से डॉक्‍टर/सर्जन हैं। और रेडियो sti कार्यक्रमों के सुधि श्रोता। रेडियो कार्यक्रम पसंद आए तो बढिया। वरना यहां भी उनकी सर्जरी से बचना मुश्किल है। ऐसे सुधि-श्रोताओं से रेडियो-प्रस्‍तुतकर्ताओं को सुधार करने में काफी मदद मिलती है। उनके ज़रिये हम अपने कार्यक्रमों में रोचकता की नब्‍ज़ टटोल पाते हैं। ये रहे उनके जवाब

1. नये साल में रेडियो की दुनिया से आपको कौन सी उम्‍मीदें हैं ? 

(क) नये ज़माने के हिसाब से कन्टेन्ट में बदलाव की ।

(ख) देश के भावी नागरिकों (देश की जनसंख्या और श्रोता-वर्ग का एक बहुत बड़ा प्रतिशत) के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी के एहसास की ।

आज देश में संस्कृति और मूल्यों के आदर्श का जो संकट है, उसके पीछे मुख्य कारण मेरी दॄष्टि में नयी पीढ़ी में इस तरह की सोच विकसित न कर सकने की हमारी अक्षमता है । "बच्चे देश के भावी नागरिक हैं" - यह जुमला जहाँ-तहाँ उछालते सब हैं ,पर उनके लिये अच्छे कार्यक्रमों का कम से कम रेडियो की दुनिया में तो आज सर्वथा अभाव दिखता है ।

2. आज निजी और सरकारी रेडियो चैनलों में सबसे ज्‍यादा असह्य बात आपको कौन सी लगती है ?

(क) सरकारी चैनलों पर घटिया सरकारी प्रचार की । पिछले लगभग पाँच दशकों से आकाशवाणी के समाचारों की शुरुआत हमेशा " प्रधानमंत्री ने ....." से ही होती आयी है, कभी-कभार के अपवादों को छोड़ कर ।

(ख) निजी चैनलों पर भाषा के बिगड़ते संस्कार और प्रसारण-सामग्री में घोर अश्लीलता ।

3. क्‍या गुज़रे साल का कोई यादगार कार्यक्रम याद है जिसके बारे में बताना चाहें।

विविध भारती पर "उजाले उनकी यादों के"  श्रॄंखला में प्रसारित भेंट-वार्ताएं, जिनके माध्यम से तमाम उन लोगों को निकट से जानने-समझने का अवसर मिला, जिन्होंने अपने काम से हमारे समाज पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

सागर नाहर रेडियोनामा के संस्‍थापकों में से एक हैं। हैदराबाद में रहते हुए वे लगातार रेडियो सुनते हैं। और n अपनी पसंद-नापसंद बताते रहते हैं। फेसबुक पर रेडियोनामा और श्रोता बिरादरी समूहों का और यहां रेडियोनामा ब्‍लॉग का कुशल तकनीकी संचालन दर्शाता है कि वे परदे के पीछे चुपचाप अपना काम करते रहने वाले लोगों में से हैं। ये रहे उनके जवाब।

1. नये साल में रेडियो की दुनिया से आपको कौन सी उम्‍मीदें हैं।

नए साल में रेडियो से उम्मीद है कि कार्यक्रम के बीच में विज्ञापन ना बजाएं मसलन पं वसंत देसाई के कार्यक्रम के दौराना गाना बज रहा था, राधा को विदा के इशारे थे... तभी बीच में मैं अपना इंश्योरेंस बदलना चाहता हूँ... फिर से गाने का हिस्सा घुमकित- घुमकित घूम गई.. !!! इस तरह विज्ञापन नहीं बजने चाहिए।

मानता हूँ कि विज्ञापन भी जरूरी है तो विज्ञापन बजाने के समय पर कंपनी को बता दिया जाए कि इस समय गीत बज रहा होता है सो विज्ञापन गाने के बाद बजेगा। चाहें तो बीच में एक की बजाए दो ब्रेक ले लिए जाएं लेकिन गाने में खलल ना डाला जाए। दिनांक 23.1.2011 को संगीत सरिता में पं उल्हास बापट कुछ बोल रहे थे, और उसी समय स्थानीय स्टेशन ने विज्ञापन बजा दिया। इस तरह की हरकतें खीझ पैदा करती है सो उम्मीद है कि इस दिशा में कोई सार्थक कदम उठेगा।

दूसरी बात शास्त्रीय संगीत से जुड़े कार्यक्रमों में नए कलाकारों को भी मौका दिया जाए जैसे विदुषी डॉ राधिका बुधकर, पं संजीव अभ्यंकर आदि। लोकेन्द्र शर्मा जी का कार्यक्रम बाइस्कोप की बातों को पुन: चालू किया जाए। उजाले उनकी यादों को हफ्ते में एक से अधिक बार सुनाया जाए।
मेरी राय त्रिवेणी को बन्द करके उसका समय संगीत सरिता को दिया जाना चाहिए। बच्‍चों के कार्यक्रम विविध भारती पर नहीं है अत: बच्‍चों के लिए भी कार्यक्रम चालू किए जाएं।

स्थानीय स्टेशन के प्रसारण कर्ताओं को हिदायत दी जानी चाहिए कि हिन्दी कार्यक्रमों का विवरण हिन्दी में दें, क्यों कि वे तेलुगु में बताते हैं और हमें पता भी नहीं चल पाता कि कौनसा कार्यक्रम कितनी बजे आएगा।

  1. आज निजी और सरकारी रेडियो चैनलों में सबसे ज्‍यादा असह्य बात आपको कौन सी लगती है।

निजी तो मैं कभी सुनता ही नहीं सरकारी में जो बात असह्‍न लगती है वह मैं पहले प्रश्‍न में बता चुका।

  1. क्‍या गुज़रे साल का कोई यादगार कार्यक्रम याद है जिसके बारे में बताना चाहें।

कई सारे हैं जैसे कि ऊर्दू सर्विस पर मशहूर गायिका राजकुमारी जी का साक्षात्कार; ऊर्दू सर्विस का प्रसारण और उनके उद्‍घोषकों को श्रोताओं की पसन्दगी की अच्छी समझ है। जब राजकुमारीजी बोल रही थी, एक बार भी उद्‍घोषिका ने उन्हें टॊका नहीं कि इस बात पर यहाँ एक गीत तो बनता है, या आपकी पसन्द का कोई गीत बताईये... ना ही उद्‍घोषिका ने बेवजह ठहाके नहीं लगाए।

विविध भारती पर संगीत सरिता में बहुत से सुन्दर कार्यक्रम आए हैं जैसे रसिकेषु, राजस्थानी लोक कलाकारों द्वारा प्रस्‍तुत कार्यक्रम जिसमें महेन्द्र मोदी जी ने राजस्थानी कलाकारों के गीतों का भावार्थ बताया था। , विदुषी गिरिजा देवी, उस्‍ताद वासिफुद्दीन डागर की श्रृंखला, विविध भारती के ख़ज़ाने से वाली श्रृंखला और बाद में उनके रागों पर चर्चा.. ऐसे कई कार्यक्रम जो फिलहाल याद नहीं आ रहे हैं।

उम्मीद है कि वि.भा. पर ऐसे रचनात्मक कार्यक्रम आगे और भी सुनने को मिलेंगे।

Sunday, January 22, 2012

'कविताएं अगर होती परियां'.....जाने-माने न्‍यूज़-रीडर राजेंद्र चुघ की कविताएं

पिछले कुछ दिनों से रेडियोनामा पर ना तो शुभ्रा जी आ रही थीं और ना ही 'न्‍यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा' वाले स्‍तंभ की अगली कडियां। नया साल शुरू होते ही शुभ्रा जी ने दो अनमोल प्रस्‍तुतियां रेडियोनामा के लिए तैयार की हैं। इनमें से एक आज। अगली अनमोल प्रस्‍तुति असल में ऑडियो के साथ है। और इसकी प्रतीक्षा कीजिए। क्‍योंकि प्रतीक्षा का फल  'मीठा' होता है। तो लीजिए रेडियोनामा पर रविवार की विशेष पेशकश।  जाने-माने न्‍यूज़-रीडर राजेंद्र चुघ की कविताएं। रेडियोनामा पर चुघ साहब की ये कविताएं पेश करना हमारे लिए सौभाग्‍य ये कम नहीं है। हम शुभ्रा जी और राजेंद्र चुघ दोनों के शुक्रगुज़ार हैं।


 
दोस्तो, आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि मैं इतने दिनों से कहाँ लापता हूँ. तो अर्ज़ कर दूं कि वैसे तो दोस्तों की महफ़िल में बैठना, उनके साथ इधर-उधर की बातें करना, और खुलकर ठहाके लगाना किसे पसंद नहीं आता? लेकिन कभी-कभी इससे भी ज़्यादा "दिलफ़रेब हो जाते हैं ग़म रोज़गार के "....और फिर महिलाओं के ऊपर तो प्रकृति ने दोहरी उदारता दिखाई है.... कि घर भी संभालें और रोज़गार भी. आशा है इस दोहरी मजबूरी को समझते हुए मुझे माफ़ कर देंगे.

जहाँ तक "न्यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा" का सवाल है.... यादों का सिलसिला ऐसे मोड़ पर आ पहुंचा था, जहाँ से कुछ तीखी और तल्ख़ यादें झाँकने लगी थीं इसलिए मैंने रास्ता ही बदल दिया.

आज मैं आपकी चिर-परिचित आवाज़ के एक नये पहलू से आपका परिचय कराने जा रही हूँ. राजेंद्र चुघ की आवाज़ में आप बरसों   से समाचार सुनते आ रहे हैं. वे न सिर्फ हिंदी समाचार कक्ष के हमारे वरिष्ठ सहयोगी हैं बल्कि इस समय मुख्य समाचार वाचक भी हैं. सम-सामयिक विषयों की बहुत अच्छी जानकारी रखते हैं. पंजाबी और हिंदी साहित्य का विशद अध्ययन किया है. ख़ुद भी लिखते रहे हैं. विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में उनकी कहानियां और कवितायेँ बराबर प्रकाशित होती रही हैं. हमारी गप-गोष्ठियों में बहुत इसरार करने पर कभी- कभी अपनी रचनाएँ सुना दिया करते हैं.


1


पंजाब के जालंधर जिले के शाहकोट गाँव से ताल्लुक रखते हैं. गाँव की बातें करते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं. शाहकोट मिर्च की बहुत बड़ी मंडी है. मिर्च की तल्ख़ी तो नहीं, हाँ उसका रंग और ख़ूबसूरती चुघ साहब की कविताओं में झलकती है. पहले गाँव, फिर नकोदर और फिर जालंधर से पढ़ाई पूरी की और वहीँ से आकाशवाणी से साथ जुड़ा. पत्नी सीमा सच्चे अर्थों में उनकी सह-धर्मिणी हैं. चुघ साहब बातचीत में अक्सर उन्हें 'मालकिन' कहकर बुलाते हैं. इसी वजह से मैं कभी-कभी उन्हें 'सीमाबद्ध' कहकर चिढ़ाती भी हूँ .

दो बच्चे हैं - संकेत और निष्ठा. संकेत होटल मैनेजमेंट व्यवसाय से जुड़े हैं और निष्ठा ने पत्रकारिता का पेशा अपनाया है. पुत्रवधू जसरिता और दामाद विलास समेत पूरा परिवार आत्मीयता की ऐसी प्यारी डोर से बंधा हुआ है कि देखकर हमेशा यही दुआ करने को जी चाहता है कि यह डोर और मज़बूत हो. यहां ये जिक्र करते चलें कि चुघ साहब के दामाद विलास चित्राकरण दक्षिण भारत के हैं।

चुघ साहब ने अभी पिछले दिनों एक कविता सुनाई. उसे सुनते हुए मुझे अपने पापा  कुछ इस तरह याद आये कि मेरी आँख भीग गयी. यह कविता उन्होंने अपनी बेटी के जन्मदिन पर उसके लिए उपहार के रूप में लिखी थी. मैंने उनसे वह कविता माँग ली और अपने संकलन में संजो कर रख ली. कुछ मित्रों की नज़र पड़ी....कुछ टिप्पणियां भी आयीं. आखिरकार आम सहमति से तय पाया गया कि इन कविताओं को रेडियोनामा के माध्यम से सभी श्रोताओं-पाठकों तक पहुँचाया जाये. अनुमति के लिए चुघ साहब से संपर्क किया तो बोले - चाहे जितनी कवितायेँ ले लो और जहाँ चाहो, चिपका दो.  तो लीजिये, राजेंद्र चुघ की ये कवितायेँ आपके हवाले कर रही हूँ. पढ़ कर देखिये और बताइये कैसी लगीं.



निष्ठा के लिए

कवितायेँ अगर होतीं परियां

बच्चों की कहानियों जैसी

और उतर आतीं लेकर जादू की छड़ी

हर सपना सच करने को ....

कवितायेँ अगर होतीं तितलियाँ

स्वर्ग की क्यारियों जैसी

और उतर आतीं लेकर सारे चमकीले रंग

हर ख्वाब में भरने को .....

कवितायेँ अगर होतीं दुआएं

काबे के आँगन जैसी

और उतर आतीं लेकर मन्नतों का असर

हर ख्वाहिश में भरने को....

तो भेज देता मैं सारी परियों और तितलियों को तुम्हारे घर के पते पर

और बैठा रहता काबे के आँगन में दुआ के लिए हाथ उठाये

तुम्हारे लिए.......उम्र भर.......

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यादें

जाने किस चीज़ से बुनी होती हैं ये यादें,

समय के सूत से या रिश्तों के रेशम से

प्रवासी पंछियों की तरह उड़ आती हैं

बीते की बर्फ से ....

कभी गोद में बैठकर दाढ़ी के बाल टटोलती हैं

कभी दीवार घड़ी से कोयल की तरह निकलकर हर घंटे बोलती हैं

ज़रा सा वक़्त खोलकर शरारत से झाँकती हैं

पुराने पलों पर जमी ज़ंग की परत पोंछ डालती हैं

ये यादें उतार देती हैं पस्त लम्हों की थकान

वे खोल देते हैं आँखें फिर नवजात शिशु के समान

मेरी उँगली पकड़कर इन्द्रधनुष पर झुलाने ले जाती हैं

तेरी यादें ....

इन यादों की उम्र दराज़ हो

और तुम्हारी भी.

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संकेत और जसरिता के नाम

सदियों से घूम रही है धरती अपने सूरज के गिर्द

सदियों से झूल रहा है चाँद अपनी रात के बालों में

सदियों से धो रहा है समंदर अपनी धरती के पैर

सदियों से चूम रही है बर्फ़ अपने पर्वत के होंठ

सदियों से दे रही है बहार अपने मौसम के हाथों फूल

लिखी जा रही है मुहब्बत की

एक मुक़द्दस और मुसलसल दास्ताँ

क़ुदरत के काग़ज़ पर सदियों से...

आओ हम तुम भी आज दस्तख़त करें,

इस दस्तावेज़ के नीचे,

कि हमारी मुहब्बत के निशान

संभालकर रख लें

ये सदियाँ....

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बातों ही बातों में चुघ साहब ने यह भी बताया कि बरसों पहले जब उन्होंने कविता की ज़मीन पर पैर रखा तो सबसे पहले यह ग़ज़ल बन गयी थी, जो आज भी उनके दिल के बहुत क़रीब है.....


बेसब्र है बादल उसे तड़पाइयेगा मत

गर टूट के बरसे तो पछताइयेगा मत.

बिजली के नंगे तारों से छींके हैं खतरनाक

इन पर किसी उम्मीद को लटकाइयेगा मत.

वो बांटने तो आये हैं खैरात में सपने

ख़ाली जनाब आप भी घर जाइयेगा मत.

जो ज़िन्दगी को समझते हैं महज़ चुटकुला

कह दो उन्हें कि तालियाँ बजाइयेगा मत.

उनके भी दिल में दर्द है, मैं बहुत सुन चुका

अब इस ख़याल से मुझे बहलाइयेगा मत.

सतलुज की धारा शाहकोट से कुछ ही दूर बहती है. हिंदुस्तान के गावों में बसने वाले लोगों की ज़िन्दगी में नदियों का जो दर्जा है, जो अहमियत है, वह कहने-सुनने की नहीं, समझने और महसूस करने की बात है. चुघ साहब बताते हैं कि वेग से बहते सतलुज में उन्हें अपने दादाजी की झलक मिलती थी. और सतलुज से दूर होने पर तो यह एहसास और भी गहरा होता गया....

ख़ुद रोये और मुझे रुलाये सतलुज

अथरू अथरू रोता जाये सतलुज.

तर दाढ़ी,पगड़ी पर काले धब्बे

रोज़ रात सपनों में आये सतलुज.

हर क्यारी में सूखे खून के छींटे

किस-किस खेत से बचकर जाये सतलुज.

इंतज़ार में जैसे हो महबूबा

ऐसे भागा भागा जाये सतलुज.

जी करता है तुतला तुतला बोलूँ

मुझको अपनी गोद खिलाये सतलुज.

मेरे पंज-आबों की पीड़ हरे जो

उसपे वारी-वारी जाये सतलुज.

Sunday, January 15, 2012

कैक्‍टस के मोह में बिंधा एक मन-5: महेंद्र मोदी के संस्‍मरणों की श्रृंखला

नाटक हर इंसान की……..नहीं शायद इंसान ही नहीं, हर प्राणी की ज़िंदगी का एक ज़रूरी हिस्सा होता है. आपने देखा होगा कुत्ते अक्सर आपस में खेलते हैं.... एक दूसरे को काटने का अभिनय करते हैं... मगर चोट नहीं पहुंचाते . आपका पालतू कुत्ता जब आपके साथ खेलना चाहता है तो आपके सामने आकर भौंकने लगता है....भौंकने के साथ साथ उसकी पूंछ हिलती है तो आप समझ जाते हैं कि वो वास्तव में नाराज़ होकर नहीं भौंक रहा बल्कि आपके साथ खेलना चाहता है और आप भी उसकी भाषा समझकर ज़रा सा नाटक करते हैं यानि उठने का अभिनय करते हैं तो वो दौड पड़ता है ताकि आप उसके पीछे दौड लगाएं और आप दौड़ते हैं……… कभी आप उसके पीछे और कभी वो आपके पीछे और जब भी मौक़ा मिलता है, वो आपको काटने का नाटक करने लगता है.ये खेल इसी तरह चलता रहता है जब तक कि आप थक कर बैठ नहीं जाते. तब वो आपके पास आकर आपको काटने का नाटक करने लगता है और फिर आपकी गोद में लोटने लगता है.

मैं जब भी बीकानेर जाता हूँ , मेरी जर्मन शेफर्ड शैरी बड़े लाड प्यार से मुझसे मिलती है,आकर लिपट जाती है और काफी समय तक छोडती ही नहीं. वो पलंग के उसी तरफ बैठती है जिधर मैं लेटता हूँ. भाभी जी शैरी को 409019_2724925036123_1047046211_3007860_18572033_n उलाहना भी देती हैं कि वो मौक़ापरस्त है, मेरे वहाँ जाने के बाद वो उनके पास नहीं जाती है ... मेरे पास ज्यादा रहती है.मेरे वहाँ जाने के बाद वो दूध रोटी खाना बिल्कुल छोड़ देती है. मैं जानता हूँ, उसे मछली बहुत पसंद है और जब भी मैं वहाँ जाता हूँ, चाहे कुछ भी हो जाए , उसे मछली लाकर ज़रूर खिलाता हूँ जोकि भाई साहब नहीं कर पाते...... मेरे पास आकर वो ज़ोर ज़ोर से भौंकने लगती है मानो कह रही हो, मुझे मछली खिलाओ, मगर वो भौंकना बहुत प्यारभरा होता है और साफ़ लगता है कि वो नाटक कर रही हैं क्योंकि भौंकने के साथ साथ पूंछ हिलाती जाती है. मेरे भाई साहब जो कि एक डॉक्टर हैं हमेशा कहा करते हैं कि जिस प्राणी में जितना ज़्यादा ग्रे मैटर होता है उसमें उतनी ही ज़्यादा बुद्धि होती है. तो इस हिसाब से इंसान के एक बच्चे में भी कुत्ते से ज़्यादा अक्ल होती है और जिसमें जितनी ज़्यादा अक्ल होती है वो उतना ही ज़्यादा नाटक कर सकता है...... हा हा हा ... आप ये न समझें कि मैं नाटक वालों को ज़्यादा बुद्धिमान साबित करने की कोशिश कर रहा हूँ. मैं तो सिर्फ नाटक की जो सबसे छोटी और सरल परिभाषा है उसकी बात कर रहा हूँ. “आप जब वो बनते हैं जो आप नहीं हैं तो आप नाटक करते हैं”, मैं बस यही कहना चाहता हूँ. आज भी मेरा पोता टाइगर कभी कभी कहता है “दादू आप स्टूडेंट हैं और मैं टीचर” तो मुझे स्टूडेंट बनना पड़ता है या फिर मेरी नातिन नैना मेरी माँ बनकर खाना परोसती है तो मुझे झूठमूठ ही वो खाना खाना होता है जो प्लेट में कहीं नहीं होता . आपने भी देखा होगा कि अक्सर लडकियां दुपट्टे को साडी की तरह पहनकर घर घर खेलती हैं, खाना बनाती हैं और बच्चों को धमकाती हैं फिर प्यार से समझाती हैं...... आज, टी वी, कंप्यूटर और वीडियो गेम्स, न जाने क्या क्या है, जिन्होंने इन सब खेलों से बच्चों को बहुत दूर कर दिया है. मेरा पोता टाइगर आई पैड पर तरह तरह के खेल खेलता है मगर फिर भी मुझे लगता है, मेरा टीचर बनने में जो सुख उसे मिलता है वो उस आई पैड में उसे कतई नहीं मिलता होगा .

मेरा मोहल्ला शेखों का मोहल्ला कहलाता था और इन शेखों के साथ हम लोगों के खेलने खाने के सम्बन्ध नहीं हुआ करते थे. इन लोगों को बस हमारे घर की देहरी तक ही आने की इजाज़त थी. मेरे पड़ोस में कुंदन भाई जी का घर था, उससे  बिल्कुल जुड़ा हुआ सोहन बाबो जी का घर था,जो मेरे पिताजी की मौसी जी के बेटे थे.सोहन बाबोजी की एक ही औलाद थी, पूनम भाई जी.बहुत रोचक चरित्र थे वो. १९९३ में जब मैं उदयपुर में पोस्टेड था, एक साप्ताहिक हास्य धारावाहिक शुरू किया था मैंने. वैसे तो इस धारावाहिक को मेरे साथी कुलविंदर सिंह कंग लिखा करते थे मगर कुछ एपिसोड्स मैंने भी लिखे. उस धारावाहिक का एक चरित्र मैंने दो लोगों को मिलाकर गढा,एक मेरा छात्र सत्यप्रकाश और दूसरे पूनम भाई जी. इन दोनों का विस्तार से ज़िक्र तब आएगा जब मैं उदयपुर की बात करूँगा.मेरे दूसरे ताऊ जी दीना नाथ जी थे, जिनको हम सब “बा” कहते थे. उनका  घर हमारे घर से थोड़ा सा दूर, सड़क के उस पार था.वो मेरे पिताजी के मामा जी के बेटे थे. बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, जब मेरे पिताजी सिर्फ पौने दो साल के थे,मेरे परिवार में एक बहुत बड़ी दुर्घटना हो गयी थी.मेरे दादा जी और उनके दस बच्चे, पूरे देश में तबाही मचाने वाली प्लेग की बीमारी में, चार दिनों में श्मशान घाट पहुँच गए थे. यानि एक झटके में एक भरा पूरा घर खाली हो गया था.घर में बच गई थीं, मेरी दादी जी, अपनी गोद में पौने दो साल का एक बच्चा लिए हुए. मेरे दादाजी की सारी ज़मीन जायदाद, सोना चांदी, मेरे दादा जी के क़रीबी रिश्तेदार खा गए. ऐसे वक्त में मेरे पिताजी के मामा जी, मेरी दादी जी और मेरे पिताजी को अपने घर ले गए और भाई बहन दोनों ने मिलकर पिताजी और “बा” दोनों को पाला पोसा क्योंकि “बा” की माँ की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी. इस प्रकार मेरे पिताजी और “बा” की परवरिश एक साथ हुई. नतीजा, जब तक वो ज़िंदा रहे, दोनों में सगे भाइयों से भी ज़्यादा प्यार रहा.

”बा” बहुत पढ़े लिखे थे. एम् ए, एल एल बी, बी एड. उस ज़माने में स्कूल में हैड मास्टर ही सबसे बड़ी पोस्ट हुआ करती थी और वो एक हैड मास्टर थे. कई किताबें लिखी थी उन्होंने. आज भी ‘बीकानेर के इतिहास’ पर, उनकी और नरोत्तम दास स्वामी की लिखी किताब, एक प्रामाणिक किताब मानी जाती है. उनकी एक बहुत बड़ी सी लाइब्रेरी थी.इसी लाइब्रेरी की कुछ किताबें १९८१ में, मैंने अपनी ताई जी से लेकर अपने स्टेशन डायरेक्टर श्री उमेश दीक्षित को दी थी.ये लायब्रेरी कैसे बाद में जाकर दहीबडों और कचौरियों में बदल गयी ये मैं सूरतगढ़ वाले एपिसोड्स में लिखूंगा. हाँ तो मैं बता रहा था “बा” के बारे में. उनकी पोस्टिंग अक्सर बीकानेर से बाहर के स्कूलों में रहती थी. छुट्टियों में जब डेढ़ महीने के लिए वो बीकानेर आते थे तो मेरे लिए वो साल का सबसे सुनहरा वक्त होता था... उनके आठ बच्चे थे, पांच लड़के और तीन लडकियां. चार लड़के मुझसे बहुत बड़े थे मगर एक लड़का रतन और तीन लडकियां विमला, निर्मला और मग्घा मेरे हमउम्र थे क्योंकि इन सबकी उम्र में एक-एक साल का अंतर रहा होगा. जब भी छुट्टियों में वो बीकानेर आते थे , बस हम पाँचों लोग दिन रात साथ ही रहते थे. कई बार इस बात के लिए मुझे और उन लोगों को डाट भी पड़ती थी, मगर हम लोग उस डाट को सह लेते थे और साथ साथ ही रहते थे. मेरे घर की छत पर एक टूटा हुआ पलंग था और एक टूटी हुई तीन पहियों की साइकिल. टूटी हुई साइकिल को पलंग में कुछ इस तरह फंसा लिया जाता था कि साइकिल का पहिया स्टीयरिंग की तरह लगने लगता था और बस हमारी शानदार गाड़ी तैयार......सच बता रहा हूँ,जो थ्रिल, बचपन में उस टूटे पलंग और टूटी साइकिल से बनी गाड़ी को चलाने में महसूस होता था, आज अपने घर में मौजूद कैप्टिवा से लेकर स्विफ्ट तक किसी को भी चलाने में नहीं होता . हम अपनी उस शानदार गाड़ी में सवार होकर निकल पड़ते थे, शिकार के लिए... वो ज़माना था, जब शिकार एक ज़रूरी हिस्सा हुआ करता था, राजाओं और राजकुमारों के जीवन का. बस कल्पना में हम सभी राजकुमार और राजकुमारियां घने जंगल में पहुँच जाते थे. जंगल में कभी सामने शेर आता था और कभी हिरन .... यही नाटक घंटों चलता रहता था और हम कई शेरों और कई हिरणों का शिकार करके अपनी उस शानदार गाड़ी में लाद कर घर लौटते थे चाहे लौटकर कितनी भी डाट पड़े. क्या था ये सब? एक नाटक ही तो था न ?

इस मौके पर एक नाटक और याद आ रहा है मुझे. बहुत छोटा था मैं शायद ३-४ साल का. हम लोग चूनावढ में रहते थे, जिसका ज़िक्र मैं पहले एक एपिसोड में कर चुका हूँ .मैं और मेरे भाई साहब बस दो ही पात्र थे इस नाटक के. शुरू से ही पता नहीं क्यों भाई साहेब हमेशा छोटा भाई बनते थे और मैं बड़ा भाई. एक दिन इसी तरह हमारा खेल चल रहा था. मैं हस्बेमामूल बड़े भाई के रोल में था और भाई साहब छोटे भाई के रोल में. खेलते खेलते वो मुझसे बोले “भाई साहब भूख लगी है” मैंने झूठमूठ एक डिब्बा खोला और झूठमूठ कुछ निकाला और कहा “ लो ये भुजिया खा लो” उन्होंने झूठमूठ के भुजिया खा लिए और बोले “ मुझे और चाहिए” मैंने उन्हें समझाकर कहा “ ज़्यादा भुजिया खाने से पेट खराब हो जाता है”. वो बोले “थोड़े से और देदो भाई साहब”. मैंने फिर उन्हें थोड़े से दे दिए.उन्होंने झूठमूठ खा लिए और फिर बोले “ ऊं ऊं ऊं थोड़े और दो भाई साहब......ऊं ऊं ऊं.... दे दो ना ” मुझे पता नहीं क्या हुआ....और पता नहीं कैसे .... मैंने खींच कर एक थप्पड़ जमा दिया भाई साहब को और बोला “ समझ नहीं आता तुम्हें? ज़्यादा भुजिया खाने से पेट खराब हो जाता है?” ताड़ से जो थप्पड़ लगा तो वो हक्के बक्के रह गए..... उन्हें रोना आ गया और मैं......? मैं एकदम से होश में आ गया.....मुझे लगा कि मैंने ये क्या कर दिया ... तो मुझे भी  रोना आ गया.. बस हम दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोने लगे. पिताजी ने जब हमारा रोना सुना तो दौड़े आये और पूछने लगे... “क्या हुआ... क्यों रो रहे हो?” हम चुप, बस एक दूसरे से लिपटे हुए आंसू बहाए चले जा रहे थे .........

मैं इस घटना को कभी भूल नहीं सका .... आज तक नहीं. इस घटना के ३५ साल बाद ,इसी घटना को आधार बनाकर मैंने एक नाटक लिखा जो आकाशवाणी इलाहाबाद से प्रसारित हुआ. इतेफाक से जब मैंने ये नाटक लिखा, उन दिनों मेरे पिताजी इलाहाबाद आये हुए थे. जब नाटक लिखकर मैंने उन्हें सुनाया... तो कहने लगे ... तुम कलाकार लोग पागल होते हो क्या? हाँ ... शायद हम कलाकार लोग पागल ही होते हैं... तभी तो “यात्रा” नाटक के दौरान आकाशवाणी कोटा में १५ साल की छोटी सी सरिता जो, तवायफ का ठीक से अर्थ भी नहीं जानती थी, ये रोल करते करते इस तरह रो पड़ती थी कि उसे चुप कराने में हम सबको घंटों लग जाते थे और ललित, दीपेंद्र, आनंद, ऋतु, रिचा और नीरू जैसे लोग तो उसे चुप करवाते करवाते खुद ही रो पड़ते थे................

Sunday, January 8, 2012

रेडियो आपकी मुट्ठी में है- अरूण जोशी से राजेश मिश्र की बातचीत

रेडियोनामा पर ना सिर्फ रेडियो की यादों का कारवां चल रहा है। बल्कि हमारा प्रयास है कि रेडियो की दुनिया की दशा और दिशा पर विमर्श भी किया जाता रहे। रेडियो की दुनिया से जुड़े रहे अरूण जोशी का ये इंटरव्‍यू 7 जनवरी 2012 को नवभारत टाइम्‍स में प्रक‍ाशित हुआ था। इसे रेडियोनामा के पाठकों के लिए और रेडियो की दुनिया के लिए संदर्भ-सामग्री जमा करने के मक़सद से यहां प्रस्‍तुत किया जा रहा है।

आकाशवाणी के न्यूज सेक्शन से अरसे तक जुडे़ रहे अरुण जोशी ने देश और विदेशों में कई महत्वपूर्ण न्यूज कवरेज की हैं। रिटायर होने के भी वे आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों से जुड़े हैं। फिलहाल वे इग्नू के 37 ज्ञानवाणी एफएम रेडियो स्टेशन में बतौर सलाहकार अपनी सेवाएं दे रहे हैं। रेडियो की भूमिका पर उनसे राजेश मिश्र की बातचीत :

क्या आपको नहीं लगता कि इंटरनेट के इस युग में रेडियो अपनी उपयोगिता खो रहा है ?
रेडियो की उपयोगिता विश्व में कहीं पर भी कभी भी समाप्त नहीं हुई है। आज अमेरिका और यूरोपीय देशों में रेडियो के कई स्टेशन काम कर रहे हैं। साथ ही वहां एक के बाद एक स्टेशन खुलते चले जा रहे हैं। इनमें सरकारी और प्राइवेट दोनों तरह के रेडियो स्टेशन हैं। अगर भारत की बात करें, तो यहां जैसे ही टेलिविजन की एंट्री हुई तो ये फर्क जरूर आया कि रेडियो कुछ समय के लिए लोगों की नजरों से ओझल हो गया। लेकिन एफएम क्रांति के बाद रेडियो आम श्रोताओं के बीच फिर से अपनी जगह बनाने में कामयाब रहा। रेडियो आज सर्वव्यापी हो गया है।
दिल्ली जैसे शहर में आज करीब 45 लाख से अधिक कारें हैं। इनमें कुछ ही ऐसी गाड़ियां होंगी जिसमें एफएम रेडियो के सेट न लगे हों। देखिए, इस भागदौड़ से भरी दुनिया में आपका अधिकांश समय ऐसी जगहों पर बीतता है जहां आप टीवी और न्यूजपेपर का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। वहां रेडियो आपका सबसे अच्छा दोस्त साबित होता है। गांव में जहां बिजली नहीं है, वहां रेडियो ही सबसे बेहतर माध्यम है। दरअसल रेडियो आज आपकी मुट्ठी में है।




आम लोगों के लिए रेडियो किस तरह फायदेमंद रहा है?
देश में ग्रीन रिवोल्यूशन, ऑपरेशन फ्लड जैसे अभियानों की सफलता में रेडियो की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। क्योंकि रेडियो आम भाषा और बोलियों में बात करता रहा है। नॉर्थ ईस्ट में कई रेडियो स्टेशन हैं। वे वहां की लोकल लैंग्वेज में कार्यक्रमों का प्रसारण करते हैं। हमारे देश के गांवों में साक्षरता का प्रतिशत कम रहा है। पहले वहां न्यूजपेपर्स भी बहुत मुश्किल से पहुंचा करते थे। खेती से जुड़ी पत्रिकाएं भी नहीं पहुंच पाती थीं। वैसे समय में कृषि जगत कार्यक्रम में छुट्टन काका जैसे पात्र किसानों को उनसे जुड़ी तमाम जानकारी दे रहे थे। आज भी वही स्थिति है। दिल्ली के बाहर निकलकर जाएं तो पाएंगे कि शाम पांच बजे के बाद कई जगहों पर बिजली की सप्लाई होती ही नहीं है, इस कारण वहां टीवी चल नहीं पाते हैं। ऐसे में लोगों के लिए एकमात्र सहारा रेडियो ही है।

रेडियो के प्राइवेटाइजेशन का क्या असर हुआ?
प्राइवेट एफएम चैनल महज एंटरटेनमेंट चैनल बनकर रह गए हैं। यह स्थिति सही नहीं है। हेल्थ, एजुकेशन, राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र को मजबूत करने वाले कार्यक्रम भी उन्हें प्रसारित करने चाहिए। उन्हें भाषा की शालीनता का ध्यान रखना चाहिए। मैं पिछले दिनों एक प्राइवेट एफएम पर कार्यक्रम सुन रहा था। उनमें वे ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे जो हमारी संस्कृति के अनुरूप नहीं कहे जा सकते हैं। लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण निश्चित रूप से जीवंत है। वे सीधे श्रोताओं से संवाद स्थापित करते हैं।


क्या एफएम चैनलों ने आकाशवाणी पर दबाव बढ़ा दिया है?
हां, यह बात सही है। एफएम क्रांति के बाद से आकाशवाणी पर दबाव बढ़ गया है। लेकिन मैं मानता हूं कि बदलती चुनौतियों के अनुरूप आकाशवाणी को बदलना होगा। इसके प्राइमरी चैनल पर पहले वाले फॉर्मेट आज भी चल रहे हैं। रेडियो पर आज भी नाटक होते हैं। रूपक और झलकियों का प्रसारण होता है। लेकिन ये सब प्राइमरी चैनल तक सीमित हैं। आज देश में कम से कम दो सौ रेडियो स्टेशन हैं। कोशिश जरूर की जानी चाहिए कि उनको नया फॉर्मेट दिया जाए। उनमें परिवर्तन लाने की जरूरत है। बदलते युग के हिसाब से रेडियो को ज्यादा इंटरेक्टिव बनाने की जरूरत है। उसे श्रोताओं के साथ संवाद स्थापित करना होगा। कुछ परिवर्तन आए भी हैं।
आज आकाशवाणी के कई केंद्रों से विभिन्न विषयों पर फोन इन जैसे कार्यक्रम चल रहे हैं। ये बहुत पॉप्युलर हुए हैं क्योंकि इसमें श्रोताओं की सीधी भागीदारी होती है। पहले भी आकाशवाणी पर फरमाइशी कार्यक्रमों में श्रोताओं से संवाद स्थापित करने की कोशिश की जाती थी। लेकिन इसमें और विस्तार की आवश्यकता है। प्रचलित आकाशवाणी के सेंटरों को अपनी प्रसारण तकनीक में बदलाव करना होगा। क्योंकि जितना शक्तिशाली प्रसारण का क्षेत्र होगा, उतना वह श्रोताओं तक पहुंच पाएगा। कार्यक्रमों में कुछ ऐसी चीजें डालनी होंगी जो श्रोताओं को आकर्षित कर सके। आप विज्ञापन जगत में हुए चेंज को देख सकते हैं। विज्ञापनों ने खुद को नए संदर्भों में पेश किया और यही उनकी सफलता का राज है। रेडियो प्रोग्राम्स को भी इसी आधार पर आज के बदलते संदर्भ में पेश करना होगा।

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