रेडियोनामा पर जानी-मानी समाचार-वाचिका शुभ्रा शर्मा अपने संस्मरण लिख रही हैं। इस श्रृंखला का शीर्षक है 'न्यूज़ रूम से शुभ्रा शर्मा'। आज दूसरी कड़ी।
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रेडियोनामा के एक पाठक ने लिखा है कि बचपन से जिन आवाज़ों को सुनते और पहचानते आ रहे हैं, उनमे से एक आवाज़ मेरी भी है. इसलिए अपने श्रोताओं के सामने यह स्वीकार करते हुए मैं हिचक रही थी कि रेडियो में नौकरी मैंने स्वेच्छा से नहीं, मजबूरी में की.
पढ़ने-लिखने में अच्छी थी इसलिए घर वाले चाहते थे कि मैं प्रशासनिक सेवाओं में जाऊं जबकि मुझे विश्वविद्यालय में पढ़ाना सबसे अधिक रुचिकर काम लगता था. पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग में नियुक्ति भी हो गयी थी, लेकिन पारिवारिक कारणों से वह नौकरी छोड़कर दिल्ली आना पड़ा. दिल्ली के कई कालेजों में कोशिश की लेकिन बात कुछ बनी नहीं. वे कहते थे इतिहास में एम ए कर लीजिये और मेरा तर्क यह था कि अगर मैं पटना में स्नातकोत्तर छात्रों को पढ़ाने के क़ाबिल थी तो दिल्ली में स्नातक छात्रों को क्यों नहीं पढ़ा सकती. लेकिन सच्चाई यह थी कि मुझे उस समय तत्काल एक अदद नौकरी की बहुत सख्त ज़रुरत थी.
पता चला कि आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में कैजुअल समाचार वाचकों की बुकिंग की जाती है. हालाँकि उनके चयन की प्रक्रिया उन दिनों काफी सख्त थी - अनुवाद पर खासा जोर दिया जाता था और करेंट अफेयर्स की अच्छी जानकारी भी लाज़मी थी. गोयाकि बनारस-पटना से दिल्ली आते-आते मुझे भी वैदिक काल से राजीव काल तक का सफ़र तय करना था. पाठ्य पुस्तक जैसी तन्मयता से अख़बार पढ़ने शुरू किये, पुराने पत्रकारों की शागिर्दी की और पड़ोस में रहने वाले आकाशवाणी के दिग्गज प्रसारणकर्त्ता श्री मेलविल डि मेलो को अपना 'पितु मातु सहायक स्वामि सखा' बनाया. लगभग महीने भर की तैयारी के बाद परीक्षा दे आयी. कुछ दिनों बाद स्वर परीक्षा का भी पत्र आ गया और इस तरह लिखित और मौखिक परीक्षाएं पास करते हुए मैं कैजुअल समाचारवाचक - अनुवादक बन गयी.
जुलाई १९८७ में बुलावा आया और मैं इन-उन देवी-देवताओं का नाम लेते प्रसारण भवन के हिंदी समाचार कक्ष में दाखिल हुई. कंप्यूटर का युग शुरू नहीं हुआ था. कई छोटी-बड़ी मेजों पर मशीन-गनों की तरह टाइप-राइटर सजे हुए थे. उनके पीछे उन्हें चलाने वाले स्टेनो सन्नद्ध थे. उन्हीं में से एक के पास मैं भी बैठ गयी. जादुई दुनिया लग रही थी. रात पौने नौ बजे के बुलेटिन की तैयारियां चल रही थीं. सभी लोग बेहद व्यस्त नज़र आ रहे थे.
मैं जिन स्टेनो के पास बैठी थी, उन्हीं से परिचय बढ़ाना शुरू किया. बड़े सौम्य-से व्यक्ति थे, मोहन बहुगुणा. वे भी बीच-बीच में व्यस्त हो जाते थे. लेकिन जब खाली होते तब मेरे प्रश्नों के उत्तर देते जा रहे थे. कमरे के बीच में एक बड़ी सी मेज़ थी, जिस पर कोई टाइप-राइटर नहीं था. एक तरफ बुर्राक़ सफ़ेद कुरते-पायजामे में एक सज्जन फ़ोन पर बतिया रहे थे और दूसरी तरफ एक महिला बड़े मनोयोग से कुछ पढ़ रही थीं. बहुगुणा जी ने बताया कि वह रामानुज प्रसाद सिंह और विनोद कश्यप हैं, जो पौने नौ बजे का बुलेटिन रिहर्स कर रहे हैं.
अब हम ठहरे उस पीढ़ी के लोग, जिसे पौने नौ के बुलेटिन को वाक़ई आकाश से आती हुई वाणी समझने का संस्कार मिला था. रेडियो से पिप्स आयें और घन गंभीर आवाज़ कहे - "ये आकाशवाणी है" - तबसे लेकर - "समाचार समाप्त हुए" निनादित होने तक कुछ भी बोलना खुद अपनी शामत बुलाने जैसा होता था. बल्कि मेरे और मेरी कुछ सहेलियों के बीच यह क़रार हुआ था कि अगर फ़ोन पर लम्बी बात करनी हो तो यही समय सबसे उपयुक्त है, जब बड़े इस बात पर ध्यान नहीं देते कि हम चौदह मिनट से फ़ोन पर लगे हुए हैं. लेकिन पन्द्रहवां मिनट शुरू होते ही फ़ोन रख देना भी ज़रूरी था. तो उसी पौने नौ के बुलेटिन को अपनी आँखों के सामने बनता-सँवरता देखकर मैं सकते में थी.
तभी बहुगुणा जी ने याद दिलाया कि मैं भी समाचारवाचक हूँ और मुझे जाकर अपने सीनियर्स से मिलना चाहिए. मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी लेकिन मैंने प्रकट तौर पर यही कहा कि वे रिहर्स कर रहे हैं, मैं उन्हें डिस्टर्ब कैसे करूँ.
बहुगुणा जी ने हिम्मत बंधाते हुए कहा - जाइये, अभी बुलेटिन में काफी समय है.
मैं झिझकते हुए विनोद जी के पास पहुंची और उन्हें अपना नाम बताया. विनोद जी शायद ड्यूटी चार्ट बनाती थीं क्योंकि नाम सुनते ही उन्होंने कहा कि हाँ, आज तुम्हें २१:५० का बुलेटिन पढ़ना है. मेरे होश उड़ गए. मैं आकाशवाणी की नियमित टॉकर ज़रूर थी मगर उसकी तो हमेशा रेकॉर्डिंग ही होती थी. कभी किसी लाइव कार्यक्रम में शामिल नहीं हुई थी. दूसरे, विनोद जी से बातें करते हुए दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि मुझे लग रहा था- उन्हें भी आवाज़ ज़रूर सुनाई दे रही होगी. मैंने कहा - मैं अभी बुलेटिन नहीं पढ़ सकूंगी.
उन्होंने पूछा - क्यों?
मैंने कहा - पहले काम सीख लूं, उसके बाद बुलेटिन पढूंगी.
कहने लगीं - ठीक है. देखो, वो सज्जन २१:५० का बुलेटिन बना रहे हैं, उनके साथ बैठकर सीखो.
जान बची तो लाखों पाए. मैंने फ़ौरन उन सज्जन को घेरा और उनसे बुलेटिन बनाने के गुर सीखना शुरू कर दिया. वे सज्जन शम्भू बहुगुणा थे और ज़्यादातर २१:५० का बुलेटिन वही बनाते थे, जो खाड़ी और अफ़्रीकी देशों के लिए प्रसारित होता था. बुलेटिन बनाना उन्होंने मुझे दो मिनट में सिखा दिया. पौने नौ के समाचारों की कापियां जमा करो और गत्तों पर लगा लो, फिर जब बुलेटिन शुरू हो तो रेडियो के पास बैठ जाओ और अपने गत्ते बुलेटिन के क्रम के अनुसार लगा लो. इस तरह १५ मिनट का बुलेटिन तैयार हो जायेगा. फिर जो-जो समाचार तुम्हें अच्छे न लगें, उन्हें फेंक दो, बस बन गया बुलेटिन.
वह तो अच्छा हुआ कि जल्द ही मेरा परिचय रविंदर सभरवाल से हो गया, जिन्होंने मुझे सही दिशा-निर्देश दिए, वर्ना मैं आज तक २१:५० ही बना रही होती. रविंदर जी ने मुझे शम्भू जी और २१:५० के बुलेटिन का एक रोचक संस्मरण सुनाया. हिंदी के समाचारवाचक आम तौर पर पाँच मिनट में लगभग साठ पंक्तियाँ पढ़ते हैं. कुछ लोग साठ से अधिक या कम भी पढ़ते हैं, लेकिन औसत गति यही होती है. दस मिनट के बुलेटिन में इससे दुगनी, लगभग १२० पंक्तियाँ तैयार की जाती हैं. हालाँकि उसमें आगे और पीछे मुख्य समाचार भी होते हैं इसलिए कुछ कम पंक्तियाँ पढ़ी जाती हैं लेकिन बुलेटिन बनाने वाले इस बात का ध्यान रखते हैं कि बुलेटिन शोर्ट न हो जाये, यानीकि पंक्तियाँ कम न पड़ जायें. एक बार की बात है कि शम्भू जी की टेलीफ़ोन वार्ता कुछ ज़्यादा ही लम्बी खिंच गयी. उनका बनाया २१:५० का बुलेटिन रविंदर जी को पढ़ना था. जब वे साढ़े नौ बजे तक भी फ़ोन के सम्मोहन से मुक्त नहीं हुए तो रविंदर जी ने उनसे बुलेटिन की मांग की. शम्भू जी ने पाँच मिनट तक विधिवत फोनस्थ मित्र से विदा ली और अगले पाँच मिनट के अंदर गत्तों पर पन्ने टाँककर बुलेटिन रविंदर जी के हवाले कर दिया. विदेश प्रसारण का स्टूडियो दूर था, रिहर्स करने का समय नहीं रह गया था, रविंदर जी बुलेटिन लेकर चली गयीं. इधर शम्भू जी रेडियो के साथ कान लगाकर बैठ गए. किसी ने पूछा - क्या बात है? आज बुलेटिन कैसे सुना जा रहा है?
तो शरारती हँसी हँसकर बोले - मैंने उसे दस मिनट के बुलेटिन में सिर्फ ७० लाइनें दी हैं, देखूं क्या करती है.
उधर, स्टूडियो में रविंदर जी के पसीने छूट गए. सत्तर पंक्तियों को धीरे धीरे पढ़कर और कुछ समाचारों को दोबारा पढ़कर किसी तरह समय पूरा किया.
यह किस्सा सुनाते हुए उन्होंने मुझे बताया कि केवल वाचन ही नहीं अनुवाद, संपादन जो कुछ भी करो, पूरे मनोयोग से करो और हर बुलेटिन को अपनी और आकाशवाणी की प्रतिष्ठा मानकर चलो. रविंदर जी आजकल वाचन नहीं करतीं लेकिन हिंदी समाचार कक्ष की वरिष्ठ और कर्मठ सदस्या हैं. मैं आज भी अगर कहीं अटकती हूँ तो सीधे उन्हीं के पास पहुँच जाती हूँ. वे सभी को खरी- खरी सुनाती हैं लेकिन शम्भू जी से हार गयीं, उन्हें कोई सुधार नहीं सका.
आप सोच रहे होंगे कि मैं बुलेटिन बनाने में क्यों उलझ गयी......वाचन का क्या हुआ? तो दोस्तो, हक़ीक़त यह है कि मैं तीन महीने तक बुलेटिन पढ़ने से बचती रही. फिर एक दिन विनोद जी ने मुझे डांटा कि आखिर तुम पढ़ने से भागती क्यों हो?
मैंने कह दिया - मुझे डर लगता है.
बोलीं - किस बात से डर लगता है?
मैंने कहा - इतनी बड़ी संस्था का इतना महत्त्वपूर्ण काम, कहीं मुझसे कोई ग़लती हो जाये तो?
कहने लगीं - अच्छा, मेरे साथ चलो.
मुझे लेकर न्यूज़ स्टूडियो में गयीं. पहले मुझसे कुछ पढ़वाया. फिर मुझे बताया कि माइक से कितनी दूरी रखूँ, किन अक्षरों का उच्चारण करते समय ध्यान रखूँ कि साँस माइक से न टकराए, साँस को कब और कैसे तोडूँ. उसके बाद पूरा बुलेटिन मुझसे पढ़वाया और खुद पैनल पर बैठकर सुना. जब संतुष्ट हो गयीं तभी मुझे छुट्टी दी.
कितने विशाल ह्रदय और विराट व्यक्तित्व थे वे सब. उन दिनों के हिंदी समाचार कक्ष को याद करती हूँ तो कितने सारे चित्र उभरते हैं.
अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन चुके देवकीनंदन पाण्डेय जी, ढीले पायजामे और काली शेरवानी में समाचारवाचक कम और शायर ज़्यादा लगते थे. कमरे में आकर अख़बार उठाते तो पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक बांचने के बाद ही उसे तह करते. नतीजा यह कि संपादक की कोई भी चूक उनकी पैनी निगाहों से हरगिज़ नहीं छिप सकती थी. बुलेटिन पढ़ते-पढ़ते भूल सुधार लेते, फेडर बंद कर संपादक को गाली देते और फिर फेडर खोलकर अगला समाचार पढ़ने लगते.
अशोक वाजपेयी जी अपनी भूलने की आदत की वजह से मशहूर थे. उनके बारे में एक क़िस्सा सुनाया जाता है कि एक दिन आते ही नाराज़ होने लगे कि ये क्या हो रहा है?.........सुबह का बुलेटिन एनाउन्सर से क्यों पढ़वाया गया? मैं घर में दाढ़ी बना रहा था, जब बुलेटिन शुरू हुआ. आवाज़ पहचान में नहीं आई तो मैंने ड्यूटी रूम में फ़ोन किया. उन्होंने बताया कि समाचारवाचक नहीं पहुंचे इसलिए उद्घोषक से पढ़वाया गया. किसकी ड्यूटी थी?
सब लोग चुप. जब किसी ने जवाब नहीं दिया तो उन्होंने खुद आगे बढ़कर ड्यूटी चार्ट देखा...वहां उन्हीं का नाम लिखा हुआ था.
इंदु वाही बहुत अच्छा गाती थीं, ये बहुत कम लोग जानते होंगे. अक्सर मेज़ पर बैठी गुनगुनाती रहती थीं लेकिन खुलकर शायद ही कभी गाया हो. मेरा बेटा शानू उस समय कोई पाँच बरस का रहा होगा. कोई नया गीत सीखकर आया था और चाहता था कि मैं फ़ौरन सुन लूं. मैं आकाशवाणी में थी. मैंने समझाने की कोशिश की कि घर आकर इत्मीनान से सुनूंगी लेकिन बाल हठ...."अभी सुनो" कहकर वो गाने लगा. इंदुजी ने इशारे से पूछा कि गा रहा है क्या. मैंने हाँ में सर हिलाया तो उन्होंने मेरे हाथ से फ़ोन ले लिया और गाना सुनने लगीं.
बाद में उन्होंने शानू से कहा - वाह भाई, आप तो बहुत अच्छा गाते हैं.
शानू भाई बोले - आप कौन हैं?
इंदुजी ने कहा - मैं आपकी इंदु वाही आंटी हूँ.
बोले - आंटी हैं तो गाना सुनाइये.
इंदुजी बोलीं - अभी यहाँ बहुत सारे लोग हैं. जब कोई नहीं होगा तब सुनाऊँगी.
शानू न्यूज़रूम देख चुके थे, बोले - वहां तो हमेशा बहुत सारे लोग रहते हैं तो आप कैसे गायेंगी? मुझे कुछ नहीं पता. आपको अभी गाना पड़ेगा.
और वाक़ई इंदु जी को गाना पड़ा.
कृष्ण कुमार भार्गव जी थोड़ा सा अनुरोध करते ही गा दिया करते थे. गाना हमेशा एक ही होता था -
ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवाँ .........
और सचमुच भार्गव जी अब तक जवानों जैसे सक्रिय बने हुए हैं. वर्षों पूर्व अवकाश ग्रहण कर चुकने के बावजूद नियमित रूप से एफ़ एम गोल्ड का मार्केट मंत्र कार्यक्रम तो करते ही हैं, गाहे-बगाहे खेलों का आँखों देखा हाल भी सुनाते हैं.
चलते-चलते एक बात और याद आ गयी. अब से कोई दस साल पहले हमारे हिंदी समाचार कक्ष में सभी प्रमुख पार्श्वगायकों की आवाजें मिल जाया करती थीं. हरी संधू रफ़ी साहब के ज़बरदस्त फैन हैं और हूबहू उनकी आवाज़ में गा सकते हैं. राजेन्द्र चुघ सही मूड में हों तो मुकेश के गाने सुनाते हैं. संजय बैनर्जी के पीछे पड़-पड़ कर मैंने उन्हें हेमंत दा के दो चार गाने रटवा दिए थे और वो भी महफ़िल से उठकर जाने वालों को "बेक़रार करके हमें यूँ न जाइये" सुनाने लगे थे.
एक दिन कहने लगे - क्यों हम सिर्फ हेमंत कुमार ही क्यों गायेंगे? हम मोहम्मद रफ़ी भी गायेंगे.
हमने कहा - ठीक है, रियाज़ करके आओ. सुनकर बतायेंगे.
दो-चार दिन बाद मैं और हरी संधू समाचार प्रभात पढ़कर वापस न्यूज़ रूम में आकर बैठे ही थे कि संजय सामने आकर खड़े हो गए और दोनों आँखे बंद कर, हाथ फैला कर गाने लगे - चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे ......
मैं पर्स में हाथ डालकर चाय के लिए पैसे निकाल रही थी. मैंने एक चवन्नी संजय के हाथ पर रखी और कहा - बस बाबा, आगे बढ़ो.
इतने ज़ोर का ठहाका लगा कि ड्यूटी रूम से लोग घबड़ाकर भागे आये. लेकिन उसमें मेरा और संजय का भी पूरा-पूरा योगदान था.
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संबधित कड़ियाँ:
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